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Democracy n Bureaucracy : ‘आचार संहिता’ के बदले ‘लाचार संहिता’ क्यों छाई रही? लोकतंत्र क्यों खामोश है?



2019 का लोकसभा चुनाव। हर चुनावों में चुनाव आयोग और आचार संहिता को लेकर सवाल उठते हैं, लेकिन इस दफा लिखा गया कि चुनाव में राजनीतिक दलों पर आचार संहिता नहीं बल्कि चुनाव आयोग पर लाचार संहिता लागू थी। हर सवालों को, हर आशंका को महज एक हल्की-फुल्की दलील से खारिज किया गया। यह कहकर कि सब कुछ ठीक है और विरोधियों के सवालों में कोई आधार नहीं है। सरकारें आती रहेगी-जाती रहेगी, लेकिन इस चुनाव में चुनाव आयोग - आचार संहिता - आयोग की कार्रवाई - निष्पक्षता पर सवाल ठहरने चाहिए थे। उन सवालों को आते-जाते सवाल समझकर टाल दिया गया। चुनाव आयोग भी चुप, लोकतंत्र का चौथा स्तंभ, जो भरभरा कर गिर ही चुका है, वो मीडिया भी चुप। जितनी ताकतवर वर्तमान सत्ता है, उससे कई गुना कमजोर विपक्ष है। लिहाजा विपक्ष भी चुप। लोकतंत्र खामोश हैं। खामोश लोकतंत्र यानी देश के साथ द्रोह।

अरे भाई... स्वीकार है कि कांग्रेस की सरकारों ने चुनाव आयोग - आचार संहिता और लोकतंत्र को बहुत नुकसान पहुंचाया था। स्वीकार है कि चुनाव आयोग जैसी स्वायत्त संस्थाओं को कांग्रेस ने कठपुतली बनाकर रखा था। पता है कि चुनाव आयोग के कमिश्नर सरीखे शख्स को कांग्रेसी मंत्रियों के कार्यालय के बाहर घंटों तक बैठना पड़ता था। वो सारी चीजें स्वीकार है। लेकिन इसका अर्थ ये कतई नहीं है कि वर्तमान पर सवाल उठाना बंद कर दिया जाए। छगन ने 100 किलोग्राम के काले काम किए थे, तो मगन भी 90 किलोग्राम करेगा। अगर यही देशभक्ति है, यही भारतीय होने की समझ है, तो फिर ऐसी समझ अंडरग्राउंड गटर में बहाने लायक है।

हा, भारतीय लोकतंत्र में स्याही से लेकर ईवीएम तक सवाल उठते रहे हैं। हम इस पर एक अलग लेख लिख चुके हैं। इसे पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें - History on Ink to EVMs : भारतीय चुनाव का इतिहास, स्याही से लेकर ईवीएम तक उठते रहे हैं सवाल

भारतीय लोकतंत्र में स्याही से लेकर ईवीएम के महाभारत के बाद हमने चुनाव सुधार के ताज़ा इतिहास पर भी एक लेख लिखा था। इसे पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें - Highlights on Election Reforms : भारतीय चुनाव सुधार का ताज़ा इतिहास

ईवीएम पर जो सवाल हैं उसे हम यहां स्थान ही नहीं दे रहे। ईवीएम की संक्षिप्त कहानी इतनी सी है कि लगभग तमाम राजनीतिक दलों ने कहा है कि ईवीएम हैक हो सकता है और इन तमाम ने यह भी कहा है कि ईवीएम हैक नहीं हो सकता!!! ईवीएम हैकिंग या टेम्परिंग इंजीनियरों की दुनिया का विषय है, लिहाजा उसे हम छोड़ ही देते है।

मोदी-शाह के मामले में चुनाव आयोग को लाचार संहिता का पालन करना पड़ा? क्या यह सच है कि जो भी सत्ता में आएगा वही कांग्रेस बन जाएगा?

ध्यान दे कि कांग्रेस नाम का यहां ऊपर जो ज़िक्र है उसका मतलब है अहंकार, गुरुर, अनैतिकता, तानाशाही, लोकतांत्रिक मुखौटे वाली निरंकुशता...। क्या कोई अलिखित संविधान है कि जो पीएमओ में जाएगा उसे कांग्रेस बनना होगा? क्या कांग्रेस मुक्त भारत महज एक नारा है? क्या कांग्रेस मुक्त भारत का मतलब सिर्फ यह था कि कांग्रेस नाम की पार्टी तमाम राज्यों से चुनाव हारेगी और ऑपरेशन टेबल पर लिटायी जाएगी? क्या कांग्रेस मुक्त भारत के नारे में कांग्रेस के उस प्रचलित दुर्गुणों से मुक्त भारत के निर्माण की कोई छाया ही नहीं थी?
2019 के लोकसभा चुनावों में चुनाव आयोग को धृतराष्ट्र नाम स्वतंत्र लोगों ने दिया... मोदी-शाह से जुड़ी शिकायतों का निपटारा हो या सत्ता दल के प्रति लाचार संहिता हो... आयोग सत्ता दल का अघोषित साथी बना रहा। इंदिरा-राजीव-सोनिया ने किया था इसलिए मोदी-शाह ने किया यह तर्क सही है तो फिर चलने दीजिए। क्या भारतीय लोकतंत्र में इसी तरह की नौटंकियां चलती रहेगी? सत्ता किसीकी भी हो, संस्थाएँ हाईजैक करना, सरकारी संसाधनों का चुनाव जीतने में इस्तेमाल करना ये सब पुराने जमाने से लेकर आज के जमाने तक निर्विरोध चल रहा है। क्योंकि यहां भारतीय कम है, कांग्रेसी - भाजपाई - आपिये - बसपाई वगैरह होलसेल में हैं...।

