कई सारी घटनाओं को देखकर लगता है...
सच ही कहा जाता है कि किसानों और गरीबों के लिए इस देश में कुछ है तो वो केवल कानून,
नियम और संविधान है। या फिर उनके लिए सहानुभूति या आश्वासन है... या फिर आये दिन
होती चर्चा है। शायद ही इसके अलावा और कुछ इन्हें मिल पाया हो। वहीं दूसरी तरफ उद्योगपतियों और बड़े बड़े नामों के प्रति नियमों की मेहरबानी का एक लंबा इतिहास है।
तभी तो आपने जंतर-मंतर पर अर्घनग्न किसानों को भूखे विलपते देखा होगा, लेकिन किसी
उद्योगपति को इस हालत में कभी नहीं पाएंगे। हम देखते हैं 2016 के ऐसे काले, नीले या
फिर पीले इतिहास को।
अहमदाबाद में
रथयात्रा के दौरान एक प्राइवेट होटल ने पुलिसकर्मियों को बाँट दिए पुराने
फूड पैकेट
सन 2016 में अहमदाबाद में रथयात्रा
के दौरान जो पुलिस कर्मी लगाए गए थे उन्हें भोजन कराने के लिए एक निजी होटल से
फूड पैकेट मंगाए गए थे। हजारों पुलिसकर्मियों के लिए फूड पैकेट का ठेका किसी
निजी होटल को दिया गया था। लेकिन बाद में पता चला कि वो फूड पैकेट पुराने थे और भोजन
खाने लायक नहीं था। मुमकिन था कि ऐसा भोजन पेट में जाने से पुलिसकर्मियों का
स्वास्थ्य बिगड़ जाता और उन्हें अस्पताल भी जाना पड़ता। इतनी संवेदनशील यात्रा में
फर्ज पर डटे उन कर्मियों को जब ऐसे फूड पैकेट मिले तो उन्होंने इसे खाने लायक ही
नहीं माना और सारे फूड पैकेट फेंक दिए। इसका खर्चा कितने लाख का होगा वो तो शायद ही
पता चल पाए। ऐसा ही मामला वायब्रंट महोत्सव में भी हुआ था और वहां पर भी पुलिसकर्मियों के लिए ऐसे ही अखाद्य भोजन का प्रबंध किया गया था।
कहा गया कि करीबन 24,000 फूड
पैकेट के प्रबंध किए गए थे। मीडिया रिपोर्ट की माने तो यह किसी जानीमानी होटल
ने 125 रुपये प्रति पैकेट से मुहैया कराए थे। इस फूड पैकेट में दो पराठें, दो
सब्जी, एक मिठाई, दाल चावल और छाछ थी। बाजार में यही भोजन 70 रुपये में मिल सकता था,
यह भी दर्ज करना होगा।
इससे पहले रथयात्रा के दौरान
स्थानिक पुलिस थानों में भोजन की व्यवस्था की जाती थी और कर्मियों को सही तथा
गरमागरम खाना मिल पाता था। लेकिन फिर ऐसी “कॉर्पोरेट
व्यवस्था” लागू की गई और इसका नतीजा कुछ ऐसा निकला। लेकिन
चौंकानेवाला मंजर तो बाद में आया, जब पुलिस विभाग की ओर से आधिकारिक रूप से कहा गया
कि, “पुलिस कर्मियों ने समय पर भोजन नहीं किया होगा तभी
फूड पैकेट बिगड़ गए होंगे और खाना खाने लायक नहीं रहा होगा। क्योंकि इतने बड़े ऑर्डर
की वजह से मुमकिन है कि कंपनी ने खाना पहले तैयार कर लिया हो और उसे वक्त पर नहीं खा पाने की वजह से खाना बिगड़ गया हो।” अब इस उत्तर
में एक चीज़ का स्वीकार और दूसरी चीज़ पर बचाव का लहजा आसानी से दिख ही जाता है। ऊपर
से पता नहीं चला कि कंपनी बयान दे रही है या पुलिस विभाग! या तो पुलिस विभाग को
अपने कर्मियों से कह देना चाहिए था कि फूट पैकेट का खाना एकसपायर हो जाएगा इसलिए निश्चित समय पर खा लीजिए या फिर रथयात्रा थोड़ी देर रोक कर सभी खाना खाने चले
जाइए! शायद इससे कंपनी की इज्जत बच जाती। लेकिन कंपनियां
तो कंपनियां होती है, शायद उनके पास बच निकलने के तर्क भी होते होंगे और कुछ वजहें भी होती होगी।
काला धन
रखने वालों के लिए आती रही हैं खास योजनाएं, बाकियों के लिए नहीं होती कोई भी छूट
