कोरोना कोविड 19 की इस त्रासदी के बीच पीएम केयर्स फंड के
अनसुलझे फंडे का जो विवाद हुआ वो वाकई अनुचित था। ठोस चीजें और व्यावहारिक जवाबों
को सामने रखकर सरकार तुरंत इस विवाद को समाप्त कर सकती थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
महामारी के इस दौर में सरकारी लापरवाहियों और हैरान-परेशान भारत को संभालने की
प्रशासनिक चूक का काफिला फिलहाल तो वहां जा पहुंचा है, जहां लोग कहते-लिखते हैं कि
पीएम केयर्स फंड की राशि गुरुद्वारों को दी जाती तो वे लोग चिकित्सकों और
स्वास्थ्य कर्मियों के बाद सबसे बढ़िया काम करके दिखा देते, सरकार से भी बढ़िया।
कहा-लिखा जा रहा हैं कि अनेक शहरों में गुरुद्वारा महीने भर से बिना प्रचार-प्रसार किए
हर दिन सैकड़ों लोगों को खाना खिलाते हैं, पीएम केयर्स फंड का दान इन्हें जाता तो सरकार
से हजारों गुना बेहतर सेवा दे सकते थे।
वैसे
इस मुद्दे पर जो कुछ विवाद हुआ उसकी ज़रूरत थी ही नहीं। जो सवाल उठे उसके व्यावहारिक
और पारदर्शी जवाब दे दिए जाते तो फिर यह मामला चंद दिनों में सिमट सकता था। सरकार अलग-अलग
उद्देश्य से बहुत सारे फंड शुरू करती है, उसमें कोई विवाद नहीं होना चाहिए था। इसका
अंत जल्द हो सकता था, अगर सरकार और विपक्ष, दोनों चाहते तो। नेहरू, इंदिरा, राजीव
से लेकर सोनिया तक में राष्ट्रीय राहत कोष को लेकर पारदर्शी तरीके से ऑडिट हुआ हो, आपदा विशेष
की आय और खर्च का पूरा ब्यौरा जनता को दिया गया हो, ऐसे कोई मामले हुए हो तो मुझे
नहीं पता। किंतु उस जमाने में भी सवाल उठते रहते थे, जो आज उठ रहे है। इस लेख का
मूल मकसद यह भी है कि हम किसी व्यक्ति विशेष या पार्टी विशेष के मेंढक बनने के
बजाय देश के नागरिक बने और जो व्यवस्थाएँ देशहित के नाम पर चल रही हो उसके बारे में
ज्यादा से ज्यादा जाने, उसे सही तरीके से परखे, उससे जुड़े सवालों को समझे और तमाम
सरकारों के रवैये की समीक्षा करते रहे।
जब पहले से ही राष्ट्रीय
राहत कोष था तो फिर उसे डस्टबिन में डालकर एक नयी व्यवस्था क्यों खड़ी की गई? ऑडिट के मायाजाल के सामने यह बुनियादी सवाल छिप गया
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मार्च 2020 को कोविड 19 की त्रासदी के बीच अचानक ही इस नये ढांचे के गठन का एलान
हुआ। कैबिनेट ने इसका गठन किया। नाम रखा गया पीएम केयर्स ट्रस्ट। प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी चेयरपर्सन और वरिष्ठ कैबिनेट सदस्य इसके ट्रस्टी बने। सरकार द्वारा अचानक
उठाए गए इस कदम को लेकर सबसे पहला बुनियादी सवाल उठा। गौर करे कि यह बुनियादी सवाल
था। सवाल उठा कि जब पहले से ही प्रधानमंत्री का राष्ट्रीय राहत कोष मौजूद है, जिसे
PMNRF कहा जाता है, तो फिर एकदम नयी व्यवस्था की ज़रूरत ही क्या
थी? ऐसी चुनौतियों से जूझने के लिए आज़ादी के छह महीने बाद ही जनवरी 1948 में प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष का गठन कर दिया
गया था। राष्ट्रीय राहत कोष वही काम करता है जो पीएम केयर्स ट्रस्ट को सोंपा गया
है। यूं कहे कि पीएम केयर्स ट्रस्ट पीएमएनआरएफ की फ़ोटो कॉपी है। किसी आपदा के लिए
देश में एक ठोस, पुरानी, जानी-पहचानी व्यवस्था हो, तो फिर उससे हटके एक दूसरी नयी
व्यवस्था क्यों बनाई गई यह सवाल तो उठना ही था। महीना बीत गया है लेकिन इसका सीधा
और व्यवहारिक जवाब ना ही पीएम मोदी ने दिया है, ना ही किसी मंत्री ने। रही बात
लोगों की, व्हाट्सएप विश्वविद्यालय में ऐसी चीजों को लेकर बात करना पाप माना जाता
है!
