एक सीधी बात... स्कूलों में भविष्य बनाने के नाम पर वर्तमान का बजट उलट-पुलट हो
जाता है, वहीं अस्पतालों में
वर्तमान बचाने के नाम पर भविष्य का बजट उलट-पुलट हो जाता है। शायद चिकित्सक को आप भगवान
मानो या ना मानो, वे खुद को भगवान ही
मानते होंगे! तभी तो मुर्दों में
जान डालने की कोशिशें हमारे यहाँ चलती होगी!
भारत में चिकित्सा
व्यवस्था संबंधी गड़बड़ियाँ तक़रीबन हर नागरिक के मन में छाया हुआ विषय है। यहाँ उस
मरीज़ का ऑपरेशन कर दिया जाता है, जिसका होना नहीं था!!! बिलकुल ठीकठाक मरीज़ को दूसरों के मेडिकल रिपोर्ट मिल जाया करते हैं और वो बेचारा
सोचता रहता है कि उसे इतनी गंभीर बीमारी कैसे हुई होगी? गनीमत है कि दोबारा रिपोर्ट करवाने का सिस्टम है, वर्ना...।
कई क़िस्से अख़बारों
में नहीं छपते, अनगिनत क़िस्से मीडिया में नहीं दिखाए जाते।
लेकिन इस देश में सैकड़ों की तादाद में ऐसे वाक़ये सुनने के लिए मिल ही जाएँगे। बॉडी
चेकअप के लिए आया मरीज़ सोच रहा होता है कि उसे लैटाकर इतने सारे चिकित्सक उसके आस-पास
क्यों घूम रहे हैं? बाद में उसे एहसास होता है कि उसका कोई हिस्सा
काटकर ऑपरेशन करने की तैयारी हो रही है! मरीज़ को एहसास होने के बाद अस्पताल प्रशासन को एहसास होता है कि ये तो रोंग नंबर
लग गया था! जिसका ऑपरेशन होना था वो तो बाहर इंतज़ार
में लगा था!
विश्वविद्यालयों में
जैसे रिसीप्ट बदली हो जाता है या फिर भाषण देते वक्त नेताओं का पर्चा बदल जाता है, वैसे यहाँ भी मेडिकल रिपोर्ट या दवाई की पर्चियाँ बदल जाती हैं! अब कौन सी बदली ज़्यादा गंभीर है यह तय करना उतना मुश्किल काम भी नहीं है। कभी
कभार हमारे यहाँ कहा जाता हैं कि सत्ता में आने के बाद पार्टियों के घोषणापत्र भी बदल
जाते हैं। अस्पतालों में तो पत्र तो क्या, ताज़ा जन्मे बच्चे भी बदली हो जाते हैं!
सैकड़ों क़िस्से ऐसे
हैं जो अख़बारों में छप नहीं पाते। कुछ छप जाते हैं। हमारे अस्पताल इतने आधुनिक और
मानवीय भावनाओं से भरे हुए हैं कि यहाँ मुर्दों तक का इलाज किया जाता है!!! कभी आपने सुना है कि कहीं पर मुर्दों का इलाज किया जाए? भारतीय अस्पतालों की मानवता या करुणा का यह सबूत ही मान लीजिए।
इतनी करुणा कि इंसान मरा हुआ हो तब भी उसका इलाज करना नहीं छोड़ा जाता! कभी कभी घंटों तक, कभी कभी दिनों तक मुर्दे का इलाज चलता रहता
है।
कई मामलें अख़बारों
में छपते रहते हैं। एक अस्पताल मरीज़ का इलाज कर रहा होता है और कुछ संदिग्ध लगने के
बाद जब मरीज़ को दूसरे अस्पताल ले जाया जाता है तब दूसरा अस्पताल कहता है कि मरीज़
को मरे कई घंटे हो चुके हैं!!! कभी कभी मरीज़ 2-4 दिनों पहले आख़िरी
सांस ले चुका होता है, लेकिन फिर भी उसका इलाज किया गया हो ऐसे चौंकाने
वाले क़िस्से भी छप चुके हैं! शायद चिकित्सक को
आप भगवान मानो या ना मानो, वे खुद को भगवान ही मानते होंगे! तभी तो मुर्दों में जान डालने की कोशिशें हमारे यहाँ चलती होगी!