अगर आप गलती से भी सिग्नल तोड़ दे, आप भूले से भी सीट बेल्ट लगाना भूल जाए, तो इससे बचने के लिए शायद ही आप के
लिए कोई खास योजना आई हो। लेकिन आपको तथा देश को नुकसान पहुंचाकर काला धन
इक्ठ्ठा करने वालों के लिए योजनाएं हमेशा से आती रही हैं। और वो भी देश के भले के
नाम पर। 1997 में भी एक ऐसी योजना आई और करीबन 10,000 करोड़ इक्ठ्ठा हुए तो काला धन
घोषित करने वालों के धन को सफेद कर दिया गया, और वो भी बिना किसी कानूनी प्रक्रिया
का सामना किए। एवज में उन्हें 30 प्रतिशत कर का भुगतान ही करना पड़ा। गौरतलब है कि
उन दिनों वैध कर दर भी 30 फीसदी ही था।
ऐसी ही एक योजना 2016 में भी आई।
वैसे काला धन के विषय पर कई बड़े विवाद हुए और आंदोलन भी हुए या कुछ और हुआ। कहा
गया कि विदेश में इतना काला धन जमा है या उतना काला धन जमा है। उसके वापिस आने से
देश में ये ये होगा, प्रत्येक नागरिक को ये मिलेगा वो मिलेगा। फिर कहा गया कि विदेश
से ज्यादा काला धन तो देश में जमा है!!! और फिर उन
काला धन इकठ्ठा करने वालों को फिर से माफी की योजना या कर भुगतान की योजना में
समन्वित किया गया। सरकार ने एक समयसीमा तय की और कहा कि जो लोग अपनी अवैध राशि
घोषित करेंगे उन्हें 45 प्रतिशत कर का भुगतान करना होगा। इसके एवज में उन पर कोई
जांच एजेंसी जांच तक नहीं करेगी। 45 फीसदी भुगतान के बाद वो बाइज्जत बरी हो
जाएंगे। इसके पीछे राजस्व कर में इज़ाफ़ा होने का वास्ता दिया गया।
अब कुछ लोगों ने 45 फीसदी कर को
बहुत ज्यादा बता भी दिया। याद रखिएगा कि ये कर दर उन लोगों ने ज्यादा बताया
जिन्होंने देश को नुकसान पहुंचा कर काला धन जमा किया था। इतना ही नहीं, उन्होंने तो
कर भुगतान करने के लिए किश्तों की भी मांग कर दी। चौंकिए मत, सरकार ने तुरंत उन
सभी की बातें सुनी और बाकायदा ऐसे “महानुभावों” के
साथ बैठकें भी की गई! पता नहीं, काला धन ढूंढने के नाम पर कितनी एजेंसियां और
कर्मियों को काम पर लगाया जाता है और देश का पैसा बर्बाद होता है। यहां तो वो लोग
बाकायदा सरकार के साथ समाधान के नाम पर बैठकें करने लगे थे! गौरतलब है कि वो बड़े तबके के लोग थे, उनमें ना कोई किसान था, ना कोई शिक्षक था ना कोई वेतन उपभोक्ता।
सरकार ने ये स्कीम लागू करते
वक्त हवाला दिया था कि 1997 की स्कीम में कर का दर एक समान था। यानी जिन्होंने
मेहनत करके कमाया है और जिन्होंने अवैध रूप से कमाया है उन दोनों पर 30 फीसदी कर का
भुगतान 1997 में लागू था। 2016 में सरकार ने अवैध लोगों की काली कमाई पर ये कर दर 45
फीसदी कर दिया और अपनी योजना को ज्यादा अच्छी सामाजिक योजना करार देने की कोशिशें की! लेकिन कुछ महानुभावों ने अपनी बातें रखी तो उन्हीं के साथ बैठकें की और
फिर... और फिर उनकी किश्तों की बातों पर
विचार करना शुरू भी कर दिया तथा 45 फीसदी कर को 31 फीसदी तक करने का भरोसा भी दिया
गया! यानी कि जो मेहनतकश लोग हैं उन्हें 30 फीसदी देना होता है, जबकि अवैध रूप से आप
कमाई कर लो और फिर सरकार से छुपाओ और केवल 1 फीसदी ज्यादा देकर अपनी तमाम काली
राशि को सफेद कर दो!!! हालांकि सरकार ने अब तक इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं किया था या 31
वाला स्लैब लागू नहीं किया था। लेकिन कर तथा जुर्माने की रकम के भुगतान के लिए इन
महानुभावों को किश्तों की सहूलियतें ज़रूर दी गई थी। शायद कहा जा सकता है कि ये खेल उन
