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Army and Government: राजनीति की नाक सदैव लंबी होती है, सेना और सरकार के बीच विवाद के दुर्भाग्यपूर्ण मामले


1971 के दौर का एक क़िस्सा कई किताबों में दर्ज है। महानायक सैम मानेकशॉ और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का तालमेल, हँसी मजाक, विश्वास-अविश्वास के अनेक क़िस्से हैं, जिनमें से यह एक क़िस्सा है। उस ऐतिहासिक लड़ाई के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने सैम से पूछा कि ऐसी चर्चा है कि आप मेरा तख़्ता पलटने वाले हैं। सैम ने ज़िंदादिल अंदाज़ में जवाब दिया कि मैं आपका सही उत्तराधिकारी साबित हो सकता हूँ, लेकिन मैं अपनी नाक किसी के मामले में नहीं डालता, भले ही मेरी नाक आप की नाक की तरह ही लंबी है।
 
भारतीय सेना और भारत सरकार, दोनों के बीच विवादों का इतिहास लंबा है। एक एक विवाद पर किताबें लिखी जा चुकी हैं। समय समय पर सेना और सरकार के रिश्तों को लेकर मामले बनते बिगड़ते रहे हैं। यूँ तो अंतरराष्ट्रीय हलकों में भारतीय सेना की तारीफ़ होती रही है कि उसने अपने आप को राजनीतिक मुद्दों से दूर रखा है।
 
15 जनवरी, वह तारीख़, जिसे राष्ट्रीय सेना दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह वही दिन था जब 1949 में भारत के आख़िरी ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ़ फ्रांसिस बुचर ने लेफ़्टिनेंट जनरल केएम करिअप्पा को कमांडर-इन-चीफ़ की ज़िम्मेदारी सौंपी थी।
 
भारतीय सेना की स्थापना 1 अप्रैल, 1895 को हुई थी। हालांकि स्वतंत्र भारत में सेना की कमान भारत के पास 15 जनवरी 1949 को मिली और इसी दिन कोई भारतीय पहली बार सेना प्रमुख बना। स्वतंत्रता मिलने के बाद सेना की कमान भारत के हाथ में आना ऐतिहासिक पल था। सेना दिवस पर उन सैनिकों को भी श्रद्धांजलि दी जाती है, जिन्होंने ज़िम्मेदारी निभाते हुए अपनी जान गँवा दी।
 
अक्तूबर, 1947 में जब जूनागढ़ ने पाकिस्तान के साथ जाने का फ़ैसला किया तो उसकी सीमा के आसपास भारतीय सैनिक तैनात किए जाने पर भारतीय सेना के ब्रिटिश प्रमुखों ने अपना विरोध प्रकट किया था, जिसे नेहरू और सरदार पटेल ने क़तई पसंद नहीं किया था।
 
करिअप्पा और जवाहरलाल नेहरू का मामला
केएम करिअप्पा। भारत के दूसरे फ़िल्ड मार्शल। करिअप्पा और प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के बीच मतभेद के ऐतिहासिक क़िस्से जगज़ाहिर हैं। कहते हैं कि करिअप्पा नेहरू की पहली पसंद नहीं थे। ऐसे विवरण मिलते हैं कि पहले उन्होंने नाथू सिंह और फिर राजेंद्र सिंहजी को इस पद की पेशकश की थी, लेकिन दोनों ने ये कहते हुए इस पद को अस्वीकार कर दिया था कि वो करिअप्पा से जूनियर थे।
 
श्रीनाथ राघवन अपनी किताब 'वॉर एंड पीस इन मॉडर्न इंडिया' में लिखते हैं कि कुछ घटनाओं की वजह से ही मंत्रिमडल की रक्षा समिति बनाई गई थी, ताकि रणनीति के मामले में सिविल-मिलिट्री संबंधों को औपचारिक स्वरूप दिया जा सके।
 
इस विवाद पर किताबों को उड़ेलने के बाद मोटे तौर पर एक सर्वसामान्य जानकारी यही मिलती है कि आज़ादी के कुछ सालों बाद भारत के पहले सेना प्रमुख जनरल केएम करिअप्पा ने कई नीतिगत मामलों पर अपने विचार व्यक्त करना शुरू कर दिए थे। नेहरू ने तब उन्हें बुलाकर ऐसा करने के लिए टोका भी था।

कुछ किताबों के हवाले से, विशेषज्ञों के मीडिया वार्तालापों से एक बड़ा दावा यह मिलता है कि इस संभावना को दूर करने के लिए कि करिअप्पा रिटायर होने के बाद कहीं राजनीति में न उतर जाएं, नेहरू ने उन्हें ऑस्ट्रेलिया में भारत का उच्चायुक्त बना कर भेज दिया था।
 
