“तू इधर उधर की न बात कर, ये बता कि क़ाफ़िला क्यूँ लुटा
मुझे
रहज़नों से गिला नहीं तिरी रहबरी का सवाल है”
कुछ
कहते हैं कि ये आँसू असली थे, कुछ कहते हैं कि नकली थे। असली थे या नकली थे ये तो
बाद की बात है। नेता लोग असली में रोते हैं या झूठे आँसू बहाते हैं, इस पर बहस
सालों पुरानी है। हम मानते हैं कि बार बार लगातार बहने वाले नेताआँसू संदिग्ध होते
हैं। खैर, लेकिन आँसू भावुकता पेदा करता है यह तो स्वयं सिद्ध तथ्य है। भावुकता
बहुत अच्छी चीज़ नहीं होती। भावुक लोग अक्सर तर्क का साथ छोड़ देते हैं। वे
भावनाओं में बह जाते हैं। जो लोग किसी नेता की हत्या पर भावुक बनकर आँसू बहा रहे
होते हैं, वही लोग समुदाय विशेष को राक्षसों की तरह मार रहे होते हैं, ये देश ने
इस मंजर को भी देखा है। ऐसी ही दूसरी कहानियाँ भी देश ने देखी-सुनी-पढ़ी हैं।
बच्चा
अगर रो दे तो समझा जा सकता है। किंतु दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का महानायक, जो
खुद ही पिछले साल जून 2020 में छाती ठोक कर कह रहा था कि भारत किसी आपदा में रोने
लगे ऐसा देश नहीं है, वह महानायक मई 2021 में फिर से रोने लगे, बीच में भी कई बार
रो ले, तो फिर महानायक को अपनी कथनी और करनी के अंतर पर तीखे सवालों का सामना करना
ही पड़ता है। 2014 से पहले जब मनमोहन सिंह एक विपदा के समय देश को संबोधित करते
वक्त यह कहने लगे कि समाज को अपने अंदर झांक के देखना होगा, तब हमने लिखा था कि
प्रधानमंत्री को प्रधानमंत्री होना चाहिए, पादरी नहीं। नरेंद्र मोदी को भी नरेंद्र
मोदी होना चाहिए, निरूपा रॉय नहीँ। उपदेश, सलाह वगैरह भारत के भीतर घर घर में किताबों के रूप में मौजूद ही
है। प्रधानमंत्री से देश को उपदेश नहीं चाहिए, दिखाई दे ऐसा ज़रूरी काम चाहिए।
प्रधानमंत्री से देश को आँसू नहीं चाहिए, समाधान चाहिए। इसीलिए लिखना पड़ रहा है
कि तू इधर उधर की न बात कर, ये बता कि सब कुछ सलामत के एलान के बाद भी समूचा देश
चिताओं में क्यों खाक होता रहा? रहज़नों से क्या शिकायत करे और करे भी क्यों, सवाल तो तेरी रहबरी का है।
लेख की शुरुआत में जो
शेर है वह शेर संसद में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सुनाया गया था। मतलब
कि ये भारत है, ये लोकतंत्र है और यहाँ वज़ीर-ए-आज़म को आलोचनाओं और सवालों से रूबरू
होना ही पड़ता है। सवाल पूछने वालों पर मुकदमे दायर करने से या उन्हें जेल भेज
देने से मिट्टी वज़ीर-ए-आज़म की ही पलीद होती है।
हर मौके पर नहीं बल्कि
चुने हुए मौके पर छलकने वाले मोदीजी के आँसू इस बार बनारस के लिए छलके हैं। व्यंग
के रूप में लिखा जा सकता है कि सरकारी आदेश है कि बनारस के लिए छलके आँसूओं को देश
के लिए निकले आँसू मान लिया जाए। सियासी तकरीरों में माहिर मोदीजी कोरोना वायरस की
वजह से जान गंवाने वाले लोगों के बारे में बात करते करते एक बार फिर भावुक हो गए। पूरा
मीडिया भीग गया! मोदीजी ने बनारस से कहा कि इस वायरस ने हमसे
कई अपनों को छिन लिया है, मैं उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता
हूं और उन परिवारों के प्रति संवेदना व्यक्त करता हूं, जिन्होंने
अपने परिजनों को खोया है। बस, फिर मोदीजी की आवाज रुंध गई। वे अपने संसदीय
क्षेत्र वाराणसी के डॉक्टरों और फ्रंट लाइन वर्कर्स के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के
जरिए बात कर रहे थे।
वैसे हमने गुजरात में मोदीजी
को देखा है। बतौर सीएम सालों तक देखते रहे हैं। जब भी देखा इन्हें, गरियाते
हुए, गुस्सा होते हुए,
ठिठोली करते हुए, कार्यक्रमों में जोश दिखाते हुए,
आक्रमक होते हुए देखा। इतने सालों में गुजरात में मोदीजी को कभी रोते हुए देखा नहीँ।
रोए होंगे तब भी कोई बड़ी बात नहीं हुई होगी। तभी तो इतने सालों तक बतौर गुजरात के
सीएम मोदीजी का रोना कोई बड़ी घटना या बड़ी न्यूज़ के रूप में गुजरात के भीतर दर्ज
नहीं है। जब संसद में प्रवेश किया तभी से इनका भावुक होना शुरू हुआ। नेता भावुक हो
वो उतनी भी बुरी बात नहीं है, और बहुत अच्छी बात भी नहीं है। लेकिन बार बार, लगातार
ये भावुक होते रहे! इनका भावुक होने का टाइमिंग भी गजब का ही कह
लीजिए! कैमरा हो, लाइव हो, तभी रोए!!!
