यक़ीनन... हम नारों पर जीने वाले लोग हैं। जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान। और अरसे
से जवान, किसान और विज्ञान, इन तीनों की दुखद कहानियाँ किसी से छुपी नहीं हैं। नोट करें कि यह किसी एक सरकार
या किसी एक नेता के दौर की नहीं बल्कि हर दौर की छवि है। फ़र्क़ इतना है कि दौर बदलता
है, सरकार बदलती है... नहीं बदलती तो केवल इन तीनों की समस्याएँ।
वैसे नैतिकता राजनीति में केवल एक ब्रांड है, जिसे समय समय पर अपने
हिसाब से चमकाया जाता है या फिर घिसा जाता है। साथ में हर दौर की ऐसी कहानियों के लिए
हर वो समर्थक जिम्मेदार है जो अपने अपने आकाओं के लिए ख़ुद के बचे-खुचे दिमाग को घिसता
पीटता रहता हैं।
अप्रैल 2017 की तपती गर्मी का
महीना था। देश डिजिटल सा तो था ही, उसे और ज़्यादा डिजिटल बनाने की बातें हो रही थीं। एक तरफ़ झारखंड में स्कूली
बच्चे मिड डे मील की जगह चूहे और पक्षी मारकर खाने को मज़बूर थे, दूसरी ओर भारत को
विश्वगुरु बनाने की बातें हो रही थीं! देश टेल्गो और बुलेट ट्रेन के स्वागत की तैयारियों में जुटा था, वहीं सुप्रीम कोर्ट
रेलवे के हालात को लेकर केंद्र को फटकार लगाते हुए कह रहा था कि रेलवे के हालात अंग्रेजों
के शासनकाल में बेहतर थे! कई शहरों को स्मार्ट
बनाकर नये लिबास पहनाने के बारे में सोचा जा रहा था, वहीं कोई दाना मांझी अपनी पत्नी की लाश कंधे पर ढो कर चला जा
रहा था!
सेवानिवृत्त सैनिक
जवान जंतर मंतर पर महीनों भूखे बैठ चुके थे और सरकारी लाठियाँ भी झेल चुके थे।
प्रधानमंत्री मन की बात कर रहे थे, उधर टीएस ठाकुर तथा जेएस खेहर को प्रधानमंत्री के सामने दिल की बात सुनानी पड़
रही थी।
मन की बात और दिल की
बात के दौर में किसानों का दर्द सरकारों ने नहीं देखा तो वे दिल्ली आ पहुंचे। यह वो
दिन था जब ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री भारत के दौरे पर थे और भारतीय प्रधानमंत्री
उनके साथ ट्रेन में सेल्फी-सेल्फी खेल रहे थे। इसी दिन किसान के रूप में देश की पूरी
व्यवस्था बिना कपड़ों के पीएमओ के सामने आकर खड़ी हो गई। लगा कि किसान निर्वस्त्र नहीं
हुए थे, बल्कि लोकतंत्र के कपड़े फट गए थे।
जंतर मंतर पर अपनी
मांगों को लेकर पिछले 28 दिनों से धरने पर बैठे तमिलनाडु के किसानों ने 10 अप्रैल 2017 को साउथ ब्लॉक स्थित
प्रधानमंत्री कार्यालय के बाहर नग्न होकर प्रदर्शन किया। फिर क्या था। दिल्ली पुलिस
ने उन किसानों को थोड़ी देर के लिए हिरासत में ले लिया।
गुजरात में भी इसी
साल साणंद, केवड़िया कॉलोनी या धोलेरा जैसे इलाकों के किसानों ने अपनी अपनी मांगों को लेकर
विरोध-प्रदर्शन किए थे। उन्हें भी सरकारी लाठियाँ ही मिली थीं। ऊपर से दंगे और हत्या
के प्रयास तक के मामले किसानों के ऊपर लगा दिए गए थे! धोलेरा के किसानों को महीनों बाद भी सरकारी नोटिस मिल रहे थे।
महाराष्ट्र से लेकर
