“खुद को क्या समझते हैं लोग... ये उनके
निजी मामलात हैं।
पर जो दुनिया
में साबित करने पर तुले हैं खुद को ही देशपरस्त,
दरअसल वो सारे
चाटुकार की नयी नवेली जमात है।
किसी अकेले का ये
देश नहीं है, ना ही कोई अकेला यहां हिंदू है,
हुनर देखकर
तो लगता है, ये भी चमचों की नयी नवेली बारात है।”
चाहने वाले तो अरसे से हर किसी के
पास रहे हैं, लेकिन चाहने वाले और चाटने वालों में फर्क तो होता ही है। यह उन लोगों को
समर्पित है जिन्हें पढ़कर पता चल जाए कि यह उन्हें समर्पित है!!!
एक बात समझ ले कि यह हिंदुस्तान है, यह भारत है। भारत कोई लफ्ज़ नहीं है। भारत इस संसार की वो प्राचीनतम गाथा है,
जिसके हर पन्ने पर हर रंग की कहानियां लिखी हुई है। हर युग ये सोचता है कि वो
हिंदुस्तान को बना रहा है। दरअसल, हिंदुस्तान में युग पनप रहा होता है, इसके
अलावा और कुछ नहीं होता। और युग पनपता है, युग बनता है, युग खड़ा होता है और फिर...? फिर
क्या, युग खत्म हो जाता है। दौर बदला, युग बदला, लेकिन वो कशिश कभी नहीं बदली, जो
हिंदुस्तान की है। हम हिंदुस्तान नहीं बनाते, हिंदुस्तान हमें बनाता है। यकीन नहीं होता तो खुद का नाम किसी अमेरिकी नाम सरीखा रख कर देख लीजिए। आत्मा तक अजीब महसूस
करेगी। एक हिंदुस्तानी नाम रूह तक को प्रभावित कर सकता है, तो क्या हिंदुस्तानी होने का तमगा आप को बेअसर छोड़ता होगा? ये तो मुमकिन
ही नहीं। जब हम नहीं थे और जब हम नहीं होंगे, तब भी ये कशिश रहेगी। लाख कोशिशें कर ले,
इस मिट्टी में जो अजीब सी कशिश है, जो सलीका है, जो शालीनता है, जो प्यार है, जो
संस्कृति है, जो विशालता है वो प्रभावी रहती है और रहेगी भी।
हमने हमारी व्यवस्थाएं बनाई है,
संविधान बनाया है, ढांचा बनाया है और उसे हर कोई मानता है। मैं तो ये नहीं कहूंगा कि
जो लोग इसे नहीं मानते वो हिंदुस्तानी नहीं है। दरअसल वो इस विशाल समंदर के सामने
एक छोटा सा तालाब है, जो मत अलग रखता है। लेकिन वे लोग... जो इन व्यवस्थाओं को, इस
संविधान को, इस ढांचे को, इस सलीके को नहीं मानते, वो यह कह दे कि हम ही
हिंदुस्तानी है और बाकी सारे लोग हिंदुस्तानी नहीं है, तब वो तालाब नहीं है। तब वो
चमचों की बारात है, तब वो चाटुकार है। क्योंकि तब ये सोच उनकी नहीं होती। दिमाग उनका
नहीं होता। उनके हर बोल, उनकी हर सोच, उनके हर विचार किसी और दूसरे कुएं से आए हुए
होते हैं। दरअसल, इस देश का सलीका हिंदुस्तानी है, और इसीलिए ऐसे लोगों के खिलाफ
भी लोग सभ्य भाषा में बात करते है। क्योंकि उन्हें पता होता है कि हम तो हिंदुस्तानी
ही है, लेकिन चाटुकार लोग पार्टीस्तानी हो गए होते है। ये मैंने नया लफ्ज़ ढूंढा है। जो हिंदुस्तान में रहते है वो हिंदुस्तानी है। लेकिन जो हिंदुस्तान में
रहते हुए किसी पार्टी का मंगलसूत्र पहने हुए होते हैं वो पार्टीस्तानी है।
कहा जाता है कि कुछ लोग नशैड़ी होते हैं, जो नशे में रहते हैं। वैसे इन नशैड़ियों से भी ज्यादा नशे में रहने वाले लोग
