Ticker

16/recent/ticker-posts

War Presentation: समूचा देश साथ है, युद्ध से किसी को परहेज नहीं है, लेकिन युद्ध का ऐसा प्रचार और प्रसार क्यों?

 
युद्ध या आक्रमण जायज व शांति के लिए अतिआवश्यक प्रक्रिया है। किंतु दोनों परिस्थितियों में उसका प्रचार और प्रसार किस हद तक जायज है? एक देश का मतलब आप क्या समझेंगे? यदि देश का मतलब समझेंगे तभी तो युद्ध का मतलब समझ आएगा।
 
किसी भी प्रस्तावित या संभावित योजना के आगे बढ़ने के तौर-तरीकों पर सहमती या असहमती की राय रखने वालों की बातें अवलोकन के लायक होती हैं। यहाँ सहमती और असहमती की राय रखने वालों का ज़िक्र है, ना कि समर्थक तथा विरोधियों का। वैसे भी समर्थक तथा विरोधी, इन दोनों की राय में घुसने के प्रयत्न कम ही करने चाहिए। बजाय इसके, विरोधी अवलोकन तथा सहमती के अवलोकन, ज़्यादा काम आते हैं। अवलोकन करने वालों की व्याख्या स्थापित है और केवल अपने तर्कों से उस तबके की नयी व्याख्या गढ़ने के विफल प्रयास ना करें। वे सही भी हो सकते हैं या गलत भी। लेकिन वे भक्त नहीं होते, इस लिहाज से वे विषय के संभावित पहलुओं को ठीक से ज़रूर समझ लेते हैं।
 
पाकिस्तान... भारत में जब भी यह नाम आता है, तब समूची देशभावना जाग्रत हो उठती है! समूचा देश पाकिस्तान नाम की समस्या को जड़ से उखाड़ फेंकने की भावना पालता है। 1971 में हमने पाकिस्तान नाम के उस देश को दो हिस्सों में बाँट दिया था। लेकिन फिर भी... पड़ोसी है कि मानता नहीं! 1999 के बाद पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बाँटने की भावनाएँ फिर से प्रबल हुई। उसका ज़िम्मेदार खुद पाकिस्तान ही था। कोई भी सरकार हो, कोई भी दल सत्ता में हो, कोई भी समर्थक हो, आम राय यही होती है कि पाकिस्तान को फिर से वैसा ही सबक सिखाया जाए।
 
वैसे कुछेक लोग दलील करेंगे कि फलां फलां हैं, जो पाकिस्तान का पक्ष लेते हैं या फिर युद्ध को गैरजरूरी मानते हैं, वगैरह वगैरह। लेकिन बात देश की हो रही है। अमूमन हमारे यहाँ "वैश्विक तौर पर" देखे तो भारत एक हो ही जाता है।
 
मोटे तौर पर आप कह सकते हैं कि भारत जंग से परहेज नहीं करता। यहाँ के नागरिक समस्या को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए युद्ध के विकल्प से कतराते नहीं हैं। पाकिस्तान और युद्ध को लेकर देश के अंतर्विरोध कुछेक वक्त के लिए सतह से नीचे चले ही जाते हैं।
69 साल में पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने पाक अधिकृत कश्मीर पर इतना सख़्त बयान दिया है। बयान में सख़्ती की बात हो रही है यह ज़रूर नोट करें। लगभग तमाम लोगों ने इस बयान का स्वागत किया है। सोशल मीडिया पर कुछेक विपक्षी समर्थकों की बचकानी बातें छोड़ दें तो, लगभग तमाम ने इस सख़्ती से सहमती जताई है। सख़्त बयान के बाद लोगों में बात सिर्फ युद्ध की हो रही है।
 
कईयों को संदेह भी है। लेकिन उनका संदेह नेताओं के बदलने वाले बयान और पलटने वाली नीतियों पर है, साथ ही नरेंद्र मोदी की राजनीतिक शैली पर भी। लेकिन संदेह के बावजूद वे भी चाहते हैं कि पाकिस्तान नाम के दर्द का सख़्ती से इलाज हो ही जाए। कुछ ऐसे भी हैं, जो विरोधी होने के नाते सहमती देने से कतराते हैं, किंतु भीतर से सख़्ती को ज़रूरी भी मानते हैं। कुल मिलाकर, कोई इस सख़्ती को गैरजरूरी नहीं मानता।
 
वैसे विपक्षी समथर्कों के भीतर यह दिव्य भावना भरी होती है कि तमाम समस्याओं का समाधान उनका नेता करे, किसी और दल का नेता नहीं!!! लोगों के दिमाग में समाधान के नायक भी बंटे हुए होते हैं!