सोशल मीडिया पर अपक्ष सरीखे नागरिकों को लिखना पड़ गया कि यहां आचार संहिता नहीं बल्कि आयोग पर लाचार संहिता लागू है। किसी स्वतंत्र पक्षकारों ने चुनाव आयोग को धृतराष्ट्र कहा। किसीने लिखा कि क्या पीएमओ में आयोग की कोई शाखा खोली गई है? कहते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आयोग और आचार संहिता तथा नैतिकता और शालीनता को लेकर जितने विवाद जानकर या अंजाने में उत्पन्न किए, उतने कुछेक काल से किसी पीएम ने नहीं किए। सिवा इंदिरा के शायद। गुजरात काल से देखा गया है कि नरेन्द्र मोदी को आचार संहिता से उतना लगाव नहीं रहा। वो जानकर या अंजाने में आचार संहिता लागू हो तब ही ऐसा कर जाते है कि विवाद का पिटारा खुल जाए। अध्ययन तो यह भी कहता है कि ऐसे ही पिटारे कोई छोटा-मोटा उम्मीदवार खोले तो आयोग उसको ताला लगा देता है। लेकिन बड़े लोगों या बड़े नेताओं को शायद आचार संहिता से छूट दी जाती होगी। या फिर उनकी 'पूर्व की सेवाओं' को देखकर 'बेनिफिट ऑफ डाउट' दिया जाता होगा!!!

आयोग ने बड़े ताव से एलान किया कि कोई उम्मीवार इन विषयों पर ये नहीं करेगा, वो नहीं करेगा, ये नहीं बोलेगा, वो नहीं बोलेगा। मोदी-शाह ने तय किया कि हम तो वही करेंगे!!! छोटे बच्चों को कुछ चीजें करने के लिए मना कर दो तब वो बच्चे वही चीजें कर जाते हैं। खैर, मोदी-शाह बच्चे तो नहीं है, लेकिन कच्चे भी तो नहीं है!!! आयोग को कह दिया कि करेंगे, देखते है आप क्या करेंगे? ऐसा नहीं था लेकिन ऐसा ही तो लगा वो ताज़ा दौर!!! धर्म के नाम पर वोट नहीं मांगे जा सकते... समूचा चुनाव ही धर्म के आधार पर लड़ा गया!!! धर्म से लेकर अधर्म सब कुछ आ गया, लेकिन आयोग अपना धर्म चूक गया!!! जाति के नाम पर वोट नहीं मांगे जा सकते... सोचिए, सबसे ज्यादा दफा जातियां तो खुद पीएम मोदी ने ही बदल ली!!! शहीदों के नाम पर वोट नहीं मांगे जा सकते... आयोग का यह आदेश कितनी बेरहमी से कुचला गया इसका इतिहास तो ताज़ा ही है। समूचा चुनाव ही शहीदों के नाम पर लड़ा गया!!! आयोग ने आचार संहिता के बदले लाचार संहिता का पालन किया क्या यह सवाल उठने लगे। मोदी-शाह के खिलाफ कई मामलों की फाइलों का ढेर होने लगा तो सुप्रीम कोर्ट ने आयोग को याद दिलाया कि निपटारा करो। अदालत ने आदेश दिया और आयोग ने सचमुच निपटा ही दिया निपटारे को!!! एक के बाद एक फटाफट क्लीन चिट का पिटारा खोलकर अदालती आदेश का बड़े त्वरित तरीके से पालन करने पर आयोग को एकाध रत्न या एकाध श्री देना तो बनता है।

सबसे पहले वैज्ञानिक कथाकार नरेन्द्र मोदी ने ए-सैट मिसाइल परीक्षण के मौके पर आचार संहिता के दौरान ही वैज्ञानिकों को पीछे धकेल दिया और खुद ही टेलीविजन सेट के सामने चिपक गए!!! प्रस्तुतिकरण तो ऐसा किया गया कि शायद वैज्ञानिकों को भी लगा होगा कि अइला, हमनें इतना बड़ा कारनामा कर दिया क्या? राष्ट्र के नाम संबोधन की शिकायत आयोग तक पहुंची। आयोग को तो जांचकर यही कहना था कि नहीं कोई नियम नहीं तोड़े गए। आचारसंहिता के बीच राष्ट्रवाद और सरकार की सफलता का सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल करके प्रचार और प्रसार हो गया। 2008 में इसरो ने जश्न मनाया था, 2012 में डीआरडीओ ने, किंतु 2019 में मोदी ने जश्न मना लिया!!! जाहिर है यह राजनीति थी। चुनावी प्रचार का नायाब तरीका था। सरकारी संसाधनों का आचार संहिता के समय दुरुपयोग था। लेकिन आयोग ने जो कहा वही अंतिम होता है। सो कुछ नहीं था। अपना गुणगान और विपक्ष का उपहास, यही मोदी के उस जश्न का प्रतिबिंब था।
आयोग के क़ानूनी सलाहकार रहे मेंदीरत्ता ने 'द प्रिंट' से कहा कि उन्होंने आचार संहिता लागू होने के बाद किसी प्रधानमंत्री को कभी ऐसा करते नहीं देखा। प्रधानमंत्री ने संबोधन में ऐसे बहुत से शब्दों का प्रयोग किया है जिनका इस्तमाल वे अपने राजनीतिक मंचों पर करते रहे हैं। यह मामला चुनाव आयोग का इम्तिहान है। मुझे संदेह है कि आयोग कुछ करेगा और वह बहाने ढूंढ लाएगा। यह मेंदीरत्ता के लफ्ज़ थे और आखिर हुआ भी यही।

पुलवामा पर जमकर राजनीति, बालाकोट एयर स्ट्राइक को लेकर खुल्लम-खुल्ला चुनावी प्रचार, शहीदों के नाम पर सीधे सीधे वोट मांगना... वो सब कुछ हुआ जिसकी मनाही थी। बताइए, हम यकीन कर लेते है कि जो आचार संहिता को तोड़ देते हैं वे संविधान की और कानून की रक्षा कर लेंगे!!! इनमें आप सभी बागड़ बिल्लों को शामिल कर लीजिएगा।

