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Cashless Economy - Plastic Money : बिना काग़ज़ की दुनिया, चूरन की इन गोलियों की नाकामियों को समझने में फ़ायदा ही है

 
यह तस्वीर सांकेतिक है। एटीएम के साथ साथ हो सकता है कि ऐसी तकनीक भी इतिहास बन जाए, जो सांकेतिक तस्वीर में है। पीसीओ सरीखा हाल एटीएम से लेकर अलग अलग कार्ड का भी हो सकता है। सब कुछ बदलता रहा है और बदलता रहेगा।
 
जिन्हें लगता है कि यहाँ बात इलेक्ट्रॉनिक लेनदेन की आलोचना की है या उसके ख़िलाफ़त की है, उन सभी को उनका यह विशेष भ्रम मुबारक हो। किसी विषय के अच्छे या बुरे पहलू को समझने में बुराई नहीं है। कम से कम हिन्दुस्तान में तो नहीं। जिन्हें बुराई लगती है, मैं नहीं कहूँगा कि वो विदेश जाएँ। हिन्दुस्तान उनका भी है।
 
बिना काग़ज़ की दुनिया। कभी इसे कैशलेस भी कहा जाता है, जहाँ सारी लेनदेन इलेक्ट्रॉनिक तरीक़ों से की जाती हो। वहीं प्लास्टिक के नोट भी विकल्प के रूप में देखे जाते हैं।
 
प्लास्टिक मनी... कैशलेस इकोनॉमी...। प्लास्टिक की चीजें दुनिया के लिए ख़तरनाक मानी जाती हैं, वहीं प्लास्टिक करेंसी को नया अवतार माना जा रहा है! कई जगह सुना है कि प्लास्टिक पर्यावरण को खा गया। लेकिन प्लास्टिक मनी वो दुल्हन है, जिसके साथ शादी करने के लिए बातें हो रही हैं।
 
प्लास्टिक मनी के साथ साथ कैशलेस इकोनॉमी की बातें भी ख़ूब होती रहती हैं। यानी कि सारा लेनदेन इलेक्ट्रॉनिक तौर-तरीक़ों से हो। काग़ज़ कम हो जाए। यानी कि पेड़ कम काटने पड़ेंगे। और इससे पर्यावरण को जो फ़ायदा मिलेगा, वो हम प्लास्टिक मनी से बराबर कर देंगे! समानता का सवाल है न भाई!
माना जा रहा है कि ये दोनों चूरन की गोलियाँ हैं। जिससे अर्थव्यवस्था की बदहज़मी साफ हो जाएगी। टैक्स चोरी कम हो जाएगी। काला धन कम हो जाएगा। दुनिया चूरन की ये गोलियाँ खा रही है तो उसका पेट कितना साफ हुआ है वो भी देखने ज़रूरी है। कुछ चीजों के फ़ायदे क्या हैं वो तो गाहे बगाहे दिखा दिया जाता है, ज़रूरत तो यह भी होती है कि इसके बुरे असर को भी देखा जाए। ख़ास करके वो साइड इफेक्ट, जो दुनिया ने झेले हो।
 
जिस तरह भारत में आयकर विभाग है, वैसे अमेरिका में इंटरनल रेवेन्यू सर्विस है। इस विभाग की एक रिपोर्ट कहती है कि 2008 से 2010 के बीच हर साल औसतन 458 अरब डॉलर की टैक्स चोरी हुई है। भारतीय मुद्रा में इसका हिसाब लगाया जाए तो हर साल औसतन 30-32 लाख करोड़ की टैक्स चोरी होती है। ये उसी राष्ट्र का आँकड़ा है जिसकी रोशनी में हम बहुत बार नहाया करते हैं।
 
फ्रांस के संसद की रिपोर्ट में यह आँकड़ा सालाना 40 से 60 अरब यूरो का है, जिसका मतलब है सालाना 4 लाख करोड़। ब्रिटेन का आँकड़ा 16 अरब यूरो का है, जिसका भारतीय मुद्रा में हिसाब 11 हज़ार करोड़ है। जापान में नेशनल टैक्स एजेंसी का 2016 का रिपोर्ट 13.8 अरब यैन की टैक्स चोरी दर्शाता है, जो भारतीय मुद्रा में 850 करोड़ होता है।
 