 
हालाँकि पाक अधिकृत कश्मीर या बलूचिस्तान का ज़िक्र भारत के इतिहास में पहली बार नहीं हुआ है। किंतु सख़्ती वाला रवैया प्रथम बार ज़रूर अपनाया गया है। नरेंद्र मोदी की पार्टी बीजेपी ने साल 2009 में बलूचिस्तान पर जो बयान दिया था, आज का बयान उससे ठीक उलट है! उपरांत नोट करने लायक चीज़ यह भी है कि वे बलूचिस्तान मसले को अंतरराष्ट्रीय संस्था के पास ले जाने की धमकी दे रहे हैं, जबकि वे ही चौबीसों घंटे नेहरू कश्मीर मसले को बाहर क्यों ले गए, इसी चीज़ पर फेफड़े फाड़ते हैं!
 
हालाँकि पाकिस्तान पर सख़्ती के मामले में बयानबाजी, या ज़रूरत से ज़्यादा बयानबाजी पर लोग आशंकित हो रहे हैं। आशंकित होने वाले लोगों में अवलोकनकर्ता भी शामिल हैं, जिनका किसी सरकार से उतना सरोकार नहीं होता। तमाम की भावनाएँ प्रधानमंत्री के सख़्त रवैये के साथ जुड़ी हैं। लेकिन ये कैसी तैयारी है जंग की? युद्ध करने से पहले युद्ध का इतना प्रचार क्यों? अगले साल पाक अधिकृत कश्मीर में तिरंगा फहरा देंगे ऐसे बयान केंद्रीय मंत्री की तरफ़ से क्यों? युद्ध करने से पहले युद्ध का इतना प्रचार-प्रसार किस हद तक जायज है?
 
ऐसी जंग दुनिया में शायद ही कम हुई होगी, जहाँ जंग से पहले जंग का इस हद तक प्रेजेंटेशन किया जाता हो! क्या पहले के जमाने की तरह "सावधान" बोलकर हमला करना चाहती है सरकार? हम जंग का इतिहास देखे तो, मोटे तौर पर अवलोकन कर ले तब भी, दुश्मन पर हमला करने से पहले अतिगोपनीयता बर्ती जाती है। लेकिन हमारे यहाँ उसका ठीक उल्टा हो रहा है!!! दुश्मन को बताया जा रहा है कि हम ये ये करेंगे, ऐसे ऐसे करेंगे!!! दुश्मन भी शुक्रगुजार होगा हमारे नेताओं का, जिन्होंने सड़क पर भाषण के जरिए यह तक बता दिया कि पीओके में झंडा फहरा देंगे! 
सीधी सी बात है कि लोग इसमें कोरी राजनीति को देख रहे हैं और इसीलिए आशंकित हो रहे हैं। संवेदनशील मसले पर मंत्रियों के या सरकार के लचर और बचकाने रवैये को लेकर अचंभित भी हुए जा रहे हैं।
 
भारतीय सेना हमेशा से सक्षम रही है। सरकारें बदलती रहती हैं। सरकारें आती रहती हैं, जाती रहती हैं। लेकिन सेना नहीं बदलती। उसे सरकारों से उतना मतलब भी नहीं होता। उसे जब हथियारों की कमी थी, तब भी वो लड़ी थी। भारतीय सेना पर किसी को तनिक भी संदेह नहीं हो सकता। लेकिन दुनिया की कोई भी सेना हो, दुनिया का कोई भी मुल्क हो, युद्ध की अपनी एक अलग दुनिया होती है। 'गोपनीयता' युद्ध का सबसे पहला और सबसे अहम हिस्सा है। लेकिन यहाँ हमारे नेता माइक पर दुश्मन को इलाक़े से लेकर वक्त तक की जानकारियाँ देने में जुट गए हो, ऐसा माहौल बन सा गया है!
 