इंटरव्यू तो इतने दिए कि आचारसंहिता को लगा कि कह दूं कि अब बस भी करो महोदय! जाहिर है, पीएम पहले भी इंटरव्यू दे सकते थे, लेकिन इन्होंने आचार संहिता के दौरान ही दिए!!! गैरराजनीतिक मुलाकात... जो पांव से लेकर सिर तक राजनीतिक ही थी। अक्षय कुमार के साथ इंटरव्यू बड़ा विवादास्पद बना रहा। टाइमिंग को लेकर भी, नियत को लेकर भी। लेकिन नियमों के अनुसार आयोग की आदर्श आचार संहिता तथा पेड न्यूज़ वाले एंगल को लेकर भी। इस इंटरव्यू को लेकर ढेरों खुलासे हुए। जी न्यूज़ का नाम खुलकर सामने आया। प्री-रिकॉर्डेड इंटरव्यू को न्यूज़ चैनलों पर दिखाने का टाइमिंग, निजी न्यूज़ चैनल द्वारा काम करना, उसे सरकारी चैनल पर परोस देना... बहुत सारे सवाल थे। लेकिन अब इसका कोई मतलब नहीं रहा।

इस बीच चुनाव आयोग को पहले ही घोषित करना चाहिए था कि हम सब कुछ जांच सकते हैं, लेकिन पीएम का हेलीकॉप्टर नहीं!!! किसीने जांचा तो उसका क्या हुआ सबको पता है। पीएम के हेलीकॉप्टर को जांचना आचार संहिता तोड़ने से भी बड़ा अपराध हो गया, उसको निलंबित तक कर दिया!!! आयोग ने जिन आधारों पर अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई की, जिन नियमों का हवाला दिया, स्वतंत्र विशेषज्ञ कहते हैं कि आयोग ने भ्रमित किया है। आयोग ने पहले तो कहा कि एसपीजी सुरक्षा प्राप्त लोगों की जांच नहीं की जा सकती ऐसा नियम है। यानी कि भारत के लोकतंत्र में चुनावों के दौरान इन लोगों को ब्रह्माजी का कोई वरदान मिला हुआ है क्या? उधर विशेषज्ञ कहते हैं कि ऐसा कोई नियम नहीं है जैसा आयोग ने बताया, बल्कि आयोग आधे तथ्यों के साथ पिंड छुड़वा रहा है। नियमों के अनुसार एसपीजी प्राप्त लोग सरकारी वाहनों का इस्तेमाल ज़रूर कर सकते हैं, लेकिन ऐसा लिखित नियम कही नहीं है कि उनके वाहनों की जांच आयोग नहीं कर सकता।

9 अप्रैल 2019 को महाराष्ट्र के लातूर की चुनावी रैली में दिए गए प्रधानमंत्री मोदी के बयान पर आयोग ने तब तक कोई एक्शन नहीं लिया, जब तक सर्वोच्च न्यायलय ने आदेश नहीं दिया!!! उस रैली में प्रधानमंत्री ने कहा था कि पहली बार वोट करने वाले मतदाता क्या आपना वोट पुलवामा के शहीदों और बालाकोट एयर स्ट्राइक में शामिल वीर जवानों को समर्पित नहीं कर सकते? जांच के बाद आयोग ने कह दिया कि शहीदों के नाम पर वोट नहीं मांगे गए थे, आचार संहिता का उल्लंघन नहीं हुआ था!!! अंधे आदमी को भी कान होते है, लेकिन यहां तो आंख के साथ साथ कान भी गायब हो गया! आयुक्त कह रहे थे कि इतने लाख शिकायतों का निपटारा कर दिया गया है, उसी वक्त वो इस बात का जवाब नहीं दे पा रहे थे कि प्रधानमंत्री के भाषण पर एक्शन लेने में क्यों इतने दिन लगे? जबकि सेना के इस्तेमाल पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और मुख़्तार अब्बास नक़वी को आयोग ने चेतावनी दे दी थी। ज़ाहिर है सेना का इस्तमाल वैधानिक नहीं है, तभी तो योगी और नकवी को चेतावनी दी गई होगी। लेकिन पीएम को ऐसा संवैधानिक अधिकार मिला होगा, तभी तो उन्हें बाइज्जत बरी किया गया!!! वैसे चेतावनी तो योगी-नकवी से लेकर प्रज्ञा-सिद्धू सभी को दी गई थी, उन सभी ने उन संवैधानिक चेतावनियों का कितनी दफा और कैसे-कैसे दुष्कर्म किया यह किसी से छुपा नहीं है।
नोट करे कि लातूर वाले (औसा) भाषण के दिन ही पीएम मोदी ने चित्रदूर्ग में वही भाषण किया था। उन्होंने अपने चुनावी भाषण में नये मतदाताओं से अपना वोट बालाकोट हवाई हमले के नायकों को समर्पित करने का कथित रूप से आह्वान किया था। चुनाव खत्म होते होते अकेले मोदी को ही आयोग ने 9 मामलों में क्लीन चिट दी थी।

आयोग इतना बहादुर निकला कि सीएम योगी को कह दिया कि अब की बार 'मोदी की सेना' लफ्ज़ इस्तेमाल ना करे। कह तो यह भी दिया कि सेना के नाम का राजनीति में इस्तेमाल ही ना करे। लेकिन जब मोदी-शाह की बात आई तो आयोग की बहादुरी बहादुर नाम के वफादार साथी की तरह बाहर आ गई। शाह ने तो कह दिया कि मोदी की एयरफोर्स। योगी को आयोग ने नसीहत दी उसके बाद ही अमित शाह ने मोदी की सेना लफ्ज़ इस्तेमाल किया था। लेकिन योगी और अमित शाह अलग कद के नेता है, सो आयोग को भी अलग चश्मे से देखना पड़ा होगा! नतीजा यही कि शाह ने आचार संहिता का उल्लंघन नहीं किया!!! सेना के नाम का दोनों ने उसके बाद अनेकों बार इस्तेमाल किया, लेकिन आयोग को इसमें कोई दिक्कत नजर नहीं आई!!! अमित शाह ने मतदान के समय साक्षात्कार दिया, लेकिन आयोग ने कहा कोई दिक्कत नहीं है!!!