तमाम राज्यों में सूखा पीड़ित किसान और उनकी ख़ुदकुशी के मामलों में तमाम राज्य सरकारें
कटघरे में खड़ी होती दिखाई दे रही थीं। भारतीय इकोनॉमी का सच भी अजीब था जहाँ उद्योगपतियों
के क़र्ज़ बिना चर्चा के एकदम शांति से माफ़ किए जाते थे, वहीं किसानों की क़र्ज़ माफ़ी
राज्यों और केंद्रों से लेकर बैंकों को दिक्कतों में डाल रही थी! एक केंद्रीय मंत्री तो यहाँ तक कह गए कि किसानों की क़र्ज़ माफ़ी का एक फैशन सा
चल पड़ा है। याद नहीं कि किसी भी सरकार ने उद्योगपतियों की क़र्ज़ माफ़ी को लेकर यह कहा
हो।
तमिलनाडु के ये किसान
लगभग एक माह से दिल्ली पहुंचकर घरने पर बैठे थे। किसानों का एक प्रतिनिधिमंडल 10 अप्रैल को दिल्ली पुलिस के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ज्ञापन देने के
लिए साउथ ब्लॉक गया था। हालाँकि उस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने कार्यालय
में नहीं थे। कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद सूखे और क़र्ज़ग्रस्त किसानों से इंतज़ार
सहन नहीं हुआ और उसमें से एक किसान पुलिस के वाहन से अचानक कूदकर सड़क पर निर्वस्त्र
दौड़ने लगा। अपने साथी के विरोध को देख अन्य किसान भी उसके समर्थन में उतर आए और सड़क
पर निर्वस्त्र होकर दौड़ने लगे। हालाँकि पुलिस ने किसानों को हिरासत में लिया और वापस
घरना स्थल पर छोड़ दिया। पुलिस की तरफ़ से दावा हुआ कि किसान प्रतिनिधिमंडल पर कोई
क़ानूनी कार्रवाई नहीं की गई।
दरअसल, तमिलनाडु में 100 साल का सबसे भयंकर
सूखा पड़ा था। राज्य से निराशा मिली तो वे केंद्र तक पहुंचने को मज़बूर हुए। शायद यही
सोचकर कि केंद्र तक बात जाएगी तो राज्य को शर्म तो आएगी। लेकिन शायद उन्हें पता नहीं
था कि राजनीति में बेशर्मी की हाइट बहुत ऊंची होती है।
अर्धनग्न हुए, नरमुंड डाले, सांप को मुँह में दबाया, घास खाया... आख़िरकार सरकार का विरोध कर रहे तमिलनाडु के किसानों
ने पिया यूरिन
क़रीब एक महीने से
तमिलनाडु के ये किसान जंतर मंतर पर धरना दे रहे थे। अपने राज्य में वे इससे लंबा
प्रदर्शन कर चुके थे। तमिलनाडु में लगातार दो वर्षों तक गंभीर सूखे के कारण वे केंद्र
की नरेंद्र मोदी सरकार से राहत पैकेज की मांग लेकर राजधानी में आए थे।
कई नायाब तरीक़ों से
विरोध प्रदर्शन करने के कारण तमिलनाडु के ये किसान मीडिया में अपनी जगह बनाने में सफल
हुए और लगातार सुर्खियों में बने रहने में भी कामयाब रहे। इनकी लगातार मांग प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी से मिलने की थी। अपने विरोध प्रदर्शनों में किसानों ने खोपड़ियों के साथ
विरोध किया। नरमुंड के साथ उनका ये प्रदर्शन प्रतीकात्मक था और वे सरकार को बताना चाह
रहे थे कि उनकी दुर्दशा कंकालों की तरह हो गई है।
नरमुंड लिए किसान दिल्ली
में 'बहरी राजनीति' और 'बेशर्म प्रजातंत्र' के सामने अपना हक़ मांग रहे थे। थक कर उन्होंने 10 अप्रैल के दिन पीएमओ
