वैसे मोदीजी उन तरीकों से ही देश के
सामने आते हैं, जहाँ उनसे कोई सवाल पूछने वाला न हो! देश के सामने आने का मोदीजी का स्टाइल उनके रोने के स्टाइल जैसा ही है। जैसे मोदीजी
कैमरा हो-लाइव हो तभी रोते हैं, वैसे ही उसी तरीके से देश से रूबरू होते हैं, जहाँ
उनको ही बोलना हो, कोई पूछने वाला ना हो! प्रेस वार्ता नहीं करने वाले मोदीजी बॉलीवुड अभिनेता अक्षय कुमार को इंटरव्यू
दे सकते हैं! कोरोना काल में पिछले साल से लेकर इस साल तक कई राष्ट्राध्यक्ष अपने राष्ट्र
में प्रेस वार्ता कर चुके हैं, प्रेस के सवालों का सामना कर चुके हैं, लोगों के
सवालों का सामना करने की हिम्मत दिखा चुके हैं। लेकिन छप्पन की छाती वाले मोदीजी
कोरोना तो क्या, पिछले सात सालों में भी यह हिम्मत नहीं दिखा सकें! वे इंटरव्यू देते हैं, लेकिन प्रेस वार्ता नहीं करते, सवालों का सामना नहीं
करते! प्री प्रिपेयर्ड क्वेश्चन वाला वो इंटरव्यू काफी विवादित रहा था।
उनके राष्ट्र के
नाम संबोधन की बातों को तो देखिए। नौवीं बार, 7 जून 2021 के दिन, प्रधानमंत्री
मोदी कहते हैं कि हमारी सरकार ने साल भर में दो कोरोना टीकों को विकसित कर लिया।
पहली बात तो यह कि जिन दो टीकों से फिलहाल भारत काम चला रहा है, उसमें से सीरम
इंस्टीट्यूट वाला टीका, जिसे कोविशील्ड के नाम से जाना जाता है, उसका सिर्फ
उत्पादन ही सीरम इंस्टीट्यूट कर रहा है। इसमें कोई शक नहीं है कि सीरम इंस्टीट्यूट
बहुत पहले से अलग अलग प्रकार के टीके बनाता रहा है। उसके टीके कई देशों में पहले
से ही बिकते रहे हैं। किंतु सीरम ने कौन कौन से टीकों में किसको पार्टनर बनाया था
उसका भी ज्ञान ज़रूर होना चाहिए। जिस कोविशील्ड को विकसित करने का श्रेय मोदीजी
अपनी सरकार को दे रहे हैं, उसका काम तो सीरम इंस्टीट्यूट के पार्टनर, जो विदेश में
हैं, उन्होंने किया है!!! कोविशील्ड का इंटेलेक्चुअल पेटेंट एस्ट्राजेनेका के पास है। तभी तो सीरम को
कई डोज़ इंग्लैंड भेजनी पड़ी है। सीरम के पास कोविशील्ड का सब-लाइसेंस है।
भारत बायोटेक वाले कथित स्वदेशी टीके कोवैक्सीन को लेकर फिलहाल ज्यादा
प्रमाणित जानकारी नहीं मिली है। किंतु इतना तो साफ है कि ऑक्यूजन नाम की एक विदेशी
कंपनी भारत बायोटेक की अमेरिका में साझेदार है।
वैसे भारत बायोटेक
वाले इस स्वदेशी टीके को पहले दिन से कितना सरकारी जुल्म सहना पड़ा है यह जगजाहिर
किस्सा है। रफाल वाला मामला यहाँ रिपीट हो रहा है! उद्योगपति अनिल
अंबाणी को रफाल में फ्री हैंड दिया गया, उधर अनुभवी और स्वदेशी एचएएल को सार्वजनिक
तौर पर प्रताड़ित किया गया था! सीरम पर न जाने क्यों प्यार उमड़ आया, जबकि भारत बायोटेक
अपना पेटेंट कुछ कंपनियों के साथ साझा करने को तैयार है। किंतु केंद्र सरकार ने इस
पर क्या प्रगति की है, किसीको पता नहीं है। खैर, यहाँ दूसरी बात यह कि अगर मोदीजी
के कमजोर दावे के मुताबिक भारत ने ये टीके विकसित किए होते तो किसी वैज्ञानिक का,
उस टीम में शामिल रहे विशेषज्ञों का ज़िक्र कहीं न कहीं हुआ होता। जो अब तक हुआ ही
नहीं!!! कोविशील्ड के विकास के पीछे जिन कंपनियों का, जिन लैब का, जिन लोगों का नाम
हैं, वे भारत से संबंधित नहीं हैं। अगर होता तो देश को पता होता। सीरम ने योगदान
दिया होगा, किंतु विदेशी भागीदार भी शामिल हैं। लेकिन फिर भी मोदीजी की हिम्मत तो
देखिए कि वे राष्ट्र के नाम संबोधन में देश को कमजोर तथ्य बता देते हैं! उपरांत बताते भी ऐसे हैं, जैसे टीका घर पर बैठ कर संबित पात्रा और
हर्षवर्धनजी ने बना लिया हो!!!
यहाँ बात बायोलॉजिकल ई टीके की भी कर लेते हैं। भारत को मोदी सरकार ने यह
सूचना दी है कि यह स्वदेशी टीका है। जो कि नहीं है। आक्स्फ़र्ड यूनिवर्सिटी के
वैज्ञानिक 20 सालों से जिस तकनीक पर काम कर रहे थे उसी के परिणाम से यह टीका तैयार
हुआ है। गार्डीयन में इसी साल यह ख़बर छपी है कि इस टीके की रिसर्च और विकास में
लगा 97 फीसदी पैसा पब्लिक फंड से था। आक्स्फ़र्ड को करीब 1 हज़ार करोड़ मिले थे,
जिसमें से 97 फीसदी पैसा यूके के टैक्स भरने वाले नागरिकों ने दिया था, या
संस्थाओं ने। यूके सरकार, वेल्कम ट्रस्ट और अमेरिका तथा यूरोप के संस्थानों ने भी
काफ़ी फंड दिया है। बायोलॉजिकल ई का वेबसाइट खँगालने पर पता चलता है कि कंपनी बहुत
पहले अपना प्रेस रिलीज जारी कर चुकी है। यह प्रेस रिलीज भारत की किसी प्रयोगशाला
से जारी नहीं हुआ है। बल्कि डॉ. मारिया एलेना बोत्ताज़्ज़ी का बयान है, जो अमेरिका
के बेलर कॉलेज ऑफ मेडिसिन की डीन हैं। जिस टेक्सस में मोदीजी ट्रंप के चुनावी
प्रचार के लिए गए थे, उसी टेक्सस में बच्चों का एक अस्पताल है। वहाँ सेंटर फॉर
वैक्सीन डेवलपमेंट नाम का केंद्र चलता है। उसी सेंटर ने इस टीके को विकसित किया
है। भारत में तो उसका ट्रायल ही चल रहा है। फिर उत्पादन की डील कंपनियां कर लेगी।
टाइम्स ऑफ इंडिया तथा इंडियन एक्सप्रेस ने भी अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि बायोलॉजिकल
ई में बनने वाले कोरबेवैक्स टीके का विकास अमेरिका के टेक्सस शहर की एक संस्था ने
किया है। संस्था का नाम है टेक्सस चिल्ड्रन हॉस्पिटल सेंटर फॉर वैक्सीन डेवलपमेंट।
यह ह्यूस्टन, टेक्सस के बेयलर कॉलेज ऑफ मेडिसिन का केंद्र है। जानकारी के लिए बता
दे कि जब सार्स आया तभी इस संस्था ने टीके की एक तकनीक विकसित की थी, किंतु सार्स
के थम जाने के कारण इस्तेमाल नहीं हुई। उसी तकनीक के आधार पर कोविड का टीका बनाने
का प्रयास शुरू हुआ था। फंड नहीं होने की वजह से काम धीमा हुआ, किंतु फिर फंड आने
लगा। जैसे ऊपर लिखा वैसे फंड इकठ्ठा किया गया। इस कंपनी के प्रमुख डॉ. पीटर होटेज़
हैं, जिनका कहना है कि हम कम आय वाले देशों के लिए यह टीका विकसित कर रहे हैं।
वेबसाइट पर जो जानकारी है उसके मुताबिक फंड का पैसा जिन्होंने दिया उसका रिकॉर्ड
गार्डीयन की रिपोर्ट के मुताबिक ही है। यहाँ हम असली गार्डीयन की ही बात कर रहे
हैं। उस नकली गार्डीयन की नहीं, जिसके सहारे मोदी सरकार की प्रशंसा का गजब का झूठा
तिकड़म हुआ था!!! उपरांत वेबसाइट के मुताबिक फंड देने वालों में बिल गेट्स
फाउंडेशन का भी नाम है। भारत की तरफ से भी कुछ पैसा दिया गया है। लेकिन टीके को
विकसित अमेरिका के लोगों या लैब ने किया, विनिर्माण कंपनी का नाम बायोलॉजिकल ई है।
धंधा बढ़ाने के लिए जैसे हर उत्पाद पर किया जाता है वैसे मैन्युफैक्चरिंग की डील
हैदराबाद की कंपनी के साथ हुई है। तो फिर बायोलॉजिकल ई टीका किस प्रकार से स्वदेशी
हुआ? लेकिन अब केंद्र सरकार तक व्हाट्सएप सरीखे झूठे हवाई दावे
करने लगी है। नीति आयोग वाले वीके पॉल ने ही बायोलॉजिकल ई को मैन्युफैक्चरर कहा
है। उत्पाद भारत में हो, लेकिन तकनीक या रिसर्च विदेशी हो, तो फिर इसे स्वदेशी
माना जाए या नहीं, इसकी व्याख्या बदली जा रही है! सिर्फ उस सरकारी शान के लिए, जो फिलहाल खतरे में है।
कोरोना के संबंध में राष्ट्र के नाम
प्रथम संबोधन से लेकर नौवीं बार के संबोधन तक, प्रधानमंत्री मोदी ने ऐसे ऐसे दावे
किए हैं जो चंद घंटों में धराशायी हो गए! ऐसी ऐसी बातें की, जिसका कोई आधार ही नहीं! हमारा मीडिया तो मोदीजी की मुठ्ठी में है, किंतु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत
की जो बेइज्जती हुई है, वहाँ जिस प्रकार से लाशों के ढेर पर बैठे भारत के लिए सीधे
सीधे प्रधानमंत्री मोदी को जिम्मेदार बताया गया है, बावजूद इसके मोदीजी बड़ी बेफिक्री
से दावा कर देते हैं कि दुनिया में सबसे बेहतर भारत ने किया है!!! उनकी मुठ्ठी में बंद भारत का मीडिया इस मोदी-वाक्य को चमकाता रहता है। झूठे
और कमजोर दावे को इतनी बार चमकाया जाता है कि फिर वो झूठ सच साबित हो जाता है! नौवें संबोधन के दिन ही मेनस्ट्रीम मीडिया ने जिस तरह की
हास्यास्पद कोशिशे की उसके बारे में हम ऊपर ही बात कर चुके हैं।
नौवीं बार के
संबोधन में मोदीजी ने दावा कर दिया कि बीजेपी सरकार आई तब टीकाकरण 60 प्रतिशत था,
हमारी सरकार ने इसे बढ़ाकर 90 प्रतिशत तक कर दिया है। पहली बात तो यह कि यह
राष्ट्र के नाम संबोधन है। मोदीजी 60-90 वाले कथित फर्क को भी ऐसे कहते हैं, जैसे