आयोग ने ही निर्देश दिया था कि चुनाव प्रचार में सशस्त्र बलों का उल्लेख करना चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन होगा। 2013 में जारी परामर्श का हवाला देते हुए 19 मार्च 2019 को चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों से अपने चुनाव अभियान में सैनिकों और सैन्य अभियानों की तस्वीर का इस्तेमाल करने से बचने को कहा था। मोदी और शाह समेत दूसरों ने भी सेना को लेकर क्या क्या भाषण दिए सबको पता होगा। द वायर हिन्दी की रिपोर्ट के मुताबिक लातूर (औसा) भाषण विवाद के बाद महाराष्ट्र के स्थानीय निर्वाचन अधिकारियों ने चुनाव आयोग से कहा था कि मोदी का बयान पहली नजर में उसके आदेश का उल्लंघन करता है, जिसमें पार्टियों से प्रचार के दौरान सशस्त्र बलों का इस्तेमाल नहीं करने को कहा गया था। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक इस आधार पर मोदी को क्लीन चिट दी गई कि उन्होंने बालाकोट हवाई हमलों का आह्वान करते हुए अपनी पार्टी या खुद के लिए वोट नहीं मांगे थे। बताइए, तो क्या मोदीजी ने कांग्रेस के लिए वोट मांगे थे? या सेना के वो जवान चुनाव लड़ रहे थे और उनके लिए मांगे थे? जाहिर है वोट खुद के लिए ही मांगे गए थे। लेकिन आयोग ने बिना बहुमत के ही क्लीन चिट का हार भेज दिया!!!

नोट करे कि मेनका गांधी, योगी आदित्यनाथ, मायावती, आज़म ख़ान, नवजोत सिंह सिद्धू इन सबके बयानों के खिलाफ एक्शन लेने के लिए आयोग के आयोग के फुल कमीशन की बैठक नहीं हुई थी। सचिव स्तर के अधिकारियों ने ही धर्म-पालन कर लिया था। लेकिन मोदी-शाह के मामलों में, जहां सीधे मामले थे, असहमतिओं के बाद भी किसी दूसरे धर्म का ही पालन होता दिखाई दिया।

नीति आयोग प्रधानमंत्री कार्यालय को सूचनाएँ उपलब्ध करवा रहा था...। यह सनसनीखेज मामला भी बीच चुनाव उठ खड़ा हुआ। इस मामले की गंभीरता को समझना हो तो एक ही कथन में समझाया जा सकता है। इसी प्रकार के नियमों को तोड़ने के एवज में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अदालत ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए सज़ा दी थी। सरकारी संसाधनों का चुनावी प्रचार में सीधा इस्तेमाल...। नीति आयोग वाले इस मामले को लेकर काफी कुछ लिखा गया, सूचनाएँ हासिल करके आयोग को दी गई। लेकिन रिजल्ट तो जो आनेवाला था वही आया।
वाराणसी में हुए रोड शो के खर्च को लेकर भी आयोग के सामने सवाल उठाए गए। ये ज़रूर है कि मोदी स्टार प्रचारक है। ऐसे प्रचारकों से संबंधित नियम है, उन्हें खर्च की सीमा लागू नहीं होती। लेकिन खर्चे का हिसाब वाला नियम ज़रूर लागू होता है। चुनाव खत्म हो गए, सरकार ने शपल ले लिए, लेकिन हिसाब तो कोई नहीं दे रहा।

भाबीजी घर पर है धारावाहिक ने पीएम मोदी और सरकार का खुल्ला चुनावी प्रचार किया, लेकिन आयोग की आचार संहिता अंगूरी भाभी के आगे ठिठुर गई!!! चुनाव से एन पहले नमो टेलीविजन आसमान से आ टपका। आयोग चुप! अदालत तक मामला पहुंचा तब जाकर आयोग ने कार्रवाई की!!! लेकिन तब तक चैनल 'कई सारी जिम्मेदारियां' निभा चुका था। लोगों की मर्जी के बगैर उन्हें यह चैनल जबरन परोसा जा रहा था!!! जो चाहे वो देखो वाले नियम के बजाय जो हम दिखाए वही देखो!!! वैसे यह चैनल चुनाव खत्म होने के बाद चुपके से गायब भी हो गया था!!!

नरेन्द्र मोदी की बायोपिक को लेकर भी आयोग ने अंत समय तक कोई फैसला नहीं लिया!!! अदालती आदेश के बाद आयोग को हरकत में आना पड़ा। पांच साल तक इंटरव्यू नहीं देनेवाले पीएम मोदी बीच चुनाव निजी चैनलों पर इंटरव्यू देते नजर आते रहे। उनके इंटरव्यू के समय पीछे एयर स्ट्राइक के फोटू लगे, विंग कमांडर अभिनंदन की तस्वीर लगी। लेकिन आयोग को कुछ नहीं लगा तो फिर पीछे जो भी लगा हो, क्या फर्क पड़ सकता था?

अहमदाबाद का रोड शो हो या दूसरे मसले हो, मोदी-शाह को क्लीन चिट मिली। अगर कोई चुनाव आयोग से पूछने जाएगा तो चुनाव आयोग कहेगा कि देखो भाई, योगी - प्रज्ञा - उमा - मेनका - आजम - सिद्धु... वगैरह वगैरह को चेतावनी देकर आए है हम, प्रतिबंधित करके आए है हम। ज्यादा पूछोगे तो कहेंगे कि राहुल गांधी और कमलनाथ को भी क्लीन चिट ही तो दिया है।

राज्यपाल कल्याण सिंह ने वही कर दिया जो कांग्रेस सत्ता के दौरान उनके राज्यपाल किया करते थे। किसी राज्यपाल ने आचार संहिता के बीच जो कर दिया वो वाकई सीधा सीधा असंवैधानिक ही तो था। राज्यपाल के ख़िलाफ़ कार्रवाई की सिफ़ारिश राष्ट्रपति को भेज कर आयोग ने पिंड छुड़ा लिया। राष्ट्रपति ने भी अभी तक कोई एक्शन नहीं लिया है शायद।

