एक मौत जिसे सामान्य बताया गया,
फिर मृतक के परिजनों द्वारा पत्र लिखकर सुरक्षा मांगना, बेटे का पत्र लिखकर जांच की
मांग करना, उसके पश्चात मृतक की बहन द्वारा सवाल उठाना, कुछेक गिनेचुने लोगों
द्वारा मसला उठाना और सुप्रीम कोर्ट में मामले का दायर होना, सुप्रीम कोर्ट द्वारा
गंभीर मामला होने का ज़िक्र करना, मामले की जांच को लेकर कुछ छोटे या बड़े विवाद का घटित
होना और फिर मृतक के पुत्र द्वारा प्रेसवार्ता आयोजित कर कहना कि उन्हें मौत पर
संदेह नहीं है, जांच की ज़रूरत नहीं है...। अब तक की यही कहानी है उस मौत की। जो महानुभाव
कांग्रेसी-भाजपाई-आपिये या अन्य प्रकार के जीव हैं उनकी दुनिया की बात नहीं है,
लेकिन जो सदैव भारतीय नागरिक होने के बोझ को उठाए चलते हैं उनके लिए अब तक की यह
कहानी कई सारी चीजों को समझने का जरिया बनी हुई है।
एक मौत जिसे पहले सामान्य बताया
गया, फिर परिजनों द्वारा सवाल उठाए गए, फिर मौत संदिग्ध बनी, फिर परिजनों ने ही
उठे हुए सवालों को खारिज कर दिया... हो सकता है कि यह मौत महज सामान्य मौत थी, प्राकृतिक
घटना थी, या हो भी सकता है कि यह असामान्य सी भी हो। लेकिन इस पूरे चैप्टर में
समय-समय पर जिस तरह से खामोशी वाला कंबल सबों ने ज्यादा ओढ़ा, ये मौत से भी गंभीर
मुद्दा ज़रूर है। सवालों को शिफ्ट करने की सदाबहार प्रवृत्ति इसमें जमकर क्यों चली यह
ज़रूर सोचनीय पहलू है।
सीबीआई के बारे में पक्ष और
विपक्ष, उन दोनों के समर्थक, यहां तक कि मीडिया भी खूब चर्चा करता है, जिसमें सीबीआई
के उन प्रचलित नामकरण वाली प्रक्रिया तक शामिल कर लीजिएगा। लेकिन ये सारे के सारे
उसी संस्था के एक जज की सवालों वाली मौत पर चुप्पी बना ले तब? हर
सुबह किसी न किसी बाबा की प्रवचनों की गुफाओं में या मोटापे को कम करने वाले
कार्यक्रमों में, हर दोपहर सास-बहू में और देर रात यंत्र बेचने में लगने वाला मीडिया
अपना बचा-खुचा वक्त रहस्य, सनसनी, राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं की मुर्गे के लड़ाई या
फिर किसी के बयानों को ब्रह्मवाक्य समझकर शानदार शो बनाकर गुजार देता है। बात पक्ष
और विपक्ष की करे तो, वे लोग अपना समय किसी भी मसले पर गुजारे, लेकिन एक बात की
गारंटी यह है कि वे उन सड़कों पे बात नहीं करते जहां दोनों के लिए कांटे बिछे हो। रही
बात, उन दोनों पक्षी-विपक्षी समर्थकों की, यार... बेकार की बातें करके की बोर्ड की
लाइफ लाइन कम करने का क्या फायदा?
शर्दी के मौसम में जितनी धुंध पहाड़ों में नहीं होती, दिल्ली में सत्ता के गलियारों के अंदर उससे ज्यादा धुंध हर मौसम के
दौरान छायी रहती है। ऐसी धुंध, जो आंखें, दिमाग, दिल... सभी को असर पहुंचाती है। ऐसी धुंध, जो सभी के फेफड़े, किडनी, गुर्दे, बीपी को इतना असर पहुंचाती है कि आखिर तो
दूसरे मुद्दों पर बर्फ की मोटी मोटी सिल्लियां गिर जाती है। उन सिल्लियों को हटाने
के लिए ना कोई मशीन आती है, ना सरकारी प्रयास होते हैं, ना मीडिया की दुकानों में
उत्साह होता है और ना ही सोशल मीडिया इसे देखता है। फिर मौसम बदलता है और ये
सिल्लियां अपने साथ साथ उसके नीचे दबी हर चीज़ को पिघला देती है। फिर क्या...? पिघली हुई चीजें फिर दोबारा नहीं लौटती। कब्र में गाड़
देने वाली चीजें होती तो सालों बाद कोई न कोई गड़े मुर्दे को बाहर निकाल लेता, लेकिन
पिघालने वाला यह पैटर्न कइयों के लिए संसार का शक्तिशाली वरदान है।
कमाल यह रहा कि जज साहब की बहन
ने सवालों को उठाया तब मीडिया खामोशी का कंबल ओढ़कर बैठा रहा, लेकिन जब जज साहब के
पुत्र ने कहा कि जांच की ज़रूरत नहीं है तब मीडिया कंबल को फेंकते हुए उठ खड़ा हुआ! वैसे इसी पुत्र ने जब जांच की ज़रूरत वाला पत्र लिखा था तब मीडिया ने रजाई से बाहर
निकलना ज़रूरी नहीं समझा था। किसी सेलिब्रिटी या सेलिब्रिटी के रिश्तेदार की मौत को
लेकर महीनों तक गला फाड़नेवाला मीडिया इन दिनों सीबीआई के जज की मौत को लेकर शांत रहा
ये वाकई मीडिया के लिए एक और उपलब्धि थी!!! मृतक जज साहब
की बहन सवालों को उठा रही थी, वहीं हर तरीके का मीडिया इन दिनों विराट-अनुष्का की
शादी जैसे अतिसंवेदनशील विषयों पर बिजी था!!!
