सर्वे, ओपिनियन पोल, एग्ज़िट पोल... इसके
बारे में दो चीजें साफ हैं। जिसके पलड़े में हो उसे कोई शक नहीं होता और बाकियों का
नजरिया सर्वे या पोल को दाग़दार बताता है। दोनों पक्षों के हर चुनावों में जो दृष्टिकोण
हैं उसको मिलाएँ तो तीसरी घुंघली चीज़ उभरती है कि कुल मिलाकर सर्वे का ही सर्वे हो
जाता है।
ओपिनियन पोल मतदान
से कुछ दिनों पहले आते हैं, जबकि एग्ज़िट पोल मतदान
ख़त्म होने के कुछ घंटों बाद। सर्वे का तो कोई भरोसा नहीं, किसी भी चीज़ पर सर्वे आते और जाते रहते हैं!
एक ओपिनियन पोल किसी
को जीतता बता रहा होता है और दूसरा किसी दूसरे को। और हां, तीसरा कुछ और बता रहा होता है। इस चीज़ में
कुछ नया या चौंकाने वाला भी नहीं है। हैरत की बात तो यह है कि इन ओपिनियन पोलों में
पहले और दूसरे नंबर पर आने वाली पार्टियों की अनुमानित सीटों की संख्या में ज़मीन-आसमान
का अंतर होता है। इसे देखकर कोई भी कह सकता है कि कुछ ओपिनियन पोल ज़रूर किसी एक दल
के चुनावी प्रचार करने का ज़रिया बन गए हैं।
अगर यह माना जाए कि
ओपिनियन पोल सांख्यिकीय विधि से मतदाताओं के रुख़ को भाँपने का वैज्ञानिक तरीक़ा है, तो सवाल यह है कि एक ही वैज्ञानिक तरीके
से किए जाने वाले सर्वेक्षणों में इतना अंतर कैसे हो सकता है? क्या बेहिचक यह दावा नहीं किया जा सकता कि
या तो चुनावी सर्वेक्षण की विधि ही झूठी है या यह क़वायद करने वाले कुछ लोगों की नियत।
ऐसे सर्वेक्षणों का
चक्कर क्या है इसे लेकर कई अख़बारों में या चैनलों में कहा जा चुका है या लिखा जा चुका
है। हालाँकि बहुत कम कहा या लिखा गया है। बहुत पहले के इतिहास को छोड़ दें तब भी, 2014 में भाजपा की जीत ने कई सर्वे या ओपिनियन पोल का गुब्बारा फोड़ दिया था। उसके
बाद ये मंजर फिर से दोहराए गए। दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने दो-दो बार मीडिया सर्वे
की कश्तियाँ डुबो दीं। बिहार में लालू प्रसाद ने सर्वे का ही चुटकुला बना दिया। कुछ
सालों पहले मायावती ने भी इसी तरह ओपिनियन पोल के गुब्बारे में सुई लगा दी थी। 2014 से पहले भी ऐसे अनेक
मौके हैं, जहाँ ऐसा हुआ हो।
ज़्यादातर तो चैनलों
के अपने एग्ज़िट पोल ही ओपिनियन पोल से आँकड़ों के नजरिये से बहुत भिन्न होते हैं! जब ओपिनियन पोल गलत हो जाते हैं, सर्वे के डिब्बे पिचक
जाते हैं, तब जनता जनार्दन के
भरोसे सब चले जाते हैं!