चुनाव का कोई मंच हो! वैसे मोदीजी ने कह दिया कि 90 प्रतिशत कर दिया है, सो कर दिया है!!! इसके लिए उन्होंने कोई आधार नहीं दिया है। उन्होंने कह दिया तो मान लीजिए कि
हुआ होगा!!! यही तो सालों से चल रहा है! उधर विश्व में फिलहाल कोरोना टीकाकरण की जो स्थिति है
उसमें भारत कहीं पीछे है! बताइए, जो देश दुनिया को टीके बेच रहा था, वही देश आज टीकाकरण में बहुत ही
पीछे है!!! पता नहीं 60 से 90 तक किया, या उसका उल्टा? या फिर व्हाट्सएप विश्वविद्यालय वालों की तरह कुतर्क कर लीजिए कि 90 किया तभी
यह हाल है, 60 तक रहता तो सोच लीजिए कहाँ होता! सोचिए, भारत टीकाकरण में दुनिया के
दूसरे देशों से बहुत पीछे है, सुप्रीम कोर्ट तक मोदीजी की वैक्सीनेशन पॉलिसी को
गंभीर कमियों वाली योजना बता चुका है, वैक्सीनेशन पॉलिसी को सही करने के लिए सख्त
निर्देश दे चुका है, फिर भी मोदीजी की हिम्मत इतनी है कि वह राष्ट्र के नाम संबोधन
जैसी महत्वपूर्ण परंपरा के मंच से ही अपने समर्थकों के लिए जुमला फेंक देते हैं कि
भारत दुनिया में सबसे बेहतर कर रहा है!!! ऊपर से मोदीजी ने
यूं ही कह दिया कि टीकाकरण की रफ्तार, जो पहले उनके हिसाब से 60 प्रतिशत थी, उसे
उनके ही अपने हिसाब से 90 प्रतिशत तक कर दिया है। आप को बता दें कि राष्ट्रीय
स्वास्थ्य सर्वेक्षण पर भरोसा किया जाए तो उनके किसी भी सर्वे में पीएम मोदीजी
वाला प्रतिशत है ही नहीं!!! राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अब तक के सर्वे में किसी एक राज्य में भी
90 प्रतिशत नहीं है!!! मतलब कि मोदीजी का मन हो गया, तो कह दिया!!! अब दो रास्ते
हैं। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण का सर्वे अपडेट कर दो और वहाँ मोदीजी ने जो
कहा उतना दिखा ही दो! दूसरा रास्ता अमित शाह के पास है। कह देंगे कि ये तो जुमला था! कह देंगे कि आंकड़ों पे मत जाइए, भावना को समझिए!
143 दिनों में
भारत के कई टीका केंद्र बंद हो चुके थे यह सबको पता है। सप्लाई ठप हो चुकी थी।
लाजमी है कि टीके नहीं थे। ऐसा नहीं है कि सप्लाई बंद रहेगी। कभी न कभी आ जाएगी और
भारत में सबको टीके लग भी जाएँगे। आपको यह भी बता दें कि वक्त रहते भारत इस कमी से
भी लड़ लेगा, अच्छा ज़रूर करेगा। क्योंकि टीका अभियानों में हमारे पास वाकई विशाल
अनुभव है। लेकिन फिलहाल जो स्थिति है उस स्थिति के बीच भी राष्ट्र के नाम संबोधन
में कमजोर तथ्यों को सामने रखना वाकई हिम्मत का काम है।
भारत की जनसंख्या
के हिसाब से अगर आप टीकाकरण का आंकड़ा कहते हैं और उस आंकड़े की तुलना किसी दूसरे
राष्ट्र से करते हैं तब आपको फिलहाल गर्व होगा। किंतु हर राष्ट्र की जनसंख्या
भिन्न होती है। इसीलिए ऐसे अभियानों में आंकड़ा नहीं किंतु डोज़, जनसंख्या और
संक्रमण के मेलजोल पर तैयार किया गया प्रतिशत देखा जाता है। अलग अलग राष्ट्रों में
कितने प्रतिशत नागरिकों को पहला डोज़ मिला और कितने प्रतिशत नागरिकों को दूसरा,
इसका ब्यौरा प्रमाणित अंतरराष्ट्रीय वेबसाइट में है ही। दोनों डोज़ देने के हिसाब
से दुनिया के देशों को रैकिंग भी मिलती है। इस हिसाब से भारत 111वें स्थान पर है! ब्राज़ील, मेक्सिको, पेरू, इंडोनेशिया, आयरलैंड, कोलंबिया, कज़ाक्स्तान,
बुल्गेरिया, डोमिनिकल रिपब्लिक जैसे देश भारत से आगे हैं! दुनिया की पांच बड़ी अर्थव्यवस्था में जिस राष्ट्र को दिखाया जाता है, जहाँ न
जाने कितने ट्रिलियन के अर्थतंत्र का दावा किया जाता है, वह अपनी तुलना टीकाकरण के
मामले में पाकिस्तान से कर के अपना गौरव ज़रूर ऊंचा कर सकता है! इन हालातों में भी हम नागरिकों को प्रधानमंत्री राष्ट्र के नाम संबोधन में न
जाने क्या क्या कह देते हैं! हमें लगता है कि वाह! रिसर्च तो हम करते ही नहीं। हमने लिखा
वैसे, वक्त रहते भारत ज़रूर अच्छा करेगा, बड़ी जनसंख्या के हिसाब से कुछ देर होगी,
लेकिन सुधार तो ज़रूर होगा।
हमें उस बात पर
फक्र ज़रूर होना चाहिए कि दूसरी लहर से पहले हमने फ्रंटलाइन वर्कस के लिए टीकाकरण
अभियान चला लिया। वैसे इस लक्ष्यांक में भी हम पिछड़े हैं। 16 जनवरी 2021 को जब
टीका अभियान शुरू हुआ तो लक्ष्य था कि 1 मार्च 2021 तक, पहला चरण समाप्त होने तक,
3 करोड़ हेल्थ वर्कर को टीका दिया जाएगा। भले ही यह लक्ष्यांक अपने आप में छोटा
हो, लेकिन पूरा हुआ क्या? नहीं हुआ! पहला चरण पूरा होने के बाद टाइम्स ऑफ इंडिया
में सुष्मी डे की रिपोर्ट छपी थी। रिपोर्ट में जानकारी दी गई कि 1 मार्च नहीं
किंतु 19 अप्रैल 2021 तक, 1 करोड़ 11 लाख हेल्थ वर्कर को टीके का दोनों डोज़ दिया
जा सका। लक्ष्यांक का 37 प्रतिशत!!! यानि आधा लक्ष्य भी पूरा नहीं हो पाया!!!
पूरी दुनिया के
लिए यह वाकई बड़ी महामारी है। किंतु प्रमाणित रिपोर्ट दिखाते हैं कि दुनिया के
बड़े बड़े देशों ने वक्त रहते अपने देश की तथा दूसरे देशों की टीका बनाने वाली
कंपनियों को टीके के ओर्डर दे दिये थे। भारत ने ऐसा क्यों नहीं किया था यह सवाल
सुप्रीम कोर्ट ने पूछा है। जवाब तो नहीं दिया है, किंतु संबोधन करके नीति को बदलने
की घोषणा ज़रूर की है।
नौवीं बार के
संबोधन में मोदीजी कह देते हैं कि देश के कोने-कोने से हमने दवाएँ मंगवाई, ऑक्सीजन
का उत्पादन बढ़ाया। यह भी कहा कि दुनिया भर से दवाएँ मंगवाई। लेकिन यह नहीं कहा कि
पिछले साल से वैज्ञानिक ऑक्सीजन का उत्पादन बढ़ाने को कह रहे थे तब क्यों नहीं
माने और अब जब काफिला लूट गया तब जाकर जागने का क्या फायदा? देर आए दुरुस्त आए, यही संतोष मानना पड़ रहा हे देश को! वैसे पता होना चाहिए कि पिछले साल भी मोदीजी ने ऑक्सीजन के प्लांट लगाने की
घोषणा की थी। इसी साल मई 2021 की रिपोर्ट में दर्ज है कि पिछले साल जितने प्लांट
को लगाने की घोषणा मोदीजी ने की थी उसमें से एक भी प्लांट लग नहीं पाया था!!! यानी कि सिर्फ घोषणा की थी, काम नहीं!!! यूपी में अभी
पिछले महीने ही ऑक्सीजन का प्लांट लगाने की घोषणा की थी, जो अब तक नहीं लगा है!!! पिछले साल अमेरिका समेत दुनिया के कई
देशों को दवाएँ बाँटने वाला देश इस बार दर दर की ठोकरे खाने को क्यों मजबूर हुआ
उसका जवाब मोदीजी कभी नहीं देंगे ये पता है। और यह लाजमी भी है।
सबसे बड़ी बात यह
कि देश में जब म्युकोरमायकोसिस (फंगस) के मामले बढ़ने लगे, इसे अधिसूचित किया गया,
तब विशेषज्ञों ने एक गंभीर सवाल उठाया था। वैसे ये म्युकोरमायकोसिस पिछले साल से
है यह आपको पता होना चाहिए। खैर, लेकिन इस बार विशेषज्ञों ने एक गंभीर संभावना
जताते हुए कहा कि इस साल जिस प्रकार से ऑक्सीजन की मांग बढ़ी, तो उसके सामने उस
मांग को पूरा करने के लिए सरकार के पास कोई तैयारी ही नहीं थी। पिछले साल की घोषणा
वाले प्लांट लगे ही नहीं थे! इस आपातकालीन स्थिति में मोदी सरकार को नियमों को ताक पर
रखकर ऑक्सीजन नीति में थोड़ा लचीलापन अपनाकर आगे बढ़ना पड़ा। उत्पादन बढ़ाने के
लिए कुछ मानकों और प्रक्रियाओं को नजरअंदाज करना पड़ा। इस वजह से इन विशेषज्ञों ने
संभावना जताते हुए कहा कि क्या दूषित ऑक्सीजन भी फंगस के लिए जिम्मेदार है? फंगस होने की कई वजहें हैं। इन वजहों के साथ साथ विशेषज्ञों ने दूषित ऑक्सीजन
की संभावना को लेकर जाँच करने की बात कही।
पिछले एक साल से मोदीजी
किसी विशेषज्ञ की बात सुन ही नहीं रहे, सो इस बार भी इस गंभीर संभावना को अनसुना
कर दिया गया! वैसे ही अनसुना कर दिया, जैसे डॉक्टरों की उस लिखित मांग को अनसुना कर दिया
था, जिसमें डॉक्टरों ने पतंजलि के बाबा रामदेव को गिरफ्तार कराने की याचना पीएम
मोदीजी से की थी। डॉक्टरों ने सोचा होगा कि हमारे लिए ताली-थाली बजाई है, फूल
बरसाए हैं, तो इतना ही तो मान ही लेंगे मोदीजी। विशेषज्ञों की नहीं सुनने वाला
बंदा डॉक्टरों की नहीं सुन सका, इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जो सरकार अपने
दो दिग्गज मंत्रियों को भेजकर रामदेव की अप्रमाणित दवा का शुभारंभ कार्यक्रम कर
लेती है, वह क्यों सुनती भला? लेकिन जैसे ही
दूषित ऑक्सीजन की गंभीर संभावना जताई गई, गजब है कि चीन लैब से कोरोना लीक हुआ की
कहानियाँ दौड़ने लगी!!!
