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Dire of Recent History : सरकारें और उनके जरूरी तथा गैरजरूरी विवाद... पार्ट-1




वैसे यहां गैरज़रूरी विवाद के बजाय ज़रूरी विवाद ज्यादा असहज लग सकता है, किंतु दोनों एकदम सहज से शब्द प्रयोग हैं। कुछ विवाद गैरज़रूरी होते हैं, जबकि कुछ ज़रूरी होते हैं! कुछ विवाद सरकार स्वयं उत्पन्न करती है, तो कुछ को विपक्ष आकार दे देता है। उपरांत यहां सरकारें लफ्ज़ प्रयोग किया है। यानी कि बात सभी की होगी। और जब सभी की बात हो तब कइयों को गैरज़रूरी चीजें ज़रूरी भी लगेगी!!!

एक ज़रूरी ज़िक्र यह भी है कि अक्सर कुछेक लोग दशकों या सदियों पुराने इतिहास में व्यस्त दिखाई देते हैं। ज़रूरी होता होगा यह, लेकिन चिंताएँ उन्हीं की जायज होती है, जो हर मामलों में चिंतित हो। दशकों-सदियों पुराने इतिहास के साथ ज़रूरी यह भी है कि ताज़ा-ताज़ा इतिहास को भी टटोला जाए। लिहाजा सदियों पुराने मुर्दे कब्र से निकालने की नियमित प्रक्रिया लोग अक्सर करते रहते हैं, बजाय इसके हम ताज़ा जख्म ही कुरेद देते हैं!!!

जियो के बाद खादी कैलेंडर में भी आ धमके प्रधानमंत्री, गांधीजी को हटाने से कर्मचारी भी हुए नाराज
2016 में जियो जैसी निजी कंपनी के उत्पाद के इश्तेहार में तत्कालीन प्रधानमंत्री का चमकना विवादास्पद मुद्दा बना। लेकिन शायद इश्तेहार के शौकीन मिजाजी पीएम नये साल में भी इसी मूड में दिखे। इस बार जगह थी खादी संस्थान का कैलेंडर। खादी एंड विलेज इंडस्ट्रीज कमीशन (केवीआईसी) के 2017 के कैलेंडर में महात्मा गांधी की खादी कांतने वाली तस्वीर बदल गई और गांधी की जगह तत्कालीन प्रधानमंत्री ने ले ली
! जब इस नये कैलेंडर की तस्वीर अखबारों में छपी, लोग चौंक गए। विरोध पक्ष का रवैया क्या था वो तो सपने में भी सोचा जा सकता है। लिहाजा उनके रवैये को हम अलविदा ही कर देते हैं। लेकिन केवीआईसी के कर्मी से लेकर आम लोग भी इससे नाराज से दिखे।

हालांकि केवीआईसी के कैलेंडर से महात्मा गांधी का हटना, यह कोई पहली घटना नहीं थी। पूर्व में भी ऐसा हो चुका है। लेकिन किसी तत्कालीन पीएम की तस्वीर लगना शायद पहली घटना थी। महात्मा गांधी की तस्वीर नदारद होने की यह पहली घटना नहीं थी। 1996, 2002, 2005, 2011, 2012 और 2013 में भी जो खादी ग्रामउद्योग का कैलेंडर रिलीज हुआ था उसमें भी गांधीजी की तस्वीर नहीं थी।

इधर केवीआईसी और सरकार के तर्क लोगों को और ज्यादा नाराज करते हुए दिखे। केवीआईसी ने कहा कि, पीएम युवाओं में ज्यादा लोकप्रिय है और उनके प्रयासों से खादी की बिक्री बढ़ी है। केवीआईसी के चीफ वीके सक्सेना ने कहा था कि प्रधानमंत्री की तस्वीरों का इस्तेमाल संस्थान के मूल आदर्शों से मेल खाता है। उन्होंने कहा कि, मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से खादी को बढ़ावा मिला है। सक्सेना ने बताया कि 2015-16 में खादी की बिक्री 34 पर्सेंट बढ़ी, जबकि उससे पहले के दशक में इसमें 2-7 पर्सेंट का इज़ाफ़ा हुआ था।

सरकार की ओर से भी कुछ कुछ ऐसे ही औपचारिक तर्क आए। यहां पर यह लिखना ज़रूरी है कि 2014 और 2015 में खादी की बिक्री और खादी संस्थानों के हालात पर काफी चर्चा हुए थी। जमीनी सच्चाई ने विवाद जगाया था कि सरकार की तरफ से खादी की बिक्री बढ़ने के जो आंकड़े दिए गए थे वो सही नहीं थे। खादी संस्थानों या खादी ग्रामोद्योग के हालात सुधरने के सरकारी दावे भी खोखले नजर आए थे। उसके बाद भी फिर एक बार उसी तर्कों के साथ सरकार मैदान में उतरी। बिक्री बढ़ने के आंकड़े तथा संलग्न संस्थाओं के हालात सुधार के दावे विवादों में ही रहे। कई रिपोर्ट कहते थे कि सरकार के दावे से परिस्थिति कुछ उलट ही थी।

वहीं, केवीआईसी के कर्मचारी ही सबसे ज्यादा नाराज दिखे। जिस संस्थान के कैलेंडर का विवाद था, उसी संस्थान के कर्मियों ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि गांधीजी के नाम पर राष्ट्रीयता का अपमान सरकार को नहीं करना चाहिए। लोकप्रियता वाले तर्क पर कहा गया कि एकदम सीधी और सरल सी समझ है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री कोई भी होता, किसी भी दल से होता, उसकी लोकप्रियता उसके समर्थकों में होती ही। इस लिहाज से ये दलील व्यावहारिक भी थी। दलील दी गई कि, युवाओं में लोकप्रियता का पैमाना ही लेना था, तो इसमें अब्दुल कलाम का कोई मुकाबला नहीं हो सकता था। दूसरी तरफ खादी की बिक्री बढ़ना आदी चीजें भी विवादों में छायी रही। वहीं, खादी कांतती गांधीजी की तस्वीर, उसका इतिहास से नाता, उसके जनमानस पर प्रभाव, उस चित्र का जमीनी प्रभाव आदि चीजों के उलटने से लोग नाराज दिखाई दिए। बड़ी तीखी प्रतिक्रिया आई थी कि गुजरात के सीएम रहते हुए छात्रों के अंकपत्र के पीछे अपने इश्तेहार छपवाने का शौक और बात है तथा खादी वाली ऐतिहासिक तस्वीर में महात्मा गांधी को हटाकर खुद बैठ जाना दूसरी बात है। केवीआईसी के कर्मियों ने उस दिन मुंह पर काली पट्टी बांधकर अपना प्रतीक विरोध दर्ज कराया। उन्होंने कहा कि कोई सरकार गांधी की योजनाबद्ध हत्या नहीं कर सकती।