के सामने निर्वस्त्र तथा अर्ध निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किया। लोगों में सोशल मीडिया
पर कुछ सुगबुगाहट ज़रूर हुई, किंतु राजनीति ने ख़ुद को ‘ऑल टाइम ग्रेट बहरा’ तथा प्रजातंत्र ने ख़ुद को ‘एवरग्रीन बेशर्मी’ का ख़िताब दे ही दिया।
आख़िरकार वो दिन भी
आया जब आहत होने वालों के लिए ज़्यादा आहत होने का मौक़ा आया। शर्मसार होने वालों
के लिए ज़्यादा शर्मसार होने का अवसर आया। रही बात बहरी राजनीति और बेशर्म प्रजातंत्र
की, उन्होंने तो ख़ुद का बहरापन और बेशर्मी ज़्यादा मजबूती से पेश किया।
22 अप्रैल 2017 का दिन था। एक महीने से ज़्यादा समय से अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे किसानों
ने अपना यूरिन पीया। डिजिटल इंडिया का यह नया दृश्य वाक़ई सोचने पर मज़बूर कर गया।
किताबों या भाषणों में जो किसान अन्नदाता माना जाता था, उसे देश की राजधानी
में जाकर अपना यूरिन पीना पड़ रहा था! सोचिए, वो स्थितियाँ और मज़बूरियाँ क्या रही होगीं, जब इन अन्नदाताओं को इस हद तक जाना पड़ा था। इतना ही नहीं, इन्होंने चेतावनी
दी कि अगर अब भी मांगें नहीं मानी गईं तो वे कल यानि 23 अप्रैल को मल खाएँगे।
किसान विरोध प्रदर्शन
के दौरान अर्धनग्न हुए, नग्न होकर दौड़ लगाई, ज़िंदा चूहा और मरे हुए सांप को मुँह में दबाया, घास खाया, महिलाओं की तरह कपड़े
पहन कर विरोध किया, नुक्कड़-नाटक किए, नर की खोपड़ी गले में डालकर सरकार के ख़िलाफ़ विरोध जताया, और हद तो हद यूरिन
भी पिया। लेकिन किसानों को अभी तक केंद्र सरकार की ओर से कोई भी आश्वासन नहीं दिया
गया था।
आख़िरकार तमिलनाडु के
सीएम को वक्त मिला, भरोसा मिलने के बाद किसानों ने स्थगित किया आंदोलन
आख़िरकार तमिलनाडु के
मुख़्यमंत्री ई पलानीस्वामी को वक्त मिला। वे ख़ुद जंतर मंतर पर किसानों को मिलने के
लिए पहुंचे। शायद जयललिताजी के निधन के बाद कुर्सी का खेल उन्हें इतना व्यस्त कर गया
होगा कि शर्मनाक दिन अनेकों बार भारत ने देखे और फिर जाकर तमिलनाडु के सीएम को समय
मिला! उन्होंने किसानों से आंदोलन समाप्त करने
की अपील की। साथ ही कहा कि किसानों की जो मांगे हैं, उसे प्रधानमंत्री के समक्ष रखेंगे। पलानीस्वामी ने किसानों
को भरोसा दिलाया और तब जाकर किसानों ने 6 सप्ताह से चलाया जा रहा आंदोलन स्थगित किया। किसानों ने अपने आंदोलन को केवल 15 दिनों के लिए स्थगित
किया था।
वैसे किसानों को भी
एक भरोसा ज़रूर होगा। यही कि सीएम भरोसा दिलाने जैसे कार्य के लिए महीने निकाल सकते
हैं तो उनकी मांगों को लेकर न जाने कितना वक्त खाएँगे! तभी तो किसानों ने अपना आंदोलन स्थगित घोषित किया था, रद्द नहीं।
इतने दिनों तक पीएमओ, प्रधानमंत्री, केंद्रीय नेतागण, तमिलनाडु का सीएमओ, राज्य के मुख़्यमंत्री
और राज्य के नेतागण... सभी ने एक चीज़ का सबूत तो दे ही दिया था। अब वह सबूत कौन सा
