भारत में सांप्रदायिकता ऑल टाइम हिट सब्जेक्ट है। राजनीति में भी, मीडिया के लिए
भी और सर्वगुण संपन्न लठैतों के लिए भी। और इसीलिए दूसरे विषयों की आयु हमारे यहां बहुत कम होती है। वैसे भी संविधान की धज्जियां उड़ी हैं यह संवैधानिक तौर पर कैसे
प्रमाणित हो सकता है? ढेर सारे नियमों
को समझाकर बताया जाता है कि नियम नहीं तोड़े गए हैं! वैसे भी हमारे यहां पुल का गिरना बहुत आसान है, मुश्किल है तो यह जानना की वह
क्यों गिरा?
सर्वोच्च न्यायालय
में उन चार वरिष्ठ जजों की प्रेस वार्ता... तथा... सीबीआई के दो वरिष्ठ अधिकारियों
के बीच खुली जंग... जब देश इतने ‘अच्छे दिन’ देख नहीं पाता तभी तो आने वाली पीढ़ी ‘बुरे दिन’ का अनुभव करती है।
कुछ लोग इन
संस्करणों को सुप्रीम कोर्ट विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट या सीबीआई विरुद्ध सीबीआई कहते हैं। दरअसल, इसे
सुप्रीम कोर्ट प्लस सीबीआई के रूप में याद रखकर आगे बढ़ना चाहिए। कम से कम पुल क्यों
गिरा ये भले पता ना चले, उस दिशा में सोचा तो जा ही सकता है।
राष्ट्रवाद व
देशभक्ति के इस दौर में इन ‘अच्छे दिनों’ को हिंदू-मुसलमान के ऑल टाइम हिट सब्जेक्ट के सामने उतनी तवज्जो यकीनन नहीं मिली थी। जब ऐसे अच्छे दिनों को खास तवज्जो नहीं मिलती, तभी तो आगे जाकर देश को बुरे
दिन देखने पड़ते हैं। 1947 में आजादी मिलने के बाद देश ने आपातकाल से लेकर कई दूसरे
बुरे दिन देखे हैं। आपातकाल के बाद धीरे धीरे देश संभलता चला गया, कई सुधार हुए या
सुधार के सच्चे-झूठे दावे किये गए। इन दावों के बावजूद देश को झकझोरने वाली चीजें होती चली गई। फिर 21वीं सदी आई, नयी सदी में नये सपनों और नये हौसलों के साथ नयी
उड़ान देश भरने लगा। नेता नये आये, सपने नये आये, उम्मीदें नयी जगी, लेकिन भारतीय
संविधान की आत्मा जहां बसती है उस सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ जजों की प्रेस
वार्ता तथा भारत की सबसे बड़ी जांच संस्थान की वो विकराल समस्या... लोग तंज कसते
हुए कहने लगे कि गंगाधर ही शक्तिमान है!!!
सुप्रीम कोर्ट तथा
सीबीआई... देश की दो प्रमुख शक्तियां, जहां संस्थान के ही वरिष्ठ लोगों ने संस्थान
की खोखली हो चुकी दीवारों को देश के सामने रखा था। ये बात और है कि हिंदू-मुसलमान
और सांप्रदायिकता के ऑल टाइम हिट दौर में ये दो ऐतिहासिक पल लोगों के लिए ज्यादा
महत्व नहीं रखते थे। सुप्रीम कोर्ट के ही वरिष्ठ जजों ने अपनी ही संस्था के खिलाफ
हल्ला बोला था। उधर सीबीआई में वह हो गया था जो पिछले 70 सालों में कभी नहीं हुआ था।
जब सर्वोच्च न्यायायल के ही चार जजों ने प्रेस वार्ता आयोजित करके सीजेआई को ही
कटघरे में खड़ा किया
भारतीय सभ्यताओं के
बीच भारतीय सेना के बाद सबसे ज्यादा विश्वासपात्र नाम सुप्रीम कोर्ट है। ज्यादातर
यही देखा जाता है, कुछ अपवादों को छोड़ दे तो। सुप्रीम कोर्ट को लेकर या चीफ जस्टिस
को लेकर कई बार विवाद भी हुए या कुछ अप्रत्याशित चीजें भी हुई। लेकिन ज्यादातर तो
मील के पत्थर समान फैसलों ने न्यायालय को भारतीय सेना के बाद सबसे ज्यादा पसंदीदा
संस्था बनाए रखा।
लेकिन 12 जनवरी
2018 के दिन आजाद हिंदुस्तान के इतिहास में एक दिन वो भी रहा, जब सरकार, मीडिया से
लेकर देश का नागरिक तक सकते में आ गया था। इस दिन सुप्रीम कोर्ट के 4 प्रमुख और
वरिष्ठ जजों ने एक प्रेसवार्ता आयोजित कर सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस
दीपक मिश्रा पर मनमानी करने का आरोप लगाया।
अचानक न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय परिसर से निकले और... मिनटों में बहुत कुछ बदल
गया
12 जनवरी 2018 के दिन सुप्रीम कोर्ट से जुड़े घटनाक्रम ने पूरे देश को हैरान कर दिया था। यह ऐसी घटना थी जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। सब कुछ अचानक हुआ और न्यायपालिका एक अप्रत्याशित संकट से घिर गई। सुप्रीम कोर्ट का कामकाज हमेशा की तरह इस दिन भी सुबह साढ़े दस बजे शुरू हुआ और कुछ भी अलग नहीं था। हमेशा की तरह वहां न्यायाधीश, वकील, याचिकाकर्ता और संवाददाता अपने-अपने कामों में लगे थे। लेकिन एक घंटे बाद ही सब कुछ बदल गया। एक ऐसा घटनाक्रम हुआ जिससे देश हैरान रह गया।
12 जनवरी 2018 के दिन सुप्रीम कोर्ट से जुड़े घटनाक्रम ने पूरे देश को हैरान कर दिया था। यह ऐसी घटना थी जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। सब कुछ अचानक हुआ और न्यायपालिका एक अप्रत्याशित संकट से घिर गई। सुप्रीम कोर्ट का कामकाज हमेशा की तरह इस दिन भी सुबह साढ़े दस बजे शुरू हुआ और कुछ भी अलग नहीं था। हमेशा की तरह वहां न्यायाधीश, वकील, याचिकाकर्ता और संवाददाता अपने-अपने कामों में लगे थे। लेकिन एक घंटे बाद ही सब कुछ बदल गया। एक ऐसा घटनाक्रम हुआ जिससे देश हैरान रह गया।
सुबह करीब साढ़े ग्यारह
बजे जस्टिस जे चेलमेश्वर और जस्टिस कुरियन जोसेफ अपने-अपने अदालत कक्षों से निकले।
इस बीच जस्टिस रंजन गोगोई ने भी दिन का अपना अधिकतर कामकाज पूरा किया, जबकि जस्टिस
मदन बी लोकुर ने अपने चैंबर में सुनवाई की। चारों न्यायाधीश मिनटों में उच्चतम न्यायालय
परिसर से निकले और लुटियंस इलाके में स्थित 4-तुगलक रोड बंगले पर एक अनिर्धारित संवाददाता
सम्मेलन किया। इस बंगले में न्यायमूर्ति चेलमेश्वर रहते थे। यह एक अप्रत्याशित घटना
थी, क्योंकि अब तक उच्चतम न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश ने मीडिया को सार्वजनिक रूप
से संबोधित नहीं किया था।
