पहली बात तो यह कि शायद ही हमें पता हो कि हमारे यहाँ राजनीतिक दल हैं कितने। राष्ट्रीय, प्रादेशिक या छिटपुटियें, कुल मिलाकर अनेका
अनेक हैं इतना पता है। राजनीतिक दल कब राष्ट्रीय दल माने जाएँगे, इसकी प्रक्रिया क्या
होती है, उन्हें कौन से नियम लागू होते हैं, चुनाव संबंधी कौन सी मार्गदर्शिकाएँ हैं... शायद ही उसका सही या सही के क़रीब
ज्ञान हमें हो। वजह यह भी है कि इस बात को लेकर चर्चा स्वयं राजनीतिक दल ही नहीं करते।
क्यों? यह तो शायद सभी को पता है। कुछ लोग कहेंगे कि उन्हें सारी प्रक्रियाओं का पता
है। लेकिन बात सार्वजनिक हो रही है।
इन राजनीतिक दलों के
चलने का मूल आधार पैसा है। वे जिस देशभावना या समाजसेवा की कथित नियत के साथ मैदान
में हैं, उसके लिए उन्हें पैसे चाहिए। उन्हें पैसा मिलता है फंड से। और फंड संबंधित मार्गदर्शिकाएँ, नियम या प्रक्रियाएँ
या फिर फंड की जानकारी, इन चीजों की चर्चा वे लोग कभी करते ही नहीं। लोग करते हैं, लेकिन सही जानकारी
ही न हो, ऐसे में चर्चा का आधार भी क्या होगा?
वैसे हमारे राजनीतिक
दल कितनी सारी समाजसेवा या देशभक्ति के साथ उतरते हैं इसका अंदाज़ा चुनाव के टिकट बाँटने
के महाभारत से पता चल जाता है। कमाल की सेवा तत्परता है इनकी। इतना उत्साह होता है
इनको देशसेवा करने का, कि टिकट के लिए बड़े बड़े महाभारत हो जाते हैं!
पूरे देश में पारदर्शिता
की वकालत करने वाले हमारे दल पार्टी फंड में काफ़ी इतराते हैं। लोगों के बीच वे जो
बोलते हैं, उसमें कितना दम है उसका अंदाज़ा पार्टी फंड के मामलों को लेकर पता चल जाता है।
आरटीआई तथा जनलोकपाल से ये लोग इतने नाराज़ रहते हैं कि राजनीतिक दल आरटीआई में नहीं
आने चाहिए, संसद जनलोकपाल के दायरे में नहीं आनी चाहिए, ये सब चीजें मिलजुल कर वे तय कर ही लेते हैं। अपने वेतन इज़ाफ़े
की तरह ही। मजबूरन लाएँगे, तब कई सख़्तियों को दरकिनार ज़रूर कर लेंगे। जिससे भ्रम रहे कि लाया गया।
लोग तंज कसते हुए कहते
हैं कि बीसीसीआई को भी आरटीआई के दायरे में ला दीजिए, धारा 370 जितना पेचीदा मसला
तो है नहीं वो। पता नहीं क्यों, इस पर भी वे मामला लंबा खींच देते हैं। और तो और, हाल ही का दौर देख
लीजिए। बदनाम हो चुके खेल क्रिकेट को स्वच्छ करने के लिए लोढ़ा कमेटी युद्ध सरीखा ही
काम कर रही है। सुप्रीम कोर्ट तक लोढ़ा कमेटी के साथ खड़ा नजर आता है। लेकिन एक भी
राजनीतिक दल, एक भी नेता या उनका कोई लठैत इस बारे में नहीं बोलता। जबकि देश को स्वच्छ करने
का झंडा वे ही लिये फिरते हैं।
कुछ इक्का-दुक्का मौकों
पर कुछ कुछ राजनीतिक दल अपने विशालतम सरोवर से एकाध लोटे की कहानी लोगों के आगे बयाँ
कर देते हैं। ताकि पारदर्शिता और नियत का भ्रम बना रहे। फंड में भी काला धन सरीखी कहानियाँ
हैं। जैसे काला धन देशी और विदेशी, इन दो व्याख्याओं में बाँट दिया गया है, वैसे पार्टी फंड में भी है।
विदेशी फंड का ताज़ा इतिहास देखे तो वेदांता मामले में गोवा कोर्ट कांग्रेस और
भाजपा, दोनों को नोटिस दे चुका है!!! ये दोनों दल भारत को बनाने का दावा करने वाले राजनीतिक दल हैं। और वे दोनों
विदेशी फंड के मामले में कोर्ट से फटकार खाने वालों के ताज़ा इतिहास में शामिल हैं! विदेशी फंड के मामले में इन दोनों ने आधिकारिक नोटीसें झेली हैं, जबकि आम आदमी पार्टी
भी विरोधियों द्वारा विदेशी फंड के आरोप झेल चुकी है!
