“सियासत इस कदर अवाम
पे अहसान करती है,
पहले आँखे छीन लेती है फिर चश्में दान करती है”
आरएसएस, यानी कि संघ, उसके लिए ये पंक्तियाँ बिल्कुल फिट बैठती हैं। ये ठोस दलील ज़रूर दी जा सकती है
कि संघ का सामाजिकता और संस्कृति वाला मुखौटा तो बहुत पहले से ही उतर चुका है। जी, सही है। संघ अपना वो
मुखौटा बहुत पहले और बहुत बार भी उतार चुका है। अब की बार मोदी सरकार में वो मुखौटा
फिर एक बार उतरा है। सामाजिक जिम्मेदारी और सांस्कृतिक नैतिकता को छोड़ ही दीजिए, सरसंघचालक मोहन भागवत
तो बाकायदा कह देते हैं कि कोरोना से मरने वाले तो मुक्त हो गए हैं!!! मुक्त हो गए हैं
जैसा जिम्मेदारी मुक्त बयान ही पॉजिटिविटी कहलाता होगा शायद!!!
जिस देश में सरकारी लापरवाही के चलते लाखों लोग मर गए, सत्ता की आत्म मुग्धता
के चलते लाखों परिवार तबाह हो गए, किसी के अहंकार के चलते सैकड़ों बेगुनाह जिंदगियाँ हमेशा के लिए बर्बाद हो गई, जहाँ लाशें जलाते जलाते
चिमनियाँ पिघल गई, जहाँ घी दूध की नदियाँ बहानी थी वहाँ नदियों में सैकड़ों लाशें तैरने लगी, उस देश में अपनी पार्टी
की सरकार की धोर विफलता वाली छवि सुधारने के लिए देश का सबसे बड़ा संगठन, जो खुद को सामाजिकता
और संस्कृति से जोड़ता रहता है, वह संगठन, चुनावी नफा-नुकसान का गणित बिठाकर सरकार की छवि सुधारने के लिए समूचे देश के सामने
पॉजिटिविटी का राग आलापने लगे, तो फिर सामाजिकता का मुखौटा और संस्कृति का वो परिधान खुद ब खुद हट जाता है। बस...
निहायती चुनावजीवी और निहायती राजनीतिक संगठन वाली असली आत्मा के दर्शन हो जाते है।
वैसे तो कोरोना की यह त्रासदी अभी समाप्त नहीं हुई है, किंतु संक्रमितों के
आंकड़े और मौतों की तादाद सरकारी दावों के मुताबिक कम होने के बाद, जब लोगों को सबसे ज्यादा
ज़रूरत थी तब नहीं किंतु अब कि जब सियासी ज़रूरत है तब, अस्थायी मंच तैयार
करके संघ के लोग स्थानीय बीजेपी पदाधिकारियों के साथ फोटू खिंचवाते हुए मास्क व दूसरी
चीजें बांटने का फोटो सेशन कर रहे हैं,
उसका कोई औचित्य अब तो नहीं रह जाता। हो सकता है कि ऐसे फोटो
सेशन का इस्तेमाल करके भविष्य में कोरोना सेवा यज्ञों का झूठा इतिहास बनाने की जिम्मेदारी
संबित पात्रा को दी जाए।
आरएसएस, यानी कि संघ, राष्ट्रीय इतिहास-राष्ट्रीय
गौरव-राष्ट्रीय संस्कृति के सहारे सभ्यताओं की भावनाओं का गणितीय समीकरण साधकर राजनीति
और सत्ता प्राप्ति का सबसे बड़ा औजार बनाते हुए कदम बढ़ाता रहा है।
संघ खुद चाहे जो कहता
हो, किंतु प्रमाणित इतिहास और ठोस तथ्यों के सहारे एक बात तो स्वयं सिद्ध है कि संघ
का अपना कोई गौरवपूर्ण इतिहास नहीं रहा है। हा,
उसका इतिहास संघर्षपूर्ण ज़रूर रहा है। किंतु वो संघर्षपूर्ण
इतिहास सत्ता प्राप्ति के प्रयत्नों के इर्द गिर्द ही सांसें लेता रहा। यानी कि उसका
संघर्ष ज्यादातर तो सत्ता और राजनीति के आसपास ही भटकता रहा है।
संध अपने दोषपूर्ण
संशोधनों, आधे-अधूरे और करीब करीब झूठे तथ्यों के सहारे जितने भी दावे कर ले, प्रमाणित तथा ठोस तथ्यों
वाले इतिहास से साबित होता है कि संघ ने स्वयं भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कोई बड़ी
भूमिका नहीं निभाई थी। यहाँ संघ के उस रूप और ढाँचे को ध्यान में ले, जो वो आजादी से पहले
था। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में संघ की भूमिका न के बराबर है। संघ की भूमिका इतनी
