बार बार लिख चुके हैं। फिर लिखना पड़ रहा है। यही कि कांग्रेस कभी नहीं जाती, जिसे सत्ता मिलती है
वही कांग्रेस बन जाती है। बॉबी या आंधी मूवी से पहले भी बॉलीवुड की फ़िल्में और सितारे
राजनीति का हथकंडा बनते रहे हैं। छगन ने किया था, इसलिए मगन भी कर रहा है। फ़िल्मों
या फ़िल्मी कलाकारों का बॉयकॉट करना, प्रमोट करना, मजबूर करना समैत तमाम प्रोपेगेंडा कांग्रेस और दूसरे राजनीतिक
दलों ने किये हैं, बीजेपी भी इसमें पीछे
रहना नहीं चाहती।
बल्कि बीजेपी, यूँ कहे कि मोदीजी की बीजेपी, इन सबमें बहुत ही आगे निकलना चाहती है। अच्छी बात यही कि शुक्र है कि बीजेपी के
पास संजय गांधी नहीं है, वर्ना अघोषित की जगह घोषित कार्यक्रम देश
झेल रहा होता। देश का मेनस्ट्रीम मीडिया गोदी मीडिया के शुभ नाम से पहचाना जाता है।
अब छोटे पर्दे के साथ साथ बड़े पर्दे को भी पूरी तरह से मैदान में उतारा जा चुका है।
तारक मेहता का उल्टा
चश्मा नाम का धारावाहिक पूरी तरह से मोदी सत्ता की नीतियाँ ही नहीं, बल्कि उनकी विचारधारा
को पेश किए जा रहा है। भाबीजी घर पर हैं जितना खुल्लम खुल्ला तो नहीं, किंतु उससे कम भी
नहीं। मीडिया और मनोरंजन का पर्दा, दोनों एकसाथ कदमताल किए जा रहे हैं! इसीका
नतीजा है कि कंगना रनौत की चाटुकारिता और असभ्यता को गोदी मीडिया बेबाक राय बता देता
है!
बीजेपी या उसके समर्थकों
की आलोचना करने का मन ही नहीं होता, क्योंकि कांग्रेस और उनके समर्थक इसी वातावरण में देश को इससे पहले घुमा चुके हैं।
कमाल है कि परेश रावल की ओह माय गॉड मूवी का विरोध नहीं होता, आमीर ख़ान की पीके मूवी
का होता है, जबकि दोनों फ़िल्मों में ट्रेक क़रीब क़रीब एक सरीखा है! राष्ट्रवादियों का खेल इतना
लचीला है कि अश्लील संवादों और आपत्तिजनक द्दश्यों वाली फ़िल्में धड़ाधड़ रिलीज हो
जाती हैं, बिना किसी हो-हल्ला के, उधर संस्कृति-परंपरा या इतिहास के नाम पर
कुछ फ़िल्मों को लेकर फेफड़े फाड़े जाते हैं!!!
फ़िल्में इतिहास पर
बनती हैं ऐसा कहा जाता है। उन फ़िल्मों को देखकर इतिहास पर गौरव या फिर शर्म महसूस
करें, उससे पहले ये भी देख लें कि ऐसी फ़िल्में शुरू होती हैं उससे पहले यह लिखा हुआ
आता है कि कहानी काल्पनिक है या फिर फलां फलां कथा पर आधारित है। आधार होता है कथा
का, और दावा किया जाता है इतिहास का! फिर जो होता है वह केवल और केवल सनक का प्रदर्शन
होता है।
द कश्मीर फ़ाइल्स मूवी
को लेकर कुछ लोग कह रहे हैं कि मूवी के ख़िलाफ़ साज़िश हो रही है, जबकि कुछ लोग मूवी को ही साज़िश मान रहे हैं। पद्मावत मूवी को
लेकर बहुत सारा बवाल मचा, जबकि अनेक इतिहासकारों के मुताबिक़ रानी पद्मावती या रानी पद्मिनी, रानी जोधाबाई, राधा जैसे पात्रों
का इतिहास प्रतीकात्मक ज़्यादा है, आधारभूत कम। इतिहासकारों के मतभेदों के मुताबिक़ यह सारे साहित्यिक प्रतीक थें, इतिहास नहीं।
बता दें कि द कश्मीर फ़ाइल्स को स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने समर्थन दे दिया है! यह कहकर कि तथ्यों वाली कलात्मक
फ़िल्म को बदनाम करने की साज़िश हो रही है!!! जबकि उनके नेता और उनके समर्थक फ़िल्म
को लेकर कला, कहानी, इतिहास के बजाय हिंदू-मुसलमान वाला उनका पुराना खेल धड़ल्ले से खेल रहे हैं!
