बिलकुल सीधा सवाल है कि... राष्ट्रीय त्यौहारों की शाम से ही तिरंगे सड़कों पर
बिखरे हुए क्यों मिलते हैं? या फिर निजी जगहों पर फहराए गए तिरंगे अपमानजनक स्थिति में क्यों पाए जाते हैं? सवाल सीधा है। सवाल
के अंदर मतलब भी कई सारे हैं और मक़्सद भी कई सारे हैं। जिस तिरंगे की क़स्मे खाकर हमारे
जवान सरहदों पर केसरिया रंग बिछा देते हैं, वह तिरंगे अपमानजनक स्थिति में क्यों पाए
जाते हैं?
सम्मान रख नहीं सकते तो लगाते या फहराते ही क्यों हो? दरअसल वो तिरंगे, जो अपमानजनक स्थिति
में पाए जाते हैं, साबित कर जाते हैं कि तिरंगा प्लास्टिक का नहीं बना था, लेकिन देशभक्ति प्लास्टिक
टाइप निष्ठा से लबालब ज़रूर होगी।
इस लेख के साथ जो प्रतीक
तस्वीर है उसे खुशी से इस्तेमाल नहीं किया गया। बल्कि ऐसी तस्वीरें हम नागरिकों की
प्लास्टिक टाइप निष्ठा का सबूत है। तिरंगे का राजनीतिक इस्तेमाल, तिरंगे का व्यापारिक
इस्तेमाल, इन सब आरोप-प्रत्यारोप के बीच तिरंगे की ऐसी तस्वीरें वो चीजें भी बयाँ कर जाती
हैं, जो शायद सतह के नीचे दबी हुई हैं।
तिरंगे का आकार अब
बड़ा होने लगा है। हमें नहीं पता कि देशभक्ति का साइज़ बढ़ा है या फिर केवल तिरंगे
का आकार! कार के डैशबोर्ड पर लगने वाला तिरंगा या
राष्ट्रीय त्यौहारों के दिन बच्चों के हाथों में दिख जाने वाला तिरंगा अब तो शायद घर
की छतें या बालकनी के लिए ही बनाया जाता होगा। अनजाने में तिरंगे का अनादर भी उतना
ही बढ़ा है, उसमें भी कोई शक नहीं। राष्ट्रीय त्यौहार या कार्यक्रमों के ख़त्म होने के बाद
पूरा मैदान खाली हो जाता है, केवल तिरंगा रह जाता है। प्लास्टिक के तिरंगे दूसरे दिन कहाँ कहाँ रखे हुए मिल
जाते हैं, कौन नहीं जानता?
देश का बचपन... देश
का भविष्य... जैसे सुनहरे अलंकरण पाने वाले बच्चे ही ज़्यादातर तिरंगे बेचते हुए दिखाई
देते हैं। चौराहों पर, ट्रैफ़िक पॉइंट पर राष्ट्रीय त्यौहारों के दिन ये बच्चे तिरंगे बेचकर... या यूँ
कहे कि राष्ट्रीय प्रतीक का आर्थिक वितरण करके, अपने पेट की अगन बुझाने में लगे रहते हैं। सोशल मीडिया पर उनसे ही तिरंगा ख़रीदने
को लेकर नियमित आंदोलन चलते रहते हैं। ये आंदोलन उतनी ही प्लास्टिक टाइप निष्ठा से
चलते हैं, जैसे कि विदेशी चीजों के बहिष्कार को लेकर चलते रहे हैं।
भारत का राष्ट्रीय
झंडा और चीन का सामान... ये दोनों चीजें देश के हर घर में पहुंचने के लिए इन्हीं बच्चों
पर भी निर्भर होते हैं। हमारी नज़रों में या हमारी लिखावट में, ये बच्चे भारत भाग्य
विधाता हैं। और ये भारत के राष्ट्रवाद का सर्वोच्च प्रतीक वितरित करने का सबसे बड़ा ज़रिया भी है।
तिरंगा हम सभी को भावुक
कर देता है। इसे आसमान में फहराता देख लगता है कि हमारी तकलीफ़देह ज़िंदगी से दूर होकर
हम स्वयं भी इसके साथ लहरा रहे हो। तिरंगा जोश भरता है, उत्साह भरता है, उन्माद पैदा करता
है, भावुक बनाता है, राष्ट्रवाद जगाता
है, समर्थन में इज़ाफ़ा
करता है। तिरंगा वो सब कुछ करता है, जो कोई और प्रतीक कर नहीं पाता।
सड़कें तंग हो गई हैं, दिल सिकुड़ गए हैं, लेकिन तिरंगा बड़ा
हो गया है! हर 26 जनवरी और हर 15 अगस्त की सुबह देख लें। क्या शानदार सुबह होती है वो। हर राज्य, हर शहर और लगभग तमाम
शिक्षा संस्थानों में जोश भरने वाला मंज़र होता है। प्रजासत्ताक दिन पर राजपथ की सुबह
तो बेहद शानदार होती है। समूचा दिल्ली ट्रैफ़िक में थम जाता है, लेकिन राजपथ और उसके