भारतीय चुनाव आयोग
के आँकड़े देखें तो, भारतीय जनता पार्टी बीफ़ और मीट उत्पाद करने वाली कंपनियों से दो-दो बार फंड
ले चुकी है!!! 2013 से 2015 के 2 सालों में एक बीफ़
उत्पादक कंपनी से भाजपा ने 1 करोड़ 25 लाख का फंड लिया था! आरएसएस के ऊपर
विदेशी संस्थाओं से फंड के गंभीरतम आरोप लग चुके हैं! जैन हवाला कांड में फंड लेने वाले दलों में दोनों राष्ट्रीय दल, भाजपा और कांग्रेस
गंभीर आरोपों का सामना कर चुके हैं! इस मामले में आतंकी संगठन का नाम भी जुड़ा था!
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक़, काले धन की स्विस सूची बाहर आई, उसमें से एक आरोपी से फंड लेने वाले मामले में भाजपा भी शामिल थी! हो सकता है कि इसमें और भी राजनीतिक दल शामिल हो। क्योंकि सभी पर लोगों को यक़ीन है कि...। और इस यक़ीन के लिए वे दल ही ज़िम्मेदार
हैं, ना कि लोग।
कहा जाता है कि बीफ़
या मीट का व्यापार करने वालों से भी राजनीतिक दल चंदा लेते हैं! और फिर उसी पैसे से बीफ़ और मीट के विरोध की औपचारिकताएँ भी निभाई जाती हैं!!! मंदिर के नाम पर चंदे का विवाद आज भी चल रहा है। रैलियों के लिए चंदा, समारोह के लिए चंदा, ऑफिसों के लिए चंदा।
चंदा वैसे तो होता आसमान में है, लेकिन ज़मीन पर राजनीतिक दलों के बेहद काम आता है!!!
कांग्रेस जैसे राजनीतिक दल ने ज़ाकिर नाइक से फंड लेने की बात कबूली थी, जो आजकल राष्ट्रविरोधी
अपराधों का सामना कर रहा है!!! कांग्रेस ने कहा कि उन्हें जानकारी मिली तो उन्होंने चंदा वापिस कर दिया। यानी
कि हमारे राजनीतिक दल चंदा बिना जानकारी के लेते हैं, वे जाँचते नहीं कि
चंदा देने वाला कौन है, पैसा कहाँ से आया है, वैध है या अवैध!!! जबकि आप को बैंक से
हक़ का लोन लेना हो तब भी आपके अन्य बैंकों के रिकॉर्ड से लेकर पुलिस स्टेशन के रिकॉर्ड
तक जाँचा जाता है। हा, इसमें शायद आप शर्त लगा सकते हैं कि जब लोन का आँकड़ा छोटा हो तो। ...वर्ना तो
सारे मामले जगज़ाहिर ही हैं।
2012-13 और 2014-15 में बीजेपी ने बताया ही नहीं कि चंदा कैसे-कैसे मिला! कांग्रेस ने 2013-14 में पैन नंबर ही नहीं बताया! कुछ लोग कहेंगे कि बड़े दलों की ही बात क्यों? उनसे सीधा सा सवाल है कि क्या छिटपुटिये दल की चर्चा करें? या फिर राष्ट्रीय
माने जाने वाले दलों की? वैसे फंड के फंडा का अपना एक लंबा इतिहास है, जो विवादित भी है। राष्ट्रीय दलों से लेकर छिटपुटीये दल, सभी के सभी शायद एक