भारत में प्रधानमंत्री
के रूप में कई प्रधानमंत्री भावुक हो चुके हैं, आँसू छलका चुके हैं। लेकिन किसी
प्रधानमंत्री ने इसे अपनी आदत नहीं बनाया था। भावुक हुए भी, आँसू छलके भी, तब भी
वे मौके, वे पल, ऐसे नहीं होते थे। जब जिम्मेदारी निभाने का समय आया हो, जब सवालों
के जवाब देने का समय आया हो, जब तीखी आलोचनाओं सी घिरे हो, जब पूरी तरह विफल रहे
हो, तब पिछले काल में प्रधानमंत्री लोग यूं रो दिया नहीं करते थे। विशेष टिप्पणी
यह कि यूं बार बार लगातार रोने का कार्यक्रम नहीं किया करते थे प्रधानमंत्री लोग।
टिप्पणी में यह भी एड करें कि कैमरा और लाइव एक्शन वाला कार्यक्रम अनेक बार देश ने
देखा हो ऐसा भी नहीं होता था।
"इन से उम्मीद मत रख, हैं ये सियासत वाले
ये किसी से भी मोहब्बत नहीं करने वाले"
साल 2019, प्रधानमंत्री थे नरेंद्र मोदी। जगह
थी गुजरात का सूरत शहर। यहाँ यूथ कॉन्क्लेव में इन्होंने एक भाषण दिया था। भाषण
में नरेंद्र मोदी कहते हैं कि, “कुछ लोगों का
स्वभाव होता है रोते रहना, मेरा न रोने में विश्वास है, न रुलाने में।” 2014 में संसद प्रवेश से ही रुदाली कार्यक्रम शुरू करने वाले नरेंद्र
मोदी ही 2019 में ऐसा भाषण दे रहे थे!!! 2014 से 2021 तक
अनेकों बार कैमरे के सामने रोने वाले नरेंद्र मोदी 2019 में देश के युवाओं को बतला
रहे थे कि रोना कुछ लोगों का स्वभाव है, उन्हें तो रोने में विश्वास ही नहीं है!!! जून 2020 में कोरोना समय के दौरान देश को संबोधित करते हुए इन्होंने कहा
था कि भारत ऐसा देश नहीं है जो किसी आपदा में रोने लगे। वैसे मोदीजी देश नहीं है
इसलिए वे रो सकते हैं। है न?
मोदीजी रोए तो न्यूज़
तो बनना ही था। लेकिन इस बार जमकर मजाक उड़ा। यूं कहे कि इस बार इस रुदाली
कार्यक्रम पर लोगों ने खुलकर नाराजगी व्यक्त की। सोशल मीडिया में पीएम मोदी के रोने
को लेकर नहीं बल्कि बार-बार रोने को लेकर, सब कुछ बर्बाद हो जाने के बाद
रोने को लेकर,
काफी आलोचना हुई। प्रधानमंत्री मोदी के रोने का ये कार्यक्रम
टेलीविजन पर आने के कुछ ही घंटों बाद ट्विटर पर #ResignModi, #Natutanki और #CrocodileTears
ट्रेंड करने लगा।
सोशल मीडिया पर लोगों ने
भावुक होने के इस पल को नौटंकी तो करार दिया, साथ ही आयोजित भी गिनाया। कुछ
ने मोदीजी को ऑस्कर विनिंग एक्टर बताया। प्रसिद्ध अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने इस घटना
का वीडियो ट्विटर पर डाला और लिखा कि अगर आप मगरमच्छ के आँसू के बारे में नहीं जानते
तो आप इसे यहाँ देख सकते हैं। रवींद्र कपूर नाम के एक यूजर ने किशोर कुमार के संवाद
का इस्तेमाल करते हुए अंग्रेजी में जो लिखा उसका हिंदी मतलब होता था कि मुझे आँसू पसंद
नहीं है रे मोदीजी,
खास करके मगरमच्छ वाले। अनेक यूजर ने ट्विटर पर लिखा कि बहुत
देर कर दी मोदीजी, जब पूरा देश रो रहा था तब आप बंगाल में जाकर दीदी ओ दीदी चिल्ला
रहे थे!!! एक यूजर ने आडवाणी की वो प्रसिद्ध रोती हुई
तस्वीर डाल दी और लिखा कि कोई हमारे आँसू भी देख लेते भाई। इन्हीं दिनों बड़बोली कंगना
रनौत का खँभा ट्विटर ने उखाड़ दिया था, जो सत्ता के पक्ष में चापलूसी
और कुतर्कों की तमाम हदें पार कर रही थी। इसी घटना से जोड़कर भी मोदीजी का मजाक उड़ा।
लिखा गया कि झाँसों के राजा झाँसी की रानी का खँभा उखड़ जाने से बेहद भावुक थे, जो
आज आँसू बनकर बाहर आया। ट्विटर पर लिखा जाने लगा कि आपने बंदर का कलेजा और मगरमच्छ
की कहानी सुनी है न? एक ट्वीट खूब चला जिसमें मोदीजी का रोता हुआ
वीडियो था और उपर लिखा था कि चेतावनी, वायरस बहुरूपिया है और
घूर्त भी। 2012 का वो पुराना मोदी ट्वीट आया जब वो गुजरात के मुख्यमंत्री थे और सोनिया
गांधी के बारे में लिखा था कि सोनिया बहन ने किसानों के लिए मगरमच्छ के आँसू बहाए।
जैसे मोदीजी का जमकर मजाक
उड़ा, वैसे जमकर उनका पक्ष भी लिया गया होगा ये तो लाजमी ही है। हालांकि समर्थन में
आए ट्वीट भी मजाक का पात्र थे। जैसे कि एक यूजर ने लिखा कि हम बेहद नसीब वाले हैं कि