केदारनाथ यात्रा क्या थी? धार्मिक यात्रा थी क्या? बिल्कुल नहीं, सत प्रतिशत नहीं। समूची यात्रा सौ फीसदी राजनीतिक और चुनावी ही तो थी। धार्मिक यात्रा तो वो होती है जो खत्म होने के बाद पता चले कि हो गई है। ढेरों कैमरे, माइक्स, फ्लैश, पत्रकार लेकर कोई धार्मिक यात्रा करता है क्या? उसका लाइव प्रसारण करवाता है क्या? योग के बाद अब शिवजी का ध्यान लगाने की व्याख्या भी बदल गई। आगे-पीछे, दाए-बाए कैमरे के एंगल सेट करवा के उसका लाइव प्रसारण करवाना, ये ध्यान और साधना की लेटेस्ट डेफिनेशन ही तो है! कानूनन या दूसरे एंगल से पीएम बच सकते थे और बच भी गए। लेकिन राजनीति की नैतिकता की बातें वो खुद करते है, जिसका सौवां हिस्सा भी यहां नहीं दिखा।
धर्म और प्रधानमंत्री की निजी जिंदगी का चैनलों पर लाइव प्रसारण किया गया, बीच चुनाव में!!! आचार संहिता का अचार बनाकर गुफा में बैठे बैठे नास्ता कर लिया!!! पेड न्यूज़, फेक न्यूज़ के मामले में चुनाव आयोग ने क्या किया, किसीको पता नहीं। उधर पश्चिम बंगाल के मामले में आयोग ने जिस तरह से ऐतिहासिक फैसला लिया, पता चला कि आयोग के पास गज़ब की ताकत है! लेकिन यह गज़ब की ताकत का टाइमिंग भी बड़ा शानदार था। आयोग ने बंगाल में चुनाव प्रचार को रोकने का ऐतिहासिक फैसला तो ले लिया, लेकिन लागू किया एक दिन बाद!!! ध्यान दे कि उस दिन पीएम मोदी की बंगाल में दो रैलियां थी। आयोग ने चुनाव प्रचार रोकने का फैसला तो ले लिया, लेकिन इन दो रैलियों के बाद प्रचार रोका जाएगा ऐसा आदेश दे दिया!!! गज़ब की ताकत और शानदार टाइमिंग! उन दो रैलियों के पहले आदेश दिया कि प्रचार रोका जाएगा, लेकिन आदेश में कहा कि रैलियां खत्म होने के बाद रोका जाएगा। अगर बंगाल में इतनी गंभीर स्थिति ही थी तो फिर अपना आदेश एक दिन बाद लागू करवाने का मन आयोग ने क्यों बनाया ये कौन पूछ सकता था भला?

9 अप्रैल 2019 को अमित शाह ने केरल के वायनाड की तुलना पाकिस्तान से कर दी थी। क्या कोई राजनेता किसी से सहमत ना हो तो वो राजनेता भारत के एक हिस्से को ही पाकिस्तान घोषित कर देंगा? ये तो गज़ब है! खैर, किंतु इसके बाद भी चुनाव आयोग उन्हें क्लीन चिट देता है। साध्वी प्रज्ञा की उम्मीदवारी तथा वाराणसी से तेज बहादुर की उम्मीदवारी को लेकर जो कुछ हुआ, हम उसकी बात तो कर ही नहीं रहे। कोई सालों तक चुनाव लड़ता है, अपनी पत्नी की जानकारी नहीं देता, और फिर एकदम से देता है। लेकिन आयोग मान लेता है कि उसने कुछ नहीं छुपाया!!! यह कहकर कि उस उम्मीदवार ने उस कॉलम में हां या ना, कुछ भी नहीं लिखा था!!! कोई हर दफा अपनी शिक्षा के बारे में अलग-अलग जानकारी देता है, लेकिन आयोग को कोई दिक्कत नहीं दिखती!!नियम तो अनेक होते हैं, जब किसीकी उम्मीदवारी अस्वीकृत करनी हो। खैर, किंतु स्वीकृति पर आयोग से पूछने मत जाना, क्योंकि यहां ढेर सारे नियमों को बताकर समझाया जाता है कि नियम नहीं तोड़े गए!

धर्म के नाम पर वोट नहीं मांगे जाएंगे, शहीदों के नाम पर वोट नहीं मांगे जाएंगे, जाति के नाम पर वोट नहीं मांग जाएंगे, आचार संहिता का पालन करना होगा... ये सारे नियम छोटे-मोटे नेता पर लागू होंगे। तभी तो कइयों को, जिनमें भाजपाई नेता भी थे तथा अन्य दलों के भी थे, आयोग ने चेतावनी वाली कार्रवाई की, या किसीको कुछ घंटों के लिए प्रतिबंधित भी किया। लेकिन जब बात मोदी-शाह की आई तो आयोग के हाथ कांपने लगे। शिकायतों की फाइलें बढ़ने लगी। आयोग शांत था। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने आयोग को आदेश दिया तब जाकर आयोग ने फाइलों को खोलना शुरु किया। और फिर तमाम मामलों में एक ही परिणाम – आचार संहिता का उल्लंघन नहीं हुआ है, क्लीन चिट दिया जाता है। नोट यह करे कि मोदी-शाह के संबंधित जितने भी मामले थे, एक भी मामले में पूर्ण बहुमत से फैसला नहीं आया था। तीन में से एक चुनाव आयुक्त ने लगातार पांच मामलों में अपनी असहमति दी!!! कोई आयुक्त पांच बार लगातार विरोध दर्ज करे यह सामान्य बात नहीं थी। इससे पहले भी आयोग पर सवाल उठे थे, जब पीएम रैली कर सके इसलिए आयोग की प्रेस कोन्फरन्स तक टाल दी गई थी!!!

उधर चुनाव आयोग में बग़ावत हो जाती है। बेहद गंभीर मामला था चुनाव आयोग में, लेकिन इससे देश को खतरा नहीं होगा शायद। एक तत्कालीन चुनाव आयुक्त आयोग पर आरोप लगाता है कि यह संस्था नियमों के हिसाब से काम नहीं कर रही है। फिर भी लोकतंत्र खामोश है। तीसरे चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने लिखकर जो कहा, जिस तरह से उनकी असहमतियों को (जो मोदी-शाह के किस्सों में थी) दर्ज तक नहीं किया गया, उनके अनुसार उन्हें मजबूर किया गया कि वो संपूर्ण बैठक में शामिल ना हो!!! यह सारा मसला इतनी आसानी से विपक्ष, मीडिया और सरकार ने नजरअंदाज कर दिया, जैसे कि ये कोई सामान्य सी बात हो। बताइए, अब यहां ऐसी समस्याएँ आम है, तो फिर पीएम का आम खाना ही खास माना जाना चाहिए!