ही प्याले से पीने वाले लोग हैं। कुल मिलाकर, फंड के मामले में, चाहे पारदर्शिता हो या अन्य चीजें हो, किसी का रिकॉर्ड बेहद शानदार तो कतई नहीं रहा। हां, पारदर्शिता और नियत
जैसे भ्रमों को ज़िंदा रखने की तकनीक उनके पास ज़रूर रही है।
आम आदमी पार्टी नयी नवेली है, लेकिन फंड के आरोप उस पर भी लगते रहे हैं। कभी वेबसाइट पर चंदे की जानकारी डालना, कभी हटाना, कभी कुछ और। तामझाम से चंदे की जानकारी साइट पर डाली जाती है। फिर कुछ अरसे बाद
परंपराओं की ओर वे भी लौटते हैं! जानकारी साइट से हटाने
के लिए वे आरोप लगाते हैं कि विरोधी दल उनके दाताओं के नाम उस सूची से लेकर इनके दाताओं
को परेशान करते हैं। विपक्ष की ओर से इसका कोई आधिकारिक उत्तर तो नहीं आया है। लेकिन
फंड का फंडा हर जगह एक सरीखा बदनाम ही है।
फ़रवरी 2017 में आयकर विभाग ने
आम आदमी पार्टी का पंजीकरण रद्द करने की सिफ़ारिश की। पार्टी पर आरोप लगा कि 27 करोड़ के फंडीग को
लेकर इन्होंने गड़बड़ी की है। ऑडिट रिपोर्ट गलत बताया गया। बैंक का स्टेटमेंट और वेबसाइट
डाटा में फर्क पाया गया। आयकर विभाग के रिपोर्ट के मुताबिक़ आप पार्टी को 2013-14 में जो फंड मिला था
उसमें से 20.5 करोड़ तथा 2014-15 में 6.5 करोड़ का फंड संदिग्ध माना गया। पार्टी ने इसे राजनीतिक आरोप कहा।
छोटे मोटे कार्यक्रमों
में फंड लेने की शैली विख्यात या कुख्यात है। डरा-धमका कर या लालच देकर व्यक्ति
या संस्थाओं से फंड लिया जाता है, ऐसी ख़बरों से हर राज्यों के स्थानिक अख़बार लबालब रहे हैं। फंड लेने की तकनीक, फंड मांगने या स्वीकृत
करने के लिए इस्तेमाल होने वाले पैंतरे, कुछ भी छिपा हुआ नहीं है। फर्ज़ी राजनीतिक दल बना लिए जाते हो, तब तो फर्ज़ी सोशल
मीडिया अकाउंट वैध ही घोषित कर देने चाहिए!
समाजसेवा या देशसेवा
का झंडा थामे रहे लोग फंड के लिए अजीब से फंडे आजमाते हैं। हर राज्यों में फंड के
नाम पर रंगदारी मांगने के आरोप लगते रहे हैं या फिर खुलासे होते रहे हैं। फंड ना
देने पर कथित रूप से कॉलेजों की मान्यता रद्द करने की धमकी दी जाती है! बिल्डर की फाइलें रोकने की कथित धमकियाँ दी जाती हैं! या फिर कुछ और चीजें की जाती हैं। शाम... दाम... भेद... और दंड... पर मिलना
चाहिए फंड!!! इसी तरह के विधान
लिखने पड़े ऐसे मामले सालों से अख़बारों में छपते रहे हैं। आत्मसंतोष के ख़ातिर या
फिर पतली गली से निकलने के लिए कह सकते हैं कि अख़बार बिकाऊ होते हैं। लेकिन फिर
सीधा सा सवाल है कि ख़रीदने वाले क्या होते हैं?