काली कमाई के खेल से ज्यादा काला है। उसके बाद 500 तथा 1000 के नोट अमान्य घोषित
होने के पश्चात काला धन धारकों के लिए 50 प्रतिशत कर चुकाने की एक और योजना आई।
100 फीसदी जुर्माना वाला नियम भी आया।
यहां खयाल रहे कि लोगों की
ज्यादातर शिकायतें कर के प्रतिशत को लेकर तो ज़रूर रही थी। लेकिन मुख्य वजह यह थी कि
अगर काला धन इक्ठ्ठा करना गंभीर अपराध है, तो ऐसे में काला धन धारक को किसी भी
प्रकार की सख्त सजा क्यों नहीं होती? उसे अपने काला
धन का निश्चित हिस्सा सरकारी तिजोरी में जमा करने की छूट देकर बाइज्जत बरी क्यों
किया जाता है? इसे लेकर लोगों में काफी चर्चा होती आई है।
अडानी को 200
करोड़ के जुर्माना माफी का मसला
गौतम अडानी गुजरात राज्य के
उद्योगपति है, जिनका कारोबार कई राज्यों में तथा विदेशों में चलता है। गुजरात के कच्छ
राज्य के मुंद्रा में इनकी कंपनी अडानी पोर्ट एंड सेज लिमिटेड के द्वारा
मैंग्रोव्स (चेर) के जंगल, खाड़ी तथा समंदर किनारों के पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने
के आरोप में उन्हें दोषी पाते हुए 200 करोड़ का जुर्माना किया गया था। लेकिन 2016 में
केंद्रीय वन व पर्यावरण विभाग ने इस जुर्माने को रद्द कर दिया। सन 2009 में स्थानिक
मछुआरे तथा निवासियों ने वहां के मैंग्रोव्स के जंगल और खाड़ी के लिए अपनी आवाज
उठाई थी। सन 2013 में कंपनी को दोषी पाते हुए केंद्र सरकार ने जुर्माना लगाया।
लेकिन 2016 में केंद्र सरकार ने इस जुर्माने को रद्द कर दिया। गौरतलब है कि
जुर्माना लगाते समय और जुर्माने की माफी का फैसला देते समय केंद्र में अलग अलग
पक्ष की सरकारें थी। लिहाजा राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप भी हुए, लेकिन उसे हम जाने ही
देते हैं।
स्थानिक निवासियों और मछुआरों के
विरोध के बाद सन 2013 में केंद्रीय समिति की अध्यक्षा सुनिता नारायण (प्रख्यात
पर्यावरणविद) ने अपनी जांच रिपोर्ट केंद्र को दी थी। इसी अहवाल के आधार पर
केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने कंपनी को 200 करोड़ का जुर्माना लगाया था। जांच
रिपोर्ट में कहा गया था कि स्थानिक मछुआरों को खतरा है तथा पर्यावरणीय नुकसान भी
पाया गया है। पर्यावरणीय नुकसान की भरपाई करने के लिए प्रोजेक्ट कोस्ट का एक
फीसदी, यानी कि 200 करोड़ का नुकसान, कंपनी से वसूलने की जांच समिति ने वकालत की।
इस समिति की अध्यक्षा सुनिता नारायण थी, जबकि अन्य अधिकारियों में एन्थनी
गननमूर्ति, आर एन्थनी, ए. मेहरोत्रा तथा ललित शामिल थे। जांच समिति ने अपने अहवाल
में ये भी दर्ज किया था कि कंपनी की योजना के चलते वहां के मैंग्रोव्स के जंगल, वहां की खाड़ी और समंदर किनारे को काफी नुकसान पहुंचा है। समिति ने अपने अहवाल में सेटेलाइट डाटा भी पेश किया। एयरपोर्ट खड़ा करने में, टाउनशिप बनाने में, अस्पताल
स्थापित करने में तथा सीआरजेड मामले में पर्यावरणीय नियमों का उल्लंघन किया गया है ऐसा दावा रिपोर्ट में किया गया। उस इलाके के बोचा टापू को नुकसान पहुंचने की बातें सामने रखी गई। कई सारे तथ्यों और आंकड़ों के साथ ये जांच रिपोर्ट सरकार को सौंपी गई
और समिति ने 200 करोड़ की ग्रीन पेनल्टी की सिफारीश की।
गौरतलब है कि समिति बनने से पहले
उस इलाके के स्थानिक मछुआरों और अन्य स्थानिकों की शिकायतें आने लगी थी। खेती विकास