है कि लिखा जाना चाहिए कि करीब करीब कोई भूमिका ही नहीं! हा, मैग्नीफायर ग्लास की
मदद से कुछेक प्रयासों को दर्ज ज़रूर किया जा सकता है। लेकिन जितने प्रयास मैग्नीफायर
ग्लास की मदद से ढूंढे जा सकते हैं, उससे कई गुना ज्यादा प्रयास तो स्वतंत्रता संग्राम में इक्का दुक्का व्यक्तिओं
के मिल जाएँगे। यानी कि अकेले शख्स ने संघ जैसे संगठन से कई गुना ज्यादा योगदान स्वतंत्रता
संग्राम में दिया हो ऐसे अनेक वाकये मिल जाएँगे।
स्वतंत्रता संग्राम
में न के बराबर हकारात्मक भूमिका अदा करने के बाद स्वतंत्रता के पश्चात संघ का नाम, संघ की भूमिका नकारात्मक
मामलों में ज्यादा रही। सामाजिकता-समरसता-संस्कृति और राष्ट्र जैसे भावनात्मक कोण का
चतुराईपूर्वक इस्तेमाल करते हुए संघ सत्ता के आसपास अपनी जिंदगी जीता रहा। हिंदू-मुस्लिम, दंगे, राम नाम का भद्दा इस्तेमाल, दो समुदायों के बीच
दूरी पैदा करना, सामाजिक विभाजन, जातियों की अस्मिता के नाम पर जातियों को कट्टरता की तरफ मोड़ना, संकीर्ण मानसिकता, लोकतांत्रिक ढाँचे
के खिलाफ विचारधारा, एकाधिकारवाद, अपने विचार जबरन थोपना और लागू करना, चुनावी नफा-नुकसान के आसपास घूमते रहना,
निहायत गैरज़रूरी मुद्दों पर राई का पहाड़ बनाकर देश का माहौल
बिगाड़ना... न जाने कितने कितने ऐसे कार्य हैं संघ के, जो किसी प्रकार से
सामाजिकता, समरसता और संस्कृति जैसे विशाल नामों के आसपास दिखाई ही नहीं देते।
संघ के लोग संघ के
सामाजिक कार्यों, शिक्षा संबंधित कार्यों, लोगों को मदद पहुंचाने वाले अभियान, आदि का उदाहरण देते हैं। निश्चित रूप से उन कार्यों की प्रशंसा होनी चाहिए। किंतु
संघ का अपना जो ढाँचा है, संघ के पास जितनी मात्रा में समर्पित स्वयंसेवक हैं, उसके पास जिस प्रकार
की राजनीतिक सुविधा है, सत्ता हो या ना हो किंतु उसकी जितनी पहुंच है, उस हिसाब से आजादी के पश्चात संघ के ऐसे कार्यों को ही अगर उसका
गौरवपूर्ण इतिहास बताया जाए, तब तो इतने बड़े संगठन के सामने एक अकेले व्यक्ति ने उससे भी बड़े काम किए हो, मदद की हो, फर्ज निभाया हो, ऐसे मामले अनेकों अनेक
हैं। गुरुद्वारा के सामाजिक कार्यों के सामने तो भारत का बड़े से बड़ा संगठन छोटा पड़
जाता है। उपरांत आजाद भारत के भीतर जितने भी क्रांतिकारी, सामाजिक और फायदेमंद
परिवर्तन हुए, इन सब परिवर्तनों में संघ की भूमिका शून्य ही है।
दरअसल, आरएसएस का सेवा कार्य
विशुद्ध रूप से राजनीतिक है,
लोक कल्याण नहीं। लोक कल्याण आरएसएस का सिर्फ़ मुखौटा है। कोरोना
काल में यह मुखौटा उतर गया है। भारतीय संस्कृति का प्रतीक माँ गंगा की गोद में हजारों
लाशें तैरती रहे उससे संघ को दिक्कत नहीं है! उसकी चिंताएँ तो राजनीतिक नफा-नुकसान
को लेकर है! फिलहाल तो तीन चिंताएँ ज्यादा हैं। पहली, किसान आंदोलन। गोदी
मीडिया के सहारे भले ही किसान आंदोलन को नजर अंदाज करने का और बदनाम करने का खेल चल
रहा हो, किंतु किसान आंदोलन संघ के लिए कोरोना से भी बड़ा खतरा है। दूसरी, कोरोना त्रासदी के
चलते मोदी की बिगड़ी हुई छवि। तीसरी, यूपी का योगी मॉडल।
कोरोना काल में आरएसएस
ने लोगों की मदद के प्रयास ज़रूर किए हैं। मोहल्लों में जाकर आर्युवेदीक दवा बाँटी, मास्क वितरण किया, सैनिटाइज़र दिए। हम
ऐसा नहीं कह रहे कि आरएसएस ने कोई मदद नहीं की। निश्चित रूप से की है। कई जगहों पर
की है। पहली लहर के बाद कोरोना पर विजय के निहायती मूर्ख एलान के बाद जब दूसरी लहर