बड़े बड़े राजनीतिक
दलों का ज़्यादातर चंदा बेनामी ही होता है। वहीं एनजीओ भी इसमें पीछे नहीं हैं। पता
नहीं चलता कि एनजीओ एक माध्यम है या कुछ और? इनमें से फोर्ड फाउंडेशन बड़ा विवादित नाम रहा है। लेकिन यहाँ भी फंडा अजीब
ही है। एक दफा इस फाउंडेशन पर नियंत्रण लगा। फिर जून 2016 के दौरान राज्य सरकार
के आग्रह से केन्द्र सरकार ने उस पर लगे प्रतिबंध हटा दिए। आरबीआई को भी निर्देश दे
दिया गया कि फोर्ड फाउंडेशन को वॉच लिस्ट से निकाल दिया जाए। फिर न जाने क्या हुआ कि
फोर्ड फाउंडेशन फिर एक बार राडार में आ गया।
गुजरात घर है और घर
का ही उदाहरण दें तो, गुजरात सरकार की ख़ुद की कई संस्थाएँ इस अमेरिकन संस्था के द्वारा करोड़ों
रुपयों का फंड प्राप्त करती रही हैं! जैसे कि गुजरात इकोलॉजिकल एजुकेशन एंड रिसर्च फाउंडेशन, जिसे राज्य सरकार
की इजाज़त से ही 1,22,000 डॉलर की सहाय दी गई थी। गुजरात इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च के खाते में 1,79,759 डॉलर की मदद है। गुजरात
की ही क़रीब 25 संस्थाएँ इस अमेरिकन संस्था से फंड लेती रही! 2010 से 2014 तक फोर्ड फाउंडेशन भारत में 50 बिलियन डॉलर का फंड दे चुका है। कभी राडार में लाना, फिर राडार से मुक्त
करना, फिर राडार में लाना... फंड का फंडा अजीब ही है।
हमारे दलों ने तो मिल-बैठ
कर नियम बना रखा है कि 20,000 से नीचे के चंदे की बात ही नहीं होगी! दिसंबर 2016 में केंद्रीय चुनाव आयोग ने प्रस्ताव भेजा कि राजनीतिक दलों को 2,000 से ज़्यादा गुप्त
दान लेने से प्रतिबंधित कर दिया जाए। स्वाभाविक है कि जो लोग उस वक्त सत्ता में थे
उन्होंने इस प्रस्ताव का स्वागत किया और जो विपक्ष में थे उन्होंने मुँह बंद रखे। 1 फ़रवरी 2017 के दिन बजट में इसे
लेकर प्रावधान ज़रूर आया। लेकिन वो गुप्त दान को लेकर नहीं, बल्कि नकद चंदे को
लेकर था। नियम बना दिया गया कि 2,000 से ज़्यादा फंड नकद में नहीं ले सकेंगे।
हालाँकि चुनावी प्रक्रिया
और फंडीग के मामलों को देखने वाले कई लोगों ने इस नियम को आँख का धोखा बताया। ऐसे मामलों
में प्रवृत्त रहने वालों ने बताया कि इससे दलों को कोई ज़्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि
कैश चंदे की सीमा घटाई गई है, ना कि स्त्रोत या अन्य नियमों को बदला गया है। पूर्व चुनाव आयुक्त ने एक बयान
में कहा कि कदम अच्छा है, शुरुआत अच्छी है, लेकिन इतनी बड़े राजनीतिक दल दस कार्यकर्ता चुटकी में इक्ठ्ठा कर सकते हैं। फिर
दो हज़ार या बीस हज़ार का फर्क मिटाने में ज़्यादा देर नहीं लगेगी।
आँकड़ों से संबंधित
जानीमानी संस्था एडीआर के जगदीप छोकर ने मीडिया इंटरव्यू में साफ कहा कि पहले 19,999 का रसीद कटता था, अब 1,999 का कटेगा। उन्होंने कहा कि काला धन कैसे रुकेगा, जब जमा पैसों का स्त्रोत
ही ना बताया जाए। इलेक्ट्रॉनिक फंडीग वाले मसले पर पूर्व चुनाव
आयुक्त और एडीआर, इन दोनों ने कहा कि अब सरकार बॉन्ड का रास्ता लेकर आयी है, जिससे दिक्कत यह होगी
की पहले बीस हज़ार से ज़्यादा की आय का स्त्रोत या आँकड़े चुनाव आयोग के पास जाते थे, अब तो बॉन्ड के
चलते चुनाव आयोग को भी शायद ही पता चल पाए कि स्त्रोत कौन सा है!!! राजनीतिक बॉन्ड वाला रास्ता उद्योगपतियों को खुश करने वाला माना गया, जिसमें चैक के बजाय
बॉन्ड खरीदकर वे अपनी गोपनीयता बनाए रख सकते थे।
