देश को शायद
महसूस तो नहीं हो रहा, लेकिन पर्दे के पीछे का एक सच यह भी है कि प्रधानमंत्री के
रूप में मोदी जैसे-जैसे ताक़तवर होते जा रहे हैं, नागरिक उतने ही कमजोर और खोखले होते जा रहे हैं। जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए।
राष्ट्राध्यक्ष के साथ देश बाहरी तौर पर मज़बूत होता नज़र आए पर अंदर से उसका
नागरिक टूटने लगे, असहाय महसूस करने लगे, संकीर्ण होने लगे, गैरजरूरी चीजों पर शक्ति
बर्बाद करने लगे, यह किसी भी नजरिए से ठीक नहीं है। यक़ीन करने जैसी बात नहीं है
पर हमारे यहां यह हो रहा है। इस समय जो कुछ महसूस हो रहा है वह राष्ट्र के हित में
स्वैच्छिक रक्तदान करने के बाद लगने वाली कमजोरी से काफ़ी अलग है।
लोगों को
महीने भर से बोला जा रहा है कि स्वैच्छिक लॉकडाउन कीजिए,
लेकिन मोदी-शाह और उनके जैसे नेता खुद पिछले साल से लेकर अब तक चुनावी प्रचार बंद
करने को तैयार नहीं थे। किसानों को आंदोलनजीवी कहनेवाले प्रधानमंत्री मोदी आजाद
हिंदुस्तान के सबसे बड़े चुनावजीवी राजनेता साबित हो चुके हैं। पुलवामा जैसे आतंकी
हमले के बाद भी जिन्होंने चुनावी रैलियों का मोह नहीं छोड़ा हो वे, यानी मोदी-शाह
समेत उनके जैसे दूसरे नेता अपनी चुनावजीवी प्रवृत्ति को कैसे अलविदा कह देते भला। चुनाव
आयोग तो तब्लीग़ी जमात से भी गया गुजरा साबित हो चुका है। कुंभ मेले वाले भी रेस में
शामिल हो गए।
जब पिछले साल ये लोग कोरोना पर विजय की मूर्ख प्रक्रियाएँ निभा रहे थे, जश्न
मना रहे थे, तब भी विशेषज्ञ देश को चेता रहे थे, सरकार को चेता रहे थे, बतला रहे
थे कि असली इम्तेहान अभी आनेवाला ही है। मेरे जैसे ब्लॉगर भी लंबा-चौड़ा लिखकर
अगली लहर के बारे में बता रहे थे। जब ये जानलेवा संकट आ रहा था या आने की आशंका थी, तब ये कहाँ थे? तब ये सो रहे थे, कुंभकर्ण की तरह। नहीं, शायद हम ग़लत कह रहे
हैं। ये सो नहीं रहे थे। ये अपने अंहकार में डूबे थे, आत्म मुग्धता के समुद्र
में डुबकियाँ लगा रहे थे, अपनी बेवक़ूफ़ी के दलदल में हँस रहे थे। और चुनाव लड़ रहे थे, कहीं पर सरकार बना
रहे थे, कहीं पर गिरा रहे थे। कोई बेवकूफ ही यह कह सकता है कि उसने कोरोना पर विजय
पा ली है।
राज्यों में नगर निगमों के चुनाव
हो गए, पंचायतों के चुनाव हो गए और अब विधानसभा के चुनाव भी हो गए। कह सकते हैं कि
लगभग 1 साल से संसद तकरीबन बंद है, लेकिन विवादित सेंट्रल विस्टा के नये ढाँचे का
निर्माण कार्य अविरत जारी है। देश बंद हो चुका था, सबके काम बंद हो चुके थे, संसद
बंद थी, लेकिन इनकी सनक, यानी कि सेंट्रल विस्टा का निर्माण कार्य जारी रहा और अब
भी जारी है। स्कूल बंद, कॉलेज बंद, एग्जाम कैंसिल, शिक्षा का काम रुका हुआ, लेकिन
इनके चुनाव प्रचार की भूख नहीं रुकी। जान है तो जहान है... लेकिन चुनाव में ही तो
बसी मेरी जान है।
लोगों का भी अजीब फंडा रहा, जैसा
इन नेताओं का रहा। तभी तो कहा गया कि चुनाव घोषित कर दो, कोरोना भाग जाएगा। इस तंज
में नेताओं के साथ साथ हम नागरिकों की गधापंति पर भी निशाना है। लेकिन हमें इससे
कोई फर्क नहीं पड़ता यह भी एक सच ही है।
जो चीज़ निर्विवाद है वो यह है कि
भविष्य में जब भी कोरोना काल का इतिहास लिखा जाएगा, मौत के इस तांडव का इतिहास
लिखा जाएगा तो इतिहास बहुत निर्मम होगा, या फिर होना चाहिए। वो निर्मम होना चाहिए चुनाव
आयोग को लेकर,
उसकी
भूमिका को लेकर। वो निर्मम होना चाहिए प्रधानमंत्री मोदी को लेकर, वो निर्मम होना चाहिए बीजेपी और
आरएसएस को लेकर,
वो निर्मम
होना चाहिए विपक्ष को लेकर,
वो निर्मम
होना चाहिए समाज को लेकर,
वो निर्मम
होना चाहिए उन तमाम राजनीतिक दलों को लेकर जिन्होंने चुनाव जीतने के लिए इंसानों
की ज़िंदगी की परवाह नहीं की। जब इतिहास यह सवाल पूछेगा कि इन चुनावों की कितनी
क़ीमत लोगों ने अपनी जान देकर चुकाई है, तो शायद इन लोगों के पास कोई जवाब नहीं होगा। जब इतिहास यह सवाल
पूछेगा कि कुंभ में स्नान करने से कितनों की जान गई तो कोई जवाब नहीं होगा? लेकिन आज के समय जैसे हम इतिहास
को आलू-मटर की तरह छिल देते हैं, भविष्य में भी इस पीड़ा के इतिहास को, इस मौत के
तांडव को, लाशों के ढेर पर बैठे विश्व गुरु भारत को, उसको चलानेवाली सरकार के
असहनीय अपराधों को अवश्य भुला दिया जाएगा।
इस वक़्त जब हम अपने को असहाय
पाते हैं,
बेबस और
संवेदनहीन,
मन ने शायद
सोचना बंद कर दिया है। हर दिन हर शहर-हर गाँव में लोग अपनों को मरते देख रहे हैं,
दूर बसे स्वजनों के मरने का गम झेल रहे हैं। शाम को आप जिसे मिलकर घर जाते हैं,
दूसरे दिन सुबह उसके मौत की खबर आपको मिलती है। जब कहीं फ़ोन बजता है तो मन काँप
उठता है, दिल दहशत से भर जाता है, इस आशंका से न जाने कौन मित्र या
रिश्तेदार साथ छोड़ जाए,
फिर कभी न
मिलने के लिये। लोगों को सोशल मीडिया को खोलते हुए पहले कभी इतना डर नहीं लगा।
रोज़, हर घंटे किसी न किसी के बिछड़ने
की ख़बर आ रही है। कह नहीं सकते कि हम अभी लिख रहे हैं, क्या पता अगली लाश हमारी ही
पड़ी मिले। नागरिक जानवरों की तरह मरते जा रहे हैं। लाशों के ढेर पर विश्वगुरू
भारत बैठा हुआ है। मौत का तांडव जारी है। आंकड़ों की बाजीगरी के बीच भी इतने सारे