भी हैं। उन्हें पार्टेड़ी कहते हैं। वो किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष के साथ शादी किए हुए होते हैं। ऐसे लोगों को मैं हमेशा कहता हूं कि... इश्क नचाए जिसको यार, फिर वो
नाचे बीच बाजार। मैंने तो पहले ही लिख दिया कि चाहने वालों में और चाटने वालों में फर्क
होता है।
मतभेद या विचारों में अंतर नयी
समस्या नहीं है। यूं कहे कि ये समस्या ही नहीं है। ये स्वाभाविक सी प्रक्रिया है।
सदियों से ये चीज़ रही है और बुद्धिजीवियों ने इसे ताकत माना था। कहा जाता रहा है कि
भिन्न विचार और सही आचार, ये दोनों ताकत है। लेकिन भिन्न विचार और दिमागी उधार, ये
बेफजूल की चीज़ है। भारत का महान स्वातंत्र्य संग्राम, 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम
से लेकर 1947 की आजादी तक का सफर। क्रांति और अहिंसा का अभूतपूर्व संयोग, जिन्होंने
अंजाने में ही दूर से मिल-जुल कर हिंदुस्तान को गुलामी की जंजीरों से छुड़ाया।
सदियों पुराने लफड़ों में ना पड़ना हो
तो इस स्वातंत्र्य संग्राम के इतिहास को (सही इतिहास को, मनगढ़ंत कहानियों को नहीं)
हिंदुस्तान की नजरों से (उधार की नजरों से नहीं) पढ़कर देख ले। क्रांति वाला समुदाय हो
या अहिंसा वाला तबका हो, दोनों में तो मतभेद थे ही, साथ में उन तबके के अंदरूनी मतभेद
भी थे। क्रांति वाले समुदाय के अंदर भी एकदूजे के बीच कई चीजों पर, कई मुद्दों पर,
कई योजनाओं पर अलग अलग मत रहे या विरोध रहे। यही हाल अहिंसा वाले तबके का भी था। लेकिन
इन दोनों समुदायों की समझ इतनी सुलझी हुई और सही थी कि इन्होंने इसे कमजोरी नहीं बनने
दिया। हम एकाध छोटा सा कार्यक्रम भी कर ले, जिसमें 25-50 लोग शामिल हो, तब भी विचारों
में भिन्नता रहती है, विरोध छाया रहता है। जबकि ये संसार का सर्वकालीन महान
स्वातंत्र्य संग्राम था। विचारों में भिन्नता और एकदूजे का विरोध स्वाभाविक सी
प्रक्रिया थी। कमाल है कि इस महान संग्राम में शामिल लोगों ने भी इसे स्वाभाविक
प्रक्रिया के तौर पर ही लिया था, ना की आसमान टूट पड़ा हो ऐसी समस्या के तौर पर। सभी
नामी-अनामी लोगों ने, संस्थाओं ने, ढांचों ने, गांवों ने, शहरों ने, प्रदेशों ने मिल-जुल
कर आजादी का तोहफ़ा हम लोगों के हाथों में दिया था।
इसके बाद भी वो दौर रहा जब विचारों में अंतर और विरोध छाये रहे। क्योंकि पहले लिखा वैसे, यह चीज़ स्वाभाविक सी
प्रक्रिया है, आसमान को झकझोरने वाली चीज़ नहीं है। सरदार पटेल और नेहरू के बीच के
विरोध जगजाहिर है। लेकिन 1857 से लेकर 1950 के इतिहास पर नजर डाले तो, किसी ने
एक दूसरे को गालियां दी हो, एक दूसरे को बदनाम किया हो, एक दूसरे को गैरहिंदुस्तानी
कहा हो, ऐसे वाक़ये शायद ही आप को मिलेंगे। आप ढूंढना चाहे तब भी वक्त लेकर आप को
खोज करनी पड़ेगी, तब जाकर शायद मिल जाए। लेकिन तब आप को सैकड़ों लोग एहसास
दिलाएंगे कि इतने बड़े संग्राम से आप एकाध-दो वाक़ये ढूंढ लाए, जो समंदर की बूंद
है, उसका कोई औचित्य ही नहीं है।
किसी ने एक दूसरे को गालियां नहीं दी थी और ना ही हिंदुस्तान का मूल सलीका तोड़ा था। भाषा में ना ही मर्यादा तोड़ी और ना
