गरीबी-बेरोजगारी से जंग करने के पीएम के आह्वान के बाद भी हर दोपहर सास-बहू की
जंग कराने वाला मीडिया दो देशों में जंग कराने लगा... टैंक मीडिया चैनल तक पहुंच गए
और एंकर अग्नि मिसाइल से भी तेज़ उड़ने लगे।
सितम्बर 2016 के आख़िरी सप्ताह
से लेकर अक्टूबर 2016 का महीना... एक तरफ़ पूरी कायनात वीकएंड में डूबती रही। भारत ऑफ सीज़न से त्यौहारों
के सीज़न की तरफ़ उत्साह से प्रस्थान करने लगा था। बड़ी संख्या में ख़रीदार घरों से
बाहर निकल कर बाजारों की ओर निकलने लगे थे। मानसून के आख़िर में बारिश ने उन इलाकों
को भी ज़िंदा कर दिया, जो बिना बारिश से चिंतित थे। नवरात्रि शुरू हो चुकी थी और अख़बारों में विज्ञापन
आना शुरू हो गए थे।
लेकिन, इन सबसे दूर... पता
नहीं कि अपने कौन से कर्तव्यों का वो पालन कर रहे थे... लेकिन चैनलों के न्यूज़ एंकर
सेना में गये बग़ैर या सरहदों में तपे बग़ैर, अपने अपने स्टूडियो से युद्ध के उन्माद में सराबोर थे! सरकार की तरफ़ से उतने आक्रामक बयान नहीं आ रहे थे, लेकिन एंकर सरकार
के संयम को भी घोल कर पिये जा रहे थे। पहले भी होता था वैसे चेतावनी वाले बयान सरकार
ज़रूर दे रही थी... लेकिन एंकर चेतावनी को आख़िरी सरकारी फ़ैसला मानने में जुटे थे।
केवल सीमाओं पर ही टैंक नहीं होते, लेकिन स्टूडियों के अंदर भी होते हैं, ये इन्हीं दिनों साबित हो चुका था!
सेना की कार्रवाई से
माहौल ख़ुशनुमा था। तनाव कहीं था, तो बस 'मीडिया की दुकानों' में! प्रधानमंत्री कह चुके थे कि जंग गरीबी से
होनी चाहिए, जंग बेरोजगारी से होनी चाहिए। लेकिन एंकर न्यूक्लियर बम का बटन दबाने को उत्सुक
दिखें! गरीबी या बेरोजगारी से जंग करने का प्रधानमंत्री
का आह्वान शायद उन्हें नागंवार गुजर रहा था। वैसे भी, आम दिनों में वे सास-बहू
में जंग कराते हैं, लेकिन गरीबी या बेरोजगारी से शायद ही कराते दिख जाएँ। गरीबी व बेरोजगारी से जंग करने का ख़ूबसूरत खयाल पीएम को आया, लेकिन मीडिया के दिल-ओ-दिमाग़
में सनसनाती मिसाइलें घूम रही थीं!
नेताओं या मंत्रियों
के टाइमलाइन पर भी सब कुछ शांत था। लगता था कि सबक सिखा दिया हो और साथ में नया सबक
भी सीख लिया हो। अधिक जोशीला या उत्साही होने से सरकार तो बच गई, लेकिन मीडिया ने अग्नि
मिसाइल से भी तेज़ गति दिखा दी! सरकार की संयमितता
सचमुच प्रशंसनीय थी। शायद वो समझ चुके थे कि कुछ करना हो तब भी, और कुछ न करना हो
तब भी, ऐसे मामलों में नियंत्रित रहना ही अच्छा है। लेकिन, स्टूडियो से एंकर
आग बबूला हो रहे थे!