हालांकि ये सारी प्रतिक्रियाएँ आमजन की थी। रही बात विरोधियों की, गांधी की तस्वीर को इससे भी पहले हटाया जा चुका था, यह कोई पहली घटना भी नहीं थी। उपरांत केवीआईसी में ऐसा कोई नियम नहीं था, जिसका सरकार ने भंग किया हो। लेकिन, सारा मामला भावनात्मक व इतिहास और चरखे से जुड़ा हुआ था। ऊपर से सरकार के खादी की बिक्री बढ़ने के करीब करीब झूठे तर्कों ने मामले को और तूल दिया था।

वही इस विवाद के बाद हरियाणा से भाजपा के बड़े नेता अनिल विज ने विवादास्पद बयान दिया। उन्होंने कहा कि, गांधीजी की वजह से खादी की बिक्री कम हुई है। उन्हें नोट से भी हटाया जाएगा। चंद घंटों में अनिल विज के इस बयान का इतना उग्र विरोध हुआ कि उन्हें त्वरित माफी मांगनी पड़ी और सरकार ने भी अनिल विज के बयान से किनारा करते हुए औपचारिक माफी मांग ली।

उसके बाद खबरें आई कि बापू की तस्वीर की जगह पीएम मोदी की तस्वीर बिना पीएम से पूछकर लगाई गई थी। कहा जाने लगा कि पीएमओ इससे नाराज है। हालांकि इस खबर पर कई तंज कसे गए। ये स्वाभाविक तंज थे। क्योंकि इससे पहले निजी कंपनी रिलायंस जियो के मार्केटिंग के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री की तस्वीर इस्तेमाल की गई थी। उसके बाद भी विवाद उठ खड़ा हुआ था। विवाद उठने के बाद इसी प्रकार की खबरें आई थी कि पीएमओ नाराज है और बिना इजाजत उनकी तस्वीर को इस्तेमाल किया गया था! बाद में रिलायंस पर नियमों को तोड़ने के एवज में 500 रुपये का जुर्माना लगाया गया था!!! नाराज होने की पूरी प्रक्रिया और जुर्माने की रकम को लेकर भी उस वक्त काफी तंज कसे गए थे। रिलायंस जियो पर पीएमओ की नाराजगी और 500 रुपये के हास्यास्पद जुर्माने के बाद भी कहानी खत्म नहीं हुई थी। अन्य निजी कंपनी पेटीएम के लिए भी तत्कालीन प्रधानमंत्री की तस्वीर का इस्तेमाल हुआ था!

कैलेंडर विवाद में भी नाराज होने की खबरें विवाद उठ खड़ा होने के बाद आई! कहा गया कि ऐसा करने वालों के खिलाफ पीएमओ कड़ा एक्शन ले सकता हैं। इकोनॉमिक टाइम्स की खबर के मुताबिक प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस मामले में माइक्रो, स्मॉल और मीडियम एंटरप्राइजेज (एमएसएमई) से जवाब मांगा था। खबर के मुताबिक पीएमओ खादी संस्था के इस कदम से सख्त नाराज था। कितना नाराज यह मत पूछिएगा, बस स्वंय ही सोच लीजिएगा।

अर्नब गोस्वामी का रिपब्लिक चैनल और एनडीए सांसद के निवेश का विवाद
मीडिया और राजनीतिक दल, इनके बारे में हमने एक अलग संस्करण देखा था। आवाम में एक मशहूर इल्ज़ाम है कि मीडिया बिकाऊ होता है। फिर खरीददार कौन होता है इस पर भी विवाद होते रहे हैं। जनवरी 2017 में मशहूर मीडिया मैन अर्नब गोस्वामी और उनके नये चैनल रिपब्लिक का विवाद छाया रहा। दावा किया गया कि उनके चैनल में राज्यसभा के सांसद और केरल एनडीए के उपाध्यक्ष राजीव चंद्रशेखर का निवेश है। दावा किया गया कि वे इस चैनल के निदेशक है। मीडिया हाउस में उद्योगपतियों के निवेश के बाद राजनेताओं के निवेश नया विवाद है। हो सकता है कि सालों बाद सर्वोच्च न्यायालय फिर एक बार इस मसले को लेकर कोई कमेटी बनाएगा और बीसीसीआई सरीखी जंग लड़ी जाएगी।

अर्नब गोस्वामी का यह चैनल मई 2017 में प्रारंभ हुआ। अपने पहले ही दिन इन्होंने लालू प्रसाद यादव पर स्टोरी चलाई। लालू प्रसाद यादव तथा जेल में बंद शहाबुद्दीन के बीच सिवान हिंसा को लेकर हुई बातचीत की ऑडियो टेप सामने लाई गई। केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने नीतीश कुमार से लालू के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की। बीजेपी के नेता सुशील कुमार मोदी ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से एक्शन लेने की मांग की।

मेघालय राज्य, राज्यपाल और शर्मनाक प्रकरण, राजभवन में युवतियों का क्लब चलाने का आरोप
मेघालय राज्य। राज्यपाल थे वी षणमुगनाथन। राज्यपाल और उनके राजभवन पर इतने आरोप लगे कि आखिरकार इन्हें त्यागपत्र देना पड़ गया। सिस्टम की स्वायत्तता और गरिमा को बचाने की आवाजें भीतर से ही उठने लगी। कर्मचारियों ने आवाज उठाते हुए कहा कि संस्थानों के प्रमुख सरकारों के इशारे पर मैनेज होते हैं। अब यह बात कितनी राजनीतिक थी और कितनी नैतिक, ये तो अंदरूनी चीज़ है। लेकिन जो चीजें सामने आई, जो मंजर दिखे, लगा कि बरसों से चले आ रहे शर्मनाक संस्करणों का पुनरावर्तन हो रहा हो। नेताओं की छवि लोगों के सामने ज्यादा धूमिल हो चली।