भारत पर मौत बनकर टूटी उसके बाद मोदी और सरकार की छवि बिगड़ना शुरू हुई तो स्वयंसेवकों
को झोंका गया और उन्होंने कुछ जगहों पर जाकर कोविड अस्पतालों में सेवा भी दी है। कोरोना
पीड़ितों की सेवा का कार्य भी कर लिया। इन सब चीजों से कोई इनकार नहीं है।
किंतु कोरोना काल में
आरएसएस से ज्यादा सामाजिक सेवा इक्का दुक्का व्यक्तियों ने कर ली!!! और वो भी तब की
जब लोगों को ज़रूरत थी, ना कि तब की जब सरकार को दिखावा करने के लिए ये सब करने की ज़रूरत थी। कोरोना काल
ने आरएसएस के मुँह से वो मुखोटा उतार लिया है और उसे बेनकाब कर दिया है। कोरोना काल
में आरएसएस की जो सामाजिक सेवा है उसे जगह मिल ही नहीं सकती। क्योंकि उससे ज्यादा सेवा
तो अकेले दम पर कई व्यक्ति करते रहे!!! आरएसएस ने इन दिनों बस चुनाव की चिंता की, मोदी की छवि की चिंता
की, लोगों की नाराजगी से कितना नफा-नुकसान हो सकता है उसकी चिंता की!!! ना प्रवासी
मजदूरों को सहारा दिया, ना तिल तिल कर मर रहे लोगों को बचाने के लिए कोई गंभीर प्रयत्न किए, ना कभी तुगलकी फैसलों
के खिलाफ आवाज उठाई! ना किसानों का साथ दिया,
ना गरीबों का, ना मजदूरों का, ना नौजवानों का, ना बेरोजगारों का! आरएसएस ने सिर्फ और सिर्फ चुनावी नफा-नुकसान को लेकर ही अपना
माथा फोड़े रखा, नगर निगमों के चुनावी गणित में डूबे रहे,
पांचों राज्यों के विधानसभा चुनाव में तैरते रहे, यूपी के राजनीतिक भविष्य
की चिंताओं में व्यस्त रहे! योगी-मोदी मॉडल को संभालने में संघ व्यस्त दिखाई दिया।
जब दिल्ली, लखनऊ से लेकर मुंबई, अहमदाबाद तक कोरोना
से हाहाकार मचा हुआ था, अस्पतालों में बिस्तर नहीं थे, वेंटीलेटर और ऑक्सीजन सिलेंडर उपलब्ध नहीं हो रहे थे, दवाइयाँ मिलना मुश्किल
हो गया था, मरीजों के परिजन दर-दर की ठोकरें खा रहे थे, सरकार से गुहार लगा रहे थे, पत्रकारों को ट्वीट कर रहे थे और भगवान से प्रार्थना कर रहे
थे, तब भारत का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन ग़ायब था!!!
देशभर में 55000 शाखाएँ लगाने वाले
और लाखों संगठित तथा प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं वाले इस संगठन की गतिविधियों की कोई ख़बर
नहीं थी!!! जब ऑक्सीजन, बेड और एंबुलेंस नहीं मिल रहे थे, तब 'राष्ट्रसेवा' के लिए समर्पित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहाँ था? क्या आरएसएस ऑक्सीजन
नहीं उपलब्ध करा सकता था? जब गुजरात के बीजेपी अध्यक्ष सीआर पाटील गुजरात के सीएम विजय रुपाणी को अंधेरे
में रखकर भी कथित रूप से गैरकानूनी या फिर विवादित तरीके से इंजेक्शन बाँट सकते हैं, तो आरएसएस नियमों के
अनुसार चलकर ये काम तब नहीं कर सकता था क्या?
जब बीजेपी नेता गौतम गंभीर आपराधिक तौर तरीकों से लोगों की सेवा
करने का दावा करते हुए दवा बाँट सकते हैं, तो आरएसएस संवैधानिक तरीकों से इससे ज्यादा क्यों नहीं कर सकता? जब दिल्ली में कांग्रेस
और आम आदमी पार्टी के नेता ऑक्सीजन, प्लाज्मा और दवा मरीजों तक पहुँचा सकते थे,
तो सत्ताधारियों का पितृ संगठन क्यों नहीं? कोरोना आपदा की दूसरी
लहर में पूरी तरह से ग़ायब रहने वाले 'मातृभूमि की निस्वार्थ भाव से सेवा करने'
वाले संगठन पर जब यह सवाल उछाला गया तो कुछ स्वयंसेवकों को सिलेंडर
ले जाते हुए एक तस्वीर में देखा गया। सेवा की खातिर इस तस्वीर को वायरल किया गया था!
लेकिन स्वयंसेवकों के हाथ में कार्बन डाई ऑक्साइड का सिलेंडर था!!!