भारत के रक्षा विशेषज्ञों, भारत के वरिष्ठ पत्रकारों, भारत के राजनीतिक
विश्लेषक ही बाढ़ में बहकर आए थे ऐसा नहीं था। इन एंकरों ने तो पाकिस्तान के रक्षा
विशेषज्ञ, पाकिस्तान के पत्रकार, पाकिस्तान के राजनीतिक विश्लेषकों को भी बिन बादल बरसा दिया। वैसे सीधा सवाल उठना
लाज़िमी है कि हमारे विशेषज्ञ या विश्लेषक तो ठीक हैं, लेकिन पाकिस्तान के
महानुभावों को बुलाने के पीछे उद्देश्य क्या होगा? क्योंकि, सभी को मालूम होता है कि ना हम उनकी बात मानेंगे और ना ही वो हमारी। फिर क्यों? लेकिन, इन सब से ज़्यादा
उग्र तो न्यूज़ एंकर दिखें। इनकी देशभक्ति या फ़र्ज़ परस्ती सास-बहू से हटकर अचानक
अग्नि या ब्रह्मोस पर उड़ रही थी।
उधर अटारी-वाघा
बॉर्डर पर बीटिंग द रिट्रीट सेरेमनी चौथे दिन ही फिर से शुरू हो चुका था, लेकिन फिर भी मीडिया
के लिए सरहदों पर तनाव पसरा हुआ था!!! हर नया दिन सामान्य होने की ज़िद पर था, लेकिन एंकर दूसरी ज़िद पर अड़ते गए।
हर सरकारी बैठक, हर सरकारी बयान, हर सरकारी गतिविधि
ऐतिहासिक सी बताई जाने लगीं। लगा कि शायद इससे पहले भारत या पाकिस्तान में बैठकें नहीं
होती होगी! एनिमेशन और कंप्यूटर की तकनीक से युद्ध का
पूरा का पूरा ब्लू प्रिंट मीडिया ने तैयार कर लिया! कभी कभार तो लगा कि वर्तमान सेनाध्यक्षों को युद्ध करना ही नहीं आता, इससे अच्छा युद्ध
तो रक्षा विशेषज्ञ कर लेते हैं! लगा कि एंकरों के फेफड़े इतने फूले जा रहे थे कि एकाध सर्जिकल ऑपरेशन इनका भी
आईसीयू में तत्काल करना चाहिए। वर्ना इनके दिमाग की नसें फट जाएगी। हमारे स्टूडियो
से हमारे एंकर जब भी बोले, लगा कि ये एंकर पाकिस्तान के बच्चे जैसे दिमाग वाले जनरलों या मंत्रियों के काॅपी
पेस्ट हैं।
पता नहीं, मीडिया उन्माद फैलाना
चाह रहा था या ख़ुद ही उन्माद में था या फिर कुछ और? ऐसा लगा कि पीएम का गरीबी से जंग करने का बयान मीडिया के दिमाग
की नसे तोड़ गया होगा। एंकर स्टूडियो से टैंक के गोले दागना चाह रहे थे और पीएम
गरीबी बेरोजगारी की बातें करे, तब एंकरों को बुरा तो लगेगा ही!
लगा कि सिंधु समझौते
से लेकर हर वो चीजें सरकार करे या ना करे, मीडिया के एंकरों ने ज़रूर कर दी हैं। इन्होंने तो सिंधु समझौता तोड़ कर पूरे
पाकिस्तान को रेगिस्तान वाला इलाक़ा भी बना दिया! इन्होंने चीनी उत्पादों का बहिष्कार करके चीन को बर्बाद भी कर दिया! इन्होंने हर वो कूटनीतिक कदम पहले ही उठा लिए, जिसके बारे में सरकार बैठकें करती रही। सेना तो दो या तीन
किलोमीटर अंदर गई होगी, ये एंकर तो लाहोर व कराची तक घूम आए!!!