उधर 18 और 20 मार्च 2022 के दिन बीबीसी का
एक रिपोर्ट है, जिसका शीर्षक है - द कश्मीर फ़ाइल्स फ़िल्म
से कश्मीर में रहने वाले कश्मीरी पंडित नाराज़ क्यों हैं?
बताइए, प्रधानमंत्री और उनका
मंडल फ़िल्म से ख़ुश हैं, लेकिन फ़िल्म जिन पर बनी है वे लोग इससे नाराज़ हैं!!! बीबीसी की उस रिपोर्ट को
यहाँ दर्ज करना ज़रूरी है। कश्मीरी पंडितों के लिए संधर्ष करने वाली कश्मीरी पंडित
संधर्ष समिति के अध्यक्ष संजय टिक्कू के साथ बीबीसी ने बातचीत की है।
रिपोर्ट की शुरूआत में ही कश्मीरी पंडित
संघर्ष समिति के अध्यक्ष कहते हैं, "मैं ऐसा नहीं कह रहा कि जो दिखाया गया है
वह ग़लत है। कहानी सच्ची है, किंतु द्दष्टिकोण और
फ़िल्मांकन ग़लत है। कश्मीरी पंडितों की पीड़ा का व्यापार किया जा रहा है। पिछले 8 सालों में हमने प्रधानमंत्रीजी
से मिलने के लिए 20 से 25 बार प्रयत्न किए हैं, इजाज़त मांगी है। हमारे
लिए उनके पास समय नहीं है, लेकिन फ़िल्म को प्रमोट करने के लिए, फ़िल्म निर्माण टीम को मिलने के लिए उनके
पास समय है।"
कश्मीरी पंडित संघर्ष
समिति के अध्यक्ष आगे कहते हैं, "हमें कभी कभी लगता है कि जितने भी पंडित मारे गए थे उस हत्याकांड में, उनकी आत्मा आज भी वहाँ भटक रही हैं। क्योंकि उन्हें अब तक न्याय
नहीं मिल पाया है। हम चाहे जितना भी जोर से बोले, किंतु उन्हें और उनके परिवारों को न्याय मिला नहीं है, जो कि मिलना चाहिए था।"
वे सवाल करते हैं, "पूर्व सरकार हो या पिछले 8 सालों से जो सत्ता में है वो वर्तमान सरकार हो, उन्होंने कितना डाटा इकठ्ठा किया है? सभी लोग कश्मीरी पंडितों की पीड़ा को बेच
कर व्यापार ही कर रहे हैं। आज की दिन भी वह पीड़ा बेची जा रही है।"
वे आगे कहते हैं, "संगठन वाले दुनिया के मीडिया को कश्मीरी पंडितों की पीड़ा बेच रहे हैं और इससे
उन्हें क्या मिल रहा है यह सबको पता है। पिछले 32 सालों में कश्मीर में जो कोई मारा गया, चाहे वे पंडित हो, सिख हो, मुस्लिम हो, सुरक्षा बलों के जवान
हो या बिहार-बंगाल के मजदूर हो, किसीको न्याय मिला है? उनको लेकर क्यों कोई बात नहीं करता? क्या राजनीतिक दलों के लिए कश्मीरी पंडित बेयरर चेक बन गए है?"