सेवा ट्रस्ट ने भी पर्यावरणीय विषय को लेकर शिकायतें दर्ज कराई थी। उसके बाद
तत्कालीन केंद्र सरकार ने जांच समिति बनाई। जांच समिति ने कई सारे आंकड़े, तथ्य
और सेटेलाइट डाटा पेश किए। बाद में कंपनी पर 200 करोड़ की ग्रीन पेनल्टी लगाई गई।
लेकिन केंद्र में सरकार बदलने के बाद सन 2016 में इस ग्रीन पेनल्टी को माफ कर दिया
गया और जांच समिति के सारे तर्क व आधारों को अपर्याप्त मान लिया गया या फिर उसे नियमों की उलझन में और उलझा दिया गया।
हालांकि विवाद बढ़ता देख दूसरे
दिन सरकार ने कहा कि कंपनी को 200 करोड़ की पेनल्टी से माफी नहीं दी गई है, बल्कि
पहले से ज्यादा जिम्मेदारी बढ़ा दी गई है। लेकिन कंपनी पर पेनल्टी रद्द नहीं की गई,
तो फिर पेनल्टी की वसूली क्यों नहीं की गई है इसका कोई उत्तर नहीं दिया। सरकार ने
कहा कि कंपनी की पेनल्टी रद्द नहीं की गई है, बल्कि पर्यावरण संरक्षण के लिए जो
निर्देश दिए गए थे उनका वहन कंपनी को ही करना पड़ेगा, कंपनी पर जिम्मेदारी और बढ़ा दी गई है।
श्री श्री
रविशंकर का यमुना किनारे तामझाम और ग्रीन ट्रिब्यूनल के साथ विवाद
साल 2016 में दिल्ली में यमुना
किनारे आर्ट ऑफ लिविंग ने एक कार्यक्रम आयोजित किया। गौरतलब है कि श्री श्री
रविशंकर इस संस्था के संचालक है। यमुना किनारे सैकड़ों लोगों को आमंत्रित करके
पर्यावरणीय विषय को लेकर एक कार्यक्रम किया जाना था। इसके लिए यमुना किनारे कार्यक्रम
की तैयारियां शुरू की गई। लेकिन इंडियन ग्रीन ट्रिब्यूनल ने पाया कि कार्यक्रम की
तैयारियां ही यमुना किनारे को नुकसान पहुंचा रही है। ताज्जुब था कि पर्यावरणीय
रक्षा के नाम पर आयोजित किए जा रहे इस कार्यक्रम में ही पर्यावरण के नियमों का
उल्लंघन हो रहा था! इसके अलावा आयोजन के लिए इस्तेमाल की
जा रही कई चीजें यमुना किनारे के लिए नुकसानदेह थी। इंडियन ग्रीन ट्रिब्यूनल ने
आर्ट ऑफ लिविंग से इस विषय में बात की और उन्हें कुछ निर्देश दिए। ट्रिब्यूनल ने
पाया था कि आयोजित कार्यक्रम की वजह से यमुना किनारे को नुकसान हो रहा था तथा इस
कार्यक्रम के बाद उस किनारे की सफाई करनी पड़ती। लेकिन कहा गया कि संस्था ने इन
निर्देशों को अनदेखा कर दिया और अपनी ओर से तैयारियां जारी रखी। इसके बाद
ट्रिब्यूनल ने आर्ट ऑफ लिविंग पर 5 करोड़ का जुर्माना लगा दिया और आदेश दिया कि इस
जुर्माने की रकम कार्यक्रम शुरू होने से पहले अदा कर दी जाए। कार्यक्रम पर रोक
लगाने की याचिका के संबंध में एनजीटी, यानी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने अपने आदेश में
कहा कि आवेदक ने ट्रिब्यूनल में आने में देर की और यमुना को होने वाले नुकसान की भरपाई
की जा सकती है इसलिए आवेदक की ये प्रार्थना स्वीकार नहीं की जा सकती कि इस कार्यक्रम
पर रोक लगा दी जाए या फिर निर्माण सामग्री को हटवा दिया जाए।
ट्रिब्यूनल ने ये भी कहा कि, “हम दिल्ली
प्रदूषण कंट्रोल कमेटी की उस दलील से भी सहमत नहीं हैं जिसमें कहा गया कि उन्हें इस
कार्यक्रम के लिए इजाज़त देने या ना देने की ज़रूरत नहीं है। इस मामले में डीपीसीसी अपनी
ज़िम्मेदारी निभाने में नाकाम रहे हैं इसलिए उन पर एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया जाता
है।” आदेश में ये भी कहा गया कि, “आयोजकों