पर्चियों के मिलान को लेकर आयोग समय बर्बादी के मसले पर इतना ही संजीदा था तो फिर चुनाव इतना लंबा करवाने की ज़रूरत ही क्या थी?
उधर, ईवीएम पर उठ रहे संदेहों को दूर करने के लिए आयोग ने 9,000 करोड़ रुपये खर्च कर वीवीपैट मशीनों को ईवीएम से जोड़ा। लेकिन जब उसकी पर्चियाँ ग़िनकर मिलान करने की बात आयी तो उसने समय का हवाला देकर अड़ियल रुख अपना लिया और विपक्षी दलों की माँग को नकार दिया। सुप्रीम कोर्ट ने भी कोई राहत नहीं दी। लेकिन आयोग का जो मूल कर्तव्य है चुनावों को लेकर, उसके अनुसार यह मामला अदालत तक पहुंचना भी नहीं चाहिए था। जब आयोग पारदर्शिता, निष्पक्षता, लोकतंत्र की मूल भावनाएँ आदि को लेकर कई दफा भाषण देता है तो क्या महज पांच दिन का समय बचाने के लिए इतने सारे संगठनों और दलों की बिनती धड्डाम से डस्टबिन में डाली जा सकती है? दिन ही बचाने थे तो फिर जो चुनाव कम दिनों में संपन्न करवाया जा सकता था उसे इतना लंबा क्यों खींच दिया?  

चुनाव आयोग हमारे देश में डेढ़ से दो महीने लंबी चुनाव प्रक्रिया चलाता है और इतने लंबे अरसे तक देश में आचार संहिता लागू रहने के कारण सारे सरकारी कामकाज ठप पड़े रहते हैं। यदि पाँच दिन की मतगणना का समय इतना अहमियत भरा है तो चुनाव प्रक्रिया की डेढ़ से दो महीने की अवधि में कटौती कर क्या देश भर में तीन या चार चरण में मतदान नहीं कराये जा सकते थे?

क्या वीवीपैट केवल चंद सेकेंड का नजारा मतदाता को देने के लिए ही है? इतने सारे राजनीतिक दलों और इतने सारे संगठनों की बिनती को केवल यह तर्क देकर नकारा जा सकता है कि भाई इसमें तो समय बर्बाद होगा? तब तो आयोग महोदय ने इतना लंबा चुनाव आयोजित किया, सब बोल रहे है कि जितना समय लिया आयोग ने, उससे आधे दिनों में लोकसभा चुनाव संपन्न करवाया जा सकता था, लेकिन तब आयोग को समय वाला एंगल नहीं दिखाई दिया। अब ऐसे में सवाल उठे कि आयोग ने सत्ता पक्ष की राजनीतिक सहूलियत के लिए चुनाव को लंबा खींचा और चरण के आयोजन भी वैसे ही किए। अब यही इल्ज़ाम, (चरण के आयोजन वाले) कांग्रेस सत्ता के खिलाफ लगते थे, आज किसी और की सत्ता है तो उनके खिलाफ लगते हैं। गुजरात विधानसभा चुनाव 2017 को लेकर भी आयोग को शक के कटघरे में खड़ा होना पड़ा था। कुल मिलाकर, लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव के नाम पर ऐसी नौटंकियां तंत्र देता रहे और लोग देखते रहे, यही लोकतंत्र का मिजाज रह गया है क्या?

ईवीएम में मतगणना के डाटा में फर्क को लेकर क्यों सवाल उठे? कुछ कहते हैं कि थोड़ा-बहुत फर्क रह जाता है। ये थोड़ा-बहुत क्या है? कायदे से एक का भी फर्क नहीं रहना चाहिए
ऊपर जो तस्वीर है उसमें स्वयं चुनाव आयोग ने ही लिखा है कि हर एक मत बेहद महत्वपूर्ण है। आयोग ने जो लिखा और बाद में डाटा फर्क को लेकर जो सवाल उठे, पूछना तो बनता ही है कि हर मत महत्वपूर्ण है तो फिर ये थोड़ा-बहुत क्या होता है?

चुनाव आयोग पुराने दौर की बैलगाड़ी सरीखा तो है नहीं आजकल। वो आधुनिक हो चुका है, उसके पास लेटेस्ट मशीनें हैं, लेटेस्ट तकनीकें हैं। वोटिंग के लिए ईवीएम है। चुनाव आयोग और तमाम सत्ता दलों के मुताबिक ये तमाम मशीनें आधुनिक और भरोसे के लायक हैं। शक को दूर करने के लिए वीवीपैट है। उसके मिलान को लेकर जो बवाल है उसे हम छोड़ देते हैं। यहां कुछ भी बैलगाड़ी जैसा नहीं है, तमाम चीजें आधुनिक हैं। तो फिर एक-दो नहीं बल्कि करीब करीब 375 सीटों पर मतगणना अंकों में इतना अंतर कैसे हो सकता है? हमारे यहां कंप्यूटराइज्ड हो चुके छोटे व्यापारियों की छोटी दुकानें भी एक पैसे का फर्क नहीं दिखाती, तो फिर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के अंदर चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था, जो इतनी आधुनिक मशीनों से सुसज्ज है, वहां इतना फैर क्यों? कुछ कहते हैं कि थोड़ा-बहुत फर्क रह जाता है। किंतु कायदे से एक का भी फर्क नहीं रहना चाहिए। ये थोड़ा-बहुत क्या होता है? मोदी के इश्कबाज नहीं समझेंगे, जैसे इंदिरा या राजीव के इश्कबाज नहीं समझते थे।