वैसे, बैठे बिठाए पाकिस्तानी
ख़ुफ़िया संस्था को मीडिया के इन एंकरों का शुक्रिया भी अदा कर लेना चाहिए। क्योंकि
इन्हीं की बदौलत रिमोट से चैनल बदल बदल कर दुश्मन ने भारत के बंकरों से लेकर भारतीय
फोर्स की पेट्रोलिंग वीडियो तक देखीं! बैठे बिठाए एंकरों ने देश और दुश्मन देश, दोनों को, हर राज्य की सरहदों
पर घुमाया, हर एयरबेस या पोस्ट के ठिकानों की जानकारियाँ दीं, हर उस गाँव की तैयारियों
का जायज़ा दिया, जिनके नाम हम कम, किंतु दुश्मन ज़्यादा जानते होंगे।
लगा कि सुषमा स्वराज को यूएन में क्या बोलना है वो मीडिया से ही पूछ लेना चाहिए। वैसे भी, ब्रिटेन में जनमत के बाद दो दिनों में हमारा मीडिया उनका गार्जियन पढ़ पढ़ कर
ब्रिटेन का विशेषज्ञ तो बन ही गया था! बीच में मीडिया बलूचिस्तान नीति का भी विशेषज्ञ बन गया था। लेकिन, अब की बार तो वो तत्कालीन
जनरलों या पूर्व जनरलों से भी तेज़ दिमाग निकला।
फ़ेसबुक या ट्विटर
पर जिस तरह से हम लोग अपने अपने दिमाग को ठेलकर देश को क्या करना चाहिए इसकी सलाह देते
हैं, वैसा मीडिया करने लगा। नागरिक सोशल मीडिया पर जो करें वो विषय अलग है और देश का
चौथा स्तंभ सोशल मीडिया के रास्ते चल पड़े वो हटकर ही है। कुछेक हज़ार या कुछेक
लाख ट्वीट या स्टेटस से पीएम जंग का फ़ैसला नहीं लेते, और ये बात हम मानते
भी हैं। लेकिन मीडिया ने एक न मानी!!! लगा कि पीएम एंकरों के पैनलों से पूछकर ही अगला फ़ैसला ले लेंगे।
पता नहीं, मीडिया ने युद्ध का
उन्माद फ़ैलाकर सरकार को अकेला छोड़ दिया या फिर बात कुछ और ही थी। लगा कि ब्रह्मोस
के पुर्ज़े-पुर्ज़े का नॉलेज एंकरों के दिमाग में भरा हुआ है। शायद मीडिया ने भी हम
लोगों की तरह पिछले युद्धों का गहन विश्लेषण किया होगा। उसकी सफलताएँ और विफलताएँ मीडिया
ने अपने डिजिटल दिमाग में डाली होगी और फिर वे सरहदों की ओर निकल पड़े होंगे। लेकिन
एंकरों के फेफड़ें हर शाम और हर रात फूलने लगे। लगता कि मुँह से झाग निकल आएगा। हर
रात सोने से पहले यही सोचना पड़ता कि सुबह होने तक मीडिया ने न जाने दुश्मन का क्या
क्या कर दिया होगा!!!
गंभीरता से कहे तो
मीडिया ने अपने रिपोर्टिंग के तौर-तरीकों से ख़ुद को लोगों की नज़रों में या तो सुपरपावर
बना दिया, या फिर सुपरलायर। कभी कभार तो लगा कि भले कई सैनिकों की छुट्टियाँ रद्द की गई
हैं, लेकिन जिनकी छुट्टियाँ रद्द नहीं हुई हैं, वे तो अपने गाँव या इलाकों में होंगे, लेकिन कोई पत्रकार स्टूडियो में या अपने शहर में नहीं होगा। लगा कि सरहदों
पर रिपोर्टरों की बरसात हो गई हो!!! अपना अपना माईक हाथ में लिये रिपोर्टर घूमते रहे। अपनी रिपोर्ट स्टूडियो तक पहुंचाते
रहे। कई बार तो एंकर उनकी रिपोर्ट सुनता ही नहीं और ख़ुद को जो बोलना है वो उस रिपोर्टर
के हवाले से बोल देता!!!