मोदीजी जैसा प्रधानमंत्री हमें मिला है जो देश की पीड़ा को समझता है। एक यूजर ने लिखा
कि मोदीजी देश के सच्चे बेटे हैं जो चौबीसो घंटे काम करते हुए देश के नागरिकों की हर
ज़रूरत पूरी कर रहे हैं। किसीने लिखा कि मोदीजी आपको सलाम, कुछ देशद्रोही
आपका मजाक उड़ा रहे हैं, लेकिन पूरा भारत आपके साथ है, हम इस
अद्दश्य दुश्मन को हराएँगे। ज्यादातर तो समर्थकों ने यही लिखा कि जय मोदीजी, जय योगीजी, अयोध्या
राम मंदिर, हर हर महादेव। समर्थन में जितने भी ट्वीट थे, कहने की ज़रूरत नहीं कि
सच्चाई, तर्कों, जमीनी हकीकत से बिल्कुल परे थे।
वैसे मगरमच्छ के आँसू या
घड़ियाली आँसू कोई बुरा शब्द नहीं है। ये एक संसदीय शब्द है। लेकिन विरोधी भी कमाल
के हैं। जब मोदीजी नहीं रोते तो लोग बोलते हैं कि क्यों नहीं रोए? मोदीजी
रोते हैं तो लोग बोलते हैं कि क्यों रोए? अब इसमें
मोदीजी करे भी तो क्या करे?
अब की बार जब प्रधानमंत्री
मोदी रोए तब वे अपने संसदीय क्षेत्र बनारस के चिकित्सकों और फ्रंट लाइन वर्कस से बात
कर रहे थे।
वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए बात कर रहे थे। पिछले साल वीडियो
कॉन्फ्रेंसिंग से बातें करते थे तब मास्क लगा रहता था। लेकिन
फिर कोरोना हार गया और फिर वे रैलियों में भी ज्यादातर बिना मास्क के नजर आए थे। ऐसे
में अब की बार वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में मास्क नहीं था।
गजब यह है कि मोदीजी रोएँगे
ये बात दिनों से कई लोग कह रहे थे, लिख रहे थे, बोल रहे
थे। बिना कीसी बात के इनके अश्र नहीं छलकते ये पिछले 7 सालों का उनके रोने का ट्रेक
रिकॉर्ड दिखा देता है। मोदीजी रोएँगे, कैमरे के सामने रोएँगे। बाकायदा
कहा जा रहा था कि अब बस थोड़ा सा इंतज़ार कीजिए, लाइट कैमरा एक्शन शुरू
होने वाला है,
बस थोड़ा सा इंतज़ार कीजिए। ये बात क्यों सब कर रहे थे? मोदीजी ऐसा करेंगे, ज़रूर करेंगे, ये वाली
धारणा क्यों प्रवर्तमान है? महानायक बार बार फफक पड़ते हैं। कुछ दिनों पहले
भी ऐसा ही हुआ। वज़ीर-ए-आज़म साहब खुद के जज्बात को रोक नहीं पाएं और उन्हें रोना आ
गया। पीएम मोदी के आँसूओं को छलकाने के लिए कुछ शर्तें ज़रूरी हैं!!! पहली तो यह कि उनके सामने कैमरा होना चाहिए! दूसरा यह
कि उनका लाइव टेलीकास्ट हो रहा हो!! ताकि देश और दुनिया उनके
आँसूओं को कायदे से देख सकें। अगर फिर भी उनकी आँखें गिली नहीं होती हैं तो समझ जाइए
कि चुनाव अभी दूर है, या छवि को नुकसान नहीं हुआ है।
“कौन रोता है किसी और के ख़ातिर ऐ दोस्त
सबको अपनी ही किसी बात पर रोना आया”
नेताओँ के आँसू बिना मतलब नहीं निकलते। उनके
आँसूओं में भी राज़ होते हैं! समूचे देश में, अनेक राज्यों में, जब गम
के बादल छाए थे, लोग अपनों को अपनी आँखों के सामने
मरता देख रहे थे, बिना ऑक्सीजन के लोगों की साँसे
टूट रही थी,
पूरे देश में चिताएँ जल रही थी, तब मोदीजी मैच्योर थे! तब हमारे वज़ीर-ए-आज़म
सियासी रैलियों का लुफ्त उठा रहे थे! उस वक्त मोदीजी को रोना
नहीं आ रहा था! उस वक्त वो पूरे देश को दीदी ओ दीदी वाली निहायती
ओछी राजनीतिक मिमिक्री का मनोरंजन दे रहे थे! इधर उनके गृहराज्य
गुजरात में लोग दर दर भटक रहे थे, मरे जा रहे थे। गुजरात मॉडल के चिथड़े उड़ रहे थे और अदालत मोदी सत्ता को
मुंबई मॉडल को समझने का निर्देश दे रही थी! माँ गंगा की गोद में हजारों लाशें बह रही थी। किसी को बेड नहीं मिल रहा
था, किसी को इलाज नहीं मिल रहा था। किसी को दवा नहीं मिली, किसी को इंजेक्शन नहीं
मिले। मरने के बाद स्मशान नहीं मिला। समूचा भारत तिल तिल मर रहा था। तब यही
महानायक मोदीजी चुनावी सभा में भारी भीड़ को देखकर गदगद हो रहे थे, खुशी जता रहे
थे! चुनाव में भारी भीड़ को देखकर भावुक हुए, चुनाव के बाद
भीड़ में मरने की कहानियाँ देखकर भावुक हो लिए!!! मैच्योरिटी
छूट गई, महीनों से संभाला हुआ दिल टूट गया, आँखें भर गई, आँसू कैमरे के सामने होकर
टेलीविजन स्क्रीन पर बहने लगे!