कुछेक पत्रिकाओं ने यह खबर छापी
थी। निरंजन टाकले ने कैरवां मैगजीन में स्टोरी को छापा, जो अंग्रेजी में थी। हिन्दी
में भी छपी थी स्टोरी। कुछ अन्य पत्रिकाओं ने भी जगह दी। कन्नड और मलयालम में भी छपी
थी यह स्टोरी। एकाध अंग्रेजी अखबार ने भी स्टोरी को जगह दी, शायद इंडियन एक्सप्रेस
में। लेकिन दिल्ली का मीडिया, दिल्ली की राजनीतिक पार्टियां और दिल्ली की ओर देख
रहे भारतवासी, सारे के सारे विरुष्का की शादी में ज्यादा बिजी रहे!!! शायद
जजों के पास भी वक्त नहीं होगा इस स्टोरी को पढ़ने का। जब विपक्ष ने ही सवाल नहीं किया, मीडिया ने ही मुद्दा नहीं उठाया, तो फिर किसी को जवाब देने की ज़रूरत ही नहीं थी।
नागपुर में 1 दिसंबर 2014 की सुबह
एक जज की मौत हो गई थी। जज का नाम था बृजगोपाल लोया। उस वक्त बताया गया था कि उनकी
मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई थी। वैसे इनकी मौत, जो उस वक्त सामान्य थी, को उस दौर
में उतनी तवज्जो नहीं मिल पाई थी। तवज्जो ना मिल पाना कोई असामान्य बात नहीं है। वक्त
गुजरता गया, मौसम बदलते गए। इस बात को 3 साल गुजर चुके थे। लेकिन 2017 में उनकी
बहन ने जब सवाल उठाने शुरू किए तो फिर हर स्तर पर खामोशी ज्यादा दिखी। 3 साल बाद सवाल क्यों उठाया गया था यह सवाल भी जिंदा नहीं हो पाया। उनकी बहन
इसे संदिग्ध मौत करार देती रही और इधर मीडिया दूसरी स्टोरी में इतना बिजी था कि
सीबीआई के जज की सामान्य मौत को असामान्य बताने वाली उनकी बहन जगह ही नहीं बना पाई! मीडिया पैनलों पर मौलाना, बाबा और एंकरों के बीच जंग छिड़ी हुई थी, बीच में पार्टी के
प्रवक्ता भी अपना जलवा दिखाते रहते थे, ऐसे में यह मामला जगह भी कैसे बना पाता!
जज बृजगोपाल लोया की मौत पर सवाल
उठना राष्ट्रीय स्तर पर बहस हो सकती थी। क्योंकि यह जज एक संवेदनशील और
हाई प्रोफाइल मामले से जुड़े हुए थे। सीबीआई के स्पेशल कोर्ट के जज बृजगोपाल लोया सोहराबुद्दीन
एनकाउंटर मामले की सुनवाई कर रहे थे, जिस मामले में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित
शाह मुख्य आरोपी थे। 30 दिसंबर 2014 को सीबीआई के स्पेशल सीबीआई जज एमबी गोसावी ने
अमित शाह को इस आरोप से बरी कर दिया था। सीबीआई ने इस फैसले के ख़िलाफ़ ऊपरी अदालत में
अपील करने की बात कही, लेकिन दिसम्बर 2017 तक नहीं की थी। अपील करने का इरादा है भी
या नहीं, कौन पूछ सकता था भला!!! वैसे सीबीआई ने टूजी घोटाले के तमाम
आरोपियों के बाइज्जत बरी होने के बाद टूजी मामले में भी ऊपरी अदालत में अपील करने की
घोषणा कर दी है, बशर्ते इस बार वो इस बात को भूल ना जाए। वैसे सीबीआई ने 15 जनवरी
2018 को बांबे हाईकोर्ट में कहा था कि वह सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में बरी किए
गए तीन आईपीएस अफसरों के ख़िलाफ़ अपील नहीं करेगी।
उस दौर की बात करे तो, 6 जून 2014
को स्पेशल जज उत्पट नाराज़गी ज़ाहिर करते हैं कि अमित शाह क्यों नहीं आए। जज उत्पट आदेश
देते हैं कि अमित शाह 20 जून को कोर्ट में हाज़िर हों। बावजूद इसके शाह नहीं आते हैं।
जज उत्पट अगली सुनवाई की तारीख़ 26 जून तय करते हैं। मगर 25 जून को उनका तबादला हो जाता
है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश था कि सोहराबुद्दीन मामले में एक ही अधिकारी शुरू से अंत
तक जांच और सुनवाई में रहेगा। लेकिन फिर भी जज उत्पट का तबादला पुणे हो जाता है!!! उनकी जगह
आते हैं 48 साल के जज बृजगोपाल हरकिशन लोया। जज लोया अमित शाह को निजी तौर पर हाज़िर
होने की शर्त से छूट दे देते हैं। कहते हैं कि वे दस हज़ार पेज की चार्जशीट को फिर से
देखना चाहते हैं। नए जज थे इसलिए भी और केस संवेदनशील था इसलिए भी।
31 अक्टूबर को जज लोया ने पूछा कि
अमित शाह हाज़िर क्यों नहीं हैं। शाह के वकील कहते हैं कि उन्होंने खुद हाज़िर ना होने
की छूट दी है। लोया याद दिलाते हैं कि छूट तब थी जब शाह राज्य के बाहर हों, उस दिन
शाह मुम्बई में थे। 1 दिसंबर 2014 की सुबह नागपुर में जस्टिस लोया की मौत होती है।
15 दिसंबर 2014 को जज लोया के सामने अमित शाह की पेशी होनी थी। 30 दिसंबर को नए जज
एमजी गोसावी अमित शाह को सभी आरोपों से बरी कर देते हैं। फैसले में कहा जाता है कि
राजनीतिक कारणों से अमित शाह को फंसाया गया था।
जज की मौत वाली स्टोरी में अमित शाह
के मामले का ज़िक्र सिर्फ संदर्भ की बात है, बताने के लिए कि वे कितने हाई प्रोफाइल
मामले की सुनवाई कर रहे थे। इसका मतलब यह ना समझे कि किसी पर इशारा किया जा रहा है।
मगर इसी एक कारण से यह भी लगता है कि जज लोया की मौत से जुड़े सवालों को गंभीरता से
लेना चाहिए ताकि किसी को शक न हो। आखिर उनकी बहन सवाल उठा रही है तो किसीको बताना तो
पड़ेगा कि उनके सवालों का क्या हुआ। सास-बहू या विराट-अनुष्का को विरुष्का बताने वाला
मीडिया अपना मूल काम करता ये उम्मीद बेवकूफी सी ही थी।
वैसे इस विषय को कुछेक जगह पर
जगह ज़रूर मिली थी। कैरवांमैगजीन.काॅम, स्क्रॉल.इन, दवायर.इन, वायरहिन्दी.काॅम,
मीडियाविजिल.काॅम या फिर इंडियासंवाद.को.इन जैसे माध्यमों में इसे जगह मिली। जिन्होंने
पढ़ा उन्होंने अपने तरीके से सवाल उठाए, लेकिन जब दिल्ली के मीडिया हाउस में ओस पड़ी हो तो फिर विषय राष्ट्रीय स्तर पर आ भी कैसे पाता। जिन्होंने स्टोरी छापी वो सारे