उनके एकाएक अदालत परिसर
से निकलने की खबर सुप्रीम कोर्ट के गलियारे में आग की तरफ फैल गई और पत्रकार, वकील एवं याचिकाकर्ता
स्तब्ध रह गए। वहां मौजूद संवाददाताओं के लिए करीब चार किलोमीटर की दूरी पर संवाददाता
सम्मेलन में तुरंत पहुंचना भी चुनौती था।
पहली बार मीडिया के सामने आए सुप्रीम कोर्ट के जज, बोले- अगर सुप्रीम कोर्ट को
बचाया नहीं गया, तो लोकतंत्र खत्म हो जाएगा
सुप्रीम कोर्ट के चार
वरिष्ठ जस्टिस देश के इतिहास में पहली बार मीडिया के सामने आए और कहा कि सुप्रीम कोर्ट
का प्रशासन ठीक तरह से काम नहीं कर रहा है, यदि संस्था को ठीक नहीं किया गया तो लोकतंत्र
खत्म हो जाएगा। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के बाद वरिष्ठ जस्टिस जे
चेलमेश्वर ने जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन लोकुर और
जस्टिस कुरियन जोसेफ के साथ मीडिया से कहा कि, “हम चारों मीडिया का शुक्रिया अदा करना चाहते हैं। किसी भी देश के कानून के इतिहास
में यह बहुत बड़ा दिन, अभूतपूर्व घटना है, क्योंकि हमें यह ब्रीफिंग करने के लिए मजबूर
होना पड़ा है।” उन्होंने कहा कि, “हमने यह प्रेस कॉन्फ्रेंस इसलिए की, ताकि हमें कोई यह न कह सके कि हमने आत्मा
को बेच दिया है।”
जस्टिस जे. चेलमेश्वर
ने कहा कि, “सुप्रीम कोर्ट में बहुत कुछ ऐसा हुआ है, जो
नहीं होना चाहिए था। हमें लगा, हमारी संस्था और देश के प्रति जवाबदेही है और हमने सीजेआई
को सुधारात्मक कदम उठाने के लिए मनाने की कोशिश की, और उन्हें खत भी लिखा, लेकिन हमारे
प्रयास नाकाम रहे।” जस्टिस जे. चेलमेश्वर
ने भावनात्क होकर कहा कि, “अगर संस्था को नहीं
बचाया गया, तो देश में लोकतंत्र खत्म हो जाएगा।” सुप्रीम कोर्ट के अन्य जजों ने भी कहा कि, “सीजेआई को सुधारात्मक कदम उठाने के लिए मनाने की कई बार कोशिश की गई, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण
है कि हमारे प्रयास विफल रहे।” उन्होंने कहा कि,
“सुप्रीम कोर्ट में प्रशासन सही तरीके से नहीं चल रहा है।”
देश के इतिहास में
ये पहली बार था जब सुप्रीम कोर्ट के चार मौजूदा न्यायाधीशों ने मीडिया के सामने अपनी
बात रखी और कहा कि सब कुछ ठीक नहीं है। जजों ने पिछले दो महीने के बिगड़े हालातों पर
अपनी बात रखने के लिए प्रेस का सहारा लिया और कहा कि, “सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था ठीक नहीं चल रही है।” जजों का इशारा सीधे-सीधे चीफ जस्टिस की ओर था।
मीडिया को करीब सात-आठ
मिनट संबोधित करने के बाद न्यायाधीशों ने कुछ महत्वपूर्ण सवालों के जवाब देने से इनकार कर दिया, मसलन - क्या वे चाहते हैं कि प्रधान न्यायाधीश पर महाभियोग चले? इस पर उन्होंने कहा कि, “वे राजनीति नहीं कर
रहे हैं।” उन्होंने पत्रकारों से कहा कि, “वे अपने जवाब उनके मुंह से कहलवाने की कोशिश न करें।”
इस घटना के बाद संस्थान के भीतर कितना कुछ हुआ यह कोई नहीं जानता
आजाद हिंदुस्तान
की इस एकमात्र घटना के बाद संस्थान के भीतर कितना कुछ हुआ यह सचमुच कोई नहीं जानता।
बात देश के सर्वोच्च संस्थान की थी, लिहाजा सारी चीजें खुलकर सामने आती ये मुमकिन
नहीं था। बदनाम हो चुका मीडिया इस पर ठीक से डिबेट करवाता, सही सवालों को सामने रखता
ये सारी आशाएँ भी छलावा थी। तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा को लिखी गई चिठ्ठी के
भीतर जो गंभीर और महत्वपूर्ण सवाल थे उसको देश देखता यह सोचना भी बेवकूफी ही थी।
चीफ जस्टिस उस परंपरा
से बाहर जा रहे हैं, जिसके तहत महत्वपूर्ण मामलों में निर्णय सामूहिक तौर पर लिए जाते रहे हैं... चीफ
जस्टिस केसों के बंटवारे में नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं... वे महत्वपूर्ण मामले, जो सुप्रीम कोर्ट की
अखंडता को प्रभावित करते हैं, चीफ जस्टिस उन्हें बिना किसी वाजिब कारण के उन बेंचों को सौंप देते हैं, जो चीफ जस्टिस की प्रेफेरेंस
(पसंद) की हैं... इससे संस्थान की छवि बिगड़ी है... हम ज़्यादा केसों का हवाला नहीं
दे रहे हैं... तमाम समस्याओं को लेकर सीजेआई को चिट्ठी लिखी
गई थी लेकिन उसका कोई जवाब नहीं दिया गया... सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था सही नहीं चल
रही, इस संबंध में हमारे सभी प्रयास बेकार गए... ये उस चिठ्ठी के कुछ अंश थे।
लेकिन इस ऐतिहासिक घटना के बाद कौन से अंश अवशेष बने और कौन से शेष रह गए यह कोई
नहीं जानता!!! सत्ता दल तथा उनके लठैतों के अपने दावे हैं, विपक्ष तथा उनके लठैतों के
अपने दावे हैं... लेकिन अब दीपक मिश्रा सेवानिवृत्त हो चुके हैं। उनकी जगह रंजन
गोगोई वरिष्ठता के चलते देश के सीजेआई है। उनकी नियुक्ति से पहले कुछ छोटे-मोटे
विवाद हुए, सरकार पर सवाल उठे, लेकिन वे ही अब सीजेआई है।
सवाल
ढेर सारे उठे। लेकिन यहां भी ‘सांप्रदायिकता की सनक’ के सामने ‘नागरिकता को पनपने’ का मौका तक नहीं मिला। न्यायतंत्र के भीतर का विवाद बताकर
उसे ज्यादातर तो भीतर ही रखा गया। चार वरिष्ठ जज, जिनमें से एक अगला सीजेआई होने
वाला था, इस तरह से सार्वजनिक रूप से देश के सामने न्यायतंत्र के भीतर का खोखलापन
देश के सामने रखते हैं, अतिसंवेदनशील मसलों पर अतिगंभीर सवालियां निशान लगाते हैं,
लेकिन देश था कि उसे खतरा इन सबसे था ही नहीं!!! यहां भी पुल गिरा, लेकिन
क्यों गिरा इसका जवाब ना ही राजनीति ने ढूंढने दिए, ना ही देशभक्त जनता ने इनमें
दिलचस्पी ली, और ना ही मीडिया के पास सास-बहू और जंगल बुक के बाद इन सबके लिए