मामले हैं, इतनी सारी मौतें हैं, तो फिर हर कोई कहने लगा है कि असली आंकड़ें तो
बहुत ही ज्यादा होंगे। कुछ लोग हैं जो अब भी अपनी जान जोखिम में डाल कर लोगों की
मदद कर रहे हैं। कुछ नेता हैं जो अपनी परवाह किये बग़ैर लोगों को ज़िंदगियाँ दे
रहे हैं। लोगों के दुख दर्द में शरीक हो रहे हैं। लेकिन हमारे बीच ऐसे लोगों की
संख्या ज़्यादा है जो इस आपदा में भी गिद्ध की तरह मौक़े की तलाश में है।
कहीं दो हज़ार की दवा के लाखों
वसूले जा रहे हैं तो कहीं ऑक्सीजन के नाम पर लोगों को लूटा जा रहा है। एम्बुलेंस
देने के लिये भी हज़ारों की क़ीमत लगाई जा रही है। जिस रेमडेसिविर को डबल्यूएचओ
कोरोना के इलाज की दवा नहीं मानता उस रेमडेसिविर को हमारे यहां चिकित्सक बिना
किसी परेशानी के इस्तेमाल कर रहे हैं और लोग उसके लिए हजारों रुपये दे रहे हैं।
ऊपर से इस रेमडेसिविर नामक दवा की जमाख़ोरी हो रही है। गुजरात भाजपा के प्रदेश
अध्यक्ष सीआर पाटील खुलेआम रेमडेसिविर का खेल खेलते हैं और उसी राज्य में उनकी ही
पार्टी के सीएम कहते हैं कि सीआर पाटील इंजेक्शन कहां से लाए मुझे नहीं पता, उनसे
ही पूछ लीजिए। महाराष्ट्र के बीजेपी नेता के पास से हज़ारों की संख्या में
रेमडेसिविर बरामद की जाती है। और उधर अस्पतालों में बेड बढ़ाने के बदले अपनी दाढ़ी
बढ़ाने वाले पीएम मोदी अनर्गल प्रलापों वाला भाषण देने से बाज नहीं आ रहे।

सीआर पाटील, जो गुजरात भाजपा के
प्रदेश अध्यक्ष हैं, महीनों से लॉकडाउन की धज्जियां उड़ा रहे थे, नियमों को कुचल
रहे थे, शहर-शहर जाकर भीड़ इक्ठ्ठा कर रहे थे, गांव-गांव जाकर चुनावी जीत का मंथन
कर रहे थे, फोटो सेशन कर रहे थे और अंत में इंजेक्शन वाले कथित घोटाले में लिप्त
पाए गए। राज्य का सीएम आंखें मूंद कर बैठा रहता है। इस राज्य के सीएम का एक संवाद
काफी प्रचलित हो चुका है। जब मीडिया उनसे कोई सवाल करता है तो ये सीएम बाकायदा कहते
हैं कि मुझे नहीं पता, मेरी जानकारी में नहीं है। ये सब तब हो रहा है जब नायक मोदी
टेलीविजन के ऊपर आकर देश को उपदेश देते हैं। लेकिन वे अपने एक प्रदेश अध्यक्ष को
नसीहत नहीं देते। पीएम मोदी की अपीलों पर देश ने कितना अमल किया, विपक्ष ने कितना
माना यह खुद पता कर लीजिए, लेकिन उनकी ही अपनी सरकार के लोग, उनके ही अपने लोग, उनकी
अपीलों को कुचलते रहे। मोदी बाबा यह सब देखते भी रहे।
लोगों ने इन दिनों करोड़ों का
जुर्माना भरा होगा मास्क नहीं पहनने को लेकर, लेकिन नेता कोई भी हो, बिना मास्क के
भीड़ के बीच जाता रहा। अंत में एक शादी में डीएम ने एक आदमी को थप्पड़ तक जड़
दिया, लेकिन इतने सारे उल्लंघन नेताओं ने किए, मोदी सेना के प्यादों ने किए, लेकिन
उन्हें अधिकारी सलाम करते दिखे। तब्लीग़ी जमात पर शोर मचाने वाले कुंभ पर चूप रह
गए। उस समय वे मानव के रूप में कोरोना बम थे, इस साल कुंभ वाले श्रद्धालु हो गए।
कोरोना सुनामी के बीच इतना बड़ा आयोजन गलत था यह कइयों को महसूस हो रहा था, लेकिन
चूप रहना ही बेहतर समझा गया। क्योंकि सबको पता है कि मोदी सत्ता ने ऐसे देश का
निर्माण कर दिया है जहाँ सच कहने पर बहुत प्रताड़ित होना पड़ता है।
जब बेटा बाप की जान बचाने के लिये
अपना बेड छोड़ रहा है,
जब कई बुजुर्ग
मरीज़ किसी जवान
के लिए अपना
आईसीयू बेड दे रहा है तो ऐसे लोग भी हैं जो अस्पताल वालों से मिलकर बेड पर क़ब्ज़ा
किए हुए हैं,
इस आशंका
में कि अगर उनके घर में कोई बीमार पड़ा तो बेड मिल जाएगा या फिर इस लालच में कि बेड
देकर मोटी रक़म कमाई जा सकती है। वे यह नहीं सोच रहे हैं कि उनकी इस घिनौनी हरकत
से किसी की जान जा रही होगी। कहीं कोई बीमार तड़प-तड़प के जान दे रहा होगा। उसकी
जान बच जाती अगर इन गिद्धों ने अस्पताल के बेड पर नाजायज क़ब्ज़ा नहीं किया होता। (यहां ये भी
लिख देते हैं कि हमने बुजुर्ग मरीज़ का जो ज़िक्र किया, बेड देने की जो बात कही,
उसमें नारायण दाभाडकर का संदर्भ नहीं है, क्योंकि फिलहाल तो वह घटना प्रमाणित नहीं
है और हम जो प्रमाणित नहीं है उसे हमारे लेखों में नहीं लिखते। दरअसल हमारा संदर्भ
ऐसे सैकड़ों लोगों से है जो इस समय लीक से हटकर मदद दे रहे हैं)
ऐसे समय में
ऐसी चीजें भी हैं जो आपकी समझ को तोड़ देती है। सेलेब्स, क्रिकेटर्स, नेता, पैसे
वाले लोग अस्पतालों में पहले से ही बेड पर कब्जा जमाए हुए हैं। 13 अप्रैल 2021 के
दिन एक राष्ट्रीय अख़बार ने महाराष्ट्र के तत्कालीन मंत्री असलम शेख के हवाले से
लिखा था कि कुछ सेलिब्रिटी लोग और क्रिकेट खिलाड़ी कोरोना के गंभीर लक्षण नहीं
होने के बावजूद अस्पतालों के बेड पर कब्जा किए हुए हैं। कुछ रिपोर्ट में दावा किया
गया है कि कई नेता-अभिनेता-क्रिकेटर-बिजनेसमैन आदि महानुभाव भी इसी तरह कब्जा जमाए
हुए हैं। इन्होंने बेड रिजर्वेशन करा के रखा है। यदि ये सच है तो फिर अपनी समझ को
थोड़ा सा समझदार बनाइए।
जगह-जगह
चुनाव हुए, उपचुनाव हुए, हजारों-लाखों की भीड़ इक्ठ्ठा हुई। वो दिन भी आया जब लोग
जानवरों की तरह मर रहे थे और देश के नायक मोदी ने चुनावी सभा में भारी भीड़ देखकर
कहा था कि आपने तो मुझे गदगद कर दिया, इतनी भारी संख्या में आने के लिए धन्यवाद। और