आसपास के इलाक़े तीनों रंगों में बहते हुए दिख जाते हैं। राष्ट्रीय त्यौहारों पर राजपथ
की सुबह और अटारी-वाघा बॉर्डर की शाम... दोनों चीजें दिल में भरने लायक पल ज़रूर हैं।
कुछेक बार राजपथ की
सुबह देखी है। दोपहर तक राजपथ से जुड़े हुए हर मार्ग का मंज़र देखा है। क्या नज़ारा
होता है वो। तिरंगे ही तिरंगे... बड़े बड़े तिरंगे... छोटे छोटे तिरंगे... लगता है
कि दुनिया तीन रंगों की ही है। कारों पर तिरंगे, बाइक में तिरंगे, चीखना, चिल्लाना, नारे लगाना, उन्माद, जोश, संयमित देशभक्ति से लेकर हद पार करती भावनाएँ... सब कुछ दिख जाता है।
परेड निकलती है तब
लगता है कि हम उसे देख नहीं रहे, बल्कि उस परेड में हम भी शामिल हैं। फौजियों की टोलियाँ जब अनुशासित तरीक़े से
कदम से कदम मिलाकर निकलती है, लगता है कि हम भी उसी राजपथ पर उनके साथ चल रहे हो। हर झाँकी, हर टोलियाँ, सेना समूहों द्वारा
चमकदार बूट के साथ ताल से ताल मिलाकर चलना, आसमान में ग़ज़ब के नियंत्रण के साथ उड़ते जहाजों को देखना, सब कुछ उन पलों में
अविस्मरणीय अनुभव देता है। राजपथ पर अनुशासित तरीक़े से टोलियों को चलता देख लगता है
कि दिल की धड़कनें भी खुद-ब-खुद ताल से ताल मिला रही हो।
लेकिन शाम होते ही
सड़कों पर, चौराहों पर सच्चाई मुँह फाड़े खड़ी दिखाई देने लगती है। सुबह जो लोग बड़े बड़े
तिरंगे हाथों में थामकर निकला करते थे, वे गोलगप्पे के ठेलों पर दिखते हैं। कारों में या बाइकों में सुबह जो तिरंगे फहराते
हुए देखे थे, उसके मालिक अब ठिठुरने लगे थे। छोटे तिरंगे सड़कों पर बिखरे मिलते हैं। वो बच्चे, जो चौराहों पर तिरंगा
बेचने सुबह खड़े थे, शाम को खाने का इंतज़ाम करने के लिए निकल पड़ते हैं। महसूस होता है कि जैसे एक
छुट्टी ख़त्म हुई और देश को कल से फिर उसी चौराहे पर लौटना है। लगता है कि... “आज सुबह ही देश प्रजासत्ताक
(या फिर स्वतंत्र) बना था और शाम होते होते फिर लापरवाह बन गया।”
वैसे सुबह तिरंगा फहराते
हुए देखना जितना दिलचस्प है उतना दुखद शाम के मंज़र भी हैं। दोपहर तक शायद सभी देशप्रेम
की फ़िल्मों में डूब जाते हैं। शायद देर रात तक टेलीविज़न देशप्रेम का रंग बिखेरनी की
कोशिशों में लगा रहता है। कहीं पर ब्रिगेडियर सूर्यदेवसिंह गेंडास्वामी को ख़त्म करके
देशप्रेम उभारने की कोशिश करते दिखते हैं, तो कहीं लोंगेवाला की बहादुरी की कहानियाँ कुछ-कुछ खालीपन को भरने की कोशिशों
में लगी रहती हैं। वो शाम का खाना दिल्ली में खा नहीं पाते और हम खुश होकर या दिल
में अजीब से गर्व के साथ इस दिन की छुट्टी का डिनर कर लेते हैं! सुबह से देशप्रेम के गाने सुन कर कोने में पड़ी देशभक्ति जग उठी होती है, जो सिनेमा के पर्दे
की कहानी से दिल में ज्वाला बन कर धधकती है।
उधर शाम को गोलगप्पे
के ठेलों पर भीड़ बढ़ने लगती है। चौराहें लोगों से सराबोर होने लगते हैं। शाम होते
होते सुबह का फहराया गया तिरंगा गोलगप्पों के ठेलों पर आकर ठहर सा जाता है। लगता है
कि छुट्टी ख़त्म होने वाली है और इसका जी भर के लुत्फ़ उठाना है। वैसे रात को टेलीविज़न
पर राजपथ की परेड के दृश्य फिर एक बार देशभक्ति को थोड़ी सी चिनगारी ज़रूर लगा देते
हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रजासत्ताक का जश्न तथा स्वतंत्र होने का
गौरव... और फिर गहरी नींद... दूसरे दिन देश उसी चौराहे पर लौट जाता है, जहाँ से वो अगले दिन
सड़कों पर उतरा था!