वक्त था!!! तमाम दलों के प्रवक्ता सदैव की तरह मीडिया पैनलों पर मेंढकों की तरह बरसते
रहे, लेकिन मुद्दा था कौन बनेगा प्रधानमंत्री!!! ऐसे में जजों की ये कोशिश परवान चढ़ने वाली नहीं थी।
सुप्रीम
कोर्ट के ही चार जजों द्वारा सुप्रीम कोर्ट के भीतर चल रही इन गंभीर समस्याओं से देश
को अवगत कराना, सार्वजनिक रूप से प्रेसवार्ता करके अपनी बातों को रखना, ये इतने ‘अच्छे दिन’ तो कतई नहीं थे। लेकिन इन
अच्छे दिनों के ऊपर लोगों ने या मीडिया ने या फिर विपक्ष ने ‘जन-जागृति अभियान’ नहीं चलाया, और इसीलिए ऐसे अच्छे दिन कैसे कैसे दिन लेकर आएंगे ये भी सोचा नहीं जा सकता।
सीबीआई ने सीबीआई पर ही रेड किया, जब आधी रात को हुआ सीबीआई
का तख्तापलट
इस
घटना को एक पत्रकार ने बड़े गहरे अंदाज में कुछ यूं समझाया था – जब संविधान की धज्जियां उड़ती है तो आधी रात को जूते की
टांप सुनाई देती है। सीबीआई... कांग्रेस के दौर में इसे कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन कहा जाता था, भाजपा के दौर में इसे बीबीआई, यानी कि भाजपा ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन कहा जाने लगा। सीबीआई को सरकार का तोता कहे जाने का वो दौर भी सभी
को भली-भांति ज्ञात है। सरकारें बदलती हैं, लेकिन सीबीआई कभी नहीं बदलती। कुछ कहते हैं
कि बदलती नहीं लेकिन बिगड़ती ज़रूर है। देश के सबसे बड़े जांच संस्थान का इस्तेमाल
राजनीतिक दावपेंच में ज्यादा होता है यह भी एक अपुष्ट सच है।
जिस सीबीआई को विरोधियों को धमकाने या ठिकाने लगाने के लिए कथित रूप से इस्तेमाल किया जाता था उसी संस्थान में सीबीआई ने सीबीआई के खिलाफ ही सर्जिकल स्ट्राइक कर दी। यह अक्टूबर 2018 का दौर था। इसी साल 12 जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया था और अब अक्टूबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट के बाद सीबीआई में जंग छिड़ गई। जो पिछले 70 सालों में नहीं हुआ था वो सीबीआई ने करके दिखा दिया था। सोशल मीडिया पर लोग अच्छे दिन व बुरे दिन का पोकेमोन गेम खेल रहे थे, इधर सीबीआई में दो वरिष्ठ अधिकारियों ने गेम खेलना शुरू कर दिया था। सोशल मीडिया में एक तंज खूब चला कि – कीड़े मारने की दवाई में ही कीड़े पड़ गए। यह तंज अगर आप अस्थायी मनोरंजन के तौर पर लेते हैं तो फिर कीड़े मारने की दवाई में कीड़े डालने के लिए आप भी जिम्मेदार है।
जिस सीबीआई को विरोधियों को धमकाने या ठिकाने लगाने के लिए कथित रूप से इस्तेमाल किया जाता था उसी संस्थान में सीबीआई ने सीबीआई के खिलाफ ही सर्जिकल स्ट्राइक कर दी। यह अक्टूबर 2018 का दौर था। इसी साल 12 जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया था और अब अक्टूबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट के बाद सीबीआई में जंग छिड़ गई। जो पिछले 70 सालों में नहीं हुआ था वो सीबीआई ने करके दिखा दिया था। सोशल मीडिया पर लोग अच्छे दिन व बुरे दिन का पोकेमोन गेम खेल रहे थे, इधर सीबीआई में दो वरिष्ठ अधिकारियों ने गेम खेलना शुरू कर दिया था। सोशल मीडिया में एक तंज खूब चला कि – कीड़े मारने की दवाई में ही कीड़े पड़ गए। यह तंज अगर आप अस्थायी मनोरंजन के तौर पर लेते हैं तो फिर कीड़े मारने की दवाई में कीड़े डालने के लिए आप भी जिम्मेदार है।
नौकरशाही
के भीतर एक गंदा नाला बहता है। वो गंदा नाला इस दफा छलक उठा था। उसके भी परनाले
होते होंगे, जो मुख्य नाले का मुखौटा दिखाता रहता है। कहते हैं कि साख बनाने में
सालों गुजर जाते हैं, जबकि बंटाधार करने में चंद मिनट। सीबीआई के भीतर भी कुछ ऐसा हो
गया कि अब उसे अपनी वो साख पुन: स्थापित करने के लिए दोबारा सालों का फासला तय करना
है। बर्शते वो पुन: स्थापना में यकीन रखते है तो।
सीबीआई और राजनीतिक प्रपंचों के बारे में पिछले साल ही चर्चा
हो जानी चाहिए थी, लेकिन सांप्रदायिकता के सामने नागरिकता और पत्रकारिता, दोनों ने
घुटने टेक दिये थे
सीबीआई
चार्जशीट के खेल के लिए मशहूर है। यूं कहे कि बहुत मशहूर है। उसका अपना एक लंबा इतिहास है। ताज़ा इतिहास पिछले साल, 2017 में ही दोहराया गया था। 2017 के आखिरी महीने में यूपीए-2 सरकार के दौरान हुए 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में
सीबीआई विशेष अदालत का जो फैसला आया वो वाकई अविश्वसनीय तथा झकझोरने वाली घटना
थी। 21 दिसम्बर 2017 के दिन पटियाला हाउस कोर्ट की सीबीआई विशेष अदालत ने ए राजा समेत
25 आरोपियों को बरी कर दिया था। हिंदुस्तान के सबसे बड़े कथित घोटाले में सवालों के
जवाब ढूंढने हेतु जांच की गई, लेकिन सालों की जांच ने नये सवाल ही खड़े कर दिये थे!!! आखिरी पंक्ति यही थी कि एक ऐसा घोटाला, जो हुआ तो सही किंतु किसने किया यह किसी को नहीं पता!!! इस मामले में सीबीआई पर गंभीर सवाल उठने चाहिए थे, लेकिन मीडिया,
नेता और लठैत द ऑल टाइम ग्रेट हिट सब्जेक्ट सांप्रदायिकता में बिजी थे। सीबीआई के
विशेष जज ओपी सैनी ने लिखा था कि, “सीबीआई ने इस केस की बड़ी अच्छी कोरियोग्राफी की। ऐसा कोई रिकॉर्ड या सबूत नहीं
जिससे अपराध साबित होता हो। आरोप पत्र में आधिकारिक दस्तावेज़ों की गलत और संदर्भ से
हट कर व्याख्या की गई है। गवाहों की मौखिक गवाही के आधार पर आरोपपत्र दायर किया गया।
जबकि कोर्ट में गवाहों ने यह सब नहीं कहा। आरोप पत्र में कई तथ्य ग़लत हैं। अभियोजन
पक्ष आरोप पत्र साबित करने में नाकाम रहा।” सोचिए, अदालत में एक जज बाकायदा सीबीआई के तरीके को 'कोरियोग्राफी', यानी कि आम
भाषा में 'नौटंकी', कहता है!!!
