राम की जगह रामा... रावण की जगह रावना...
रामायण की जगह रामायना... महाभारत की जगह महाभारता... और तो और, अब तो योग की जगह
योगा कहने का फ़ैशन आ चुका है। फ़िलहाल बात करते हैं दशहरा की। रावण को जलाना भी एक
फ़ैशन ना बन जाए तब तक सब ठीक ही मान लीजिए।
इन दिनों व्हाट्सएप शांत नहीं रह
पाता। फ़ेसबुक की वॉल एक-दो सिर तक नहीं रुकती। विचार राम से भी आगे निकल जाते हैं।
सब कुछ रावण पर आकर ठहर जाता है। दिन तो राम का होता है, लेकिन हर मिनट
रावण छाया रहता है। छाया रहना चाहिए, लेकिन अवगुणों या अवगति को लेकर। किंतु
आजकल रावण के दुर्गुण से ज़्यादा उसके सद्गुण घूमते हैं। मैसेजों में या वॉल में या
बातों में, रावण का
चरित्र बदल सा गया है। रावण की जाति भी नहीं छोड़ी जाती। पूरा दिन रावण छाया रहता है।
जैसे रावण न हो गया, घास हो गया। इधर से काटकर आये नहीं कि उधर उग जाता है।
इन दिनों स्मार्ट फ़ोन के स्मार्ट
मैसेज में राम कम दिखाई देते हैं। सभी अपने अपने ‘लघू शोधपत्र’ तकनीक के ज़रिए
एक दूसरे पर ठेलते दिखाई देते हैं। यूँ कहे कि एक दूसरे की बोरियत फ़ोन्स के ज़रिए
एक दूजे पर ठेली जाती है। कोई लिखता है, “मेरे अंदर का रावण मरे या न मरे, राम ज़िंदा रहेंगे।” कोई लिखता है, “बुराई का सबसे बड़ा
प्रतीक रावण तो ब्राह्मण था, क्या ये एंटी ब्राह्मण आंदोलन था?” माहौल के हिसाब
से कोई लिख देता है, “रावण का वध भारत का सबसे पहला सर्जिकल स्ट्राइक था।” शायद इससे पहले
कोई दानव वध नहीं हुआ होगा। या फिर जो दानव वध हुए उन्हें भी आज के दौर में हो रहा
है वैसे, आधिकारिक
रूप से घोषित नहीं किया गया होगा।
कोई लिखता है - मैंने अंदर के रावण
को मार दिया, मेघनाद
को मार दिया, पर कुंभकर्ण
नहीं मर रहा। मैसेज में कार्टून का मुख्य किरदार गहरी निंद में मुश्कुरा रहा होता है।
कोई लिखता है - विभीषण रावण के साथ रहकर भी नहीं बिगड़े, बिगड़ना सोच पर
निर्भर करता है, ना कि
संगत पर। कोई रामायण के उस काल के संवाद न जाने कहाँ से ढूँढ लाते हैं और लिखते हैं
- जब रावण मृत्युशय्या पर था, तो वो राम से कहता है कि आप के भाई आप के साथ थे इसलिए आप जीते, मेरे भाई ने मेरा
साथ छोड़ दिया इसलिए मैं हार गया। जहाँ तक पता है, रावण का एक ही भाई उसके ख़िलाफ़
था, बाकी उसके
साथ थे। जबकि राम के दोनों भाई उस वक़्त उनके साथ नहीं थे। ख़ैर, इसी बहाने कुछ
लोग अपने घर के झगड़े निपटाने में लगे हो तो कोई बात नहीं। वैसे भी ज़माना सीताराम
से जय श्री राम तक तो पहुँच ही चुका है।
रावण पर पीएचडी करने वालों की कोई
कमी नहीं है। कोई कहता है कि रावण के दस सिर नहीं थे, बल्कि उसके पास
लोगों को भ्रमित करने की शक्ति थी और इसी शक्ति की मदद से वो लोगों के बीच दस सिर का
भ्रम पैदा कर देता था। हमें नहीं पता कि ऐसी पीएचडी के लिए लोगों ने किन सोर्सिज़ और
रेफरेंस का सहारा लिया होगा। वैसे अरसे से कहा जाता है कि रावण छह दर्शन और चारों वेद