वही नायक शाम को दिल्ली पहुंचकर देश को उपदेश देता है कि बिना काम बाहर ना निकले,
भीड़ ना करे, दूरी रखे वगैरह वगैरह।
भारत में कई
बार चुनाव टाले गए हैं। आपदा की स्थितियों में अनेकों बार चुनाव स्थगित हो चुके
है। यहां तक कि किसी उम्मीदवार की असमय मौत के बाद भी चुनाव टाले जा चुके हैं। लेकिन
इस बार मोदी के मुँह से बस प्रचार की आवाज निकलती है, और कुछ नहीं। चुनाव चाहिए,
भले सैकड़ों लोगों को मौत के मुँह में धकेलने की नौबत आए। लोग नहीं समझते ये दलील
काम की नहीं है, क्योंकि नायक खुद ही आंखें मूंद कर समूचे देश को जोख़िम में डालने
का नैतिक-सामाजिक अपराध किए जा रहा था।
मध्यप्रदेश
में दामोह सीट पर कोरोना की दूसरी सुनामी के बीच चुनाव की सनक सिर पर सवार थी। एक
सीट का उपचुनाव था, एकाध महीने देर से होता तो आसमान नहीं टूटने वाला था और ना ही
भारत का लोकतंत्र ख़तरे में आनेवाला था। जब गैरकानूनी तरीके से महीनों तक किसी जगह
राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है तो फिर एक सीट का उपचुनाव क्यों रोका नहीं जा
सकता। केवल पश्चिम बंगाल, केरल, असम, तमिलनाडु, पुडुचेरी जैसे राज्य ही नहीं,
गुजरात-राजस्थान-मध्यप्रदेश से लेकर अनेक राज्यों में नगर निगम, पंचायत से लेकर
ऐसे उपचुनाव साल भर से होते गए।
मैं लिखित रूप से सालों पहले कह चुका हूं कि ना मैं आशावादी हूं और ना ही
निराशावादी। मैं तो हकीकतवादी हूं। लेकिन आजाद भारत का ऐसा नकारा, ऐसा बेशर्म और ऐसा ढीठ राजनेतृत्व तथा ऐसी विचारशून्य सभ्यता के दर्शन की
हकीकत का सामना करने में पीड़ा हो रही है। राजनीतिक जमात पर पहले से ही विश्वास
नहीं था, लेकिन अब पूरी तरह
से उठ गया है। हमें उनमें पहले लालची-प्रपंची इंसान दिखते थे। लेकिन अब उनकी
शक्लों में चारों तरफ़ राक्षसी गिद्ध मंडराते दीख रहे हैं। जैसे कि उस मूवी के एक
दृश्य में होता है वैसे ही कहते हो कि कुछ चिताएँ जलती है तो जलने दो।
ये वो लोग हैं जिन पर मुल्क ने देश को सँभालने की
ज़िम्मेदारी दी थी। ये लोग मुल्क संभाल भी रहे हैं या नहीं ये जानने या समझने
की मेहनत करना तो कबका छोड़ दिया था हम सबने। लेकिन नासमझी के बाद भी यह उम्मीद मुल्क ने की थी कि जब
भी मुसीबत आएगी तो वे समाज के साथ खड़े हो जाएँगे। इनसे ये उम्मीद तो नहीं थी कि ये जान जोखिम में डाल कर
मासूम जनता की जान बचाएंगे। लेकिन ये आश ज़रूर थी कि ये लोग भले ही बड़बोले हो, लेकिन इतनी बड़ी त्रासदी
के समय देश को सहुलियते देंगे, संसाधन देंगे, इलाज देंगे, बेड देंगे, ऑक्सीजन देंगे। आज जब
इनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है तो इनमें से अधिकांश ग़ायब हैं। जनता को उसके हाल पर
छोड़ दिया है। चुनावों में हजारों-लाखों की भीड़ इक्ठ्ठा कर देते हैं ये लोग, बसें लगाकर
सैकड़ों किलोमीटर दूर से लोगों को खींच कर ले आते हैं सभाओं में ये लोग, लेकिन
यही लोग मर रहे लोगों को दो बूँद ऑक्सीजन नहीं दे
सकें। हिंदू-मुसलमान, मंदिर-मस्जिद, डंका बजना, विश्वगुरू बनना, आत्मनिर्भर... न
जाने ऐसे कितने जुमलों में फंसाकर ये लोग अब जनता को जानवरों की तरह मरते देख रहे
हैं। लाजमी है कि इन्हें भी इस महामारी का डर हो, लाजमी है कि इन्हें भी अपनी जान
का ख़तरा दिखता हो, हो सकता है कि इन्हें भी अपनी और अपने परिवारों की फिक्र हो...
लेकिन आम जनता कुत्ते की मौत मर रही है, बीच सड़कों पर सांसे छोड़ रही है और ये
लोग आज भी ग़रीब जनता से ज्यादा सुरक्षित है। इन्हें अस्पतालों में एक या दो
फ़ोन करने पर वो सुविधा उपलब्ध हो जाएगी, जो आम आदमी को कभी नसीब नहीं होगी।
खुद ही
हजारों-लाखों की भीड़ इक्ठ्ठा करो, बिना मास्क के प्रचार करो और फिर शाम को
टेलीविजन पर आकर देश के सामने उपदेश की बकैती करो। गजब का चुनावजीवी नेतृत्व मिला
है। लॉकडाउन से अब तक के बारह महीनों में यदि मोदी सरकार की बेवकूफियों, कमजोरियों के बारे में किसी ने नहीं बोला है तो इसका मतलब यह नहीं है कि कोविड
19 काल में मोदी सरकार का मोत के तांडव में कोई योगदान नहीं है। गोदी मीडिया से लेकर
दूसरे बड़े लोग क्यों नहीं बोले हैं यह सबको भली-भांति पता है। गाँव में अगर कब्रिस्तान
बनता है तो हर गाँव में स्मशान भी बनना चाहिए, पीएम सरीखे इस आदमी की ये निहायती
कमजोर सोच को आज देश भुगत रहा है।
मोदी और शाह
सरकार गिराने, सरकार बनाने के लिए बड़े से बड़ा उलटफेर रातोरात
कर सकते हैं, लेकिन कोरोना से देश को बचाने के लिए इनके पास अनर्गल प्रलापों के सिवा
कुछ है ही नहीं। 2020 में देश ने फिर एक बार सब कुछ सह कर, सिसकते सिसकते हुए
इन्हें तीन महीने दिए थे, लेकिन इन्होंने उस समय दिया-बाती-थाली-नारों के सिवा कुछ
नहीं किया। करीब करीब एक साल मिला इन्हें, लेकिन ये लोग आत्ममुग्ध वाली स्थिति को
घारण करके चुनाव प्रचार-प्रसार, सरकार बनाना-गिराना में जुटे रहे।
यूपी पंचायत
चुनाव में कथित रूप से जिन 700 शिक्षकों की कोरोना संक्रमण के चलते मौतें हुई वह
घटना उस सोच को आईना दिखाती है, जिसे हम सालों से पाल रहे हैं, जिसके लिए हम
दिन-रात पागल हुए जा रहे हैं। जिस तरह मद्रास हाईकोर्ट ने कहा था कि जिन राज्यों