इस देशव्यापी आपदा
की दूसरी लहर के पहले, लगभग एक साल से पूरी दुनिया इस महामारी से जूझ रही है। अव्वल तो चुस्त-दुरुस्त
सरकारी व्यवस्था और आधुनिक चिकित्सा पद्धति से दुनिया के अधिकांश देश कोरोना संकट में
भारत से बहुत ज्यादा बेहतर कर चुके हैं। लेकिन वायरस विशेषज्ञों द्वारा भारत में दूसरी
लहर की चेतावनी के बावजूद संघ के प्रचारक रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न तो स्वास्थ्य
व्यवस्था में सुधार किया और न ही स्पेशल अस्पताल बनवाए!!! सेंट्रल विस्टा की सनक धारण
किए संघ प्रचारक मोदी ने गाँवों के लिए तो कोई इंतज़ाम किए ही नहीं!!! जबकि भारत की
अधिकांश आबादी गाँवों में रहती है। गाँवों में न टेस्टिंग की सुविधा हुई और न सरकारी
अस्पतालों को दुरुस्त किया गया। और इन सारे अपराधों पर संघ चुप रहा। तो क्या पन्ना
प्रमुख बनाने वाली पार्टी की पितृ संस्था संघ को भारत के नागरिकों की कोई परवाह नहीं
है? नागरिक उसके लिए महज वोटर हैं?
स्कूलों की सबसे बड़ी
श्रृंखला चलाने वाले संघ ने अपने स्कूलों को आइसोलेशन सेंटर में वक्त रहते क्यों तब्दील
नहीं किया? जब कारवाँ लूट गया फिर बाहर दिखावा करना क्या काम का? जब देश में एंबुलेंस
की कमी थी, मरीज तड़प रहे थे, परिजन परेशान थे, उस समय संघ ने अपनी हजारों स्कूल बसों को एंबुलेंस में क्यों तब्दील नहीं किया? लगातार धार्मिक और
सांस्कृतिक शिविर लगाने वाले संघ ने चिकित्सा और औषधि शिविर क्यों नहीं लगाए? सौ से अधिक आनुषंगिक
संगठनों वाले आरएसएस के सेवा भारती, आरोग्य भारती, विज्ञान भारती संगठन कहाँ हैं?
चलिए मान लेते हैं
कि संघ की प्रकृति में ये सब नहीं है। मान लेते हैं कि उसकी प्रकृति सियासी नफा-नुकसान
वाली है, बूथ संगठन वाली है, चुनावजीवी है। लेकिन समूचे भारत को प्रेरणा देने का हास्यास्पद दावा करने वाला
विशालकाय संगठन आरएसएस उन मसीहाओं से भी प्रेरणा ले सकता था, जो अकेले दम पर हजारों
लोगों की सेवा कर गए।
वैसे तो संघ मोदी सत्ता के सामने जिस प्रकार
से शीर्षासन करता दिखाई दे रहा है, उतना तो वाजपेयी के
समय भी मजबूर नहीं था। भारत का गोदी मीडिया तो किसी प्रकार से कोई परेशानी नहीं खड़ी
कर सकता मोदी सत्ता के लिए, किंतु जब अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने सीधे सीधे मोदी को कटघरे में खड़ा करते हुए कोरोना
में भारत की विफलता और नागरिकों की पीड़ा को जगह दी, तो देश के भीतर की
बंद आवाजे खुलने लगी। पिछले 12-13 महीनों से कोरोना पर हो रही हास्यास्पद जुमलेबाजी पर चुप रहने वाला संघ अचानक
नींद से उठा। उसने देखा कि फिलहाल जो शख्स उन्हें सत्ता दिला सकता है उसकी ही साख घट
रही है। जो संघ लाखों मौतों पर चुप बैठा था वो अचानक से उठ खड़ा हुआ। संघ के बड़े बड़े
पदाधिकारी बैठकें करने लगे।
यूं तो पश्चिम बंगाल
में ममता बनर्जी जीती हैं, किंतु बीजेपी और संघ ने जिस तादाद में वहाँ सीटें जीती हैं, एक तरीके से बीजेपी
और संघ के लिए यह बड़ी सफलता है। कोरोना काल में संघ की चिंता यही है कि पश्चिम बंगाल
में अपनी योजनाओं को कैसे आगे बढ़ाया जाए! गंगा में बहती लाशों की चिंता संघ ने नहीं
की, बल्कि उसकी चिंता यही है कि यूपी में योगी सरकार की नाकामियों के चलते जो स्थिति
पैदा हुई उसे कैसे हैंडल किया जाए! मोदी की छवि को जो थोड़ा बहुत नुकसान हुआ है उसको
किन तरीकों से वापिस हासिल किया जाए, यह संघ की सामाजिकता है! संघ को यह फिक्र नहीं रही कि लोग स्मशानों के बाहर भी
कतार लगाकर खड़े हैं। जितनी भी पीड़ा इन दिनों देश ने झेली हो, संघ की चिंता तो किसान
आंदोलन है!
जिस प्रकार से बिना
ऑक्सीजन के लोग तिल तिल कर मरते रहे वह ऐतिहासिक त्रासदी थी। संघ ने चुप रहना बेहतर
समझा उस वक्त! लेकिन जब से मोदी पर सीधे सवाल उठे, राजनीतिक नुकसान होने की संभावना दिखी, संघ के लोग नागपुर
से लेकर दिल्ली तक बैठकें करने लगे!!! इस समय आरएसएस ने समाज की, समाज के लोगों की, लोगों की जिंदगी की
फिक्र नहीं की! उसने तो चुनाव में जीत कैसे मिले उसीको लेकर मंथन किया!!! लोग मरते
रहे और वे चुनाव लड़ते रहे!!!