इस अद्भुत
जांच-प्रक्रिया पर पहले ही चर्चा हो जानी चाहिए थी, लेकिन राजनीति, मीडिया और
लठैतों की नागरिकता ने सांप्रदायिकता के सामने घुटने टेक दिए थे। खैर, उस पर हम
अलग संस्करण में सवाल उठा चुके हैं। जिसका लिंक 2G Spectrum Scam : एक ऐसा घोटाला... जो हुआ तो सही लेकिन किसी ने नहीं किया???!!! है। हम इस संस्करण के
विषय की तरफ लौटते हैं।
चार्जशीट के खेल में मशहूर सीबीआई के भीतर ही जंग शुरू हुई,
मुख्य किरदार की चर्चा कम हुई, साथ ही मुख्य चर्चा भी कम ही हुई
विरोधियों
को सीबीआई के डंडे से डराया जाता था। पूर्व इतिहास ज्ञात होगा यह उम्मीद है। लेकिन
इस दफा सीबीआई के भीतर वह हो गया जो पिछले 70 सालों में शायद ही हुआ हो। हर राज्य
में, हर अवैध प्रक्रियाओं के खिलाफ छापेमारी करने के लिए मशहूर सीबीआई के मुख्यालय
में ही सीबीआई ने छापेमारी कर दी!!! टू-जी स्पेक्ट्रम, व्यापमं या सृजन घोटाले की जांच
में खुद को फिसड्डी साबित कर चुकी सीबीआई के भीतर वह हो रहा था जो ‘अच्छे दिन’ तो कतई नहीं था।
राकेश
अस्थाना और आलोक वर्मा... सीबीआई की ऐतिहासिक पोकेमोन टाइप प्रतियोगिता ने इन दो
नामों को फेमस ही कर दिया। कुछ के लिए राकेश अस्थाना महान है, तो कुछ के लिए आलोक
वर्मा! क्योंकि कुछ के लिए मोदी महान है, तो कुछ के लिए राहुल गांधी! अब इतने महान
भारत में सीबीआई ने भी कुछ महान करने का सोचा उसमें क्या हर्ज हो सकता है भला! एक
निदेशक और एक विशेष निदेशक के बीच जो कुछ हुआ वह अप्रत्याशित ही था।
सोचिए, देश के सबसे बड़े जांच संस्थान के भीतर दो वरिष्ठ अधिकारी एक-दूसरे को खुलकर
भ्रष्टाचारी कहने लगे थे!!! कहने लगे वहां तक तो ठीक था, साबित करने में भी जुट गए।
बाकायदा लिखित शिकायतें हुई, सबूतों और तथ्यों की बातें हुई!!! कौन सच था या कौन झूठ यह कैसे पता चल पाता? लेकिन मिटट्टी तो सीबीआई की ही पलीद हो गई। कोई विरोधी नेता
आरोप लगाता तो ठीक था, लेकिन यहां निदेशक और विशेष निदेशक एक दूसरे के खिलाफ कथित
सबूत और तथ्यों के आधार पर एक-दूसरे के खिलाफ लिखित शिकायतें दाग रहे थे!!! निदेशक
आलोक वर्मा ने विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के खिलाफ अतिगंभीर इल्ज़ामात की झड़ी बरसा
दी, लिखित शिकायतों के साथ। उधर राकेश अस्थाना भी चुप नहीं रहे। उनका वो
सेल्फ-मार्केटिंग वाला वीडियो भी चला, साथ ही आलोक वर्मा पर उन्होंने भी जमकर वार
किए। लेकिन जिस शख्स की वजह से यह हो रहा था उसकी चर्चा कम हो पाई। मोइन कुरैशी ने
अपने नंबर में इज़ाफ़ा कर दिया था। अब तो यह शख्स सीबीआई के चार-चार वरिष्ठ
अधिकारियों को झुलसा चुका था!!!
विशेष
निदेशक राकेश अस्थाना सेल्फ-मार्केटिंग एक्सपर्ट भी है यह इन दिनों पता चला। उनका
एक वीडियो खूब चला, जिसमें वे खुद की मार्केटिंग करते दिखाई दिए। और वो भी सरदार
पटेल, नेताजी और राम मनोहर लोहिया जैसे महापुरुषों के साथ! पहले इन महापुरुषों की
तस्वीरें आती हैं और फिर आता है महान अस्थाना का चमकता हुआ जूता। पर्दे पर पुलिस की
वर्दी, सरकारी गाड़ी और तमाम रोब व तामझाम के साथ उनका वो वीडियो खूब चला।
सीबीआई ने अपने ही विशेष निदेशक के खिलाफ एफआईआर दर्ज की,
निदेशक और विशेष निदेशक अदालत चले, डीएसपी लेवल तक का आदमी गिरफ्तार, चंद घंटों में
वह हो गया कि समूचा देश हक्का-बक्का था
12
जनवरी 2018 के दिन समूचा देश चौंक उठा था जब सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने प्रेस
वार्ता कर सुप्रीम कोर्ट की स्वायतत्ता और लोकतंत्र की रक्षा के लिए आवाज उठा दी
थी। लेकिन अब तो देश हक्का-बक्का था। सीबीआई के निदेशक और विशेष निदेशक सरेआम एक
दूसरे को भ्रष्टाचारी साबित करने पर तूले थे, लोग कहने को मजबूर थे कि कीड़े मारने
की दवाई में ही कीड़े पड गए!!! एक जमाने में सीबीआई की साख इतनी थी कि जब भी देश में कोई गंभीर अपराध
होता, लोग कहते कि सीबीआई को जांच करनी चाहिए। इसके पीछे दो वजहें होती थी। पहली यह
कि लोगों को स्थानीय जांच प्रक्रिया पर भरोसा नहीं था, दूसरी यह कि उन्हें सीबीआई की
जांच पर भरोसा होता था। फिर धीरे धीरे सीबीआई की वह साख घटती चली गई। और अब सीबीआई ने वह साख गंवा दी थी। सीबीआई में नंबर वन
और नंबर दो पर बहुत ही गंभीर इल्ज़ाम लगे थे... और वो भी नंबर वन और नंबर दो के
द्वारा ही!!! किसी और ने नहीं बल्कि एक-दूसरे ने ही एक-दूसरे के कमीज के बटन
खोल कर रख दिए थे!!!
नोट
करे कि अंदरूनी तौर पर इसके कई नाले-परनाले हो सकते हैं, लेकिन सतह पर पांच मुख्य
चेहरे थे। एक था मोइन कुरैशी, दूसरा था सतीश बाबू सना, तीसरे थे विशेष निदेशक राकेश
अस्थाना, चौथे थे निदेशक आलोक वर्मा। पांचवें नंबर पर फिलहाल स्वयं सीवीसी की
भूमिका ही थी!!! इन सबके बारे में मीडिया में जो छपा था उसे संक्षेप में यहां देख लेते
हैं। नोट करे कि ये प्राथमिक स्तर के चार मुख्य चेहरे थे, सतह के नीचे के कई और नाम
मीडिया के अनेक रिपोर्ट में छपे भी थे।
पहला
था मोइन अख्तर कुरैशी। इस आदमी की सबसे बड़ी उपलब्धि यही थी कि इसने तीन-तीन सीबीआई
निदेशकों को कथित तौर पर भ्रष्ट बना दिया था!!! साथ में एक विशेष निदेशक भी शामिल कर
लीजिए! छोटे से बूचड़खाने से भारत के सबसे बड़े मीट व्यापारी तक का सफर तय करने वाला
कुरैशी कई कंपनियों का मालिक था। कई अन्य धंधे भी है उसके। पाकिस्तान कनेक्शन से
लेकर तमाम गंभीर आरोपों में शामिल मीट का यह व्यापारी कांग्रेस की सीबीआई को भी
सरेआम घूस दे रहा था, और अब भाजपा की सीबीआई को भी!!! सोचिए, इस आदमी में इतना साहस
कैसे आया होगा?
सरकार बदल जाने के बाद भी कुरैशी की हिम्मत ने दाद नहीं दी!!! कांग्रेस की सत्ता के दौरान सीबीआई चीफ रंजित सिन्हा और
एपी सिंह! अब की बार आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना!!!