करिअप्पा फिर भी राजनीति में उतरे भी। यह कहा नहीं जा सकता कि वे नाराज़गी के चलते राजनीति की पारी खेल गए थे, या फिर उनकी निजी इच्छा थी। दरअसल इसके बाद करिअप्पा ने एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था, जिसमें वो तीसरे क्रम पर आए थे।
 
वैसे रिटायरमेंट के बाद चुनाव लड़ने वाले जनरलों की फ़ेरहिस्त काफ़ी लंबी है और इसमें नाथू सिंह, जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा, जनरल बीसी खंडूरी, जनरल जेजे सिंह या फिर जनरल वीके सिंह जैसे उच्च सैनिक अधिकारी शामिल हैं।

टेंप्रामेंटल मतभेद! वीके मेनन से नाराज़गी के चलते जनरल थिमैया का इस्तीफ़ा
तत्कालीन जनरल थिमैया और तत्कालीन रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन के बीच विवाद भी अनेक जगहों पर दर्ज है। सितंबर, 1959 में तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल थिमैया ने रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन से अपने मतभेदों के चलते इस्तीफ़ा दे दिया था।
 
ऊपरी तौर पर ये बताया गया था कि ये मतभेद कुछ अफ़सरों की पदोन्नति के मुद्दे पर थे। लेकिन अभिलेखीय सबूतों के आधार पर रेहान फ़ज़ल के मुताबिक़ इस इस्तीफ़े की वजह इससे कहीं अधिक गहरी थी।

श्रीनाथ राघवन लिखते हैं, "इस मामले के कुछ समय पहले ही भारत और चीन के सैनिकों की झड़प हुई थी। चीन के संभावित ख़तरे का मुकाबला करने के लिए थिमैया चाहते थे कि भारत सरकार पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ाँ के भारत-पाकिस्तान के बीच संयुक्त रक्षा व्यवस्था बनाने के प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार करे।"
 
उन्होंने आगे लिखा है, "नेहरू ने इसको इसलिए मानने से इनकार कर दिया था, क्योंकि इससे भारत की गुट निरपेक्ष नीति प्रभावित होती। कृष्ण मेनन भी इस प्रस्ताव के पक्ष में नहीं थे। जब थिमैया राजनीतिक नेतृत्व को इसके लिए नहीं मना पाए तो उन्होंने अपना इस्तीफ़ा भेज दिया।"
 
बाद में नेहरू ने थिमैया को अपना इस्तीफ़ा वापस लेने के लिए मना लिया, लेकिन उन्हें कोई आश्वासन भी नहीं दिया। लेकिन तब तक प्रेस को इसकी भनक लग गई थी।
 
जब संसद में इस पर सवाल उठाए गए तो नेहरू ने इसे 'टेंप्रामेंटल मतभेद' कह कर ज़्यादा भाव नहीं दिया।
 
वीके मेनन का सवाल और मानेक शॉ का जवाब
रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन की अपने अधिकतर जनरलों से नहीं बनती थी। कहते हैं कि वो उन्हें पीठ पीछे 'गॉड अलमाइटी' कह कर पुकारा करते थे। एक बार उन्होंने मेजर जनरल सैम मानेक शॉ से पूछा था कि, "जनरल थिमैया के बारे में आपकी क्या राय है?"
 
हमेशा मुँहफट रहे मानेक शॉ ने जवाब दिया था, "सर, जूनियर अफ़सर के तौर पर हमें अपने सीनियर अफ़सरों के बारे में अपने विचार प्रकट करने की इजाज़त नही है। हम अपने सीनियर्स का सम्मान करते हैं और इस में कोई दो राय नहीं है।"
 
मेनन ने इस जवाब को पसंद नहीं किया और बाद में सैम को इसका खामियाजा उस वक़्त भुगतना पड़ा, जब उनके ख़िलाफ़ एक जाँच बैठा दी गई थी।
 
1973 में जब सैम मानेक शॉ के रिटायरमेंट का वक़्त आया तो सबसे वरिष्ठ होने के वावजूद जनरल पीएस भगत को सेना अध्यक्ष नहीं बनाया गया था।

सैम की बहादुरी के बाद पीएस भगत से सरकार ने किनारा किया, उसके बाद यह एसके सिन्हा के साथ भी हुआ
भारत के पहले फ़िल्ड मार्शल जनरल सैम मानकेशॉ, जिन्हें सैम बहादुर के नाम से जाना जाता है, उसके बाद शायद राजनीति को जनरल के रूप में कोई शक्तिशाली सैन्य अफ़सर नहीं चाहिए था।

सैम, जिन्हें 1962 की हार के बाद चौथे कोर की कमान दी गई, तब उन्होंने सैनिकों को संबोधित करते हुए कहा था कि आपको सिर्फ़ दो बातें याद रखनी हैं, पहली यह कि आज के बाद आप में से कोई भी तब तक पीछे नहीं हटेगा जब तक आपको इसके लिए लिखित आदेश नहीं मिलते, और दूसरी बात यह कि यह आदेश आपको कभी भी नहीं दिया जाएगा।
 