जैसे ऊपर कहा वैसे
नेताओँ के आँसू बिना मतलब नहीं निकलते। नरेंद्र मोदी की राजनीति को बहुत करीब से
देखने वाले पत्रकार-लेखक-राजनीतिक टिप्पणीकार बता चुके हैं कि मोदीजी का कुछ भी
यूं ही नहीं होता। वे अपने लुक, अपने वस्त्र, अपने चेहरे, बाल, दाढ़ी आदि को लेकर
बहुत ही सजग रहते हैं। बाल-दाढ़ी बढ़ी तो पूरे देश में चर्चा होने लगी। उन
पत्रकारों-लेखकों-राजनीतिक टिप्पणीकारों ने लिखा कि इसके पीछे बंगाल चुनाव तो है
ही, साथ में लंबी सोच है लंबी दाढ़ी और लंबे बाल के पीछे। वैसे भी पुरानी दाढ़ी के
साथ जुमलाबाजी, फेंकना, कॉर्पोरेट के श्रवणकुमार जैसे अलंकार चिपक गए थे।
फकीरी-अलगारी-अवतारी वाला अंदाज इस नये भेष में ज्यादा आने लगा। नेताओं का कुछ भी
यूं ही नहीं होता ये सत्य वचन तो 1947 से 2021 तक कई विशेषज्ञ हमें बार बार समझा
ही चुके हैं। किसानों को आंदोलनकारी कहने वाले प्रधानमंत्री मोदी अपनी राजनीति से
साबित कर ही चुके हैं कि वे निहायती चुनावजीवी नेता हैं।
मोदीजी रोएँगे, कैमरे
के सामने रोएँगे। ये बात क्यों सब कर रहे थे? जो आदमी हजारों-लाखों
लोगों की मौतों पर नहीं रोया, जिस आदमी को माँ गंगा ने चुनाव
लड़ने बुलाया था उस आदमी को माँ गंगा ने हजारों शव तेर रहे थे तब नहीं बुलाया!!! वो आदमी
अब रोएगा यह निश्चित सा था। क्योंकि पांचों राज्यों के चुनाव परिणाम आ चुके थे। सफलता
तो मिली, लेकिन सत्ता नहीं मिल पाई थी। पश्चिम बंगाल में 200 के दावे के सामने 75 के आसपास
सिमट चुके थे। उधर यूपी में पंचायत चुनावों में बीजेपी को जबरदस्त हार का सामना करना
पड़ा था। इतनी जबरदस्त हार कि शायद देशभर के पंचायत चुनावों में बीजेपी का इतना खराब
प्रदर्शन पिछले कुछेक सालों में नहीं हुआ होगा। केंद्र में स्पष्ट बहुमत के साथ जिसकी
सरकार हो, जिस राज्य में लोकसभा और विधानसभा, दोनों में जिसने अपने झंडे गाड़े
हो, वो पार्टी और उसका वो मुख्य चेहरा मामूली से पंचायत चुनावों में इस कदर हार जाए
ये बात मोदी और उनके मीडिया, दोनों को झुलसा गई थी। पंचायत चुनावों की करारी
हार ने झंडेवालान से लेकर नागपुर तक को हिलाकर रख दिया। ऐसा लगा कि नारंगी संतरे पक
कर अंगूर ना हो जाए!
इधर कोरोना में
अपनी बेवकूफियों, गलतियों के कारण भारत ऐतिहासिक पीड़ा को झेल रहा था। अपना वाला
मीडिया तो मुठ्ठी में था, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भारत की भयानक पीड़ा के
लिए मोदी और उनकी सरकार की नीतियों को खुलकर जिम्मेदार ठहराया जा रहा था। समर्थक
भी दबी आवाज में बोलने लगे थे। नेता-कार्यकर्ता परेशान थे। नाराजगी बढ़ रही थी।
किसान आंदोलन का खतरा अब भी टला नहीं था। भारत में मोदीजी की वो चमकीली छवि फिकी
पड़ रही थी। आरएएस का वो सर्वे भी मीडिया में छप चुका था। और अब सामने यूपी का
विधानसभा चुनाव है।
अब मोदीजी के पास
अपने आँसूओं को छलकाने के लिए बहुत सारी वजहें थी। तभी तो लोग कह रहे थे कि अब
रोएँगे!!! निहायती
चुनावजीवी प्रधानमंत्री, चौबीसों घंटे उपलब्ध पन्ना प्रमुख मंत्री अमित शाह,
सांस्कृतिक व सामाजिक कम बल्कि वर्तमान सत्ता के आगे शीर्षासन लगा रहा चुनावी
संगठन आरएसएस, सारे के सारे स्वयंघोषित महानायक मोदीजी की करिश्माई छवि को लेकर
ज्यादा चिंतित थे। तभी तो हजारों लाखों मौतों पर चुप रहने वाले वज़ीर-ए-आज़म और
उनके संगठन ने बिगड़ती छवि को लेकर ज्यादा सक्रियता दिखाई!!! राकेश टिकैत से भी ताजा प्रेरणा ली होगी! तभी तो वज़ीर-ए-आज़म ने आँसूओं के साथ यूपी में जाफरानी परचम लहराने के दांव
का आगाज कर दिया है।
अभी 2-3 दिन पहले
ही दिल्ली में बीजेपी-आरएसएस के शीर्ष चुनावजीवी नेता मिले। कहने को बैठक तो थी
स्पेशली यूपी को लेकर। बैठक में प्रधानमंत्री मोदी, बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष,
यूपी का एक चुनावी नुमाइंदा, संध के दूसरे क्रम के नेता, ये लोग तो थे ही, साथ में
हम जिसे हमारा गृह मंत्री कहते हैं वे महाशय अमित शाह भी थे। इन्हें कोई पत्रकार