मेघालय राजभवन की खबरें जब राष्ट्रीय स्तर पर छा गई, राज्यपाल से लेकर मेघालय की सरकारी गलियां सवालों के घेरे में आ गए। मेघालय राजभवन के 80 से ज्यादा कर्मचारियों ने राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखा। इस पत्र में राज्यपाल पर कथित अय्याशियों के आरोप लगाए गए। इन कर्मचारियों ने तुरंत राज्यपाल वी षणमुगनाथन को हटाने की मांग की। मीडिया रिपोर्ट की माने तो, पत्र में कहा गया था कि राज्यपाल ने अपना काम करने के लिए सिर्फ महिलाओं का चयन किया है और निजी सचिव पुरुष अधिकारी को अपने सचिवालय भेज दिया है। राजभवन के कर्मचारियों ने आरोप लगाया था कि षणमुगनाथन ने राजभवन को युवतियों का क्लबबना दिया है।

भारत के ताज़ा इतिहास में यह पहली घटना होगी जब राजभवन के कर्मचारियों ने राज्यपाल को हटाने की मांग की हो। इनका आरोप था कि राज्यपाल की कुछ गतिविधियों के चलते राजभवन की गरिमा और प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची है। उन दिनों राज्यपाल षणमुगनाथन के पास मेघालय और अरुणाचल प्रदेश का प्रभार था। राजभवन के कर्मचारियों द्वारा राज्यपाल की इस कदर शिकायत करना, ऐसे गंभीर आरोप लगाना और राष्ट्रपति या पीएमओ तक को पत्र लिखना छोटी घटना नहीं थी। शिलांग के स्थानीय अख़बार हाइलैंड पोस्ट ने भी लिखा था कि राजभवन के जनसंपर्क अधिकारी के लिए इंटरव्यू देने आई एक अज्ञात महिला ने राज्यपाल पर छेड़छाड़ का आरोप लगाया था।

गनीमत है कि विवाद राष्ट्रीय स्तर पर आने के बाद राज्यपाल ने अपने पद से 26 जनवरी के दिन इस्तीफ़ा दे दिया। गणतंत्र दिन पर ही! वाजिब था, क्योंकि उन्हें यौन दुर्व्यवहार का आरोपी बताया गया था। राजभवन के कर्मचारियों ने ही उन्हें दफ्तर की गरिमा से समझौता करने का आरोपीबताया था।  

सरकारी टेलीविजन चैनल दूरदर्शन को चुनाव आयोग का नोटिस
मामला था 26 जनवरी 2017 के दिन का। दरअसल इस दिन राष्ट्रीय चैनल दूरदर्शन ने पंजाब के तत्कालीन सीएम प्रकाश सिंह बादल के ध्वजारोहण कार्यक्रम को हद से कुछ ज्यादा ही प्राधान्य दे दिया। वहीं पंजाब के तत्कालीन राज्यपाल वीपी बदनौर के कार्यक्रम को दिखाया तक नहीं
! पता नहीं, दूरदर्शन वालों को राज्यपाल के कार्यक्रम के दर्शन क्यों नहीं हुए होंगे? एक राज्य के राज्यपाल का ध्वजारोहण कार्यक्रम दूरदर्शन को इतना नागंवार गुजरा यह चीज़ केंद्रीय चुनाव आयोग भी नागंवार गुजरी। चुनाव आयोग ने दूरदर्शन को नोटिस थमा कर पूछा कि आपने ऐसा क्यों किया? लोगों ने कहा कि दूरदर्शन तो कुछ न कुछ वजह बता देगा, लेकिन चुनाव आयोग से फिर पूछा जाना चाहिए कि आपने नोटिस के अलावा क्या किया? और हुआ भी ऐसा ही।

उम्मीदवारों की निकासी सीमा को लेकर चुनाव आयोग और आरबीआई आमने-सामने
नोटबंदी के बाद फरवरी 2017 में पांच राज्यों में चुनाव होने वाले थे। नोटबंदी के बाद आरबीआई ने बैंकों से पैसे निकालने की सीमा तय कर दी थी। चुनाव आयोग ने 25 जनवरी 2017 के दिन आरबीआई से अनुरोध किया कि वे उम्मीदवारों की नकदी निकासी की साप्ताहिक सीमा 24,000 रुपये से बढ़ाकर 2 लाख रुपये कर दे। आयोग का कहना था कि नोटबंदी के बाद लागू सीमा से उम्मीदवारों को अपने प्रचार का खर्च निकालने में कठिनाई होगी। लेकिन आरबीआई ने इससे इनकार कर दिया। बैंक ने कहा कि,
इस स्तर पर सीमा बढ़ाना संभव नहीं है। हालांकि इसके बाद भी चुनाव आयोग ने रिजर्व बैंक के गवर्नर को पत्र लिखकर इस मुद्दे से निबटने को कहा। चुनाव आयोग ने इसे गंभीर मुद्दा बताया। चुनाव आयोग ने लिखा कि, “ऐसा लगता है कि आरबीआई को गंभीरता की समझ नहीं है। पत्र में आयोग ने अपने संवैधानिक अधिकारों की दुहाई भी दी। इसके लिए आयोग ने नियमों, कानून व मार्गदर्शिकाओं का ज़िक्र किया और आरबीआई से दोबारा विचार करने का अनुरोध किया। लोगों ने तंज कसते हुए कहा कि शादी के लिए नकद निकासी के मामले में लोगों की दिक्कतों के लिए कोई सामने नहीं आया, लेकिन यहां उम्मीदवारों को आयोग का जमकर साथ मिला!!! वहीं नोटबंदी के बाद अपने बयानों और कार्यशैली से बदनाम हो चुके आरबीआई को लोगों की टिप्पणी से थोड़ा सा साथ मिला!

नागालैंड महिला आरक्षण विरोध, सीएम के घर पर भी हुई थी आगजनी
जनवरी माह के अंत में तथा फरवरी की शुरुआत में नागालैंड में महिला आरक्षण को लेकर जमकर हिंसा हुई। यहां पालिका चुनावों में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिया गया था। इस फैसले का आदिवासी संगठनों के द्वारा जमकर विरोध हुआ। सचिवालय संकुल में कई सरकारी इमारतों को आग के हवाले कर दिया गया। 2 फरवरी 2017 के दिन सीएम आवास पर भी आगजनी हुई। भाले के साथ हजारों आदिवासी युवा सड़कों पर उतर गए। स्थिति नियंत्रण के बाहर चली गई। कई जगह आगजनी और तोड़फोड़ हुई और हिंसक प्रदर्शन किए गए। राज्य में इंटरनेट और मोबाइल सेवा स्थगित करनी पड़ी। उसी दिन पालिका के चुनाव होने वाले थे, जिसे 2 महीनों के लिए रोक दिया गया। स्थिति को काबू करने के लिए केंद्रीय सुरक्षा बलों को लगाया गया। प्रदर्शनकारी मुख्यमंत्री और कैबिनेट से इस्तीफ़ा मांग रहे थे। हालांकि मुख्यमंत्री टीआर झेलियांग ने इस्तीफ़ा देने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि प्रदर्शनकारियों के कहने पर वे इस्तीफ़ा नहीं देंगे।