दूसरा
था सतीश बाबू सना। बिजली विभाग का द्वितीय श्रेणी का यह पूर्व कर्मचारी अनेक
राजनीतिक दलों के लिए कथित रूप से बिचौलिए का काम करता था। उसकी भी कई कंपनियां
थी, जिन पर काले धन को सफेद करने के इल्ज़ाम थे। मोइन कुरैशी मामले में 2015 में उसका
नाम ईडी की जांच में सामने आया। राकेश अस्थाना ने आलोक वर्मा पर इसीसे रिश्वत लेने का
आरोप सीवीसी के सामने रखा था, जो 2016 में लिखा गया था। सीबीआई के पूर्व निदेशक एपी
सिंह मामले में भी इसीका नाम सामने आया था। सतीश बाबू सना ही वह शख्स था जिसने कथित
तौर सीबीआई को राकेश अस्थाना को पांच करोड़ की रिश्वत देने के सेटिंग की बात की थी,
जिसमें से कुछ हिस्सा भी दे दिया गया था।
तीसरा
किरदार था राकेश अस्थाना। पीएम मोदी के खास कहे जाने वाले ये अधिकारी गुजरात से
सीधे ही सीबीआई में लैंड हुए थे। उनकी नियुक्ति के वक्त ही काफी बवाल हुआ था।
सांडेसरा वाले मामले में डायरी में कथित तौर पर इनका नाम आना इनकी पहली राष्ट्रीय पहचान
थी! गोधरा जांच के लिए बनी एसआईटी के वो मुखिया थे, जिन्होंने तत्कालीन मोदी सरकार
को क्लीन चिट दी थी। इनके बारे में आलोक वर्मा ने सुप्रीम
कोर्ट से अपनी शिकायत में कहा था कि यह आदमी अफ़सरों के बहुमत के फैसले के
ख़िलाफ़ जाकर काम करता है और केस को कमजोर करता है। आलोक वर्मा ने कहा कि वह ऐसे
केस की डिटेल दे सकते हैं। अस्थाना को विशेष निदेशक बनाए जाने के दौर में आलोक
वर्मा विरोध में उतरे थे और वर्मा ने सीवीसी को अस्थाना के खिलाफ नोट भी भेजा था।
सब मुश्किलों से पार पाते हुए अस्थाना विशेष निदेशक बन गए!
चौथा
किरदार था आलोक वर्मा। कहते हैं कि राफेल के कथित घोटाला मामले में तत्कालीन मोदी
सरकार के खिलाफ शिकायतकर्ताओं से 45 मिनट तक इन्होंने अपनी ऑफिस में बातचीत की थी और
सरकार इससे नाराज थी। कहते हैं कि सीवीसी के पास आलोक वर्मा के खिलाफ शिकायत दर्ज
थी। राकेश अस्थाना के अनुसार आलोक वर्मा भ्रष्ट थे और कुरैशी मामले में लिप्त थे।
सोचिए, निदेशक को विशेष निदेशक भ्रष्ट कहता है और विशेष निदेशक को निदेशक! लगा कि
भारत ने जो नये हथियार दुश्मन के लिए खरीदे थे उसका पहला प्रयोग तो सीबीआई में अफसर एक दूसरे पर ही कर रहे थे! आलोक वर्मा पर सरकार का एक इल्ज़ाम यह भी था कि वे गंभीर मुकदमों की
फाइलें देने में असह्योग कर रहे थे।
पांचवा
सवाल सीवीसी पर भी उठता है। सवाल उस सीवीसी से
भी हो सकता है जिसके पास अस्थाना और राव की शिकायतें थीं। धीमी गति के समाचार की
तरह काम करने से सवालों से बचने का मौक़ा मिल जाता है। स्पष्ट था कि सीवीसी अपने
कर्तव्य के निर्वाहन में फ़ेल रही थी। बावजूद इसके वो दूसरों को बर्खास्त कर रहे
थे!!! कीचड़ साफ करने का दावा इतना ही साफ था तो फिर सबसे पहले केवी चौधरी को
बर्खास्त करना चाहिए था। मगर चौधरी ने
चौधरी की लाज रख ली थी! इंडियन एक्सप्रेस के सुशांत सिंह की रिपोर्ट के मुताबिक जब
अस्थाना ने आलोक वर्मा की शिकायत की तो सीबीआई से दस्तावेज मांगे गए। सीबीआई ने
कहा कि अस्थाना ने क्या शिकायत की वो तो बताइए, मगर सीवीसी ने नहीं बताया!!! रिपोर्ट
के मुताबिक सीबीआई के जॉइंट डायरेक्टर ने 9 अक्टूबर 2018 को सीवीसी को पत्र
लिखकर पूछा था।
इन पांच प्रमुख
चेहरों के अलावा इसमें सीबीआई के अन्य अधिकारी से लेकर ईडी और रॉ तक का नाम सामने
आया!!! दो और नाम थे मोहन प्रसाद और सोमेश प्रसाद। इन दोनों भाइयों के पिता दिनेश्वर
सिंह भारत की विदेश में जासूसी करने वाली एजेंसी रॉ के निदेशक पद से रिटायर हुए
थे। कहा जाता है कि इसी वजह से इन दोनों के आईबी, रॉ, ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स जैसी जांच संस्थाओं में सभी शीर्ष अफसरों से मधुर संबंध रहे। खुद
को निवेश सलाहकार बताने वाले दोनों भाइयों का मुख्य काम जांच एजेंसियों के चंगुल
में फंसी बड़ी मछलियों को बचाने की जुगत लगाना था। दोनों भाई अपना काफी समय दुबई
में बिताते थे जहां उन्होंने अपना अच्छा खासा पैसा निवेश किया था। मोइन कुरैशी
मामले में बिचौलिए सतीश बाबू सना ने आरोप लगाया था कि मोहन प्रसाद ने उसे बताया कि
उसके राकेश अस्थाना से बहुत अच्छे संबंध हैं और पांच करोड़ रुपये की रिश्वत देने
पर वह उसे और कुरैशी को इस मामले से साफ बचा लेगा। सना का दावा था कि प्रसाद ने
उसके सामने अस्थाना से फोन पर रिश्वत की बात पक्की कर दी थी। उसीके बाद सना ने
प्रसाद के ससुर को डेढ़ करोड़ रुपये की पहली किस्त दिल्ली के प्रेस क्लब की
पार्किंग में की थी। वर्मा के इशारे पर मोहन प्रसाद को गिरफ्तार कर लिया गया। मोहन
को बचाने के लिए उसके भाई सोमेश ने अस्थाना से नौ बार फोन पर बात की जिसे सीबीआई
ने रिकॉर्ड कर लिया। साथ ही व्हाट्सएप पर दोनों के बीच भेजे गए मैसेज भी। इससे
पहले अस्थाना ने सीवीसी और कैबिनेट सेक्रेटरी को भेजे पत्रों में इसी तरह के आरोप
वर्मा पर लगाए थे।
सोचिए, तमाम संस्थाएँ और वरिष्ठ अधिकारी एक दूसरे पर आरोप लगा रहे थे। आरोप
भी आज-कल के नहीं, बल्कि महीनों या उससे भी पुराने थे। लेकिन कमाल यह था कि तब भी
सारे आरोपी अपने पद पर कायम बने रहे, जब तक देश ने संविधान की तथा संस्थाओं के साख
की धज्जियां उड़ते नहीं देखी। यह अपने आप में अचरज ही था कि तमाम एक-दूजे पर महीनों से
लिखित रूप से आरोप लगा रहे थे, बावजूद इसके सारे के सारे संवेदनशील मामलों की जांच
में भी लगे हुए थे!!!