बिकाऊ थे यही चक्रव्यूह के साथ पूरा चक्र थम गया। एक्सप्रेस में बांबे हाईकोर्ट के
दो जजों ने भी बताया कि उनकी मौत में कुछ भी संदिग्ध नहीं था। 21 नवंबर 2017 को कैरवां पत्रिका ने जज बीएच लोया की मौत पर सवाल उठाने वाली रिपोर्ट छापी थी। उसके बाद से 14
जनवरी 2018 तक इस पत्रिका ने कुल दस रिपोर्ट छापी।
जज की बहन की माने तो जज लोया नागपुर
नहीं जाना चाहते थे। वहां एक जज की बेटी की शादी में जाना था, मगर दो जज कहते हैं कि
चलना चाहिए। उनके कहने पर वे नागपुर जाते हैं। जज मुंबई में अपनी पत्नी से बात करते
हैं और उसके बाद उनके परिवार को कुछ पता नहीं चलता। सुबह एक फोन आता है कि जज लोया
मर गए हैं। निरंजन टाकले ने कैरवांमैगजीन.काॅम पर जज लोया की डॉक्टर बहन के हवाले
से पहली रिपोर्ट छापी। बहन के हवाले से लिखा कि किसी की मौत दिल का दौरा पड़ने से हो
सकती है, मगर एक जज की मौत होती है, उसके पोस्टमार्टम से लेकर लाश को पत्नी और बेटे
के घर भेजने की जगह बाप के पास गांव भेजने का फैसला कोई और कर लेता है, यह सब सवाल
इतनी आसानी से हज़म नहीं होते हैं। एक जज का मामूली बातों के लिए प्रोटोकॉल होता है।
उनकी बहन ने जो बात बताई उसके अनुसार
परिवार का फैसला नहीं था कि नागपुर से लोया की लाश मुंबई जाएगी या उनके गांव। बस परिवार
के सदस्यों को फोन आता है कि उनकी लाश लातूर के गेटगांव भेजी जा रही है। गेटगांव में
लोया के पिता रहते हैं। लोया की तीन बहनें धुले, जलगांव और औरंगाबाद में रहती हैं। आख़िर किससे पूछ कर जस्टिस
लोया की लाश मुंबई की जगह गेटगांव भेजी जाती है। यही नहीं लाश के साथ कोई सुरक्षा नहीं
थी। कोई पुलिस वाला नहीं था या कोई प्रोटोकॉल नहीं था। बताइए, इस देश में इससे
ज्यादा इंतज़ाम तो एक फिल्मी कलाकार की अंतिमयात्रा में था, वो भी तिरंगे के साथ! जबकि तिरंगे के तले अपनी पूरी जिंदगी बितानेवाले शख्स के लिए कुछ भी नहीं था!!! सोचिए, ऐसे ही विश्वगुरु बनेगा भारत! एंबुलेंस का ड्राइवर अकेले उस लाश को गेटगांव
लेकर उतरता है। जिन दो जजों के साथ जज लोया गए थे, वे कथित तौर पर डेढ़ महीने तक परिवार
से संपर्क नहीं करते हैं। वे जज भी अपने सहयोगी की लाश के साथ गेटगांव नहीं आते हैं।
कैरवां पत्रिका का एक वीडियो है,
जिसमें मराठी में जज लोया की बहन अनुराधा बियाणी बोल रही हैं, जिनसे लोया काफी बात करते
थे, मामूली बातों के लिए दवा पूछते थे। इसलिए बहन को पता था कि भाई को किस तरह की तकलीफ
है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में दिल का दौरा पड़ने के जो कारण बताए गए, उससे डॉक्टर बहन
सहमत नहीं हैं। उन कारणों का उनके परिवार में कोई इतिहास नहीं है। बहन की आदत है डायरी
लिखने की। वे हर दिन की बातचीत लिखती रहती थीं। उस बातचीत से पता चलता है कि उन्हें
मौत की सूचना कथित तौर पर आरएसएस के कार्यकर्ता ईश्वर बहेती से मिलती है। ईश्वर
बहेती से कौन पूछता और पूछता तो भी जवाब कैसे मिलता। यही बहेती कुछ दिनों बाद अनुराधा
बियाणी के घर जस्टिस लोया का फोन लेकर आता है। अनुराधा के मन में सवाल दौड़ने लगता है
कि जज का फोन एक ईश्वर बहेती को कैसे मिला।
एक सीधी सी बात है कि जज की मौत होगी, तो उनके सामानों की ज़ब्ती होगी और कायदे
से पुलिस ही लेकर आएगी। लेकिन आरएसएस का कथित कार्यकर्ता पुलिस का काम क्यों करने
लगा था किसीने जानना ही नहीं चाहा! यही नहीं, अनुराधा की एक और बहन सरिता मंधाने के
पास किसी जज का फोन आता है, जो उन्हें हादसे की खबर देता है। सरिता उस दिन लातूर में
थी। भाई की मौत की खबर मिलते ही लातूर के एक अस्पताल में भर्ती अपने भतीजे को लेने
जाती हैं। लेकिन यहां एक और गजब का ट्विस्ट सामने था। वहां वही ईश्वर बहेती मिलता है
जो फोन लेकर अनुराधा के घर गया था! सरिता ने ध्यान तो नहीं दिया मगर यह सवाल धंस गया
कि ये ईश्वर बहेती कौन है जो भाई की मौत की खबर लेकर आया था। बहेती उन्हें कहता है
कि नागपुर जाने की ज़रूरत नहीं है, वहां से लाश एंबुलेंस के ज़रिए गेटगांव भेजी जा चुकी
है। बहेती उन्हें घर लेकर जाता है। दोनों बहनों को बहुत बात में ध्यान आता है कि एक जज
की मौत हुई है, न पुलिस न प्रशासन।
उल्टा आरएसएस का एक कथित आदमी इतना सब कुछ कैसे जानता है।
गजब की बात यह है कि एक्सप्रेस
की रिपोर्ट में ईश्वर बहेती को जज लोया के मित्र डॉ. बहेती का भाई बताया गया है, जबकि
कैरवां रिपोर्ट में इसे आरएसएस का आदमी बताया गया है। लेकिन कथित डॉ. बहेती (ईश्वर
बहेती के भाई) किसी जगह सामने नहीं आए, और ना ही कोई बयान या जानकारी दी है। ईश्वर
बहेती से भी किसी का संपर्क नहीं हुआ। पेंच जज साहब के फोन को लेकर भी है। जब जज
साहब को कथित रूप से अलग अलग लोग, अलग अलग तरीकों से अस्पताल ले गए थे, कथित रूप
से किसी और कथित मित्र के कथित रिश्तेदार ने सारी औपचारिकताएँ संपन्न की, तो फिर
ईश्वर बहेती के पास फोन कैसे आया! उनके फोन से डाटा मिटाने का दावा भी कुछ जगहों पर
मिला।
जब लोया का अंतिम संस्कार होता है
तब कई जज शामिल होते हैं। दावे के मुताबिक वहां कुछ जज पत्नी और बेटे को किसी से बात
करने से मना करते हैं। दोनों आज तक बोलने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पाए ये सभी
आसानी से समझ सकते हैं। मीडिया तक क्यों दूसरे टॉपिक पर ज्यादा बिजी रहा और इस पर
उसकी दिलचस्पी कम थी ये तो उससे ज्यादा आसानी से समझ में आनी वाली बात है!!!