ने यह नहीं बताया कि कितने बड़े पैमाने पर आयोजन हो रहा है। ज़मीन को समतल करने का काम, सड़कें, पॉन्टून
ब्रिज, रैंप, पार्किंग
स्पेस का काम बड़े पैमाने पर हो रहा है। 40 फीट ऊंचा, 1000 फीट
लंबा और 200 फीट चौड़ा स्टेज बनाया जा रहा है। ये सब आयोजक के ख़िलाफ़ जाता है और इसके
लिए उसे मुआवज़ा चुकाना होगा। अदालत वन और पर्यावरण मंत्रालय की उस दलील से भी सहमत
नहीं है कि उसके विभाग की मंज़ूरी की ज़रूरत नहीं है जबकि 2006 के एक नोटिफिकेशन के मुताबिक
50 हेक्टेयर से ज़्यादा इलाके में किसी भी काम के लिए वन और पर्यावरण मंत्रालय की मंज़ूरी
की ज़रूरत है।”
आदेश में ये भी कहा गया कि, “जल संसाधन
मंत्रालय की इजाज़त के बगैर रैंप, रोड, पॉन्टून ब्रिज बना
दिए गए और अस्थायी निर्माण कर दिया गया। इसके अलावा दिल्ली सरकार से जो इजाज़त मांगी
गई उसका कोई मतलब नहीं है, क्योंकि इस बारे में इजाज़त देने के लिए वो सक्षम नहीं है।
पर्यावरण, पारिस्थितिकी, नदी के
जीव जंतुओं को हुए नुकसान के लिए आयोजक ज़िम्मेदार हैं और पर्यावरण को इस नुकसान के
मुआवज़े के तौर पर उन पर शुरू में पांच करोड़ का जुर्माना लगाया जाता है। आयोजकों को
कार्यक्रम होने से पहले ही ये रकम चुकानी होगी। ये रकम बाद में नुकसान के आधार पर तय
होने वाले मुआवज़े की अंतिम रकम में एडजस्ट की जाएगी।”
लेकिन श्री श्री रविशंकर का
ट्रिब्यूनल के प्रति बयान बड़ा विवाद जगा गया। रविशंकर ने इस जुर्माने को भरने से
इनकार तक कर दिया! लेकिन बाद में विवाद बढ़ता देख उन्होंने ट्रिब्यूनल से जुर्माना
भरने के लिए कुछ वक्त मांग लिया। ट्रिब्यूनल और आर्ट ऑफ लिविंग के बीच ये विवाद
लंबा चला और जनमानस पर इसका प्रभाव यह पड़ा कि बड़े लोग पर्यावरण को कहीं न कहीं
नुकसान पहुंचाते हैं। पर्यावरणीय संस्थाएँ जब उन्हें रोकती हैं तो ये बड़े लोग खुद को
उन संस्थाओं से भी ऊपर समझने लगते हैं।
इस आयोजन की स्वागत समिति की सूची
देखनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस आरसी लाहोटी, संयुक्त
राष्ट्रसंघ के पूर्व सेक्रेटरी जनरल बुतरस बुतरस घाली जी, नीदरलैंड
के पूर्व प्रधानमंत्री, भारत के पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण
आडवाणी, राज्यसभा में कांग्रेस सांसद डॉक्टर कर्ण
सिंह, केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा, दिल्ली
सरकार के संस्कृति मंत्री कपिल मिश्रा का नाम आपको कई विदेशी सांसदों और हस्तियों के
बीच मिलेगा। एनजीटी ने जल संसाधन मंत्रालय से भी पूछा कि क्या
इस मामले में उनकी भी कोई भूमिका है तो मंत्रालय ने साफ़ कह दिया कि उनकी कोई भूमिका
नहीं है। और ये बात संसद के बाहर जल संसाधन मंत्री उमा भारती ने ख़ुद भी कही।
बाद में वहां आर्ट ऑफ लिविंग का
कार्यक्रम भी हुआ। गौरतलब है कि इस कार्यक्रम में देश की तमाम बड़ी बड़ी राजनीतिक
पार्टियों के नेता पहुंचे। बाद में यह अहवाल भी आते रहे कि आर्ट ऑफ लिविंग ने
नियमों के तहत, कार्यक्रम खत्म होने के बाद यमुना किनारे की सफाई तक नहीं की!!! आयोजन
में इस्तेमाल की गई कई चीजें वहां छोड़ दी गई, जिसमें ढेर सारा कचरा भी मौजूद था!!! यह इस
देश का कमाल का वाक़या था, जहां कोई संस्था पर्यावरण की रक्षा में जनजागृति के नाम
पर बड़ा कार्यक्रम करती है और उसी कार्यक्रम के चलते नदी किनारे को नुकसान पहुंचता
है!!!