ईवीएम हैक या टेम्पर हो सकता है वाला तर्क दूर दूर कही नहीं है, बस सिम्पल सा तर्क है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव के आंकड़ों में यह थोड़ा-बहुत फर्क क्या होता है? क्या होता है और क्यों होता है? कायदे से होना ही नहीं चाहिए। ये एन्ड्रोइड मोबाइल वाला गेम तो है नहीं कि थोड़ा-बहुत स्वीकार हो। थोड़ा भी नहीं या बहुत भी नहीं। फर्क होना ही क्यों चाहिए? चुनाव आयोग कहता है कि अंतिम आंकड़े आने बाकी थे। अरे भाई... तो फिर अंतिम आंकड़ों का डाटा सार्वजनिक करना चाहिए था। या फिर कायदे से चुनाव आयोग को संसद भवन में जाकर चुनावों से पहले ही घोषणा कर देनी चाहिए थी कि अब देश में मत के आंकड़ों की हमारे ऑफिस में जो अंतिम के आसपास कार्रवाई होती है आयोग में उसे लाइव दिखाया जाएगा। कृपया दर्शक लाइव वाला लोगो देखे। फाइनल आंकड़े आएंगे तो लाइव वाला लोगो हटा दिया जाएगा। यही घोषणा कर देते आयोग महोदय।

ईवीएम को लेकर हैरान करने वाले ख़ुलासे हुए थे, जिसे राष्ट्रवाद के सामने महत्व नहीं दिया जाएगा ये नोट करे। न्यूज़ वेबसाइट द क्विंटने ख़बर दी थी कि देशभर में 373 लोकसभा सीटों पर डाले गए वोट और ईवीएम से ग़िने गए वोटों की संख्या में अंतर है। उसके बाद न्यूज़ वेबसाइट न्यूज़ क्लिक ने ख़बर की कि उत्तर प्रदेश और बिहार की 120 लोकसभा सीटों में 119 सीटों पर डाले गए वोटों की संख्या और ईवीएम की ग़िनती में निकले वोटों की संख्या में अंतर है। नोट करे कि दोनों में से किसी न्यूज़ प्लेटफोर्म पर चुनाव आयोग ने मानहानि का दावा नहीं ठोका है!!! क्योंकि हानि जो होनी थी हो चुकी है, मान वगैरह आयोग के कार्यक्षेत्र से बाहर है। खैर, किंतु इस तरह के ख़ुलासों से पूरी चुनावी प्रक्रिया को लेकर ढेरों सवाल खड़े होते हैं। चुनाव आयोग ईवीएम से निष्पक्ष चुनाव के दावे करता रहा है लेकिन इन आंकड़ों को देखकर उसके दावे बिना पानी के गले के नीचे नहीं उतरते।

न्यूज़ क्लिक ने कुल ग़िने गए वोटों का आंकड़ा चुनाव आयोग से और दोनों राज्यों की प्रत्येक सीट पर कितने मतदाता हैं, इसका आंकड़ा इन राज्यों के निर्वाचन आयोग की वेबसाइट से लिया था। इन सीटों पर कितने फ़ीसदी वोटिंग हुई, यह आंकड़ा चुनाव आयोग की ओर से लाँच किए गए वोटर टर्नआउट ऐप और इन राज्यों के निर्वाचन आयोग की वेबसाइट से लिया गया था। इसमें पोस्टल बैलेट को शामिल नहीं किया गया था।
पटना साहिब की सीट पर नज़र डालें तो यहाँ कुल 21,36,800 मतदाता थे। 19 मई को सातवें चरण में यहाँ 43.1% मतदान हुआ था। इसका मतलब यह कि यहाँ 9,20,961 वोट पड़ने चाहिए थे। लेकिन ईवीएम में जब वोटों की ग़िनती हुई तो ये 9,78,602 निकले। बताइए, इतने आधुनिक और इतने सुरक्षित मशीन का मतदान से चंद घंटों पहले सक्सेसफुल डेमो करने के बाद भी ऐसा कैसे हो सकता है कि ईवीएम में 57,641 ज़्यादा वोटों की ग़िनती हो जाए!!!

इसी तरह की गड़बड़ी कई अन्य लोकसभा सीटों पर भी हुई थी, जहाँ डाले गए वोट और ईवीएम की ग़िनती में निकले वोटों में अंतर रहा। रिपोर्टों के मुताबिक ऐसी सीटों में बिहार की बात करे तो पूर्वी चंपारण (अंतर 15,077 वोटों का), पश्चिमी चंपारण (अंतर 15,368 वोटों का) श्योहार (अंतर 14,424 वोटों का), वाल्मीकि नगर (अंतर 13,803 वोटों का), उजियारपुर (12,742 वोटों का अंतर), मुज़फ़्फ़रपुर (10,335 वोटों का अंतर), समस्तीपुर (13,300 वोटों का अंतर), खगड़िया (11,126 वोटों का अंतर), अररिया (10,624 वोटों का अंतर). सिवान (7,590 वोटों का अंतर) की सीटें भी शामिल थी।

रिपोर्टों के मुताबिक बिहार की 17 अन्य लोकसभा सीटें ऐसी थी जहाँ पर ईवीएम की ग़िनती में 4,000 से लेकर 8,000 वोट ज़्यादा निकले थे। इनमें किशनगंज, झंझारपुर, औरंगाबाद, वैशाली, सीतामढ़ी जैसी सीटें शामिल थी। इन्हीं रिपोर्टों के अनुसार बिहार में 6 लोकसभा सीटें ऐसी थी,  जहाँ पर हज़ारों वोटों को ग़िना ही नहीं गया! इन सीटों पर डाले गए वोट और ईवीएम की ग़िनती में निकले वोटों का अंतर काराकाट में 98,214 वोट, सासाराम में 49,087 वोट, जहानाबाद में 28,338 वोट, पाटलिपुत्र में 19,410 वोट, बक्सर में 16,804 और आरा में 10,027 वोटों का रहा था।

उत्तर प्रदेश की बात करे तो यहाँ की 80 में से 50 सीटों पर भी ऐसी ही स्थिति देखने को मिली, जहां डाले गए वोटों और ईवीएम की ग़िनती से मिले वोटों में अंतर रहा। लखनऊ लोकसभा सीट पर कुल वोटरों की संख्या 20,38,725 थी और राज्य निर्वाचन आयोग की वेबसाइट के मुताबिक़ यहाँ 53.53% मतदान हुआ था। इसका मतलब यह हुआ कि लखनऊ में 10,91,329 वोट पड़ने चाहिए थे। लेकिन जब वोटों की ग़िनती की गई तो यह 15,771 वोट ज़्यादा निकले।