स्वतंत्र भारत में दो लोग फ़िल्ड मार्शल के सम्मान से नवाजे गए। सैम को यह सम्मान 1973 में मिला, जबकि करिअप्पा को 1986 में। अपने मुँहफट जवाब और बेफिक्री से काम करने के तरीक़े से सैम सदा राजनेताओं की आँखों में खटकते रहे। शायद इंदिरा गाँधी ही थीं, जिनके और सैम के अविश्वास के क़िस्सों के बाद भी सैम और उनकी क्षमताओं पर सबसे ज़्यादा विश्वास इंदिरा गाँधी ने ही किया। लेकिन राजनीति तो राजनीति है, वहाँ कुछ भी स्थायी नहीं होता।
 
सैम चाहते थे कि भगत ही उनके उत्तराधिकारी हों, लेकिन रक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण के दबाव में जनरल बेवूर को अगला सेनाध्यक्ष बनाया गया। कुछ हलकों में कहा गया कि सरकार नहीं चाहती थी कि सैम के बाद अगला जनरल भी उन जैसा ही शक्तिशाली जनरल हो।
उसी तरह जनरल कृष्ण राव के रिटायर होने के बाद जनरल एसके सिन्हा सबसे वरिष्ठ जनरल थे, लेकिन उनकी जगह जनरल एएस वैद्य को नया सेनाध्यक्ष बनाया गया। बाद में कहा गया कि ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि जनरल सिन्हा जयप्रकाश नारायण के बहुत क़रीब थे।
 
जनरल एसके सिन्हा ने अपनी आत्मकथा 'चेंजिंग इंडिया-स्ट्रेट फ़्रॉम हार्ट' में लिखा है, "एक बार मैं पटना से दिल्ली हवाई जहाज़ से सफ़र कर रहा था। इत्तेफ़ाक से जेपी की सीट मेरे बगल में थी। हम लोग बातें करने लगे। मैं उन्हें पहले से जानता था। जब वो उतरने लगे, तो मैने उनका ब्रीफ़केस उनके हाथ से ले लिया।"
 
जनरल सिन्हा आगे लिखते हैं, "जेपी ने मना भी किया कि ये अच्छा नहीं लगेगा कि वर्दी पहने एक जनरल मेरा ब्रीफ़केस ले कर चले। मैंने कहा कि मैं जनरल होने के साथ-साथ आपका भतीजा भी हूँ। वो मुस्कराए और उन्होंने अपना ब्रीफ़केस मुझे पकड़ा दिया।"
 
उन्होंने लिखा है, "जब हम हवाई अड्डे से बाहर आए तो मैंने वो ब्रीफ़केस जेपी को लेने आए एक शख़्स को पकड़ा दिया और उन्हें सेल्यूट कर उनसे विदा ली। अगले दिन जब मैं तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल टीएन रैना से मिलने गया, तो उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे बताया गया है कि आप जेपी के बहुत नज़दीक़ हैं।"
 
जनरल सिन्हा अपनी आत्मकथा में आगे लिखते हैं, "एक अन्य मौक़े पर तत्कालीन वायु सेनाध्यक्ष ने जेपी का ज़िक्र करते हुए मुझसे पूछा था कि क्या वो बुढ्ढा आदमी अभी तक ज़िंदा हैं? मुझे उनके पूछने का ढ़ंग और भाषा अच्छी नहीं लगी थी। मैंने तुरंत कहा, ईश्वर की कृपा से भारत का महानतम व्यक्ति अभी भी जीवित हैं।"
 
इस बेबाकी का नुक़सान जनरल सिन्हा को उठाना पड़ा जब समय आने पर उनकी अनदेखी की गई। सिन्हा ने एक मिनट का समय ज़ाया न करते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया।
 
नौसेनाध्यक्ष विष्णु भागवत की बर्खास्तगी
ये पहला मौक़ा था, जब किसी सर्विंग एडमिरल को इस तरह उनके पद से हटाया गया था।
 
1998 में नौसेनाध्यक्ष एडमिरल विष्णु भागवत को एनडीए सरकार ने उनके पद से बर्खास्त कर दिया, क्योंकि उन्होंने वाइस एडमिरल हरिंदर सिंह को उप नौसेनाध्यक्ष बनाने के सरकार के फ़ैसले को मानने से इनकार कर दिया था।
 