मीडिया पर आरोप भी लगे कि वे टीआरपी के लिए जवानों की जान को जोखिम में डाल रहे
हैं। इसका नज़ारा बारामूला में बीएसएफ के कैंप पर हुए आतंकी हमले
के दौरान नजर आया। दरअसल यहाँ फुटेज के लिए आर्मी की पोजीशन की रिपोर्टिंग लाइट जलाकर
की गई। वैसे भी आतंकी हमलों को लाइव बताकर मीडिया कई बार आलोचना का शिकार हो चुका है।
मुंबई हमला इसका बड़ा उदाहरण है। मुंबई आतंकी हमलों पर सरकार को चैनलों से अनुरोध तक
करना पड़ गया था कि आप ये दृश्य लाइव ना दिखाएँ। देश के सर्वोच्च न्यायालय तक को मीडिया
को नसीहत देनी पड़ी थी। कारगिल युद्ध के समय भी एंकरों की वजह से बवाल उठ खड़ा हुआ
था।
उरी हमला तथा स्ट्राइक
के बाद सरहदों पर सेना के पोजीशन की तस्वीरें और वीडियो बताकर मीडिया ने सीमाओं को
लाँध दिया। लोगों ने लोकशाही के चौथे स्तंभ कर तंज कसते हुए कहा कि स्टूडियो में बैठ
जाने से देशभक्ति तो नहीं आती, लेकिन लगता है कि अक़्ल भी नहीं आती!
एक दौर ऐसा भी आया, जब सचमुच सैन्य कार्रवाई
हुई, उसके पहले कुछेक मीडिया हाउस ने तो जैसे कि मन में आया सो दिखा दिया या छाप दिया।
कई अख़बारों ने तो भारतीय सेना के जवानों को पाकिस्तानी सरहदों में घुसा दिया। कुछेक
ने सीमा पार हेलीकॉप्टर से स्ट्राइक तक करवा दी। किसी अख़बार में 20 दुश्मन मारे गए, तो किसी में 50। इतनी सहजता से रिपोर्टिंग
चलती रही कि हर लिहाज से इसे फोर्थ एस्टेट के दायरे से ख़ुद-ब-ख़ुद बाहर ले गई। ख़बर
सच्ची है या झूठी इसकी पुष्टि करने की चेष्टा भी नहीं हुई। ख़बर सच्ची हो तब भी तत्काल
तो प्रकाशित करना ठीक नहीं होगा इतनी समझ भी नहीं दिखाई गई। हालाँकि पत्रकारों के एक
धड़े ने तथा कुछेक विश्वसनीय माने जाने वाले मीडिया हाउस ने कुछ ख़बरों का खंडन किया
और उन्हें झूठी ख़बर बताया। पत्रकारों के संवेदनशील या कुछ कुछ ज़िम्मेदार धड़े ने
ऐसी रिपोर्टिंग का खुलकर विरोध भी किया था।
लेकिन यह विचित्र
ही था कि मीडिया की ख़बरों का खंडन ख़ुद मीडिया को ही करना पड़ा! कुछ गिने-चुने मीडिया हाउस की शैली का विरोध ख़ुद मीडिया को ही करना पड़ा हो, यह चीज़ ही स्थिति
को स्पष्ट कर देती है।
जब सचमुच सैन्य कार्रवाई
हुई, उसके बाद तो जैसे ऊपर लिखा है वैसे मीडिया ख़ुद ही स्टूडियो में बैठे बैठे जंग
में कूद ही पड़ा। कहा जाता रहा है कि मीडिया लोगों को मनोरोगी बनाता है, लेकिन यहाँ तो मीडिया
ख़ुद ही मनोरोगी जैसा दिखा! गरीबी बेरोजगारी पर जंग लड़ने के पीएम के आह्वान के बाद भी जिस मीडिया के पास
वक्त नहीं था, वे पूरे साजो सामान के साथ कूद पड़े। कभी उम्मीदों को परवान चढ़ाते रहे, कभी ख़बरों को सजाते