स्व. जज लोया की बहन अनुराधा बियानी
की बातों और अपनी जांच के आधार पर निरंजन टाकले ने मौत की रात से जुड़े जो डिटेल जुटाए,
उसकी रिपोर्ट ज़रूर छपी थी। जज लोया नागपुर के वीआईपी गेस्टहाउस रवि भवन में ठहरे थे।
जहां उस वक्त कई जज, कई बड़े अधिकारी
भी ठहरे थे। जब सीने में दर्द की शिकायत होती है तो उन्हें कथित रूप से ऑटो से ले जाया
जाता है। वीआईपी गेस्ट हाउस में किसी वीआईपी जज का स्वास्थ्य बिगड़ता है और उन्हें ऑटो में ले जाया जाता है यह बात पहले पहल अजीब सी ज़रूर थी। क्या उस गेस्ट हाउस में एक
भी गाड़ी नहीं थी। रवि भवन से दो किमी की दूरी पर ऑटो रिक्शा स्टैंड हैं। लोया को एक
ऐसे अस्पताल में ले जाया जाता है जहां ईसीजी मशीन काम नहीं कर रही थी। वहां से उन्हें
दूसरे अस्पताल में ले जाया जाता है। जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया जाता है। वीआईपी
गेस्ट हाउस से एक जज को ऑटो में बिठाकर वे दोनों जज ले गए जो उन्हें मुंबई से नागपुर
ले आए थे। इन दोनों जजों को वीआईपी गेस्ट हाउस में एक गाड़ी तक क्यों नहीं मिली यह सवाल सिस्टम को सुधारने का मौका था, लेकिन सवाल किसी ने नहीं पूछा! जिस वीआईपी गेस्टहाउस
में जज, आईएएस, आईपीएस या मंत्री ठहरते हैं वहां एंबुलेंस
वगैरह या कारें तो होती ही होगी। क्या उस वक्त गेस्टहाउस के कैंपस में एंबुलेंस या
कोई कार नहीं थी?
नोट करे कि कैरवां पत्रिका में
जज लोया का शव ऑटो से ले जाया गया ऐसी स्टोरी छपती है, जबकि एक्सप्रेस की स्टोरी
में शव को कार में ले जाया गया था। एक्सप्रेस की ये स्टोरी आगे देखेंगे।
जब जज लोया की मौत हुई थी तब मीडिया
में ख़बर ज़रूर छपी थी। दिल का दौरा पड़ने से मौत की खबर को ज़रूर जगह मिली थी। जज की
बहन और निरंजन टाकले की माने तो, पोस्टमार्टम के हर पन्ने पर एक व्यक्ति के दस्तख़त
थे। दस्तख़त के नीचे लिखा हुआ था कि यह लोया का चचेरा भाई है। अब ऐसे में अनुराधा बियानी
का कहना है कि उनका कोई चचेरा भाई है ही नहीं! रिकॉर्ड के अनुसार लोया का शव इस
कथित चचेरे भाई को सौंपा गया था। बताइए, उनकी बहन कहती है कि उन्हें चचैरा भाई है
ही नहीं, जबकि शव उस गुमनाम भाई को सौंप दिया गया था! एंबुलेंस में लाश लेकर तो सिर्फ
ड्राइवर गया था, तो फिर वह आदमी कौन था जिसने दस्तख़त किए थे, इस सवाल का जवाब
अनुराधा को किसीने नहीं दिया है।
कैरवां और एक्सप्रेस की रिपोर्ट में
पोस्टमार्टम के बाद शव लेने के लिए जिस व्यक्ति ने हस्ताक्षर किए उनका नाम डॉ. प्रशांत
राठी बताया गया। प्रशांत राठी ने ऑन रिकॉर्ड कोई बयान नहीं दिया है। कहा जाता है कि
उन्होंने अलग अलग पत्रिकाओं के पत्रकारों से ऑफरिकॉर्ड बात की थी। लेकिन दोनों को जो
बातें कही उसमें बहुत बड़ा अंतर था। बताया जाता है कि प्रशांत ने एक पत्रकार से कहा
कि मेरे अंकल ने सुबह छह बजे के करीब जज लोया की मौत की सूचना दी और मैं शोक के समय
में परिवार की सहायता के लिए तुरंत पहुंचा। डॉ. प्रशांत राठी के अनुसार ये अंकल औरंगाबाद
में रहते हैं और जज लोया के कज़िन हैं। हालांकि अजीब था कि उन्होंने अपना और उस अंकल
का रिश्ता खुलकर नहीं बताया। अंकल का तो नाम भी नहीं बताया था। लेकिन यही राठी एक्सप्रेस
से बोले कि मौसा का फोन आया और उनका नाम रुक्मेश पन्नालाल जाकोटिया है। राठी ने
दावा किया कि जाकोटिया का फोन उन पर आया और कहा कि उनके कज़िन जज लोया मेडिट्रिना हॉस्पिटल
में भर्ती हैं और मैं मदद के लिए जाऊं। जब मैं अस्पताल पहुंचता हूं तो डॉक्टर बताते
हैं कि उनकी मौत हो चुकी है। यह बात मैं अपने अंकल को बताता हूं। अंकल मुझे औपचारिकताओं
का ध्यान रखने के लिए कहते हैं।
हो सकता है कि राठी सच हो, लेकिन
दोनों बयानों का अंतर देखिए। एक पत्रकार से वो कहते हैं कि उन्हें जज साहब की मौत की
सूचना मिली, और दूसरे पत्रकार को कहते हैं कि उन्हें जज साहब अस्पताल में भर्ती हैं ऐसी सूचना मिली, मौत की सूचना तो अस्पताल पहुंचने के बाद मिली थी। एक में अंकल,
दूसरे में मौसा। एक में नाम नहीं, दूसरे में नाम। मुमकिन है कि घबराहट या जल्दबाजी में
राठी से गलती हो गई हो, लेकिन ऐसा अंतर सवाल उठाने के लिए पर्याप्त आधार माना जा
सकता है।
पेंच तो यह भी है कि दोनों पत्रकारों से जो बातें राठी ने कही उसके अनुसार इतना तय था कि वो ही सबकुछ मैनेज कर