अलगाववादी गिलानी के पोते को सरकारी नौकरी, नियमों को ताक पर रखने का लगा आरोप
कश्मीर समस्या में युवाओं को रोजगार एक बड़ा पहलू रहा है। रोजगार के साथ साथ अलगाववादियों को दी जा रही सहूलियतें भी सवालियां निशानों पर रही हैं। लेकिन ये दोनों पहलू मिल जाए तो
? कुछ ऐसा ही विवाद मार्च 2017 में हुआ। हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के पाकिस्तानी समर्थक माने जा रहे अलगाववादी नेता सैयद अली गिलानी के पोते को नियमों को ताक पर रख कर सरकारी नौकरी बांटने का आरोप लगा। इन दिनों कश्मीर में पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार थी। सैयद अली गिलानी के पौते अनीस उल इस्लाम को श्रीनगर के शेर-ए-कश्मीर इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस सेंटर में रिसर्च ऑफिसर के लिए नियुक्त किया गया। प्रति माह वेतन था एक लाख रुपये का। पेंशन जैसे सरकारी फायदे भी मिलने वाले थे। दावा किया गया कि तत्कालीन मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने भी इस नियुक्ति को लेकर सरकारी भर्ती विभाग को भरोसे में लेना ज़रूरी नहीं समझा।

नियम के तहत सरकार द्वारा ऐसी नियुक्तियां पब्लिक सर्विस कमीशन तथा राज्य अधिनस्थ पसदंगी बोर्ड के जरिए की जाती है। कहा गया कि पर्यटन सचिव फारूक शाह ने गिलानी के पोते को पहले ही नियुक्त कर दिया था। गौरतलब है कि इसी दौर में गिलानी कश्मीर के छात्रों को परीक्षा का बहिष्कार करने के लिए आंदोलन चला रहे थे, वहीं उनके बड़े बेटे की बेटी ने अक्टूबर 16 में ही एग्जाम दी थी!!! खैर, लेकिन नसीम की नियुक्ति को लेकर सरकार ने सैयद अली गिलानी और सरकारी प्रशासन, दोनों का बचाव किया और कहा कि नियुक्ति नियमों के अधीन ही हुई है। यहां भी वही हाल हुआ, जिसमें ढेर सारे नियमों को समझाकर बताया जाता है कि नियम तोड़े नहीं गए हैं!!! यह वही नसीम था जिसके खिलाफ सीआईडी ने सन 2009 में रिपोर्ट पेश किया था और उन्हें पासपोर्ट तक नहीं मिल पाया था। बाद में हाईकोर्ट के आदेश के बाद उन्हें पासपोर्ट दिया गया था और गिलानी पढ़ने हेतु ब्रिटेन जा पाए थे। 

श्रीलंकाई नेवी ने भारतीय मछुआरे को गोलियों से भून दिया
7 मार्च 2017 की रात यह वारदात हुई। इस रात तमिलनाडु के 22 साल के ब्रीगो नाम के मछुआरे की श्रीलंकाई नेवी की गोलीबारी में मोत हो गई। ब्रीगो की मौत हो गई, जबकि 3 अन्य मछुआरे जख्मी हो गए। यह घटना तमिलनाडु के धनुषकोडी और कट्चावीथु के बीच हुई, जहां वो मछली पकड़ रहे थे। रामेश्वरम के सरकारी अस्पताल में मृतक का शव लाया गया, जहां उसके परिवार ने शव को लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने घटना की जांच की मांग की। मीडिया रिपोर्ट की माने तो भारत सरकार ने इस मुद्दे को लेकर श्रीलंकाई सरकार से बात की। हालांकि श्रीलंकाई सरकार ने ऐसी किसी घटना से इनकार कर दिया। वैसे बाद में इनकार कर रहे श्रीलंका ने भारत को भरोसा दिलाया था कि वो इस मामले की जांच करेगा। मामले की जांच कौन सा राजनीतिक हथियार है ये बताने की आवश्यकता नहीं है।

भारत-नेपाल सीमा पर बिगड़ा माहौल, लगे भारत विरोधी नारे
मार्च 2017 के दौरान नेपाल में हुई गोलीबारी में युवक की मौत के बाद भारत बॉर्डर पर भारत विरोधी माहौल शुरू हो गया। 10 मार्च 2017 की दोपहर सैकड़ों नेपाली लोग हाथों में झंडा लेकर भारत की सीमा में घुस गए और एसएसबी (सशस्त्र सीमा बल) के जवानों के खिलाफ जमकर विरोध प्रदर्शन किया। 9 मार्च 2017 के दिन गोलीबारी में नेपाल के व्यक्ति की मौत हो जाने के कारण भारत से सटे बॉर्डर पर अतिक्रमण कार्रवाई के विरोध में हुई हिंसा थी। उसके बाद दूसरे दिन भारत-नेपाल के सोनौली बॉर्डर पर सैकड़ों की तादाद में लोग हाथों में पोस्टर लेकर भारत के खिलाफ नारे लगाते नजर आए। इस दौरान सीमा पर यातायात काफी देर तक प्रभावित रहा। वहीं विरोध से नेपाल में भी आवाजाही प्रभावित हुई। गुस्साई भीड़ ने कई गाड़ियों में आग भी लगाई। लखीमपुर में भी स्थिति तनावपूर्ण बनी रही।

गांव बसही से सटी भारत-नेपाल सीमा के पास नो मैंस लैंड पर कुछ दिनों पूर्व रुकवाया गया पुलिया का निर्माण नेपालियों द्वारा फिर शुरू करने से बवाल हो गया। भारतीय एसएसबी ने निर्माण पर आपत्ति की तो नेपालियों ने पथराव और फायरिंग कर दी, जिससे छह एसएसबी जवानों को मामूली चोटें आईं। हमलावरों को खदेड़ने के लिए एसएसबी ने जवाबी हवाई फायरिंग की। इस बीच एक नेपाली को गोली लग गई, जिसकी नेपाल में इलाज के दौरान मौत हो गई। दिन भर चले बवाल के दौरान दोपहर बाद नो मैंस लैंड पर नेपालियों ने नेपाली झंडा भी गाड़ दिया, जिसे भारतीय प्रशासन ने अपने कब्जे में ले लिया। इससे बॉर्डर पर हालात तनावपूर्ण बन गए।