प्रधानमंत्री मोदी अपनी विफलताओं को
छुपाने के लिए अदृश्य दुश्मन, अभूतपूर्व संकट, अकल्पनीय संकट जैसे लफ्जों का खूब
सहारा ले रहे हैं। पहली बात तो यह कि सजीव सृष्टि के लिए वायरस दृश्य है, कंप्यूटर
की दुनिया के लिए उसका वायरस अदृश्य है। यूं तो आप सजीव सृष्टि वाले वायरस को अदृश्य
कह सकते हैं, लेकिन वो अदृश्य होता नहीं। यानि अदृश्य दुश्मन वाला जुमला कहने को
तो जुमला है, लेकिन सही बात नहीं है। दूसरी बात यह कि संकट अभूतपूर्व ज़रूर है,
किंतु अकल्पनीय नहीं। दिसंबर 2019 से लेकर मार्च 2020 तक दुनिया के वैज्ञानिक,
विशेषज्ञ जब चेता रहे थे, तब आप ट्रंप के साथ उत्सव कर रहे थे!!! देश में मार्च 2020 में जब आपको चेताया गया, तब आप और आप के मंत्री चेताने
वालों पर गरियाते थे!!! फिर पहली लहर के बाद भी वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने दूसरी लहर और उसके
संभावित विनाश को लेकर चेताया था। तब आप दीदी ओ दीदी चिल्ला रहे थे!!! यह अकल्पनीय संकट नहीं था और ना ही है। यह आपकी गलतियों का परिणाम है।
इस साल क्या हाल
था देश का, सबने देखा है। पूरा का पूरा हेल्थ सिस्टम चरमरा गया! एक तरह से सरकार ने आम जनता को भगवान भरोसे छोड़ दिया था! हालात यह थे कि एक नागरिक दूसरे नागरिक की मदद लेकर कोरोना से लड़ने को नहीं
बल्कि बचने को मजबूर था! सोशल मीडिया में लोग एक दूसरे से मदद मांग कर जिंदगियाँ बचाने की कोशिश करने
लगे थे। ना कोविड के नये स्पेशल अस्पताल समय रहते बन पाए, ना समय रहते
दवा-इंजेक्शन-ऑक्सीजन मिल पाया। अलग अलग राज्यों की अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट
तक ने मोदी सत्ता को खूब खरी-खोटी सुनाई। सुप्रीम कोर्ट ने एक समय तक तो कह दिया
कि यह मेडिकल इमर्जेंसी जैसे हालात है। बावजूद इसके प्रधानमंत्री मोदी दावा कर
देते हैं कि पिछले एक साल में हमने एक नया हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार किया है।
पीएम मोदी के इस दावे का तो उसी वक्त अग्नि संस्कार हो रहा था, जब वे इसे लाइव बोल
रहे थे!!!
ये सही है कि
दवाएँ मंगाई गई, किंतु दवाएँ दिनों तक एयरपोर्ट पर पड़ी रही, क्योंकि कस्टम
क्लीयरेंस की कोई तैयारी ही केंद्र सरकार ने नहीं की थी!!! जब लहर अपने उच्च स्तर तक पहुंचने लगी, फिर जाकर सरकार ने आनन फानन में
ऑक्सीजन के लिए ट्रेन चलाई, सेना की मदद ली, युद्ध स्तर पर काम शुरू किया। लेकिन
तब तक काफी देर हो चुकी थी। राष्ट्र के नाम संबोधन में खुद को तथा अपनी सरकार को
दुनिया का बेहतरीन मॉडल बता रहे मोदीजी ने बीते कई महीनों से ना वैज्ञानिकों की
सुनी, ना विशेषज्ञों की! साफ साफ लिखा और कहा गया कि भारत में
जो मौत का तांडव हुआ उसके लिए जिम्मेदार मोदी सरकार है, और कोई नहीं। राष्ट्र के
नाम संबोधन में कोई प्रधानमंत्री अपनी गलती नहीं मानता यह स्वाभाविक है। मोदीजी तो
हरगीज नहीं। किंतु जब आप खुलकर दोषी साबित हो चुके हैं, तो फिर राष्ट्र के नाम
संबोधन में ऐसे जुमले, ऐसी गलत बयानबाजी, ऐसे झूठे दावे करना किस काम का?
नौवीं बार के इस
संबोधन में मोदीजी ने कहा कि यह पिछले 100 सालों में विश्व में आई सबसे बड़ी
महामारी है, ऐसी महामारी न दुनिया ने 100 सालों में देखी है, न अनुभव किया है।
प्रधानमंत्री की यह बात को नोट कीजिएगा। फिर कुछ देर बाद यही मोदीजी कहने लगते हैं
कि हमारी सरकार ने एक साल के भीतर दो टीके विकसित कर लिए, वर्ना पहले तो महामारी
खत्म होने के बाद दुनिया के देश टीका लगा लेते थे फिर भारत में टीके लगाए जाते थे।
लाजमी है कि मोदीजी का ये दावा कांग्रेस और 1947 के बाद की राजनीति से संबंधित है।
और इसकी पुष्टि स्वयं मोदीजी अपने भाषण के अगले हिस्से में कर देते हैं। वह कहते
हैं कि आप पिछले 50-60 साल का इतिहास देखेंगे तो पता चलेगा कि पहले भारत को
विदेशों से वैक्सीन प्राप्त करने में दशकों लग जाते थे। पीएम मोदी इसके साथ ही
चेचक, पोलियो, हेपिटाइटिस बी आदि की वैक्सीन की अपनी ही अलग कहानियाँ सुनाने लगते
हैं।
मोदीजी के यह
दोनों बयान, जो उन्होंने राष्ट्र के नाम संबोधन में दिए, उसे लेकर पहली बात, (हमारी
सरकार ने एक वर्ष के भीतर दो टीके विकसित किए वाली बात) उस बात को लेकर ऊपर ही हम
बात कर चुके हैं। सो, उस बात को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ते हैं। मोदीजी खुद
कहते हैं कि ऐसी महामारी न दुनिया ने 100 सालों में देखी है, न अनुभव किया है। और
फिर कुछ देर बाद वही मोदीजी कहते है कि भारत में पहले दुनिया के देश टीके लगा लेते
उसके बाद टीके लगते थे। अब जब दुनिया ने 100 सालों में ऐसी महामारी देखी ही नहीं
थी तो फिर भारत ने या दुनिया ने टीके लगाए, इसने पहले लगाए, उसने बाद में लगाए, इस
जुमले का क्या मतलब रह जाता है? चंद मिनट में
मोदीजी स्वयं ही ऐसे ऐसे अनर्गल प्रलाप कर लेते हैं कि वे खुद ही खुद के बयान या
दावे को जुमला साबित कर जाते हैं!