रहे थे। लेकिन लोया के परिजनों से ऐसी बात किसी पत्रकार ने नहीं सुनी थी। क्या लोया
के परिजनों को पता ही नहीं था कि वहां कौन है, क्या चल रहा है। ये भी किसी ने नहीं कहा
कि राठी से बात करने वाले उनके (राठी के) मौसाजी स्व. जज लोया के कितने करीबी
रिश्तेदार थे और वे लोया के परिजनों से संपर्क में थे या नहीं। अनुराधा बियानी ने
किसी रिश्तेदार से बात करने का ज़िक्र ज़रूर किया, लेकिन उनका नाम नहीं बताया।
प्रशांत राठी के अनुसार उन्होंने जज साहब का शव नहीं देखा था, चादर में लपेटा हुआ था
और उन्होंने दस्तख़त कर दिए। प्रशांत राठी ने चचेरे भाई के तौर पर दस्तख़त किए। वो
कैसे चचेरा भाई हुए ये भी सोचने लायक है। राठी ने उनके मौसाजी की और से दस्तख़त
किए थे तो मौसाजी भी कैसे लोया के चचेरे भाई थे यह कोई बताने को तैयार नहीं है।
स्व. जज साहब की पत्नी (शर्मिला
लोया) ने अब तक किसी से बात नहीं की। उनकी बहन ने सवाल उठाए हैं। उनकी पत्नी को
किसके फोन आए, वो किससे संपर्क में थी, ये सारी चीजें उनकी ओर से आना बाकी है। एक्सप्रेस
और कैरवां की रिपोर्ट में भी अंतर है। ये अंतर क्यों है ये पता नहीं। हो सकता है कि
जैसे प्रशांत राठी ने दो अलग अलग पत्रकारों को अलग अलग बातें बताई थी, किसी ने इन
दोनों पत्रिकाओं को भी अलग अलग स्टोरी सुनाई हो। कैरवां की रिपोर्ट में ऑटो में शव ले
जाने का ज़िक्र था, जबकि एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार जज का शव कार में ले जाया
गया था। ईश्वर बहेती वाला दावा भी अलग अलग ही दिखता है। कहते हैं कि लोया की मौत की
सूचना का फोन उनकी पत्नी, उनकी बहनों और उनके पिता को गया था। कैरवां, एक्सप्रेस
और बहनों के बयान के अनुसार ये फोन जज बार्डे का था। जज बार्डे को एक्सप्रेस की रिपोर्ट
में लोकल जज कहा गया था और इनका पूरा नाम जज विजय कुमार बार्डे बताया गया था। एक्सप्रेस
में था कि हाईकोर्ट के नागपुर बेंच के डिप्टी रजिस्ट्रार रुपेश राठी और बार्डे जस्टिस
लोया को दांडे अस्पताल कार के जरिये लेकर जाते हैं। कैरवां के अनुसार दो जज ऑटो में
जज लोया को लेकर जाते हैं। एक्सप्रेस में जज को कार से ले जाया गया था। दांडे अस्पताल के बाद उन्हें मेडिट्रिना हॉस्पिटल ले जाया गया था ऐसी खबरें छपी हैं।
पढ़ने वाले लोग इसे किसी राजनीतिक
चश्मे से पढ़ते हैं तो फिर वो चश्मा निकाल दे। इसे महज एक नागरिकी चश्मे से पढ़े। सोचिए, अगर एक जज की मौत से जुड़े सवाल अधूरे रह सकते हैं तो हम किस व्यवस्था में जी रहे
हैं। किसी अदाकार की सामान्य मौत दिनों तक मीडिया में दिखाई जाती है, छपती है।
सुनंदा पुष्कर का पूरा ब्यौरा मीडिया दिखाता रहता है। दिखाना चाहिए, लेकिन वही
लोग ये सवाल नहीं उठाते कि एक जज की मौत की जांच से लेकर पोस्टमार्टम रिपोर्ट तक में
इतना अंतर क्यों है। निरंजन टाकले ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया था कि नागपुर के सीतावदी
पुलिस स्टेशन और सरकारी मेडिकल कॉलेज के दो सूत्रों ने उन्हें बताया था कि उन्होंने
आधी रात को ही शव देख लिया था, उसका पोस्टमार्टम
भी उसी वक्त कर लिया गया था। मगर पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मृत्यु की सूचना का वक्त
सवा छह बजे दर्ज था। पोस्टमार्टम शुरू होता है 10 बजकर 55 मिनट पर और ख़त्म होता है
11 बजकर 55 मिनट पर। गजब है कि मौत का समय और पोस्टमार्टम के समय तक में एक राय नहीं है।
एक्सप्रेस में लिखा था कि जज लोया
ने 4 बजे सीने में दर्द की शिकायत की, लेकिन कार से नजदीकी अस्पताल पहुंचने में पौने पांच बज जाते हैं। सुबह
के वक्त तीन किलोमीटर का फासला तय करने में क्या 45 मिनट लगना चाहिए या नहीं ये मीडिया
ट्रायल से नहीं जांच से पता चलता है। सवाल तो यह भी था कि जज लोया को सीने में कब दर्द
हुआ। इसकी कहानियां भी अलग अलग है। कैरवां में निरंजन टाकले ने अनुराधा बियाणी के
हवाले से लिखा कि साढ़े बारह बजे सीने में दर्द हुआ। अनुराधा बियाणी के अनुसार दोनों
जजों ने यह बात परिवार को बताई थी। कैरवां के अनुसार पोस्टमार्टम रिपोर्ट में कहा गया
था कि 4 बजे दर्द हुआ और सवा 6 बजे मौत हुई। इंडियन एक्सप्रेस को जस्टिस भूषण गवई ने
बताया कि जज लोया की करीब 4 बजे तबीयत खराब हुई। एनडीटीवी से जस्टिस भूषण गवई ने कहा
कि साढ़े तीन बजे जज लोया की तबीयत ख़राब हुई।
इन सब पेंच के बावजूद बांबे