मतदान से पहले चुनावी
सर्वेक्षणों के गोरखधंधे पर कई बार हो-हल्ला हो चुका है। कई बार इस पर नियंत्रण के
उपाय करने की भी कोशिश हुई। लेकिन जिस तरह ये सर्वेक्षण अब भी प्रचारित किए जा रहे
हैं, उससे अंदाज़ा लगाया
जा सकता है कि इन सर्वेक्षणों के औचित्य-अनौचित्य पर सोच-विचार अब भी बाकी है। फिर
भी रहस्य का अपना रोमांच तो होता ही है। रही बात सर्वेक्षण करने वाली एजेंसियों
और उनके सर्वेक्षणों को धूम-धड़ाके से प्रचारित करने वाले मीडिया की साख की, शायद उन्हें पता है कि साख बचाने के लिए वे
जनता जनार्दन या ऐतिहासिक चा चौंकाने वाला जनादेश जैसा रिपोर्ट बनाकर बात को मोड़ लेंगे।
सर्वेक्षण उलट जाए
तब सर्वेक्षण करवाने वाली एजेंसियाँ या मीडिया के पास कुछ प्रचलित और स्वाभाविक से
तौर-तरीके भी हैं। जैसे कि एग्ज़िट पोल। एग्ज़िट पोल, यानी वे सर्वेक्षण, जो मतदान करने के बाद बाहर निकल रहे मतदाताओं
पर किया जाता है। चुनाव नियमों के मुताबिक़ एग्ज़िट पोल का प्रसारण सभी राज्यों में
सभी चरणों के चुनाव ख़त्म होने के दिन मतदान के आधे घंटे बाद ही हो सकता है।
यही एग्ज़िट पोल वह
मौका है, जब ये सर्वेक्षण एजेंसियाँ
भविष्य में अपनी साख बचाए रखने का इंतज़ाम कर लेने की कोशिश करती हैं। आमतौर पर देखा
गया है कि जो भी सर्वेक्षण एजेंसी मतदान के दो-चार महीने पहले से किसी दल विशेष को
जीतता हुई बता रही होती हैं, उसे एग्ज़िट पोल में
उलट देती हैं! क्योंकि तब तक चुनाव प्रचार का काम निपट
चुका होता है। यानी तब किसी दल को कोई नुकसान या फायदा नहीं हो सकता। यानी एग्ज़िट
पोल इन सर्वेक्षण एजेंसियों को अपनी साख को गिरने से बचाने भर का उपक्रम होता है।
एक और प्रचलित तरीक़ा
है वोटों में बारीक अंतर का तर्क। किसी दल की सीटें अगर अनुमान से कम आएँ, तो सर्वेक्षण एजेंसियों के पास एक रेडीमेड
तर्क यह होता है कि दो-चार फ़ीसदी वोट कम-ज़्यादा होने से सीटों पर 40 से 50 सीटों का अंतर भी
पड़ सकता है। यानी किसी दल की सीटें अनुमान से आधी भी रह सकती हैं या डेढ़ गुना भी हो
सकती हैं। क्या यह बात सर्वेक्षण में सीटों का अनुमान बताते समय ही बताई नहीं जानी
चाहिए? वे भले छुपाते हों, लेकिन उनके दर्शकों या श्रोताओं को तो यह
जानना चाहिए कि चुनावी सर्वेक्षण कितनी भी बारीकी से किए जाएँ, उनमें दो-चार फ़ीसदी वोटों का अंतर पड़ जाना
मामूली बात है।
अगर ऐसा ही है तो कोई
भी चुनावी भविष्यवाणी में 40 से 50 सीटों तक की गलती हो जाने का जोखिम भी रहेगा। यह जोखिम तब और बढ़ जाता है, जब चुनाव में टक्कर त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय
हो। इस तरह तो लगता है कि चुनावी सर्वेक्षण अपनी संपूर्ण सतर्कता की स्थिति में भी
अविश्वसनीय ही हैं। हालाँकि ऐसे अनुमानों को तरह तरह से वैज्ञानिकता और सैम्पल के साइज़
का तर्क देकर विश्वसनीय दिखा दिया जाता है। इधर मीडिया को भी अपने रहस्य-रोमांचप्रिय
ग्राहकों की वृत्ति पता है। ऐसे में उनकी इस प्रवृत्ति का शोषण करना आसान है।
पिछले 25 साल का चुनावी ट्रेंड
देखें तो केंद्र में सत्ता में रही कांग्रेस सरकारों और ग़ैर-कांग्रेस सरकारों, यानी दोनों प्रकार के राजनीतिक दलों को विधानसभा