चलिए मान लेते हैं
कि मोदीजी तो चेचक, पोलियो जैसी दूसरी महामारियों की बात कर रहे थे और उस संदर्भ
में अपनी पीठ थपथपा रहे थे। लेकिन तब भी मोदीजी का ये दावा निहायत कमजोर साबित
होता है! टीके की बात पर प्रधानमंत्री के खोखले दावे की बात शुरू करें उससे पहले पिछले
साल का वो दौर याद कर लीजिए। हाइड्रोक्लोरोक्वीन नाम की एक दवा थी जिसे अमेरिका
समेत दुनिया के कई देशों को दिया गया था। खूब बातें होती थी उस वक्त उस दवा की।
फिलहाल तो वह चर्चा और सूची से बाहर है! लेकिन उस वक्त अमेरिका के साथ दोस्ती के
नाम पर खूब प्रशंसा बटोरी गई थी। वह दवा, जो मोदीजी शायद नन्हें थे तब से भारत
बनाने लगा था। उसी दवा को मोदीजी बाँटते हैं, प्रशंसा बटोरते हैं, फिर भी कह देते
हैं कि पहले भारत में तभी इलाज होता था, जब दुनिया के देश इलाज कर लेते थे!!! वैसे मोदीजी को याद रखना चाहिए कि श्रीलंका जैसा छोटा देश मलेरिया मुक्त हो
चुका है, आप पिछले सात सालों से इस बीमारी को लेकर कुछ कर ही नहीं रहे।
जिस देश ने अपने करोड़ों
बच्चों को कई साल तक हर बार घर-घर जाकर पोलियो टीका दिया, जो देश आज़ादी के पहले से ही टीका बनाता आया है, जिस देश के दवा उद्योग
का लोहा पूरी दुनिया मानती है, उस देश को टीका के लिए क्या सचमुच दशकों इंतज़ार करना पड़ा था? कांग्रेस-बीजेपी वाली राजनीति की दुनिया को छोड़ कर सोचे तो पीएम मोदी का ये दावा
चुनौती के लायक ज़रूर है। राष्ट्र के नाम संबोधन जैसी परंपरा के मंच से मोदीजी जुमला
फेंकते हुए कह गए कि यदि आप भारत के टीकाकरण का इतिहास देखें, यह चेचक का टीका हो या हेपेटाइटिस बी हो या पोलियो हो, आप देखेंगे कि भारत को विदेशों से टीका हासिल करने के लिए दशकों का इंतज़ार करना
पड़ता था। प्रधानमंत्री ने इसके आगे यह भी कहा कि जब दूसरे देशों में टीकाकरण कार्यक्रम
ख़त्म हो जाता था,
हमारे देश में यह शुरू भी नहीं हो पाता था।
मोदीजी का ये बयान
चुनौती के लायक ज़रूर है। वे ऐसा कह सके, क्योंकि उनके बयान में सच का बहुत कम
हिस्सा भी है। क्योंकि हम हमारे हेल्थ सिस्टम को आज़ादी के पश्चात उतना जल्दी से
बेहतर और अपडेट नहीं कर पाए हैं, यह सच है। यह भी एक सच ही है कि पिछले 7 सालों के
कार्यकाल में मोदीजी भी इस सिस्टम को अपडेट नहीं कर पाए! तभी तो विश्वगुरु का सपना देख रहा देश लाशों के ढेर पर बैठा हुआ नजर आया था। लेकिन
मोदीजी अपने समर्थकों को वह सच बताना भूल गए जो हो चुका है। मोदीजी उस देश के बारे
में बात कर रहे थे जो देश टीके की खोज होने के बाद तुरंत ही घरेलू स्तर पर टीका
बना चुका है। आज़ादी के बाद ही नहीं, आज़ादी के पहले भी भारत में ऐसा हो चुका है।
द हिंदू की एक
ख़बर में लिखा गया है कि इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में 2012 में छपे डॉक्टर चंद्रकांत
लहरिया के एक लेख में कहा गया है कि भारत में चेचक का टीका पहली बार 1802 में तीन
साल के एक बच्चे को दिया गया था। इस लेख के मुताबिक डॉ. एडवर्ड जेनर ने इस टीके की
खोज की थी और खोज के बाद समय रहते ही यह टीका भारत पहुँच गया था। इतना ही नहीं,
टीके के तरल लिंक सोल्यूशन को सुरक्षित रखने के लिए भारत में शोध संस्थान भी बना
और संस्थान ने समाधान प्राप्त करने में कामयाबी भी हासिल की। कामयाबी के बाद भारत
में पहले एनिमल वैक्सीन डिपो का निर्माण हो चुका था। यह डिपो शिलॉंग में स्थापित
हुआ था। दुनिया में 1944-45 तक चेचक के टीके का उत्पादन कम हो चुका था। किंतु
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इसमें तेजी लाई गई। आधिकारिक दस्तावेज के अनुसार सन 1947
तक भारत चेचक के टीके में आत्मनिर्भर हो चुका था। 1947, जी हां, वही साल जब भारत
स्वतंत्र हुआ। यानि तभी से चेचक के टीके में भारत आत्मनिर्भर हो चुका था। और यह
विश्व स्वास्थ्य संगठन के लेखों में भी दर्ज है।
कुल मिलाकर, जिस चेचक टीके में भारत 1947
से ही आधिकारिक रूप से आत्मनिर्भर राष्ट्र बन चुका है, उस चेचक टीके को लेकर
प्रधानमंत्री मोदी जैसे शख्स कितनी आसानी से समूचे देश को झूठ परोस देते हैं!!! राष्ट्र के नाम संबोधन जैसे विषय में वे बिना जाँचे-परखे, बिना सत्यापित किए,
यूं ही कुछ भी बोल देते हैं!!! जिस भारत राष्ट्र ने 1947 से ही चेचक टीके को लेकर आत्मनिर्भरता हासिल कर ली
हो उस भारत राष्ट्र को इतना कमजोर बताना, यह संघ के प्रचारक और उसी भारत राष्ट्र
के प्रधानमंत्री का कौन सा राष्ट्रवाद है? चेचक टीका और पोलियो में भारत राष्ट्र और उसके वैज्ञानिकों के काम को पूरी
दुनिया ने सराहा है, प्रशंसा की है। प्लेग और टीबी के टीके बीसीजी पर भी भारत का
काम अच्छा ही रहा है। उस इतिहास को केवल और केवल खुद को बचाने के लिए बदलने का
मोदीजी का यह प्रयास भद्दा तो है ही। अपनी सरकार की महाकाय गलतियों और विफलताओं को
झुठलाने के लिए सत्यापित और प्रमाणित इतिहास को बदलना किसी प्रधानमंत्री को शोभा
नहीं देता। विशेष रूप से उसी राष्ट्र के प्रधानमंत्री को।
बात पोलियो की करे
तो, पोलियो का टीका ओरल पोलियो वैक्सीन, यानि मुँह से दिए जाने वाला टीका, सबसे
पहले अमेरिका में 1960 में बनाया गया। उसके बाद भारत में पास्चर इंस्टीट्यूट ऑफ
इंडिया ने इसे बनाना शुरू कर दिया था। भारत के वैज्ञानिकों ने इंजेक्शन पोलियो
वायरस को इसलिए प्रोत्साहित नहीं किया था, क्योंकि इसे बनाने के लिए ज़रूरी वायरस
वातावरण में लीक हो सकता था। भारत ने पोलियो वायरस के टीके के प्रभाव पर काफी
रिसर्च किया। इस रिसर्च को जारी रखा गया। जब पता चला कि ओरल पोलियो का प्रभाव कम
होने लगा है तो दोनों मिला कर दिया जाने लगा। वह 2011 का साल था, जब भारत पोलियो
मुक्त राष्ट्र घोषित हो गया। मार्च 2013 में ग्लोबल हेल्थ साइंस एंड प्रैक्टिस जर्नल
में एक पेपर छपा था। इसमें बताया गया है कि 1998 में भारत ने एक दिन में ही 13.4
करोड़ बच्चों को पोलियो का टीका दिया था! जी हा, एक दिन में! इसके बाद 2011 में 17.2 करोड़ बच्चों को दो दिनों के भीतर टीका लगाया गया था! 23 लाख कर्मचारियों ने मिलकर इस काम को दो दिनों के भीतर पूरा किया था!
चेचक के बाद
पोलियो पर भारत की लड़ाई वाकई बड़ी सफलता थी। पोलियो अभियान को बेमिसाल अभियानों
में गिना जाता है। वेबसाइट पर बिना नंबर दिए पोलियो वाली दीदी घर आ जाती थी। पूरी
दुनिया में इसका उदाहरण दिया जाता है। इसी अभियान के आधार पर दूसरे देशों ने अपने
यहाँ अभियान चलाए थे।
यूं तो पोलियो वाला हथियार फेसबुक और व्हाट्सएप के लोग तब से चलाने लगे थे जब
से मोदी सरकार की वैक्सीनेशन नीति पर गंभीर सवाल उठने लगे थे! और इस कुतर्क का राष्ट्रीयकरण मोदीजी ने कर दिया!!! देखा जाए तो पोलियो और कोरोना, दोनों की टीकाकरण नीति की तुलना
नहीं हो सकती। दोनों मूल रूप से अलग अलग चीजें हैं, अलग अलग बीमारियाँ हैं। साथ ही
पोलियो अभियान उन्मूलीकरण था। कोरोना अभियान उन्मूलीकरण नहीं है। उन्मूलीकरण, यानि
जड़ से मिटा देना। पोलियो में सौ फीसदी टीकाकरण का लक्ष्यांक शुरू से ही था। जबकि
कोरोना में मोदीजी ने शुरुआत में ही कहा था कि फिलहाल सबको टीका देने का टार्गेट
नहीं है। फर्क इसलिए, क्योंकि दोनों बीमारियाँ भिन्न हैं। पोलियो अभियान के पैमाने
याद होने चाहिए। पोलियो अभियान के दौरान यदि किसी ज़िले में 90 फीसदी टीकाकरण होता
था तब भी उसे असफल माना जाता था। कोरोना में 25 फीसदी टीकाकरण पर भी छाती फुलाई जा
सकती है।
बात प्लेग के टीके
की करे तो, द हिंदू अख़बार के मुताबिक, बाल्डमेर हैफ़किन ने 1897 में तत्कालीन
बंबई स्थित ग्रांट मेडिकल कॉलेज में प्लेग के टीके को खोजा था। भायकला जेल के
लोगों पर इसका परीक्षण किया गया। 1899 में ही प्लेग लैबोरेटरी की स्थापना की गई। इसी
तरह मद्रास के गिंडी लैबोरेटरी में टीबी का टीका बीसीजी 1848 में ही बनने लगा था।
डिप्थीरीया और टिटेनस के टीके 1940 के पहले से भारत में बन रहे थे।
ये सही है कि इन
तमाम कार्यक्रमों में भारत की तत्कालीन सरकारों ने गलतियाँ की होगी, पिछड़े होंगे।
रिसर्च और आरएंडडी में फंड की दिक्कतें हुई होगी। वैसे ही जैसे आज मोदी सरकार
पिछड़ी है। वैसे ही जैसे आज रिसर्च के लिए फंड नहीं मिल रहा। किंतु वक्त रहते जिस
चीज़ में भारत ने सफलता प्राप्त कर ली हो, उसे ऐसे मंच से यूं गलत बयानबाजी करके
इतिहास को बदला तो नहीं जा सकता। विशेष बात यह कि आप (पीएम) पूर्व सरकारों की
नीतियों पर निशाना कीजिए, किंतु उन सफल अभियानों को अपनी विफलता छिपाने हेतु सीधे
सीधे असफल कह दो यह तो व्हाट्सएपिया तरीका है। आज जिसे आप (पीएम) कोरोना योद्धा कह
रहे हैं, उन पूर्व अभियानों को, जो सफल भी हुए हैं, ऐसे योद्धाओं ने ही तो लड़ा
था। सिर्फ राजनीति के लिए आप उनके अविरत प्रयासों का भी अपमान कर रहे हैं!