आयकर
क़ानून 1961 के अनुसार, दोनों फंड को धर्मार्थ (चैरिटेबल) ट्रस्ट का दर्ज़ा हासिल है।
दोनों फंड में सिर्फ़ दानदाताओं से प्राप्त चन्दे को ही रखा जा सकता है। दोनों फंड
ग़ैर-सरकारी श्रेणी के हैं। हालाँकि दोनों के इस्तेमाल की शक्ति प्रधानमंत्री के ही
पास है। लेकिन दोनों फंड में कोई सरकारी धन नहीं डाला जा सकता। दोनों फंड को FCRA (विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम, 2010) की रोक-टोक से छूट हासिल
है। दोनों फंड में दी जाने वाली रक़म को आयकर क़ानून की धारा 80-G से छूट हासिल है। दोनों फंड
में सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) पॉलिसी की रक़म भी डाली जा सकती है। कंपनी
अधिनियम 2013 की धारा 135 के अनुसार हरेक कॉरपोरेट कम्पनी सीएसआर पॉलिसी
से बँधी हुई है। इसके तहत उसके लिए बीते वित्तीय वर्ष के मुनाफ़े में से दो फ़ीसदी
रक़म सामाजिक कार्यों पर ख़र्च करना अनिवार्य है। संविधान के अनुच्छेद 267 के ज़रिये
केन्द्र और राज्य सरकारों को विशेष आपदा फंड बनाने का अधिकार हासिल है। ऐसे फंड को
संसद और विधानसभा की अनुमति लेकर बनाया जा सकता है। इसमें सरकारी धन का अंशदान भी किया
जा सकता है। ये अंशदान बाक़ायदा बजट का हिस्सा समझा जाएगा। इसके इस्तेमाल का ऑडिट करने
का दायित्व स्वाभाविक तौर पर सीएजी के पास ही होगा। लिहाज़ा, ग़ौर करने की बात यह है कि
चाहे नेहरू वाला फंड हो या मोदी वाला, दोनों ही अनुच्छेद 267 के दायरे में नहीं आते।
कुछेक
फर्क ज़रूर है। मसलन, PMNRF के इस्तेमाल
की सारी शक्तियाँ प्रधानमंत्री कार्यालय के पास हैं। जबकि PM CARES फंड
के मामले में यही शक्तियाँ पदेन ट्रस्टियों के समूह को दी गयी है। जो भी देश का प्रधानमंत्री
होगा वो अपने आप ही पीएम केयर्स फंड के ट्रस्टियों का मुखिया होगा। इसी तरह केन्द्रीय
वित्त मंत्री, गृह मंत्री और रक्षा मंत्री भी ख़ुद-ब-ख़ुद ट्रस्टी बनते रहेंगे। प्रधानमंत्री
के पास इसके तीन ट्रस्टियों को मनोनीत करने का भी अधिकार होगा। मनोनीत ट्रस्टी का रिसर्च,
स्वास्थ्य, विज्ञान, सामाजिक कार्य, क़ानून, लोक प्रशासन और जनहित के क्षेत्र में सक्रिय रहने वाला नामचीन
व्यक्ति होना ज़रूरी है। इस तरह, राज्यसभा के लिए मनोनीत होने वालों के मुक़ाबले पीएम केयर्स
फंड के ट्रस्टियों के मनोनयन का दायरा कहीं ज़्यादा व्यापक है। दोनों फंड के बीच अगला
अन्तर यह है कि PM CARES में जहाँ न्यूनतम 10 रुपये
जमा किये जा सकते हैं, वहीं PMNRF
के लिए यह सीमा 100 रुपये की है। एक बड़ा
और नया अंतर है विदेशी सहाय को लेकर। अब तक भारत की नीति रही है कि आपदाओं में
विदेशी सहाय नहीं ली जा सकती। पार्टी फंड के लिए विदेशी राशि मोस्ट वेलकम है, लेकिन
आपदा के लिए नहीं!!! लेकिन अब की बार यह नियम
रद्द हो चुका है। अब विदेशी राशि भी वेलकम है। लेकिन ज्यादातर तो ऊपर के पैरा में लिखा
वैसे, पीएम केयर्स ट्रस्ट पीएमएनआरएफ की फ़ोटो कॉपी है। सबसे बड़ा जो फर्क है (जो
हमने नहीं लिखा है) वो समूचे देश को पता है, किंतु यह फर्क राजनीति के अंतिम और
निचले स्तर तक पहुंचने की कवायदभर है।
सवाल
बुनियादी था, लेकिन किसी भी सत्ता को सवाल नहीं पसंद होते यह सालों पुराना सच है। लिहाजा इस
बुनियादी सवाल का कोई जवाब किसीने नहीं दिया है। महीनों के बाद जवाब देंगे तो फिर
सवाल उठेगा कि तब क्यों नहीं दिया, जब विवाद हो रहा था? अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि जब भी जवाब मिलेगा तब
वो जवाब हास्यास्पद और अतार्किक ही होगा। जब आपके पास ऐसी किसी आपदा के लिए दान
जुटाने के लिए एक ढांचा पहले से ही है तो फिर आप इसी काम के लिए दूसरे ढांचे का
निर्माण करके विवाद ही खड़ा करेंगे। उपरांत दूसरी बुनियादी बात यह भी है कि
प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष, जो पहले से ही मौजूद है, उसका सबको पता है। जो
सदैव मदद करते है, दान देते रहते है, उन्हें पता है कि प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत
कोष में कैसे दान देना है, उसका वेबसाइट कौन सा है, चेक भेजना हो तो कहां भेजना है,
किसके नाम पर भेजना है। जो चीज़ सबको पता है उस चीज़ को आप डस्टबिन में डाल देते है
और उसकी जगह नये नाम से नयी व्यवस्था लगा देते है, तो फिर अज्ञान वाली अराजकता तो
फैलेगी ही, साथ ही शरारती व खुराफाती लोग इसका फायदा भी उठाएंगे, यह जोख़िम तो है
ही। इतनी बेसिक बात सरकार ने नहीं सोची तो फिर यह खयाल आना ही था कि यह सरकार है या
गली-मोहल्ले के कलाकार?