सरकार का मतलब सरकार ही नहीं होता। सरकार का काम केवल शासन करना नहीं होता। सरकार का उत्तरदायित्व केवल अपने पाँच साल तक सीमित नहीं होता। और यह सब अतिसंवेदनशील मसला तब बन जाता है जब बात युद्ध की हो। कोई भी सरकार इतनी बचकाना कैसे हो सकती है?
 

अभी कुछ दिन पहले हमारे प्रधानमंत्री ने 'गैरजिम्मेदाराना तरीके' से कश्मीर पर बयान दे दिया था। घ्यान से पढ़िए। हमने लिखा है कि गैरजिम्मेदाराना तरीके से कश्मीर पर बयान दे दिया था। हम बात कर रहे हैं गैरजिम्मेदाराना तरीके की। हमारे प्रधानमंत्री ने कश्मीर पर बयान सदन से नहीं, बल्की एक सभा से दे दिया!!! ये पूर्णतया गैरजिम्मेदाराना था। पाकिस्तान नीति, कश्मीर नीति, विदेश नीति जैसे महत्वपू्र्ण विषय, खास करके तब, जब ये विषय अपने उबाल पर हो, उसे सभाओं या सड़कों पर खोल कर बैठ जाना, यह सहज नहीं है।
 
यह तरीका राजनीतिक उत्तरदायित्व की कमी को स्पष्ट करता है। और अब ये माहौल यहीं थमता नहीं दिख रहा। राज्यकक्षा के मंत्री जितेन्द्र सिंह सड़क पर, खुली जीप से, कह गए कि अगले साल पीओके में झंडा फहराएँगे! योगी आदित्यनाथ कह गए कि जल्द ही पाक अधिकृत कश्मीर भारत का हिस्सा होगा!
 
ऐसी चीजें बोलकर नहीं की जाती। इस लिहाज से वे जो कह रहे हैं उसमें वे कितने गंभीर हैं, यह सवाल उठने ही थे। युद्ध के दौरान हमला करने के आदेश भी बंद लिफाफे में दिए जाते हैं, जबकि यहाँ सड़क पर भाषण के जरिए लिफाफे को फाड़ कर फेंका जा रहा है!!!
 
यह शैली वाक़ई किसी सरकार पर गंभीर सवालियाँ निशान है। युद्ध जैसे विषय को आप सड़क पर कैसे छेड़ सकते हैं? युद्ध का प्रचार करने निकले हो, ऐसा मंजर स्वीकार नहीं किया जा सकता। क्या आप इस देश की सेना को केवल अपने राजनीतिक फायदे के लिए ही इस्तेमाल करना चाहते हैं? अगर ऐसा नहीं है, तो फिर देश के लिए अच्छा है। लेकिन अगर ऐसा है, तो फिर यह वज्राधात के समान रवैया है। ऐसी क्षतिग्रस्त परंपरा स्थापित करने की चेष्टा स्वीकार्य नहीं हो सकती।
प्रधानमंत्री ने कश्मीर पर सदन के बजाय सड़क सभा से बयान दे दिया! चलो, उन्होंने गलती सुधार कर सदन में इस मामले पर बोला वो ठीक है। लेकिन कश्मीर को लेकर युद्ध करने का माहौल खड़ा करके, विपक्ष को भरोसे में लेकर सड़क पर ऐसी चेष्टा करना मनशा पर सवाल उठाता है।
 
सभी को एकमत करने के बाद आप सड़क पर माइक के जरिए युद्ध का प्रचार करने लगे ये किस हद तक जायज है? इश्क़ नचाए जिसको यार, वो फिर नाचे बीच बाजार वाले समर्थकों को इसमें कोई बुराई नहीं दिखेगी। किंतु, युद्ध या जंग... ये कोई मैगी वाला मामला नहीं है कि जब जी चाहे सैंपल मंगवा लें, लैब में टेस्ट करा लें, प्रतिबंध लगा दें या फिर हटा दें! ये जंग है। एक देश का मतलब आप क्या समझेंगे? यदि देश का मतलब समझेंगे तभी तो युद्ध का मतलब समझ आएगा।
 