ही हिंदुस्तान का सर झुक जाए ऐसे बोल उनके होठों से निकले। वो विचारों का विरोध भी
करते थे, योजनाओं का विरोध भी करते थे, कार्यक्रमों का विरोध भी करते थे। लेकिन विरोध
के चक्कर में व्यक्तिगत टिप्पणियां नहीं होती थी। विरोध के उत्साह में परिवार तक बातें नहीं पहुंचती थी। मां-बहन, बाप-बेटा जैसे छिछोरेपन को कोसो दूर रखा जाता था। मुद्दों पर विरोध होता, मुद्दों पर आग उठती, लेकिन सब वहां तक ही सीमित रहता।
1947 के बाद भी ऐसे कई मौके हैं जो लोकशाही और हिंदुस्तानी होने का गर्व दिलाते हैं। मोरारजी देसाई इंदिरा के कट्टर
विरोधी रहे थे। जब मोरारजी देसाई को पाकिस्तान का सर्वोच्च सम्मान निशान-ए-पाकिस्तान
(तहरीक़-ए-पाकिस्तान) मिलना था और उसका समारोह होना था, उस दौर में मोरारजी
पाकिस्तान नहीं गए। उन्होंने अपनी जगह किसी प्रतिनिधि को भेजा। जब एक गुजराती
पत्रकार ने उनसे पूछा कि, “आप पाकिस्तान क्यों नहीं गए थे? इसके
पीछे वजह क्या थी?” तब उन्होंने जवाब दिया था कि, “इसके
पीछे दो वजह थी। पहली यह कि मुझे झूठ बोलना पसंद नहीं और दूसरी यह कि मैं देश से
बाहर जाकर देश के खिलाफ हो ऐसा कोई विधान नही बोल सकता।”
पत्रकार ने इस जवाब का विशेष स्पष्टीकरण मांगा तब उन्होंने कहा कि, “मुझे
पता है कि मैं पाकिस्तान जाता तो वहां का मीडिया इंदिरा के बारे में मुझसे ज़रूर पूछता।
और मुझे झूठ बोलना पसंद नहीं और मैं सच बोल देता। भारत के बाहर जाकर मैं भारत के किसी
भी नेता के खिलाफ बोल नहीं सकता। क्योंकि तब मैं भारत का प्रतिनिधित्व कर रहा होता
हूं, जब देश के बाहर होता हूं। इसलिए सोचा कि अच्छा तरीका यही है कि प्रतिनिधि
को ही भेज दूं।” ये वहीं भारतीय पीएम हैं, जिनकी कुछ गलतियों के कारन
आज भी उनकी आलोचना होती है, वही नेता जो इंदिरा के खिलाफ ही दिखते रहे, लेकिन इस विषय पर उन्होंने उदाहरण ज़रूर पेश किया था।
ऐसे ढेर सारे उदाहरण या वाक़ये
मौजूद हैं। संसद के अंदर एक दूसरे का घोर विरोध, लेकिन परिसर के बाहर एक कार में बैठ
कर जाना, ऐसे भी वाक़ये हैं। ये वो मामला नहीं था कि सब एक ही थाली में खाने वाले।
दरअसल, नीतिगत विरोध था, जिसका दायरा या जगहें निश्चित होती थी।
ये हिंदुस्तानी सलीका है, ये
हमारी सदियों पुरानी अघोषित व्यवस्था का मूल है, जो हमें बाकी राष्ट्रों से बहेतर
राष्ट्र बनाता है। लोग कहते हैं कि भारत में भारत विरोधी नारे लगते हैं, उन्हें फांसी
पर लटका देना चाहिए। यकीनन ऐसे लोगों के खिलाफ कड़े से कड़े कदम उठाए जाने चाहिए।
ताकि इस मिट्टी पर खड़ा रहकर सांस लेने वाला कोई इस मिट्टी को शर्मसार ना करे। लेकिन
हमारे यहां कुछ लोग और कुछ नेता भारत के बाहर जाकर भारत की बुराई करते है। भारत के
बाहर जाकर कोई भारतीय भारत शर्मसार हो ऐसा कथन कर दे, तब तथाकथित राष्ट्रवादियों को
समझ लेना चाहिए कि वो देशभक्ति नहीं दिखा रहे, बल्कि अपना दिवालियापन उभार रहे है।
विचारों में अंतर होना नयी बात नहीं है और ये कई बड़े बड़े नेताओं या नामों के जीवन के साथ जुड़े हुए भी है। किंतु वो मतभेद
थे। मतभेद और विवाद में भी अंतर होता है। सहमती और असहमती... ये दोनों स्वाभाविक सी
