कांग्रेस हो या बीजेपी, राजनीति अतीत की बातें बहुत करती है, किंतु उसे अतीत में उतरने का सलीक़ा नहीं आता! जहाँ जिसका रिश्ता
नहीं था वहाँ सबको विस्थापित करके उन्हें स्थापित किया जाता है, और वे जहाँ पहले से ही स्थापित हैं, उसे चुनावी राजनीति के चलते विस्थापित किया जाता है! इतिहास
को राजनीति सदैव आलू-मटर की तरह छीलती रहती है। इतिहास या महापुरुष चाहे जितने भी महान
हो, जब तलक उनमें वोट दिलाने
की क्षमता होगी तब तलक वे राजनीति के लिए आदरणीय बने रहेंगे। क्योंकि राजनीति को पता
है कि सभ्यता इतिहास को लेकर काम नहीं, नाम ही याद रखती है।
भारत में न जाने कितने
ऐसे हैंगिंग हेरिटेज हैं, जो चुनावी राजनीति में बारी बारी इस्तेमाल
होते रहते हैं और बाकी के दिनों में उन्हें दीवार पर टांग दिया जाता है। राजनीति को
पता है कि सभ्यता इतिहास को लेकर बहुत भावनात्मक है। जब समय आता है तब उस भावना का
फ़ायदा उठा लिया जाता है। जहाँ जिसका सम्मान हो, वहाँ उसको नमन कर लेने में, उनका स्मृति स्थल बनाने में, उसका महोत्सव मनाने में, राजनीति चुनावी व्यापार करने से परहेज़ नहीं करती।
नरेंद्र मोदी, राहुल
गाँधी, अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं को बख़ूबी पता है कि कब स्वामी विवेकानंद के नाम
की लहर चलानी है और कब नहीं, कब मोरारजी देसाई को याद करना है और कब भूल
जाना है, कब महात्मा गाँधी को नमन करना है और कब नहीं, कब बिरसा मुंडा को दंडवत प्रणाम करने हैं और कब सावरकर के सामने
कमर तक झुक जाना है, कब शिवाजी की स्तुति करनी है और कब सुभाष
बाबू को शानदार बताना है, कब सरदार पटेल का उफ़ान लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ में लाना है और कब नहीं।
बिलकुल याद है वह
दौर, जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ
करते थे। तब आये दिन वे भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. मोरारजी देसाई के स्मृति स्थल
अभय घाट के विकास के लिए तत्कालीन यूपीए सरकार से मदद माँगा करते थे। आरोप लगाया करते
थे कि स्व. मोरारजी देसाई और उनकी स्मृतियों को इतिहास से विलुप्त किया जा रहा है, केंद्र सरकार फंड नहीं दे रही। अब जब स्वयं प्रधानमंत्री हैं, उस स्मृति स्थल पर ढंग से पेंट भी नहीं कर रहे!