अरसे से लिखा जाता
रहा है कि साल में दो दिन ही हम शायद तिरंगे से इतना नज़दीक़ी से जुड़ पाते हैं। कइयों
ने सच ही लिखा है कि ये दो दिन ऐसे होते हैं जब हम भारतीय होते हैं, हिंदुस्तानी होते
हैं। दूसरे दिन से फिर एक बार धर्मों में और जातियों में बंट जाते हैं। फिर हम हिंदुस्तानी
नहीं रहते। फिर हम गुजराती, मराठी, बंगाली, बिहारी हो जाते हैं। फिर उससे आगे... और फिर उससे आगे। यानी कि देश फिर उसी चौराहे
पर लौट जाता है, जहाँ से वो राजपथ की ओर जाने के लिए निकला था।
छोटे थे तब स्कूल में
आत्मकथा लिखने का चैप्टर आता था। सोचता हैं कि “तिरंगे की आत्मकथा” क्या होगी। तिरंगा अपनी आत्मकथा में शायद कुछ यूँ लिखेगा कि, “... अपने ख़ून से, बलिदानों से, त्याग से, समर्पण से सैकड़ों
लोगों ने मुझे बनाया या सिंचा और मुझे आसमान में फहराया... और फिर मेरे साये के तले
करोड़ों लोगों ने अपनी सरजमीं को चूमा... वो दौर भी मैंने देखा जब मुझे आसमान में शान
व गौरव से फहराते हुए रखने के लिए कई जाँबाजों ने अपनी लाशें सरहदों पर बिछा दीं और
मुझे सलामत रखा... लेकिन आज मेरे देश के लोग ही मुझे सड़कों पर छोड़े जा रहे हैं...”
तिरंगा खुद ही शायद
सोचता होगा कि आखिर मेरा वजूद क्या है। तिरंगा महसूस करता होगा कि मैं भारतीयों का
हूँ, हिंदुस्तानियों का हूँ... लेकिन वो भारतीय आखिर हैं कहाँ? तिरंगे को अपने वो
भारतीय साल में दो दिन के लिए चंद पलों के दौरान दिख जाते हैं और फिर तिरंगा भाजपाई, कांग्रेसी, आपिये और ऐसे ही अनगिनत
लेबलों के तले अपने हिंदुस्तानियों को ढूंढता फिरता है। बस ऐसे ही तिरंगा सैकड़ों जातियों-उपजातियों
में अपने बच्चों को ढूंढने की कोशिशों में लगा रहता है। तिरंगा खुद को मीडिया में, राजनेताओं में, लोगों में या फिर
सोशल मीडिया में पाता है, लेकिन उसे तलाश है अपने बच्चों की, जिसके दिल में उसे रहना है, ना कि यूँ सड़कों पर।
वैसे इन दोनों राष्ट्रीय
त्यौहारों के दिन सुबह-सुबह सड़क से गुज़रते हैं तो रास्ते में पड़ने वाले संस्थानों
में छोटे बच्चे अपने तिरंगे के लिए आ चुके होते हैं। शायद यही बच्चे ही पूरे साफ़ मन
से तिरंगे के लिए आते हैं। ये बच्चे खुद को न जातियों में बांटे हुए होते हैं, ना ही पार्टियों में।
वरना हम जैसे कथित मैच्योर और देशभक्त नागरिकों में तिरंगा खुद को ढूंढ ही लेता।
कई जगहों पर आधुनिक
म्यूज़िक सिस्टम के ताम-झाम के साथ देशभक्ति के गानें बजना शुरू हो चुके होते हैं। ऐ
मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी... से सुबह शुरू होती है और शाम को लगता है कि हमने आँख
में पानी भरने का मतलब कुछ उलटा ही समझ लिया था। शाम तक तो पानी इतना भर चुका होता
है कि चौराहों पर गोलगप्पे के ठेलों पर जाकर ही आँखों से निकलता है!!! एक तो पूरे साल में दो बार देशभक्ति जगती होती है, ऊपर से बगैर देशभक्ति
के गानों के हमारी देशभक्ति जगती ही नहीं यह नोटेबल नोट टाइप सब्जेक्ट है! तिरंगा, बॉर्डर, माँ तुझे सलाम, एलओसी जैसी फ़िल्में देखकर तिरंगे के लिए हम जान दे देंगे, फिर भले 2 बीधा जमीन के लिए
अपनों को ही हम मार डालते हो!!!