अतिगोपनीय तरीकों से युद्ध या सीमित आक्रमण किया जाता है। उसकी योजनाएँ अतिगुप्त होती हैं। लेकिन यहाँ माइक हाथ में पकड़ कर भाषण दिए जा रहे हैं!!! सरकार या सरकार के मंत्रियों को मंत्रीपद की या वे जिस विषय पर भाषण झाड़ रहे हैं, उस विषय की गंभीरता तक नहीं है ऐसा स्पष्ट दिखाई दे रहा है।

 
आप दुश्मन के सामने खुद की संभावित युद्धनीति गिनवा गिनवा कर सचमुच युद्ध करना चाहते हैं या नहीं, यह सवाल उठना लाजमी है। दुश्मन को आगाह किया जा रहा हो ऐसा रवैया सरकार कैसे अपना सकती है?
 
कभी लगता है कि 'सीमित आक्रमण' को 'युद्ध' जैसा नाम देकर सरकार राजनीतिक फायदा उठाने की जद्दोजहद में लगी है। लेकिन सीमित आक्रमण भी सेना के द्वारा किया जाता है, ना कि बयानबाजी करने वाले नेताओं द्वारा। सेना को किसी छोटे अभियान में भी गुप्तता, गंभीरता, सटीक योजना, गणनायुक्त रणनीति की ज़रूरत होती है।
 
जब सरकार माहौल ऐसा खड़ा कर रही हो कि हम सरहद पार जाकर कुछ करने वाले हैं, तब तो प्रचार और प्रसार की ये नीति गैरजिम्मेदाराना चेष्टा ही है। जंग में प्रतिपक्ष को भनक तक नहीं लगनी चाहिए। आक्रमण में दुश्मन को अंदाजा नहीं होना चाहिए। लेकिन यहाँ एक ही चीज़ बोल बोल कर दुश्मन को पूरी तरह से आगाह करा दिया गया है!
 
उस दौर को याद करिए। पाकिस्तान कारगिल के वक्त सीमित लेकिन तेज आक्रमण करने में सफल हुआ था। उसकी वजह थी उनके द्वारा बरती गई गोपनीयता। दुश्मन किस फिराक में है यह आप को पता चल जाए उस परिस्थिति को आधी जीत कहा जाता है। मतलब कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था प्रतिपक्ष को आधी जीत सामने से दे रही है?
युद्ध या सीमित आक्रमण या कोई अभियान, तीनों अवस्था में गोपनीयता कितनी ज़रूरी है यह समझने के लिए सैनिक होना ज़रूरी भी नहीं है। पूर्व युद्धों के इतिहास पढ़ने से भी गोपनीयता जीत में कितनी अहम है उसका ख़याल आ ही जाएगा। कहा जाता है कि केवल जीत लक्ष्य नहीं होता, बल्कि जीत कम से कम नुकसान के साथ हो, यही किसी अभियान की प्रथम गणना होती है।
 
ख़ुफ़िया संस्थाओं की युद्ध में या अभियानों में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कारगिल संधर्ष के दौरान भारत ने जितना नुकसान भुगता उसके पीछे प्रतिपक्ष के मंसूबों का अंदेशा हो न पाना तथा उनकी सही स्थिति की ताज़ा जानकारी का अभाव ज़िम्मेदार था। युद्ध के दौरान ही ख़ुफ़िया संस्थाओं ने भारतीय सेना को सारी जानकारी फिर से मुहैया कराई थी, जिससे हम प्रतिपक्ष पर योजनाबद्ध तरीकों से वार कर पाए और स्थिति को हमारी तरफ़ मौड़ पाए।
 
ख़ुफ़िया संस्थाओं की जानकारी, उनका आकलन, दुश्मन की ऑर्बिट जानकारी और गणना, युद्ध का अहम हिस्सा होता है। ऐसे में, वर्तमान माहौल में दुश्मन की ख़ुफ़िया संस्थाओं को बैठे बैठे मूल जानकारियाँ मुहैया कराने की कुचेष्टा किस हद तक जायज हो सकती है? युद्ध की बात करना, फिर युद्ध के बादल बनाना, बार बार लगातार हमले की जगह और समय का ज़िक्र करना, संकल्प करना, संकल्प को सड़कों से दोहराना!!! आप युद्ध करने जा रहे हैं या राजनीति?
 