यह विडंबना ही है कि ऑक्सीजन सिलेंडर लगाकर मुर्दों को ज़िंदा रखने की नौटंकियाँ
की जाती हैं, वहीं कुछ वाक़ये ऐसे
भी मिल जाएँगे जहाँ ऑक्सीजन की कमी के चलते सैकड़ों ज़िंदा इंसान अपनी जान गँवा बैठते
हैं!!!
आईसीयू बड़ा प्रचलित
सा नाम है। आईसीयू को लेकर मरीजों में जहाँ एक तरफ़ प्रशंसा के बोल हैं, वहीं दूसरी तरफ़ शिकायतों का पुलिंदा भी है। फौजी भाषा में कहा
जाए तो आईसीयू यानी नो मेंस लैंड। सुना है कि सरहद के आसपास नो-सिग्नल जोन होता है, जहाँ मोबाइल कंपनियों को सिग्नल वीक करने या बंद करने होते हैं।
आईसीयू भी एक तरह का ऐसा इलाक़ा है, जहाँ मरीज़ के स्वजनों को क़रीब क़रीब ऐसा
ही करना पड़ता है। मरीज़ अकेला होता है, साथ ही पूरा का पूरा चिकित्सक व अस्पताल के
हवाले भी। आईसीयू में कुछ मामले और गड़बडियाँ और शिकायतें बड़ी मशहूर हैं।
वैसे हमारे यहाँ जो
आर्थिक रूप से ठीक-ठाक होते हैं ऐसे परिवार अपने स्वर्गीय स्वजनों को एकाध दिन वेंटिलेटर
पर रखते हैं। इसमें मानवीय भावनाएँ हैं। लेकिन कई क़िस्सों में तो इसलिए भी, ताकि स्वजनों को बुलाने का और अंतिम संस्कार की तैयारीयों का
वक्त लिया जा सके। कुछ क़िस्से ऐसे भी देखे, जिसमें मरने वाले के परिवार में किसी को
कोई एग्जाम या इंटरव्यू वगैरह होता है तो एकाध दिन वेंटिलेटर पर मरीज़ को लगाया जाता
है। अब ये सारी चीजें चौंकाती तो हैं, लेकिन हमारा यहाँ जो मुद्दा है उससे थोड़ा
दूर है।
दूसरी तरफ़ ऐसी घटनाएँ, जिनमें मरीज़ का परिवार आर्थिक रूप से कमजोर और बेहाल होता है
और उन्हें वेंटिलेटर पर लगा दिया जाता है, ताकि अस्पताल वाले अपना बिल बढ़ा सकें। ऐसी
घटनाएँ भी हमारे यहाँ कम नहीं हैं।
गर्भ में बच्चा मर
चुका हो और उसके बाद भी बच्चे को स्वस्थ रखने के नाम पर माता और बच्चे के लिए दवाइयाँ
दी जाती हैं!!! ऐसे भी वाक़ये सामने
आ चुके हैं, जहाँ बच्चा गर्भ में मर चुका हो और उसके बाद
भी सोनोग्राफी के एक से ज़्यादा रिपोर्ट करके पैसे ऐंठ लेते हैं! ऐसे वाक़ये भी खूब हैं, जिसमें मरीज़ मर चुका हो, लेकिन उसे वेंटिलेटर पर घंटों या दिनों तक रखा जाता है और मरीज़
के परिवार से तगड़ा बिल भी वसूला जाता है। लोग तंज कसते हुए कहते हैं कि अस्पतालों
के हालात यह है कि मुर्दा लेकर पहुंचो तब भी उसका इलाज शुरू कर दिया जाता है!!!