का ज्ञाता था और दस सिर उसके दस गुणों के प्रतीक मात्र थे।
यूँ तो हमारे भारत में, चाहे ग्रंथ हो, कहानियाँ हो या
कुछ और पारंपरिक चीज़ें हो, हर किसीका अपना एक दृष्टिकोण था। यह दृष्टिकोण गहन था, वैज्ञानिक था, सामाजिक था, सांस्कृतिक था, राजनीतिक था, स्थिति अनुसार
था। कुछ लोग अपनी पूरी ज़िंदगी इसी दौड़धूप में गुज़ार देते हैं कि ये सारी चीज़ें
सचमुच हुई थीं या महज़ एक कल्पना थीं। किंतु इनसे जो चीज़ें सिखाने की या समझाने की
कोशिश की गईं वो ना ही मीडिएटर समझाते हैं और ना ही लोग समझते हैं। हर धर्म के अपने
जो चरित्र हैं, उनके साथ
जुड़ी जो चीज़ें हैं, तमाम में कुछ न कुछ सामाजिक और व्यवस्थापन संबंधी दृष्टिकोण
शामिल रहे हैं। वैसे रामायण थाइलैंड में भी है, जहाँ चरित्र तो वही हैं, किंतु दृष्टिकोण
अलग है। थाइलैंड की छोड़ो, भारत में ही विविध रामायण हैं।
ख़ैर, किंतु इस दिन रावण
का तो पता नहीं, रावण के
पुतले ही जलाए जाते हैं। पुतलों की अपनी एक दुनिया है। वैसे किसी अदाकार ने कहा था
कि इस रंगमंच के हम पुतले ही हैं। लेकिन रावण का पुतला कुछ ज़्यादा ही महत्व रखता है।
यह एक दिन ऐसा है जो रावण के नाम रजिस्टर्ड है। था नहीं, लेकिन हो चुका
है।
एक दौर था जब रावण वध क्यों हुआ, उसकी मृत्यु के
कारण, उसकी सामाजिक
व सांस्कृतिक समझ व्याप्त थी। रामलीला का अपना महत्व था। आज रावण से ज़्यादा उसके संवाद
प्रचलित हो चुके हैं। उसका पुतला बनाना एक कला है। जिसमें गुस्सा, उसकी आँखें, उसकी मूँछें और
तमाम सिरों की रचनाएँ महत्व रखती हैं। ज़रूरत के हिसाब से पुतले बनाए जाते हैं। शाम
को रामलीला होती है और जलेबी फाफड़ा, रबड़ी या रसगुल्ले का लुफ़्त उठाया जाता
है। दिन भर व्हाट्सएप या फ़ेसबुक दस सिर वाले रावण के इर्द-गिर्द घूमता है।
ऐसे अनेका अनेक संदेश मिल जाएँगे।
लोग 1947 के पहले
का या 1947 के बाद
का इतिहास तोड़ते-मरोड़ते दिखाई देते थे, लेकिन कुछ संदेश को देखकर लगता है कि बात
तो अब इससे भी आगे पहुँच चुकी है। लोकउत्सवों को लेकर हमारी ‘कल्पनाएँ कितनी
व्याप्त’ हैं और
उसके ‘विचार कितने
सीमित’ वो दिखाई
देता है। रावण की और राम की राजनीतिक व सामाजिक व्याख्याएँ होने लगती हैं। सीताराम
से जय श्री राम तक पहुँचने का असर भी दिखाई देता है। महिला सम्मान से लेकर महिला अपमान
या अत्याचार तक के ज़िक्र ज़रूर होते हैं।
लोकउत्सवों के दिन हम सामाजिक सद्भावना
का लोड कुछ ज़्यादा ही बढ़ा देते हैं। साल भर नफ़रत फैलाओ और एक दिन उसे जला दो। फिर
अगले साल जलाने के लिए साल भर फिर से नफ़रत को ढूँढ ढूँढ कर इक्ठ्ठा करते जाओ।
जैसे डिजिटल आरती और डिजिटल प्रार्थना
का ज़माना है, आगे डिजिटल
रावण दहन के कार्यक्रम होने लगे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कुछ जगहों पर ऐसे गतिविधियाँ
सुनी-देखीं इसलिए यह याद आया। फिर तो व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में यह डिजिटल प्रक्रिया