कार्यक्रम खत्म होने के बाद
एनजीटी ने एक रिपोर्ट पेश की। रिपोर्ट में कहा गया कि कार्यक्रम की वजह से यमुना
तथा उसकी जमीन को काफी नुकसान पहुंचा था। रिपोर्ट में लिखा गया था कि, “जैव
विविधता हमेशा के लिए खत्म हो गई है। सबसे ज्यादा नुकसान उसी मंच ने पहुंचाया जो
रविशंकर के लिए बनाया गया था।” रिपोर्ट के मुताबिक, डीएनडी फ्लाईओवर
से लेकर बारापुला के बीच जितने इलाके का इस्तेमाल किया गया था, वो बुरी तरह से
प्रभावित हुआ था। बाढ़ से बचने के लिए डाली गई मिट्टी की व्यवस्था खत्म हो चुकी
थी। रिपोर्ट के मुताबिक, मंच तथा अन्य जगहों पर ढांचा या व्यवस्था खड़ी करने के
लिए आर्ट ऑफ लिविंग ने अलग अलग प्रकार की सामग्रियों का जमीन में उपयोग किया था,
जिस वजह से जमीन सख्त हो चुकी थी। एनजीटी ने आर्ट ऑफ लिविंग तथा रविशंकर पर
गैरजिम्मेदाराना व्यवहार की टिप्पणी भी की।
अप्रैल 2017 में जलसंसाधन
मंत्रालय के विशेषज्ञों ने एक रिपोर्ट एनजीटी की सौंपी। रिपोर्ट में बताया गया कि, “इस
सांस्कृतिक कार्यक्रम से जो नुकसान पहुंचा है उसे ठीक करने में 13.29 करोड़ का खर्च
आएगा।” रविशंकरजी का ये कार्यक्रम वाकई अद्भुत ही कहा
जाना चाहिए। कोई और आर्ट हो ना हो, लेकिन करोड़ों का घाट ज़रूर बिठा दिया!!!
लेकिन रविशंकरजी का रवैया एनजीटी
के सामने बेहद विवादास्पद रहा। एक धार्मिक प्रतिनिधि के अंदर शायद किसी राजनेता की
आत्मा जा घुसी थी! वो नेता जो टोल टैक्स मांगने पर या टोल नाके पर जरा सी देरी पर
कर्मचारियों पर भड़क जाते हैं, रविशंकरजी भी एनजीटी के साथ बेफजूल सी दलीलों में उतरने
से बाज नहीं आए। एनजीटी की गैरजिम्मेदाराना व्यवहार की टिप्पणी पर रविशंकर ने कहा
कि, “आर्ट ऑफ लिविंग को गैरजिम्मेदार बताने वाले हमें जानते
नहीं, या उन्हें सेंस
ऑफ ह्यूमर बढ़ाना चाहिए।”
अब सेंस ऑफ ह्युमर वगैरह वालों को
ये भी सोचना चाहिए था कि उन्होंने साफ साफ तौर पर पर्यावरण को तथा यमुना किनारे को
नुकसान पहुंचाया है। वो नुकसान थोड़ा-बहुत नहीं, लेकिन बहुत ज्यादा भी है। ह्यूमर को
साइड में रखे तो सेंस तो यही कहता था कि आर्ट ऑफ लिविंग ने नियमों की होली ज़रूर कर
दी थी। लेकिन महाराज एनजीटी को पाठ पठाने के प्रयत्नो में लगे रहे! उन्होंने तो
रिपोर्ट को ही पक्षपाती बता दिया! लगता नहीं था कि एक धार्मिक प्रतिनिधि किसी
राजनेता से जुदा व्यवहार कर रहा हो।
इसी मामले में सुनवाई करते हुए एनजीटी
ने रविशंकर की संस्था एओएल को कहा कि, “आपके अंदर
जिम्मेदारी नाम की कोई चीज़ नहीं है। क्या आप ये सोचते हैं कि आपको जो चाहे वो बोलने
की आजादी है?” याद रखना
चाहिए कि एनजीटी भारत की सबसे बड़ी पर्यावरण अदालत है।
रविशंकर और उनकी संस्था को फटकार
लगाने के कुछ दिनों बाद एनजीटी ने रविशंकर के खिलाफ अवमानना नोटिस जारी किया। सामाजिक
कार्यकर्ता मनोज मिश्रा द्वारा दायर याचिका में रविशंकर के खिलाफ कार्रवाई की मांग
करते हुए कहा गया था कि उनका बयान स्वतंत्र और निष्पक्ष न्याय में हस्तक्षेप है। एओएल