आज यहाँ बात दो जगहों
की करनी है। गुजरात से हैं हम, तो गुजरात की दो जगहों की बात करेंगे। दोनों
जगहें उन दो नामों से जुड़ी हुई हैं, जिनका आभामंडल विराट है।
सरदार वल्लभभाई पटेल।
यह नाम केवल किसी एक राजनीतिक दल का या किसी एक राज्य का प्रतीक नहीं है। यह उस इतिहास
का, उस भावना का प्रतिबिंब है, जिसकी आराधना सदियों तक राष्ट्र करता रहेगा। राजनीति के लिए सरदार पटेल नेता नहीं
हैं, वह राजपुरूष हैं। भारत के लिए वह राजपुरूष
नहीं हैं, वह समर्पण और कर्तव्य का दस्तावेज़ है।
सरदार पटेल के साथ
जुड़ा हुआ एक नाम है बारडोली। बारडोली का ज़िक्र होते ही आँखों के सामने सरदार वल्लभभाई
पटेल के अनुशासनात्मक व्यक्तित्व की छवि नज़र आती है। देश की रियासतों को आज़ाद हिंदुस्तान
का हिस्सा बनाने वाले सरदार पटेल को समग्र देश में पहचान बारडोली से ही मिली थी। बारडोली
सत्याग्रह से ही उन्हें ‘सरदार’ नाम की उपाधि मिली थी।
इतिहास नाम ही याद रखता है, काम नहीं! इस दुखद सच्चाई का सबूत है सरदार पटेल। पढ़ाई ख़त्म करने के बाद बारडोली बहुतों
को याद नहीं है। सरदार पटेल को तो याद किया ही जाता है। किंतु राजनीति और सभ्यता, दोनों सरदार पटेल को केवल एक ही रूप में याद
करके इतिहास के साथ अन्याय कर रही है। वे लौहपुरुष और रियासतों को जोड़ने वाले नायक
तक ही सिमट कर रह गए हैं! उनके भीतर का किसान नेता किसी को याद नहीं है। केवल किसान
नेता ही नहीं, किंतु अन्य मामलों
में उनके भीतर का प्रशासक किसी को याद नहीं है। असमहतियों को ज़ाहिर करने के अटूट साहस
की कोई याद दिलाना नहीं चाहता। सरदार पटेल ने असमहतियों की जो परंपरा क़ायम की थी, उस इतिहास की रक्षा कोई नहीं कर रहा।
उन्होंने बारडोली से अंग्रेज़ी हकूमत को चुनौती दी थी। अंग्रेज़ों ने जब किसानों के लगान में ज़ुल्मी इज़ाफ़ा किया, तब गाँधीजी के आग्रह से वल्लभभाई पटेल बारडोली आए। उस समय अंग्रेज़ों ने
किसानों के लगान में 22 प्रतिशत तक की वृद्धि कर दी थी। 1928 में वल्लभभाई ने बढ़े
हुए करों के ख़िलाफ़ बारडोली के किसानों के संघर्ष का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। बारडोली
सत्याग्रह चार से छह महीने तक चला था। उनके नेतृत्व और लड़ायक छवि ने ब्रितानी हकूमत
को हिला कर रख दिया।
बारडोली सत्याग्रह
के बारे में गुजराती और हिंदी भाषा में कई किताबें उपलब्ध हैं। कुछेक अंग्रेज़ी भाषा
में भी हैं। इन किताबों को पढ़ने के बाद पता चलता है कि बारडोली सत्याग्रह के वो कुछेक
महीने केवल आंदोलन भर नहीं था। सत्य का आग्रह, यानी सत्याग्रह। बारडोली का वो आंदोलन सत्य, ज़िद, त्याग, समर्पण, अनुशासन, नैतिकता जैसे तत्वों को फिर से ज़िंदा करने में समर्थ रहा।
ब्रितानी सरकार ने
इस आंदोलन को कुचलने के लिए कठोर कदम उठाए। शाम, दाम, दंड और भेद का रास्ता भी
अपनाया गया। इस आंदोलन को सत्याग्रह के रूप में चलाया गया था, जहाँ 137 गाँवों के