दोनों ने साफ़ लफ़्ज़ों
में कहा कि ठेले वालों से अपेक्षा रखी जाती है कि वो 20-50 रुपये का व्यापार
भी कैशलेस करे, ऐसे में ये चीज़ राजनीतिक दल ख़ुद पर ही क्यों लागू नहीं करते? नये नियम से पारदर्शिता में फायदे से ज़्यादा नुकसान होगा ऐसे मत सामने आए। राजनीतिक
बॉन्ड वाला रास्ता पारदर्शिता से कोसों दूर माना गया। बॉन्ड के लिए आरबीआई एक्ट में
बदलाव की भी बातें सामने आई। कुल मिलाकर 2,000 वाला नियम राजनीतिक चंदा गुप्त रखने की सफल कोशिश के रूप में देखा गया।
वैसे भी आज तक सरकारें
सैकड़ों मुद्दों को लेकर अध्यादेश लाती रही हैं। चाहे वो पूर्व सरकारें हो या वर्तमान।
भूमि अधिग्रहण को लेकर भी अध्यादेश आ सकते हैं, लेकिन फंड के फंडे को लेकर कोई अध्यादेश नहीं आया! वैसे आ ज़रूर सकता है, लेकिन वह राजनीतिक दल और उनके कॉर्पोरेट दाताओं के लिए हो सकता है, फंड को लेकर जो जनभावना
है उसके तहत नहीं आ सकता।
अब तक न जाने कितने
क़ानून पास हुए होंगे। कई दफा विपक्षों को भी नहीं पता होता कि आज फलां फलां विधेयक
पास हो गया! मीडिया को भी सर्च करना पड़ता होगा! लेकिन फंड को लेकर जो आशाएँ हैं उसका कोई विधेयक पास कहाँ से होता, जबकि वो कभी लाया
ही नहीं गया। फंड को लेकर जितने नियम या अधिनियम आएं, उसमें दाता और दान
प्राप्त करने वाले दलों के हित ज़्यादा दिखे। आधार कार्ड, पैन नंबर आदि आदि
ढेर सारे नियम आम लोगों के लिए हैं, भले अपने खाते में पैसे डाले या निकाले, इन फंड के लिए नहीं हैं।
वैसे कम से कम यहाँ
नकेल ज़रूर कसी गई उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। चुनाव आयोग के ढेर सारे प्रस्तावों
में से एक प्रस्ताव को सरकार ने माना। किंतु गुप्त स्त्रोत वाला फैक्टर अछूता रह गया, जहाँ से सारा विवाद
उभकर आता रहा है। हमारे यहाँ कई मामलों में अध्यादेश आते रहे हैं। लेकिन दलों को
आरटीआई के दायरे में लाने के लिए, फंड के मामलों में या ऐसे विषयों में अध्यादेश लाये गए हो ऐसा कोई वाक़या नहीं
है। वैसे अगर गुप्त दान वाले आँकड़े की समीक्षा ही करनी है, तो 2000 वाली सीमा भी क्यों? जैसे लोगों को पाई-पाई
का हिसाब देना पड़ता है, वैसे इन्हें भी हिसाब देना चाहिए कि दस-दस रुपये में कितने लाख सदस्य बनाए गए
हैं।
नियम तो लचीलें दिखाई
ही देते हैं, साथ में गलत जानकारी देने पर इन्हें सज़ा का कोई सख़्त प्रावधान भी नहीं है। वही
छूट इन्हें यहाँ पर है, जैसे राष्ट्रपतिशासन वाले मामलों पर है। राष्ट्रपतिशासन लगा है और अदालत इसे असंवैधानिक
घोषित करती है, तो ऐसे में कोई सज़ा नहीं! गलती या बड़ी गलती
या असंवैधानिक गलती हो गई। जाने दो, गलतियाँ होती हैं!!! जो सीएम उस वक्त होता
है वो बोरिया-बिस्तर बांधे और आराम से बंगले के बाहर निकल जाए! वैसे ही स्थिति यहाँ पर है। प्रावधान सख़्त हैं या मज़बूत हैं, हैं भी या नहीं, ये दूसरा विषय है।
मूल चीज़ यह है कि उसका अमलीकरण ही सख़्ती से नहीं होता। शायद हमारे दल समझते हैं कि
वो तो ख़ुद क़ानून बनाते है, इसलिए.... !? क़ानून बनाना, यानी क़ानून से ऊपर हो जाना, ऐसी समझ दलों में और लोगों में, दोनों में नहीं होनी चाहिए।
वित्त वर्ष 2004-05 से 2014-15 तक के एडीआर के आँकड़े
देख लीजिए। आँकड़े साफ बताते हैं कि सभी राजनीतिक दलों को जमकर आय हुई थी। इन 10 सालों में 6 राष्ट्रीय और 51 क्षेत्रीय दलों को