में चुनाव हुए वहां मौतों के लिए चुनाव आयोग जिम्मेदार है, इन पर तो हत्या का
मामला चलना चाहिए, वैसे ही हमें यह भी लगता है कि 700 शिक्षकों की कथित मौत केवल
मौतें नहीं है, बल्कि सैकड़ों शिक्षकों का एक तरीके से हत्याकांड है। अंत सभी को
पता है कि किसी न किसी बहाने से, तरीके से, दलीलों से और जांच-वांच और रिपोर्ट के
जुमले से इस हत्याकांड को हैंडल किया जाएगा।
देश के एक
दर्जन से ज्यादा राज्यों में, बड़े बड़े राज्यों में, लोग बेमौत मारे जा रहे हैं।
जिस गुजरात मॉडल के चूरन को बेचकर चकाचौंध वाली दुनिया का निर्माण किया गया उसी
गुजरात में लोग दो बूँद ऑक्सीजन के बिना मर रहे हैं। सुबह जो ठीक होते हैं, शाम को
उनके निधन की खबरें आती हैं। बिमार को इलाज नहीं मिल रहा, अस्पताल नहीं मिलते, जगह
नहीं मिलती। सब कुछ मिलता है तो दवा नहीं मिलती, ऑक्सीजन नहीं मिलता।
पिछली बार
अचानक से लॉकडाउन लागू हुआ तब विशेषज्ञों ने लॉकडाउन लागू करने के उस तरीके को गलत
माना था। दिसंबर 2019 से विशेषज्ञ देश को चेता रहे थे, फरवरी 2020 में डब्ल्यूएचओ
ने चेताया, लेकिन इन्होंने मार्च तक उत्सवों की अपनी सनक को नहीं छोड़ा। पेट्रोल
पंप, सॉरी, डोनाल्ड
ट्रंप वाला जश्न सबको याद होगा। उन दिनों कहीं पर सरकार गिराने का काम जारी था,
कहीं पर सरकार बनाने का। ये वो दिन थे जब दुनिया के कई देश खुद को बंद कर रहे थे
और तब भारत लाखों की भीड़ इक्ठ्ठा करके जश्न की दुनिया में डूबा हुआ था। फिर अचानक
से ही लॉकडाउन। लोगों को तैयारियों का समय तक नहीं दिया। भावनात्मक सभ्यता ने यह
भी सह लिया। फिर लॉकडाउन बढ़ाते गए, बढ़ाते गए। लेकिन लॉकडाउन जिन चीजों के लिए
होता है वो काम तो बिल्कुल नहीं किया। बस नारे, अनर्गल प्रलापों वाले राष्ट्र के
नाम संबोधन, थाली-ताली-दिया और बाती। लॉकडाउन बढ़ता ही जा रहा था लेकिन सरकार को
जिन चीजों के लिए समय मिला था वोह काम उन्होंने तब भी नहीं किये। कौन से काम उसके
ऊपर हम उन दिनों लेख लिख चुके हैं। दोबारा पढ़ लीजिएगा।
इतना लंबा लॉकडाउन,
लेकिन वो भी बिना किसी काम का, बिना किसी योजना का, बिना किसी तैयारी का। तब
विशेषज्ञों ने कहा था कि इतने लंबे लॉकडाउन का ऐसा बेकार इस्तेमाल देश, समाज, लोग,
ढाँचों की हत्या का आयोजन है। उसके बाद जब मोदी सरकार चुनावी और दूसरे उत्सवों में
व्यस्त थी तब चेताया गया। सबने दूसरी लहर के बारे में कहा। उस वक्त एक
चेतावनी यह भी दी गई थी कि आप दूसरी लहर के लिए तैयारी तो नहीं कर रहे, लेकिन पहली
लहर में बेकार लॉकडाउन इतना लंबा कर दिया कि जब दूसरी लहर आएगी तो आप चंद दिनों का
लॉकडाउन करने की स्थिति में भी नहीं होंगे। ऐसा क्यों कहा गया था वो भी हमारे उस
पुराने लेखों में पढ़ ले। आज हालात यह है कि पिछले साल का इतना लंबा लॉकडाउन, जो
पूरी तरह बेकार चला गया, और जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को सिरे से तोड़ दिया, उसके
बाद आज वोही मोदी, जो लॉकडाउन को प्रथम उपाय बताते थे, आज उसे अंतिम विकल्प के तौर
पर दर्शाने को मजबूर है।
कोरोना का
नया म्यूटेंट आया होगा भारत में, लेकिन हमारे यहां गुजरात में तो लॉकडाउन का ही
नया म्यूटेंट आ गया है। दूसरे राज्यों में ये आया है या नहीं, हमें नहीं पता।
हमारे यहां यूं तो सब कुछ बंद है, फिर भी लॉकडाउन नहीं है! यूं तो चुनावी मोज के
बाद स्वयंभू तालाबंदी वाले जुमले को फैलाकर सरकारें रायता समेट रही है। 15 अप्रैल
2021 के पहले की स्थिति के संदर्भ में लिखे तो, ज्यादा जगहों पर (हर जगह नहीं
किंतु बहुत ही ज्यादा जगहों पर) स्वयंभू लॉकडाउन का जो मामला है वह दरअसल उस
प्रदेश सरकारों की पर्दे के पीछे रहकर जबरन बंद करवाने की नीति है। कई जगहों पर
लोगों का फ़ैसला, व्यापारियों का फ़ैसला, वगैरह के नाम पर आंशिक या पूर्ण तालाबंदी
की जा रही है। लेकिन एक संभावना यह भी है कि ऊपर से जो इशारे किए जा रहे होंगे, उस
प्रकार से उस शहर या इलाके के पहुंच वाले या आधिकारिक सत्ता समर्थक गुट... लोगों
के नाम पर या फलाने फलाने एसोसिएशन के नाम पर प्रचार करवा के ऊपरी आदेशों का पालन
ही कर रहे होंगे। वर्ना इनको ये सद्बुद्धि पहले ही आनी चाहिए थी, अब नहीं। एक
दूसरा लॉकडाउन कितना महंगा पड़ सकता है यह सरकारों को पता है। ऊपर से केंद्र से
लेकर बीजेपी शासित सरकारें कई बार कह चुकी है कि तालाबंदी नहीं होगी। पीएम भी
पिछले साल की तुलना में इस साल लॉकडाउन को लेकर बड़ा सा यू टर्न ले चुके हैं। चुनावी
जश्न में व्यस्त रही सरकारों ने वायरस के खिलाफ तैयारियों को साइड में ही रख दिया
था। लेकिन अब पूरी तरह फंसे हैं तो ये लोग पीछे से सबको दबाव डालकर स्वयंभू वाला
जुमला फेंक कर दोबारा बंद कराने को मजबूर है। हर शहर में, हर इलाके में, सत्ता
पीछे से धक्का लगाकर इन नीतियों को अपना रही है। हमारे गुजरात में, सीएम विजय रुपाणी,
जो गुजरात के मनमोहन सिंह माने जाते हैं, को अब तो सीधा ही कोई बोल दो कि भाई कोई स्पष्ट
फैसला ले ही लो.... यूं एसोसिएशन के नाम पर अपने चमचों के कंधे पर बंदूक रखकर शहर शहर
में स्वयंभू लॉकडाउन वाले मिस फायर की बकैती काहे को?