जिन किसानों के सहारे
संघ सत्ता तक पहुंचा उन्हीं किसानों ने जब अपना अधिकार मांगा तो सत्ता ने उन किसानों
को खालिस्तानी और आतंकवादी तक कह दिया। संघ चुप रहा!!! संघ के लिए शर्म की बात यह है
कि किसान आंदोलन के कारण खालिस्तानी और आतंकवादी क़रार दिए गए सिक्खों ने कोरोना आपदा
में लोगों की भरपूर मदद की। खाने का लंगर लगाने वाले सिक्खों ने इस बार ऑक्सीजन के
लंगर लगाए। ख़बर मिलते ही वे खुद जाकर मरीज़ों तक ऑक्सीजन सिलेंडर पहुँचा रहे थे। उन्होंने
अपने गुरुद्वारों की धर्मशालाओं को अस्पताल और आइसोलेशन सेंटर में तब्दील किया। मुफ्त
में दवाइयाँ और प्लाज्मा उपलब्ध कराए। बेबस और लाचार लोगों को खाना पानी दिया।
संघ की संस्कार भारती
भी कथित तौर पर तब गायब है, जब यूपी में गंगा के किनारे हजारों लाशें दफनाई जा रही हैं!!! योगी सत्ता बेशर्मी
से कह देती है कि शव दफनाना परंपरा है। इस खोखले तर्क के नीचे योगी बेशर्मी से सारे
सवाल और गुनाह को दफना रहे हैं। संघ चुप है!!! ताज्जुब यह है कि संघ के आनुषंगिक संगठन
संस्कार भारती का प्रांतीय कार्यालय यूपी की राजधानी लखनऊ में है। संस्कार भारती की
स्थापना भी लखनऊ में ही हुई थी। यहाँ इन्हें उन्नाव के बक्सर घाट पर कुत्तों द्वारा
नोची जा रहीं और दफनाई गईं लाशें नहीं दिखाई दे रही हैं!!! हिंदू धर्म के रक्षक और
स्वघोषित ठेकेदार ना हिंदुओं का जीवन बचाने के लिए आगे आए और ना हिंदू संस्कारों की
रक्षा कर सके!!! लेकिन अब हिंदू धर्म का अपमान नहीं हो रहा। अब हिंदू धर्म ख़तरे में
नहीं है।
अमीरों ने जो बीमारी
आयात की थी उसका कसूरवार गरीब हो गया!!! गरीबों का हमदर्द संघ चुप रहा! गरीब यूं ही
मरता रहा, संघ मौन साधना में लिप्त था! प्रवासी मजदूरों का जो नजारा 2020 में देखने को मिला, जिस प्रकार की तस्वीरें
सामने आई, सभी का दिल सहम गया। लेकिन संघ चुप रहा! लाखों मजदूर यहाँ-वहाँ फंस गए। उनके लाखों
परिवार, बच्चे, महिलाएँ भारत की सड़कों पर बिना किसी मदद के यहाँ-वहाँ भटकते रहे। भूखे-प्यासे
बच्चे, रोती हुई महिलाएँ, अपनों की चिंता में बेजान घूम रहे मजदूर,
पुलिस की लाठियाँ झेलते हुए गरीब और घर पहुंचने की दिल दहलाने
वाली कहानियों ने झकझोर दिया। एक आम आदमी उनके लिए बहुत कुछ कर गया, किंतु दुनिया के सबसे
बड़े संगठन का दावा करने वाला संघ एक लफ्ज़ भी नहीं बोला और ना ही कुछ खास किया। यूं
कह लीजिए कि सोशल डिस्टेंसिंग के नारों के बीच संघ ने तो गरीबों और मजदूरों से ही दूरी
बना ली!!! गरीब शिकायत भी नहीं कर सकें कि दूसरों को विमान में विदेश से ले आए, हमें क्यों अपने ही
देश में दर दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया?
2021 में भी इसी चीज़ का छोटा सा संस्करण रिपीट हुआ। साथ ही संघ का चुप रहना भी रिपीट
हुआ। 2020 से लेकर 2021 तक सारे खतरों को नजरअंदाज करके स्वयं संघ ही चुनावी मैदान में अपनी भूमिका निभा
रहा था! मौतों के तांडव के बीच निर्मम चुनावी स्नान हो गया देश में!!! संघ इसमें साथ
दिखाई दिया! उधर कहीं दो हज़ार की दवा के लाखों वसूले गए, कहीं ऑक्सीजन के नाम
पर लोगों को लूटा गया, एम्बुलेंस देने के लिये भी हज़ारों की क़ीमत लगाई गई, जिस रेमडेसिविर को
डबल्यूएचओ कोरोना के इलाज की दवा नहीं मानता उस रेमडेसिविर की कैसी कैसी कहानियाँ सुनने
को मिली, अस्पताल में जगह के लिए-दवा के लिए-इंजेक्शन के लिए लोग लंबी लंबी कतार में थे, उधर स्मशानों का जो
हाल इन दिनों देखा वह स्थिति को समझाने के लिए काफी था।
लोग लाशों में तब्दील
हो रहे थे, लाशें एक के ऊपर एक रखकर जा रही थी, स्मशानों में चिमनियाँ पिधल गई, लेकिन संघ का दिल नहीं पिधला। स्मशान नहीं मिला तो आजाद भारत का सबसे बड़ा स्मशान
माँ गंगा की गोद बन गया। संघ का मुँह नहीं खुला। समाज की चिंता करने वाला संघ चिंतामुक्त
था! उसकी चिंता तभी बढ़ी जब मोदीजी की छवि पर बात बन आई!!!