किसानों ने न सिर्फ़ ब्रितानी सल्तनत को चुनौती दी, बल्कि लड़ाई को जीता भी। इस
सत्याग्रह के इतिहास को किताबों में संजोकर रखा गया है। इस बारे में महादेवभाई
देसाई और नरहरि परीख की किताबें एक बार ज़रूर पढ़नी चाहिए।
सत्याग्रह के दौरान
वल्लभभाई पटेल लोगों को कहते हैं, "हमें केवल सरकारी आदेशों को ही तोड़ना नहीं है, हमें बहुत सारे मिथकों को तथा अन्याय की आँधी को भी तोड़ना है।
हम सब तोड़ने के लिए बैठे हैं, किंतु हमें सब तोड़ने से पहले जो टूटना है
उसकी जगह किसी चिरंजीवी चीज़ को रखना है, और अगर ऐसे बदलाव और ऐसी समझदारी से जीवन
व्यतित करने की ताक़त आप में नहीं है, तो मैं आग्रह करता हूँ कि आप कुछ भी ना तोड़ें।"
किताबों में दर्ज है
कि सरदार पटेल ने गाँधीजी के आग्रह से इस सत्याग्रह का नेतृत्व किया था और योजनाबद्ध
तरीक़े से इस आंदोलन को चलाया। आंदोलन के दौरान सरदार कहते रहे कि, "गाँधीजी ने किसी को कायर बनने के लिए नहीं कहा है, मैदान छोड़कर भागने के लिए नहीं कहा है, उन्होंने कहा है कि हिम्मत है तो दुश्मन के ख़िलाफ़ सीना तान कर
खड़े हो जाइए और मुक़ाबला कीजिए।"
बारडोली सत्याग्रह
के दौरान सरदार पटेल ने किसानों का नेतृत्व किया, उन किसानों को जागरूक किया, उनमें चेतना का संचार किया। सरदार पटेल ने इस आंदोलन के ज़रिए समाज को एक नयी सोच, नयी दिशा देने की भरचक कोशिश की थीं। उन्होंने
इसे केवल एक मुद्दे का कार्यक्रम नहीं बनाया, बल्कि इसके ज़रिए गूँगे बहरे हो चुके समाज
को एक नयी आवाज़ दी और सामूहिक ज़रूरतों तथा देश के लिए उठ खड़े होने की ताक़त को नयी
हवा दी।
पूरे आंदोलन के दौरान
सरदार पटेल गाँव गाँव घूमे, लोगों में तरह तरह की जो भ्रांतियाँ थीं उसे दूर किया, केवल ज़ुल्मी लगान पर
ही नहीं बल्कि तमाम सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों से उन्होंने लोगों को अवगत कराया।
समाज की ग़लतियाँ, समाज की कमियाँ, तमाम चीज़ों पर उस आंदोलन के दौरान काम हुआ। लगान को लेकर जीतना
ही उस आंदोलन का लक्ष्य नहीं रहा, बल्कि इस आंदोलन के ज़रिए कई सारी समस्याओं
से समाज को रूबरू कराना और उन समस्याओं का स्थायी हल प्रदान करना भी इस ऐतिहासिक प्रयास
के दूसरे लक्ष्य थें।
हम यह कह नहीं रहे
कि उस जगह को चमका दिया जाए। किंतु किसी ऐतिहासिक नाम का वो ऐतिहासिक काम भी तो याद
रहना चाहिए न। गूगल से सर्च किया जा सकता है, रिसर्च नहीं। सर्च को लेकर नयी पीढ़ी
जितनी एक्टिव है, रिसर्च के नाम पर उतनी ही ढीठ दिखती है।
ज़्यादातर तो यहाँ बच्चों के स्कूल टूर आते
हैं। कई बार आप बच्चों को पूछ लें कि, "सरदार पटेल के पिता
का नाम क्या था?" तब जवाब यह भी मिलता है कि, "उनके पिता का नाम वल्लभभाई पटेल था।"
सरदार पटेल जहाँ रहे
वो जगह आज स्वराज आश्रम के नाम से जानी जाती है। इस आश्रम में खादी से लेकर कन्या कल्याण
तक की प्रवृत्तियाँ चलाई जाती हैं। हालाँकि सरदार पटेल के साथ काम कर चुकीं निरंजना