कुछ सरकारें
लॉकडाउन लगा चुकी है, कुछ लगाए हुए लॉकडाउन की अवधि को बढ़ा चुकी है। इनमें कौन
कौन है और कौन नहीं है, यह खुद ही जान लीजिएगा। उधर योगी बाबा को इलाहाबाद
हाईकोर्ट ने चार प्रमुख शहरों में तालाबंदी का आदेश दिया तो योगी बाबा ने इसे मानने
से ही इनकार कर दिया। हाईकोर्ट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चले गए। लॉकडाउन लागू नहीं
करने के लिए। सुप्रीम कोर्ट ने अब तक योगी बाबा की दलीलों को मान्य रखा है। लेकिन
अब केंद्र का जो टार्गेट था, संक्रमण और मौतों का आंकड़ा से लेकर राज्यों के चुनावी नतीजों का समय,
खत्म होने को आया है। क्या पता कोरोना के नये म्यूटेंट की तरह मोदी बाबा लॉकडाउन
का भी कोई नया म्यूटेंट लागू करने को मजबूर हो जाए। जिसमें कहा जाए कि हमने बिना लॉकडाउन
किए जीत लिया वायरस को। जीत वैसी ही होगी जैसे पिछले साल थी। क्योंकि अभी तीसरी
लहर का सामना करना बाकी है। फिलहाल भारत डबल म्यूटेंट वाले कोरोना से जूझ रहा है,
डबल म्यूटेंट पर शोध अभी व्यवस्थित ढंग से हो भी नहीं पा रहा, वैज्ञानिक इसके लिए
मोदी सत्ता से इजाजत और पैसा मांग रहे हैं, इस बीच ट्रिपल म्यूटेंट का आगमन भी हो
चुका है।
नागरिक से प्रजा बन चुके लोग अब प्रजा से लाशों में तब्दील हो रहे हैं। और इन
लाशों को सम्मानजनक विदाई भी नसीब नहीं हो रही। ना स्मशानों में जगह है, ना लाशों को ढोने का ढाँचा बचा है। विश्वगुरू भारत में डब्ल्यूएचओ ने जिसे कोरोना
की दवा नहीं माना उस रेमडेसिविर का जमकर काला व्यापार हो रहा है। नायक ने टीका
उत्सव की नयी घोषणा कर दी है। लेकिन हालात यह है कि कहीं पर टीका ही नहीं है! ऊपर से टीके को लेकर भी कई विवाद है। हम तो कहते हैं कि नायक के टीका उत्सव
की वो घोषणा फिर एक गलती है, क्योंकि फिलहाल जो स्थिति है, लोगों को टीके की नहीं, ऑक्सीजन-बेड-इलाज की ज़रूरत है। उत्सवप्रिय मोदी उत्सवों और नारों का छलावा
देश को दिए ही जा रहे हैं, जबकि जमीनी स्थितियां वाक़ई भयावह है। हम विशेषज्ञ नहीं है लेकिन गजब यह लगता
है कि कोरोना अपना रूप बारबार बदल चुका है, लेकिन हमारे यहां इलाज का तरीका नहीं बदल रहा।
इलाज के तरीकों में परिवर्तन ज़रूरी है या नहीं, कितना बदलाव आया है, वगैरह को लेकर थोड़ी बहुत चर्चा हो रही है, लेकिन सत्ता रिसर्च के लिए इजाज़त और पैसा देने में उतनी जल्दबाजी नहीं दिखा रही, जितना कहीं सरकार बनाने-गिराने में दिखाती रही है। कोरोना पर विजय के मूर्ख उत्सवों के बाद अब
भारत का पूरा ढाँचा ध्वस्त हो चुका है।
हम नहीं
मानते कि उनके इस गुनाह का ऊपरवाला हिसाब करेगा। ये सब बेफिजूल की बातें हैं। ऐसा
नहीं है कि मैं ईश्वर में नहीं मानता। मैं मानता हूं ईश्वर में। किंतु जितना मानना
चाहिए उतना ही मानता हूं, हदें पार करके नहीं। हमारे राजनेताओं का हिसाब ऊपरवाला
नहीं करेगा, बल्कि हिसाब करने का मौका जनता के पास ही होगा, जैसे हमेशा होता है। लेकिन जनता
राजनेता से भी ज्यादा ढीठ हो चुकी है। लोकतंत्र में हमारे हिसाब से एक सीधा नजरिया
होता है। वह यह कि कोई भी प्रदेश हो, वहां यदि कोई सरकार एक मौका पूरा करके अगर
दूसरी बार भी चुन ली जाती है तब उस प्रदेश की सभ्यता की गलती की संभावना बेहद
ज्यादा होती है। और अगर ऐसा बार बार होने लगे तब एक बात स्वयं सिद्ध हो जाती है,
और वोह बात कौन सी होती है यह समझाने की ज़रूरत समझदार लोगों को नहीं है। रही बात
जो नहीं समझते उन लोगों की, जो नहीं समझते उनको समझाने की कोशिशें कतई नहीं करनी
चाहिए।
जैसे हमने
ऊपर लिखा वैसे, विशेषज्ञ, चिकित्सक, रिसर्च करनेवाले से लेकर हमारे जैसे ब्लॉगर तक
दूसरी लहर के बारे में महीनों से लिख रहे थे, लोगों को आगाह कर रहे थे, सरकार-लोगों को
चेता रहे थे। जो संकट आनेवाला था उसके ऊपर पहले से बताया जा रहा था, लेकिन तब
मोदी-शाह का काफिला कहाँ था। तब आम जनता का जमघट कहाँ था। तब ये सब सो रहे थे, कुंभकर्ण की तरह। नहीं
कुंभकर्ण की तरह नहीं। वैसे कुंभकर्ण की उपाधि इस सरकार को सर्वोच्च अदालत 2014-15
वाले काल से ही दे चुकी है। इसलिए हमें लिखना चाहिए कि ये सो नहीं रहे थे। ये अपने अहंकार में डूबे थे,
आत्म
मुग्धता के समुद्र में डुबकियाँ लगा रहे थे, अपनी बेवक़ूफ़ी के दलदल में हँस रहे थे। कोई बेवकूफ
ही यह कह सकता है कि उसने कोरोना पर विजय पा ली है। कोई दंभी ही ये मुग़ालता पाल
सकता है कि वायरस उसका कुछ नहीं कर सकता। जब ये अपनी मूढ़ता के जंगल में अठखेलियाँ
खेल रहे थे तब वायरस धीरे-धीरे अपने पैर पसार रहा था, हमारी-आपकी और सबकी ज़िंदगी को
लीलने का मंसूबा लिये। यह वक़्त था पूरे देश को आगामी संकट से तैयार करने का, योजना बना कर लड़ने का, युद्ध स्तर पर रणनीति बनाने का।
अगर ऐसा होता तो आज भारत देश मौत के दावानल में कराह न रहा होता? उसकी दर्दनाक आवाज़ें हवा में
ख़ौफ़नाक तरीक़े से दिलों को कंपा न रही होतीं?
मन तो कर रहा है कि कह दें कि ये
लाशों के व्यापारी हैं। इनके लिये अपने हित सर्वोपरि हैं, चुनाव जीतना सबसे पहली प्राथमिकता
है। लोग मरते हैं तो मरें। लोगों के घर उजड़ते हैं तो उजड़ें। इनकी बला से। इसकी
सत्ता बनी रहे। इनके पद बने रहें। क्या सत्ता के घोड़ों पर सवार लोगों को यह पता
नहीं था कि कोरोना की दूसरी लहर आने वाली है। दूसरी लहर पहले से ज़्यादा ख़तरनाक
होगी? अधिक जानलेवा होगी? जब कईयों
को पता था तो इन्हें पता ही होगा। लेकिन इन्होंने विश्वगुरु भारत को लाशों का ढेर
बनने के लिए छोड़ दिया।
वो वक़्त था तैयारी करने का। अस्पतालों की संख्या बढ़ाने का। बेड, दवा, वैक्सीन और
ऑक्सीजन को ज़िले-ज़िले, गाँव-गाँव, बस्ती-बस्ती और अस्पताल-अस्पताल पहुँचाने का, पर ये जश्न में डूबे थे। आत्ममुग्धता के जश्न में। अहंकार के जश्न में। झूठी