आधी रात को सीबीआई का तख्तापलट हुआ, दर्जनों अधिकारियों को
हुई काला-पानी की सजा, इतिहास ही कह लीजिए कि कथित तौर पर दो भ्रष्ट अधिकारी हटे
और नया आया उस पर भी भ्रष्ट होने का आरोप था, लाजमी था कि विवाद थमने के बजाय बढ़ना
ही था, रफाल विमान यहां फिर एक बार लैंड कर गया
इसे
लेकर एक पत्रकार ने बड़े चुटीले अंदाज में लिखा था- जब संविधान की धज्जियां उड़ती है
तो आधी रात को जूते की टांप सुनाई देती है। 'आधी रात को' सरकार ने कुछ ऐसा किया कि
सुबह होते होते विवाद बढ़ना ही था। सीबीआई के निदेशक और विशेष निदेशक, दोनों को
छुट्टी पर भेज दिया गया। 'आधी रात को' एक नये अधिकारी को सीबीआई चीफ की कुर्सी पर
बिठा दिया गया! नये अधिकारी थे नागेश्वर राव। विवाद को रोकना था या विवाद को हवा
देनी थी, कुछ पता नहीं चला। आधी रात को विवादित तरीके से सीबीआई में तख्तापलट हो
चुका था। साथ में नागेश्वर राव, जो विवादित अधिकारी थे, उन्हें सीधे सीबीआई चीफ की
कुर्सी पर बिठा दिया गया! भारत के खूनी घोटाले के नाम से मशहूर व्यापमं घोटाले में
एमपी के सीएम शिवराज सिंह को क्लीन चिट देने का कलंक लेकर घूम रहे अधिकारी ने आधी
रात को सुरक्षा घेरे में कुर्सी संभाली!!!
सरकार ने सीबीआई
के मामले में कार्रवाई भी रात के अंधेरे में की, यह भी एक विवाद ही था। पौने एक
बजे दिल्ली पुलिस ने सीबीआई मुख्यालय को घेर लिया था!!! सोचिए, देश की सबसे बड़ी जांच संस्था को दिल्ली पुलिस आधी रात को घेर लेती है, यह अपने आप में ही अभूतपूर्व
घटना थी!!! एक बजे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार अजीत डोभाल ने बड़े अफसरों को तलब
किया। पौने दो बजे नए सीबीआई निदेशक नागेश्वर राव सीबीआई दफ्तर पहुंच गए।
कुर्सी संभालते ही ऐसा कर दिया, जिससे लोगों को लगा कि नंबर वन और नंबर टु के बाद नया नंबर
भी आग में घी ही डाल रहा है। सीबीआई में चार सह निदेशक होते हैं। राव चौथे नंबर पर
थे। इन्होंने अस्थाना के खिलाफ जांच कर रहे करीब 11 सीबीआई अधिकारियों का एक साथ तबादला कर दिया। वो भी ऐसी जगहों पर की मीडिया में इसे काला पानी की सजा जैसे हेडलाइन के
साथ खबरें छपी थी। आधी रात को पुलिस ने सीबीआई मुख्यालय को घेरा, आलोक वर्मा और
राकेश अस्थाना, दोनों को छुट्टी पर भेज दिया गया, दर्जनों जांच अधिकारियों को काला
पानी की सजा...!!! भारत की जनता रात में करवटें ले रही थी और इधर दिल्ली में वह हो रहा
था जो शायद ही सीबीआई के इतिहास में पहले कभी हुआ हो। अटल बिहारी वाजपेयी के काल के
किस्से को छोड़ दे तो।
एक
पत्रकार का लेखन बहुत हद तक सही था, जो संक्षेप में कुछ यूं था। “जब भारत की जनता गहरी नींद में सो रही थी,
तब दिल्ली पुलिस के जवान अपने जूते की लेस बांध रहे थे। बेख़बर
जनता को होश ही नहीं रहा कि पुलिस के जवानों के जूते सीबीआई मुख्यालय के बाहर
तैनात होते हुए शोर मचा रहे हैं। लोकतंत्र को कुचलने में जूतों का बहुत योगदान है।
जब संविधान की धज्जियां उड़ती हैं, तब रात को जूते बांधे जाते हैं।” गजब था कि आधी रात को समूचा देश सो रहा था और तभी एक अधिकारी शायद दफ्तर की
ओर जाने की तैयारी कर रहा था। वो अधिकारी था नागेश्वर राव।
गजब है कि यह वही अधिकारी था, जिसके खिलाफ सीबीआई के ही तत्कालीन निदेशक आलोक वर्मा ने सीवीसी में गंभीर आरोप के चलते लिखित शिकायत की थी!!! अटपटा इतिहास ही कह लीजिए कि निदेशक भी
गंभीर आरोप में घिरे थे, विशेष निदेशक भी और अब कार्यकारी निदेशक भी!!! फिर भी वो नये निदेशक बन जाते हैं!!! मामले को संभालने के लिए कहा जाता है कि निदेशक और विशेष निदेशक, दोनों ने एक
दूसरे के खिलाफ गंभीर शिकायतें की है, लिहाजा उनकी ही जांच करने के लिए दोनों को
बाहर बिठाना ज़रूरी था। सही तर्क है यह। लेकिन ये कौन सा तरीका था कि उनकी जांच के
लिए उस निदेशक को बिठा दो, जिसके खिलाफ पहले से ही सीवीसी में गंभीर इल्ज़ाम का पत्र
आ चुका हो!!!
विवाद
और बढ़ा। निदेशक और विशेष निदेशक, दोनों अदालत पहुंच चुके थे। दोनों ने अदालत में एक
दूसरे के खिलाफ आरोप लगाए। आलोक वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी छुट्टी को लेकर
चुनौती दी और सरकार पर बड़े गंभीर इल्ज़ाम भी लगाए। द वायर में स्वाति चतुर्वेदी ने लिखा कि सीबीआई के इतिहास में कभी नहीं हुआ
कि इंस्पेक्टर जनरल (आईजी) को चीफ़ बना दिया गया हो। स्वाति ने लिखा कि वर्मा ने
प्रधानमंत्री कार्यालय के करीबी यानी जिगरी राकेश अस्थाना की गिरफ़्तारी की अनुमति
मांगी थी और वे राफेल डील मामले में जांच की तरफ बढ़ने लगे थे। प्रशांत भूषण, यशवंत सिन्हा और
अरुण शौरी से मिल लेने की खबर से सरकार रातों को जागने लगी। दिन में प्रधानमंत्री
के भाषणों का वक्त होता है इसलिए इंसाफ का वक्त रात का चुना गया था। आधी रात के
बाद जब-जब सरकारें जागी हैं तब-तब ऐसा ही इंसाफ हुआ है। इस मामले को रफाल मामले से
जोड़ा तो गया, किंतु सीबीआई के प्रवक्ता ने इन खबरों को खारिज कर दिया और कहा कि ये
सारी खबरें निराधार है।
जनवरी 2017 में
आलोक वर्मा को एक कॉलेजियम से दो साल के लिए सीबीआई का चीफ़ बनाया गया था। आलोक
वर्मा का कार्यकाल अगले साल फ़रवरी तक था। इस कॉलेजियम में चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया
भी थे। जब आलोक वर्मा को हटाया गया तब कोई कॉलेजियम नहीं बना! चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया तक को बताया गया या नहीं बताया गया, कोई नहीं जानता! जब आलोक वर्मा को हटाकर एम नागेश्वर राव को चीफ़
बनाया गया तब इसके लिए कोई कॉलेजियम नहीं बनाया गया! चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया की कोई
भूमिका ही नहीं रही!