सोशल मीडिया में इन
दिनों डीपी बदल बदल कर डिजिटल दुनिया को भी रंगों से सराबोर कर दिया जाता है। गूगल
वाले तो बड़े व्यापारी से हो गए हैं। हर भारतीय त्यौहारों पर गूगल का डूडल सा कर देते
हैं। राष्ट्रीय त्यौहारों पर अब गूगल वाले भी भारतीयता की गूगली फेंका करते हैं। सोशल
मीडिया के डीपी बदल जाते हैं। कहीं पर भारत माता, कहीं पर तिरंगे, कहीं पर कोई ऐतिहासिक शख्सियतें। जैसे सिडुअल मैसेज की सेवा होती है, वैसे यहाँ सिडुअल
डीपी की सेवा आ जाए तो हम जैसे कइयों को आसानी हो जाएगी। फिर तो हम सिडुअल डीपी सेट
कर देंगे। सुबह अकाउन्ट खुलते ही वो डीपी ही सामने से याद दिलाएगा कि आज प्रजासत्ताक
दिन है या स्वतंत्रता दिन।
वैसे इन दो नामों में
संस्थाएँ, पार्टियाँ या बड़े बड़े नेता भी गड़बड़ी कर जाते हैं। सभी को पता होगा कि प्रजासत्ताक
और स्वतंत्रता दिन में अनेकों बार गड़बड़ी हो चुकी हैं। 26 जनवरी को हैप्पी इंडिपेंडेंस
डे की शुभकामनाएँ आ चुकी हैं! लेकिन हम नागरिक भी
इसमें पीछे नहीं है। उत्साह में 26 जनवरी के दिन तिरंगे के साथ हैप्पी इंडिपेंडेंस डे वाले फ़ोटो चिटका जाते हैं।
कमेंट में कोई याद दिलाता है फिर ऐडीटींग हो जाता है। नेता लोग ग़लती से ग़लत शुभकामनाएँ
देकर बयान वापस खींच लेते हैं और हम नागरिक स्टेटस को एडिट कर लेते हैं!
राजपथ का जश्न या राज्यों
में मुख्यमंत्रियों का जश्न... फिर स्कूलों या कॉलेजों में तिरंगे का जश्न। लेकिन राष्ट्र
गान का पठन करने के लिए नेताओं को या नागरिकों को बोलिए, तब बहुत कुछ सामने
आ जाता है।
जीएसटी बिल पारित हुआ
फिर एक दृश्य टेलीविज़न पर देखा था। कौन सी विधानसभा थी वो तो याद नहीं रहा, पर वहाँ के किसी नेता
को जीएसटी का पूरा नाम तक नहीं पता था! हमने ऐसे कई दृश्य देखे हैं, जहाँ हमारे बड़े बड़े नेताओं को, हमारे बॉलीवुड के बड़े बड़े कलाकारों तक को राष्ट्र गान कंठस्थ नहीं होता! हम सब भी ऐसे ही गये-गुज़रे ही हैं। अच्छा है कि स्कूलों में गाया जाता था, वर्ना...। वैसे राष्ट्र
गान कौन सा है, और राष्ट्र गीत कौन सा है, इसी कश्मकश में हम लोग अब तक फँसे हुए हैं (या फिर फँसाए गए हैं)।
राष्ट्र गान जन गण
मन है या वंदे मातरम्... ये भी कइयों को नहीं पता ऐसे मीडिया रिपोर्ट आपने अनेकों बार
देखे होंगे। देखिए न... राष्ट्र गान कितने सेकंड में ख़त्म होना चाहिए इसकी जानकारी
ऐसे दी जाती है, जैसे कोलंबस ने अमेरिका के बाद नया कुछ ढूंढ लिया हो। यानी कि, जो जानकारी सामान्य
सी होनी चाहिए उसे भी ऐसे दिखाना पड़ता है! क्योंकि वो हमें सचमुच पता ही नहीं होता! हमारे नेता तो जीएसटी का पूरा नाम नहीं बता पाते, जन गण मन या वंदे
मातरम् कैसे पूरा कंठस्थ होगा इन्हें!