कई रक्षा अवलोकनकर्ताओं के अनुसार 'संकल्प' के नाम पर युद्ध-सेना और रणनीति की परंपराओं के साथ गंभीर मजाक हो रहा है। उनके अनुसार, सार्वजनिक तौर पर संभावित युद्ध का संकल्प लेना और सड़क से इसे दोहराना, यह बात राजनीतिक इच्छाशक्ति पर शक की सुई चुभाने के लिए मजबूर करता है। कुछेक अवलोकनकर्ताओं की माने तो, क्या सरकार सचमुच युद्ध करना चाहती है? वे इन तमाम माथापच्ची को देखकर मानते हैं कि सरकार युद्ध करना नहीं चाहती।
 
हालाँकि कुछ अवलोकनकर्ता ऐसा नहीं मानते। वे सवाल पूछ कर अपनी राय रखते हैं कि सरकार युद्ध करना चाहती है या सीमित आक्रमण? अगर सीमित आक्रमण का इरादा है तब भी अपनी सेना को बड़े नुकसान में झोंककर सफलता हासिल करने के प्रयास क्यों?
जबकि कुछ अवलोकनकर्ता इसे केवल दबाव की रणनीति तथा स्वयं की छवि आक्रामक बनाने के प्रयास मानते हैं। ताकि, वर्तमान समय में पाकिस्तान के जो अंदरूनी हालात है उसका फायदा भारत अपने तौर पर उठा सकें। बलूच जैसी पाकिस्तानी समस्याओं को दुनिया के सामने रखकर पाकिस्तान के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय माहौल खड़ा किया जा सके।
 
वहीं, कुछ अवलोकनकर्ता वर्तमान 'एनडीए सरकार की युद्धकौशल नीति' पर उतना भरोसा नहीं रखते। उनके इस रवैये के पीछे कारगिल जंग से लेकर पठानकोट हमले तक का इतिहास ज़िम्मेदार है।
 
कारगिल जंग की कमजोरियाँ, सरकारी रवैया, ख़ुफ़िया संस्थानों की चेतावनी को नजर अंदाज करना, जंग के दौरान एयरफोर्स को अंतरराष्ट्रीय सीमा पार करने से रोक देना, कारगिल संघर्ष खत्म होने के बाद सवालों को रोकने हेतु आनन फानन में मेडल वितरण करना, वितरण में जिंदा सैनिकों को मरणोपरांत सम्मान दे देना, कारगिल जंग में विफलताओं के लिए सरकार का बयान, उसके ठीक विरुद्ध ख़ुफ़िया संस्था के नोट, विफलताओं के लिए समिति गठन से परहेज करते रहना, समिति बनाना और समिति का सेना के कर्नलों पर दोषारोपण करना, जैसी चीजें कारगिल जंग के वो बदनूमा दाग थे जिसे आमतौर पर याद नहीं किया जाता।

 
किंतु अवलोकनकर्ताओं के दिमाग में यह चीजें जिंदा रहती हैं। क्योंकि वे भावनाओं में बहकर दिल से काम नहीं लेते, बल्कि दिमाग से आगे बढ़ते हैं। वैसे भी जंग में दिल नहीं किंतु दिमाग से काम लिया जाता है। कहा जाता है कि जब युद्ध के मैदान में हो, आप के आसपास धमाके हो रहे हो, सिर के नजदीक से गोलियाँ निकल जाए, तब आप को यह एहसास नहीं होता कि आप किस देश के लिए लड़ रहे हैं।
 
उस वक्त दुश्मन के वार से बचना पहला कदम होता है। वार से बचकर अतिशीघ्रता से प्रत्युत्तर देना सैनिकों की ट्रेनिंग का मूल हिस्सा होता है। क्विक रिएक्शन टाइम, जो चंद पलों की प्रक्रिया है। और फिर आप को याद आता है कि आप भारत के लिए लड़ रहे हैं। ये ना समझे कि दिल बाद में आता है ऐसा कहने का इरादा है। लेकिन कम से कम उन महत्वपूर्ण पलों के दौरान दिमाग आगे निकल जाता है। साफ है कि ट्रेनिंग के दौरान, किसी भी सैनिक को अपनी जान बचाने की ट्रेनिंग और दुश्मन को मारने की ट्रेनिंग साथ में दी जाती है। और इन सब चीजों में दिमाग इस्तेमाल होता है, ना कि दिल।
 
