अंतिम रूप से यही कोण
दिखता है कि आज की तारीख़ तक ‘शहीद’ लफ़्ज़ के संबंध में भारतीय सेना और भारतीय
संविधान की जो मूल भावना है उसे सुरक्षित रखा गया हो। और इसी भावना और परंपरा के अधीन
भारतीय सेना आधिकारिक रूप से कह चुकी है कि वहाँ कोई ‘शहीद’ नहीं होता, वे ‘वीर’ या ‘बलिदानी’ होते हैं।
हम नागरिक क्या मानते
हैं, क्या नहीं, यह चर्चा अलग से हो सकती है। इस लेख का मक़सद चर्चा की गलियों में जाना नहीं है।
बल्कि एक संवेदनशील विषय को लेकर भारत में आधिकारिक रूप से क्या स्थिति अभी है उसे
स्पष्ट करना ही है। यह आज की स्थिति दर्शाता है, भविष्य की नहीं।
कम से कम आज की तारीख़
तक इस लेख का जो शीर्षक है उसे आधिकारिक रूप से सही माना जाता है, भावनात्मक और सामाजिक
रूप से भले ही चलन में न हो। हम नागरिक, हमारे नेता, सेना के अधिकारी, हमारा मीडिया समेत लगभग तमाम समुदाय आम भाषा
में तो सेना में देश के लिए अपनी जान गँवाने वाले जवानों के लिए ‘शहीद’ लफ़्ज़ का ही इस्तेमाल
किया करते हैं। इतना ही नहीं, स्वतंत्रता संग्राम में जो बलिदानी लोग थें, उनके लिए भी हम उन्हें इसी शब्द से सम्मानित किया करते हैं।
सबसे पहले आपकी जानकारी
के लिए बता दें कि यह स्पष्टीकरण स्वयं भारतीय सेना ने दिया हुआ है। नोट करें कि भारतीय
सेना ने यह स्पष्टीकरण देश को नहीं दिया था,
बल्कि अपने आला अफ़सरों और अपनी व्यवस्था को दिया था। माना गया
है कि सेना का यह स्पष्टीकरण नागरिकों को भी लागू होता है।
भारतीय सेना ने यह स्पष्टीकरण सन 2022 में ही दिया हुआ है। यानी कि हाल ही में। दरअसल सेना के ही कुछ अधिकारी मीडिया
में, सीमा पर या आतंकियों के साथ मुठभेड़ में मारे गए सैनिकों को लेकर शहीद शब्द का
इस्तेमाल कर रहे थे। सेना ने इस संबंध में 2 फ़रवरी 2022 को अपने सभी कमांड को एक परिपत्र (सर्कुलर) जारी किया और लिखित रूप से उन्हें
सूचना दी कि देश के लिए जान देने वाले सैनिक को मार्टर, यानी शहीद कहा जाता है वह सही
नहीं है। स्पष्ट कर दें कि रक्षा मंत्रालय भी इससे पहले कई बार कह चुका है कि ऐसे जवानों
के लिए 'शहीद' आधिकारिक शब्द नहीं है।
भारतीय सेना ने अपने
सर्कुलर में देश की सुरक्षा और एकता के लिए कुर्बानी देने वाले सैनिकों के लिए छह शब्दों
के इस्तेमाल का सुझाव दिया था। इन शब्दों में किल्ड इन एक्शन (कार्रवाई के दौरान मृत्यु), लेड डाउन देयर लाइफ्स
(अपना जीवन न्यौछावर करना), सुप्रीम सेक्रिफाइस फॉर नेशन (देश के लिए
सर्वोच्च बलिदान), फॉलन हीरोज़ (लड़ाई में मारे गए हीरो),
इंडियन आर्मी ब्रेव्स (भारतीय सेना के वीर), फॉलन सोल्जर्स (ऑपरेशन में मारे गए सैनिक) शामिल थें।
सेना ने देश के लिए
जान गँवाने वाले सैनिकों को बलिदानी, सर्वोच्च बलिदान, वीर, वीरगति को प्राप्त वीर, वीर योद्धा, दिवंगत नायक, भारतीय सेना के वीर, जैसी संज्ञाओं से संबोधित करने की सलाह दी थी।