विश्वगुरु बनाने का
दावा करने वाली केंद्र की मोदी सरकार हो या बीजेपी शासित राज्य सरकारें, अदालतों ने न जाने
क्या क्या इन्हें बोला, लेकिन संध ना ही कुछ बोला और ना ही लोगों के साथ दिखा। संघ इतना ही बोला कि जो
कोरोना से मर गए वे मुक्त हो गए!!!
वैक्सीन को लेकर इतना
कुछ बवाल हो गया, संघ चुप ही रहा!!! वैक्सीन नीति को लेकर गंभीर सवाल उठे मोदी सत्ता पर, संघ चुप रहा! मोदी
सत्ता की वैक्सीन की वितरण प्रणाली अब तक पूरी तरह नाकाम रही, क्योंकि कोई तैयारी
ही नहीं थी, लेकिन संघ चुप रहा! एक देश एक टैक्स के जुमले के बीच हर जगह वैक्सीन अलग अलग कीमतों
पर मिली, सरकार भी वैक्सीन के दाम बदलती रही, संघ चुप रहा! समाज पीड़ित था, किंतु संघ चुप रहा! क्या पता संघ के लिए समाज का मतलब कुछ अलग हो!!!
संघ गाँव-गाँव तक अपनी
पहुँच होने का दावा करता है। लेकिन जब कोरोना का ख़तरा गाँवों में बढ़ रहा था तब संघ
के स्वयंसेवक ना जाने कहाँ दुबके हुए थे? हमने इन दिनों गुजरात के कुछेक शहरों में जाकर कोरोना पीड़ितों के लिए कुछ न कुछ
इंतज़ाम किए थे। वहाँ गाँव-गाँव से मरीज आ रहे थे। दूसरी जगहों पर ऐसा सेवा यज्ञ कर
रहे लोगों से तथा ग्रुप से मिलना हुआ, बातें हुई। हमारी सेवा का ज़िक्र हम स्वयं की प्रशंसा के लिए नहीं लिख रहे। एक
दूसरी बात के लिए लिख रहे हैं। बात यह कि जहाँ हम गए, या दूसरी जगहों पर
दूसरे लोग गए थे, हमने तथा उन दूसरे लोगों ने, कई आम नागरिकों को, सेवाभावी प्रवृत्ति वाले लोगों को जान जोखिम में डालकर कोरोना पीड़ितों की मदद
करते हुए देखा है। सेवा के जो यज्ञ इन दिनों चले वो उन आम नागरिकों ने चलाए, अकेले दम पर चलाए, पांच-पद्रह लोगों या
दोस्तों को साथ लेकर चलाए!!! कहीं पर भी हमें तो संघ के लोग नजर नहीं आ रहे थे। ऐसा
लगा कि राष्ट्रभक्ति के नाम पर फेफड़े फाड़ने वाले स्वयंसेवक संक्रमण के डर से भाग
गए हैं!!!
ये बात ज़रूर है कि
इस आरोप को काटने के लिए सेवा करते हुए स्वयंसेवकों के वीडियो या तस्वीरे डाली जा सकती
हैं। लेकिन वैसी तस्वीरें नहीं होनी चाहिए जैसी ऑक्सीजन सिलेंडर की जगह कार्बन डाई
ऑक्साइड का सिलेंडर ले जाती तस्वीर थी। उपरांत ऊपर तीसरे पैराग्राफ में लिखा वैसा फोटो
सेशन नहीं होना चाहिए!!! हमने पहले लिखा वैसे आरएसएस ने कुछ सेवा कार्य किए होंगे।
किए होंगे क्या, बल्कि किए हैं। लेकिन कुछ किए हैं, जितनी उनकी ताक़त है-औकात है-उम्मीद थी,
इतना तो बिल्कुल नहीं किया। खास बात तो यह कि किया भी तब कि
जब महानायक की छवि बिगड़ने लगी, जब अंतरराष्ट्रीय मीडिया में मोदी सत्ता की नाकामियों के बारे में लिखा जाने लगा!!!