उल्टे तिरंगे फहराना
हमारे यहाँ अब तो आम बात सी घटना हो चुकी हैं। बस होता ये है कि जब अपने उल्टा तिरंगा
फहराते हैं तो उसे महज एक ग़लती बताने की कोशिशें होती हैं और जब विरोधी करते हैं तो
उसे राष्ट्रद्रोह गिनवाने की जद्दोजहद शुरू होती है। पार्टियों की मुहब्बत में हम लोग
पागल से हो चुके हैं। हमारे गुजरात में ऐसे लोगों के लिए गेलहागरा नामक लफ़्ज़ इस्तेमाल
होता है।
वैसे छोटे शहरों या
छोटे गाँवों को राष्ट्रीय त्यौहारों के दिन देख लीजिएगा। दूर-दराज़ के इलाक़ों की सुध
इन दिनों ले लीजिएगा। जहाँ स्कूल होता है वहाँ सुबह सादगी से जश्न मन जाता है। हम तो
कहते हैं कि अच्छा है। बिना दिखावटी जोश या प्लास्टिक टाइप उन्माद के सादगी से जश्न
मन जाता है वहाँ। लेकिन इस देश में कई ऐसे इलाक़े हैं, जहाँ स्कूल ही नहीं
हैं। कई इलाक़े ऐसे भी हैं, जहाँ तिरंगे फहराए नहीं जाते। इन स्वतंत्र व प्रजासत्ताक इलाक़ों में मुश्किल से
सुबह के अख़बार दोपहर तक पहुंचते हैं। अखबारों में तिरंगे की तस्वीरों वाले विज्ञापन
इन्हें महसूस कराते हैं कि आज कोई राष्ट्रीय त्यौहार है।
कम होंगे ऐसे इलाक़े, लेकिन उतने कम नहीं
हैं, जितना आप मानते होंगे। लेकिन वो विषय का दूसरा छौर होगा। लिहाजा उसे आप पर छोड़
देते हैं।
किसी शायर या कवि की
एक बड़ी मशहूर और दिल को छू लेने वाली पंक्तियाँ हैं कि, “बिकने लगा है तिरंगा
फिर से चौराहों पर, लगता है आज़ादी-ए-जश्न आया है।” यह छोटी सी पंक्ति स्थिति को अच्छी तरह से बयाँ कर जाती है। हमें अब तक लगता
था कि चीन ने हमारे बाज़ार पर ही कब्ज़ा किया हुआ है, लेकिन देशभक्ति या
राष्ट्रीय भावनाएँ भी चुपके-चुपके चाइनीज हो चली हैं ये सीधे-सीधे पता ही नहीं चला।
बड़े शहरों में छुट्टी
के दिन शाम को चौराहों पर भीड़ लगने लगती है। उत्तरायण की तरह शाम को तुक्कल छोड़ने
का नया फ़ैशन शुरू हो चुका है। गुब्बारों को सुबह छोड़ा जाता है, शाम को तुक्कलों को।
लेकिन तुक्कल पर मनाही आने के बाद कुछ नियंत्रण ज़रूर है। शाम को फास्ट फ़ूड की जमकर
बिक्री होती है। अच्छी स्थिति वाले परिवार रेस्तरां में जाते हैं। लेकिन यह सब राष्ट्रीय
खुशी में नहीं होता। यह सब छुट्टी की वजह से होता है!