हाईकोर्ट के उन दो जजों का बयान भी इंडियन एक्सप्रेस में छपा था, जिन्होंने कहा था कि
जज लोया की मृत्यु सामान्य थी, उसमें कुछ संदिग्ध नहीं था। नागपुर पुलिस का भी
बिलकुल ऐसा ही दावा था।
ऐसे में जज लोया की बहन अनुराधा बियाणी
का बयान भी महत्वपूर्ण है। अनुराधा बियाणी के अनुसार दोनों जजों ने बताया कि साढ़े बारह
बजे सीने में तकलीफ हुई। मतलब जस्टिस मोदक और जस्टिस कुलकरणी ने। मगर जस्टिस गवई के
अनुसार तो दोनों सुबह के वक्त जज लोया को लेकर अस्पताल गए थे। रही बात पोस्टमार्टम
रिपोर्ट की, सभी को इस देश में पोस्टमार्टम की रिपोर्ट वाला सिस्टम पता है।
कौन सही बोल रहा था, कौन झूठ, यहां ये मसला या उद्देश्य नहीं है। मगर सब जांच से ही तो पता चलेगा। सिस्टम द्वारा कई सवालों के जवाब ढूंढने की
कोशिशें नहीं होती तभी तो लोग किसी पर बेवजह शक किया करते हैं। वैसे ईसीजी रिपोर्ट पर
जज साहब की मौत की (या इलाज की) तारीख भी गलत छपी थी। ईसीजी रिपोर्ट में सबसे ऊपर जज साहब का नाम
वृजगोपाल लोहिया लिखा था और नीचे तारीख थी 30 नवम्बर 2014, जबकि उनकी मौत 1
दिसम्बर 2014 को हुई थी। खैर, इसे तकनीकी गड़बड़ी ही मान लीजिए! लेकिन बिना जांच
किसीको पता नहीं है कि उस दिन तमाम ईसीजी रिपोर्ट में यह तकनीकी गड़बड़ी हुई थी, या
फिर एकाध रिपोर्ट में ही।
सवाल तो सभी ने पूछे थे, लेकिन
जवाब कोई नहीं दे रहा था। ना कोई संज्ञान ले रहा था, ना कोई आश्वासन दे रहा था, ना
कोई इसे अपने यहां जगह दे रहा था। सवाल सीधा था, जज तमाम तरह के मामलों की सुनवाई करते
हैं। बहुत मुश्किल है कहना कि किसी की हत्या का संबंध किस मामले से होगा, मगर क्या यह
जानना ज़रूरी नहीं कि एक जज की मौत को लेकर सवाल उठ रहे हैं, उसके जवाब कब और कैसे मिलेंगे।
गर नहीं मिलेंगे तो क्यों नहीं मिलेंगे।
आखिरकार कुछेक याचिकाओं के चलते
तथा कुछेक विरोध-प्रदर्शनों के बाद सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई शुरू हुई। 12
जनवरी 2018 के दिन से सुनवाई शुरू हुई। लेकिन इस बीच, इसी दिन सुप्रीम कोर्ट में वो ऐतिहासिक सा पल भी आया जब चार सीटींग जजों ने सीजेआई के खिलाफ अपना मोर्चा खोल
दिया। आजाद हिंदुस्तान में न्यायतंत्र से संबंधित एक ऐसी घटना इस दिन हुई कि हर कोई
सक़ते में था। चार जजों ने मीडिया के सामने आकर देश की जनता को बताया कि सुप्रीम
कोर्ट में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है!!! लोकतंत्र के खतरे में होने तक के बयान आए!!! तत्कालीन सीजेआई के बारे में सीटींग जजों ने ही कहा कि वो केसों के बंटवारे में नियमों का सही पालन नहीं कर रहे हैं!!! कुछ महत्वपूर्ण मामलों को लेकर सवाल उठे। सवाल उठाने वाले
जजों ने इशारों इशारों में यह भी कहा कि हम सब कुछ कहकर लोगों का भरोसा नहीं तोड़ना
चाहते। उन्होंने जो कहा उससे ज्यादा जो नहीं कहा वो महत्वपूर्ण बना।
लेकिन इस मामले में भी मीडिया से
लेकर राजनीति ने मूल सवालों से हटकर दूसरे मुद्दों पर ज्यादा चर्चा की। 12 जनवरी
2018 को अचानक से देश को एक बड़ी और वाकई गंभीर समस्या से रुबरु होना पड़ा था।
लेकिन महज 3-4 दिनों बाद चाय पे चर्चा के नाम पर देश को बताया गया कि अब सब कुछ ठीक
है, समाधान हो चुका है!!! बताइए, समस्या तो समूचे देश को पता चल चुकी थी, लेकिन उस
समस्या का समाधान क्या हुआ यह किसी को पता नहीं!!! जब समस्या सामने आ ही चुकी थी, तो
फिर समस्या का समाधान खुलकर होना चाहिए था, ताकि भविष्य में लोगों का भरोसा ज्यादा
मजबूत हो। लेकिन भरोसे को जैसे-तैसे छोड़कर जनता को संदेश दिया गया कि आप अपना काम
करें, सब ठीक है!!! मुझे नहीं लगता कि सब कुछ ठीक है वाले
बयान पर लोगों ने भरोसा किया होगा। उपरांत लोग भरोसा करना शुरू करते उससे पहले
दूसरे दिन अटॉर्नी जनरल ने यू टर्न लेते हुए कहा कि समस्या अभी सुलझी नहीं है! सोचिए, अटॉर्नी जनरल सरीखा शख्स इस गंभीर मामले को लेकर दो दिनों में दो तरह के स्टैंड
क्यों लेने लगा होगा।
इस पूरे चैप्टर में कई दफा जज
लोया की मौत से जुड़ी जांच का मामला भी उठा था। जज लोया, उनकी मौत, उनकी मौत को
लेकर जांच... इन सबके ऊपर भी कथित रूप से कई चर्चा हुई। कुछ आरोप लगे, कुछ बचाव
भी हुए, राजनीति भी हुई। लेकिन नतीजा एक ही निकला – समस्या देश को
पता चल चुकी थी, समाधान का किसी को पता नहीं था!!!