सेना के पत्र में यह
भी कहा गया था कि जिन भारतीय सैनिकों ने देश की संप्रुभता और सम्मान के लिए अपनी जान
दी हो, उनके गौरव और स्मृति में 'शहीद' के बजाए उपरोक्त शब्दों का इस्तेमाल किया
जाए।
गृह मंत्रालय ने इससे
पहले 22 दिसंबर 2015 को लोकसभा में एक लिखित जवाब में कहा था कि रक्षा मंत्रालय के मुताबिक़ 'शहीद' शब्द का प्रयोग सेना में ऑपरेशन या कार्रवाई के दौरान मारे गए
सैनिकों के संदर्भ में नहीं किया जाता है, और न हीं सेन्ट्रल आर्म्ड पुलिस बल या असम
पुलिस के जवानों के लिए, यदि वह किसी ऑपरेशन में मारे गए हों।
केंद्रीय गृह मंत्रालय
ने दिसंबर 2016 में लोकसभा को सूचित किया था कि भारतीय सेना और इससे जुड़े बलों में बलिदानी जवानों
के लिए अंग्रेज़ी में मार्टर और हिंदी अथवा उर्दू में शहीद शब्द का प्रयोग नहीं किया
जा सकता।
दिसंबर 2017 में एक आरटीआई मामले
में भारत सरकार ने केंद्रीय सूचना आयोग को बताया था कि सरकार सेना, अर्धसैनिक बल या पुलिस
के मामले में ‘शहीद’ शब्द का इस्तेमाल नहीं करती है। रक्षा मंत्रालय ने किसी को शहीद कहने के लिए आज
तक कोई नोटिफिकेशन जारी नहीं किया।
ऐसे ही 16 जुलाई 2019 को लोकसभा में गृह
राज्य मंत्री से आतंकवादी हमलों में अपनी जान गँवाने वाले अर्धसैनिक बलों के जवानों
को 'शहीद' का दर्जा देने के बारे में लिखित प्रश्न पूछा गया तो उन्होंने कहा था कि ऐसा कोई
आधिकारिक नामकरण (नोमेनक्लेचर) नहीं है। गृह मंत्रालय ने कार्रवाई में अपनी जान गँवाने
वाले केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बल और असम राइफल्स के निकटतम सम्बन्धियों को ऑपरेशन कैजुअल्टी
प्रमाण पत्र जारी करने के अनुदेश जारी किए थे।
सन 2020 के फ़रवरी महीने में
ही न्यूज़ छपी थी कि गृह मंत्रालय ने शहीद शब्द को कहीं भी परिभाषित नहीं किया है।
दरअसल इन दिनों दिल्ली हिंसा में जान गँवाने वाले पुलिस कर्मी को लेकर मामला सुर्खियों
में था। आम तौर पर माना जाता है कि शहीद की असल में सही परिभाषा क्या है इसके लिए कहीं
कोई तय तहरीर नहीं है।
सन 2022 में भारतीय सेना ने
अपने अधिकारीओं को सर्कुलर जारी कर, वीर या बलिदानी जवानों के लिए शहीद शब्द का इस्तेमाल
न करने को कहा था। इसके बाद रक्षा मंत्रालय ने एक बार फिर संसद में स्पष्ट किया कि
अभियान के दौरान जान गँवाने वाले सैनिकों के लिए मार्टर या शहीद शब्द का इस्तेमाल नहीं
होता है, यह शब्द ग़लत है। रक्षा राज्य मंत्री अजय भट्ट
ने 28 मार्च 2022 को संसद में यह जवाब दिया था।
दरअसल शहीद शब्द का
अर्थ और इतिहास भी इस मसले को लेकर एक बड़ा मुद्दा है। हम अभी भारतीय सेना में जो आधिकारिक
स्थिति है उसकी बात कर रहे हैं, लिहाज़ा शहीद शब्द का इतिहास उड़ेलकर मसले को किसी धार्मिक द्दष्टिकोण की तरफ़ ले
जाना नहीं चाहते। शहीद शब्द का जो अर्थ इतिहासकारों और विद्वानों द्वारा प्रमाणित किया