प्लास्टिक टाइप नागरिकों
की बायोग्राफी लिखने से पहले हमें उन लोगों के नज़़रिये को भी समन्वित कर लेना चाहिए, जो प्लास्टिक टाइप
नहीं हैं, लेकिन नागरिक हैं ज़रूर। ये वो लोग हैं जो साल के 365 दिन, दिन के हर घंटे अपने
तथा अपने परिवार की ज़िंदगी के लिए जूझते रहते हैं। जब पूरा देश सुबह से शाम तक राष्ट्रीय
त्यौहार में सराबोर होता है, मोबाइल या कंप्यूटर के ज़रिए राष्ट्रीय भावना बिखेर रहा होता है, तब भी ये लोग मज़बूरन
ज़िंदगी की गुज़र-बसर में लगे हुए होते हैं। ज़िंदगी सँवारना इनका मक़्सद नहीं होता, बस गुज़र-बसर करना
ही इनका मक़्सद होता है। क्योंकि सँवारने के लिए उनके पास सपनों के अलावा शायद ही कुछ
और हो।
जब भी तिंरगा फहराकर
राष्ट्र गान गाए और देशभक्ति का गौरव महसूस करें, ऐसे नागरिकों के बारे में एकाध पल ज़रूर सोच लें। अस्पतालों
में भ्रष्टाचार या कोताही के चलते मारे जा रहे बच्चे अपने भारत को ठीक से देख पाते
उससे पहले तो देश के कुछ कड़वे सच उनकी जिंदगियाँ ख़त्म कर देते हैं।
वे लोग भी हैं जो ज़िंदगी
सँवर जाएगी उसके सपने देख सकते हैं, क्योंकि उनके पास इसे पूरे करने के संसाधन या मौक़े होते हैं या ऐसी ठोस उम्मीदें
होती हैं। लेकिन ये भी उसी समुदाय से हैं, जिन्हें अगले महीने का जुगाड़ करना है, या आने वाले पारिवारिक प्रसंगों का। ये भी खुद को तिरंगे के दिन तिरंगे में सराबोर
कर देना चाहते होंगे, लेकिन ये लोग करे भी क्या।
ये वे लोग हैं जिन्हें
एक ही लफ़्ज़ में कुछ यूँ बया किया जा सकता है कि – स्कूलों में भविष्य बनाने के नाम पर वर्तमान का बजट उलट-पुलट
हो जाता है और अस्पतालों में वर्तमान बचाने के नाम पर भविष्य का बजट उलट-पुलट हो जाता
है। इन्हें बजट के नज़रिये से ही हर महीना गुज़ारना होता है। ये लोग बड़े दुख से एक बात
कहा करते हैं कि जब छोटे थे तब सच्चे दिल से और खुशी से तिरंगा फहराने जाया करते थे, आज जाते भी हैं तब
भी कहीं न कहीं अंदर अगले महीने के जुगाड़ का ही टेंशन होता है।
इन लोगों की बात यहाँ
इसीलिए लिख दी, ताकि तिरंगा फहराने से पहले या देशभक्ति के नाम पूरा साल फेफड़े फाड़ने से पहले
या उसके बाद, हम इनके बारे में सोचे या फिर असमानता नामकी समस्या को समझने की कोशिशें करें।
ऐसा कुछ ना करना हो तो कम से कम यह समझ लें कि सड़क पर तिरंगा छोड़ने वाले लोग ये नहीं
हैं।
वैसे यहाँ एक दृश्य
लिखना काफ़ी दिलचस्प रहेगा। वो पसंदीदा मंज़र रहा है। और वो है शाम को तिरंगे को सम्मानपूर्वक
नीचे उतारना। पूरा देश सुबह विशालकाय तिरंगों को फहराते हुए देखता है। लेकिन उसी तिरंगे
को पूरी इज़्ज़त के साथ समेटते हुए देखना भी काफ़ी दिलचस्प है। जब देश शाम को अपने अपने
तौर पर, घरों में या चौराहों पर, टेलीविज़न की फ़िल्मों में या गोलगप्पे के ठेलों पर जमा हुआ होता है, ठीक उसी वक्त कुछ
लोग बड़ी शिद्दत से, बड़ी इज़्ज़त से उस तिरंगे को समेटते हैं।
सुबह तो पूरे देश की निगाहें फहराए जाने वाले तिरंगे या उसको फहराने वाली शख़्सियतों पर होती हैं। लेकिन हर उस तिरंगे को जो लोग इज़्ज़त के साथ संभालकर समेटते हैं उन पर
निगाहें कभी नहीं रहती। वो लोग बड़ी शिद्दत से और इज़्ज़त से तिरंगे को संभालकर समेटते
हैं। जबकि शायद ठीक उसी वक्त देश की सड़कों पर प्लास्टिक के तिरंगे हमने बिखेर दिए
होते हैं!!!
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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