कामयाबी के जश्न में। अपने हर आलोचक को गरियाते हुए। बढ़ाने थे अस्पतालों में बेड, बढ़ा ली दाढ़ी। पिछले साल मामलों की और अब की बार लाशों की गिनती करता हुआ
विश्वगुरू। लोग मरते रहे, वे चुनाव लड़ते रहे।
एक जुमला
है। जुमला है – सवाल यह नहीं है कि बस्तियाँ किसने जलाई, सवाल यह है कि बस्तियाँ
जलाने के लिए इनके हाथों में माचिस किसने दी। कभी कभी लगता है कि यह मोदी
गवर्नमेंट है या फिर मोदी गैंग? जिम्मेदारी को मत्थे लेने के लिए कोई राजनेता
तैयार नहीं होता ये तो आजादी के बाद का सच है, किंतु इस चीज़ में मोदी सबसे ढीठ
नेता साबित हो चुके हैं। सोशल मीडिया पर एक वीडियो है, जो शायद मनोरंजन या
राजनीतिक खीज के लिए होगा, लेकिन अंत में तो सच की तरफ ही जाता है। वीडियो में कोई
बंदा माइक के साथ एक लड़की को पूछता है कि अगर आप को कॉपी चेक करने का काम दिया
जाए तो मोदीजी की कॉपी चेक करके आप उन्हें कितने नंबर देगी। वो लड़की हंसते हुए,
लेकिन अंदर से परेशान होकर उत्तर दे देती है कि मैं उनकी कॉपी फाड़ दूंगी।
सोचिए, हर
राज्यों में अदालतें बीजेपी या गैरबीजेपी, दोनों सरकारों को जमकर झाड़ रही है।
स्पष्ट है कि बीजेपी शासित सरकारें ज्यादा है इनमें। केंद्र की मोदी सरकार को
अदालतें कह रही है कि ऐसा कीजिए, वैसा कीजिए। अदालतें मोदी सरकार से रोड मेप मांग
रही है, योजनाओं का खाका मांग रही है। लेकिन इनके पास कुछ है ही नहीं। इनके पास बस
बूथ मैप है, पन्ना प्रमुखों की सूची है, चुनाव जीतने की योजनाएँ हैं, इसके सिवा कुछ
नहीं है। बस घोषणाएँ कर दी जाती है। ये करेंगे, वो करेंगे वाली घोषणाएँ। जिन्हें पता
ना हो उन्हें बता दे कि ऐसी घोषणाएँ तो पिछले साल भी हुई थी। इस समय जब देश ऑक्सीजन
की दो बूँद के लिए तरस रहा है, पिछले साल ऑक्सीजन को लेकर मोदी सत्ता ने
गाहे-बगाहे घोषणा की थी। लेकिन आज क्या हालात है सबको पता है। इस साल भी घोषणाएँ
हुई हैं। पता है कि इस साल की मोदी की घोषणाएँ भी आम जनता की तरह बिना ऑक्सीजन के
मर जाएगी।
देखिए न,
गुजरात में बड़े तामझाम से डीआरडीओ के सह्योग से करीब 1000 बेड वाले अस्पताल
की घोषणा हुई। गुजरात के गांधीनगर में और अहमदाबाद में। अहमदाबाद वाली अस्पताल का
शुभारंभ तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने किया। सोचिए, जब लोग मर रहे हैं तब भी
प्रचार का ये भूखा गैंग बाकायदा फीता काटता है, शुभारंभ के नाम पर फोटू खींचाता
है!!! देशभर में ऐसे सैकड़ों अस्पताल चाहिए, जब लोग जानवरों की तरह मर रहे हैं तब
यूं फीता काटने में पूरा सरकारी काफिला लगाते रहे तो कैसे चलेगा? लेकिन क्या करे,
ये ढीठ नेता जमात फोटू खींचाने की लालची वृत्ति को कैसे छोड़ पाएगी भला। ऊपर से
वहां सैकड़ों लोगों को बुलाया जाता है, कोविड 19 प्रोटोकॉल का उल्लंघन होता है और
नियमों को तोड़कर शुभारंभ होता है!!! मोदी-शाह और राज्य के एकाध-दो चेहरों के बडे बडे
बैनर अस्पताल के बाहर लगाए जाते हैं!!! दूर से अस्पताल का नाम दिखे ना दिखे, इनके
फोटू ज़रूर दिखने चाहिए! मौत के इस तांडव के बीच भी ये लोग अपनी प्रचार की भूख को
नहीं छोड़ते।
तब तक तो
ठीक था। लेकिन अहमदाबाद वाला कोविड अस्पताल, जिसे धन्वंतरी कोविड अस्पताल नाम दिया
गया था, वहां शुभारंभ होने के बाद दो-तीन दिन तक को मरीज़ को भर्ती किया जाना ही
मुमकीन नहीं होता!!! क्योंकि कभी ऑक्सीजन का प्रेसर नहीं था, कभी बेड तैयार नहीं थे,
कभी ये नहीं था, कभी वो नहीं था!!! बताइए, शुभारंभ और फोटूं खींचाने के बाद भी,
दो-तीन दिनों तक मरीज़ को नो एंट्री! फिर एंट्री होती है तो महीने भर तक हर दिन ये
अस्पताल विवादों में ही रहता है। घोषणा गाहे-बगाहे करीब एक हज़ार बेड की हुई थी।
लगा था कि चलो एक साथ एक हज़ार लोगों का इलाज चलता रहेगा। लेकिन यहां तो महीने भर
तक कभी एक दिन में पचास, कभी एक दिन में नब्बे मरीज़ों को ही लिया जाने लगा। तब
जाकर पता चला कि फीता ही कटा है, घोषणा के अनुसार काम करने में तो अभी समय
लगनेवाला है! ऊपर से इस अस्पताल ने ऐसे काम किया, इतने विवाद पैदा किए, लगा कि
अमित शाह यह न बोल दे कि एक हज़ार बेड तो एक जुमला था। इतने सारे विवाद कि गुजरात
हाईकोर्ट तक को मैदान में उतरना पड़ता है!
गांधीनगर
वाले अस्पताल का तो खेल ही निराला हो जाता है। घोषणा गाहे-बगाहे की गई थी, लेकिन
दिनों तक वहां खुला मैदान ही होता है। कोई काम नहीं, कोई प्रगति नहीं। फिर चूपके
चूपके एक दूसरी घोषणा आती है कि अब वहां वो अस्पताल नहीं खुलेगा, बल्कि दूसरी जगह
खुलेगा!!!
केवल गुजरात
ही नहीं, तमाम राज्यों के अस्पतालों के क्या हाल है सब देख ही रहे हैं। सबके
चीखने-चिल्लाने और चेतावनियां देने के बाद भी, सजग करने के बाद भी, आज भारत बहुत
बहुत ही बदतर स्थिति का सामना कर रहा है। लोग इलाज के लिए तरस रहे हैं, मर रहे
हैं, अस्पतालों के पास दवा नहीं है, इंजेक्शन नहीं है, ऑक्सीजन नहीं है। अस्पतालों
से वैक्सीन चोरी हो रही है। ऊपर से वैक्सीन है ही नहीं, फिर भी टीका उत्सव चल रहा
है!!! दुनिया को वैक्सीन देने वाला भारत आज दूसरे देशों से दूसरी वैक्सीन लेने को
मजबूर है। मजबूरी तो देखिए साहब कि पाकिस्तान से तुलना वाला हथियार चल नहीं
सकता अभी, क्योंकि अभी तो पाकिस्तान से भी मदद लेने की नौबत आन पड़ी है। 2020 वाला
साल तो छोड़ दीजिए, 2021 में भी सरकार को आगाह करते रहे विशेषज्ञ, लेकिन चुनावजीवी
प्रकृति के आगे सब बेकार होता गया। वैज्ञानिकों के समूह ने, जिसे 2020 में इसीलिए
बनाया गया था कि वे सरकार को रिसर्च करके आगाह करें और फिर सरकार उस हिसाब से काम
करे, उसकी चेतावनियों को भी डस्टबिन में डाल दिया गया था!!!