सुप्रीम कोर्ट के जजों द्वारा न्यायपालिका
के खिलाफ मोर्चा खोलने के एक दिन बाद ही, 13 जनवरी 2018 को, वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे
ने लोया केस की सुनवाई कर रहे जज अरुण मिश्रा पर गंभीर आरोप लगाए। दवे ने आरोप
लगाया कि जज अरुण मिश्रा के किसी पार्टी विशेष से करीबी रिश्ते हैं। उन्होंने जज
अरुण मिश्रा तथा उनके पार्टी विशेष के साथ कथित रिश्ते के संदर्भ को आगे करके लोया
मामले की सुनवाई के भविष्य पर सवाल उठाए।
सुप्रीम कोर्ट में मामला दायर
हुआ, मामला जिस बेंच को सौंपा गया उसे लेकर कई विवाद भी हुए, आरोप-प्रत्यारोप का
दौर भी चला। इस बीच जज लोया की संदिग्ध मौत के मामले में सुनवाई के दौरान कोर्ट ने महाराष्ट्र
सरकार से जज की पोस्टमार्टम रिपोर्ट मांगी। कोर्ट का कहना था कि, “यह मामला
काफी गंभीर है।” कोर्ट ने फडणवीस सरकार से इस मामले से संबंधित सभी दस्तावेजों
को पेश करने के लिए कहा। आरोप-प्रत्यारोप के इस दौर में 16 जनवरी 2018 को एक खबर के
मुताबिक जस्टिस अरुण मिश्रा ने इस सुनवाई से खुद को अलग कर दिया और कहा कि मामले
को उचित पीठ को सौंपा जाए।
14 जनवरी 2018 को मुंबई में
जस्टिस लोया के बेटे अनुज लोया ने चुप्पी तोड़ी और मीडिया के सामने आए। अनुज की
तरफ से बोलते हुए परिवार के सदस्य ने कहा कि, “जस्टिस लोया की
मौत को लेकर परिवार को कोई शक नहीं है। कई लोग इस बारे में परिवार को परेशान कर रहे
हैं। वकील और एनजीओ परिवार को परेशान करना बंद करें।” वहीं अनुज के
वकील ने कहा कि, “इस मुद्दे को किसी भी तरह के विवाद में न घसीटा जाए
और न ही इसका राजनीतिकरण हो।” उन्होंने कहा कि, “किसी
को कोई शक न रहे इसलिए अनुज मीडिया के सामने आए हैं।” वहीं
अनुज ने कहा कि, “उन्हें इस मामले में कोई शक नहीं है इसलिए किसी जांच की
ज़रूरत नहीं है।” अनुज ने कहा, “पिता की मौत के
समय मैं केवल 17 साल का था और मुझे ज्यादा कुछ पता नहीं था।“ नोट
करे कि 29 नवम्बर 2017 को भी टाइम्स ऑफ इंडिया में खबर छपी थी, जिसके अनुसार अनुज
लोया ने बांबे हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस से मिलकर बताया था कि उसे अब किसी पर शक नहीं है।
अब इस घटना से पहले की एक दूसरी
घटना देख लीजिए। वैसे उस वक्त मीडिया ने खामोशी का कंबल ओढा था इसलिए उस पत्र
के बारे में चर्चा काफी कम हुई थी। जज लोया के बेटे ने 18 फरवरी 2015 को एक पत्र लिखा
था, जिसमें उन्होंने अपनी जान को ख़तरा बताया था और जांच की भी मांग की थी। उन्होंने लिखा
था कि, “मुझे डर है कि ये नेता मेरे परिवार के किसी भी सदस्य
को कोई नुकसान पहुंचा सकते हैं और मेरे पास इनसे लड़ने की ताकत नहीं है। मुझे डर है
कि उनके ख़िलाफ़ हमें कुछ भी करने से रोकने के लिए वे हमारे परिवार के किसी भी सदस्य
को नुकसान पहुंचा सकते हैं। हमारी ज़िंदगी ख़तरे में है।”
उनका बेटा पत्र लिखता है, लेकिन
कोई इस पर ध्यान नहीं देता। उन्हें किससे खतरा था ये किसीने जानना नहीं चाहा। जांच की
बात पुत्र ने कही लेकिन मीडिया ने खबर को ब्रेक नहीं किया, जबकि दो-तीन साल बाद जब
जांच की ज़रूरत नहीं है यह बात कही तो मीडिया खबरों को ब्रेक क्यों करने लगा था यह वाकई अनसुलझा या फिर सीधे सीधे सुलझा हुआ सवाल है। किसी टेलीविजन दुनिया के दंपत्ति की मार-पीट का कैमेरे के
सामने किया गया दावा दिनों तक मसाले के साथ चलता रहता है, यहां एक सीबीआई जज, जिनकी
मौत संदिग्ध बन चुकी थी, का बेटा पत्र लिखकर शिकायत करता है, लेकिन पहाड़ों से धुंध
है कि हटने का नाम नहीं लेती। बताइए, एक अंजान ड्राइवर सीबीआई जज सरीखे आदमी के शव
को ढो लेता है लेकिन उससे कोई सवाल नहीं पूछता, जबकि एक मामले में (रेयान स्कूल
मामला) एक ड्राइवर से इतने सवाल पूछता है कि उसे फांसी के फंदे तक पहुंचा दिया
जाता है!!! मीडिया ट्रायल से ऐसे लोग नहीं बचते, पता नहीं लोया कैसे बच गए!!! जबकि इस
मामले को मीडिया ट्रायल की ज़रूरत ही थी। एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट की माने तो उस
वक्त जज लोया के पुत्र ने ही मौत के जांच की मांग की थी।
जज लोया की मौत को लेकर कुछेक
पत्रिकाओं में जो रिपोर्ट छपी उससे तो पता यह भी चला कि लोया के परिजन सवालों को
खुलकर उठाने से भी घबराते हैं। कई दफा मीडिया से बात करना भी उन्होंने मुनासिब नहीं समझा, मोबाइल फोन बंद कर दिए या घर पर नहीं मिले। उनका डर लाजमी है और स्वाभाविक