बीसीजी से आपको
कुछ याद आया? वही नाम, जो पिछले साल मार्च से लेकर अप्रैल
मई तक छाया रहा। मोदीजी की सरकार के ही अति समर्पित समर्थकों के व्हाट्सएप में यह
नाम मैंने स्वयं कई दफा देखा था उन दिनों। इस दावे के साथ कि बीसीजी का यह टीका
कोरोना के खिलाफ काम करता है! उन दिनों मोदी सरकार के वे अति समर्पित समर्थक ही इस दावे
के साथ भारत का बखान कर रहे थे, भारत को विश्वगुरु बता रहे थे! वैसे वह फेक न्यूज़ था और डब्ल्यूएचओ ने कोरोना पर बीसीजी के टीके के प्रभाव
पुष्टि नहीं की थी। किंतु सोचिए। पिछले साल मोदीजी के वे समर्थक अपने व्हाट्सएप
में गाहे बगाहे बीसीजी का कोरोना पर प्रभाव गाते हैं, भारत के हेल्थ सिस्टम और
बीसीजी टीके को खूब ऊंचा बताते हैं। फिर इस साल मोदीजी कह देते हैं कि भारत पहले
टीकों में बहुत पीछे था! अब समर्थक भी सूर बदल लेते हैं! कुल मिलाकर, मोदीजी आपसे पूछना चाहिए कि
आप गवर्नमेंट चला रहे हैं या कुछ और? समर्थकों का क्या है, उन्हें छोड़िए। मोदीजी के बयानों की सूची बनाइए। वे चंद
दिनों के भीतर खुद ही खुद के अगले पिछले बयानों का रायता बना देते हैं!!!
आंकड़ों की बाजीगरी भी समझनी होगी। स्वयं पीएम मोदी कहते हैं कि 143 दिनों में
23 करोड़ डोज़ दिया गया है। पोलियो के सामने इसकी तुलना आंकड़ों में भी नहीं हो
सकती। इसमें कितने डोज़ लगे उसका ज़िक्र है, कितने लोगों को डोज़ लगे हैं उसका
नहीं। डोज़ का आंकड़ा है, व्यक्तिओं का नहीं। कइयों को दूसरी खुराक मिली है। यानी
एक आदमी के दो डोज़। आंकड़ों के इस मायाजाल में पारदर्शिता ज़रूर होनी चाहिए।
भाई, मोदीजी को तो पहले भारत में पैदा
होने में भी शर्म आती थी। और ऐसा वे भारत के बहार फ्राँस की धरती पर खड़ा रहकर कह
चुके हैं!!! उस फ्राँस की धरती से, जिसके विद्वान रोमां रोलां ने कहा था कि यदि पृथ्वी के
मुख पर कोई ऐसा स्थान है जहाँ जीवित मानवजाति के सभी सपनों को बेहद शुरुआती समय से
आश्रय मिलता है और जहाँ मनुष्य ने अपने अस्तित्व का सपना देखा तो वह भारत है। ऐसा
कहने वाले विद्वान के देश में खड़ा रह कर केवल और केवल राजनीति करने के लिए भारत
के बारे में ऐसा बोलना, यह उस राष्ट्रवाद का असली चेहरा है, जिसकी सनक इतने अच्छे
दिनों का दर्शन करा जाती है।
नौवीं बार राष्ट्र
को संबोधित करते समय मोदीजी की ऊर्जा अपनी घूमिल हुई छवि को बेहतर बताने की
कोशिशों में ज्यादा खर्च हुई! जहाँ उन्होंने दो कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा की, वहीं कई
सारे सवालों को अधूरा भी छोड़ गए! अपने संबोधन के जरिए उन्होंने बताया कि वे राज्यों का 25
फीसदी टीका खरीदने का अधिकार वापस ले रहे हैं। 30 अप्रैल 2021 तक देश में जो
व्यवस्था थी उसे दोबारा लागू कर दिया गया। जब 30 अप्रैल को केंद्र सरकार ने फिलहाल
जो फैसला बदला है उसको लागू करने की घोषणा की थी तब भी सवाल उठे थे। फैसला बदलते
वक्त प्रधानमंत्री ने बेहद बचकाना तर्क देते हुए संबोधन में यह भी कह दिया कि
राज्यों की मांग पर केंद्र ने उस वक्त वह फैसला लिया था।
कोरोना का समय हो
या उससे पहले का दौर हो, पिछले कुछ सालों का इतिहास दर्शाता है कि किसी के कहने पर
मोदी सत्ता कोई फैसला लागू करती है, यह तर्क ही अपने आप में हास्यास्पद है! वर्ना यूं तो राज्य तथा विपक्ष कई मुद्दों पर मोदी सत्ता को कहते हैं, दबाव
डालते हैं। किसान बिल, मजदूर बिल इसका ताजा संदर्भ है। विपक्ष या राज्य तो छोड़ ही
दीजिए, मोदीजी विशेषज्ञों की बात नहीं सुनते!!! कोरोना काल में
वैज्ञानिकों या चिकित्सकों की बातें नहीं मान रहे, तो यह तर्क कि राज्यों की बात
मानी थी, यह अपने आप में बचकानी दलील है! बताइए, वैज्ञानिकों ने कहा कि यह कीजिए वह कीजिए, नहीं किया!!! विशेषज्ञों ने कहा फिर भी नहीं किया!!! दूसरी लहर के बारे में बताते रहे लेकिन मोदीजी चुनावी प्रचार
में व्यस्त रहे!!! चुनाव रद्द करने की सलाह दी गई, नहीं सुनी! और ऐसे महानायक ने राज्यों की यह मांग सुन
ली!!! गजब है न? ऊपर से राज्यों ने ग्लोबल टेंडर निकाले तब
कंपनियों ने सीधा कह दिया कि हम तो केंद्र के साथ ही डील करेंगे। कंपनियों की इस
जिद पर मौन भी धारण किया!
सवाल यह भी है कि टीका, टीका की राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय उपलब्धता के बारे में केन्द्र सरकार और उसकी एजेंसियों से बेहतर
राज्य कैसे जान सकते हैं? ऐसे में प्रधानमंत्री
के स्तर पर यह निर्णय क्यों लिया गया था उस वक्त? इस फैसले की आलोचना तो उस वक्त टास्क फोर्स के सदस्य ही कर रहे थे। यानी कि
मोदीजी ने स्वयं ही फैसला ले लिया होगा। जब प्रधानमंत्री ने 18 से 44 साल के आयुवर्ग
को टीका लगाने की घोषणा की थी, तब इसकी आलोचना राष्ट्रीय टीकाकरण अभियान से जुड़े केन्द्रीय अधिकारियों ने भी
की थी। नेशनल कोविड टास्क फोर्स से जुड़े डॉ. एनके अरोड़ा ने ही उस पुरानी घोषणा
पर सवाल उठाया था। जब देश में टीके की कमी थी तो फिर 1 मई 2021 से पहले वो घोषणा
क्यों हुई होगी इसे ना मोदी समझा सकें, ना उनकी सरकार। उस वक्त भी विशेषज्ञों ने
इस बदलाव को पहले से चली आ रही नीति के विरुद्ध और दोषपूर्ण नीति करार दिया था।
16 जनवरी 2021 से लेकर 21 अप्रैल 2021 तक टीका अभियान की व्यवस्था चली आ रही
थी। मोदीजी की ये दलील कुछ हद तक सही है कि राज्य भाँति भाँति के स्वर उठाने लगे
थे। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार, साफ साफ तो नहीं किंतु कुछ कुछ हद तक
महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार ने टीका नीति में राज्यों के अधिकार की दलीलें दी थी। कहा
जाने लगा था कि संविधान में स्वास्थ्य राज्यों का विषय है। 1 मई 2021 से फैसला
लिया गया कि टीका अभियान की जवाबदेही राज्यों को दे दी जाए। 19 अप्रैल 2021 को
एलान होता है कि राज्य टीका अभियान की जिम्मेदारी चलाएँगे। कहा जाता है कि 1 मई
2021 से संभालेंगे। सिर्फ 11 दिनों का समय दिया गया राज्यों को!
राज्यों पर जिम्मेदारी डाली, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कह दिया कि
भारतीय कंपनियों से केंद्र 50 प्रतिशत टीका खरीदेगा, राज्य 25 प्रतिशत और निजी
अस्पताल की झोली में बाकी के 25 प्रतिशत। यानि राज्यों पर 25 प्रतिशत जिम्मेदारी
डाली, 25 प्रतिशत स्वतंत्र हाथों में और बाकी का आधा हिस्सा खुद के पास ही रखा था! ऊपर से यह भी कहा था उस समय कि राज्य कितने टीके खरीदेगा
उसका कोटा केंद्र सरकार तय करेगा! यही नहीं, राज्यों को केंद्र से अधिक दाम
पर टीके मिलने थे!!! ऊपर से राज्यों ने ग्लोबल टेंडर निकाले तो टीका कंपनियों
ने राज्यों से कह दिया कि केंद्र सरकार की अनुमति के बिना वे राज्यों को टीका नहीं
बेच सकते। साफ है कि राज्यों ने जिस प्रकार की नीति मांगी थी, उन्हें वैसी नीति
नहीं दी गई थी।
क्या महज दो विपक्षी
राज्यों की मांग के दबाव में मोदीजी जितना मजबूत नेता अपनी पुरानी नीति बदलने को
विवश हो गया होगा? उपरांत इस बात का कोई
ठोस प्रमाण नहीं है कि भारत के बहुत ज्यादा राज्यों ने विकेंद्रीकरण की मांग की
थी। ऐसे में मूल तार्किक सवाल यह भी है कि राष्ट्र के नाम संबोधन जैसे मंच से पीएम
मोदीजी ने जो दावा किया वो क्या बिल्कुल सच था?