कुछ शारीरिक समस्याएँ
ऐसी होती हैं, जिसमें अस्पताल या चिकित्सक के हवाले ही करना
पड़ता है और इसका वे अनैतिक फायदा उठाते हैं ऐसा कहा जाता है। एक दौर था जब बुखार या
कमजोरी या ऐसी बीमारियों में बोतल लगाना बड़ी बात (गंभीर मामला) माना जाता था। आमतौर
पर आम मानी जाने वाली बीमारियों में किसी को बोतल लगाया जाता तो फिर पूरा परिवार और
उनके स्वजन उसे बड़ी बात माना करते थे।
मरीज़ घर लौट आए फिर
दिनों तक उसकी मुलाक़ात करने वालों का ताँता लगा रहता। उनके स्वजनों तक जब यह ख़बर
पहुंचती कि इन्हें तो बोतल लगाया गया था, तब तो जैसे कि बड़ी ख़बर बन जाती। लेकिन आजकल
तो कमजोरी या बुखार की शिकायत लेकर जाने वाले मरीज़ को उनके ही परिवार के लोग कहते
हैं कि एकाध बोतल लगवाके आना!!! बोतल और उसमें लगाए
जाने वाले इंजेक्शन के दाम और मरीजों से वसूले जा रहे दाम दिल में लगाए जाने वाले स्टेंट
जैसा ही है। उतना नहीं तो उसके जैसा ज़रूर होगा।
स्टेंट की बात निकली
है तो लगता है कि इसमें भी बोतल वाली कहानियाँ रिपीट हो रही हैं। जैसा पहले बोतल में
होता था, वैसा अब स्टेंट में हो रहा है। लगता है कि
आने वाले दौर में स्टेंट के हालात भी बोतल जैसे हो जाएँगे। स्टेंट के दाम भी इतने ज़्यादा
वसूले जा रहे हैं कि दिल को दुरुस्त करने के लिए लगाए जाने वाले स्टेंट दिल की बीमारी
पैदा कर दे!!!
ऊपर से कुछ रिपोर्ट
बताते हैं कि भारत में ऐसे ऐसे मरीजों को स्टेंट लगाए जाते हैं, जिन्हें उसकी ज़रूरत ही नहीं होती!!! अब तो वो दौर आ गया है जब लोग बातें करने लगे हैं कि रिपोर्ट करवा के जहाँ ब्लॉक
हो वहाँ स्टेंट ज़रूर लगवाने चाहिए। बोतल जैसी ही कहानियाँ इसमें रिपीट हो रही है! सरकार स्टेंट के दामों को लेकर जगी है और कई नियंत्रण लगा दिए गए हैं। स्टेंट
अब सस्ते कर दिए गए हैं। आगे कार्डियो रिपोर्ट वाले मामले में भी कभी न कभी नियंत्रण
आ जाएँगे। फिर तो घर से निकलने वाले मरीज़ को यही नसीहत दी जाएगी कि एकाध स्टेंट लगवा
के आना!
वैसे अस्पतालों ने
स्टेंट पर नियंत्रण आने के बाद दूसरे चार्जेस में हिरण के जंप टाइप इज़ाफ़ा कर दिया
था। जैसे कि हाईवे पर शराब नियंत्रण वाले फ़ैसले के बाद हाईवे को ही डिनोटिफाइड किया
जा रहा था, इधर भी स्टेंट के दामों पर नियंत्रण आने के
बाद स्टेंट लगवाने से जुड़ी दूसरी चीजों में चार्ज बढ़ा दिए गए!