बहन, जो स्वराज आश्रम के सेक्रेटरी रहीं, बताती हैं, "काफ़ी कम लोग आश्रम की ओर आते हैं। ज़्यादातर तो स्कूली बच्चे
यहाँ आते हैं। उन्हें सरदार पटेल के पिता का नाम पूछा जाए तब उनका उत्तर सुनकर भी दुख
होता है। वे उनके पिता का नाम वल्लभभाई पटेल बताते हैं! उन्हें तो यह तक पता नहीं कि
सरदार तो उनका तख़ल्लुस था। झवेरभाई पटेल उनके पिता थे यह काफ़ी कम बच्चों को ज्ञात होता
है।"
स्वराज आश्रम, जहाँ महात्मा गाँधी
भी कई बार ठहर चुके हैं, आज राष्ट्रीय स्मारक के रूप में परिवर्तित किया जा चुका है। लेकिन इस मकान में
सरदार पटेल की गद्दी और महात्मा गाँधी के बैठने का स्थान, इन दोनों चीज़ों के अलावा और कुछ नहीं है। जो विदेशी यहाँ आते
हैं वे निराश होकर वापस लौटते हैं। या फिर संतुष्टि यही होती है कि यही वो जगह है, जहाँ कभी सरदार या महात्मा रहे थे। सरदार पटेल के घर के पास एक बड़ा बागीचा बनाया गया
है, जहाँ सरदार म्यूजियम है। इस संग्रह स्थान में कुछेक प्रतिमाएँ हैं तथा सरदार पटेल
की तस्वीरें लगी हुई हैं। यहाँ एक लाइब्रेरी भी है।
एक सच स्थायी है कि
गूगल तो एक नाली जितना ही है, जबकि पुस्तकालय समंदर होता है। बारडोली में बना संग्रहालय निराश कर देता है। आश्रम
में सरदार पटेल के बारे में संशोधन करने आया एक शख़्स कहता है, "स्वराज आश्रम से ज़्यादा जानकारी तो मुझे इंटरनेट के सर्च इंजिन से मिली।" इस संग्रहालय के इनचार्ज को उस शख़्स ने पूछा कि, "सरदार यहाँ कितने वक़्त तक रहे थे?" उसे उत्तर मिला, "वो तो देखना पड़ेगा। लाइब्रेरी के पुस्तक में लिखा है।" अगर आप पूछेंगे कि
इस संग्रह स्थान का निर्माण कब किया गया था? तब आप को संग्रह स्थान के मुख्य दरवाज़े पर लगे पत्थर को देखने के लिए कहा जाएगा।
कुल मिलाकर, अगर आप को सरदार पटेल के बारे में जो कुछ जानना है, तो वो ख़ुद ही जानना पड़ेगा।
स्वराज आश्रम व सरदार
संग्रह स्थान देखने जितने लोग आते हैं, उससे ज़्यादा लोग तो हर रविवार को पुरानी कारों
के मेले में आते हैं। पुरानी कार तथा बाइक का मेला बारडोली में लगता है, जो एशिया के सबसे बड़े
बाज़ारों में एक है। हर सप्ताह यह मेला लगता है, जिसमें पुरानी मारुति कार से लेकर मर्सिडीज़ तक की कारें होती हैं।
पुरानी कारों के बाज़ार
के बाद बारडोली अपनी चीनी फैक्ट्रियों के लिए भी फेमस है। एशिया की बड़ी सहकारी चीनी
फैकट्रियों में शुमार फैकट्री बारडोली में स्थित है। उकाई बांध तथा उकाई कनाल के पानी
की वजह से बारडोली क्षेत्र में गन्ने की खेती ज़्यादा होती है। किंतु सरदार पटेल
तथा महात्मा गाँधी का सहकारिता का क्षेत्र अब राजनीति के हाथों मारा जा चुका है।
बारडोली शहर के बाज़ारों में घूमने से ही शहर की समृद्धि नज़र आ जाती है। शहर के बंगलों भी यही दर्शाते हैं।
हालाँकि यह समृद्धि बारडोली की वजह से नहीं है। सच यह है कि बारडोली तथा उसके आसपास