इसी साल अगस्त महीने
में जब सीबीआई लंदन की अदालत में अपने दस्तावेज लेकर पहुंची कि इन गवाहों के बयान
के आधार पर विजय माल्या को भारत ले जाना ज़रूरी है, तब उन सात गवाहों के बयान पर दस्तखत ही नहीं थे!!! विजय
माल्या 36 सूटकेस लेकर भागा था!!! विजय माल्या ने तभी तो कहा था कि भागने से पहले
जेटली से मिला था!!! जेटली ने खंडन किया। राहुल गांधी ने दस्तावेज़ों के साथ आरोप
लगाया कि जेटली की बेटी दामाद के लॉ फ़र्म को माल्या ने फ़ीस दी थी जो उसके भागने
को विवाद के बाद लौटा दी गई। टू-जी स्पेक्ट्रम, जिसमें कांग्रेस के ही नेता फंसे
थे, भाजपा की सत्ता के दौरान उस केस का क्या हाल हुआ हमने ऊपर ही देखा। व्यापमं से
लेकर बिहार के सृजन घोटाले से लेकर ऐसे अनगिनत ‘ताज़ा विवादित इतिहास’ सीबीआई, राजनीति
और कॉर्पोरेट के मेलजोल के चलते घटित हो चुके थे।
सर्वोच्च न्यायालय
के इस मामले पर पहले फैसले के बाद एक दिन सुबह आलोक वर्मा के घर के बाहर आईबी के
अफसरों की कथित जासूसी वाला संस्करण भी देश ने देखा। अभी सुबह अंगड़ाई ले ही रही थी
और तभी आलोक वर्मा के सुरक्षा अधिकारी कुछ संदिग्ध लोगों को जबरन खींचकर घर के भीतर
ले जाते दिखे। बाद में इन संदिग्धों की पहचान आईबी अफसरों के रूप में हुई!!! इसे लेकर भी
कुछ दिनों तक तू तू मैं मैं चलती रही। उन अफसरों और वर्मा के सुरक्षा कर्मी, दोनों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। लेकिन जासूसी वाला जिन्न फिर एक दफा बाहर आ चुका था।
सीबीआई में ही मनी लॉन्ड्रिंग चल रहा है- सीबीआई का ही सनसनीखेज खुलासा, जिसका
सही सही जवाब शायद ही मिल पाए
सीबीआई के
सनसनीखेज रिश्वतखोरी मामले में संस्था के नंबर वन और नंबर टू के बीच जो जंग जारी थी
उसे ज्यादा सनसनीखेज स्वयं सीबीआई ने ही तब बना दिया, जब अदालत के भीतर सीबीआई ने
ही संस्था के भीतर मनी लॉन्ड्रिंग का चौंकाने वाला खुलासा किया!!! मामले में राकेश
अस्थाना और आलोक वर्मा के बाद देवेंद्र कुमार का नाम सामने आया। इन्हें गिरफ्तार भी
किया गया, रिमांड पर भी भेजा गया। देश सन्न था। निदेशक और विशेष निदेशक के बाद
देवेंद्र कुमार जैसा बड़ा अधिकारी गिरफ्तार हो चुका था, रिमांड पर भेजा जा चुका था! गजब का दौर चल पड़ा था। लेकिन सांप्रदायिकता की सनक में डूब चुकी देशभक्त जनता को और
ज्यादा सन्न कर दिया सीबीआई के ही एक इल्ज़ाम ने, जिसमें सीबीआई ने सीबीआई के ऊपर ही
मनी लॉन्ड्रिंग का सनसनीखेज आरोप लगा दिया!!! नोट करे कि इसमें 'रैकेट' लफ्ज़ इस्तेमाल किया
गया था। सोचिए, देश के सबसे बड़े जांच संस्थान के भीतर ऐसा कथित रैकेट पनप चुका था,
जिन्हें ऐसे ही रैकेट को रोकने के लिए काम करना था!!! कुछ मीडिया हाउस आलोक वर्मा पर
स्टोरी चलाने लगे, कुछ राकेश अस्थाना पर। मोइन कुरैशी और सीबीआई के भीतर ऐसे रैकेट
पर मीडिया पैनलों पर चर्चा कम ही हुई!!! सवाल जो होने चाहिए थे वो ना होकर सिलेबस के बाहर के क्वेश्चन पर विशेषज्ञों से चर्चा करवाने का शाही अंदाज दोबारा उफान पर था।
क्या आधी रात को जो हुआ वह संविधान की धज्जियां उड़ाने जैसा था या फिर संविधान
का साफ मन से पालन था?
आधी रात को जो हुआ
वह चैप्टर संक्षेप में हमने ऊपर देखा। पहला सवाल यही उठा कि आधी रात को जो कुछ हुआ
वह संविधान का साफ मन से पालन करने का प्रयत्न था या संविधान की धज्जियां उड़ाने का
अनैतिक प्रयास? सवाल सीधे होते हैं, लेकिन उनके जवाब कभी
सीधे नहीं दिए जाते ये हमारी पुरानी परंपराएँ हैं, जिसका पालन तत्कालीन सरकार ने भी
किया या कर लेंगे। विनीत नारायण बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश
है कि सीबीआई के निदेशक का कार्यकाल तय समय के लिए स्थायी होगा। अगर विशिष्ठ
परिस्थिति में तबादला करना भी होगा तब चयन समिति से अनुमति लेनी होगी। सवाल था कि क्या
अनुमति ली गई थी? भ्रष्टाचार के आरोपों पर दर्ज एफआईआर को रद्द करने के लिए अस्थाना द्वारा
दायर याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट ने यथास्थिति कायम रखने के आदेश दिए थे। अगले दिन
नए डायरेक्टर ने आधी रात को चार्ज लेने के बाद अस्थाना मामले की जांच कर रहे
अधिकारी के साथ दर्जनों लोगों का ट्रांसफर कर दिया। एफआईआर के बाद आरोपी की सर्च
और गिरफ्तारी की बजाय जांच अधिकारी के ट्रांसफर से क्या हाईकोर्ट के आदेश का
उल्लंघन नहीं हुआ?
हमारे यहां सवाल
जिस मंत्रालय से होता है, जवाब वह मंत्रालय नहीं देता!!! सीबीआई गृहमंत्रालय के अधीन
है, लेकिन जवाब दिया अरुण जेटली ने, जो गृहमंत्रालय से ताल्लुक नहीं रखते!!! उन्होंने
कहा कि जिन अधिकारियों के कथित भ्रष्टाचार की जांच होनी है, उनके होते हुए
पारदर्शिता से जांच नहीं हो सकती थी, इसलिए उन्हें बाहर रखना आवश्यक था। स्वीकृत
तर्क है यह। लेकिन पारदर्शिता की इतनी ही चिंता थी तो फिर जिनके खिलाफ सीवीसी में आरोप थे, उन्हें ही नया अंतरिम निदेशक क्यों बनाया गया? क्या नये विवादित
अधिकारी को शामिल करने से पुराने विवाद पारदर्शिता से सुलझाए जा सकते हैं? शायद जहर को जहर
मारता है वाली नीति समयानुसार ठीक होगी?
अगर सीवीसी में इन
दोनों अधिकारियों के खिलाफ शिकायतें थी, गंभीर शिकायतें थी, तो फिर नये निदेशक के
खिलाफ भी सीवीसी में वही तो था। मतलब कि पारदर्शिता वाले तर्क के भीतर ही
पारदर्शिता की धज्जियां नहीं उड़ी थी? दूसरा यह कि दोनों अधिकारी, जो एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे, उन्हें छुट्टी पर भेजा गया, लेकिन साथ में उन दर्जनों अधिकारियों को काला पानी की सजा क्यों
दी गई? वो भी सिर्फ उन्हीं अधिकारियों को, जो अस्थाना के खिलाफ जांच कर रहे थे!!! वर्मा
के खिलाफ जांच में कोई अधिकारी यदि लगा था, तो फिर उसका तबादला या ऐसा कुछ कहीं पर
क्यों सुना नहीं गया?
सीबीआई निदेशक के दो साल के कार्यकाल को वैधानिक सुरक्षा होने की वजह से उन्हें जबरन छुट्टी
पर भेजना कानूनी है या गैरकानूनी? संवैधानिक पदों पर बैठे अन्य लोग यदि सरकार के लिए तकलीफदेह हो जाएं, तो क्या
राष्ट्रपति के माध्यम से उन्हें भी जबरन छुट्टी पर भेज दिया जाएगा? सीवीसी को छुट्टी पर भेजने के लिए वर्ष 2003 के कानून की धारा 6 में प्रावधान है, तो क्या भविष्य
में सरकारें उनके साथ भी ऐसा बर्ताव कर सकती हैं?