द कश्मीर फ़ाइल्स फ़िल्म
को लेकर वे सीधा सीधा कह देते हैं कि, "इस फ़िल्म ने आग में घी डालने का काम किया है। अगर कश्मीर में सभी लोग जिहादी होते, एक्टिविस्ट होते, हमारा बहिष्कार हुआ होता, तो क्या हम यहाँ 32 साल से बसे होते? आग में घी डालने के बाद हमें जो जानकारियाँ मिल रही हैं वे चिंतित करती हैं।"
वे बेबाकी से कहते
हैं, "हमारे लिए माहोल नहीं बदला है। जो 90 में था, जो 2014 में था, आज भी वही है। माहोल नहीं बदला। 2019 के बाद तो हमारे लिए जगह काफ़ी कम हो चुकी है। 2019 से पहले हमें सरकारी विभागों से जो रिस्पॉन्स मिलता था, वैसा अब नहीं मिलता।
पहले हम राजनीतिक दलों से मिलते थे, अधिकारियों से बातें करते थे। हमारी आवाज़ सुनी जाती थी। 2019 के बाद ऐसा नहीं रहा।"
नोट करें कि संजय टिक्कू
2019 में आमरण अनशन पर बैठे थे। मुद्दा यही था कि कश्मीरी पंडितों की पीड़ा को लेकर
नयी सरकार भी नहीं सुनती। जी हा, उसी केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अध्यक्ष आमरण अनशन पर
बैठ गए थे, जिस सरकार का मुखिया आज फ़िल्म का समर्थन
कर रहा है!
संजय कहते हैं, "अगर सरकार को हमारी चिंता होती तो वे सुनते। मैं जब आमरण अनशन पर था तब कुछ प्रतिक्रिया
आनी चाहिए थी, लेकिन नहीं आई। मुझे ऐसी कोई आशा अब नहीं
रही कि कश्मीरी पंडित कश्मीर में फिर से बस पाएँगे। ऐसी ही स्थिति रही तो जो अभी बसे
हैं, वे भी चले जाएँगे। किसीको तो बैलेंस करना पड़ेगा। आग में धी डालने का काम करने
वाले बहुत हैं। इंसानियत को ज़िंदा रखने के लिए, कश्मीरियत को ज़िंदा रखने के लिए किसीको तो
झेलम का पानी डालना होगा।"
बता दें कि कश्मीरी
पंडित संघर्ष समिति का गठन साल 2002 में किया गया था। इस समिति का मूल काम है कश्मीरी पंडितों की आवाज़ बनना। यह समिति
कश्मीर से जुड़े पंडितों के सामाजिक और राजनीतिक न्याय को लेकर लड़ रही है। समिति कश्मीर
में पंडितों की तादाद का सर्वे करती है, पंडितों से मिलकर उनके इंटरव्यू लेती है।
कश्मीर में उस हत्याकांड के बाद से अब तक कितने पंडित मारे गए उसका ब्यौरा भी समिति
इकठ्ठा करती रहती है। समिति ने जो सूची तैयार की है उसके मुताबिक़ 1989 से 2003 तक कश्मीर में 677 पंडितों की हत्या
की गई है।
समिति यह समझने का
प्रयास कर रही है कि 1989 से 1990 के बीच ऐसा क्या हो गया था कि कश्मीर में दोनों समाज अलग हो गए। विस्थापित और
अविस्थापित पंडित समाज। समिति सरकार और उनके विभाग कश्मीरी पंडितों के पलायन को रोकने
में क्यों नाकाम रहे उसे भी समझ रही है।
संजय का कहना है कि, "जब मनमोहन सरकार ने विस्थापित कश्मीरी पंडितों के लिए मुआवज़े और पुनर्वास का एलान
किया, तब कश्मीरी पंडित संधर्ष समिति ने अविस्थापित पंडितों को भी इसमें शामिल करने
के लिए कहा था।"
वे कहते हैं, "हाईकोर्ट जाने के बाद