वैसे टैक्स चोरी की बात निकली है तो बिना सर्वे के सभी को पता होता है कि टैक्स चोरी कौन करता है। लोन डूबने के या बैंकों के कमज़ोर होने के किस्से में सभी को पता है कि किन लोगों की वजह से ये होता है।
2015 में Independent Commission for the Reform of International Corporate Taxation (ICRIT) ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि अंतरराष्ट्रीय कॉर्पोरेट टैक्स सिस्टम बेकार हो चुका है। इस रिपोर्ट का कहना था कि मल्टीनेशनल कंपनियाँ जिस मात्रा में टैक्स चोरी करती हैं, उसका भार अंत में सामान्य करदाताओं पर पड़ता है, क्योंकि सरकारें उन मगरमच्छों का तो कुछ बिगाड़ नहीं पाती हैं। एक-दो छापें मारकर अपना गुणगान करती रहती हैं। इन मल्टीनेशनल कंपनियों की टैक्स लूट के कारण सरकारें ग़रीबी दूर करने या लोक कल्याण के कार्यक्रमों पर ख़र्चा कम कर देती हैं।
 
बताइए, जिनकी तरह दुनिया या हम होना चाहते हैं, उन्हें ही 'बेकार' कहा जा रहा है! रिपोर्ट की माने तो, दुनियाभर की कर प्रणाली ऐसी है कि एक देश का अमीर दूसरे देश में अपना पैसा ले जाकर रख देगा। उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।
 

2016 में 'इंडियन एक्सप्रेस' ने पनामा पेपर्स पर कई हफ़्तों की रिपोर्ट छापी कि कैसे यहाँ के बड़े-बड़े लोग फ़र्ज़ी कंपनियों और शेयरों के ज़रिए विदेशों में अपना पैसा रखे हुए हैं। सरकार जाँच-वाँच का एलान करती है, मगर इस रफ़्तार से काम करती है कि अंतिम नतीजा आते-आते आप सब कुछ भूल चुके होते हैं।
 
क्या अमेरिका में 30 लाख करोड़ रुपये की टैक्स चोरी ग़रीब और आम आदमी करता है? वहाँ भी बड़ी कंपनियाँ टैक्स चोरी करती होगी। जानबूझकर करती होगी, ताकि टैक्स अदालतों में लंबे समय तक मामला चले और फिर अदालत के बाहर कुछ ले-देकर सुलझा लिया जाए।
 
इलेक्ट्रॉनिक तरीक़े से पेमेंट अगर पेट साफ कर देता है, तब तो हमारे यहाँ भी बैंक इलेक्ट्रॉनिक तरीक़े से ही काम करते हैं। वैसे भी इलेक्ट्रॉनिक तरीक़े से लेन-देन का मतलब यह कतई नहीं है कि सारी लेन-देन सफ़ेद रंग की ही हो। ठीक उसी तरह नक़दी व्यवस्था में भी ये मतलब नहीं है कि सारी लेन-देन काले रंग की है।
मार्च 2016 में 'द गार्डियन' अख़बार में कैशलेस अर्थव्यवस्था पर आर्थिक पत्रकार डोमिनिक फ्रिस्बी का एक आलोचनात्मक लेख छपा था। इसमें लिखा गया था कि कैशलेस का नारा दरअसल ग़रीबों के ख़िलाफ़ युद्ध का नारा है, ग़रीबी के ख़िलाफ़ नहीं। डोमिनिक का कहना है कि कैशलेस की बात करना यानी ग़रीबों के ख़िलाफ़ बात करना है। दुनिया के हर देश में ग़रीबों को नोट की ज़रूरत होती है। रिपोर्ट में लिखा गया था कि जिस तरह से कैशलेस की वकालत की जा रही है, उसे सुनेंगे तो लगेगा कि नक़द का इस्तेमाल करने वाले क्रिमिनल हैं, कर चोर हैं या आतंकवादी हैं। इसीके साथ आलोचना के इन लेखों में इस बात पर ज़ोर था कि हमें अपने जीवन में बैंकों की भूमिका को समझना होगा। बैंक किस तरह से बदल रहे हैं, उसे भी देखना होगा।
 