और
इस कलाकारी के साइड इफेक्ट का सबसे बड़ा उदाहरण महाराष्ट्र बीजेपी के नेताओं ने ही
पेश कर दिया। महाराष्ट्र बीजेपी के नेताओं ने, नोट करे कि दिग्गज नेताओं ने, फंड जुटाने के लिए एक लिंक
शेयर किया। लिंक इन्होंने इसलिए शेयर किया ताकि लोगों को इसके बारे में अवगत कराया जा
सके। यूं कहे कि लोगों तक जानकारी पहुंचायी जा सके। लेकिन इन नेताओं ने जो लिंक शेयर
किया वह फर्जी था!!! लिंक शेयर करनेवालों में राज्य की पूर्ववर्ती बीजेपी सरकार के
मंत्री सरीखे नेता भी शामिल थे! बड़े बड़े नेताओं ने इस फर्जी लिंक को शेयर किया था!
लोगों को जानकारी देने के लिए!!! लाजमी है कि जो व्यवस्था सालों से है उसे डस्टबिन
में डालकर आप त्रासदी के समय ही नयी व्यवस्था की कलाकारी करेंगे तो फिर यह होगा
ही।
एक
दूसरा मामला भी सरकार की इस कलाकारी के साथ उठ खड़ा हुआ। पहले से जो व्यवस्था
मौजूद है उसे डस्टबिन में डालकर आप नयी व्यवस्था बनाते है तो फिर उस स्थिति में
आपको लोगों तक इस नयी व्यवस्था की जानकारी पहुंचाने के लिए विज्ञापनों और
प्रचार-प्रसार में पैसे खर्च करने पड़ेंगे। वर्ना वही होगा जो महाराष्ट्र बीजेपी
नेताओं के साथ हुआ और फिर उन्होंने लोगों के साथ किया। बताइए, एक तो आपके पास बहुत
ही कम पैसे बचे है और ऊपर से आप नयी नवेली व्यवस्था बनाते है और फिर व्यवस्था नयी
है इसलिए लोगों तक जानकारी पहुंचाने की मजबूरी में आप अधिक पैसे भी खर्च कर डालते
है!!! यह सरकार है या कलाकार? इससे
तो अच्छा होता कि जो व्यवस्था पहले से ही सार्वजनिक थी उस पर थोड़ा प्रयास कर लेते,
तो फिर ना ही अराजकता फैलती और ना ही अज्ञानता दूर करने के लिए लोगों के ही पैसे
विज्ञापन, प्रचार, प्रसार में डालने पड़ते।
इस
मसले से एक दूसरा मसला भी जुड़ गया। दरअसल जब भी मोदी सत्ता विज्ञापन पे उतारु
होती है तो फिर ना इधर देखती है और ना ही उघर!
लक्ष्य सेल्फ प्रेजेंटेशन का ही होता है!
सेल्फ प्रेजेंटेशन की इस राजनीति में राज्यों के राहत कोष बेचारे बन गए। राज्यों
को भी अपने लोगों से, स्थानिक संस्थानों से, स्थानिक उद्योगपतियों से दान चाहिए
था। लेकिन पीएम केयर्स फंड आगे निकल गया, राज्य राहत कोष बेचारे रह गए। कई राज्यों
के मुख्यमंत्रियों ने अपने राज्य राहत कोष से अधिक पीएम केयर्स फंड को तरजीह दिए जाने
पर सवाल खड़ा किया। मुख्यमंत्री राहत कोष में जो पैसे दिए जा सकते थे, वे पीएम केयर्स
को चले जाने लगे। यानी जिस त्रासदी का स्थानिक स्तर से इलाज होना चाहिए था उसका
सारा फंड केंद्र के पास जाने लगा! केंद्रीकरण और
विकेंद्रीकरण का मसला सर उठाने लगा, और फिर इसके साइड इफेक्ट देखे भी गए थे।
अलग
कोष क्यों यह बुनियादी सवाल था। ऑडिट हो सकता है या नहीं हो सकता यह तो टेंपररी मामला
था। कल को सरकार सीएजी से कहकर ऑडिट करवा भी लेगी फिर क्या? सीएजी के ऑडिट का
इतिहास सबको पता है, जहां अंत में सुप्रीम कोर्ट समूचे महाभारत को महज एक दोषपूर्ण
आकलन भी बता देता है। ऑडिट वगैरा लचीला विषय है, बुनियादी सवाल इस लचीले विषय के
सामने दम तोड़ता नजर आया। लगा कि नयी व्यवस्था बनाने की ज़रूरत हो या ना हो, सनक
ज़रूर रही होगी।
सरकार ने नये कोष के गठन
के सवाल को लेकर एक वाक्य का जो जवाब दिया वो तर्क से परे ही था
नये कोष के गठन को लेकर सरकार ने एक ही वाक्य का जवाब
दिया। लेकिन जवाब ऐसा जिसे हास्यास्पद और अतार्किक वाली श्रेणी में डालना पड़े। नये
कोष का गठन क्यों, यह बुनियादी सवाल कई बार पूछा गया। अनेकों बार पूछने के बाद
आखिरकार सरकार ने इसका जवाब दिया। केवल एक वाक्य में जवाब दिया। जवाब यह मिला कि, “PMNRF का सम्बन्ध सभी तरह की आपदाओं से है, जबकि PM CARES को