जल्द ही सुप्रीम कोर्ट ने नये अंतरिम निदेशक के पर कतर दिए, नये आदेशों की समीक्षा
की बातें सामने आई
आलोक वर्मा की
अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की बेंच ने नये
अंतरिम निदेशक नागेश्वर राव के पर कतर दिए। उन्हें आदेश दिया गया कि वे कोई नीतिगत
फैसले नहीं लेंगे, जब तक जांच पूरी नहीं होती। सीवीसी को दो सप्ताह के भीतर जांच
पूरी करने के लिए कहा गया। सीवीसी ने एतराज जताया तो तल्ख़ टिप्पणी भी हुई कि आपके
लिए दिवाली वगैरह नहीं होता। दर्जनों अधिकारियों के तबादले समेत अन्य नये फैसलों की
जानकारी मांगी गई, जिनकी समीक्षा होनी थी। पहली दफा ऐसा हुआ कि सीवीसी की जांच के
ऊपर सर्वोच्च न्यायालय ने अपना एक सेवानिवृत्त जज बिठा दिया। राकेश अस्थाना या
सीबीआई के भीतर मनी लॉन्ड्रिंग समेत ढेरों सारे सवाल अब भी खड़े थे। इंतज़ार था कि सीबीआई की बची-खुची साख को सर्वोच्च न्यायालय किस हद तक जाकर संभालेगा। वही शख्स
सीजेआई था, जिसने देश के न्यायतंत्र को बचाने के लिए न्यायतंत्र के भीतर के
खोखलेपने को देश के सामने रखा था। दिलचस्प यह भी था कि उस जज को जांच पर नजर रखने
के लिए बिठाया गया था जिसने कुछ सालों पहले सीबीआई, जिसे सरकारी तोता कहा गया था,
उसे नये पर देने का आदेश सुनाया था। आगे क्या होना था, कोई नहीं जानता था। तोते से
लेकर मैना, मैना और तोते के साथ कुछ कौए... किसका क्या होगा ये तो आनेवाल वक्त तय
करने वाला था।
सीबीआई चीफ को नियुक्त करने के लिए एक निश्चित प्रक्रिया है, तो क्या इस संकट
के लिए उस प्रक्रिया में शामिल लोग जवाबदेह नहीं?
सीबीआई चीफ को
नियुक्त करने के लिए एक तय प्रक्रिया है। संक्षेप में बात करे तो इसमें प्रधानमंत्री,
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया और प्रतिपक्ष, तीनों शामिल है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि
निदेशक और विशेष निदेशक, जिन्हें पद से अस्थायी तौर पर हटाना पड़ा, क्या नियुक्ति
प्रक्रिया के दौरान उन दोनों का ठीक से आकलन नहीं हुआ था? अब जाकर कांग्रेस भाजपा पर आरोप लगा रही है, लेकिन वो भी तो निदेशक नियुक्ति
की प्रक्रिया में शामिल थी। स्वयं चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया शामिल थे। अब ऐसे में आजाद
हिंदुस्तान के इतने बड़े विवाद के लिए क्या ये सब लोग कोई गलती कर चुके थे? अब जाकर राजनीति का कीचड़ एक-दूसरे पर ठेलने का क्या फायदा? जबकि चयन प्रक्रिया में ऐसे बड़े बड़े लोग शामिल हो। हां, हटाए जाने की
प्रक्रिया को लेकर सवाल उठने लाजमी है। खास करके तब कि जब पिछले तीन तीन सीबीआई
निदेशकों को मोइन कुरैशी ने बुरी तरह झुलसाया हो। पिछले दो गंभीर उदाहरण घटित हुए
तब इतने बड़े बड़े लोग पारदर्शिता, नैतिकता या सुधार को लेकर चुप क्यों रहे होंगे? क्या वे तीसरे उदाहरण के इंतज़ार में थे? आगे जाकर क्या ये लोग इतना यकीन दिला पाएंगे कि अब चौथा उदाहरण नहीं आएगा?
सुप्रीम कोर्ट और सीबीआई के बाद ईडी और आरबीआई में भी हल्की सी सुगबुगाहट,
लेकिन जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट प्लस सीबीआई को अलग अलग चश्मे से सोचा वो
मंदिर-मस्जिद पर बिजी हो गए
सुप्रीम कोर्ट और
सीबीआई के ऐतिहासिक संकट के बाद उधर ईडी और आरबीआई में भी थोड़ी सी सुगबुगाहट दिखी।
लेकिन जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट तथा सीबीआई के संकट को अलग अलग तराजू में तोलकर देखा
था वे बहुत जल्दी मंदिर-मस्जिद में व्यस्त दिखाई दिए! ईडी में संयुक्त निदेशक
राजेश्वर सिंह को लेकर विवाद उठने लगा, जिन्होंने पीएम मोदी के नजदीक माने जाने वाले
और गुजरात से दिल्ली में लैंड हुए रेवन्यू सचिव हसमुख अधिया पर अतिगंभीर आरोप लगाए! बदले में सरकार की तरफ से ईडी के संयुक्त सचिव को शो कॉज नोटिस मिला! राजेश्वर सिंह
ने अधिया जैसे अतिमहत्वपूर्ण नौकरशाह पर नोटबंदी के दौरान भ्रष्ट आचरण से लेकर
दूसरे कई गंभीर इल्ज़ामात की बरसात कर दी थी। बदले में राजेश्वर सिंह पर भी कई गंभीर
आरोप लगे। उधर आरबीआई के बड़े अधिकारी ने सरकार पर ही छोटा मन लेकर चलने का आरोप लगाया।
जैसे सुप्रीम कोर्ट से लेकर सीबीआई व ईडी के अधिकारी एक दूसरे पर असह्योग और गलत
नियत के आरोप लगाते थे, आरबीआई ने सरकार पर भी इनमें से एक इल्ज़ाम (असह्योग) लगा
दिया। लेकिन इसमें गजब तो यह था कि बदले में वित्त मंत्री ने आरबीआई पर ही वार किया,
यह कहते हुए कि 2010 से 2014 तक लोन बांटे जा रहे थे तब आरबीआई कहा था!!! सोशल
मीडिया में जब भी भाजपा पर सवाल उठता तो कांग्रेस के काल का कुतर्क चलने लगता था।
लेकिन यहां देश का वित्त मंत्री आरबीआई की शिकायत के सामने भी यही फेसबुकिया तरीका
आजमाने पर आमादा था! भाजपाई सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने अधिया समेत कई महत्वपूर्ण
शख्सियतों पर अपने तोप की नाल मोड़ दी थी। दिल्ली की सत्ता के गलियारों के भीतर बहुत
कुछ ऐसा हो रहा था, जो अप्रत्याशित था, अभूतपूर्व था। लगा कि हर जगह पार्वती और
पारो है, जिनमें से किसी एक को देवदास चुनेंगे।
वैसे हमारी राजनीतिक व्यवस्था नहीं बल्कि ‘लठैत व्यवस्थालय’ या फिर ‘अंधभक्ति व्यवस्थालय’ के चलते विश्वास भी है कि हम सब ऐसे तमाशों के आदी हो चुके
हैं। गंदा नाला और उसका परनाला पहले भी बहता था, अब भी बहता है। हमें ऐसे नालों व
परनालों में गंगा-यमुना से भी ज्यादा श्रद्धा है। हम तमाशबीन नहीं बल्कि अंधे तमाशबीन
हैं। सो, ऐसे झटके हमारे ‘भक्तिवाद’ को चकनाचूर नहीं करेंगे। आतंकवाद, माओवाद या नक्सलवाद से
बहुत ही मजबूत है हमारा भक्तिवाद।
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