2008 की मंदी में कई बैंक दिवालिया हो गए। लेहमन ब्रदर्स, मेरिल लिंच, एआईजी, रॉयल बैंक ऑफ़ स्कॉटलैंड... तमाम बैंक संकट के शिकार हुएँ और कुछ दिवालिया भी। कुछ साल बाद साइप्रस में भी ऐसा ही संकट आया। ग्रीस में भी यही हुआ।

 
29 जनवरी 2016 को जापान के सेंट्रल बैंक ने ऐसा फ़ैसला लिया, जिसके बारे में अभी तक हमने व्यापक रूप से सुना नहीं है। जापान के लोगों को बैंकों में अपना पैसा रखने के लिए फ़ीस देनी पड़ती है। हमारे यहाँ के बैंकों की तरह ब्याज़ नहीं मिलता है। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि कर्मशियल बैंक ज़्यादा से ज़्यादा पैसा बिजनेस मैन को उधार पर दे सकें। अगर पैसा इलेक्ट्रॉनिक रूप में रहेगा तो सेंट्रल बैंक वह सब कुछ पल भर में कर सकेगा जो अभी नहीं कर पाता है। मंदी की भनक मिलते ही ब्याज़ दर निगेटिव हो जाएगी। यानी आपको ही बैंक को पैसे देने होंगे कि वो आपका पैसा रख सके।
 
नक़दी व्यवस्था में यह छूट होती है, जब भी आपका भरोसा कम होगा, आप अपनी पूंजी को नक़द में बदल सकते हैं। कुछ राष्ट्रों की कैशलेस सोसायटी में ये छूट नहीं है। बैंक ऑफ इंग्लैंड के पूर्व गवर्नर मर्वेन किंग ने कहा कि बैंकिंग सिस्टम में कई खामियाँ हैं, इसे ठीक नहीं किया गया है। हो सकता है कि फिर से संकट आ जाए। यानी बैंक डूबने लगे। अब हो सकता है कि उस लेख में छपी ये संभावनाएँ झूठ भी हो। या हो सकता है कि ये सच भी हो।
बैंक का मतलब सिर्फ़ खाता खोलना या पैसा जमा करना नहीं है। हम सबको बैंकों के बारे में अधिक से अधिक जानना चाहिए। कैसे बैंक गरीब आदमी से दो लाख वसूलने के लिए पीछे पड़ जाते हैं। बड़े उद्योगपतियों का लाखों करोड़ का कर्ज़ा नॉन प्रॉफिट एसेट बनकर पड़ा रह जाता है। उन्हें अलग-अलग खातों में डाला जाता रहता है। इस पूरे मसले को भावना से नहीं तथ्यों से समझना चाहिए। ऐसा नहीं है कि हम और आप इलेक्ट्रॉनिक तरीक़े से लेन-देन नहीं करते हैं। सारी आबादी न करती हो, मगर लाखों की आबादी तो करती ही है।
 
जिस तरह कैशलेस इकोनॉमी पर कइयों को भरोसा नहीं है, वैसे ही इलेक्ट्रॉनिक लेनदेन पर भी कइयों का भरोसा कायम है! उनका विश्वास तब भी नहीं हिला जब ख़बर आई कि 32 लाख डेबिट कार्ड का डाटा किसी और के पास चला गया। तब हमारे डेबिट कार्ड की सुरक्षा को लेकर काफी सवाल उठे थे।

 
कैशलेस यानी जब नोट का चलन समाप्त हो जाए या न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाए। इसके फ़ायदे भी बताए जा रहे हैं। इससे सरकार को ज़्यादा टैक्स आएगा, क्योंकि काला धन होगा नहीं। अब इस दावे के सामने टैक्स चोरी वाले आँकड़े और रिपोर्ट मुँह फाड़े खड़े हुए हैं। बैंक और टैक्स का मायाजाल वैसे भी आसानी से समझ नहीं आता। यूँ कहे कि समझ ही नहीं आता। इस लिहाज से फ़ायदे के दावे और उस पर उठ रहे सवाल दोनों को पढ़ना चाहिए। हमें सर्वज्ञानी होने का ढोंग करने की कोई ज़रूरत नहीं। क्योंकि सच्चाई सभी को पता ही है!
 