और वहाँ से आने के बाद फ़ैसले में कोई बदलाव नहीं आया है। हमने 500 बच्चों के लिए रोजगार
माँगा था। लेकिन अब उन बच्चों की उम्र निकल चुकी है।"
जम्मू-कश्मीर के मामलों
की जानकार पत्रकार अनुराधा भसीन बताती हैं, "1990 से ही सरकारों ने बार बार ग़लतियाँ की हैं। 1990 में जो माहौल बना उसे ढंग से निबटा नहीं गया। विस्थापन के बाद
कश्मीरी पंडितों को वापस ले जाने के लिए सरकारों ने ढंग से कदम ही नहीं उठाए। जिस प्रकार
से नफ़रती और भड़काऊ वातावरण पिछले 30 सालों में बनता गया, उससे कश्मीरी पंडितों की घरवापसी पहले से ज़्यादा मुश्किल बन चुकी है।"
अनुराधा आगे कहती हैं, "2008 के बाद मनमोहन सिंह
की सरकार जो योजना लाई थी उसे नरेंद्र मोदी की सरकार ने जारी रखा, लेकिन 2017 के बाद इस योजना के लाभार्थी सरकारी नीतियों के चलते कम ही निकले। जिस प्रकार
से नफ़रती वातावरण बनाया गया, उससे नया पंडित वहाँ बसा तो नहीं, बल्कि जो बसा हुआ है उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर दी गईं।"
अनुराधा के मुताबिक़, "सुरक्षा के साथ साथ न्याय का भाव भी जुड़ा हुआ है। जिनकी भी हत्याएँ हुईं, चाहे वे कश्मीरी पंडित
हो या दूसरे हो, आज की तारीख़ तक किसी भी किस्से में निष्पक्ष जाँच नहीं हुई है।" वे आगे चौंकाने वाला
सच बताते हुए कहती हैं, "भाजपा भले ही दावा करे कि वो कश्मीरी पंडितों के पक्ष में है, किंतु उनकी सरकार आने
के बाद कई ऐसे मामलों की फ़ाइलें यह बताकर बंद कर दी गईं कि बहुत पुरानी बात है।"
भसीन के मुताबिक़, "अगर कश्मीरी पंडितों
को यहाँ बसाना है तो समुदायों को साथ लाने का काम करना होगा, नफ़रत को छोड़ना होगा।
अगर बीजेपी की राजनीति समुदाय के ऊपर आधारित रहेगी, तो फिर नफ़रत को दूर करना नामुमकिन
होगा।" भसीन कहती हैं, "धारा 370 हटाने के बाद दावा किया गया कि अब कश्मीरी पंडित वापस आ जाएँगे, लेकिन 370 का मुद्दा इस काम में किसी प्रकार से मुश्किल पेश नहीं कर रहा था।"
उधर फ़िल्म के प्रदर्शन
के दौरान नफ़रती नारेबाज़ी और भाषण के वीडियो सोशल मीडिया पर घूम रहे हैं। ये नारेबाज़ी
या नफ़रती भाषण कश्मीरी पंडितों की पीड़ा का दर्द समझने को लेकर नहीं दिखतें, बल्कि केवल नफ़रत और सनक का प्रदर्शन करते दिख रहे हैं। क्योंकि
थियेटरों में या थियेटरों के बाहर, नफ़रती नारेबाज़ी या भाषणों में वे लोग शामिल हैं, जो दिल्ली में गोली मारो ## को नारे से जुड़े
थे, वे किसानों के तीन कृषि क़ानूनों के आंदोलनकारियों को गालियाँ
देने में भी जुटे थे, वे उस लव जिहाद वाले मुद्दे से जुड़े रहे
हैं जिन पर अदालत और स्वयं मोदी सरकार कहती है कि आज तक एक भी मामला लव जिहाद का नहीं
मिल नहीं पाया है, वे हरिद्वार की धर्म संसद से जुड़े रहे हैं, वे तो ओवैसी के साथ भी जुड़ते हैं चुनावों में।
ख़ुद को हिंदुत्ववादी
बताने वाले नेता पिंकी चौधरी के क़रीबी राकेश सिसोदिया को पिछले साल जंतर मंतर पर नफ़रती