कोरोना को लेकर कुछ नहीं पूछता, बस बूथ और पन्ना प्रमुख को लेकर ही पूछता है!!! इससे पहले मोदी की बिगड़ती छवि को लेकर मंथन सार्वजनिक हो चुका है। पॉजिटिविटी
वाला खेल इसी सियासी शतरंज का एक प्यादा है।
दिल्ली में शीर्ष
चुनावजीवी नेता मिले। कोरोना को लेकर नहीं, बल्कि कोरोना में नाकाम रहे मोदी और
मोदी सरकार की बिगड़ती छवि को लेकर मंथन हुआ। जब बैठक ही चुनावी नफा-नुकसान को
लेकर थी तो फिर लाजमी है कि चर्चा मौतों पर नहीं बल्कि सीटों पर ही हुई होगी।
चर्चा ऑक्सीजन, बेड, दवा, वेंटिलेटर पर नहीं बल्कि मततंत्र पर ही हुई होगी। इसीलिए
तो यह बैठक थी। कोरोना की दूसरी लहर पर बात नहीं हुई होगी, बल्कि दूसरी लहर के बाद
अब सरकार के प्रति, खास कर मोदीजी के प्रति लोगों में जो गुस्सा है, नाराजगी है
उसको लेकर बात हुई होगी। यूपी के सियासी हालात पर भी चिंतन-मनन किया गया होगा।
हठयोगी की हठ और आत्ममुग्ध फकीर की आत्म मुग्धता, इस पर कौन बोल सकता होगा बैठक
में? जिस योगी सरकार को अदालत ने हाल ही में राम भरोसे सरकार
कहा था उसी योगी सरकार की प्रधानमंत्री ने बाद में प्रशंसा भी कर दी थी!!! बैठक हो-पार्टी हो या संगठन हो, कोई भी आत्म मुग्ध फकीर और हठयोगी को वो
शायरी तो नहीं सुना सकता कि कुर्सी है ये, जनाजा तो नहीं है, कुछ कर नहीं सकते तो
उतर क्यों नहीं जाते?
कोरोना ने ऑक्सीजन,
बेड, अस्पताल, दवा, इलाज, टीके सभी चीजों में मोदी सत्ता की नाकामी को उजागर किया
है। उनका गृह राज्य गुजरात भी इससे अछूता नहीं रहा। यूपी और बिहार की कहानियाँ भी
ऐसी ही हैं। गुजरात मॉडल के बारे में सोशल मीडिया पर लिखा गया कि सुबह जिंदा घर पे,
शाम को मरे अस्पताल में, लाश तुम्हारी बहा देना कहीं, जगह नहीं है स्मशान में, आइए
कुछ दिन तो गुजारिए गुजरात में। गंगा में तेरती लाशों ने डरावना मंजर पेश किया है।
“सियासत इस कदर अवाम पे अहसान करती है,
पहले आँखे छीन लेती है फिर चश्में दान करती है”
मंथन के बाद मोदीजी के आँसू कैमरा के
सामने आए। उफफ... ये दग़ाबाज़ नैना!!! ये बात अब तारीख़ बन चुकी है जब पूरा मुल्क कराह रहा था। आवाम हर रोज अपनी
आखिरी सांसें गिनने लगी थी। तब मुल्क का शहनशाह सियासी गलियारों में दीदी ओ दीदी
चिल्ला रहा था!!! इस बात से कोई गुरेज नहीं है कि सियासत में हर कोई मतलब परस्त होता है।
नरेंद्र मोदी ईश्वर नहीं है, अवतार नहीं है। वे भी मतलब परस्त नेता ही है। अँधे
समर्थकों के लिए तो नेहरू, इंदिरा, सोनिया, राहुल, ममता, केजरीवाल सब युगावतार ही
हैं, लेकिन ये सब हो या नरेंद्र मोदी हो, जमीनी हकीकत तो यही है कि सब मतलब परस्त
नेता हैं। इनमें ना कोई राम हैं, ना कोई रहीम।
लेकिन जिम्मेदारी,
जिस काम के लिए बिठाया है वो काम करना, सबकी सुन कर-सबको साथ लेकर
तर्कसंगत-ठोस-योजनाबद्ध कदमों को लागू करना, जैसी चीजें भी होती हैं। मोदी इसमें
नाकाम रहे हैं इसमे कोई दो राय नहीं हो सकती। मोदी राजा नहीं हैं। इन्हें आवाम ने
चुना है। कुछ काम के लिए चुना है। रोने-धोने के लिए नहीं चुना। इसलिए नहीं चुना कि
नाकाम हो जाओ तो नरेंद्र मोदी से निरूपा रॉय बन जाओ!!! भावुक होने की हास्यास्पद प्रवृत्तियाँ करते रहना प्रधानमंत्री का काम नहीं
होता।
जिस मीडिया को
अपने लोहे के पंजों के नीचे दबा कर रखा है उसे आजाद कर दो कुछ महीनों के लिए, आज
के लोकप्रिय प्रधानमंत्री भारत के विफल प्रधानमंत्रियों की रेस में शामिल हो
जाएँगे!!! रेस जीतेंगे या
नहीं ये मुझे नहीं पता, लेकिन नॉमिनेशन ज़रूर होगा ये पता है!!! नोट करे कि ये कोई चैलेंज वगैरह नहीं है। चैलेंज तो मुश्किल कामों के लिए
होता है, जो स्वयं सिद्ध चीजें हो उसमें चैलेंज वगैरह क्या काम का? उपरातं 2004 से 2014 के समय ने यह सिखाया कि जो पढ़ा-लिखा हो ज़रूरी नहीं कि
वो काम का हो!!! वैसे ही 2014 से
2021 के समय ने यह भी सीखा दिया है कि जो लोकप्रिय हो ज़रूरी नहीं कि वो भी काम का
ही हो!!!