फ़ायदे का जो दावा किया गया, उसीके सामने कई राष्ट्रों में सरकारी रिपोर्ट कुछ और कहते हैं। फिर भी फ़ायदे वाले हिस्से को चुन कर आगे बढ़े तो, आगे कहा जाता है कि उस पैसे से जनता का कल्याण ज़्यादा होगा।
2015 में लाइव मिंट वेबसाइट ने एक चार्ट पेश किया था। जिसके अनुसार जापान में जीडीपी का 20.66 प्रतिशत कैश है। अमेरीका में जीडीपी का 7.9 प्रतिशत कैश है। भारत में जीडीपी का 10.86 प्रतिशत कैश है। चीन में जीडीपी का 9.47 प्रतिशत कैश है और यूरो ज़ोन में जीडीपी का 10.63 प्रतिशत कैश है। दक्षिण अफ़्रीका, स्वीडन, इंग्लैंड जैसे देशों में जीडीपी का दो से चार प्रतिशत ही कैश है।
 
अब यहाँ मूल सवाल फिर खड़ा होता है। वो है जीडीपी का। जीडीपी की अपनी एक दुनिया है, अपने अपने दावे हैं। जीडीपी पर भी दो विभिन्न समुदाय हैं, जो एकदूसरे के ख़िलाफ़ खड़े हैं। कोई जीडीपी को जादू की छड़ी और अर्थतंत्र का लिबास बताता है, तो कोई इसे महज़ एक छलावा करार देता है। शायद जीडीपी का खेल भी इतना लचीला है कि हम जैसे लोग तो छोड़ ही देंगे।
 
इस बीच जनवरी 2017 में वॉशिंग्टन पोस्ट ने भारत के यूनिफाइड पेमेंट को बढ़िया माना था। वॉशिंग्टन पोस्ट ने लिखा था कि यूपीआई से सेकेंडों में पेमेंट हो जाता है, जबकि बिटकॉइन में 10 मिनट लगता है। वॉशिंग्टन पोस्ट में सिलिकॉन वैली के विवेक वाधवा ने अपने मत में कहा कि भारत फाइनेंशियल तकनीक में दो पीढ़ी तक आगे निकल चुका है। 96वें नंबर वाली कम नेट स्पीड के बावजूद किसी विशेषज्ञ का भारत के यूपीआई सिस्टम की इस कदर खुलकर प्रशंसा करना अच्छा ही माना जाना चाहिए। शायद यही वजह रही होगी कि यूपीआई सिस्टम की जगह अन्य सिस्टम को तवज्जो मिलती देख कइयों ने टिप्पणियाँ भी की थीं।
 
कैशलेस होने के बीच यह तथ्य भी याद रखना होगा कि भारत में क़रीब 53 फ़ीसदी लोगों के बैंक खाते हैं। हो सकता है कि नवम्बर 2016 के बाद इसमें इज़ाफ़ा हो। किंतु वर्तमान प्रतिशत पर रहकर आगे बढ़े तब भी एक तथ्य और नजर आता है। और वो यह कि जो 53 फ़ीसदी बैंक खाते हैं उनमें से क़रीब 37 फ़ीसदी बैंक खाते निष्क्रिय पाए जाते हैं। यानी कि क़रीब क़रीब 15 प्रतिशत बैंक खाते लेनदेन करते हुए नजर आते हैं।
53 फ़ीसदी वाला आँकड़ा पकड़े तो कहा जा सकता है कि क़रीब आधी आबादी बैंक से जुड़ी है। और 15 प्रतिशत वाला आँकड़ा पकड़े तो कहा जा सकता है कि क़रीब पौनी आबादी बैंकों से ज़्यादा व्यवहार नहीं करती। वैसे भी कई आँकड़े आते रहते हैं, जिसमें कहा जाता है कि क़रीब 85 से 90 प्रतिशत आबादी भारत में नक़द व्यवहार ही करती है।
 