11,367 करोड़ की आय हुई। एडीआर के मुताबिक़ इनमें से 69 फ़ीसदी आय अज्ञात स्त्रोत से हुई थी। इस अवधि में कांग्रेस
की आय 83 फ़ीसदी, भाजपा की आय 65 फ़ीसदी, समाजवादी पार्टी की आय 94 फ़ीसदी और शिरोमणि अकाली दल की आय 86 फ़ीसदी बढ़ी।
याद रखिएगा कि ये 57 दलों का डाटा है और
हमारे यहाँ दलों का आँकड़ा दलदल जितना गहरा है। सिर्फ़ 6 दल ऐसे थे जिन्होंने
हर साल का विवरण चुनाव आयोग को दिया था। इन 10 सालों में 45 दल तो ऐसे थे जिन्होंने कम से कम एक साल का विवरण चुनाव आयोग को दिया ही नहीं
था! चौंकिएगा मत, क्योंकि 12 दल ऐसे भी हैं जिन्होंने
10 साल से कोई विवरण ही नहीं दिया!!! एडीआर की माने तो, राजनीतिक दल तो यह भी बताते हैं कि उन्हें पुराने अख़बार बेचकर भी आय हुई थी! पुराने अख़बार के अलावा पुराना फर्निचर, पुरानी किताबें, सदस्यता शुल्क, डेलिगेट शुल्क, बैंक ब्याज, पब्लिकेशन कंटेट जैसे स्त्रोत भी ज्ञात स्त्रोत बताए गए थे! बताइए, हमारे दल रद्दी बेचकर अपना खर्चा चलाते हैं!!!
Centre
For Media Studies (CMS) की रिपोर्ट कहती है
कि 2014 के लोकसभा चुनावों में सभी राजनीतिक दलों ने मिलकर 35,000 करोड़ का खर्च किया
था। कहा जाता है कि राजनीतिक दल चुनावों के दौरान 75 फ़ीसदी फंड गुप्त स्त्रोत से लाते हैं। यानी कि किसी ने बताना
ज़रूरी नहीं समझा कि 75 फ़ीसदी कहाँ से आया!
ज़ाहिर है कि इन दलों
को सबसे ज़्यादा फंड बिजनेस ग्रुप देते हैं। महाराष्ट्र राज्य राजनीतिक पार्टियों को
फंड देने में सबसे आगे है। चुनाव आयोग के आँकड़ों की माने तो 65.84 फ़ीसदी फंड चेक या
डीडी से आता है। जबकि सीएमएस की माने तो 70 फ़ीसदी से ज़्यादा आय अज्ञात होती है! यानी चेक या डीडी से नहीं। चुनाव आयोग के आँकड़ों के अनुसार नकद फंड केवल 0.14 फ़ीसदी ही होता है,
सीएमएस इससे बहुत भिन्न तथ्य कहता है! सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ का रिपोर्ट और चुनाव आयोग के आँकड़े पहली नजर में ही
भिन्न दिखते हैं।
अब किस पर यक़ीन करना
है या नहीं करना ये अपना अपना विषय है। लेकिन ऑडिट करवाने के मामले में सारे राजनीतिक
दल कदम पीछे खींच लेते हैं। आरटीआई में आने के लिए कोई तैयार नहीं दिखता। हमारे
यहाँ क़ानून के पालन या नियमों के मामलों में एक नागरिक पर जितनी सख्ती दिखाई जाती
है, उनमें से थोड़ी सी
अगर हमारे नेताओं पर भी लागू की जाएँ, तो फिर ख़ुद-ब-ख़ुद अच्छे परिणाम देखने के लिए मिल सकते हैं।
चुनावों में जिस तरह से पैसा बहाया जाता है वो किसीसे छुपा नहीं है। आलिशान मंच, चकाचौंध करने वाली
सजावट, ढेर सारे बेनर या पोस्टर, बड़े बड़े होर्डिंग, आवाजाही की व्यवस्थाओं से लेकर हर वो चीज़ रैलियों या कार्यक्रमों के लिए होती
हैं, जो फंड से ही चलती होगी। हमने देखा है कि एकाध रैली का खर्च भी करोड़ों तक पहुंचता
है। 12 रुपयों में भरपेट खाना खाया जा सकता है, ऐसी नसीहत देने वालों को शपथ लेने में ही 100 करोड़ खर्च कर देने
पड़ते हैं!!! सभी को याद रखना चाहिए
कि फंड के मामले में किसी का भी रिकॉर्ड बेहद शानदार नहीं रहा है। सभी के घर काँच के
ही हैं।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला, लास्ट अपडेट 7 फ़रवरी 2017)
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