भाषण के मामले में गिरफ़्तार किया गया था। यही राकेश सिसोदिया ग्रामीणों के एक समूह
को प्रोजेक्टर पर द कश्मीर फ़ाइल्स को स्ट्रीम कर रहे हैं। द वायर की रिपोर्ट के अनुसार
उन्होंने अपने फ़ेसबुक पेज पर मुसलमानों से बदला लेने की मांग करते हुए भड़काऊ पोस्ट
भी डाल दी। उन्होंने पोस्ट में लिखा, "क्या हमें कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ उसका बदला नहीं लेना चाहिए? आपके पड़ोस में मुसलमान
अभी कम संख्या में हैं, लेकिन अगर उनकी संख्या बढ़ती है तो यह स्थिति
हर जगह पैदा होगी। सावधान रहें।"
पश्चिम दिल्ली से बीजेपी
सांसद परवेश साहिब सिंह वर्मा ने भी एक वीडियो साझा किया। इस वीडियो में एक अज्ञात
व्यक्ति को एक थिएटर में अपने भाषण में यह कहते हुए सुना जा सकता है कि, "अगर हम धर्मनिरपेक्षता
नहीं छोड़ते हैं तो कश्मीर के बाद यह केरल और पश्चिम बंगाल में दोहराया जाएगा। हमने
दिल्ली में दंगे देखे हैं, जिसमें ताहिर हुसैन ने नेगी की हत्या की थी।" यह वही परवेश वर्मा है, जिन्होंने दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 के प्रचार के दौरान
कहा था कि अगर शाहीन बाग जारी रहा तो दिल्ली में कश्मीर जैसी स्थिति बन जाएगी और वे
घरों में घुसेंगे और बहनों और बेटियों का बलात्कार करेंगे।
ऐसे ही एक दूसरे भड़काऊ
वीडियो में दीपक सिंह हिंदू और विनोद शर्मा दिखे थे। द वायर की रिपोर्ट के अनुसार ये
दोनों सांप्रदायिकता फैलाने के अभियान से जुड़े रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार ये दोनों
30 जनवरी, 2020 को दिल्ली के बाहर
किसान आंदोलन के ख़िलाफ़ प्रदर्शन में शामिल रहे थे। दक्षिणपंथी संगठन हिंदू फोर्स
के नेता दीपक सिंह हिंदू इस साल मार्च में द कश्मीर फ़ाइल्स देखने गए थे तो थियेटर के
बाहर नारेबाज़ी को लेकर पुलिस से बहस हुई थी। उन्होंने 23 फ़रवरी 2020 की सुबह हिंदुओं से
मौजपुर में एक 'धार्मिक युद्ध' के लिए इकट्ठा होने का आह्वान किया था। उन्हें
जंतर मंतर पर नफ़रती भाषण व जनसंहार का आह्वान करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया
था।
जंतर मंतर नफ़रती भाषण
के आरोपी सुदर्शन वाहिनी प्रमुख विनोद शर्मा उर्फ़ आज़ाद विनोद द कश्मीर फ़ाइल्स के लिए
मूवी टिकट प्रायोजित कर रहे हैं। अपने फ़ेसबुक पोस्ट में उन्होंने घोषणा की कि वह इस
फ़िल्म को 18-30 वर्ष की कम से कम 200 युवा हिंदू महिलाओं को लव जिहाद के बारे में जागरूक करने के लिए दिखाना चाहते
हैं। 14 मार्च, 2022 को उन्होंने G3S सिनेमा रोहिणी में 150 हिंदू महिलाओं के लिए प्रायोजित मूवी टिकट होने का दावा किया। द वायर की रिपोर्ट
के अनुसार फ़िल्म के बाद उन्होंने थिएटर में दर्शकों को संबोधित किया और मुसलमानों