25 प्रतिशत अधिकार राज्यों को दिया गया और राज्य जब खरीदी करना शुरू करते हैं
तो टीका कंपनियाँ कहती हैं कि हम केंद्र के साथ ही डील करेंगे। केंद्र सरकार से इस
बाबत कुछ राज्यों ने मदद मांगी। केंद्र चुप रहा! लेकिन मूल तार्किक सवाल यह है कि क्या पीएम मोदीजी ने जो कहा वह बिल्कुल सच
था? पीएम मोदीजी ने संबोधन में कहा था कि हमने राज्यों को
खरीदी का अधिकार इसलिए दिया क्योंकि राज्यों की तरफ से ही ऐसी मांग की गई थी।
कुछेक राज्यों ने ज़रूर मांग की थी, इसमें कोई शक नहीं है। किंतु सबसे पहला जो
चित्र बाहर आता है उसी चित्र को देख लीजिए।
भारत में 28 राज्य हैं, 8 केंद्र शासित प्रदेश हैं। इन 8 केंद्र शासित
प्रदेशों में से दिल्ली और पुडुचेरी में लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार है। कश्मीर
में राष्ट्रपति शासन लागू है। बाकी 28 राज्यों की बात करें तो 12 राज्यों में सीधे
तौर पर बीजेपी शासित सरकारें हैं, जबकि 6 राज्यों में उनकी गठबंधन सरकारें हैं,
जहाँ बीजेपी बराबरी या उससे भी आगे की स्थिति में है। बाकी रहे 10 राज्य, जिनमें से
कुछ बड़े और मजबूत कहे जाए ऐसे राज्यों में विपक्षी दल शासन कर रहे हैं। दूसरे
छोटे राज्यों में, जहाँ विपक्षी शासन है वहाँ कोरोना संक्रमण के क्या आंकड़े हैं
उसके बारे में कोने में ही खबरें आती हैं।
यूं देखा जाए तो पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र, ये दोनों राज्य ही ऐसे थे जिनके
मुख्यमंत्रियों ने टीका खरीदी का अधिकार मांगा था। महाराष्ट्र राज्य को कुछ तर्कों
के बाद छोड़ना पड़ेगा ऐसी स्थिति है। क्योंकि महाराष्ट्र के सीएम उद्धव ठाकरे ने
केंद्र से ऐसी कोई सीधी मांग नहीं की थी या इस संबंध में खत नहीं लिखा था। सीएम
उद्धव ठाकरे का जो एकमात्र खत है वह तो विकेन्द्रीकरण की नीति लागू होने के बाद का
खत है। ममता बनर्जी ने ज़रूर खत लिखा था। तमिलनाडु के एमके स्टालिन ने टीका खरीदी
का अधिकार राज्यों को देने की राय रखी तब वे वहाँ मुख्यमंत्री नहीं थे। दूसरे बड़े
विपक्षी नेता, सांसद या विधायक जो भी बोले हो, किंतु वे किसी राज्य के मुख्यमंत्री
नहीं थे।
सीधा कहा जाए तो एक ही राज्य, कुछ तर्कों को मिला दे तो समूचे भारत में दो ही
राज्य थे, जिन्होंने टीका खरीदी का अधिकार मांगा था। तो क्या प्रधानमंत्री नरेंद
मोदी ने दो विपक्षी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के दबाव के नीचे अपना पुराना फैसला
बदला था? ऐसा सोचना बचपना ही है। यानि कि राज्यों ने अधिकार मांगा
था, पीएम का यह दावा बिल्कुल संदिग्ध वाली श्रेणी में आता है।
असल में कई गैरबीजेपी शासित राज्यों ने इस विकेन्द्रीकरण की आलोचना की थी। सामूहिक
मांग तो यह थी कि केंद्र को वैक्सीन मंगाने की अपनी जिम्मेदारी को ज्यादा अच्छे से
निभाना चाहिए। सामूहिक मांग तो यह थी कि वैक्सीन को लेकर और दोनों टीका कंपनियों
को लेकर राज्यों की जो दिक्कतें हैं उसे दूर करना चाहिए। सामूहिक मांग टीके के अलग
अलग दामों में समीक्षा करने की थी। सामूहिक मांग यह भी थी कि टीका नीति को ज्यादा
पारदर्शी और ज्यादा बेहतर बनाना चाहिए तथा वितरण प्रक्रिया को ठीक करना चाहिए।
आप ही सोचिए कि यदि समूचे भारत में केवल एक राज्य, ज्यादा से ज्यादा शामिल करे
तो समूचे भारत में सिर्फ दो राज्य ही विकेंद्रीकरण को लेकर कह रहे थे तो फिर बाकी
के राज्य केंद्रीकरण की ही मांग कर रहे थे, ऐसा ही साबित होता है न? यानि 28 में से 26 राज्य केंद्रीकरण को सही मानते थे और
फिर भी विकेंद्रीकरण हुआ तो यह राज्यों की मांग पर नहीं हुआ था। विकेंद्रीकरण की
आलोचना गैरबीजेपी राज्यों ने भी की, विशेषज्ञों ने भी की, कोविड टास्क फोर्स में
शामिल लोगों ने भी की। तो क्या पीएम मोदी ने बिना किसी से पूछे, यूं ही, अचानक ही
विकेंद्रीकरण लागू कर दिया था? क्यों लागू किया था? इसलिए कि वे अंत में इसी तरह दूसरों के सिर ठीकरा फोड़ना
चाहते थे?
केंद्र की इस नयी नीति की खूब आलोचना होने लगी। अदालत के भीतर और अदालत के
बाहर पूछा जाने लगा कि यह कैसी नीति है कि एक ही कंपनी से केंद्र सरकार सस्ते टाम
में टीका खरीद रही है और उसी कंपनी से राज्य सरकार दोगुने से अधिक दाम पर टीका
खरीदेगी! यह नीति केँद्र ने बनाई थी, लेकिन संबोधन में इसको
नजरअंदाज करके ठीकरा दूसरों के सिर फोड़ दिया गया!!! यही नहीं, कंपनियों ने राज्यों से डील करने को मना कर दिया तब भी केंद्र ने
कुछ नहीं किया! कंपनियाँ केंद्र की गारंटी मांग रही थी, केंद्र चुप था!!! मोदीजी ने वैक्सीन खरीद का जिम्मा राज्यों को दे तो दिया,
किंतु खरीद का रास्ता ही तैयार नहीं किया!!!
राज्यों की बात तो छोड़ दीजिए, केंद्र ने आधी जिम्मेदारी खुद ही उठा रखी थी।
लेकिन केंद्र भी अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पाया था! जिन्हें पहली डोज़ लगी थी, उन्हें दूसरी डोज़ देने में भी साँसे फूलने लगी
थी। मजबूरन टीकों की दो खुराक के बीच का अंतर बढ़ाना पड़ा। क्योंकि अपनी आधी
जिम्मेदारी में केंद्र भी तो फेल हो गया था।
अपनी नाकामी छिपाने के
लिए पल्स पोलियो का उदाहरण देते हुए प्रधानमंत्री मोदीजी! उस राष्ट्र के प्रधानमंत्री, जिस राष्ट्र ने पोलियो को हराने
में विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक अव्वल काम किया। गजब तो यह कि अपने टीका
अभियान की नाकामी छिपाने के लिए पल्स पोलियो वाला अति हास्यास्पद तर्क व्हाट्सएप
विश्वविद्यालय में चल रहा था। उस विश्वविद्यालय में, जिसका नाम भी हास्यास्पद ढंग
से लिया जाता है। व्हाट्सएप विश्वविद्यालय से शुरू हुआ यह अति हास्यास्पद तर्क
बीजेपी के नेताओं के बयानों में आने लगा! फिर प्रधानमंत्री सरीखे शख्स के भाषण में पहुंच गया!!! वह भी राष्ट्र के नाम संबोधन जैसे मंच पर!!! कुछ आलोचक तीखे सवाल पूछते हैं कि ये लोग गवर्नमेंट चला
रहे हैं या व्हाट्सएप गैंग जैसा कुछ और? लेकिन ऐसी अपमानजनक टिप्पणी करने के बजाए शांत भाव से
पूछना चाहिए कि मोदीजी आप के व्हाट्सएप में भी ऐसे ऐसे फेक न्यूज़ हैं, तो फिर फेक
न्यूज़ किसे कहा जाए और किसे नहीं, यह भी ट्वीटर की जगह आप ही तय करने लगे हैं यह
सही ही है। संबित पात्राजी के लिए तो बहुत सही है।
दरअसल देश में
टीके की कमी थी और उसी वक्त मोदी सत्ता ने यह जिम्मेदारी राज्यों पर डाल दी! ताकि उनके ऊपर टीके की कमी का ठीकरा ना फूटे! फिर दूसरी लहर
सरकारी दावों के मुताबिक कमजोर हुई तो मोदी सत्ता ने वह फैसला वापस ले लिया। ठीकरा
राज्यों पर फोड़ दिया!
टीका अभियान को लेकर बहुत गंभीर सवाल उठ चुके हैं। पूछा जा रहा था कि पिछले
साल जब दुनिया के बड़े देश टीका खरीद रहे थे तब भारत क्या कर रहा था? राष्ट्र के नाम संबोधन में मोदीजी ने इसके संदर्भ में कह
दिया कि भारत को अपने वैज्ञानिकों पर भरोसा था, इसलिए सरकार टीका वितरण के काम में
लग गई। बताइए, टीका ही नहीं था और वितरण के काम में लग गए!!! अमेरिका जैसे देश भी अपनी कंपनियों के अलावा दूसरे देशों
की कंपनियों से टीका खरीद रहे थे, तो क्या यह मान ले कि उन्हें अपने वैज्ञानिकों
पर कम भरोसा था?!
रही बात मौतों के आंकड़ों पर उठ रहे तथ्यात्मक सवालों की, मोदीजी राष्ट्र को
संबोधित करते समय इस समस्या पर कुछ बोले ही नहीं। कई ऐसे मसले हैं, रिपोर्ट हैं,
गणनाएँ हैं, गाणितीय अनुमान हैं, जो दर्शा रहे हैं कि संक्रमितों और मारे गए लोगों
का सही आंकड़ा है ही नहीं। जबकि रिसर्च करने वाले वैज्ञानिक महीनों से कह रहे हैं
कि सही डाटा मिलेगा तो अच्छे नतीजे हम दे सकेंगे। वैज्ञानिकों को समझना चाहिए कि
आपको फंड ही कम दिया जा रहा है, तो फिर सही डाटा की उम्मीद छोड़ ही दीजिए!!!