ख़ास तौर पर कोरोना संकट को देखते हुए बनाया गया है।” अब यह जवाब अतार्किक ही था। राष्ट्रीय राहत कोष ऐसी
आपदाओं के लिए ही गठित किया गया था। सरकार का यह जवाब वाकई हास्यास्पद है कि कोई
विशेष आपदा के लिए पहले से निर्मित ढांचे को डस्टबिन में डाल दो और नयी व्यवस्था
खड़ी कर दो। इससे क्या फर्क पड़ेगा? सरकार का जवाब पुरी तरह से गलत और भ्रामक था।
राष्ट्रीय
राहत कोष के वेबसाइट पर साफ़-साफ़ लिखा है कि इस फंड का इस्तेमाल किसी भी ‘प्राकृतिक आपदा’ में राहत और बचाव के लिए होगा।
अब सवाल यह बचा कि क्या कोरोना की आफ़त को ‘प्राकृतिक आपदा’ का दर्ज़ा हासिल नहीं है? बिल्कुल
है। पूरी तरह से है। लॉकडाउन के वक़्त से ही मोदी सरकार ने आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 को लागू कर रखा है। इसी के मुताबिक़ केन्द्र सरकार की हिदायतों
का पालन करना राज्यों के लिए अनिवार्य बनाया गया है। सरकार के पास सत्ता है और वो
कर सकती है, सो उसने किया। लेकिन इस गैरज़रूरी कदम से सरकार खुद ही सरकार की जगह
चालाक कलाकार बनती नजर आने लगी।
पीएम केयर्स फंड का ऑडिट हो सकता है, नहीं हो
सकता... जिसने जो चाहा मान लिया, असमंजस जारी था लेकिन उधर सरकार ने फंड के ऑडिट की
माथापच्ची को लेकर एक भी शब्द नहीं बोला
नुक्कड़
वाले भारत में सालों से एक बात कही जाती है। बात यह कि राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर
फंड की जो व्यवस्थाएँ होती है उसमें ज्यादातर तो वही लोग मदद के नाम पर पैसे
डालते हैं, जिन्हें बाद में सरकार की तरफ से किसी दूसरी मदद की उम्मीद होती है! वैसे आम जनता, गैर सरकारी संस्थान भी डालते हैं पैसे, लेकिन
राशि की तुलना और रिसर्च यही बताता है कि किसी दूसरी मदद की उम्मीद में मदद
करनेवालों के मामले ज्यादा होते हैं! नुक्कड़
की बात छोड़ भी दे तब भी एक बहुत ही सिंपल सी बात है। स्थानिक स्तर पर भी जब कोई
100-200 रुपये की मदद किसी स्थानिक सेवाकार्य के लिए भी करता है तब भी उसके दिमाग
में एक बात ज़रूर उठती है कि उसने जो राशि दी है उसका इस्तेमाल उसी कार्य के लिए
हो, जिसके लिए उसने मदद दी है। राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर जो व्यवस्थाएँ है उसके
लिए साफ-सुथरे और पारदर्शी ऑडिट की व्यवस्था ज़रूर होनी चाहिए। क्योंकि यह किसी
एक सरकार की बात नहीं है। सरकारें तो आएगी-जाएगी, राहत कोष तो वहीं का वहीं रहेगा। कुछ
सालों पहले एक रिसर्च आया था जिसमें दावा किया गया था कि कई राज्यों के राहत कोष अविश्वास
की वजह से हर बार खाली रह जाते है, क्योंकि उसका पारदर्शी तरीके से ऑडिट नहीं होता।
अलग
कोष क्यों यह बुनियादी सवाल था, जिसके जवाब नहीं मिल पाए। आपदाओं के दौरान पैसे का इंतज़ाम
करने के लिए पहले से ही मौजूद प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष के रहते हुए अलग कोष
के गठन पर अंगुलियाँ उठी। जिस समय पीएम केयर्स फंड का गठन हुआ, पीएम रिलीफ़ फंड में
3,800 करोड़ रुपए जमा थे। यहीं से दूसरा और सबसे बड़ा सवाल
उठा। खबरें आने लगी कि यह जो पीएम केयर्स फंड है उसका ऑडिट नहीं हो सकता। हालांकि यह खबरें आधी-अधूरी थी यह नोट करे।
हमारे पास जो जानकारी है उसके आधार पर हम पहले ही स्पष्ट कर देते है प्रधानमंत्री
राष्ट्रीय राहत कोष का भी ऑडिट सीएजी नहीं करता, किंतु सरकार
से से पूछ सकता है कि उसने किस मदद में मिले पैसे का कहाँ और कैसे उपयोग किया। उत्तराखंड
में 2013 में आई बाढ़ के बाद मदद के नाम पर एकत्रित हुए पैसे के मामले में सीएजी ने