के प्रति आगाह किया और कहा कि, "यह हमारा अतीत है। लेकिन अगर आप उन्हें नहीं समझते हैं तो यही आपका भविष्य होगा।" विनोद शर्मा ने अपने फ़ेसबुक पर लिखा, "हिंदुओं ने धर्मनिरपेक्षता नहीं छोड़ी तो कश्मीर में जो हुआ वह दोहराया जाएगा।"
दक्षिणपंथी हिंदू सेना
के नेता सुशील तिवारी को जंतर मंतर नफ़रती भाषण मामले में गिरफ़्तार किया गया था। तिवारी
को इन दिनों लखनऊ में फ़िल्म देखने के बाद हिंदुओं को चेतावनी देते हुए देखा जा सकता
है। वह वीडियो में कहते हैं, "अगर हिंदू अब भी नहीं जागे तो 30 साल पहले कश्मीर में जो हुआ वह 15 साल बाद पूरे देश में दोहराया जाएगा।" उन्होंने मुस्लिम बच्चों को 'सँपोले' क़रार देते हुए कहा कि, "जो आज 14-15 वर्ष के हैं वे वयस्क हो जाएँगे और अगले 15 वर्षों में वे यूपी विधानसभा में बहुमत में होंगे और फिर देश के हिंदुओं का कश्मीर
के हिंदुओं की तरह ही हश्र होगा।"
एक अन्य वायरल वीडियो
में थिएटर में एक अज्ञात व्यक्ति ने दर्शकों को आक्रामक रूप से संबोधित करते हुए हिंदुओं
से आह्वान किया कि वे मुसलमानों को और अधिक आबादी बढ़ाने से रोकें। उसने वीडियो में
कहा, "यदि प्रत्येक पुरुष एक मुस्लिम महिला से शादी करता है, तो हम अगली तीन पीढ़ियों
में उनकी आबादी को कम कर सकते हैं। उनकी औरत से शादी करो और बच्चे पैदा करो। जब हम
यहाँ बैठकर फ़िल्म देख रहे हैं, तो वे अपनी आबादी बढ़ा रहे हैं।"
बीजेपी नेता कपिल मिश्रा ने जिस 'गोली मारो ## को' नारे को लगाया था, उसी नारे को आरएसएस से जुड़े हिंदू जागरण मंच
के सदस्यों ने द कश्मीर फ़ाइल्स देखने के बाद एसआरएस सिनेमा, बिजनौर से बाहर निकलते हुए लगाए। द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, देशद्रोहियों को गोली
मारो का नारा लगाने वाले प्रमुख सदस्यों में से एक बिजनौर के हिंदू जागरण मंच के ज़िला
महासचिव क्षत्रिय अंशुल आर्य थे। उन्होंने ख़ुद हिंदू जागरण मंच के कई अन्य सदस्यों
के साथ अपने फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर वीडियो पोस्ट किया।
बिजनौर के एक अन्य
थिएटर से एक अन्य वीडियो में अज्ञात पुरुषों को मुसलमानों के ख़िलाफ़ नरसंहार के नारे
लगाते हुए सुना जा सकता है। जामिया शूटर द्वारा जुलाई 2021 में हरियाणा महापंचायतों
में 'मुल्ले काटे जाएँगे' का नारा लगाया गया था। एक महीने बाद यह नारा
7 अगस्त, 2021 को जंतर मंतर पर बीजेपी
नेता अश्विनी उपाध्याय और अन्य हिंदुत्व संगठनों द्वारा बुलाई गई रैली के दौरान लगाया
गया था।
एक भारतीय नागरिक के रूप में एक बात समझ लेनी
चाहिए कि हिंदू और मुस्लिम, दोनों के नेता, ना हिंदू हैं ना मुस्लिम, वे तो केवल नेता ही हैं। नेताओं की कोई जात
नहीं होती, कोई धर्म नहीं होता।
ईमान-सिमान की तो बात ही मत करिए इन्हें लेकर।
द कश्मीर फ़ाइल्स पर
प्रतिबंध लगाने के लिए एआईयूडीएफ़ नेता अजमल ने मांग कर दी। नेता हैं, मांग की उसके पीछे चिंता नहीं, राजनीति ही होगी। बदले में इस