के गाँवों के सैकड़ों लोग अमेरिका तथा अन्य देशों में जाकर बसे हैं। और उन्हीं की बदौलत
यह द्दश्य देखने के लिए मिल जाते हैं। बारडोली के यह एनआरआई साल में कुछ वक़्त के लिये
यहाँ आते हैं।
बारडोली के लोग कहते
हैं कि नवंबर-दिसंबर में यहाँ एनआरआई गुजराती आते हैं। वे जब आते हैं तब गाँव के व्यापारी चीज़ों का दाम बढ़ा देते हैं। बाज़ार के लिए यह कमाने का वक़्त होता है। और इसमें पींसते
हैं वे लोग, जो बारडोली से नियमित ख़रीदी करते हैं।
बारडोली सूरत का एक
तहसील है। बारडोली जाने के लिए सूरत मुंबई हाईवे की कड़ोदरा चौकड़ी से 17 किमी अंदर जाना पड़ता
है। सूरत तथा वापी उद्योगों के लिए जाने माने क्षेत्र हैं। हालाँकि बारडोली में उद्योग
के नाम पर इतना कुछ नहीं है। यहाँ जो कुछ है, वो एनआरआई के प्रभाव से है। एनआरआई के डॉलर
व पाउंड, तहसील होने से नगरपालिका, सरकारी ग्रांट, नगरपालिका की आमदनी... यहाँ नगर को ठीकठाक बनाने के लिये पर्याप्त मौक़े ज़रूर हैं।
बारडोली में श्रीमद्
राजचंद्र नॉलेज फाउंडेशन स्थित है, जिसने एनआरआई की आर्थिक मदद से डीम्ड यूनिवर्सिटी का निर्माण किया है। इसके अलावा
अन्य शिक्षा संस्थान भी बारडोली में स्थित हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि यह समृद्धि
केंद्र या राज्य सरकार, दोनों में से किसी की बदौलत नहीं है। यह समृद्धि
यहाँ के लोगों की वजह से है। हालाँकि भारत के इतिहास में बारडोली सरदार पटेल की वजह
से ही जाना जाता है।
यूँ तो भारत के हर
प्रदेश का अपना इतिहास है, सुनहरा भी और आँसुओं से सना भी। हर प्रदेश
के पास अपने चेहरे हैं, अपनी पहचान है, जो प्रदेश की सीमाओं को लांधती हुई समूचे
भारत का प्रतिबिंब बनती है।
यूँ तो इतिहास गूगल पर नहीं, किंतु किताबों और पुस्तकालयों में दर्ज होता
है। गूगल को समंदर मानने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि यहाँ एक पुस्तकालय में जितनी
जानकारी मौजूद होती है, उतनी गूगल पर नहीं
होती। सिंपल है कि जितना ज्ञान किताबों में है, उनमें से बहुत बहुत बहुत ही कम किताबें
या उसके कुछेक हिस्से ही गूगल पर होते हैं। सत्य दर्शन करें तो गूगल समंदर नहीं, एक छोटी सी नाली लगती है इन सबके सामने।
गूगल से सर्च किया जा सकता है, रिसर्च नहीं।
गुजरात में महात्मा
गाँधी से जुड़े हुए दो प्रमुख ऐतिहासिक स्थान हैं। एक है उनका जन्म स्थान, जो पोरबंदर में है। दूसरा है दांडी, जो अपने नमक सत्याग्रह की वजह से दुनियाभर में जाना गया। दोनों
जगहों पर जितना भी है, गाँधीवादियों और दूसरे बुद्धिजीवियों के अथक
प्रयासों की बदौलत है। उन स्मृति स्थलों को उनकी पुरानी रौनक लौटाने की जगह उन स्मृति
स्थलों की ऐतिहासिक छाँव को छिन्न भिन्न करने की कोशिशे बेतुकी सी ही हैं।
जब भी दांडी की बात
निकलती है तब राजनेता बड़े बड़े दावे करते हैं। दूसरे दिन अख़बारों में छपता है कि दांडी