यह सवाल पूछा था।
स्पष्ट
लफ्जों में लिखे तो, प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष हो या पीएम केयर्स ट्रस्ट,
दोनों का ऑडिट
सीएजी नहीं करता, जब तक उसे कहा ना जाए। यानी कि दोनों का ऑडिट सरकार चाहे तो करवा
सकती है और चाहे तो नहीं करवा सकती। साथ में सरकार चाहे तो सीएजी से भी ऑडिट करवा
सकती है या फिर एक मनचाहे चार्टर्ड अकाउंटेंट से भी। दोनों में यही नियम विद्यमान है। दोनों में सब सरकार की इच्छा पर निर्भर
है। कार्रवाई के नाम पर सवाल-जवाब वाला प्रदर्शन ज़रूर हो सकता है, लेकिन ऑडिट करना
एक अलग विषय है। एनडीटीवी इंडिया में छपी एक रिपोर्ट की माने तो सीएजी के एक वरिष्ठर
अधिकारी ने पीएम केयर्स ट्रस्ट मामले को लेकर कहा कि, "जब तक ट्रस्टी हमसे ऑडिट करने के लिए नहीं कहेंगे, हम
खातों का ऑडिट नहीं करेंगे।" रिपोर्ट में वरिष्ठ अधिकारी के हवाले से लिखा
गया था कि, “चूँकि यह फंड व्यक्तियों और संगठनों के दान पर आधारित
है, इसलिए सीएजी को इस चैरिटेबल ट्रस्ट के ऑडिट का कोई अधिकार
नहीं है।” वहीं इसी रिपोर्ट में
एक जगह एक दूसरे अधिकारी के हवाले से यह भी लिखा गया था कि, “पीएम केयर्स फंड का स्वतंत्र
लेखा परीक्षकों द्वारा ऑडिट किया जाएगा।”
रही बात सवाल पूछने की, सीएजी ने उत्तराखंड बाढ़ 2013
के मामले में सवाल पूछा था। सवाल पूछने से किसीने नहीं रोका था। सवाल पूछा और फिर
क्या जवाब मिले, कितने मिले, पूरे जवाब मिले या अधूरे जवाब मिले, यह तो सीएजी को
पता होगा!
सवाल-जवाब और ऑडिट में भी उतना ही अंतर है, जितना गोसीप और डिबेट में होता है! सीएजी द्वारा ऑडिट
होना, फिर एक आकलन का तैयार होना, उस आकलन को लेकर महाभारत जितनी बड़ी माथापच्ची
और फिर सालों बाद अप्रत्यक्ष रूप से साबित होना कि वह एक दोषपूर्ण आकलन था!!! तब तक तो देश कई
माथापच्चीयों से गुजर चुका होता है!
पीएम केयर्स फंड... क्या कनपटी पर तमंचा तानकर दान लिया जा सकता है? जबरन वेतन कटौती और ठीक उसी समय बदनाम उद्योगपतियों की कर्ज़ माफ़ी और सुपर रिच
टैक्स का विवाद
बताइए, पीएम खुद
कहते हैं कि कोई भी मालिक अपने कर्मचारियों का वेतन न काटे और एडवांस की ज़रूरत हो
तो एडवांस भी दे और यह कहते हुए पीएम साहब ने लाखों कर्मचारियों के वेतन और दूसरे
भत्ते काट लिए!!! ना बैंकों के हफ्ते रुके, ना स्कूल की फिस, ना बिजली के बिल
रुके!!! ऊपर से कालाबाजारी ने किराने और सब्जी के दाम बढ़ा दिए। ऊपर से कनपटी पर तमंचा रखकर दान ले लिया गया। जिनकी कनपटी पर तमंचा तानकर दान
मांगा जा रहा था वे लोग तो यह भी पूछ नहीं सकते कि उद्योगपतियों के 68,607 करोड़ के कर्ज़ माफ़ करने की ताकत है तो फिर काहे कों लोगों से भीख और
हमसे लूंट मांग रहे हो।
पीएम केयर्स फंड
के लिए उद्योगपतियों, सेलेब्स आदि से दान देने की अपील की गई और उन्होंने दिया भी।
इसके लिए उनका धन्यवाद बनता है। अरे भाई, हमने नहीं दिया और उन्होंने दिया तो
धन्यवाद देना तो बनता ही है। किंतु राज्य स्तर या राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी
व्यवस्थाओं को लेकर नुक्कड़ वाले भारत में जो बातें होती रहती हैं उसे हमने ऊपर ही
लिख दिया है। उन बातों को आप खुद ही समझ लीजिएगा। किंतु कनपटी पर तमंचा तानकर
देशहित के लिए दान लेने का यह फैशन बिलकुल उस पॉलिटिकल फंडिंग फैशन जैसा लगा। चुनाव
आते हैं तब पार्टियां छोटे-मोटे लोगों से जबरन दान लेती है। यहां भी यही फैशन चल
पड़ा। मुख्य सचिव ने सभी सचिवों से अपील की कि वे सभी सार्वजनिक उपक्रमों के कर्मचारियों
से दान देने को कहें। अब यह इतनी सीधी सी बात तो है नहीं। हमारे यहां हमने तो कई