की वेबसाइट पर जारी एक बयान के अनुसार रविशंकर ने कार्यक्रम के आयोजन की अनुमति देने
के लिए सरकार और एओएल को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा था कि उनके फाउंडेशन ने एनजीटी समेत
सभी ज़रूरी मंजूरी प्राप्त की थी और नदी अगर इतनी ही साफ थी तो कार्यक्रम को शुरुआत में
ही रोका जाना चाहिए था। मिश्रा ने अधिवक्ता रित्विक दत्ता और राहुल चौधरी के जरिये
याचिका दायर की थी।
एक खानगी कंपनी
का उत्पाद लॉन्च... सहारा और फोटो प्रधानमंत्री के नाम का, मार्केटींग भी की पीएम
ने
1 सितम्बर, 2016 के दिन भारत की
प्रचलित निजी कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज ने जियो 4जी सर्विस लॉन्च की। इसे भारत की
टेलीकॉम की नयी क्रांति कहा गया। कंपनी के चेयरमैन मुकेश अंबानी ने इसे लॉन्च किया।
लेकिन लॉन्च करते वक्त उनके पीछे तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तस्वीर
ज्यादा दिखी। सरकार के डिजिटल इंडिया कार्यक्रम के तहत ये तस्वीरें वहां छायी रही हो ऐसा मुमकिन है। लेकिन दूसरे दिन से उनके उत्पाद जियो का मार्केटींग करते
प्रधानमंत्री दिखने लगे!!! यह वाकई असहज था। सरकारी योजनाओं के प्रचार और प्रसार
करते प्रधानमंत्री अकसर हमारे यहां दिखाई देते रहे हैं। लेकिन किसी निजी कंपनी के
उत्पाद का मार्केटिंग एक प्रधानमंत्री द्वारा करना स्पष्ट करते हुए दिखा कि
उद्योगपतियों के उत्पाद देश के लिए इतने ज़रूरी है कि लोग भले अपने बच्चों या पत्नी
के शव 8-10 किमी लेकर चले, कंपनियों के उत्पाद देश के लिए फायदेमंद है यह सत्य
लोगों तक पहुंचाना ज्यादा ज़रूरी है। ये वो दौर था कि जब उन दिनों इलेक्ट्रॉनिक या
प्रिंट मीडिया से लेकर सोशल मीडिया में अपने स्वजनों की लाशें ढोते लोग नजर आते थे,
वहीं भारत और उनके तत्कालीन प्रधानमंत्री खानगी कंपनी के उत्पाद को जनजन तक
पहुंचाने के प्रयास में लगे थे!!! किसी ने सच ही कहा था कि भारत और इंडिया... ये
दोनों नाम ही अलग नहीं है, बल्कि सच में अलग है।
रिलायंस जियो
पर 500 रुपये का जुर्माना, सोशल मीडिया पर सरकार के फैसले का उड़ा मजाक
दिसम्बर 2016 के प्रथम सप्ताह में
यह घटना हुई। रिलायंस जियो के इश्तेहार में तत्कालीन पीएम नरेन्द्र मोदी की तस्वीर
का उपयोग करने के एवज में कंपनी पर 500 रुपये का जुर्माना लगाया गया। वैसे सीट
बेल्ट न लगाने पर इससे ज्यादा जुर्माना लगने वाला है! जबकि राष्ट्रीय प्रतीक का कोई
कंपनी बिना इजाज़त इस्तेमाल कर ले तब इतना जुर्माना! फिर तो सोशल मीडिया पर इस घटना
का मजाक उड़ना स्वाभाविक भी था।
गौरतलब है कि रिलायंस जियो के
इश्तेहार में तत्कालीन पीएम की तस्वीर का इस्तेमाल हो रहा था। कई दिनों तक ये चलता
रहा। विपक्षों ने इसका विरोध किया और विरोधी समर्थकों ने इसे लेकर कई दिनों तक सरकार
और तत्कालीन पीएम पर तंज भी कसे। उसके बाद सरकार ने इस मसले को लेकर कंपनी के