बोतल से लेकर स्टेंट, दवाइयों से लेकर अलग अलग प्रकार के इंजेक्शन, इन सभी से पहले रिपोर्टस की डगर से गुजरना होता है। अलग अलग
प्रकार के ढेरों सारे रिपोर्टस, लैब के चक्कर में ही
शायद आधी बीमारी खत्म हो जाती होगी या फिर शुरू हो जाती होगी! पैसे के नजरिये से देखे तो आधी बीमारी तो ऐसे ही दूर हो जाती है और मानसिक नजरिये
से देखे तो इतना सब देखकर बीमारी उफान पर आ जाती है!
लैब के रिपोर्ट भी
बदली हो जाया करते हैं। एकदम स्वस्थ इंसान को कैंसर का मरीज़ भी बता दिया जाता है।
गनीमत है कि लोग एक लैब से संतुष्ट नहीं होते। वैसे आजकल लोग एक डॉक्टर से भी संतुष्ट
नहीं होते। कायदे से सोचते हैं तो लगता है कि इसमें मरीज़ भी क्या करे, क्योंकि निदान या ऐसी चीजें हर लैब या अस्पतालों में इतनी
जुदा आती रहती हैं कि लगता है कि हमारा शरीर ही एक जगह से दूसरी जगह पर जाए तब बदल
जाता हो ऐसा कोई नया विज्ञान आया होगा!!!
इन सब चीजों के बाद
भी किसी मरीज़ को शायद ही यक़ीन होगा कि वो जो दवाई ले रहा है वो असली है या नकली।
जाली नोट, नकली उत्पाद, नकली घी, नकली दूध और नकली दवाई के फेरे में पता नहीं
चलता कि हम असली इंसान हैं या किसी के लिए प्रयोग करने वाला शरीर! नकली वकील, नकली शिक्षक की तरह
नकली डॉक्टर वाला जोखिम तो बना ही रहता है।
फ़रवरी 2017 में कर्नाटक का एक
क़िस्सा मीडिया में जगह बना पाया था। जगह बना पाया था – यह टिप्पणी किन वजहों
से की गई यह आप समझ ही सकते हैं। मीडिया ख़बरों के मुताबिक़ कर्नाटक के डॉक्टरों ने
लांबिनी और दलित समाज की 2,200 महिलाओं के गर्भाशय निकाल लिए थे। कहा गया कि इस रैकेट का भंडाफोड़ अगस्त 2015 में हुआ। अक्टूबर
2015 में आरोग्य विभाग की जाँच कमेटी ने चार अस्पतालों के लाइसेंस रद्द कर दिए। हालाँकि
इसके बावजूद कथित रूप से यह रैकेट चलता रहा और जब फ़रवरी 2017 में हजारों की तादाद
में लोगों ने प्रदर्शन किया तब यह मामला फिर एक बार अख़बारों की सुर्खियाँ बना।
कहा जाता है कि छोटे
बच्चे ऊपरवाले का रूप होते हैं। वहीं चिकित्सकों को तो साक्षात ऊपरवाला ही माना जाता
रहा है। पता नहीं क्यों ये साक्षात ऊपरवाले कहे जाने वाले उन मासूम ऊपरवालों पर रहम
क्यों नहीं रखते?
छोटे बच्चों के क़िस्से
आये दिन अख़बारों में छपते रहे हैं। अगस्त 2016 का एक वाक़या था, जिसमें कृष्णा नाम के छोटे मासूम को सुई लगाने
के कथित रूप से बीस रुपये मांगे गए और गरीब माँ वो मांगपूर्ति नहीं कर पाई। सड़क पर
अपने बच्चे को गौद में लेकर रोती विलपती उस माँ की तस्वीर कइयों को झकझोर गई थी। फ़रवरी
2017 में भी गुंड़गांव (गुरुग्राम) का एक वाक़या छपा था, जिसमें बच्चे के परिजनों ने आरोप लगाया था कि बच्चे को एक महीने
तक भर्ती रखा गया और बिल बनाया गया बीस लाख रुपये! बच्चे के पिता की माने तो अस्पताल ने आख़िरी वक्त में यह भी कह दिया कि बिल चुकाने
के पैसे नहीं हैं तो बच्चे को ज़हर की सुई दे दो।
हम ऐसे वाक़यों को
लिखने बैठे तो पूरा ग्रंथ बन जाएगा। एक साल के ऐसे वाक़ये लिखने बैठते हैं तब भी कई
पन्ने लिखे जा सकते हैं। उम्मीद है कि आप के दिमाग में वो सारे क़िस्से होंगे और उसी
झकझोरने वाले क़िस्सों के संदर्भ में इस लेख को पढ़ रहे होंगे। अच्छे और सेवाभावी चिकित्सक
होते हैं उसमें कोई शक नहीं है, किंतु जब देश बहुमत से ही चलता हो तो फिर
इसमें भी इक्का-दुक्का के बजाए एक से ज़्यादा नहीं बल्कि एक से भी बहुत ही ज़्यादा
की बात क्यों न हो?