बार देखा और विश्वासपात्र व्यक्तियों से सुना है कि किसी गैरज़रूरी फंक्शन के लिए
जबरन दान लिया जाता है। इस प्रक्रिया में ऊपर का अधिकारी अपने कर्मचारियों से दान
देने की अपील करता है। अब यह अपील दरअसल अपील नहीं बल्कि आदेश ही होता है! क्योंकि किसने अपील को माना और किसने नहीं माना यह भी रिसर्च होता है और
रिसर्च के बाद किस-किस तरह से कार्रवाईयां होती होगी यह तो मैट्रिक पास भी समझ
सकता है।
आम जनता के लिए PM CARES और PMNRF, दोनों ही फंड में दान या अंशदान देना पूरी तरह से स्वैच्छिक है। लेकिन सरकार
ने बाद में नीतियों में बदलाव करके इस ‘स्वैच्छिक’ का चरित्र बदल दिया। 17 अप्रैल को केन्द्रीय वित्त मंत्रालय की ओर से जारी हुए
सर्कुलर में सरकारी कर्मचारियों से अपील की गई थी कि वो मार्च 2021 तक हर महीने अपनी
एक दिन की तनख़्वाह को PM CARES फंड में दान करें। इसी सर्कुलर में यह भी लिखा था कि, “जो कर्मचारी स्वेच्छा से दान करना चाहते हैं
वो अपने वेतन-विभाग को इसकी लिखित अनुमति दें।” लेकिन 12 दिन बाद 29 अप्रैल को राजस्व सचिव ने पिछले सर्कुलर में रद्दोबदल करके
यह लिख दिया कि, “जो कर्मचारी स्वेच्छा से दान नहीं करना चाहते हैं वो अपने वेतन-विभाग को लिखित
में सूचना दें।”
साफ़ है कि बहुत चतुराई
से और चुटकी बजाकर सरकार ने ‘नहीं’ शब्द का इस्तेमाल करके व्यावहारिक तौर पर PM CARES फंड को भरने का रास्ता बना लिया! इस सर्कुलर का कमाल
यह रहा कि अप्रैल से ही कर्मचारियों के वेतन में एक दिन की कटौती लागू हो गई। अब जिसे
अपनी तनख़्वाह नहीं कटवानी, जिसे ज़बरन दान देने से ऐतराज़ है वो अपने वेतन-विभाग को लिखकर
दे और कटौती रुकवाए। अब यह जोख़िम कौन लेगा, क्योंकि ऐसा करने के बाद जो जोख़िम
है वो उन्हें पता है। सरकार ने एक तरीके से कनपटी पर तमंचा रख दिया और कहा कि कृपया
दान दे, ना दे तो चलेगा!
इससे सरकार ख़ुश है
कि उसकी अपील को देखते हुए हरेक कर्मचारी कथित ‘स्वेच्छापूर्वक’ क़ुर्बानी दे रहे हैं! PMNRF के लिए कभी भी ऐसी
कोशिश नहीं की गई। हालाँकि, अतीत में भी अनेक आपदाओं के वक़्त सरकारें अपने कर्मचारियों
से वेतन-दान देने की अपील करती रही हैं, लेकिन पिछले दरवाज़े
से होने वाली ज़बरन कटौती का खेल पहले कभी नहीं हुआ। दिलचस्प बात यह भी है कि सरकार
की इस ‘चाल’ के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में भी गुहार लगाई गई, लेकिन वो वेतन-कटौती में दख़ल देने से मुकर गया। ज़ाहिर है, इससे सरकार को अपने सर्कुलर को ‘न्यायिक’ मानने की सहूलियत मिल गई।
द टेलिग्राफ का रिपोर्ट, पीएम केयर्स फंड में कितनी राशि जमा हुई, इस्तेमाल हो
रहा है या नहीं, पीएमओ को पूछा तो जवाब मिला – जानकारी नहीं है
यह खबर 5 मई यानी
आज के ही दिन गुजरात के स्थानिक अखबार संदेश में छपी है, जबकि एक दिन पहले द
टेलिग्राफ ने भी इस रिपोर्ट को कवर किया था। यह वोह समय था जब भारतीय रेल्वे प्रति
टिकट 50 रुपयें का किराया वसूल रहा था! कर्णाटक की भाजपा
सरकार ने वतन वापसी कर रहे मजदूरों से दोगुना किराया वसूलने का प्रस्ताव रख दिया
था! इसके पीछे तर्क यह रखा कि जिन वाहनों से
लोगों को पहुंचाया जाएगा वे वाहन आएंगे तो खाली ही, लिहाजा इसका किराया भी वसूलना
चाहिए!!! बताइए, लाखो-करोड़ों का दान कोविड 19 के नाम पर इकठ्ठा
करने के बाद, कनपटी पर गन तानकर सरकारी कर्मचारियों से वैतन कटौती के नाम पर पैसे
वसूलने के बाद भी, भारत की सरकार हैरान-परेशान लोगों से दोगुना किराया वसूलने की ‘प्रोफेशनल’ बातें कर रही थी!!! मकान मालिक किराया ना मांगे, साहूकार सैलरी ना काटे, लेकिन हम मजदूरों से रेल भाड़ा