गया है उसकी बात संक्षेप में कर लेते हैं।
दरअसल कुछ चीज़ें धार्मिक
या व्यक्तिगत द्दष्टिकोण का मामला नहीं होती, बल्कि ज़मीनी सत्य उसका मूल होता है। शहीद
का मूल प्रमाणित अर्थ जो है उसकी संक्षेप में बात कर लेते हैं।
विद्वानों और इतिहासकारों की माने तो दरअसल
शहीद शब्द का प्रयोग उस व्यक्ति के लिए किया जाता है, जिसकी मृत्यु धर्म या राजनीतिक
उद्देश्यों के चलते हुई हो। कृपया ध्यान दें कि राजनीतिक उद्देश्य की परिभाषा केवल
चुनाव या नेता के इर्द गिर्द नहीं होती, बल्कि इससे विशाल होती
है। वैसे भी इश्क़ मोहब्बत में मरने वालों के लिए ग़ज़लों और शायरी में शहीद-ए-इश्क़
लिखा जाता है, वीर या बलिदानी तो सेना के सैनिक होते हैं।
दरअसल 'शहीद' कहने की परिपाटी की व्यापक शुरुआत सन 1990 के आसपास हुई थी।
यहाँ व्यापक शुरुआत की बात है। हमारे यहाँ आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद भी देश के
लिए जान गँवाने वालों के लिए शहीद शब्द का इस्तेमाल किया जाता रहा है। किंतु वह व्यापक
नहीं था। जानकारों की माने तो व्यापक रूप से शुरुआत 1990 के आसपास हुई थी।
फिर मीडिया और सैन्य टिप्पणीकारों ने बलिदानी जवानों को 'शहीद' कहना शुरू कर दिया।
शहीद शब्द का इतिहास
धर्म विशेष समुदाय और धर्म विशेष भाषा से जुड़ा हुआ है, लिहाज़़ा उस संबंध में
भी दलीले दी जाती हैं। हमें यहाँ वो चर्चा नहीं करनी है, लिहाज़ा इसका रिसर्च
ख़ुद कर लीजिएगा। याद रखिएगा कि गूगल पर सर्च होता है, रिसर्च नहीं। रिसर्च
तो लायब्रेरी में कई प्रमाणित किताबों को उड़ेलने के बाद होता है।
इस मसले पर सेना का कहना है कि हमारी सेना
पंथनिरपेक्ष है और यह मातृभूमि (भारतीय स्वामित्व वाला भूक्षेत्र) की रक्षा के लिए
है, किसी धर्म या विचारधारा की रक्षा के लिए नहीं है। भारतीय सेना और भारत सरकार शहीद
शब्द के इस्तेमाल नहीं करने को लेकर मूल रूप से यही कहते हैं कि हमारे जवान देश की
एकता और क्षेत्रीय अखंडता तथा संविधान में निहित मूल्यों की रक्षा करते हुए अपनी जान
न्योछावर करते हैं। सेना के सर्कुलर के मुताबिक़ भारतीय सशस्त्र बलों को अपने पेशेवर, ग़ैर-राजनीतिक और धर्मनिरपेक्ष
प्रकृति पर गर्व है। भारतीय सेना के अनुसार सेना में शहीद नहीं, देश पर मर मिटने वाले
वीर या बलिदानी होते हैं।
दरअसल हम जिसे भारतीय
सेना मानते या समझते हैं, विषय और सच्चाई उससे काफ़ी अलग है। भारतीय सेना से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप
से जुड़े हुए जितने बल हैं, उनमें से अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए बलों में यह मामला अनेकों बार उठता रहा है।
साफ़ है कि सरहद पर या सरहद के भीतर दुश्मनों से लड़ने वालों में सेना समेत उससे संबंधित
अनेक सुरक्षा बल तथा पुलिस बल भी शामिल होते हैं। यह मामला संसद में भी अनेक बार उठ