इसी लिहाज से अवलोकनकर्ता भी दिल से कम, बल्कि दिमाग से ज़्यादा सोचते हैं। वे भावनाओं में बहकर नहीं सोचते। इसीलिए तो उन्हें अवलोकनकर्ता कहा जाता है। कारगिल प्रकरण में उनकी सोच या उनका तत्काल अंदेशा सरकार द्रोही बिल्कुल नहीं माना जा सकता। क्योंकि, गलतियों को आकलन में शामिल करके ही सटीक योजनाएँ बनती हैं।
तत्कालीन सरकार का म्यांमार ऑपरेशन भी उनके दिमाग में आता है। वहाँ राजनीतिक बयानबाजी के चलते म्यांमार ने अपनी संसद से बयान दे दिया था कि भारत ने उनकी धरती से ऐसा कोई ऑपरेशन किया ही नहीं था! राजनीतिक बयानबाजी को लेकर म्यांमार तथा भारत के बीच कुछेक वक्त के लिए रिश्तों में दिक्कतें आई थीं। बचाव अभियानों के दौरान भी राजनीतिक बयानबाजी को लेकर विवाद हो चुके हैं। नेपाल इसका बड़ा उदाहरण है। पठानकोट आतंकवादी हमले के दौरान राजनीतिक दखलअंदाजी को लेकर विवाद हो चुका है।
 
सेना जैसी संस्था अपनी नाराजगी प्रक्ट नहीं करती और इसलिए वह सतह पर नहीं आती। किंतु अवलोकनकर्ता सतह के नीचे के ऐसे मामले से ही अपने आकलन लगाते हैं। ना कि बड़ी बड़ी बातों या दावों को सोच कर। पठानकोट हमले के दौरान दिल्ली से पूरा अभियान चलाने की चेष्टा, कमांड सेंटर नियुक्त करने का मामला तथा तत्काल प्रत्युत्तर में दखलअंदाजी विवादित मसला ज़रूर रहा था।
 
इन सब बातों का आकलन करके अवलोकनकर्ता कहते हैं कि युद्ध या सीमित आक्रमण जैसी चीजों के लिए वर्तमान सरकार में उतनी परिपक्वता नहीं दिखती, जितनी किसी सरकार में दिखनी चाहिए। अगर होती तब वे सभाओं या सड़कों से युद्ध के भाषण नहीं देते।

 
अवलोकनकर्ता पाते हैं कि सरकारी गतिविधि का आकलन बताता है कि दुश्मन को आकलन करने में आसानी हो रही है! और किसी भी युद्ध का पहला नियम बाधित हो रहा है। ऐसे हालात में केवल दो ही तर्क हो सकते हैं। पहला, सरकार युद्ध नहीं बल्कि सीमित आक्रमण के विकल्प को लेकर विचार कर रही है। किंतु किसी भी सैनिक अभियान की तमाम ज़रूरी परंपराओं को दरकिनार किया जा रहा है।
 
उपरांत पाकिस्तान के साथ सीमित सैनिक अभियान किसी भी पल असीमित हो सकता है। हां, 'बदले की कार्रवाई' प्रकार के अभियान सीमित रह सकते हैं। इस लिहाज से गोपनीयता से लेकर तमाम चीजों पर संवेदनशीलता बरतनी चाहिए। और इसी मुद्दे को लेकर पहला तर्क वाला धड़ा सवाल उठा रहा है।
 
युद्ध और सेना का राजनीतिक इस्तेमाल आगे कौन से रंग दिखाएगा, कोई नहीं जानता। बस इतना पता है कि अच्छाई कभी दूसरी अच्छाई को प्रेरित नहीं कर सकती, किंतु बुराई अवश्य कर जाती है! राजनीति के स्तर को गिराना जैसी बुराई का अंतिम परिणाम यही होगा कि स्तर और गिरेगा।
 