में गाँधी संशोधन केंद्र बनेगा, अतिआधुनिक प्रदर्शनी केंद्र बनेगा, दांडी में ये बनेगा, दांडी में वो बनेगा। और फिर अख़बार रद्दी बन जाते हैं! साथ ही दांडी के लिए कही गई बातें भी भुला दी जाती हैं।
दांडी में लोग समंदर
किनारे नहाने और खाने-पीने ज़्यादा आते हैं। उनमें से मुठ्ठी भर लोग ही गाँधी मेमोरियल
जाते होंगे। दांडी के बीच पर पंद्रहवीं बार आया एक लड़का कहता है, "मेमोरियल में एसा क्या
है? गाँधीजी का एक पुतला है और कुछेक फ़ोटो हैं। एक बार जा चुका हूँ
मैं। लेकिन सुनने में आया है कि उसकी हालत आज भी वैसी की वैसी है। कुछ तो नया करो।"
दांडी के समंदर किनारे
पहुंचने पर गोवा जैसा द्दश्य देखने के लिए मिल जाता है। कुछ देर के लिए तो लगता है
कि गुजरात से शराबबंदी हटा दी गई क्या? इसके अलावा भी अन्य द्दश्य देखने के लिए मिल
जाएँगे।
दांडी का ज़िक्र किया
जाए तब महात्मा गाँधी की ऐतिहासिक दांडी यात्रा का द्दश्य याद आ जाता है। अंग्रेज़ों ने निमक पर कर लगा दिया था। इस कर का विरोध करने के लिए गाँधीजी ने अहमदाबाद के आश्रम
से दांडी तक की पदयात्रा की थी। 12 मार्च, 1930 के दिन गाँधीजी 78 सत्याग्रही के साथ पदयात्रा पर निकल पड़े थे।
23 दिन चलने के बाद, 48 गाँवों से गुज़रते हुए, 6 अप्रैल 1930 के दिन गाँधी दांडी पहुंचे और निमक की एक चुटकी लेकर कर का विरोध किया। ये सत्याग्रह
मिल का पत्थर साबित हुआ और यहीं से अंग्रेज़ शासन के विरुद्ध जनआक्रोश और ज़्यादा प्रजवल्लित
हुआ। हमें पता होना चाहिए कि दांडी यात्रा 20वीं शताब्दी की संसार की प्रमुख
घटनाओं में दर्ज है।
इस ऐतिहासिक घटना को
जानने के बाद, जो लोग कभी दांडी गए नहीं हैं, उन्हें लगेगा कि ये शहर काफ़ी अच्छा होगा। लेकिन वे लोग अगर एक बार दांडी घूम आएं
तो उनकी कल्पना मिट्टी में मिल जाएगी। नमक सत्याग्रह से दुनिया में प्रचलित हुए इस
शहर में अब यहाँ नमक नहीं बनता। कुछ लोग तो नमक कैसे पकाया जाता है वो देखने की लालच
में यहाँ आ जाते हैं। लेकिन यहाँ ऐसा कुछ नहीं है।
गाँधीजी ने जिस रास्ते
से दांडीयात्रा की थी उसे (अहमदाबाद से दांडी) हेरिटेज स्टेटस दिया गया है। दांडी जाकर
देखने पर लगता है कि इस शहर की सड़कें सच में अभी भी प्राचीन ही है!
अहमदाबाद मुंबई का
नेशनल हाईवे नंबर 8, पुरे देश में सबसे ज़्यादा यातायात वाला राष्ट्रीय
मार्ग है। इस मार्ग पर सूरत तथा तापी के बीच नवसारी शहर बसा है। इस शहर से 20 किमी तक अंदर जाने
पर दांडी आता है। दांडी कोई शहर नहीं है, बल्कि एक छोटा सा गाँव है। गाँव में ज़्यादातर तो बुज़ुर्ग हैं। क्योंकि नौजवान लोगों
को रोजगार के लिए गाँव छोड़कर जाना पड़ता है।
गाँधीजी का दांडी सत्याग्रह अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने का आहवान था। लेकिन आज इसी गाँव के ज़्यादातर लोग बाहर हैं! क्योंकि यहाँ रोजगार के संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। जो लोग विदेशों में बसे हैं उनकी