प्रक्रियाएं है। योजना या कार्यक्रमों का विरोध होना या नीतियों की आलोचना होना अति
सरल और स्वाभाविक सी प्रक्रियाएं हैं। हां, विरोध करने में और विरोध के उत्तर देने में
सीमाएं लांधी जाए तब ये साफ हो जाता है कि विरोध करने वाले और विरोध झेलने वाले,
दोनों तबके संकुचित विचारधारा के पोषक व अनुयायी है। नेहरू के आभामंडल में भी सरदार
अपनी बात पूरी निर्भिकता और स्वतंत्रता से रख पाते थे। लाल बहादुर शास्त्री जैसे
राजनेता आज भी आदर के साथ याद किए जाते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी जैसी शख्सियतें आज
भी विपक्ष और विरोधियों में भी लोकप्रिय है। दरअसल संवाद की शैली, मुद्दों की अहमियत
तथा सार्वजनिक लहजा काफी मायने रखता है। अगर आज ये संभव ना हो, आज अगर पार्टी या
कार्यकर्ता भी ये न कर पाता हो, आज अगर पार्टी में ही अलग विचार प्रस्तुत करने जाए और नोटिसे थमा दी जाती हो... तब स्वाभाविक है कि ऐसे तमाम दल कैसे कैसे अनुयायी
तैयार करते होंगे। और फिर वो अनुयायी कैसे कैसे सार्वजनिक रवैये लेकर चलते होंगे।
कहा जाता है और देखा गया है कि दुनियाभर
में सरकारों के कामकाज का तरीका बदल रहा है। दुनियाभर में बदली हुई पैटर्न सभी को
भली-भांति पता है। अब सरकारों का पहला काम विपक्ष को मृत अवस्था में लाना होता है।
वो विपक्ष को पूरी तरह खत्म भी नहीं करते। ताकि लोकतंत्र का भ्रम बना रहे। दूसरा
काम तमाम प्रकार के मीडिया को लेकर होता है, जिसमें ऐसे ऐसे पैतरें होते हैं जो आसानी
से समझ में भी नहीं आते। और तीसरा काम लठैत से करवाया जाता है। इतनी संजीदगी से कि खुद लठैतों को भी पता नहीं होता कि उनका बखूबी इस्तेमाल हो रहा है। ये दुनिया में आज
कल देखने के लिए भी मिल रहा है। नेताओं की शैली बदल रही है। इस बदलाव से कोई
अन्जान नहीं है। चुनावों में जो भाषण दिए जाते हैं, जो वादे किए जाते हैं, जो सपने दिखाए जाते हैं... पालने में ही बच्चे के चरित्र का अंदाजा लगाया जा सकता है। कितनी
भी दलीलें कर ले या लंबी लंबी चर्चा कर ले, आखिर तो कम खराब सरकार चुननी होती
है... ना कि सबसे अच्छी सरकार।
सभी को पता है कि आज कल राजनीतिक
दलों की एक पैटर्न सी है कि वो उठने वाले सवालों के उत्तर खुद नहीं देते। बल्कि वो
अपने अनुयायीओं से, जिन्हें लठैत भी कहा जाता है, इन सवालों के उत्तर दिलाते हैं। नयी
पैटर्न यह है कि अब उत्तर ऐसे दिलाए जाते हैं कि सवाल पूछने वाला दोबारा सवाल
पूछने की हिम्मत ही न करे! सवाल अलग अलग होते हैं, अलग अलग
व्यवस्था को लेकर, नीति को लेकर, योजना को लेकर, कदम को लेकर होते है... लेकिन
उत्तर एक ही होता है! हर आलोचना को देशभक्ति, राष्ट्रद्रोह,
सरकार विरोधी मानसिकता इन तीनों चीजों से जोड़कर उत्तर दिया जाता है। ताकि फिर दोबारा
सवाल ना उठे। कोई चाहता ही नहीं है कि उनसे सवाल पूछे जाए। शायद उनके पास सवालों के
जवाब नहीं है या फिर उनकी शैली हिंदुस्तानी लोकशाही की ही नहीं है। और फिर वो ही
गरियाते है कि दूसरे लोग हिंदुस्तानी नहीं है!