एक पुरानी तस्वीर
है भारतीय राजनीति की। जब इंदिरा गांधी के जवान बेटे संजय गांधी की मौत हवाई हादसे
में हुई थी तब उन्हें चाहे जितना दुख हो रहा हो, इसका उन्होंने सार्वजनिक प्रदर्शन
नहीं किया था। तब पत्र-पत्रिकाओं में छपी उनकी वह तस्वीर अब भी आपको इंटरनेट पर
मिल जाएगी। तस्वीर में काला चश्मा लगाए अपने बेटे का शव निर्निमेष भाव से देखती
इंदिरा गांधी। नरेंद्र मोदी इंदिरा गांधी के लोहे सरीखे शासन से बहुत प्रेरणा लेते
हैं। राजनीतिक इतिहासकार कहते हैं कि इंदिरा गांधी ही वह नेता थी जिनके आने के बाद
भारतीय राजनीति के स्तर में तेजी से गिरावट दर्ज की गई थी। मोदीजी इन सब गुणों को
इंदिराजी से सीख कर उनसे भी आगे जा चुके हैं। आपातकाल का नायाब तरीका ढूंढ चुके
हैं। लेकिन सार्वजनिक रूप से कठोर-मजबूत-द्दढ होने का गुण सीख नहीं रहे।
कहीं पर एक
आर्टिकल में पढ़ा था कि बच्चे जिन वजहों से रोते हैं, नेता भी उन्हीं वजहों से रो
लेते हैं। बच्चों के रोने के पीछे उद्देश्य होता है कि लोग उसकी भूख, प्यास या
अन्य ज़रूरतों पर ध्यान दें। नेताओं को भी ध्यान खींचना होता है।
अगर प्रधानमंत्री
के आँसू असली थे तब भी क्या? प्रधानमंत्री से
देश समाधान मांगता है, आँसू नहीं। आँसू या भावुकता एकांगी चीज़ है, सार्वजनिक
नहीं। ये बहुत ही तात्कालिक चीज़ होती है। हम नकली कहानियों पर भी भावुक होते रहते
हैं। घटिया फिल्मों पर भी रोने लगते हैं। बहुत सारे लोग अपने कुत्ते-बिल्लियों की
मौत पर भी दुखी होते हैं, लेकिन गली के कोने पर आधी रात को ठंड में भीख मांगते बच्चों
को देखकर वे नहीं पसीजते। भावुकता और संवेदनशीलता, इनमें बारीक सा अंतर है।
“रोने वाले तुझे रोने का सलीक़ा ही नहीं
अश्क पीने के लिए हैं कि बहाने के लिए?”
प्रधानमंत्री को लोगों के आँसू पोछने
होते हैं, ना कि आँसू बहाने। वैसे मोदीजी, आप तो एक बार थोड़ा सा रो लिए, लेकिन आप
के पीछे ये गोदी मीडिया तो चौबीस घंटे से आपकी आँखें दबा दबा कर बचे-खुचे आँसू
निकालने की कोशिशें कर रहा है। जैसे वो पिछले सात सालों से कर रहा है। आपकी नाकामी
की वजह से यहाँ हजारों-लाखों लोग मर गए, हजारों-लाखों परिवार तबाह हो गए, जिस नदी
में घी दूध की नदियाँ बहानी थी वहां लाशें बहने लगी, लेकिन आप और आप का मीडिया
भावुक होने के पल का इस्तेमाल करके तमाम विफलताओं को दबाने का प्रयत्न कर रहे हैं।
हुक्मरान रोया है,
हुक्मरान रोया है!!! दुनिया को बोल दो
कि अपने अखबारों से भारत के लोगों की लाशों की तस्वीरें हटा दो! काश भारत की तरह दुनिया में भी ऐसे चैनल होते। काश दुनिया का मीडिया हमारे
हुक्मरान की भावुक तस्वीर दिखाता। दुनिया से कोरोना गायब हो जाता! दुनिया से अपनों के मरने का गम बिदा ले लेता!