था उसे समझने में आपको देरी नहीं लगेगी। अगर नहीं समझे तो फिर छोड़ ही दीजिए।
एक तरो-ताज़ा युवा
बच्चा टेलीविजन देख रहा था। सोचा कि सबसे पहले एकाध गीत वाला चैनल लगा दूँ। उसने गीत
वाला चैनल लगाया। क्या ख़ूबसूरत गाना आ रहा था। मेरे देश की धरती, मेरे देश की धरती
सोना उगले, उगले हीरे मोती, मेरे देश की धरती। भारत माता और इस देश की धरती पर गर्व करने
के बाद, यूँ कहे कि अपने शरीर के अंदर जितना अभिमान वो युवा बच्चा समेट सकता था, समेटने के बाद उसने
सोचा कि गर्व तो बहुत कर लिया, चलो अब न्यूज़ सुनने के बाद बाहर गलियों में जाकर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी वाला मज़ा
ले लिया जाए। उसने न्यूज़ चैनल लगाया। ख़बरें आ रही थीं... नरमुंड लिये किसानों का
विरोध-प्रदर्शन, अपनी मांगों के लिए अर्घनग्न हुआ देश का अन्नदाता, ज़िंदा चूहा और मरे
हुए सांप को मुँह में दबाया, घास खाया, अपना मूत्र पीने को मज़बूर हुए किसान। युवा बच्चे ने माथा पीटा और कहा, क्या देश होगा वो
जहाँ किसानों के ऐसे हालात होंगे, अपने देश में तो घरती हीरे और मोती उगलती है, भगवान
करे उस देश के किसानों को जो भी दिक्कतें हैं उसका निपटारा हो जाए। और फिर वो बल्ला
और गेंद निकालकर बीस-बीस ओवर वाले खेल का मज़ा लेने चला गया। वो युवा बच्चा आज ज़ल्दी
खेलने गया था, क्योंकि शाम को उसे लाइव मेच भी देखना था।
बस यही कहानी है, एक पैरा की कहानी।
कहानी में तरो-ताज़ा युवा बच्चा लफ़्ज का इस्तेमाल, उसके द्वारा चैनल का बदलना, दो अलग अलग चैनल और दो अलग अलग ख़बरें, दोनों ख़बरों को सुनने
का अंदाज़, ख़बरों को सुनने के बाद उसे समझने या पचाने का अंदाज़, फिर अपनी मस्ती में
खो जाने की आदत... सब कुछ एक प्रतीक है हमारे नागरिकी जीवन का। एक कहावत है कि समझदार
को इशारा काफी है। किंतु हम उस कथन को सच मानते हैं, जिसमें कहा जाता है कि लिखने वाले
सब कुछ नहीं लिखते, पढ़ने वाले सब कुछ नहीं पढ़ते और समझने वाले सब कुछ नहीं समझते।
वैसे अब तक कभी ना देखा है, ना पढ़ा है और ना ही सुना है कि भारत में कभी किसी उद्योगपति को अपनी मांगों को
लेकर निर्वस्त्र होना पड़ा हो। कभी नहीं सुना कि उनके ऊपर लाठियाँ भांजी गई हो या उनके
कपड़े फाड़े गए हो, जैसे ओरोप के दौरान पूर्व सैनिकों के साथ किया गया था। देश कश्मीर में जवानों
के साथ बदसलूकी पर उबल उठता है, किंतु जंतर मंतर पर पूर्व सैनिकों के साथ जो कुछ हुआ, देश डर्मी कूल लगाकर
कूल कूल सा ही फिल कर रहा था! ऐसे में, मेरे देश की धरती सोना उगले, गाना सुनकर अपनी औक़ात से भी ज़्यादा अभिमान करने
वाला युवा देश किसानों के इस आंदोलन के दौरान कैसे उबलता? क्योंकि औक़ात भी तो चाहिए!
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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