रहे या ख़बरों को बनाते रहे। लगा कि सारी सरकारी व ख़ुफ़िया बैठकें मीडिया को साथ
लेकर की जाती होगी! लगा कि सारे ब्लू
प्रिंट एंकरों को साथ रखकर बनाए जाते होंगे। केरल से पीएम के भाषण में गरीबी बेरोजगारी
की जंग की बात सुनकर निराश हो चुका मीडिया उन्माद से भरा हुआ था। वर्ना उस भाषण के
दौरान लगा कि मीडिया को प्रधानमंत्री नहीं चाहिए था, बल्कि जनरल चाहिए था। उनकी आशाएँ पूरी हुई तो उन्माद शुरू हो
गया।
हर उगता सूरज यही चीज़
लेकर आया कि मीडिया युद्ध की उम्मीदों को विश्राम देना ही नहीं चाहता, या फिर उसे ऐसा करने
का ऊपरी आदेश है। लगा कि उरी हमला सिर्फ उरी कैंप पर नहीं हुआ था, बल्कि शायद इन स्टूडियो
पर भी हुआ होगा! मीडिया मौजूदा जनरलों को तो सुनना ही नहीं
चाहता था ऐसा लगा। पूर्व जनरलों और रक्षा विशेषज्ञों के पेनलों के जरिये रणनीतियाँ
स्टूडियो में बनने लगीं। लगा कि शायद मौजूदा जनरलों को युद्ध करना नहीं आता होगा! या फिर मीडिया ने स्वयं ही नया नियम बना दिया था कि युद्ध के समय सरकारें नहीं
बोलेगी, एंकर ही बोला करेंगे! ऊपर से एंकर ये भी
नहीं बताएँगे कि सरकार ने क्या बताया है!!!
शो के दौरान जंग होनी
चाहिए या नहीं होनी चाहिए, हमला करना चाहिए या नहीं चाहिए, ये होगा या नहीं होगा, वो होगा या नहीं होगा, इन सब को लेकर सर्वे किये गए। घंटे भर में सर्वे बताते भी रहे कि इतने फ़ीसदी
लोग ये चाहते हैं और उतने फ़ीसदी लोग वो चाहते हैं। इन सर्वे को वे राष्ट्रीय जनमत
सरीखा बताते रहे। एंकरों को लगा होगा कि शायद यह सर्वे केंद्र के पास जाएगा और फिर
सरकार एंकरों के सर्वे और कुछेक हज़ार या कुछेक लाख हेशटेग या ट्वीट या स्टेटस के जरिये
फ़ैसला ले लेगी।
वैसे एक बात तो हमेशा से साफ दिखी है कि हमारे मीडिया में पाकिस्तान को लेकर जिस
तरह का उन्माद होता है या एंकरिंग होती है, चीन के मामले में समूचा सिलेबस बदल जाता है! जब भी पाकिस्तान की बात आती है तो हमारे एंकर और चैनलों के स्टूडियो से मिसाइल
चलने लगते हैं, लेकिन चीन के मामले में मार दो, फोड़ दो, दिखा दो टाइप सड़क छाप विश्लेषण नहीं होते।
कई सरकार समर्थक या सरकार विरोधी अपने अपने विरोधियों को लेकर एक चीज़ बार बार
कहते रहे थे कि अगली स्ट्राइक हो तब फलां फलां को साथ ले जाना। लेकिन, सभी को छोड़कर अगले
सैन्य अभियान में इन एंकरों को ले जाने की ज़रूरत है। क्योंकि इन्होंने स्टूडियो में
बैठे बैठे फेफड़े इतने फुला लिए कि सभी को छोड़कर इन्हें एकाध मोका देना ज़रूरी बनता
है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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