टीकों को मुफ्त करना। मोदी सत्ता की यह नीति भी देर आए दुरुस्त आए सरीखी है।
मुफ्त टीके की मांग तो देश कई महीनों से कर रहा था। लेकिन चुनावी समर में व्यस्त
मोदीजी उस समय सिर्फ बिहार को मुफ्त टीका देने की बात कर गए!!! टीके का राजनीति में इस्तेमाल करने की शुरुआत करने को लेकर
मोदीजी की उस वक्त आलोचना भी हुई थी। लेकिन राजनीति करने का अधिकार मोदीजी के पास ही
है। उन्हें राजनीति करनी है, दूसरों को नहीं!!! फिर पश्चिम बंगाल को मुफ्त टीका बाँटने का चुनावी एलान हुआ। अब 18 से 44 वर्ष
के लोगों के लिए यह घोषणा की। मतबल कि टीका कौन सी कीमतों पर बाँटना है और किसको
बाँटना है, उसको लेकर अब तक मोदी सत्ता के पास कोई ठोस नीति ही नहीं है!
अपने इस संबोधन में मोदीजी ने अपना बचाव करने के भरचक प्रयास किए। प्रयास किसी
बच्चे सरीखे हास्यास्पद थे! मोदीजी ने अपने समर्थकों के लिए यही बोला कि यह बड़ी महामारी
है, अदृश्य दुश्मन है। हमने ऊपर पहले ही देखा कि यूं तो सजीव
सृष्टि के लिए वायरस कोई अदृश्य दुश्मन नहीं है। कंप्यूटर की दुनिया के लिए वायरस अदृश्य
दुश्मन ज़रूर है। खैर, लेकिन दुनिया में जो नुकसान हुआ उसका बहाना आगे कर यह जताने
का प्रयास किया कि हमें भी नुकसान हुआ है। सबको नुकसान हुआ है और इसलिए यह मेरी विफलता
नहीं है!!!
अपने इस संबोधन में देश के प्रधानमंत्री देश को बताते हैं कि क्लीनिकल ट्रायल
और आरएंडडी के लिए भारतीय कंपनियों को हज़ारों करोड़ रुपये दिए गए। मोदीजी कह देते
हैं। किस आधार पर कहते हैं उसको पूछने का रिवाज कब का खत्म हो चुका है!!! पता होता है कि गलत कह रहे हैं, फिर भी गलती पर नहीं बोलने
का मीडिया को आदेश होगा शायद!!! क्योंकि 9 मई 2021 को सुप्रीम कोर्ट में उनकी
ही सरकार ने हलफनामे में कहा है कि सीरम और भारत बायोटेक को क्लीनिकल ट्रायल के
लिए कुल 46 करोड़ रुपये दिए गए हैं। हलफनामे में दूसरी कंपनियों का ज़िक्र भी नहीं
था। उपरांत हलफनामे में इन दोनों कंपनियों को आरएंडडी के लिए कोई पैसा दिया गया है
या नहीं उसका भी ज़िक्र नहीं था। मतलब कि ट्रायल के लिए 46 करोड, आरएंडडी के लिए
एक पैसा नहीं! फिर भी राष्ट्र के नाम संबोधन में कह देते हैं कि हमने
ट्रायल और आरएंडडी के लिए हज़ारों करोड़ दिए हैं!!! 46 करोड की राशि को कब से हज़ारों करोड़ की राशि मानना शुरू हो गया है, देश
को पता नहीं चल पाया है अब तक!
राष्ट्र के नाम संबोधन
में प्रधानमंत्री मोदी अपने कथित चरणबद्ध तरीकों का खूब बखान करते हैं। मार्च 2020
से लेकर जून 2021 तक, चरणबद्ध कितना था और कैसा था, इसका कच्चा चिठ्ठा देश क्या,
दुनिया ने भी देख लिया है। अस्पतालों में, स्मशानों में, नदियों में इस कथित
चरणबद्धता की पर्ते खुली पड़ी है। इतना चरणबद्ध कि स्वयं पीएम मोदी कोरोना पर विजय
का एलान कर देते हैं!!! एलान भी तब करते हैं जब भारत के विशेषज्ञ उनको दूसरी लहर के बारे में चेता
रहे थे!!! फिर क्या हुआ सबको पता है। उनकी चरणबद्धता को अदालतें खूब
खरी खोटी सुना चुकी हैं। ऐसी लापरवाही को यदि मोदीजी चरणबद्धता कहते हैं, तब
विशेषज्ञों के लिए माथा पीटने के सिवा कुछ नहीं बचता। ऐसी चरणबद्धता को किसने देखा
है भाई, जहाँ पहले परीक्षा पर चर्चा होती है, फिर परीक्षा कैंसिल कर दी जाती है!
एक बात तो स्वयं
सिद्ध है कि सुप्रीम कोर्ट की कड़ी फटकार के बाद वैक्सीनेशन नीति में बदलाव हुआ
है। यूं ही नहीं हुआ। साथ ही राष्ट्र के नाम संबोधन की नौवीं कड़ी में मोदीजी ने
अपनी बिगड़ती छवि को बचाने के लिए भरचक कोशिश की कि सारा ठीकरा राज्यों के सिर
फोड़ दिया जाए। राज्यों ने कहा इसलिए बदला, अब राज्य नहीं कर सकें इसलिए मैं फिर
से अपने हाथ में ले रहा हूं! बस यही अंदाज था नौवीं कड़ी में। जबकि उसका पूरा कच्चा
चिठ्ठा हम ऊपर देख ही चुके हैँ।
एक देश एक टैक्स,
एक देश एक चुनाव जैसी बातें करने वाले प्रधानमंत्री एक ही वैक्सीन के दाम अलग अलग
क्यों, इसका जवाब देना ज़रूरी नहीं समझते होंगे शायद। तभी तो इस विषय पर कुछ नहीं
कहा! कोवीशिल्ड के एक ही टीके की कीमत अलग अलग तो है ही, साथ में आयु वर्ग के
हिसाब से भी एक आयु वर्ग को फ्री, दूसरे को पैसा देना पड़ेगा! सुप्रीम कोर्ट ने जिस नीति को ‘मनमर्जी’ और ‘अतार्किक’ कहा था, वह मोदीजी की ही सरकार की नीति थी, जिम्बाब्वे वालों की नहीं थी! सुप्रीम कोर्ट ने इस नीति को लेकर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा था कि आप की ये
वैक्सीन नीति हमारी समझ से तो परे है। सुप्रीम कोर्ट के इस तंज को समझिएगा ज़रूर।
वैसे मोदीजी की हर बात समझ से परे ही होती है! है न? शायद उन्हें स्वयं ही समझ नहीं आती होगी उनकी बात! तभी तो बदलने की घोषणा ऐसे करते हैं, जैसे इतिहास को बदल रहे हो! अरे मोदीजी, आप ही ने गलती की, आप ही अपनी गलती सुधार रहे हैं, तो फिर यूं ही
सुधार लीजिए न! अनर्गल प्रलापों के साथ सुधारने की ज़रूरत ही क्या है?
जब देश में टीके
की कमी थी तभी दूसरे आयु वर्ग को टीकाकरण में क्यों शामिल किया गया इसका सही जवाब
मोदीजी ने अब तक नहीं दिया है। जब देश में टीके की कमी थी तभी टीका उत्सव का जुमला
क्यों फेंका गया, जवाब नहीं है। यूं तो राज्यों ने विकेंद्रीकरण की मांग ही नहीं
की थी, फिर भी अचानक से नीति क्यों बदली थी, जवाब नहीं है। कोविड टास्क फोर्स और विशेषज्ञों
ने ऐसी कोई राय नहीं दी थी, फिर भी ऐसा फैसला क्यों लिया था, जवाब नहीं है। फैसले
में राज्यों को खरीदी का अधिकार देने के बाद कंपनियों ने केंद्र से ही डील करने का
मन बनाया तब केंद्र ने कौन से त्वरित कदम उठाए थे, जवाब नहीं है। जब दुनिया के कई
देश अपने यहाँ टीका अभियान शुरू कर चुके थे, अपनी कंपनियों के अलावा विदेशी
कंपनियों से टीका खरीद कर टीकाकरण अभियानों को मजबूत कर रहे थे, तो फिर भारत ने एक
साल बाद भी इसमें क्यों लापरवाही बर्ती, जवाब नहीं है। जब तक दवाई नहीं तब तक
ढिलाई नहीं जैसे अनेक मंत्र देने वाले पीएम मोदी चुनावों में ऐसी रैलियाँ क्यों
करते रहे, जो कोरोना नियमों के बिल्कुल विपरीत थी, जवाब नहीं है। रैलियों में भारी
भीड़ देखकर गदगद होने वाले मोदीजी शाम को किस मुँह से दो गज की दूरी का उपदेश दिया
करते थे, जवाब नहीं है। जब समूचा देश तिल तिल कर मर रहा था, स्मशानों में जगह नहीं
थी, दुनिया का सबसे विशाल लोकतंत्र लाशों के ढेर पर बैठा था, तब पीएम सरीखा आदमी
दीदी ओ दीदी वाली गलियों में कैसे घूम रहा था, जवाब नहीं है। जब विशेषज्ञ और
वैज्ञानिक देश को दूसरी लहर के बारे में अवगत करा रहे थे, बावजूद इसके पीएम मोदी
और उनके स्वास्थ्य मंत्रालय ने कोरोना पर विजय की घोषणा कैसे कर दी थी, किस आधार
पर कर दी थी, क्यों कर दी थी, जवाब नहीं है।
कोरोना काल में
सत्ता पक्ष की चापलूसी करने के चक्कर में तमाम हदें पार करने वाली कंगना रनौत और
झोलाछाप तरीकों से लबालब रहने वाले बाबा रामदेव पर न जाने किसकी कृपा बरस रही थी
इन दिनों। कंगना रनौत का खँभा तो फिर भी ट्विटर ने उखाड़ दिया। लेकिन बाबा रामदेव? यूं तो मोदीजी की
सरकार कहती है कि विपक्ष भ्रम फैला रहा है। लेकिन बाबा रामदेव ने तो पिछले साल से
लेकर इस साल तक भ्रम का भ्रमण ही कर दिया!!!