औरो को
गुंडाराज गुंडाराज चिल्लाते हैं...लेकिन मैंने देखा है कि अगर कोई महिला बेटी बचाओ
अभियान पर कोई सलाह दे और वो सलाह उस गैंग को पसंद नहीं आती तो उस महिला के अकाउन्ट
पर भद्दी गालियां दी जाती हैं। नीचता की पराकाष्ठा यह है कि उस महिला के छोटे बच्चें
व परिवार तक को अभद्र भाषा से नवाजा जाता है। इस मानसिकता को कैसे स्वीकार किया जा
सकता है? एक राज्य में
अफजल को देश का दुश्मन कहा जाए और दूसरी जगह उसे अपनो की नजर से देखनेवालों के साथ
नजदीकी रिश्तें रखे जाए, उसे क्या कहेंगे आप? जो लोग हिंदुस्तान में रहकर पाकिस्तान के झंड़े फहराते हैं या हमारे तिरंगे को
पैरों तले कुचलते हैं, उनसे स्नेह रखने वालों को हर कोई नफरत करता है। ऐसे जो भी लोग
हैं, उन्हें हर कोई नफरत करता है। लेकिन चिंताएं उन्हीं की जायज होती है... जो हर
मामलों में चिंतित हो। अगर चिंतित होने में भी चोइस होने लगे, तब देशभक्ति नहीं दिवालियापन उभरता है।
सेना के मुद्दों को, सैनिकों को, उनकी शहादत को, उनकी खुदकुशी को, उनकी मृत्य़ु तक को हर उस सिरे से
लिया जाता है, जिसकी ज़रूरत ही नहीं होती। वैसे, सेनाभक्ति और देशभक्ति दिखानेवाले
लठैत भी कमाल के होते हैं। जब कश्मीर में सेना को पीटा जाता है तो इनकी देशभक्ति
जगती है, लेकिन जब जंतर-मंतर पर पीटा जाता है तो देशभक्ति की जगह दिवालियापन जगता
है। बड़े जहाज के साथ पूरा का पूरा दल गुम हो जाता है और इनकी देशभक्ति उफ तक नहीं करती और ये लोग उधार के दिमाग से दूसरी चीजों पर नौटंकिया ज्यादा करते हैं।
दरअसल ऐसे
चाटुकार या चमचों से ज्यादातर लोग दूरी रखना पसंद करते हैं। ऐसा नहीं है कि चाटुकारों की तादाद बहुमती में है। प्रतिशत निकाल लो, इनकी तादाद कम ही है। लेकिन लोग इनसे दूरी
रखते हैं तब ये ऐसा समझते हैं कि वो जीत गया। दरअसल चाटुकारों या चमचों का अपना दिमाग
होता नहीं, इसलिए वे ऐसा ही सोचेंगे। वो समझते नहीं कि वो जीत नहीं गया, बल्कि गटर
से इंसानों के पांव दूर ही रहते हैं। कोई उनके मुंह नहीं लगता, क्योंकि हिंदुस्तानी सलीका
हमने पहले देख लिया। दरअसल, उनके मुंह नहीं लगने वाले हिंदुस्तानी सलीके को सम्मान दे
रहे होते हैं, जबकि ये लोग जीत के भ्रम में रहकर खुद की ही जगहंसाई करवा रहे होते
हैं।
विचारों में अंतर
हो... किसी विषय में मत अलग हो... ऐसे में भाषा का स्तर गिराने के या सवालों को देश,
राष्ट्र के बहाने से जोड़ देने के दो ही मतलब होते हैं। या तो सवालों के जवाब नहीं है या
फिर विषय का पता ही नहीं है। यहां कोई पूर्णज्ञानी नहीं है या कोई अनपढ़ भी नहीं। लेकिन
कहते हैं कि, “दलीलों का स्तर दलीलों का नहीं होता, दलील करने वालों का होता है।” तीसरा मतलब जो होता है वो ऊपर पैटर्न वाले तर्क में देख ही लिया।
ये भी
स्वाभाविक है कि अनुयायी हर दल में होते हैं... या यूं कहे कि भक्त प्रजाति हर जगह
मौजूद है। लेकिन वो लोग जब सीमाएं लांधने लगे, उठने वाले सवालों को अपनी खास पैटर्न
के तहत हेंडल करने लगे तब वो अनुयायी नहीं रहते। वो क्या हो जाते हैं वो हमने ऊपर