चुनावों में ऐसी उठापटक से गुज़रना पड़ा। वहीं, देश में उत्तर से दक्षिण
तक और पूरब से पश्चिम तक क्षेत्रीय दलों के उदय का भी दौर था। यूँ तो हर चुनाव नई परिस्थितियाँ
लेकर आता है। एक-एक सीट के लिए राजनीतिक दल एड़ी से चोटी का ज़ोर लगाए हुए होते हैं।
बेधड़क और बिना किसी संकोच से भाषण किए जाते हैं। भारी भीड़ जुटती है, या यूँ कहे कि जुटाई जाती है! चुनावी रैलियाँ सभी को सनकी बनाने लगती हैं। स्वाभाविक है कि नेताओं के भाषण
या वादे मतदाताओं को जितना प्रभावित करते हैं, उतना ऐसे सर्वेक्षण
भी प्रभावित कर जाते हैं।
जीवन में या दुनिया
में निरापद कुछ नहीं होता, लेकिन चुनावी सर्वेक्षणों
का धंधा इस धारणा को झूठलाता चला आ रहा है। एक-एक महीने लंबी चुनाव प्रक्रियाओं में
कई-कई बार अपने अनुमान या भविष्यवाणियाँ करने वाले ये सर्वेक्षण क्या करते हैं, क्यों करते हैं, यानी किनके लिए क्या-क्या करते हैं...? इस पर गंभीरता से कभी बात नहीं हुई।
चुनावी विश्लेषणों
और उसके कई जटिल पहलुओं को सांख्यिकी के जरिए समझने-समझाने के विज्ञान को अंग्रेजी
में सेफोलॉजी कहते हैं। किसी खेल के नतीजों को जानने की उत्सुकता की तरह चुनाव
के नतीजों को पहले से जनवाने के मकसद से विकसित किए गए इस व्यावहारिक विज्ञान के सनसनीखेज़
तथ्यों पर सार्वजनिक तौर पर चर्चा से सभी पक्ष बचते हैं।
सेफोलॉजी करने वालों
को तो ऐसी चर्चा से एलर्जी है। कुल मिलाकर इस पर बिलकुल बात नहीं होती। हो सकता है
कि ऐसा इसलिए होता हो, क्योंकि तफ़सील से
समझाने के लिए अकादमिक विद्वानों का यह काम समय के लिहाज़ से बहुत खर्चीला है। इस ज़िक्र
का मकसद सिर्फ इतना है कि यह समझाया जा सकें कि इन सर्वेक्षणों (ओपिनियन पोल) से मतदाता
के निर्णय लेने की प्रक्रिया कैसे प्रभावित की जाती है, और एग्ज़िट पोल के जरिए अपनी विश्वसनीयता
को बचाए रखने का कितनी सफाई से प्रबंध किया जाता है।
अपराधशास्त्र के अध्ययन
में आपराधिक मनोविज्ञान का एक पर्चा होता है, जिसमें एक अध्याय है
मनोरचनाएँ। यह हिन्दी शब्द अंग्रेजी के 'मैंटल मैकेनिज़्म' का अनुवाद है। मनोवैज्ञानिक
शोध के मुताबिक़ अपने अनुमान या उसके आधार पर लिए गए फ़ैसले के गलत साबित होने पर उस
मानव के अहम, यानी ईगो पर चोट लगती
है, जिसके दर्द को ख़त्म
करने के लिए उसके मस्तिष्क को कोई न कोई तर्क ढूंढना पड़ता है। इसी तर्क को मनोविज्ञान
में मनोरचना या इस प्रक्रिया को 'मैंटल मैकेनिज़्म' कहते हैं। खेलकूद में हार से भी इस मनोवैज्ञानिक अहम को चोट पहुंचती है, इसीलिए मानव में खेलभावना के विकास के लिए
मनोविज्ञान तरह-तरह के उपाय खोजता रहता है। मनोविज्ञान के क्षेत्र में इसके प्रबंध
के लिए महत्त्वपूर्ण खोज है - विवेक का विकास। अंग्रेजी में इसे 'सुपर ईगो' कहते हैं।
इस मनोवैज्ञानिक तथ्य
को लोकतांत्रिक व्यवस्था में मतदाता, यानी वोटर के फ़ैसले
लेने की प्रक्रिया से जोड़ें तो हम कह सकते हैं कि सेफोलॉजी वोटर को यह अप्रत्यक्ष
चेतावनी देने का काम करती है कि, 'भाई, फलां पार्टी जीत रही
है, इससे अलग फ़ैसला लिया
तो अपने फ़ैसले के गलत होने का असहनीय कष्ट होगा...'