18 फरवरी 2017 को भारतीय गांव बसही और उधर नेपाल के जिला कंचनपुर की नो मैंस लैंड पर हृयूम पाइप निर्माण को रोका गया था। माना जा रहा था कि यह निर्माण नो मैंस लैंड पर हो रहा है। इसमें दोनों देशों के अधिकारियों में सहमति बनी थी कि संयुक्त नाप जोख के बाद ही कोई निर्णय लिया जाएगा। लेकिन 8 मार्च 2017 की रात फिर से नेपाली नागरिकों ने यहां निर्माण कार्य शुरू कर दिया। निर्माण रोकने के दौरान नेपाल की ओर से किए गए पथराव और फायरिंग में नेपाल के जिला कंचनपुर के पुनर्वास नगर पालिका के वार्ड नंबर आठ निवासी 23 वर्षीय गोविंद गौतम जख्मी हो गए जिनकी अस्पताल में मौत हो गई।

डीएम आकाशदीप, एसपी मनोज झा, एसएसबी कमांडेंट दिलबाग सिंह, एसडीएम शादाब असलम मौके पर पहुंचे। नेपाल के अधिकारियों से हुई वार्ता में निर्णय लिया गया कि जब तक दोनों देशों की ज्वाइंट सर्वे टीम निर्णय नहीं देती बॉर्डर पर कोई निर्माण शुरू नहीं किया जाएगा। तनावपूर्ण माहौल को देखते हुए जिले से अतिरिक्त पुलिस बल और 39वीं वाहिनी से एसएसबी बल को बुला लिया गया। नेपाली जमे हुए थे और सीमा की स्थिति तनावपूर्ण बनी रही। डीएम आकाशदीप ने कहा कि नेपालियों के हमले से बचने के लिए एसएसबी ने हवाई फायर किए थे, जिसमें किसी को गोली लगने का कोई सवाल नहीं है। नेपाली पुलिस और लोग पथराव कर रहे थे, जिससे नेपाली को गोली लगने की आशंका है। डीएम ने नेपाल के अधिकारियों से कहा कि फिर भी वे जांच कर लें, अगर कोई साक्ष्य देते हैं तो जांच की जाएगी।

पंजाब के मंत्री, मंत्रीपद और कॉमेडी शो का भूत
पंजाब, पंजाब के मंत्री, मंत्रीपद और कॉमेडी शो... दरअसल पता चल ही जाएगा कि हम क्रिकेटर, कॉमेडी शो जज, नेता, मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू की बात कर रहे हैं। वैसे इनके व्यवसाय की इतनी लंबी और विविधता भरी सूची उन्हें सचमुच मल्टी टास्किंग पर्सनालिटी करार देने के लिए काफी है। भाजपा के फायरब्रांड नेता के रूप में जाने पहचाने गए सिद्धू पाजी अचानक पाला बदलकर कांग्रेस में आ धमके थे। पंजाब विधानसभा चुनाव 2017 में कांग्रेस की जीत हुई और सिद्धू पाजी को मंत्री पद भी मिल गया।

लेकिन जब उनसे पूछा गया कि वो मंत्रीपद के चलते कॉमेडी शो छोड़ेंगे? जवाब में उन्होंने कहा कि, वे टीवी नहीं छोड़ेंगे। वे कॉमेडी करना नहीं छोड़ सकते, वो तो उनकी असली जिंदगी है। पंजाब कैबिनेट में बतौर मंत्री अपना कार्यभार संभालने के बाद 17 मार्च 2017 को सिद्धू ने कहा कि, मैं टीवी में काम करता रहूंगा। कपिल के शो की शूटिंग करता रहूंगा। वैसे भी जब जनता को सिद्धू के टीवी शो करने से ऐतराज नहीं तो बाकी लोगों को क्यों है?” सिद्धू ने कहा कि, अगर लोगों को उनके टीवी पर काम करने से परेशानी होती तो वे उन्हें यहां नहीं बिठाते। सिद्धू ने कहा कि, मैं अपने सभी काम बैलेंस करूंगा। ऑफिस में बैठकर भी लोगों की सेवा करूंगा और टीवी पर भी उन्हें हसाऊंगा। शाम की फ्लाइट से मुंबई जाऊंगा। शूटिंग करूंगा और फिर रात की 3 बजे की फ्लाइट से पंजाब वापस आ जाऊंगा। यहां आते ही ऑफिस में मिलूंगा और लोगों की समस्याएँ दूर करूंगा। थोड़ा सी मुश्किल होगी शुरू में, पर मैं अपना हर फर्ज निभाऊंगा।

सिद्धू के मंत्रीपद और कॉमेडी शो को लेकर अलग अलग राय या तर्क आए। अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने एक चैनल से कहा कि, मंत्री का दूसरा काम करना नैतिक नहीं है। कानून भले न हो लेकिन यह नैतिक नहीं है। मंत्री रहते आपको अपना समय लोगों को देना चाहिए। ऐसे तो कोई भी मंत्री निजी काम करने लगेगा और इससे गलत प्रथा की शुरुआत होगी। यह कोड ऑफ कंडक्ट के खिलाफ होगा। इस मामले को लेकर लाभ के पद के नियमों का उल्लंघन वाला तर्क भी खूब चला। कुछ ताज़ा मामले के उदाहरण भी आने लगे। जैसे कि इसी वजह से अरुण जेटली और रविशंकर प्रसाद ने वर्ष 2014 में मोदी सरकार में मंत्री पद की शपथ लेने के पश्चात वकालत करने का अपना लाइसेंस सौंप दिया था। बाबुल सुप्रियो ने भी भारी उद्योग एवं सार्वजनिक उपक्रम मंत्री बनने के बाद वाणिज्यिक पाश्र्वगायन छोड़ दिया। ज्योतिरादित्य सिंधिया जब संप्रग सरकार में मंत्री बने थे तब कंपनियों का निदेशक पद छोड़ने की यही सलाह उन्हें दी गई थीं।