यानी कि इस आबादी को अचानक से इलेक्ट्रॉनिक वाले रास्ते की तरफ मोड़ना नाइंसाफ़ी सा होगा। इलेक्ट्रॉनिक लेनदेन श्रेष्ठ या सर्वश्रेष्ठ है तब भी इतनी बड़ी आबादी जो नक़द व्यवहार करती है, उन्हें डिजिटल दुनिया में जोड़ने के लिए वक्त भी देना होगा और व्यवस्थाएँ या अन्य चीजें भी खड़ी करनी होगी।
 
क्योंकि भारत मूल रूप से दो हिस्सों में बँटा हुआ है। एक हिस्सा ग्राम्य भारत माना जाता है, वहीं दूसरा हिस्सा शहरी भारत। आवाम की भाषा में कहे तो, इंडिया के लिए योजना और भारत के लिए व्यवस्था, दोनों चीजें सिरे से सोचनी होगी। ताकि बाद में जो चुनोतियाँ या जोख़िम हैं उसके सामने हम या हमारा देश बौना साबित ना हो।
 
बिलकुल यही बात केंद्र के आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने भी कही थी। वर्ष 2017 के लिए देश का आर्थिक सर्वे बनाने वाले सुब्रमण्यम ने 24 फ़रवरी 2017 के दिन कहा था कि देश के 35 करोड़ लोगों के पास फ़िलहाल मोबाइल फ़ोन ही नहीं है, ऐसे में उन्हें स्मार्ट फोन आधारित यूपीआई के जरिए कैशलेस इकोनॉमी की तरफ मोड़ना समय के अनुकूल नहीं है।
ज़ाहिर है भारत में कैशलेस की स्थिति अभी नहीं है। लेकिन पूरे भारत को इंटरनेट से जोड़ने का अभियान डिजिटल इंडिया चल रहा है। जिसका लक्ष्य है कि 2016 तक ढाई करोड़ लोगों को डिजिटल साक्षर कर दिया जाएगा। इंडिया लाइव स्टेट्स, 2016 के मुताबिक़ इस समय भारत में 46.2 करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। यानी आबादी का 34.9 प्रतिशत। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक़ गाँवों में मोबाइल इंटरनेट की पहुंच 9 प्रतिशत ही है। शहरों में अधिक है, 53 प्रतिशत।
 
एक सच यह भी है कि भारत भले इसके लिए तैयार न हो, आने वाले दस साल में तैयार भी हो जाए, किंतु जो बदलना है वो व्यावसायिक द्दष्टिकोण समन्वित किए हुए हैं, इसलिए समय से पहले ही बदलेगा। किंतु कैशलेस हो जाने से क्या हमारी आर्थिक मुश्किलें कुछ कम हो जाएगी?
 
दरअसल हम नारों में और नामों में ज़्यादा उलझे रहते हैं। हमें नारों को ज्ञान नहीं समझना चाहिए। किसी बात को अंतिम रूप से स्वीकार करने की जगह, तमाम तरह की जानकारियों को जुटाइए। तरह-तरह के सवाल पूछिए। फ़ैसला सही है या नहीं है, इसके फेर में क्यों पड़े, जब फ़ैसला हो चुका है। जो फ़ैसला हो गया वो सही ये ग़लत है उसका चक्कर क्यों? बजाए इसके, उस फ़ैसले के अच्छे-बुरे असर को जानना चाहिए और इसके बहाने समझ का विस्तार करना चाहिए। बेहतर है कि किए जा रहे दावों को छोड़ हम सवालों को देखें। हर जवाब हमारी आर्थिक समझदारी को विकसित करेगा।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)