गर्भ में पल रहे बच्चे
से लेकर उम्रदराज इंसानों तक की झकझोरने वाली या चौंकाने वाली कहानियाँ मिल जाती हैं।
अस्पताल भी थ्री स्टार, फाइव स्टार होने लगे हैं! वैसे ज़्यादातर तो हम बिना स्टार वाले अस्पतालों में जाते हैं। क्योंकि एकाध स्टार
ज़्यादा हो तब जेब का वजन उतना नहीं होता। संसाधन, ज्ञान, तकनीक, ढांचा आदि की बात की जाए तो हम कहीं आगे बढ़ चुके हैं। लेकिन यहाँ चर्चा का विषय
वो नहीं है। उन बातों पर तारीफ़ किसी दिन कर लेंगे। फिलहाल तो उसी पटरी पर चलते हैं, जो यहाँ विषय है।
वैसे अस्पतालों में
मरीज़ इलाज करवाने जाते हैं, यह सोचकर कि वहाँ ऑक्सीजन भी मिलेगा और इलाज
भी। लेकिन कभी-कभार तो बड़े अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी की वजह से एक ही दिन में
15-20 मरीज़ दम तोड़ देते हैं!
अगस्त 2017 में यूपी के गोरखपुर
में कथित तौर पर अस्पताल ने ऑक्सीजन सिलेंडर के बकाया पैसे नहीं चुकाए तो सप्लायर ने
सिलेंडर भेजना बंद कर दिया, जिसके चलते 30 से ज़्यादा मासूम
अपनी जान गँवा बैठें। इसी साल जून माह में मध्य प्रदेश के इंदोर में भी ऐसा ही एक वाक़या
हुआ था, जिसमें 17 मरीजों की मौत हो गई थीं। ये सारी चीजें सामूहिक हत्याकाँड
सरीखी ही लगती है।
आप भाजपा-कांग्रेस
के नजरिये से सोचते हैं तो फिर गूगल कर लें। आपको हर राज्य में, हर सरकारों में ऐसे वाक़ये मिल ही जाएँगे। ऐसे वाक़यों में फिर
तो खेल डिफेंस का शुरू होता है, जहाँ अस्पताल प्रशासन कहता है कि सारे मरीज़
ऑक्सीजन की कमी की वजह से नहीं, बल्कि किसी गंभीर बीमारी की वजह से मर गए।
बताइए, आईसीयू में भर्ती मरीज़, सर्जिकल आईसीयू में भर्ती मरीज़ या नवजात शिशु, सभी को एक साथ गंभीर बीमारी हो जाती है और तमाम की बीमारी एकसरीखी
ही बताई जाती है जिससे सारे मरीजों की एक तरीके से ही मृत्यु हो गई हो!!!
सभी जानते हैं कि ये
वो वाक़ये हैं जो अख़बारों में छप जाते हैं, वर्ना मासूमों से लेकर बुजुर्गों तक के झकझोरने
या चौंकाने वाले क़िस्सों की यहाँ कोई कमी नहीं है। दायें पैर का ऑपरेशन हो और बाया
पैर निशाने पर रहता है। पैर की तो छोड़ दो, मरीज़ तक बदल जाए तो पैर की क्या औकात!