देख ही लिया है। एक सीधी सी बात है कि.. देखो भाई, हमने
किसी के पुतले जलाए हो, तो हमारे भी जलते हैं। हमने सवाल पूछे हो, बैलगाड़ियां
चलायी हो, चक्काजाम किया हो, तो ये हमारे ऊपर भी होता है। इतनी छोटी छोटी बातों में
किसी को विदेश भेजने वाले खुद विदेश चले जाए। ऐसे लोगों के लिए उपर्युक्त वातावरण
वहीं हो सकता है।
धर्म और राष्ट्र... ये दोनों विषय ऐसे हैं कि इसके ऊपर सवाल नहीं उठाया जा सकता। और इसीका बखूबी इस्तेमाल करने का चलन
आजकल हमारे यहां ही नहीं, दुनियाभर में हैं। इसकी आड़ में काफी कुछ किया जाता होगा। दरअसल
राष्ट्रवाद और देशभक्ति में अंतर इतना सा ही है कि एक विचार देश को एकजुट रखने की
ताकत समेटे हुए है, और दूसरा विचार एक ही देश में किसी दूसरे देश का सृजन कर देता
है।
ऐसी बात नहीं होती कि किसी को उनकी देशपरस्ती साबित करने के लिए सरकार की प्रशंसा करनी चाहिए
या फिर इस देश में जो तमाम देशविरोधी घटनाएं हुई उन्हें ढूंढ ढूंढ कर उस पर लिखना या
बोलना चाहिए। राष्ट्रवाद की व्याख्या या उभार तो हर दौर में बदलता रहा है। हिंदू को
वो हिंदू है ये साबित करने के लिए किसी और धर्म को गालियां देनी ही पड़ती हो, ऐसा
नहीं है। क्योंकि हिंदू वो संस्कृति है, जहां शालीनता है। खुद को श्रेष्ठ साबित करने
के लिए दूसरों को गालियां देनी पड़े यह हिंदू संस्कृति की पहचान नहीं रही।
ये हिंदुस्तान
है और ये लोकतांत्रिक व्यवस्था है, यहां एक चीज़ कॉमन रही है। वो यह कि लोगों को
असहिष्णु होना पड़ता है और सरकारों को सहिष्णु। विपक्ष विरोध करता ही है। सरकारों को
विपक्षों से निपटना भी होता है। लेकिन जो सत्ता में है वो सड़क पर नहीं उतर सकते, वो
मर्यादाएं लांध नहीं सकते, वो सीमाओं से परे नहीं जा सकते। क्यों??? क्योंकि वो सत्ता में है। विपक्ष में होते
है तब वो ये सारी चीजें कर ही चुके होते हैं। तमाम सरकारों का विरोध होता ही आया है,
तमाम की आलोचनाएं भी होती ही रही है। ये कोई नयी नवेली प्रक्रिया नहीं है। लेकिन एक
पैटर्न ‘फिर एक बार
ताज़ा’ हो चली है, जो
धर्म और राष्ट्र को लेकर कही।
जिन्हें लठैत
कहा जाता है वो लोग एक सीधी और सरल सी बात कभी भी नहीं समझेंगे कि विचारों में अंतर,
विरोध का प्रक्ट होना, नीतियों की आलोचना होना या सड़क पर प्रदर्शन होना, ये सब
लोकशाही हिंदुस्तान की अतिस्वाभाविक सी प्रक्रिया है। इसमें आसमान टूट पड़ा हो ऐसी
कोई बात नहीं होती। हर सरकारों के दौर में ये होता रहा है और होता रहेगा। एक सच तो यह
भी है कि होता भी रहना चाहिए! लेकिन
इसके जवाब में गाली-गलौज पर उतर आना, ये तो हिंदुस्तान की परंपरा या पहचान नहीं है।
इस लिहाज से तो गाली-गलौज करने वाले खुद हिंदुस्तानी नहीं है। ऊपर से वे दूसरों को
सर्टिफिकेट बांटते हैं! लेकिन उन्हें समझ नहीं होती कि उनका भी इस्तेमाल ही हो रहा है। उठने वाले सवालों को परिसर तक आने से
रोकने के लिए उन्हें लाठी लेकर केवल खड़ा किया गया होता है। उससे ज्यादा उनकी