इस मामले में पंजाब के एडवोकेट जनरल अतुल नंदा ने मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को अपनी राय सौंपी। मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार रवीन ठुकराल के हवाले से कहा गया कि सिद्धू के मंत्री रहते टीवी शो में काम करते रहने पर मुख्यमंत्री को कोई बाधा नहीं है और इसे लेकर न ही उनका कोई विभाग बदलने की ही ज़रूरत है। एडवोकेट जनरल नंदा ने मुख्यमंत्री को इस बाबत दी गई कानूनी राय में कहा कि, सिद्धू के टीवी शो में काम करते रहना, भारतीय संविधान के तहत जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 या कोड ऑफ कंडक्ट के उल्लंघन का मामला नहीं बनता। एजी अतुल नंदा के मुताबिक, अपने काम के साथ टीवी शो में काम जारी रखने में कोई कानूनी अड़चन नहीं है। एडवोकेट जनरल ने अपनी चार पन्ने की रिपोर्ट में आगे कहा कि, सिद्धू के मंत्री के रूप में स्थानीय निकाय, पर्यटन, सांस्कृतिक मामले, पुरातत्व और म्यूजियम विभाग का कार्य और अपना ऑफिस संभालने के साथ टीवी शो का अपना काम करते रहने में कोई कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट (ऐसी स्थिति जिसमें सरकारी अधिकारी का निर्णय उसकी व्यक्तिगत रूचि से प्रभावित हो) नहीं है। रिपोर्ट में संविधान का हवाला देते हुए कहा गया कि किसी शो में सेलिब्रिटी जज की भूमिका और अभिनय भारत सरकार/राज्य सरकार के तहत ऑफिस ऑफ प्रॉफिट (लाभ का पद) नहीं है। रिपोर्ट में आगे संविधान के विषय में कई सारी चीजें लिखकर बताया गया कि, ये मामला किसी प्रकार से असंवैधानिक या गैरकानूनी नहीं है। यानी कि... ढेर सारे नियमों को बताकर समझाया गया कि नियम नहीं तोड़े गए!!!

पंजाब के सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कहा कि, वह निजी तौर पर महसूस करते हैं कि अगर सिद्धू की आय का मुख्य स्त्रोत ही टीवी शो है, तो उन्हें अपनी यह कमाई करने के लिए आज्ञा दी जानी चाहिए। कैप्टन का कहना था कि कोई व्यक्ति उचित आय के बिना जीवन कैसे बसर करेगा? इससे पूर्व भी कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कहा था कि, सिद्धू के टीवी शो जारी रखने पर उन्हें कोई एतराज नहीं है, लेकिन टीवी शो से टकराव की कोई स्थिति पैदा होती है तो उनका सांस्कृतिक विभाग बदल दिया जाएगा। बताइए, टीवी शो में कोई बदलाव नहीं होगा, बल्कि मंत्रालय में बदलाव होगा!!!

11 मई 2017 को इसे लेकर एक खबर आई। पंजाब सरकार ने स्टैंड लेते हुए कहा कि सिद्धू का कॉमेडी शो में भाग लेना किसी भी तरह से गलत नहीं है। इस मामले में एक याचिका दायर की गई थी। सरकार ने कहा कि, याचिकाकर्ता ने जो भी सवाल उठाए हैं उनका कोई आधार नहीं है। इसके साथ ही सरकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि, सिद्धू पब्लिक ऑफिस के अधीन है ना कि पब्लिक एंप्लॉयमेंट के। ऐसे में उनके ऊपर सिविल सर्वेंट के नियम लागू नहीं होते हैं। इस दौरान पंजाब एडवोकेट जनरल ने हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र को भी सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक इस प्रकार के मामले में हाईकोर्ट दखल नहीं दे सकता।

गौरतलब है कि पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने इस विषय पर टिप्पणी की थी। कोर्ट ने कहा था कि, सैद्धांतिक रूप से नवजोत सिंह सिद्धू को कॉमेडी शो में काम करना जारी नहीं रखना चाहिए। दो सदस्यीय खंडपीठ ने कहा था कि, सब कुछ कानूनी तौर पर नहीं देखा जा सकता। सिर्फ कानून ही सब कुछ नहीं है। कुछ चीजें नैतिकता और शुचिता पर भी आधारित होती है।

कांग्रेस सरकार ने तो कोर्ट तक को नसीहत दे डाली और उनका अधिकारक्षेत्र समझाने की चेष्टा की!!! वहीं ढेर सारे नियमों के जरिये समझा दिया गया कि नियम तोड़े नहीं गए हैं!!! वैसे इस मामले पर कांग्रेस आलाकमान ने चुप्पी ही बनाए रखी थी।

इस मामले को लेकर जहां कांग्रेस ने चुप्पी साधे रखी, वहीं भाजपा ने भी ज्यादा बवाल नहीं मचाया। ऐसा क्यों इसके पीछे सीधा तर्क तो यही दिखा कि कुछ कुछ ऐसे ही दृश्य वहां भी होंगे या भविष्य में हो भी जाए ऐसे खतरे होंगे। अमूमन हमारी राजनीतिक पार्टियां कुछ मुद्दों पर तेरी भी चुप मेरी भी चुप का रास्ता बड़ी साफगोई से आजमा लेती है।

वैसे जहां तक ज्ञात है, ऐसा कोई संवैधानिक बंधन नहीं है। लेकिन इसी दौर में जहां लोढ़ा कमेटी क्रिकेट में सुधार के लिए जंग सरीखा काम कर रही थी और विविध राज्यों के क्रिकेट बोर्ड से चिपके हुए नेताओं को दूर करने के प्रयत्नों में लगी हुई थी, बतौर क्रिकेटर भारत में प्रसिद्ध हुए इस राजनेता ने तो दोनों कामों को पसंद कर लिया। नैतिक रूप से ये कितना जायज या नाजायज था यह अपने अपने तौर पर सोचिएगा। परेश रावल, जो 2014 में भाजपा से सांसद बने थे, इन्होंने भी कुछ कुछ ऐसे ही सवाल के कुछ कुछ ऐसे ही उत्तर दिए थे। उन्होंने कहा था कि सांसद को अपना दायित्व निभाने के लिए वो जहां से चुना गया हो वहां प्रत्यक्ष रूप से रहना ज़रूरी नहीं होता। उन्होंने आगे कहा था कि सांसद खुद काम नहीं करता, लेकिन वो अपने कार्यकर्ताओं और लोगों से अपने इलाके में काम करवाता है। मैं कही पर भी रहूं, मैं काम करवाता रहूंगा। खैर, लेकिन वो सांसद थे, मंत्री नहीं। वैसे केंद्रीय मंत्री जैसी जिम्मेदारी का निर्वाहन करने वाली स्मृति ईरानी के शूटिंग का मामला भी कुछ समय तक विवाद बना था। सांसद हेमा मालिनी का केंट आरओ का शिगूफा भी खूब चला था। अब या तो तमाम पार्टियों के ऐसे स्टार नेता या स्टार टाइप मंत्रियों को सिद्धू पाजी का टाइमींग वाला फॉर्मूला कानूनन लागू कर लेना चाहिए... या फिर कई नेता, जिन्हें जनता ने जिम्मेवारियां दी हो वो अपना व्यवसाय स्थगित भी कर चुके हैं उनके रास्ते पर चलना चाहिए। या फिर... नेताओं को छोड़कर हम नागरिकों को फिर एक बार वही पारंपरिक बयान दे देना चाहिए कि चलता रहा है और चलता रहेगा। 