कोरोना आपदा से सरकार का निकम्मापन ही उजागर
नहीं हुआ है, बल्कि संघ का राष्ट्र सेवा और लोक कल्याण का मुखौटा भी फिर एक बार उतर गया है।
संघ प्रचारकों और स्वयंसेवकों ने लोगों के बीच अपनी बहुत सौम्य और प्रेरक छवि बनाई
थी। सिर्फ मोदी की छवि धूमिल नहीं हुई है, संघ की छवि भी दरक
गई है। संघ ने इन दिनों जितना भी लोक कल्याण किया उसमें गजब बात यह रही कि इस कथित
सामाजिक संगठन ने समाज के लिए तब काम नहीं किया जब समाज को ज़रूरत थी, बल्कि तब किया जब सियासत
को ज़रूरत थी!!!
कोरोना जैसी महामारी
के समय दवाई, इलाज, डॉक्टर, वेंटिलेटर, ऑक्सीजन, आईसीयू से लेकर मुफ्त वैक्सीन का इंतज़ाम करना सरकार का दायित्व है। कोरोना से
हो रही मौतों की ज़िम्मेदारी सरकार की होनी चाहिए। लोग कोरोना से कम बल्कि स्वास्थ्य
सेवाओं की बदहाली और अव्यवस्था से ज़्यादा मरे हैं ऐसा उन दिनों को देखकर कई लोग कहने
को मजबूर थे। लेकिन मोहन भागवत जैसा शख्स भी अमित शाह टाइप जुमला सुना देता है कि जो
लोग मर गए वे मुक्त हो गए!!!
आरएसएस पहले से ही
राजनीतिक संगठन रहा है, जिसने जातियों की राजनीति की और एक जाति के मन में दूसरी जाति के खिलाफ नफ़रत पैदा
की और उन्हें अपना वोटबैंक बनाया। हिंदू – मुस्लिम वाली राजनीति ही नहीं, उसने हिंदू बनाम हिंदू वाली राजनीति भी की! जातियों के मुखौटों को पद और अन्य प्रलोभन
देकर बीजेपी-संघ ने इन तमाम जातियों का वोट हड़प लिया। इस तरह सामाजिक न्याय की राजनीति
ध्वस्त हो गई और हिंदुत्व की राजनीति केंद्र से लेकर राज्यों तक मज़बूत होती गई।
यूं तो संघ की स्थापना
जिन मुद्दों पर आधारित थी, उनमें से दो मुख्य मुद्दे थे। पहला मुद्दा था राष्ट्र का पुननिर्माण। दूसरा मुद्दा
था हिंदुओं को एकताबद्ध करना। राष्ट्र का निर्माण ही नहीं हुआ था, आजादी मिली भी नहीं
थी और संघ राष्ट्र के पुननिर्माण की राजनीति करता रहा!!! राष्ट्र के निर्माण में शून्य
के बराबर योगदान देने के बाद पुननिर्माण के अपने मुद्दे को उसने किस तरह से अंजाम दिया
वह ताजा इतिहास है, उतना भी पुराना नहीं है। हिंदुओं को एक्ताबद्ध करने की राजनीति का हाल तो देखिए, हिंदू बनाम हिंदू की
राजनीति लागू होती रही!!! अपने 96-97 साल के सफर में आरएसएस तीन बार तो प्रतिबंधित हो गया!!! गजब बात यह कि संघ अब
तक ग़ैर पंजीकृत संस्था है!!!
बीबीसी रिपोर्ट की
माने तो यूं तो वह दुनिया का सबसे बड़ा संगठन है। उसकी रोजाना हजारों शाखाएँ लगती हैं।
प्रति वर्ष कई शिविर आयोजित होते हैं, सभाएँ होती हैं। मातृभूमि की सेवा, हिंदू एकता और भारत निर्माण का कॉकटेल पिलाया जाता है। लाठी चलाना, कुश्ती लड़ना, तलवारबाज़ी करना, सिखाया जाता है। फिर
भी उसका मुखिया जेड श्रेणी के बीच घूमने को मजबूर क्यों होता होगा ये सवाल भी है। कपड़ों
को बदलने से मूल चरित्र नहीं बदलता वाला तथ्यात्मक आरोप तो सिर पर है ही। हिंदू राष्ट्र
बनाना और स्थापित संविधान को बदलने का खयाल उसके समर्पित स्वयंसेवकों के मन में दिखाई
देता है। असली आत्मा के आगे संघ ने अलग अलग तरह के मुखौटे लगा रखे हैं। जिसमें एक मुखौटा
है सेवा भाव का। 1925 में स्थापना के बाद 1970 में सेवा को संस्थागत किया गया था। जिसके पीछे मकसद सत्ता तक या सत्ता के करीब
पहुंचना और मूल मकसदों की तरफ आगे बढ़ना था।
संघ ने हिंदू को हिंदुत्व में बदल दिया!!!