मांग पर प्रतिक्रिया देते हुए हिंदुत्ववादी नेता आनंद स्वरूप ने सरकार से इस्लाम और
कुरान पर तुरंत प्रतिबंध लगाने की मांग की। उन्होंने फ़ेसबुक पर एक वीडियो में कहा, "जब तक भारत में इस्लाम
और कुरान है, वे वही दोहराते रहेंगे जो उन्होंने कश्मीर
में किया था।" आनंद स्वरूप दिसंबर 2021 में हरिद्वार धर्म संसद में एक प्रमुख वक्ता थे, जहाँ उन्होंने अपनी मांग पूरी
नहीं होने पर भारत सरकार के ख़िलाफ़ 'युद्ध छेड़ने' की धमकी दी थी!!!
वैसे, द कश्मीर फ़ाइल्स के बारे में ऐसे नफ़रत वाले बयान और वीडियो
न जाने कितने हैं, लेकिन बीजेपी इस फ़िल्म को अलग रूप में पेश
कर रही है। वह कह रही है कि यह यथार्थ है और इसे हर भारतीय को देखना चाहिए। जबकि इस
फ़िल्म की काफ़ी आलोचना भी हो रही है। स्वयं कश्मीरी पंडित ही इस फ़िल्म की आलोचना कर
रहे हैं, कह रहे हैं कि यह फ़िल्म सही इतिहास और उनकी
पीड़ा को पेश करने से बहुत दूर है।
फ़िल्म को लेकर विवाद
और हो-हल्ला होता ही रहा है। किंतु ऐसी चीज़ों पर प्रधानमंत्री सरीखे शख़्स का बोलना, वो भी किसी एक धारणा
को स्थापित करते हुए बोलना, यह भी एक विवाद ही है। इस फ़िल्म की आलोचनाओं पर प्रधानमंत्री मोदी ने तो कह दिया
है कि इस फ़िल्म को बदनाम करने की 'साज़िश' की गई है।
आलोचकों पर निशाना
साधते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था, "वे गुस्से में हैं, क्योंकि हाल ही में रिलीज़ हुई फ़िल्म उस सच्चाई को सामने ला
रही है, जिसे जानबूझकर छिपाया गया था। पूरी जमात जिसने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का
झंडा फहराया था, 5-6 दिनों से उग्र है। तथ्यों और कला के आधार पर फ़िल्म की समीक्षा करने के बजाय, इसे बदनाम करने की साज़िश की जा रही है।"
पीएम नरेंद्र मोदी
जो बोले उसके सामने कश्मीर पंडित जो बोल रहे हैं, वो हमने पहले ही लिख दिया है। या तो
वे सैकड़ों कश्मीर पंडित झूठे हैं, या फिर पीएम मोदी। या तो वे सैकड़ों लोग झूठे हैं जो स्वयं पीड़ित हैं, या फिर पीएम मोदी।
अब आप ही तय कीजिए
कि इस फ़िल्म के ख़िलाफ़ साज़िश हो रही है, या यह फ़िल्म ख़ुद एक साज़िश है? पीएम मोदी एक फ़िल्म को लेकर जिस तरह से बयानबाजी में उतरे वह
अप्रत्याशित नहीं है, क्योंकि वे ऐसा बहुत सारे मसलों पर करते आए
हैं।
द कश्मीर फ़ाइल्स फ़िल्म
के लिए बीजेपी नेता कुछ भी करने को तैयार हैं! यूपी के उन्नाव में एक बंद पड़े सिनेमा हॉल को बीजेपी विधायक ने जबरन खुलवा दिया
और उसमें यह फ़िल्म दो दिन चली, लेकिन डीएम ने कार्रवाई करते हुए सिनेमा हॉल
को बंद करा दिया। फायर एनओसी नहीं मिलने पर यह सिनेमा हॉल बंद था, जिसे जबरन खुलवा दिया गया! बीजेपी के वरिष्ठ नेता सुशील मोदी तो इस फ़िल्म का सेंट्रल जीएसटी माफ़ कराने के
लिए हाथ-पैर मार रहे हैं!!!