वैसे बीच में कई
बार पीएम मोदी ने देश को संबोधित किया, वर्चुअल बैठकें की। लेकिन पिछले कुछ महीनों
से वे भावुक नहीं हुए थे। शायद चुनावजीवी प्रधानमंत्री चुनावी रैलियों के लिए जान
लगाने में व्यस्त होंगे। या फिर आँसूओं को किसी खास मौके के लिए बचाकर रखा गया
होगा। पश्चिम बंगाल की चुनावी रैली में बेतहाशा भीड़ को देख कर जो खुशी मोदीजी के
चेहरे पर नजर आई थी उसके सामने उतना ही दर्द अभी नजर आया हो किसी को, तो फिर आँसू
काम के हैं।
महामारी में रिकॉर्डतोड़
मौतों ने पूरी दुनिया का ध्यान भारत की ओर खींचा। लेकिन मोदीजी के आँसू नहीं छलके!!! उनका गृह राज्य गुजरात कोरोना का हॉटस्पॉट बना तब भी आँसू नहीं छलके!!! लाशों को जलाते जलाते चिमनियाँ पिघलने लगी, लेकिन मोदीजी का दिल नहीं पिघला!!! जब माँ गंगा ने अपने अनगिनत संतानों की लाशें अपनी गोद में समेट ली, तब पूरा
देश सन्न रह गया, पूरी दुनिया स्तब्ध थी, लेकिन मोदीजी के आँसू नहीं छलके!!!
लेकिन जब मुद्दत
बाद मोदीजी के आँसू छलके तो सोशल मीडिया पर नौटंकी, मगर मच्छ, इस्तीफ़ा जैसे लफ्ज़
मोदीजी की तस्वीर के साथ ट्रेंड करने लगे। लोग जमकर मजाक उड़ाने लगे, नाराजगी
जताने लगे। ऐसे में लोगों का क्या दोष? दोष तो मोदीजी का है। जल्दी रो लेना चाहिए था, यूं देर से नहीं! ऊपर से वैक्सीन पर पोस्टर बनाकर सवाल क्या पूछा, कइयों को जेल में डाल दिया।
भावुक होना अच्छी
बात है। रोना भी अच्छी बात है। लेकिन आम आदमी बार बार लगातार किसी भी जगह रोता
रहे, भावुक होता रहे, तो उसके लिए कौन से शब्द प्रयोग होते हैं यह तो सबको पता ही
है। भारत में पुरुषों के लिए रोना वर्जित है। यूं कहे कि सार्वजनिक रूप से रोना
वर्जित है। कमजोर और नकारापन की निशानी मानी जाती है। इसके पीछे वजह यह है कि
हमारी सामाजिक व्यवस्था में पुरुष के कंधे पर आर्थिक जिम्मेदारी का बोज है,
सामाजिक संपर्कों का बोज है। (अब बीच में पुरुष-स्त्री वाला विवाद बीच में न लाना,
यहाँ संदर्भ दूसरा है) हम अपनी बात पर लौटते हैं। आम तौर पर जिसके कंधे पर दूसरों
के लिए ऐसी जिम्मेदारी हो उसे कमजोर होते हुए भी कमजोर नहीं दिखना है। पुरुष भी
रोते हैं। लेकिन कहीं कोने में। कैमरे के सामने नहीं। बंद कमरे में रोते हैं, कहीं
किनारे बैठ कर अकेले रोते हैं, सार्वजनिक रूप से देश के सामने नहीं रोते।
छाती छप्पन की हो या छत्तीस की हो, कोई फर्क
नहीं पड़ता, बल्कि कयादत मजबूत होनी चाहिए। मैं तो 2014 से लिख कर कह रहा हूँ कि
छप्पन की छाती नहीं ढाई सौ ग्राम दिमाग ज्यादा काम का होता है। सियासी नफा-नुकसान
तो नेताओं की जिंदगी है, लेकिन इससे इतर कुछ काम होते हैं। यदि आप खुद को देश का
सबसे बड़ा चुनावजीवी नेता साबित करते हैं, तब इस छवि को बदलने के लिए आँसू बहाना
नहीं बल्कि जमीनी स्तर पर काम करते हुए दिखना ज्यादा ज़रूरी होता है। चुनाव तो आप
जीत लेंगे, डॉ संबित पात्रा या दूसरे ऐसे लोगों के जरिए फर्जी इतिहास भी बना लेंगे।
लेकिन जैसे सदियों पुराना असली इतिहास आज भी जिंदा है, वैसे ही आप की ये नाकामियाँ
और नाकामी के बाद की ये अदाकारियाँ, दोनों जिंदा रहेंगे।
वैसे रोने वाले
लोगों की बात ही निराली है! विनोद कांबली भी
रोए थे, युवराज सिंह भी रोए थे! रोना...। ये रोना
भी अलग अलग प्रकार का रोना होता है। तरह तरह का होता है। रोना आसान होता है। रो
देना तो उससे भी आसान होता है। और... रोते रहना... ये तो और आसान होता है। अभी रो
दिया, तभी रो दिया। इधर रो दिया, उधर रो दिया। कमाल यह कि अपने खुद के स्वजन, निकट
के स्वजन, कोरोना में उनका निधन हो जाए तो ये रोने वाले नेता लोग उस निधन पर नहीं
रोते!!! क्या फायदा उस
वक्त रोने का? क्या मिलेगा रोकर? जो होना था वह तो हो गया। चला गया वह। लेकिन मौका, वक्त, नजाकत देख कर ये लोग
रो देते हैं!!! रोते भी ऐसे हैं कि
सबको पता चले कि ये रोया!!! भावनात्मक देश है
यह। आँसूओं से अच्छा तरीका क्या हो सकता है किसीकी भावना को छेड़ने का?