ज़रूर ले लेंगे!!! इस प्रकार की ‘आर्थिक समझदारी’ के बीच पीएम
केयर्स ट्रस्ट के अनसुलझे फंडे ने सबको ज्यादा उलझा दिया।
पीएम केयर्स फंड
को लेकर पहले से ही विवाद हो रहे थे, ढेरों सवाल उठ रहे थे, बातें हो रही थी। इसे
पारदर्शिता से परे, पक्षपाती माना जा रहा था। ‘सेल्फ प्रेजेंटेशन’ वाला मोदीजी का
प्रिय दृष्टिकोण इसमें ठूंस-ठूंस कर भरा हुआ था। महीना बीत चुका था। फंसे हुए
लोगों की दिल दहलानेवाली कहानियां दिनभर सुनने-पढ़ने-देखने को मिलती थी। बिना किसी
आमदनी के लाखों प्रवासी कोरोना से कम बल्कि जिंदा रहने के लिए ज्यादा गंभीर जंग
लड़ रहे थे। और इधर सरकार दोगुना किराया वसूलने का ‘प्रोफेशनल’ अंदाज धारण करके मैदान में डटी थी! वाकई गजब स्थिति थी इन दिनों! इन हालातों में
पीएम केयर्स फंड में जो भी राशि जमा हुई हो उसका जमकर और दिल खोलकर इस्तेमाल होना
चाहिए था। क्योंकि इसीलिए तो लोगों ने दान दिया था।
द टेलिग्राफ के
रिपोर्ट की माने तो अब तक पीएमओ ने वेबसाइट के जरिए बताया ही नहीं था कि पीएम
केयर्स फंड में से कितनी राशि प्रवासी मजदूरों की समस्याओं पर खर्च की गई है,
किराये की राशि इस फंड में से दी गई है या नहीं दी गई, दी जाएगी या नहीं दी जाएगी,
कोई जानकारी वेबसाइट पर नहीं थी! हो सकता है कि
बाद में कोई जानकारी सरकार दे, लेकिन आज के दिन तक तो कोई जानकारी साइट पर नहीं थी,
जबकि महीने से ज्यादा का समय बीत चुका था। इतना ही नहीं, द टेलिग्राफ की रिपोर्ट के
मुताबिक पीएमओ को भी नहीं पता था कि पीएम केयर्स फंड में अब तक कितनी राशि इक्ठ्ठा
हुई है, कितनी राशि किस कार्य के लिए खर्च हो रही है!!! द टेलिग्राफ के रिपोर्ट की माने तो उन्होंने पीएमओ से जुड़े एक अधिकारी को इस
संबंध में जानकारी मांगने के लिए फोन किया तो जवाब मिला कि जानकारी नहीं है!!! अधिकारी ने जवाब दिया कि जानकारी नहीं है,
साथ ही वेबसाइट पर भी कोई जानकारी डाली नहीं गई थी अब तक! खैर, कभी न कभी तो जानकारी डालेंगे साइट पर, या फिर कभी न कभी कह देगी सरकार
कि फलांना फलांना में इतने करोड़ दिए जाते हैं। जानकारी समाप्त... !!!
नए कोष का गठन क्यों,
ऑडिट होगा या नहीं होगा यह सब दूर की कौड़ी है, फिलहाल तो पीएमओ ने इससे जुड़ी
जानकारी सार्वजनिक करने से ही इनकार कर दिया
जब पहले से राष्ट्रीय राहत कोष है तो फिर नए कोष का
गठन क्यों, ऑडिट होगा या नहीं होगा, कैसे होगा... इन सब विवादों पर सफाई देने की
बात तो दूर रही, इधर सरकार ने इसी विवाद के बीच पीएम केयर्स ट्रस्ट से जुड़ी
जानकारी सार्वजनिक करने से ही इनकार कर दिया! पारर्दशिता वगैरा दूबक कर बैठ गई! जो चीज़ देशहित के लिए
है उस पर ही पारदर्शिता की जगह रहस्य को उभारने की सरकारी नीति सवालों के घेरे में
आनी ही थी। 'द वायर' की एक ख़बर के अनुसार पर्यावरण कार्यकर्ता विक्रांत तोगड़
ने 21 अप्रैल 2020 को एक आरटीआई आवेदन दे कर पीएमओ से पीएम केयर्स से जुड़े कुछ सवाल
पूछे। पीएमओ ने सिर्फ 6 दिन के अंदर, यानी 27 अप्रैल 2020 को इसके जवाब में कहा कि
पूछे गए सवाल अलग-अलग विषयों से जुड़े हुए हैं इसलिए उनका उत्तर नहीं दिया जा सकता
है!!! पीएमओ ने कहा कि, “आरटीआई के तहत कई सवालों के जवाब एक साथ नहीं दिए जा सकते, जब
तक उन्हें अलग-अलग नहीं पूछा जाता है।” आरटीआई का इतिहास है कि
जब भी सरकार या उससे जुड़ी जवाबदेह संस्थाओं को जवाब नहीं देने होते तब तब नियमों
का पिटारा खोला जाता है। फिर ढेर सारे नियमों को बता कर समझाया जाता है कि देखिए
नियम तोड़े नहीं गए है!