चुका है, और संसद के बाहर अदालत या अन्य मंचो पर भी चर्चा में आ चुका है।
शहीद का दर्जा पाने
के लिए सेना से जुड़े सुरक्षा बलों के जवान और परिवार अदालत में लड़ाई लड़ते रहे हैं।
दूसरी तरफ़ नागरिकी इलाक़ों में शांति स्थापना कार्रवाई के दौरान (जैसे कि दंगे) मारे
जाने वाले जवानों को भी शहीद का दर्जा देने के लिए माँग उठती रही है।
दरअसल इसे कई लोग सामाजिक
मनोविज्ञान से जुड़ा मसला मानते है, और साथ ही परिवार के भविष्य से जोड़कर भी देखते
हैं। सामान्यत: लोगों को ऐसा लगता है कि ‘शहीद’ का तमगा मिलने से उनके परिवार के लिए आने
वाली ज़िंदगी थोड़ी आसान हो जाएगी। हालाँकि ऐसा हो जाता है, इसके पुख्ता प्रमाण नहीं हैं।
सरकारी गजट के रिकॉर्ड
में न सही, लेकिन आम बोलचाल की भाषा में तो सैनिकों को शहीद कह ही दिया जाता है। मगर कई मामलों
में पैसा और सुविधाएं मिलने में काफ़ी वक़्त लगता है। ऐसे कई मामले देखने को मिले, जहाँ शहीदों के परिजनों को कई मुसीबतें झेलनी पड़ी।
इंटरनेट पर या किसी
अप्रमाणित पुस्तकों को देखने पर यह पढ़ने को मिलता है कि शहीद का तमगा मिलने पर जवान
को कैसी कैसी और कितनी कितनी सुविधाएँ मिलती हैं। ऐसे पुस्तकों में बाक़ायदा सूची दी
गई है। दूसरी तरफ़ आधिकारिक रूप से भारतीय सेना और भारत सरकार इससे उलट सत्य सामने रखते
दिखते हैं। वहाँ शहीद नहीं होते, वीर या बलिदानी होते हैं।
हाँ, यह ज़रूर है कि अपने
कर्तव्य के दौरान अप्राकृतिक रूप से जान गँवाने वाले सैनिकों को नियमों के हिसाब से
मदद और कुछ सुविधाएँ दी जाती हैं। और यह नियम एक समान नहीं है। भारतीय सेना, भारत की केंद्र सरकार
और संबंधित राज्य सरकारें उन वीरों के लिए नियम के अधीन सहाय देने के लिए बाध्य हैं।
ग़ैर सरकारी संगठन या व्यक्तिगत रूप से भी लोग या समुदाय उन जवानों के परिवारों को मदद
करते हैं।
भारतीय सेना और भारत
सरकार अनेकों बार देश को कह चुके हैं कि सेना की नियमावली में कहीं भी शहीद लफ़्ज़ नहीं
है। इसकी वाज़िब वजहें भी हैं। वहाँ शुरुआती समय में कैजुअल्टी शब्द होता है। पुख्ता
ख़बरों के बाद जान गँवाने वाले सैनिक के लिए वीर, बलिदानी आदि शब्दों का इस्तेमाल होता है।
भारतीय नागरिकों में भावनात्मकता वाले तत्व का प्रमाण ज़्यादा है। कहते हैं कि हर
चीज़ में अल्प और अति, दोनों से दूरी रखनी चाहिए। हम भारतीय सेना को लेकर बात कर रहे हैं तो हमें व्हाट्सएप
विश्वविद्यालय छोड़कर प्रमाणित जानकारी पर चलना चाहिए। हमारी फ़िल्में जो भी कहे, हम चाहे कितना भी दिल की भावनाओं को डांस कराएँ, दरअसल सैन्य बलों में ट्रेनिंग के दौरान सिखा दिया जाता है कि
जंग दिल से नहीं दिमाग़ से लड़ी जाती है। भारतीय सेना ने इसे अनेकों बार शत प्रतिशत
सही साबित भी किया है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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