अब तो हालात यह है
कि ऑपरेशन कराने के बाद मरीजों को पहले तो यक़ीन होना चाहिए कि ऑपरेशन उसी चीज़
का हुआ है जिसका वो करवाने आए थे! इस यक़ीन के बाद दूसरा यक़ीन तो यह होना चाहिए कि घरती के भगवान लोग उसके शरीर
के अंदर कुछ छोड़ तो नहीं आए!!! ऑपरेशन के औज़ार भी शरीर के अंदर छोड़े जाते हैं! कभी कभी वाक़ये ऐसे भी आते हैं कि रुमाल तक
शरीर के अंदर भूल आए थे!
ऑपरेशन थियेटर को मूवी
थियेटर समझने वाले चिकित्सकों की तादाद कितनी है पता नहीं। मरीज़ ऑपरेशन टेबल पर लेटा
हो तभी मरीज़ को छोड़-छाड़ आपसी झगड़े में तू तू मैं मैं करने वाले चिकित्सकों से प्रेरित
होकर ही अनारकली डिस्को चली थी! नवजातों को जन्म
लेने के साथ ही मोक्ष देने वाले अस्पताल कम हैं, लेकिन फिर भी ऐसी मौतों के आंकड़े कम नहीं होते यह नोट कर लें।
उपरांत मेडिकल की दुनिया
में बीमारियों के या दवाइयों के जो नाम होते हैं, वो इतने विकराल लगते हैं कि समझ नहीं
आता कि यह कौन सी बीमारी है। अब इसे हम लोगों का अंग्रेजी ज्ञान कहे या फिर अस्पतालों
का ट्रिक, जो भी कह लें। क्लीनिकली डेड, मेडिकली डेड कहकर लाइफ सपोर्ट सिस्टम का इस्तेमाल किया जाता
है।
अस्पताल वाले या स्कूल
वाले जो भी दलीलें कर लें, लेकिन इन दोनों के लूटतंत्र को लेकर आम लोगों
में तीखी बातें ज़रूर होती रहती हैं। लोग कहते हैं कि दोनों चीजें (स्कूल और अस्पताल)
इतनी ज़रूरी हैं कि खुद का आर्थिक और मानसिक रूप से झुनझुना बजवाने के लिए मजबूरन तैयार
होना ही पड़ता है। वैसे अस्पतालों का शुक्रिया कि वे लोग स्कूली संस्थानों की तरह नियमों
का पुलिंदा अभी तक नहीं लाये हैं।
सेंस ऑफ ह्युमर नाम
की चीज़ पर बड़े लोगों का कॉपीराइट होगा, लेकिन आम आदमी इसका जितना सफल इस्तेमाल किया
करता है, उतना इस्तेमाल बड़े लोग नहीं किया करते होंगे। आम आदमी सेंस... और... ह्युमर, इन दोनों के नजरिये से कहता है कि अच्छा है कि स्कूल वालों की
तरह अस्पतालों में भी जूते, टाई, यूनिफॉर्म से लेकर अन्य ऐसी चीजों में कोई
जबरदस्ती नहीं है! दूसरा कहता है कि सही है, लेकिन अस्पताल
वाले स्कूल वालों को अकेला भी नहीं छोड़ सकते, तभी तो चार्जेस और फिस को लेकर दोनों की सड़कें
एक जैसी है!
इस ह्युमर को सेंस
के जरिए सोचिएगा। हो सकता है कि हैप्पीनेस इंडेक्स में कभी भारत को पहला नंबर मिल जाए
और फिर सरकारें तथा व्यवस्था कहते दिखे कि अब कोई समस्या नहीं है। क्योंकि, सरकारों का सेंस ऑफ ह्युमर भी लाजवाब ही होता है। है न?
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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