सेफोलॉजी अपनी विश्वसनीयता के लिए विज्ञान की वर्दी पहनती है। सांख्यिकी नाम के विज्ञान का चोला पहन कर सेफोलॉजी को 'छूट' लेने का भी मौका मिलता है, क्योंकि सांख्यिकी किसी प्रवृत्ति के सिर्फ
रुख़ या रुझान बताने का दावा करती है। वह पहले से ही हाथ उठाकर एलान करती है कि
मैं गणित नहीं हूँ, मैं चार-छह फ़ीसदी
तक गलत हो जाने की छूट लेने के लिए स्वतंत्र हूँ!!! सेफोलॉजी को अपने धंधे के लिए इससे बढ़िया बात और क्या चाहिए?
कहीं चुनाव होता है
तो चुनाव से पहले कम से कम 10 एजेंसियाँ सेफोलॉजी के धंधे में अपने होने का एलान करती हैं, जिनमें कम से कम पाँच को मीडिया का प्रत्यक्ष
या परोक्ष सह्योग मिल जाता है। पाँच सर्वेक्षणों में चार में किसी एक दल को जीतता हुआ
बताया जाता है। कभी कभी तो कुछ सर्वेक्षण इतने पहले मैदान में उतर आते हैं कि चुनाव
की तारीखों का एलान तक नहीं हुआ होता!!!
दरअसल, यही तो चुनाव प्रचार का शंखनाद होता होगा, जिसमें कोई एक दल अपनी जीत की हवा बनाने के
लिए मज़बूत आधार तैयार करता है। फिर चुनाव की तारीखें एलान करने का वक्त आता है और
दूसरा सर्वेक्षण आ टपकता है। फिर तो सर्वेक्षणों के अनेक रूप हैं, जिनके जरिए तरह तरह के सर्वेक्षण पैदा किए
जाते हैं।
इस तरह से क्या यह
निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि वोटरों को पहले से ही फ़ैसला बता दिया गया कि फलां
पार्टी की तरफ जीत का रुख़ है, वोटरों को आगाह किया
गया कि देखना, आपका फ़ैसला गलत साबित
होने के बाद आपके नाजुक अहम को चोट न लग जाए। इस तरह मतदाता के सोचने-समझने, यानी उन्हें अपने 'सुपर ईगो' या विवेक का इस्तेमाल
करने में बाधा पहुंचाने का ये विज्ञान वाक़ई सुपर एडवांस है।
कहा जाता है कि तमाम
सर्वेक्षणों को जनता कई बार या अनेकों बार उलट देती है। ऐसा कहा जाता है, लेकिन ऐसा होता भी होगा क्या? दरअसल सर्वेक्षण, उसके बनने या बनाने की प्रक्रिया, उसके लोगों पर प्रभाव या फिर उसको बनाने में
तथाकथित राजनीतिक प्रभाव, कई सारे वाद-विवाद
या आरोप या दावे, कई चीजें ऐसी हैं जिस
पर सवालिया निशान है।
सर्वेक्षणों का गलत साबित होना एक बात है और सर्वेक्षणों का उलट जाना दूसरी बात
है। धारणाओं में या ऐसी चीजों में, विशेषत: चुनावी प्रचार से लेकर उसके नतीजों
में गलत साबित होने का तथ्य एक और चित्र है, जबकि उसका पूरा का
पूरा उलट जाना दूसरा चित्र है। रेडीमेड और नेचुरल वाली पतली गली होती है - जनता। गलत
होने के कारण बताना स्वाभाविक है, लेकिन उलट जाने की
वजहें जिस स्वाभाविक तरीके से दिखाई जाती हैं, वह अस्वाभाविक भी हैं।
वैसे सर्वे बहुत आते हैं, लेकिन ऐसे लोग कम ही
मिलते हैं जो यह बताए कि उसे कोई सर्वे वाला टकराया भी था। सर्वे वैज्ञानिक ढंग से
किए जाते हैं या नहीं किए जाते, हमें नहीं पता। दावा
तो है कि किए जाते हैं। लेकिन सचमुच क्या होता होगा यह नहीं पता। इतना पता है कि मतदाताओं
के मनोविज्ञान को प्रभावित करने का बेहतरीन जरिया ज़रूर होता होगा।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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