खिलाफ कार्रवाई की। रिलायंस जियो के विज्ञापन में प्रधानमंत्री की तस्वीर छपने के मामले
में सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने लोकसभा में लिखित जवाब
दिया। उन्होंने कहा कि इस बारे में प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से कोई अनुमति जारी
नहीं की गई थी।
कैग का खुलासा –
सीबीडीटी ने इंफ्रा कंपनियों को 4,524 करोड़ का फायदा पहुंचाया
कम्पट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया (कैग) ने नवम्बर 2016 के दौरान अपने ऑडिट रिपोर्ट में कई बड़े खुलासे किए।
रिपोर्ट में कहा गया कि सीबीडीटी (सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्सेज) ने
इंफ्रास्ट्रक्चर संबंधित कंपनियों को नियम के खिलाफ जाकर 4,524 करोड़ का टैक्स
बेनिफिट पहुंचाया है। कहा गया कि आईटी विभाग ने नियमों को ताक पर रख कर गलत तरीके
से कंपनियों को डिडक्शन के लाभ पहुंचाए। इस वजह से सरकार को 4,524 करोड़ की आमदनी
गवानी पड़ी। इन कंपनियों में रिलायंस पोर्ट, रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर, जेएसडबल्यू
एनर्जी, ताता पावर, गुजरात फ्लोरोकेमिकल्स आदी बड़ी कंपनियां शुमार थी।
सीआईसी ने कहा-
अडानी की कंपनियों को दिए कर्ज के रिकॉर्ड का खुलासा नहीं हो सकता
नवम्बर 2016 के आखिरी सप्ताह में केंद्रीय
सूचना आयोग (सीआईसी) ने कहा कि उद्योगपति गौतम अडानी द्वारा प्रवर्तित कंपनियों को
दिए गए कर्ज से जुड़े रिकॉर्ड का खुलासा नहीं किया जा सकता, क्योंकि भारतीय स्टेट बैंक
ने संबंधित सूचनाओं को अमानत के तौर पर रखा है और इसमें वाणिज्यिक भरोसा जुड़ा है। रमेश
रणछोड़दास जोशी की याचिका पर आयोग ने यह आदेश दिया। जोशी यह जानना चाहते थे कि गौतम
अडानी समूह को किस आधार पर बड़ी मात्रा में कर्ज दिए गए। उन्होंने इस बारे में साक्ष्य
भी मांगे थे कि क्या कर्ज ऑस्ट्रेलिया में कोयला खदानों से संबंधित था। वैसे
उद्योगपतियों को ही यही अधिकार मिलेंगे ये आप दर्ज कर लें, आधार के मसले पर आपके
शरीर पर भी आपका संपूर्ण अधिकार नहीं होगा यह भी नोट कर लें!
सूचना आयुक्त मंजुला पराशर ने आदेश
में कहा, ‘सीपीआईओ अपीलकर्ता
को सूचित करता है कि मांगी गयी सूचना वाणिज्यिक सूचना है और तीसरे पक्ष के भरोसे के
आधार पर इसे रखा हुआ है। इसीलिए इसे उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है और आरटीआई कानून
की धारा आठ (1) (डी) (वाणिज्यिक विश्वास) और (ई) (अमानत के तौर पर पड़ी चीज़ संबंधी प्रावधान)
के तहत सूचना देने से इनकार किया जाता है।’ भारतीय
स्टेट बैंक के केंद्रीय जन-सूचना अधिकारी (सीपीआईओ) ने दावा किया कि जोशी ने अपने आरटीआई
आवेदन में यह ज़िक्र नहीं किया कि यह मामला बड़े जनहित का है। आरटीआई कानून के तहत वैसी
सूचना जिसे खुलासे से छूट प्राप्त है, उसका खुलासा
किया जा सकता है बशर्ते उसमें कोई बड़े पैमाने पर जनहित जुड़ा हो।
(इंडिया इनसाइड, मूल लेखन 11
जून 2016, एम वाला)