महाराष्ट्र में डॉक्टरों की हड़ताल, मरीज़ परेशान लेकिन डॉक्टर सुरक्षा को लेकर अड़ गए
मार्च 2017 के दौरान महाराष्ट्र में रेजिडेंट डॉक्टरों ने हड़ताल कर दी। हालांकि उनकी मांग वेतन या आर्थिक संबंधित नहीं थी, बल्कि सुरक्षा को लेकर थी। मरीजों के स्वजनों द्वारा डॉक्टरों के साथ मारपीट की घटनाओं के बाद डॉक्टरों ने यह हथियार आजमा लिया। ताज़ा मामले में मुंबई की सायन अस्पताल में एक मरीज़ की मृत्यु के बाद पीड़ित परिवार ने डॉक्टर के साथ मारपीट की। पिछले 10 दिनों में चार से ज्यादा डॉक्टर के साथ मारपीट हो चुकी थी। पिछले 3 सालों में ऐसी 53 वारदातें हुई थी। इसी घटनाओं के विरोध में डॉक्टर्स हड़ताल पर चले गए।

इन रेजिडेंट डॉक्टर्स की मांग थी कि उन्हें सुरक्षा मुहैया करायी जाए। राज्य सरकार ने उनकी ये बात मान ली, लेकिन डॉक्टर्स नहीं माने। यहां तक कि इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने भी उन्हें समर्थन घोषित कर दिया। महाराष्ट्र सरकार की ओर से मंत्री गिरीश महाजन ने कहा कि उनकी सुरक्षा संबंधित मांगें जायज हैं और हम इसे स्वीकार करते हैं। लेकिन डॉक्टर तो जैसे छुट्टी के ही मूड में थे!

वैसे लोग कहते हुए दिखे कि अस्पतालों या डॉक्टर्स की गलती के चलते मरीज़ परेशान होते हैं या मर जाते हैं, स्टेंट के दामों में सुप्रीम कोर्ट तक को दखल देनी पड़ती है, पेट के अंदर कैची छोड़ आते हैं... ऐसे अनगिनत किस्सों में मरीज़ या उनके स्वजन कहां जाकर हड़ताल करे। करेंगे तो भी क्या होगा। खैर, ये बात तो अस्पतालों के प्रचलित हाई वोल्टेज कारनामे तथा डॉक्टर्स की अनगिनत जानलेवा गलतियों को लेकर है। ऐसे किस्सें इक्का-दुक्का भी नहीं है। भरमार है ऐसी घटनाओं की।

इन रेजिडेंट डॉक्टर्स की हड़ताल के बाद बॉम्बे हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को आदेश दिया कि इनकी सुरक्षा को लेकर तत्काल कदम उठाए जाए। राज्य सरकार ने भी हड़ताल पर बैठे इन डॉक्टर्स को सुरक्षा का भरोसा दिलाया। लेकिन ये लोग अड़ गए! इनकी मांग रही कि इन्हें लिखित आश्वासन मिलता है तभी इनकी हड़ताल खत्म होगी। हालांकि बॉम्बे हाईकोर्ट ने डॉक्टर्स के प्रति तीखा रवैया भी अपनाया। कोर्ट ने कहा कि वे लोग निजी कंपनी के कर्मचारी नहीं है कि ऐसे हड़ताल पर बैठ जाए। कोर्ट ने उनको काम पर लौटने का आदेश दिया। लेकिन ये डॉक्टर्स तो जैसे कि कोर्ट से भी भिड़ने के मूड में थे! इन्होंने सामूहिक अवकाश ले लिया और काम पर नहीं लौटे!!!

इतना ही नहीं, 22 मार्च 2017 को इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के करीबन 40,000 डॉक्टर्स ने भी इस मुहिम को समर्थन घोषित किया। आईएमए के सेक्रेटरी डॉ. पार्थिव सांघवी ने अपने बयान में कहा कि निजी अस्पताल भी ओपीडी बंद रखेंगे, हालांकि तत्काल सेवाएँ मुहैया कराई जाएगी। इससे पहले राज्य सरकार ने 22 मार्च के रात 8 बजे तक इन आंदोलनकारी डॉक्टर्स को काम पर लौटने का अल्टीमेटम दिया था। लेकिन राज्य सरकार का अल्टीमेटम, हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी और मरीजों की परेशानियों के बावजूद ये लोग काम पर नहीं लौटे! महाराष्ट्र एसोसिएशन ऑफ रेजिडेंट डॉक्टर्स ने इस आंदोलन को जारी रखा।

इन आंदोलनकारी डॉक्टर्स द्वारा जारी हड़ताल के पहले तीन दिनों में कथित रूप से सरकारी अस्पतालों में 65 से ज्यादा मरीज़ मारे गए। एक दावे के मुताबिक सरकारी व पालिका अस्पतालों में 60 प्रतिशत काम रुक गया। सरकार ने मजबूरी में सख्त कदम उठाते हुए नागपुर के 370 तथा सोलापुर के 114 डॉक्टर्स को सस्पेंड कर दिया। मुंबई में सामूहिक अवकाश पर गए 1,200 डॉक्टर्स को चेतावनी दी गई कि उनका रजिस्ट्रेशन रद्द हो सकता है। पुणे के 200 डॉक्टर्स को नोटिसें थमाई गई। 22 मार्च 2017 की शाम 8 बजे तक काम पर लौटने का आदेश दिया गया। आदेश में कहा गया कि अगर वे काम पर नहीं लौटते तो उनका एक महीने का वेतन काट लिया जाएगा।

मंजर देखिए। आईएमए ने ही इन नोटिस तथा जारी की गई चेतावनियों का विरोध कर दिया! यानी कि सारे लामबंद हो चुके थे। 20 मार्च 2017 के दिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने सख्त लहजे में डॉक्टर्स को कहा कि, अगर मारपीट का डर ही है तो नौकरी छोड़ दो।