झोलाछाप बाबा
रामदेव ने तो सरेआम कह दिया कि टीको के दो डोज़ लेने के बाद भी देशभर में एक हज़ार
डॉक्टर मर गए। जबकि स्वयं केंद्र सरकार ऐसा नहीं कह रही थी। प्रधानमंत्री मोदीजी
पर बहुत बड़ा सवाल रामदेव और डॉक्टर वाले विवाद को लेकर उठता है। जिन डॉक्टरों को,
नर्सों को, अस्पतालों के स्टाफ को, मेडिकल विशेषज्ञों को कोरोना वॉरियर्स कहा
मोदीजी ने, उनके सम्मान के लिए भारतीय वायुसेना को बुलाकर आसमान से फूल बरसाए,
अपने राष्ट्र के नाम के पूर्व संबोधनों में जिन चीजों पर गर्व करके छाती फूलाई, उन
पर एक झोलाछाप व्यवसायी रामदेव बाबा न जाने क्या क्या बोल गया!!! इतना विवाद कर दिया तो बदले में मोदीजी का स्वास्थ्य मंत्रालय प्यार से बाबा
को चिठ्ठी लिखता है कि ऐसा मत बोलो! जबकि बाबा पर वैसी ही कार्रवाई होनी
चाहिए थी, जैसे दूसरों पर होती है। चिठ्ठी के बाद बाबा ने एक दिन के लिए मुँह बंद रखा।
लेकिन फिर दूसरे दिन से उसी विवाद वाली गलियों में चले गए! जैसे कि कंगना के बाद रामदेव को भी पीछे से कोई बड़ा आदमी धक्का दे रहा हो कि
बोलिए।
एक तरीके से
वैक्सीन, कोरोना की दवा, कोरोना के इलाज की पद्धति... सभी चीजों को रामदेव ने सीधे
सीधे ढोंग कहा! एक दिन तो समूचे देश को चैलेंज कर दिया कि मुझे गिरफ्तार करके दिखाओ, देखते
हैं कि किसके बाप में हिम्मत है। असहाय डॉक्टरों ने पीएम मोदीजी को चिठ्ठी लिखी कि
रामदेव को गिरफ्तार कराओ। मोदीजी ने कोरोना वॉरियर्स की चिठ्ठी को पढ़ा ही नहीं
होगा शायद। क्या पता ये कोरोना वॉरियर्स भी एक जुमला ही हो!!!
सोचिए, झोलाछाप
बाबा रामदेव इतना कुछ बोल सकते हैं, समूची प्रक्रिया को, यहाँ तक कि मोदीजी की
वैक्सीन को भी चैलेंज कर सकते हैं! लेकिन कोई गलती से पूछ ले कि हमारे बच्चों की वैक्सीन
विदेश क्यों भेज दी तो गिरफ्तारियाँ होने लगती हैं!!! कोई पत्रकार, कलाकार कोरोना पर मोदीजी की कमियों की जरा सी आलोचना कर ले तो
बाकायदा राजद्रोह लगाया जाता है!!! वाह, मोदीजी!!!
मोदीजी को राष्ट्र
के नाम संबोधन में बताना चाहिए था जिस कोरोनिल को, जो बाबा रामदेव की पतंजलि का
कथित उत्पाद है, उसे डब्ल्यूएचओ का अप्रूवल ही नहीं मिला है, भारत के मेडिकल
संस्थान उसे प्रमाणित नहीं किए हैं अब तक, उसे मोदीजी का स्वास्थ्य मंत्रालय और
उनकी पार्टी की सरकार किस आधार पर लोगों को बाँट रही है?
सोचिए, भारत राष्ट्र, जो फिलहाल वैक्सीन
की किल्लत से जूझ रहा है, वह राष्ट्र क़रीब 40 देशों को मुफ्त वैक्सीन बाँट चुका
है!!! इसलिए, ताकि मोदीजी की वैश्विक छवि को चमकाया जा सके???!!! जो देश दुनिया को टीके बाँट रहा था, वह देश अब टीकाकरण में कई राष्ट्रों से
पिछड़ चुका है!!! मार्च के बाद अपने यहाँ क्या हालात हुए, सबको पता है। इस घटना ने मोदीजी की अदूरदर्शिता
तथा विवेकहीनता को प्रकट किया है। पिछले साल से ऑक्सीजन संकट का खतरा जताया जा रहा
था, प्लांट लगाने की घोषणा कर मोदीजी ने जैसे कि हाथ ही धो डाले!!! फिर इस साल क्या हुआ, ताजा इतिहास ही है। वेंटिलेटर तो अब भी घूल फांक रहे
हैं!!! कुछ भी अकल्पनीय नहीं था, बल्कि तमाम खतरों की संभावनाएँ बहुत पहले जताई जा
चुकी थी। अब पीएम सब कुछ अकल्पनीय था, यह जुमला फेंकते हुए जिम्मेदारी से हाथ धोने
को चल पड़े हैं!!!
हमने यहाँ पर
मोदीजी के नौवें राष्ट्रीय संबोधन का ज़िक्र किया फिर भी इतना लंबा आर्टिकल होने
लगा। सोचिए, पहले आठ राष्ट्रीय संबोधनों में मोदीजी ने जो झूठ देश को परोसे, जो
अनर्गल प्रलाप किए, उसका खाता खोलने बैठेंगे तो कहाँ बात जाएगी? इसके लिए उस काल
के कुछ पुराने लेख हैं, उन्हें पढ़ लीजिएगा। जैसे कि 14 अप्रैल 2020 के अपने
राष्ट्र के नाम संबोधन में मोदीजी देश के सामने कहते हैं कि जिस समय देश में कोई
कोरोना मरीज़ नहीं मिला था तभी से हमने एयरपोर्ट पर स्क्रीनिंग शुरू कर दिया था!!! इस संबोधन में
उन्होंने दावा किया था कि उनकी सरकार ने 18 जनवरी 2020 से ही एयरपोर्ट पर
स्क्रीनिंग शुरू करा दिया था। जबकि उन दिनों स्क्रीनिंग नहीं होने को लेकर कई
रिपोर्ट छप रहे थे। कई उड़न खटोले (प्लेन) विदेश से आए, फिर अमेरिका वाले चच्चा भी आए,
न जाने कितना कितना हुआ मार्च तक!!! कहीं कोई स्क्रीनिंग वाला मंजर कम से कम मार्च तक नहीं था। होता तो कनिका
कपूर स्क्रीनिंग को काटकर नहीं आती!!! याद है न पिछले साल वाली कनिका कपूरजी और उनके कारनामे!!!
जब मार्च में भारत
सरकार को और मोदीजी को कोरोना के खतरों के बारे में चेताया जा रहा था तब वे
डब्ल्यूएचओ को तो कुछ नहीं बोले, किंतु बार बार देश को उस समय कहते रहे कि विपक्ष
भ्रम फैला रहा है, भारत के नागिरकों में डर पैदा कर रहा है!!! बेशर्मी की
इंतेहा यह कि ये लोग अब भी विपक्ष भ्रम फैला रहा है वाला जुमला फेंक रहे हैं!!!
केवल कोरोना के
संदर्भ में ही नहीं, दूसरे समय पर भी जब भी राष्ट्र के नाम संबोधन किए मोदीजी ने,
चंद पलों में उनकी बातों को आसानी से चैलेंज किया जा सका! चंद घंटों मे
उनके कई दावों को निराधार कहा जाने लगा! और इसीलिए यहाँ मूल सवाल तो यह है कि राष्ट्र के नाम
संबोधन जैसी महत्वपूर्ण परंपरा के समय भी प्रधानमंत्री मोदी अपने दावों, कथन,
बातों, आंकड़ों आदि की पुष्टि नहीं करते क्या? अपनी लोकप्रियता के लिए तरह तरह के सर्वे कराने वाले
मोदीजी को संबोधन से पहले यह तो पता कर लेना चाहिए कि वे जो बोल रहे हैं उसमें
कितना दम है।
अपनी ही गलतियाँ, अपना ही दोष। फिर जब कोई रास्ता नहीं बचा तो राष्ट्र के नाम
संबोधन में राज्यों पर ठीकरा फोड़ दिया और अपनी जिम्मेवारियों से हाथ धोकर पतली
गली से निकलने की कोशिश की! दरअसल, कोरोना
गया भाड़ में, फिलहाल तो ब्रांड मोदी को बचाने की कोशिश की जा रही है!!! संघ हो, बीजेपी हो या बीजेपी के नेता हो, सारे जानते हैं कि ब्रांड मोदी
बचेगा तो सत्ता रहेगी। तो फिर सवाल उठता है कि ऐसी चीजों के लिए आप के पास मन की
बात तो है। राष्ट्र के नाम संबोधन जैसी परंपरा को आप क्यों दूषित किए जा रहे हैं?
जब लाशों की गिनती का ही पता नहीं, हर दूसरे-तीसरे घर में लोग लाश बने हो, ऐसे
में लाशों के बीच निर्मम चुनावी स्नान करने की हिम्मत दिखाने वाले प्रधानमंत्री को
यूं लाशों के बीच खुद को निर्दोष बताते हुए पतली गली से निकलते देखना ठीक तो नहीं
है। किंतु ऐसा मन की बात में होता तो ठीक मान लेते। राष्ट्र के नाम संबोधन जैसी
परंपरा को क्यों दूषित किए जा रहे हैं? उसे तो छोड़ दीजिए। 7 जून 2021 वाला राष्ट्र के नाम संबोधन
बार बार देखना चाहिए, सुनना चाहिए, पढ़ना चाहिए। फिर उसे समझना चाहिए। उस पर ही
रिसर्च करना चाहिए। तब जाकर आपको पता चलेगा कि कैसे कोई महानायक खुद को तमाम
जवाबदारियों से मुक्त करते हुए जनता को कमजोर तथ्यों वाला भाषण पकड़ा कर निकल लेता
है!!!
टीके को लेकर तो शुरुआत से झूठ ही बोला गया है। बिना टीके के दुनिया का सबसे
बड़ा टीका अभियान शुरू करने वाला महानायक उसी वक्त टीका उत्सव की घोषणा कर देता
है, जब राज्यों में टीका तो छोड़िए, दो बूँद ऑक्सीजन भी नहीं था!!! हमने मार्च 2020 के अपने लेख में लिखा था कि अगर मोदीजी सफल होते हैं तो सारी
सफलता का श्रेय खुद ही ले लेंगे, लेकिन अगर असफल होते हैं तो ठीकरा जनता और
राज्यों पर फोड़ा जाएगा। सोचिए, हमारे जैसे आम नागरिक बिना रिसर्च किए मोदीजी की
इस प्रक्रिया को एक साल पहले ही परिभाषित कर सकते हैं, तो फिर ये नेता तो हम
नागरिकों से कई गुना चालाक होते हैं। ये लोग चालाकी से लाशों के बीच चुनाव कर लेते
हैं, लोगों को बुलाकर विशाल रैलियाँ-सभाएँ कर लेते हैं, फिर जीतने-हारने के बाद
उसी जनता को कहते हैं कि आप लापरवाह हो गए थे इसलिए कोरोना फैल गया!!! वे जनता को फँसा कर खुद निकल जाते हैं।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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