हमारा गोदी
मीडिया अब भी वाहवाही में लगा हुआ है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मीडिया में सचमुच डंका
बज रहा है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में उस सच को लिखा जा रहा है कि जब देश में कोरोना
का ग्राफ चढ़ रहा था, उस समय प्रधानमंत्री मोदी समेत कई राजनेता विधानसभा
चुनाव में अपनी जीत दर्ज करने के लिए रैलियां कर रहे थे। केंद्र या राज्य सरकारों के
लिए उस समय बढ़ते कोरोना या ऑक्सीजन की सप्लाई को सुनिश्चित करना अहम नहीं था, बल्कि विरोधी पार्टियों के नेताओं पर आरोप लगाना और बड़े-बड़े मैदानों में भीड़
जुटाना, यही प्राथमिकता थी। कई अंतरराष्ट्रीय मीडिया
रिपोर्टस में मोदी को इस स्थिति के लिए जिम्मेदार बताया जा रहा है। पीएम मोदी
कोरोना की लड़ाई में अपने अभिमान के चलते चूक गए, मोदी समेत पूरे मंत्रिमंडल ने
स्थिति को अनदेखा किया, भारत में टीकाकरण की धीमी रफ्तार, सरकार के गलत फ़ैसलों की
वजह से भारत की स्थिति बिगड़ी, पीएम मोदी के अति आत्मविश्वास की वजह से भारत में
इतना जानलेवा बना कोरोना, जैसे शीर्षक विश्वगुरु का डंका दुनिया में बजा रहे हैं।
एक पस्त हाथी जमीन पर पड़ा है, जिसकी पीठ पर सिंहासन लगाकर पीएम मोदी बैठे हैं, यह
अंग्रेजी कार्टून ऑस्ट्रेलियाई मीडिया में चल रहा है।
बिना ऑक्सीजन के सैकड़ों
लोगों की सांसे रुक रही हैं। बिना इलाज के लोग दम तोड़ रहे हैं। पूरा का पूरा ढाँचा
धराशायी हो चुका है। मोदी सरकार का स्वास्थ्य मंत्रालय कहता है कि ऑक्सीजन की कमी
नहीं है, कुछ दिनों बाद उसी मोदी सरकार का कदावर मंत्री कहता है कि ऑक्सीजन की किल्लत
से हम जूझ रहे हैं, जिसे ठीक किया जाएगा। मार्च 2021 के आखिरी सप्ताह में मोदी
सरकार का मंत्री कहता है कि कोरोना अब नहीं आएगा, मोदीजी की दूरदृष्टि की बदौलत
देश ने उसे जीत लिया है। और उसके एक सप्ताह के भीतर भारत का पूरा ढाँचा कोरोना की
वजह से टूट जाता है। राज्यों की अदालतों के से लेकर सर्वोच्च अदालत तक केंद्र
सरकार को निर्देश देती दिख रही है, झाड़ती दिख रही है। इलाज तो ठीक है, आग लगने से
ही कोविड अस्पतालों में मरीज़ बेमौत मारे जा रहे हैं!!! वैक्सीन की कोई ठोस नीति है ही
नहीं। तभी तो बार बार उस वैक्सीन नीति को बदलना पड़ रहा है। नीति तो ठीक है, ऊपर
से एक देश एक टैक्स-एक देश एक चुनाव के नारों के बीच वैक्सीन के दाम ही अलग अलग
हैं और बार बार बदल रहे हैं।
इलाज तो
नहीं मिल रहा, लेकिन जो प्रजा अब लाश में तब्दील हो रही है उसको भी सम्मानजनक
विदाई नहीं मिल पा रही। लाशें बदल जाती हैं, जिंदा मरीज़ मार दिया जाता है, मार
दिया गया हो वो जिंदा मिल जाता है, इलाज क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है, स्थिति
कैसी है, कब अच्छी थी, कब बिगड़ी, अचानक से क्यों निधन हुआ, कोई ख़बर स्वजनों को
नहीं मिल पा रही!!! लाश को स्मशान तक पहुंचाने में, उसका मुँह अंतिम बार देखने के
लिए, धर्म या परंपरा के आधार पर अंतिम संस्कार के लिए, दिक्कतें ही दिक्कतें है।
पैसे देने पड़ते हैं, पैसे देकर भी कोई चीज़ कंफर्म नहीं होती। जो जिंदा हैं,
उन्हें अपना शरीर टिकाए रखने के लिए फल चाहिए, लेकिन उसमें भी दाम तीन-चार गुना बढ़
चुके हैं। कहीं पर कोई कम दाम पर चीजें मुहैया करवा के सेवा करता है तो उस एक ख़बर
को दिखाकर भावनात्मक सभ्यता को मरहम लगा दिया जाता है।
एक साथ
सैकड़ों लोगों को एक साथ जलाने की तस्वीरों से देश भरा पड़ा है। लगातार जल रही चिताओं
की गर्मी से पास में लगे पेड़ भी झुलस गए हैं। आंकड़ों की मायाजाल में फिर एक बार
सबको गुमराह करने का खेल पिछले साल की तरह इस साल भी जारी है। लोग सिर्फ अपनी जान
ही नहीं गंवा रहे, बल्कि इंसानियत का भी अंतिम संस्कार हो रहा है। लोग अस्पतालों,
लैब, मेडिकल स्टोर के ही चक्कर नहीं काट रहे, वे स्मशान दर स्मशान भटक रहे हैं।
हालात यह हो चुके है कि अब तो कोविड प्रोटोकॉल का पालन किए बिना ही लाशें जलानी
पड़ रही है। कुछ मामलों में तो कोविड मरीज़ की लाशें स्वजनों को ही दी जा रही है,
यह कहकर कि अपने शहर-गांव में जाकर जला देना, यहां कोई इंतज़ाम नहीं बचा है अब!!! लोग
यह भी करने को मजबूर है।
कोविड 19 के
प्रोटोकॉल तो छोड़ दीजिए, विश्वगुरु बन चुके देश में अब तो चिकित्सक दवा या दूसरी
कोविड और मेडिकल संबंधी चीजें भी सामान्य पर्ची पर लिख कर देने को मजबूर है। उपचार
के प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ रही है। कोरोना के बदले रूप ने इलाज का रूप तो नहीं
बदला, लेकिन जो इलाज है उसका रंग और ढंग ज़रूर बदल दिया है। जो इलाज हो रहा है वो
मान्य है या नहीं, प्रोटोकॉल के हिसाब से है या नहीं, डब्ल्यूएचओ की बदली हुई
मार्गदर्शिकाओं के मुताबिक है या नहीं, किसीको नहीं पता!!!
दुनिया के
दूसरे राष्ट्रों ने दूसरे दौर के मुकाबले की जो तैयारियां की, उसका चौथाई हिस्सा भी
भारत में नहीं दिख रहा। दुनिया जब अपने नागरिकों का कोविड टेस्ट कर रही थी उस समय
हम टेस्टिंग कीट के टेस्टिंग में ही अटके हुए थे!!! जिस सरकार को भारत की आज तक की सबसे
ताक़तवर सरकार के रूप में जबरन मनवाया जा रहा था, जिस नेता को अब तक के इतिहास का सबसे ताक़तवर नेता गोदी मीडिया के जरिए कहा जा
रहा था, वे दोनों ही खोखले निकले। यह कहावत कि जो गरजते
हैं, वे बरसते नहीं, एक दूसरे तरीके
से चरितार्थ हुई। जो लोकप्रिय है, ज़रूरी नहीं कि वो काम के समय काम का ही निकले,
यह भी साबित हो गया। जो मुठ्ठियाँ हवा में उछालता रहे, ज़रूरी नहीं कि वो हाथ
पकड़कर सही रास्ता दिखा सके। जो आपको चकाचौंध करता हो, ज़रूरी नहीं कि वो ज़रूरत
के समय रोशनी दे। साबित हो गया कि यह उसकी प्रवृत्ति नहीं होती, क्योंकि उसके पास
जो कौशल है वो चुनाव जीतने को लेकर है, ऐसी चीजों को लेकर नहीं है।
मोदी सत्ता
ने कोरोना पर विजय की घोषणा पिछले साल ही कर दी थी, ठीक उसी समय इसी मोदी सत्ता को
चीख कर, लिख कर बताया जा रहा था कि संभल जाइए, संसाधन बढ़ाइए, तैयारियां फिर से
शुरू कीजिए, अगली लहर ज़रूर आएगी, जिसका संक्रमण दर अधिक होगा। संसद की स्टैंडिंग कमिटी
की उस सलाह को भी नज़रअंदाज़ कर दिया जिसमें तैयारी बनाए रखने की बात कही गई थी। पिछले
साल संसदीय समिति ने सरकार से मेडिकल ऑक्सीजन का उत्पादन बढ़ाने को कहा था। सरकार ने
उस पर कान नहीं दिया। वैज्ञानिकों के समूहों की चेतावनी को घोल कर पी गए ये लोग।
मोदी सत्ता
ने किसी की बात नहीं सुनी, किसी की नहीं मानी। यह भ्रम जनता में फैलने दिया गया कि
भारत में कुछ ख़ास बात है कि जिस तरह इस संक्रमण ने यूरोप और अमेरीका को प्रभावित किया
वैसे भारत को नहीं करेगा। उनके मंत्रालय भी ऐसी भाषा बोल रहे थे, देश को बतला रहे
थे और उसी दिन मेडिकल संस्थाएँ मंत्रालय के बयानों का विरोध भी कर रही थी। विशेषज्ञ
लगातार सावधान कर रहे थे। चेतावनी दी जा रही कि कोरोना रूप बदल रहा है और नया रूप अधिक
संक्रामक और घातक होगा। सावधानी और इंतजाम की ज़रूरत होगी। लेकिन सरकार ने फिर सबकी
खिल्ली उड़ाई। प्रधानमंत्री,
स्वास्थ्य मंत्री ने अपनी पीठ ठोंकी कि भारत जीत गया है। प्रधानमंत्री ने अन्तराष्ट्रीय
मंच पर उन सबकी आलोचना की जो आगामी आपदा की चेतावनी दे रहे थे!!! जब विशेषज्ञों और विपक्ष
के नेताओं ने कहा कि टीके की रफ़्तार और मात्रा भारत की जनसंख्या को देखते हुए नाकाफी
है और दूसरे टीकों को भी इजाज़त देनी चाहिए तो उन पर पूरी सरकार टूट पड़ी और उन पर आरोप
लगाया कि वे दूसरी टीका कंपनियों की दलाली कर रहे हैं!!! इसके हफ्ते भर बाद ही दूसरी टीका कंपनियों के लिए दरवाज़ा खोल दिया गया!!! लेकिन तब
तक देर हो चुकी थी। इन कंपनियों के पास पहले से ही दूसरे देशों की माँग इतनी जाम हो
गई थी कि भारत उनकी प्राथमिकता में पीछे चला गया है!