बॉम्बे हाईकोर्ट और राज्य सरकार के सख्त रवैये के बाद भी ये डॉक्टर अपनी जिद पर अड़े थे!!! सरकार ने उनकी कई मांगें स्वीकार की थी, जैसे कि मरीज़ को मिलने के लिए उनके दो परिजनों को ही इजाज़त मिलेगी, अस्पतालों में अलार्म सिस्टम लगाई जाएगी, डॉक्टर्स की सुरक्षा हेतु अतिरिक्त सुरक्षाकर्मी लगाए जाएंगे जैसी मांगें स्वीकार कर ली गई थी। बॉम्बे हाईकोर्ट ने डॉक्टरों को चेतावनी दी कि, वे शनिवार तक काम पर नहीं लौटें तो उनके खिलाफ कार्रवाई होगी। यही बात महाराष्ट्र सरकार ने भी दोहराई और कहा कि, यदि वे काम पर नहीं लौटते तो सरकार कार्रवाई करने को बाध्य होगी। इसके बाद डॉक्टर एसोसिएशन ने हाईकोर्ट में हलफनामा दिया कि वे सुबह 8 बजे तक काम पर लौट जाएंगे।

उसके बाद 24 मार्च के दिन आईएमए के समर्थकों ने काम पर लौटना मुनासिब समझा और वे काम पर लौट आए। हालांकि तब तक मुंबई के रेजिडेंट डॉक्टर्स अब भी काम पर लौटने का नाम नहीं ले रहे थे। आखिरकार उनकी ओर से कहा गया कि वे 25 मार्च के दिन काम पर लौट आएंगे।

आखिरकार 25 मार्च के दिन इन्होंने अपनी हड़ताल खत्म की और काम पर लौट आए। इन रेजिडेंट डॉक्टरों की हड़ताल के पहले 5 दिनों में मीडिया रिपोर्ट की माने तो 373 मरीजों की जान चली गई। ये आंकड़ा पूरे राज्य का था। अकेले मुंबई का आंकड़ा 135 था। नोटबंदी के दौरान जितने लोगों की मौत का दावा किया गया था, ये आंकड़ा उससे भी कई ज्यादा था। आपातकालीन सेवाएँ बंद नहीं हुई थी, लेकिन ओपीडी का काम रुक जाने की वजह से दूर-दराज से आए मरीज़ काफी परेशान हुए। एक आंकड़े के मुताबिक करीबन 1,100 से ज्यादा ऑपरेशन रुक गए थे।

जयपुर में डॉक्टरों ने हड़ताल की, 40 के करीब मरीज़ जान से गए
राजस्थान एसेंशियल सर्विस प्रोटेक्शन एक्ट का विरोध करने हेतु राजस्थान में 9,000 डॉक्टर्स दिसम्बर 2017 के दौरान हड़ताल पर चले गए। उनकी मांगों में से प्रमुख मांग प्रमोशन को लेकर थी। इसे लेकर सरकार तथा डॉक्टर्स के बीच मतभेद थे। दोनों के बीच इसे लेकर बातचीत हो चुकी थी, लेकिन दोनों पक्षों में इसे लेकर मतभेद थे। ऐसे में डॉक्टरों ने मरीजों को भगवान भरोसे छोड़कर हड़ताल का रास्ता पकड़ लिया। ये हड़ताल एक सप्ताह से कुछ ज्यादा चली। इसके चलते मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक 40 मरीजों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। सरकार ने 9 डॉक्टर्स को सस्पेंड कर दिया, जबकि तकरीबन 120 डॉक्टर्स को गिरफ्तार कर लिया गया।

डॉक्टरों ने खुद पर दबाव की शिकायत पीएम से की, आरोग्य मंत्री ने कहा- गोली मार देंगे
राजस्थान के डॉक्टर्स को समर्थन देने हेतु तथा खुद की शिकायतों को लेकर एम्स के डॉक्टर्स ने इस दौरान पीएम मोदी को चिठ्ठी लिखकर अपनी दिक्कतें पेश की। एम्स के एक संगठन के अध्यक्ष हरजीत सिंह भट्टी द्वारा लिखे गए पत्र में पीएम मोदी की प्रशंसा करते हुए डॉक्टरों की ओर से उन पर जो मानसिक दबाव होता है उसकी शिकायत की। मरीजों के परिजनों के गुस्से, सुविधाओं की कमी तथा डॉक्टरों की छवि बिगाड़ने वाले प्रचार की शिकायत करते हुए पत्र में पीएम को लिखा गया कि आप हमारी स्थिति समझने के लिए एक दिन तो डॉक्टर बनिए।

डॉक्टर्स की शिकायतें लाजमी हो सकती थी, लेकिन कुछ अस्पतालों के कारनामे, मरीज़ तथा उनके परिजनों को हो रही दिक्कतें, इन सब में तालमेल कौन बिठाता ये भी अनसुलझा सवाल ही था। इन घटनाओं के बीच केंद्रीय गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर ने 25 दिसंबर 2017 को महाराष्ट्र के चंद्रपुर में एक अस्पताल के उद्घाटन कार्यक्रम के दौरान विवादित बयान देते हुए कह दिया था कि, मैं लोकतांत्रिक तरीके से चुना गया मंत्री हूं। मैं यहां आ रहा हूं, यह जानते हुए भी डॉक्टर्स छुट्टी पर क्यों चले गए? अगर वे लोकतंत्र में विश्वास नहीं करते तो उन्हें नक्सलियों के साथ जुड़ जाना चाहिए,  हम ऐसे डॉक्टर्स को गोली मार देंगे। डॉक्टरों की छुट्टियां या आंदोलनों के चलते लोग भी परेशान हैं ये सही बात है, लेकिन लोकतांत्रिक तरीके से चुना गया मंत्री लोगों के जैसे फेसबुकिया स्टेटस सरीखा बयान डालने लगे ये विवादास्पद तो होना ही था। क्योंकि मंत्रीजी को पता होना चाहिए था कि गोली मारने की नौबत ही नहीं है, बशर्ते कानूनों का सही पालन राज्य तथा केंद्र, दोनों स्तर पर हो। बशर्ते अस्पतालों के विवादित कारनामों के दौरान सीट बनाना, रिपोर्ट तैयार करना, जांच बिठाना वगैरह लंबा चौड़ा नाटक करने के बजाय तत्काल सख्त कार्रवाई होने लगे।

(इंडिया इनसाइड, मूल लेखन 15 जनवरी 2017, एम वाला)