30 दिसंबर 1998 को तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडिस ने एडमिरल भागवत को इस आरोप में बर्खास्त किया था कि उन्होंने नागरिक सत्ता के आदेशों की अवहेलना की थी। तब एडमिरल विष्णु भागवत का एडमिरल रैंक भी छीन लिया गया था और उनकी पेंशन भी बंद कर दी गई थी। हालाँकि बाद में विष्णु भागवत की पेंशन बहाल हो गई थी, लेकिन नौसेना के किसी समारोह में उन्हें औपचारिक निमंत्रण नहीं मिलता था।
 
हालाँकि सन 2012 में आयोजित समारोह में तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी ने अपने संबोधन के दौरान उपस्थित अधिकारियों में विष्णु भागवत का नाम भी शामिल किया और उन्हें एडमिरल कह कर संबोधित किया। ऐसा करके रक्षा मंत्रालय ने यह संकेत दिया कि एडमिरल भागवत का पुराना सैन्य सम्मान फिर बहाल कर दिया गया है।
 
वीके सिंह विवाद
साल 2012 में तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह के जन्म सर्टिफ़िकेट के मामले ने बहुत तूल पकड़ा था।
 
रिकॉर्ड के मुताबिक़ वीके सिंह का जन्म 1950 में हुआ। इससे उन्हें कोर कमांडर, सेना कमांडर और अंतत सेना प्रमुख के रूप में तीन महत्वपूर्ण पदोन्नतियाँ मिलीं। लेकिन फिर उन्होंने रक्षा मंत्रालय को एक विस्तृत वैधानिक शिकायत भेजी और उनकी जन्मतिथि 1951 करने के लिए कहा।
 
वीके सिंह का कहना था कि सेना सचिव का प्रभाग 1971 में उनका एसएससी प्रमाणपत्र मिलने के बाद रिकॉर्ड को अपडेट नहीं कर सका। तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी ने सरकार का फ़ैसला बदलने से इनकार कर दिया।
 
वीके सिंह इस मामले को सुप्रीम कोर्ट तक ले गए, लेकिन जब कोर्ट ने इस मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया तो उन्होंने केस वापस ले लिया।
 
अपने कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री को भेजी चिठ्ठी लीक हो जाने का मामला से लेकर 2012 में सेना की दिल्ली कूच की अपुष्ट मीडिया रिपोर्ट भी ख़ूब चर्चा में रहे।
 
अपना कार्यकाल समाप्त होने के बाद वो राजनीति में आ गए और उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल में मंत्री भी बने।
 
एक नहीं बल्कि दो-दो जनरलों की वरिष्ठता को नज़रअंदाज़ कर बिपिन रावत सेनाध्यक्ष बनाए गए
हाल के समय में एक नहीं बल्कि दो-दो जनरलों, प्रवीण बख्शी और पीएम हरीज़ की वरिष्ठता को नज़रअंदाज़ कर जनरल बिपिन रावत को सेनाध्यक्ष बनाया गया।
 
वरिष्ठता को नज़रअंदाज़ करने का चलन क़रीब तीन दशक बाद फिर चला। यूँ देखा जाए तो यह प्रथम बार था, जब दो-दो जनरलों की वरिष्ठता को नज़रअंदाज़ किया जा रहो।
 
जनरल बिपिन रावत नेहरू काल की भी याद दिलाने लगे, जब वे सेना के अलावा दूसरे मसलों पर भी खुलकर अपनी राय रखने लगे। हालाँकि इस बार सरकार की तरफ़ से उन्हें इससे कोई दिक्कत नहीं हुई। जानकार बताते हैं कि जनरल रावत के बयानों पर इसलिए सरकार ने ऐतराज़ नहीं जताया, क्योंकि उनके बयान सरकारी नीतियों की तरफ़दारी करते थे।
 
बहरहाल, बिपिन रावत फ़िल्ड मार्शल करिअप्पा जितने सताए नहीं गए, बल्कि उन्हें देश का प्रथम चीफ़ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ़ (सीडीएस) नियुक्त किया गया। अपने कार्यकाल के दौरान ही सन 2021 के दिसंबर महीने में एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना में उनका निधन हो गया।

ये सही है कि सिर्फ़ वरिष्ठता को ही पदोन्नति का आधार नहीं बनाया जा सकता, और देश की ज़रूरतों के अनुसार किसी को जनरल बनाना सरकार का विशेषाधिकार है। किंतु विशेषज्ञों के मुताबिक़ इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस तरह के चलन से जनरलों में राजनीतिज्ञों के बीच अपने दावों के लिए लॉबीइंग करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा, जैसा कि कई राज्यों में वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों के साथ हुआ है।
 
यूँ ही नहीं कहा जाता कि राजनीति की नाक लंबी होती है। और राजनीति ऐसी नीति है, जो कहीं पर भी की जा सकती है और कोई भी कर सकता है। सरकार और सेना के रिश्तों को लेकर यह नियम लागू होता है या नहीं, कितना लागू होता है, यह आप ख़ुद सोचिएगा।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)