अहमियत भी कोई होती नहीं। उन्हें वहां खड़ा करने वाले लोग भी उन पर हंसा करते होंगे।
किसी के तर्क
से असंमत होना या कोई हमारे तर्क से असंमत हो जाए, ये सरल सी प्रक्रिया है। इसका
मतलब यह नहीं है कि गाली-गलौज पर उतर जाओ या राष्ट्रीयता का व देशभक्ति का हथियार इस्तेमाल करो। देशभक्ति दिखाने के कई मौके और भी मिल जाते हैं। लेकिन वहां तो ये लठैत
देशभक्ति की जगह दिवालियापन ही दिखा देते है। सरल सी बात है कि... असहमती विषय पर
होनी चाहिए और उत्तर भी उसी पर होना चाहिए, ना कि व्यक्ति पर। संविधान या लोकशाही
या हिंदुस्तानी संस्कृति पर भाषण देना अलग बात है और उसका पालन करना दूसरी बात है।
वैसे भी जो लोग
किसी एक व्यक्ति या संस्था या दल की मुहब्बत में होते हैं, उनसे देशप्रेम की बातें बेइमानी सी लगती है। लोकशाही ढांचे के लिए कहा गया है कि, “आप के द्वारा चुनी गई सरकार के प्रति
कभी संतुष्ट मत होना।” जिन लोगों में विरोधी विचारों का सम्मान करने का माद्दा न हो, उनसे तो देश को भी
उम्मीदें नहीं होती। किसी भी लोकशाही राष्ट्र में यदि विकास करना है तो तीन चीजें होना
बेहद आवश्यक है। पहली, मजबूत कही जाए ऐसी सरकार। दूसरी, सरकार को झकझोर पाए ऐसा
विपक्ष। और तीसरी, दोनों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दे ऐसी सभ्यता। इन तीनों का
होना आवश्यक है। विरोध और सवाल, ये दोनों ही विकास के तरीके हैं और लोकतांत्रिक
व्यवस्था की आत्मा है। जैसे विपक्ष को विरोध करने में खयाल रखना होता है.... ठीक
वैसे ही, सत्तादल को विरोध झेलने की शक्ति विकसित करनी होती है।
हर दफा एक तबका
शिकायत करता है कि हम सत्ता में है इसलिए लोग हमारा विरोध करते हैं। लेकिन इसमें
नया क्या है? ये कोई दलील हुई? सत्ता में हो उसीकी ही आलोचना या विरोध ज्यादा होता है। अगर कम कराना है तो
शांति से विपक्ष में खिसक जाए। वैसे इसे लेकर वो लोग हवा-हवाई भी करते हैं कि हम क्यों
विपक्ष में जाए? सालों तक हमें कोई हरा नहीं सकता वगैरह वगैरह। तो फिर आलोचना की आदतें डाल दो। वे
खुद कहते हैं कि ये हिंदुस्तान है, फलाना फलाना मुल्क नहीं है। तब तो ये चीज़ उन्हें सदैव याद रखनी होगी कि ये हिंदुस्तान है और इसलिए यहां जो लोकतांत्रिक
व्यवस्था है उस हिसाब से आदतें डाल लेनी चाहिए।
गांधी हो या
भगत सिंह हो, सभी में “देश भावना” थी... जबकि हमारे में “द्वेष भावना” ज्यादा दिखती है। एक बात अच्छे से समझ ले कि जो राजनीति आपको गांधी या
भगत सिंह में से किसी एक को चुनना सिखाती हो, वो आपको गोडसे बनाकर ही छोड़ती है। पसंदगी,
किसी को अच्छा मानना, किसी की प्रशंसा करना, किसी की नापसंदगी, किसी की बुराई
करना, सवाल उठना या उठाना, ये सब चीजें स्वाभाविक है। लेकिन हदें तोड़ी जाए तब इस
लेख का शीर्षक लागू हो जाता है। हदें तोड़ना इसकी एक निश्चित व्याख्या होती है और उस
व्याख्या को बदलने की कोशिशें करे तब भी यह लागू होता है।
(इंडिया इनसाइड, मूल लेखन 20
नवम्बर 2016, एम वाला)
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