भी। जो लोग जांच एजेंसियों की हरकतों, लंबी कानूनी
प्रक्रियाओं से गुज़रे हैं वे जानते हैं कि उस तरफ जाने के क्या अंजाम होते हैं।
उनका बेटा पत्र लिखकर सुरक्षा मांगता है, तो फिर दूसरे डर लाजमी है। जज लोया के
पिता भी बताते हैं कि मैं तो 85 साल का हो चुका हूं, मुझे मौत का डर नहीं है, लेकिन
बच्चियों और बच्चों की जान की फिक्र है। इस मामले में अनुराधा बियाणी ने वीडियो बयान
दिया है वही एकमात्र ऑनरिकॉर्ड बयान है। बाकी सारी बातें ऑफरिकॉर्ड है। जस्टिस लोया
के परिवार ने आरोप लगाया था कि सुनवाई के दौरान रिश्वत देने की कोशिश की गई, धमकी भी
दी गई थी। जब जज की संदिग्ध मौत को लेकर कोई हलचल नहीं, ऐसे में रिश्वत देने की
कोशिश को सिस्टम कितनी गंभीरता से लेता ये समझने की बात है। जबकि यह आरोप जज का
परिवार ही लगा रहा था।
अलग अलग रिपोर्ट को पढ़े तो उनकी
मौत, मौत का समय, पोस्टमार्टम का समय, शव को कैसे ले जाया गया, कहां ले जा गया, यह
फैसले किसने लिए, उनके परिजनों को सूचना कब, कैसे और किसने दी... और भी कई सारे
सवाल हैं जिसके जवाब हर जगह अलग अलग हैं। गर सवाल सही है तो जवाब इतने सारे कैसे और
गर सवाल ही गलत है तो फिर जवाबों में इतना अंतर क्यों। मकसद इतना है कि जब किसी
जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति की मौत होती है और फिर उस मौत पर सवाल उठते हैं तब
सिस्टम को शक की पर्ते हटानी चाहिए। वर्ना किसी एक कथित सबूत, कोई एक दावे, दावे
को काटना वगैरह को लेकर लोग सालों तक बिजी रहते हैं और फिर उन्हें इसकी इतनी आदत हो
जाती है कि सच या झूठ का अंजाम देखने का उत्तरदायित्व ही लुप्त हो जाता है।
सारी माथापच्ची चल रही थी तभी जज
लोया की मौत की जांच करने वाली नागपुर पुलिस का एक बयान मीडिया में छपा जिसमें पुलिस
ने कहा कि मौत दिल का दौरा पड़ने से ही हुई है। नागपुर पुलिस के ज्वाइंट कमिश्नर शिवाजी
बोडखे ने कहा कि पोस्टमार्टम और फॉरेंसिक रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि कर रहे हैं।
अब जबकि सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई
शुरू हो चुकी है, आश्वासन ले सकते हैं कि कुछ तो हो रहा है। जांच-वांच का अंजाम सभी
को पता है इस देश में। टूजी का अंजाम हो या अंजाम के इंतज़ार में लंबित फैसले हो,
सबूतों का अभाव वाला इतिहास हो या कुछ ऐसी गलियां हो, सारी चीजें जगजाहिर है। जांच
के बाद ये सारी कहानी झूठी भी साबित हो सकती है या कुछ चीजों के अभाव में कहानी
अनसुलझी भी रह सकती है। लेकिन जो मीडिया बेफिजूल विषयों को सनसनीखेज बनाकर पेश
करनी की चेष्टाएँ करता रहता है, जो मीडिया अनेकों बार बिना जांच-पड़ताल किए बेगुनाह
लोगों को गुनाहगार बनाकर चित्रित किया करता है उनकी पत्रकारिता के चरित्र को भी समझा
जा सकता है।
वैसे कई पत्रकारों की मौतें नहीं,
बल्कि हत्याएँ हो चुकी हैं। वो भी अलग अलग राज्यों में, अलग अलग सरकारों के दौरान। अब
जज की मौत संदिग्ध बनी हुई थी। लेकिन पता नहीं ऐसी कौन सी रजाई है जिसके तले सब कुछ अदृश्य हो जाता है। 2017 में दिल्ली में सीबीआई जज लोया की मौत को लेकर एक
प्रेसवार्ता भी हुई थी, लेकिन खुद को नं. 1 बताने वाले किसी मीडिया हाउस ने इन्हें खास जगह नहीं दी थी! सीबीआई जज की मौत को लेकर सवाल उठे, लेकिन भाजपा या कांग्रेस,
किसी ने इसे ज़रूरी मुद्दा नहीं समझा। शायद ऐसे मुद्दों से देश का विकास बाधित हो
जाता होगा!!!
एक बात यह भी नोट करना ज़रूरी है कि अब तक के सारे विवाद महज कुछ रिपोर्ट पर आधारित है और इसे अदालतों में तवज्जो नहीं मिलती। टूजी घोटाला मामला ही देख लीजिए, जहां खूब हो-हल्ला हुआ था। लेकिन यहां सनकी बनने से ज्यादा समझने वाली बात यह है कि आज भी हमारा मीडिया दिव्या भारती, सुनंदा पुष्कर, आरुषि वगैरह की मौत को लेकर तफ्तीश में जुटा हुआ दिखता है। जुटे रहना चाहिए, बुराई नहीं है। लेकिन अमिताभ बच्चन को सीने में दर्द की शिकायत या विराट कोहली का बुखार सीबीआई जज लोया की मौत से बहुत आगे निकल जाता है। वैसे टूजी के महाकाय घोटाले के अदालती फैसले के बाद जहां तमाम राजनीतिक दलों ने एकमत होकर चुप्पी धारण करना ठीक समझा था, मीडिया भी इस बात पर कम और विराट-अनुष्का के फंक्शन में ज्यादा बिजी था, ऐसे में किसी जज की मौत के सवालों का जवाब ढूंढने का वक्त कैसे बचता उनके पास!!!
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