भी आदान-प्रदान होने लगेगी। जिसको जैसा पसंद हो वैसा रावण बनाया और जिससे पसंद हो उससे
जला दिया।
कहीं फाफड़ा जलेबी से समापन होता
है, कहीं रबड़ी
जलेबी से, कहीं रसगुल्ले
से। कहते हैं न कि खाने से कईं सारे दर्द गायब हो जाते हैं! इस दिन पढ़ने वाले छात्र
कम मिलते हैं, सभी लिखने
वाले अध्यापक ही दिखाई देते हैं! स्मार्ट फ़ोन डिजिटल संत हो जाता है। लोगों का क्या
कहे, हमारे
पीएम भी उसी रंग में दिखाई देते हैं और जटायु और रामलीला को आतंकवाद की प्रथम लड़ाई
बता देते हैं। हो सकता है कि आने वाले सालों में रामायण या महाभारत की मूल समझ ही बदल
दी जाए।
शाम होते होते रावण के केवल दस सिर
नहीं रह जाते। गंदगी, भ्रष्टाचार, महंगाई, ग़रीबी, बेरोजगारी, अनैकिता, पाकिस्तान, आतंकवाद सब कुछ
शाम तक जला दिया जाता है। ऐसा लगता है कि लोग सड़कों के किनारे, झाडियों में बचे
खुचे रावण को ढूँढ रहे होंगे। पोकेमॉन टाइप रावण खोजो प्रतियोगिता चलती है। कहीं से
किसी टाइप का रावण बचा खुचा मिल जाए तो जला दो। अगर बरसात अच्छी रहती है, तो फिर से ये फ़सल
ज़िंदा हो जाएगी, अगले साल
फिर से जला देंगे।
जला ही देंगे वाली भावनाएँ दिखाती
हैं कि लोग सचमुच रावणों से बहुत परेशान हैं। राम होते हुए भी रावणों ने लोगों को परेशान
करके रखा है यह सतह पर दिखाई देता है। लेकिन रावण को भी हम लोगों की उस नज़र का शुक्रगुज़ार
होना चाहिए, जिसमें
हम उसके गुणों का ख़याल रख लेते हैं। वैसे यह बात साबित करती है कि हमारी संस्कृति
या हमारी नज़र बड़ी व्याप्त और बहुधा है। हम बुराई को भी मौक़ा देते हैं और उसके अंदर
छुपी हुई अच्छाइयों को भी देखते हैं। यह बात दिल से लिख रहे हैं।
हमारा यही नज़रिया हमें व्याप्त दृष्टि
प्रदान करता है, जिससे
हम कई मोर्चों पर प्रभावी ढंग से आगे बढ़े। यह साबित करता है कि हम पूरी तरह अकड़ू
प्रकृति वाले नहीं हैं, हमारी प्रकृति विकासशील पथ पर बढ़ने के लिए उपयुक्त है। हम
अपने ही अंदर सवालों को उत्पन्न होने का मौक़ा देते हैं। हम सवालों को दरकिनार नहीं
करते। जहाँ सवालों को सतह पर नहीं लाया जाता, वहाँ क्षीण होना निश्चित सा है। वैसे इस
खुलेपन में या इस तथाकथित व्याप दृष्टि में मूल सवालों से हटकर नए उत्तरों को ढूँढ
कर ले आना असहज सा भी लगता है।
यूँ तो रावणों से परेशान होने का
मौसम कभी मंदी की चपेट में नहीं आता और ना ही इसे किसी की नज़र लगती है। होलसेल में
रावण मिल जाते होंगे, तभी तो इतने बड़े देश की हर गलियों में, मोहल्ले में, रावण जलता है।
रावणों को जलाना परंपरा बनी रहे या फिर उस परंपरा की समझ से जुड़ी रहे तब तक अच्छा
ही है, बजाए कि
इसका फ़ैशन हो जाए। क्योंकि रावण को जलाना ज़रूरी है। रावण को जलाते समय राम का होना
भी ज़रूरी है। यहाँ रावण और राम को उसी नज़रिए से लीजिएगा, जिस नज़रिए से
समझ और कल्पना की विशालता का सच्चा या झूठा ढोंग किया जाता है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)