पीएमओ ने जो जवाब दिया वही संदेह के घेरे में था।
पीएमओ का यह जवाब ग़लत इसलिए बताया गया क्योंकि वह केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के
नियमों के ख़िलाफ़ है। 'द वायर' के अनुसार, पीएमओ के सूचना अधिकारी प्रवीण
कुमार ने सीआईसी के एक ऑर्डर और सुप्रीम कोर्ट के एक बयान की आड़ में इस अर्जी को खारिज
कर दिया। पर उन्होंने जो कुछ कहा, वह ग़लत था। मुख्य सूचना
आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह ने 2009 के एक मामले से जुड़े फैसले में कहा था कि यदि आरटीआई
में कई सवाल पूछे जाएं लेकिन वे एक ही विषय से जुड़े हुए हों तो उनका जवाब निश्चित
रूप से दिया जाना चाहिए। हबीबुल्ला के इस आदेश के परिप्रेक्ष्य में पीएम केयर्स से
जुड़े सवालों के जवाब पीएमओ के देना चाहिए था। पर उसने ऐसा नहीं किया। इसी तरह प्रधानमंत्री
कार्यालय ने सुप्रीम कोर्ट के एक पुराने बयान को ढाल बना कर पीएम केयर्स से जुड़े आरटीआई
का जवाब नहीं दिया। 'द वायर' के मुताबिक़, सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में एक मामले में कहा था कि हम नहीं चाहते
कि 75 प्रतिशत कर्मचारी अपने समय का 75 प्रतिशत हिस्सा आरटीआई से पूछे गए सवालों के
जवाब देने में ही लगाएं। पर पीएमओ ने बाद में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर ध्यान
नहीं दिया, जिसमें कहा गया था कि आवेदनकर्ता
को एक विषय पर पूछे गए सभी सवालों के जवाब और काग़ज़ात दिया जाना चाहिए। मुख्य
सूचना आयुक्त और सुप्रीम कोर्ट, दोनों ने अंत में तो एक ही बात कही, लेकिन पीएमओ
ने केयर्स ट्रस्ट से जुड़ी जानकारी नहीं देने के लिए अपना पर्सनल नियम सामने रख
दिया!
इस पूरे मामले से नया सवाल खड़ा हुआ कि आख़िरकार पीएमओ पीएम केयर्स को दूसरों से अलग
क्यों मान रहा है, वह क्यों उससे जुड़ी जानकारी
नहीं देना चाहता? सवाल यह भी उठा कि क्या पीएम केयर्स को विशेष छूट मिली हुई है? क्या वह वाकई कुछ ऐसा कर रहा है जिसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं की जा सकती?
इतना बड़ा तामझाम करने के बाद भी हालात यह थे कि दुनिया में कई देश मरीजों का
टेस्ट कर रहे थे, और हम अब भी टेस्टिंग किट के टेस्ट में ही अटके हुए थे!!! जिन्हें योद्धा बताकर आगे किया जा रहा था वे लोग किट मांगते तो इंक्वायरी बिठा
दी जाती थी! लॉकडाउन का पालन करना अगर जनता का कर्तव्य है तो फिर जनता की ज़रूरतों को पूरा करना
सरकार का भी तो कर्तव्य बनता है। लेकिन हालात यह दिखे जहां अमीर आदमी घर पर था,
किचन में फाइव स्टार नास्ता बनाने के टिकटॉक वीडियो डालकर लोगों का मनोरंजन कर रहा
था, उधर बाकी बचा-खुचा इंडिया टेलीविजन देख रहा था और इधर लाखों-करोड़ों का मजबूर
भारत सड़कों पर तड़पता हुआ यहां से वहां-वहां से यहां भाग रहा था!!! लॉकडाउन आवश्यक है लेकिन बिना प्लानिंग का लॉकडाउन खतरनाक है यह हर दिन साबित होता जा रहा था।
लोगों को कहा जा सकता है कि दिन में एक ही बार खाना खाओ, कर्मचारियों का डीए काटा जा सकता है, सेना के खर्चों में कटौती हो सकती है, लेकिन सुपर रिच टैक्स का सुझाव आया तो सरकार सुझाव देने वालों पर ही जांच बिठा देती
है! छत पर पकोड़े खाने के जुर्म में आम जनता जेल जा रही थी,
लेकिन सरेआम लॉकडाउन तोड़ने वाले नेताओं की अकड़ जस की तस थी!
हालात यह है कि... महामारी के इस दौर में सरकारी लापरवाहियों और हैरान-परेशान भारत
को संभालने की प्रशासनिक चूक का काफिला फिलहाल तो वहां जा पहुंचा है, जहां लोग कहते-लिखते है कि पीएम केयर्स फंड की राशि गुरुद्वारों को दी जाती तो
वे लोग चिकित्सकों और स्वास्थ्य कर्मियों के बाद सबसे बढ़िया काम करके दिखा देते, सरकार से भी बढ़िया। कहा-लिखा जा रहा है कि अनेक शहरों में गुरुद्वारा महीने भर
से बिना प्रचार-प्रसार किए हर दिन सैकड़ों लोगों को खाना खिलाते हैं, पीएम केयर्स फंड का दान इन्हें जाता तो सरकार से हजारों गुना बेहतर सेवा दे सकते
थे।
(इनसाइड इंडिया,
एम वाला)