तरफ़ से यहाँ डोनेशन ज़रूर आता रहता है। दांडी में पानी की टंकी बनानी हो या स्कूल का
कोई कमरा, डोनेशन पाउंड या डॉलर में ही आता है।
दांडी मे कुछ भव्य
मकान ज़रूर हैं। ये सारे मकान उन लोगो के हैं, जो विदेश में जाकर बसे हुए हैं। यहाँ
अच्छी कही जाए ऐसी सरकारी या निजी चिकित्सा व्यवस्था नहीं है। कुछ चिकित्सक ज़रूर आते
रहते हैं, जो निजी होते हैं। बेहतर उपचार के लिए लोगों को 20 किमी दूर नवसारी जाना
होता है। जो महिलाएँ गर्भवती होती हैं उन्हें तो बच्चे के जन्म से कुछ दिन पहले ही
नवसारी अपने किसी रिश्तेदार या पहचान वाले के घर पहुंच जाना पड़ता है। दांडी में स्कूल
है, जो स्विट्जरलैंड की स्विस ऐड अब्रॉड इंस्टीट्यूट के आर्थिक सह्योग से बनाई गई है।
एक कड़वा सच यह भी
है कि सन 2010 तक यहाँ स्ट्रीट लाइट नहीं थी! सरकार द्वारा यहाँ लाखों का ख़र्चा करके पानी की एक बड़ी टंकी बनवाई गई है, लेकिन 2010 तक पानी की एक बूंद
उपलब्ध नहीं थी! टंकी तो बन चुकी थी, किंतु उस टंकी से घरों
तक पानी पहुंचाने के लिए पाइपलाइन नहीं बिछाई गई! इसके विरुद्ध, यहाँ विदेश में बस रहे दांडीवासियों की आर्थिक
मदद से एक दूसरी टंकी बनवाई गई है और उसी से गाँव के घरों में पानी पहुंचाया जाता है!
दांडी के इतिहास को
पढ़कर कोई यात्री यहाँ आ पहुंचे, तब उसे पता चलेगा कि यहाँ रात गुज़ारने के
लिए कोई व्यस्था ही नहीं है। रात गुज़ारने की बात तो दूर है, यहाँ अच्छा खाना
भी नहीं मिलेगा। दांडी का जो बीच है, वहाँ घुमने आने वाले लोग खाने पीने का सामान
साथ लेकर ही आते हैं।
गाँधीजी की आत्मा को
शांति मिले ऐसी एक ही चीज़ यहाँ है। और वो यह है कि दांडी का क्राइम रेट लगभग शून्य
के बराबर है। गाँव के इतिहास में एक बार एक ख़ून हुआ था। शायद 1979 में एक लड़की की हत्या
हुई थी, जो प्रेम प्रकरण से संबंधित थी। कई दंगे गुजरात
में या देश में हुए, लेकिन दांडी शांत ही रहा था।
यहाँ के कई लोग रोजगारी
हेतु विदेश चले गए हैं। न्यूजीलैंड टीम से अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलने वाले क्रिकेटर
दिपक पटेल दांडी के हैं। हालाँकि उनका जन्म केन्या में हुआ था, लेकिन उनके पुर्खों का घर दांडी में है और वे कुछेक बार दांडी
आ चुके हैं। उनकी पत्नी का नाम वीणा है, जो दांडी से पाँच किमी दुर मटवाड़ा गाँव से
है, और वे भी सालों पहले अपना गाँव छोड़ चुकी थीं।
दाऊदी बोहरा समुदाय
के लिये दांडी एक पवित्र जगह है। दांडी में मज़ार ए साहिबा जगह है, जहाँ सालाना कई लोग आते रहते हैं। हर साल मुहर्रम महीने में
यहाँ उर्स मेला होता है।
गाँधीजी जब दांडी आए
तब बोहरा समुदाय के 51वें धर्मगुरु सैयदना ताहेर सैफ़ुदिन के घर रुके थें। बाद में उस घर को सरकार के
हवाले कर दिया गया, जिससे यहाँ स्मारक बनाया जा सके। सैफ़ी विला
नाम के इस मकान में, दो कमरों में गाँधीजी के चित्रों का प्रदर्शन