दूसरा तर्क वहाँ पर जाकर खत्म होता है कि सेना क्या चाहती है वह अलग बात है, किंतु सरकार सीमित आक्रमण भी करना नहीं चाहती। वो तो केवल दबाव बना रही है। अवलनोकर्ताओं का यह धड़ा कहता है कि दबाव से भी ज़्यादा मूल बात यह है कि सरकार केवल और केवल राजनीति कर रही है। ये धड़ा इससे इनकार नहीं करता कि सारा वातावरण राजनीति और इमेज प्रोपेगेंडा भी हो सकता है। वे समझते हैं कि बीजेपी और आरएसएस, दोनों की राजनीति के मूल आधार पाकिस्तान और श्री राम, ये दोनों ही हैं।
कूटनीतिक दबाव वाला एंगल भी यह धड़ा स्वीकार ज़रूर करता है, किंतु बहुत कम स्तर पर। उनके मुताबिक़, अगर सरकार के 'संकल्प' को देखें तो वह संकल्प कम किंतु 'स्टंट' ज़्यादा दिखता है। सवाल उठाने पर सरकार के कुछ मंत्री कहते हैं कि सरकार के पास समझदारी और ज्ञान है। यदि उन मंत्रियों के इस दावे को सच माने तो, तब तो सवाल और ज़्यादा गंभीर बन जाता है। समझदारी और ज्ञान प्रचुर मात्रा में हो, तो फिर 'गोपनीयता का सार्वजनिकरण' क्यों? समझदारी है, तो फिर ऐसी चीजें सड़क पर भाषणों के जरिए सार्वजनिक नहीं की जा सकती, ऐसी समझदारी कहाँ गई है? दुश्मन को सरेआम आगाह करने से कौन से जोख़िम उत्पन्न होते हैं उसका ज्ञान कहाँ गया? प्रतिपक्ष तो सारी जानकारी मुहैया कराकर उसे पूर्वतैयारी का समय दे देना, यह कौन सा ज्ञान और कौन सी समझदारी है?
 
जिन आतंकी कैंप पर हमले की बातें हो रही हैं, क्या वे हमारा हमला होने तक कैंप वहाँ रखेंगे? वे आराम से बैठे तो नहीं रहेंगे कि भारत के युद्धक विमान आएँगे, बम गिराएँगे और हम गिरते हुए बम को हाथ में पकड़ कर कंचा कंचा खेलेंगे!
 
प्रोपेगेंडा वाले कोण को अपने तरीके से समझ लीजिएगा। कहा तो यह भी जा रहा है कि सरकार घरेलू सवालों और समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए यह सब कर रही है।
 
अमेरिका और ब्रिटेन के राष्ट्रप्रमुखों ने देश को अंधेरे में रखते हुए इराक पर जो किया, उसके बाद चिलकॉट रिपोर्ट ने ब्रिटेन में सेना और लोगों के अंदर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। सेना के मनचाहे इस्तेमाल को लेकर ब्रिटेन में काफ़ी विरोध हुआ है और टोनी ब्लेयर को 'देश का गुनहगार' और 'सबसे बड़े आतंकवादी' तक के विशेषणों से सम्मानित होना पड़ रहा है। उस युद्ध में शामिल सैनिकों के परिवार ने सवाल किया है कि उनके सैनिकों को उस युद्ध में मरना ही क्यों पड़ा, जो ज़रूरी ही नहीं था।
 
वैसे भारत में सरकारों पर मूल सवाल उठाना, निरंतर उठाना, मज़बूती के साथ उठाना, यह सब अकल्पनीय है। इसलिए यहाँ ये सब नहीं हो सकता। यहाँ सेना का राजनीतिक इस्तेमाल बहुत आगे तक जा सकता है।
 
जिन्हें सरकारों से लेना देना नहीं होता, उनके हिसाब से केवल दो तर्क ही हो सकते हैं। सरकार चाहती है और सरकार नहीं चाहती। साहिर लुधियानवी की एक पंक्ति है... जंग तो ख़ुद ही एक मसला है, जंग क्या मसलों का हल देगी। लेकिन फिर भी जंग तो ज़रूरी ही है। जंग के बदले सीमित किंतु तेज हमला भी ज़रूरी है। किंतु, एक बार तय करने के बाद उसका प्रचार और प्रसार बेहद गैरजरूरी है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)