रही बात
खोखली घोषणाओं की, हमने पहले ही लिख दिया कि घोषणाएँ तो बहुत बार की गई, ऑक्सीजन प्लांट से
लेकर बहुत सारी घोषणाएँ पिछले साल भी हुई थी, लेकिन आज क्या चल रहा है वह सबके
सामने है।
मोदी सत्ता घोषणाओं की सरकार है, घोषणाओं को लागू करने की जिम्मेवारी शायद जिम्बाब्वे सरकार की होगी, इनकी नहीं होगी। मोदी-शाह को यकीनन पता होगा कि नारों से चुनाव जीते जाते हैं, वायरस को नहीं। लेकिन विचारशून्य और भावनाप्रधान सभ्यता को नारों से ज़रूर
जीता जा सकता है यह इनको भली-भांति पता है।
ऐसे समय में
समझ आता है कि गांधी और सरदार
पटेल सरीखे वे नेता क्या थे। जब देश विभाजन का दंश झेल रहा था। जब देश लाशों से पट रहा था, जब इंसान हैवान बन गया था, तब गांधी और सरदार
पटेल ही थे जो
दंगों के बीच थे। जिन्होंने अपनी जान की परवाह नहीं की और दंगों को रोकने की कोशिश
की। तब भारत के वायसराय ने कहा था काश हमारे पास दो गांधी होते। पर शायद हम भूल कर रहे हैं। गांधी और सरदार का देश तो ये अब नहीं रहा। अब
यहाँ नाथूराम गोडसे के मंदिर बन रहे हैं। गांधी की प्रतिमा को गोली मारी जा रही
है। सैकड़ों लोगों के घर उजाड़ कर वहां सरदार पटेल की मूर्ति बनाई जा रही है। इंसानों को जड़ कर दिया गया है।
करोड़ों रुपये ख़र्च कर मूर्तियां, मंदिर, स्टेडियम बनाए जा रहे हैं। गांधी-सरदार का देश नहीं है यह। वे तो शांति, प्रेम, सत्य, अंहिसा,
कर्तव्य, फर्ज, देशहित, समाजहित, गरीब और ज़रूरतमंद तबके का हाथ थामे रहना, लोगों
को एक रखना जैसे
पाठ पढ़ाते थे। आज नफ़रत का बोलबाला है। घृणा की फ़सल बोई जा रही है। इंसान की
पहचान उसके धर्म से की जा रही है। हम इंसान नहीं भक्त हो गए हैं। अच्छे और बुरे की तमीज़ भूल
गए हैं। हम अब भारत
के नागरिक नहीं रहे, हम तो प्रजा हो चुके हैं। 21वी शताब्दी के युवा से लेकर
शिक्षित लोग तक प्रजा में तब्दील हो चुके हैं।
गांधी-सरदार, दोनों धार्मिक थे।
पर धर्म उनको डिक्टेट नहीं करता था। वो धर्म का लबादा नहीं ओढ़ते थे। उनके धर्म
में
इंसान
केंद्र में था। चुनाव जीतना और सत्ता से चिपकना उनकी प्राथमिकता में नहीं था। वो
राष्ट्रीय संकट में राष्ट्र को एकजुट करते थे। देश बँटवारे के बाद बनी सरकार में
उन्होंने अपने सबसे कट्टर विरोधी बाबा साहेब आंबेडकर को रखने की वकालत की। हिंदू
महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी को रखने के लिये नेहरू और पटेल को विवश किया। आज
अगर कोई पूर्व प्रधानमंत्री अच्छी सलाह देता है तो उसका सार्वजनिक रूप से अपमान
किया जाता है।
आज 2 मई 2021 का दिन है। पांचों
राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों का दिन। जैसे चुनावों के समय कोरोना नहीं था,
जैसे इन चुनावों के एग्जिट पोल के समय उस शाम कोरोना नहीं रहा था, वैसे आज दिन भर
के लिए कोरोना नहीं रहेगा। जानवरों की तरह मर रही भारतीय सभ्यता आज खबरों में नहीं
होगी और बची-खुची सभ्यता भी किसी के जीत या किसी के हार के गम या खुशी में सराबोर
रहेगी। यही विश्वगुरु भारत के सिर पर नाच रही सनक है। जान है तो जहान है, लेकिन
चुनाव मे ही तो बसी मेरी जान है, ऐसे में फिर वो सिसकियाँ भी सिसक कर डूबती
दिखेगी। वैसे भी भारत के कोरोना का वैज्ञानिक म्यूटेंट जो भी हो, लेकिन सामाजिक
म्यूटेंट बड़ा अजीब है। क्योंकि भारत का कोरोना वहीं कहर ढाता है, जहाँ चुनाव नहीं
होता।
एक चीज़ साफ है। सरकार फिसड्डी और
नकारी साबित हुई तो उसके पास रास्ता यह होता है कि जिन्होंने काम किया या कर रहे
हैं उसकी यशगाथा में लोगों को डूबा दे। भावनात्मक सभ्यता हैं हम... डूब कर बह
जाएंगे यह सबको पता है।
लेकिन इन सब चीजों के बीच भी देश
के बन बैठे नायकों का दोष कम नहीं होता। आज जो स्थितियां हैं, दोष लफ्ज़ ठीक नहीं
लगता। सामूहिक हत्याकांड के जनक हमारे नेता ही है। कोरोना के सुपर स्प्रेडर सरीखे
दिखने लगे हैं। न जाने कितने ट्रिलियन का सपना दिखा रहे थे, लेकिन दो बूँद ऑक्सीजन
नहीं दे पा रहे। देश आज़ाद नहीं होता तो ये कह कर मन को संतोष दे देते कि ‘ग़ैर’ हमारा दर्द क्या समझे। पर ये तो ‘अपने’ हैं। इन्हें कैसे बताएँ, कैसे समझाएँ कि मरने वाले भी ‘अपने’ हैं। इन्हें बस दो साँस की दरकार
थी। लानत है,
तुम दो
बूँद ऑक्सीजन नहीं दे पाए। देश को विश्वगुरु क्या बनाओगे। तुम लड़ते रहो चुनाव।
इतिहास लिखेगा,
तुम्हारा
भी इतिहास।