मोदीजी पर उंगली
मत उठाओ ऐसा सोशल मीडिया पर एक व्यंगकार कहते हैं। वे तो विपक्ष वालों पर हमला
करते हैं। क्योंकि मोदीजी तो सचमुच का रोते हैं! लेकिन ये विपक्ष वाले? ये तो किसी भी
चीज़ पर, किसी भी घोषणा पर रो देते हैं। कभी इस बात रोते हैं, कभी उस बात पर रोते
हैं विपक्ष वाले। कभी ये नहीं हुआ, कभी वो नहीं हुआ, कभी ये खराब है, कभी वो खराब
है। रोते ही रहते हैं विपक्ष वाले। व्यंगकार कहते हैं कि बार बार यूं विपक्ष की
तरह रोते रहना नहीं चाहिए। किंतु कभी कभी रो भी लेना चाहिए! मौका देखकर!!! मौका देखकर रोने
से मन हल्का हो जाता है, और मन की बात भारी हो जाती है। व्यंगकार कहते हैं वैसा
भाव सबका होना चाहिए। जब कोई बड़ा आदमी रोए तब उस रोने को नौटंकी, फर्जी रोना जैसे
विशेषण नहीं देने चाहिए। नाटक कर रहा है नाटक, जैसे आरोप नहीं लगाने चाहिए। राकेश
टिकैत रोए तो बीजेपी की गैंग ने राकेश टिकैत के रोने को नाटक कहा था, फर्जी रोना
कहा था। विपक्ष का हर चीज़ पर रोना, इसे भ्रम फैलाना कहा जाता है। पत्नी का रोना
क्या कहा जाता है पतियों को पता होगा। पत्नियों के लिए रोना आख़िरी हथियार माना
गया है। बच्चे का रोना, जिद कहा जाता है। टेलीविजन शो, गाने के शो, डांस के शो,
प्रतियोगी के साथ साथ जज भी रोने लगते हैं वहां!!! रोना बुरी बात थोड़ी न है?
विपक्ष वाले 7
सालों का रोना रोते हैं, तो इधर सत्ता वाले 70 सालों का रोना रोते हैं!!! रोना धोना तो होलसेल में चल ही रहा है देश में!!! किसान बदहाली को लेकर रो रहा है, कोई रोजगार के लिए रो रहा है, कोई काम को
लेकर, कोई नाम को लेकर, कोई भक्त अपने भगवान को लेकर। बॉलीवुड वाले नुकसान को लेकर
रो रहे हैं, टेलीविजन वाले शूटिंग बंद होने को लेकर रो रहे हैं, प्रवासी मजदूर रो
रहा है, अपनों को मरते देख लोग रो रहे हैं, दो वक्त का खाना ठीक से नहीं मिलने को
लेकर लोग रो रहे हैं, नौकरी जाने से कोई रो रहा है। सब रो ही रहे हैं।
प्रधानमंत्री भी रो रहा है। सारा देश रो रहा है। एकजुट होकर रो रहा है। पिछले एक
साल से अलग अलग प्रकार के कई उत्सव मनाकर भी देश रो रहा है!!! दिपोत्सव, थाली उत्सव, ताली उत्सव, घंटोत्सव, फूलोत्सव, चुनावोत्सव,
प्रचारोत्सव, जीतोत्सव, हारोत्सव, टीकोत्सव!!!
वैसे कोई रोता कब
है? तब कि जब वो अपने सारे हथकंडे अपना लेता है। उसको लगता है
कि हथकंडे आजमाने के बाद भी कुछ हो नहीं रहा। हाथ पाँव मार लेता है। फिर भी उसे
लगता है कि यार माहोल बन नहीं रहा। फिर वो रोता है। स्थिति को समझ कर रोता है!!! सोचने के बाद रोता है!!! उसके रोने के बाद
उसका पूरा तंत्र काम करने लगता है!!! रोने का भी प्रचार चलता है, जबकि रोना ही इसीलिए गया होता है कि उसके पीछे एक
प्रचारतंत्र होता है!
वैसे अब रोने-धोने के सीरियल, मूवी लोगों को पसंद नहीं आते। तभी तो वहां अलग
कैटेगरीज वाले सीरियल और मूवी आने लगे। राजनीति में टिकट नहीं मिलने पर नेता लोग
रोते हैं। ये और बात है कि जीतने के बाद लोग रोते हैं!!! विपक्ष वाले हो, किसान नेता राकेश टिकैत हो, पत्नियाँ हो, बच्चे हो, गाने के
शो वाले हो, डांस के शो वाले हो, सब अपने फायदे के लिए रोते हैं। मोदीजी तो देश के
लिए रो रहे हैं।
पिछले दो महीनों में देश में लाखों लोग मर गए। लाखों परिवार तबाह हो गए। माँ
गंगा, जिन्होंने ईमेल करके मोदीजी को बुलाया था, उस माँ गंगा ने इस बार मोदीजी को
नहीं बुलाया! मोदीजी अपने नये
आलीशान घर का प्लान बनाते बनाते माँ गंगा की गोद में बह रही सैंकड़ों लाशों को
देखने के लिए विवश हो गए। हर हर मोदी घर घर मोदी थे, उन्हीं घरों में लोग मारे गए।
महीनों से आँसू रोक रखे थे। सीने में दबा कर रखा था गम को। इस स्थिति में किसी को
भी रोना आ सकता है। सो, मोदीजी को रोना आ गया।
भावुक होना अच्छी बात है। कैमरे के सामने भावुक होकर देश को अपनी संवेदनशीलता
दिखाना कौन सी बुरी बात है भाई? भाइओं बहनों, पिछले 70 सालों से उन्होंने हमें रुलाया, अब हम पांच-पच्चीस बार
रो दे तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा हे? है न? देश को समाधान
नहीं, आँसू चाहिए होंगे, सो मोदीजी ने वही तो दिया।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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