है। दांडी यात्रा तथा स्वातंत्र संग्राम की तस्वीरें यहाँ प्रदर्शनी में लगाई गई हैं।
ऊपर एक प्रोजेक्टर रूम है। पहले यहाँ सत्याग्रह संबंधित फ़िल्में दिखाई जाती थीं, लेकिन प्रोजेक्टर ख़राब
हो जाने के बाद यहाँ कुछ नहीं होता। सैफ़ी विला की ज़िम्मेवारी गुजरात सरकार की है और
यहाँ काग़ज़ पर चार कर्मचारियों का स्टाफ़ है। लेकिन ज़्यादातर यहाँ एक ही कर्मचारी रहता
है, जो चौकीदार है। बाकी के सारे कर्मचारी नवसारी सरकारी कचहरी में काम करते हैं। चौकीदार
बताते हैं कि यहाँ रोज़ाना तक़रीबन 200 लोग मुलाकात के लिए आते हैं। पुराने मुलाकाती कहते हैं कि यहाँ दशकों पहले जो
तस्वीरें लगाई गई थीं वही आज भी लगी हुई हैं। मकान का ठीक से ख़याल भी नहीं रखा जाता, और दिवारें उसका बुरा हाल बयाँ करती है।
सैफ़ी विला के सामने
गाँधीजी की भव्य प्रतिमा लगाई गई है और मेमोरियल भी बनाया गया है। सैफ़ी विला के नज़दीक़ एक दूसरा स्मारक है। यात्रा के दौरान बरगद के जिस पेड़ के तले प्रार्थना हुई थी, वो
पेड़ आज भी है। यहाँ एक छोटा सा बागीचा और स्मारक बनाया गया है।
दांडी नमक सत्याग्रह
स्मारक संस्थान के प्रमुख रहे महेशभाई कोठारी,
जो गाँधीवादी कार्यकर्ता भी रहे, गाँधीजी से दो बार
मिले थे और विनोबा भावे के साथ पदयात्रा की थी। उनका कहना है कि, "दांडी के विषय में
अब तक जो कुछ बातें हुईं, उसमें से कुछ भी नहीं हुआ है।" उन्होंने तथा कुछेक
लोगों ने मिल कर मोरारी बापु की मानस महात्मा कथा का आयोजन किया और 35 लाख रुपये का दान
इकठ्ठा किया। उनकी योजना दांडी में गेट वे ऑफ़ फ्रीडम नाम के एक स्मारक का निर्माण की
थी। वो कहते हैं, "सरकार के पास योजना लेकर जाते हैं, लेकिन सरकार कहती है कि जो कुछ करना है हम
करेंगे।"
दांडी में सरकार ने
कुछ भी नहीं किया ये कहना तो ग़लत होगा। लेकिन जो कुछ किया है उसे देखकर हंसी ज़रूर
आती है। 15 लाख रुपये का एक चरखा घर सरकार द्वारा बनाया गया है। इसका लोकार्पण होने के बाद
ये कभी खुला ही नहीं! उससे भी ज़्यादा चौंकाने वाली
बात यह है कि इस चरखा घर मे एक भी चरखा या अन्य कोई सामान नहीं है! ऐसे ही हालात उसके पास बने कम्युनिटी हॉल के है। इसे भी लोकार्पण के बाद शायद ही खोला गया हो!
गुजरात विद्यापीठ के
पूर्व ट्रस्टी, आजीवन खादीधारी धीरूभाई पटेल के मुताबिक़, "सरकार जो कुछ करती है उसका कोई इस्तेमाल होने वाला ही नहीं है।
बात जब गाँधीजी की हो तब कांग्रेस व भाजपा को राजनिती नहीं करनी चाहिए। दांडी के विकास
के लिए सरकार के पास क्या योजना है उसकी जानकारी भी हमें आरटीआई के ज़रिए निकालनी पड़ती
है!"
तब सवाल उठता है कि
आख़िर दांडी मे गाँधीजी से संबंधित है क्या? उत्तर है कि उस ऐतिहासिक सत्याग्रह की किताबी
यादें, जिसके कारण दांडी को याद रखा गया है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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