इस फ़िल्म को प्रधानमंत्री से लेकर तमाम राज्यों
के सीएम ने समर्थन दिया है। उधर फ़िल्म में ऐतिहासिक तथ्यों को ग़लत तरीक़े से पेश किए
जाने की वजह से इसका विरोध भी हो रहा है। पीएम सरीखा शख़्स फ़िल्म का समर्थन कर रहा
है, और फ़िल्म जिन लोगों पर बनी है वे फ़िल्म से नाराज़ हैं और पूरे विवाद को आग में
घी डालने का काम करने वाला प्रयत्न मान रहे हैं।
फ़िल्म में 1990 के जिस काल खंड को समेटा गया है, उस समय केंद्र में बीजेपी समर्थित सरकार थी और कश्मीर के राज्यपाल जगमोहन थे, जो दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रभावित थे। फ़िल्म में कश्मीरी
पंडितों का पलायन और उसके साथ हुई हिंसा को तो दिखाया गया है, लेकिन उसी दौर में कश्मीर
के मुसलमानों की आतंकियों ने बड़े पैमाने पर हत्याएं की, उस तथ्य को छिपा लिया गया है। हालाँकि जम्मू कश्मीर पुलिस के
मुताबिक़ उस दौर की हिंसा में 89 कश्मीरी पंडित मारे गए थे। जबकि फ़िल्म में हज़ारों कश्मीरी पंडितों की बात कही
गई है।
कश्मीर पर बॉलीवुड
में कई और फ़िल्में भी बनी हैं, लेकिन उनको लेकर इस तरह का विवाद कभी नहीं
उठा। इसमें हाल ही में आई शिकारा (डायरेक्टर विधु विनोद चोपड़ा) शामिल है। विधु विनोद
और उनका परिवार ख़ुद पलायन का शिकार हुआ था। उसी सच्ची कहानी को शिकारा में समेटा गया
था।
देखिए न, बॉर्डर मूवी को कितना
सारा प्यार मिला। उस फ़िल्म में कुलदीप सिंह चांदपुरी का किरदार निभाने वाले सनी देओल
को कितना प्यार मिला। दुखद यह रहा कि जब असली वॉर हीरो कुलदीप सिंह चांदपुरी का निधन
हुआ, तो इस फास्ट ज़माने में भी दूसरे दिन तक कइयों को पता नहीं था कि लोंगेवाला का इतिहास
रचने वाला हीरो हमें छोड़कर चला गया है।
फ़िल्मों का प्रभाव और उसके ज़रिए राजनीति, यह हथकंडा भले ही पुराना हो, किंतु इस आधुनिक ज़माने में भी चल रहा है! क्योंकि एजुकेटेड का अर्थ यह नहीं है कि वह बंदा इंटेलीजेंट भी होगा! फ़िल्में देखकर तिरंगे के लिए जान देने का नशा जिन लोगों पर छा जाता है, वे लोग 2 बीधा ज़मीन के लिए अपनों की हत्या करते रहे हैं, करते रहेंगे। दरअसल आज से ही नहीं, बल्कि अरसे से नेता लोग समाज
को प्रभावित करने वाली चीज़ों-घटनाओं के ज़रिए अपनी रोटियाँ सेंकते आए हैं। फ़िल्में भी
समाज को प्रभावित करती हैं, तो फिर रोटियाँ उसके
ज़रिए भी सेंकी जाएगी।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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