सीताराम को जय श्री राम में बदल दिया!!! तर्क और तथ्यों को दफन करके कुतर्कों और हवाई
बातों का किला बनाया! पाकिस्तान की बात करते करते भारत को पाकिस्तान सरीखी मानसिकता
वाला राष्ट्र बनाने के प्रयत्न किए! इन्हीं प्रयत्नों का परिणाम है आज की संकीर्ण मानसिकता।
जो भारत खुला राष्ट्र था, जहाँ सदियों से तार्किक वाद विवाद चलते रहते थे, वहाँ संकीर्णता और
मुँहबंद योजनाएँ चलने लगी! कट्टरता ने हिंदू को हिंदुत्व की तरफ मोड़ दिया। सीताराम
बोलने वाला राष्ट्र जय श्री राम की भाषा बोलने लगा।
संघ सियासी संगठन है, सामाजिक या सांस्कृतिक
नहीं। इसीलिए तो संघ बेहद चतुराई से एक चुनी हुई सरकार को देवत्व से परिपूर्ण बनाकर
लोकतंत्र को ईश्वरीय आभा में बांधकर पूरी व्यवस्था को सवालों से परे बनाने की चाह समेटे
हुए है!!! नोटबंदी में पंक्तिबद्ध लोगों की मौतें, बेरोज़गारी से लेकर पिछले साल कोरोना के समय अविवेकपूर्ण लॉकडाउन
में सैकड़ों मज़दूरों की मौत, कोरोना महामारी की दूसरी लहर में ऑक्सीजन,
दवाइयों आदि के अभाव में और अस्पतालों की अव्यवस्था के कारण
हजारों लोगों की जान चली गई। इस दरम्यान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत पूरा मंत्रिमंडल
ज़िम्मेदारियों से भागता रहा।
जब वैज्ञानिक दूसरी लहर की संभावना से चिंतित थे तब न जाने कैसे प्रधानमंत्री मोदी
ने एलान कर दिया कि भारत कोरोना से जीत गया!!! जबकि ठीक उसी वक्त वैज्ञानिक आगाह कर
रहे थे कि दूसरी लहर आएगी, ज़रूर आएगी। फिर मौत का तांडव हुआ। लाखों लोग मारे गए। समूचा देश चिताओं में घिर
गया। गैरबीजेपी शासित राज्यों के साथ साथ तमाम बीजेपी शासित राज्य भी झूठे आंकड़ों
के सहारे बचते रहे, लगातार होती मौतों और स्वास्थ्य सेवाओं की विफलताओं को झुठलाते रहे!!! ऐसी स्थितियों
में संघ ही था जिसने रामराज्य के उस पुराने जुमले के मार्फत अपनी सरकार और अपनी नाकामियों
को छुपाने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई। विपक्ष पर भ्रम फैलाने के आरोप लगा रहे आरएसएस
ने अपनी चुप्पी और अपने सियासी एजेंडा के तहत यह भ्रम फैला दिया कि मोदी और योगी तो
ईश्वर के प्रतिनिधि हैं और उनसे गलती नहीं हो सकती!!! तभी तो अनुपम खेर और मेरे जैसे
ब्लॉगर लिख गए कि जो भी हो, आएगा तो मोदी ही।
बात बात पर फेफड़े
फाड़ने वाला संघ यूं तो पिछले 7 सालों से लगभग लगभग चुप ही है! जब बात हाथ से निकल जाती है तब बोलने के लिए बोल
देता है! 2014 में संघ की तरफ से बाकायदा एलान हुआ था कि आने वाले दो सालों तक सरकार के खिलाफ
कोई कुछ नहीं बोलेगा! तर्क ये दिया गया कि नयी सरकार है और समय देना चाहिए। इस एलान
के 7 साल बीत चुके हैं!!! इस दौरान कई विवादास्पद फैसले, कई गलत निर्णय सरकार
ने लिए, एकाधिकारवाद के तरफ खुलकर आगे बढ़ते रहे मोदी। बेरोजगारी, महंगाई, किसानी से लेकर अनगिनत
सरकार सृजित समस्याएँ, कोरोना काल में मोदी सत्ता की महाकाय गलतियाँ, सड़कों पर तड़पते विलपते मरते मजदूर, नौकरी गंवाने वाले
युवा, मजबूरी में खुदकुशी करते परिवार... संघ ने मौन साधना में रहना ही बेहतर समझा।
गजब ही कह लीजिए कि खुद को सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन कहने वाला सियासी संघ काम
ही ऐसे ऐसे करता है कि समाज की सामाजिकता लूली लंगड़ी हो जाती है, संस्कृति की सांस्कृतिकता
विनाशकारी हो जाती है। और ऐसा करने के बाद वही संगठन मरहम लगाता है, सामाजिक और सांस्कृतिक
विकास की बातें करता है। इस चरित्र को चंद लफ्जों में सबसे पहले ही लिख दिया है कि
सियासत इस कदर अवाम पे अहसान करती है, पहले आँखे छीन लेती
है फिर चश्में दान करती है। वैसे खुद पर जितने भी आरोप लगे, बदले में संघ के पास
एक ही दलील होती है कि इसने ये किया, उसने वो किया। कुल
मिलाकर छगन ने सौ किलोग्राम के काले काम किए थे, हमने तो उनसे एक किलोग्राम
कम किया है!!!
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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