एक सीट मथुरा भी थी। वोटर टर्न आउट ऐप के मुताबिक़ यहाँ कुल 60.48% मतदान हुआ था। जब ईवीएम में मतों की ग़िनती की गई तो 9,883 वोट ईवीएम में ज्यादा थे। इसी तरह उत्तर प्रदेश की सीट बाग़पत में ईवीएम से वोटों की ग़िनती करने पर 6,167 वोट ज़्यादा निकले और बदायूँ में 7,395 वोट ज़्यादा निकले। यहां की मछलीशहर सीट समेत कई सीटें ऐसी थी जहां अंतर चार हज़ार से ज्यादा निकला था। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार फतेहपुर सीकरी सीट उन 80 सीटों में से अकेली सीट थी जहाँ पर सभी आंकड़े एक-दूसरे से मिलते थे।
द क्विंट की खबर के मुताबिक तमिलनाडु के कांचीपुरम (18,331 वोटो का अंतर), धर्मपुरी (17,871 वोटों का अंतर) समेत श्री पेरेम्बुदुर जैसी सीट पर भी भारी अंतर पाया गया था। गुजरात में तमाम सीटों पर जीतनेवाले एक लाख से दो लाख वोटों से जीते। लगभग तमाम पर कांग्रेस दूसरे नंबर पर थी, जिसे लगभग तमाम सीटों पर करीब करीब दूसरे क्रम के साथ करीब करीब एक सरीखे वोट ही मिले। तीसरे नंबर से लेकर आखिरी नंबर तक आनेवाले उम्मीदवारों के वोटों का आंकड़ा भी लगभग लगभग एक सरीखा रहा। यहां भी कुछेक सीटें ऐसी थी, जहां अंतर दर्ज किया गया। दूसरे राज्य भी होंगे इस सूची में, जिसका डाटा नहीं है हमारे पास।

पहले लिखा वैसे, पुराने जमाने में अगर ये होता था तो आज भी क्यों होना चाहिए? कायदे से तो एक का भी अंतर नहीं रहना चाहिए। आधुनिक जमाना है, सब कुछ डिजिटल है, लेटेस्ट तकनीकें है, ताकि जल्द से जल्द और सटीक आंकड़े आए। लेकिन यहां सटीकता अंतरध्यान है!!! मूल सवाल यही है कि एक का भी फर्क जायज नहीं होना चाहिए, ऐसे में इतने ज्यादा फर्क से किसीको कोई फर्क क्यों नहीं पड़ता? कुछ कहेंगे कि किसीको नहीं पड़ता तो आपको (हमें) क्यों पड़ता है? जब किसीको नहीं पड़ता तो हमें क्यों पड़ता है, ऐसे ही लहजे में जवाब आयोग ने दिया था, मनुष्य-भूत वाली बात कहकर, जिसे आगे देखेंगे।

गज़ब... सीट एक, लेकिन एक ही सीट के लिए तीन तरह के आंकड़े !!!
वैसे भारत को, यानी कि ज्यादातर भारतीय नागरिकों को, भारत के मीडिया को, भारत के विपक्ष को, इस तरह की चीजें ज्यादा आहत नहीं करती। तभी तो ऐसी चीजें चलती रहती हैं। बहरहाल जो भी हो, लेकिन बिहार की जहानाबाद की सीट को लेकर तीन अलग तरह के दस्तावेज़ उपलब्ध थे, जिनमें डाले गए वोट और वोटिंग फ़ीसदी में अंतर था। रिपोर्टों के अनुसार, जहानाबाद सीट पर आरजेडी के उम्मीदवार को जो दस्तावेज़ दिए गए थे उनमें इस सीट पर 51.77% मतदान होने की बात कही गई थी, जबकि बिहार के मुख्य चुनाव अधिकारी की वेबसाइट पर यही आंकड़ा 54% का बताया गया था। बात वोटर टर्नआउट एप की करें तो उस पर यह आंकड़ा 53.67% था। जबकि फ़ॉर्म 20 पर वोटिंग का यह आंकड़ा 52.02% है। रिपोर्ट के मुताबिक इस तरह की गड़बड़ियाँ बिहार की अन्य सीटों पर और मध्य प्रदेश में भी सामने आई थी। इसे देखकर तो जीडीपी के आंकड़ों में ऊंचनीच और नोटबंदी के बाद आर्थिक विकास दर के आंकड़ों में गज़ब की विभिन्नता याद आ गई।

एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक जब न्यूज़ क्लिक ने इस तरह की गड़बड़ियों को लेकर ख़बर छापी और चुनाव आयोग की प्रवक्ता शेफाली शरण से बात करने की कोशिश की गई तो शेफाली ने किसी भी कॉल और मैसेज का यह कर जवाब नहीं दिया था कि वह शहर से बाहर है। इस बारे में उठे कई सवालों को मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा और अन्य दो चुनाव आयुक्तों अशोक लवासा और सुशील चंद्रा को उनकी ई-मेल पर भेजा गया लेकिन किसी ने भी इसका जवाब नहीं दिया।

चलिए मान लेते हैं कि ईवीएम हैक या टेम्पर नहीं हो सकते यह परम सत्य है, किंतु बीजेपी से लेकर कांग्रेस समेत तमाम दल मशीन को लेकर चुनाव-दर-चुनाव एक ही टाइप की शिकायतें क्यों करते रहते हैं? दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव में मशीनें वोटिंग से ठीक पहले या वोटिंग के दौरान ही बीमार सी हो जाती हैं... डाटा में अंतर रह जाता है... रिजर्व्ड मशीनें समय पर वापस पहुंचाई नहीं जाती... सड़कों पर या किसीके घर घूमती रहती हैं!!! सबसे बड़े लोकतंत्र का महाउत्सव चल रहा है या एन्ड्राइड का कोई गेम?
सवाल तो ढेरों है। यह किसी मोदी या राहुल या केजरीवाल की राजनीति नहीं, बल्कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव से जुड़े गंभीर मसले हैं। कभी कभी लगता है कि एक ही चुनाव में इतनी सारी समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं और बावजुद इसके चुनाव आयोग डींग भी मार लेता है कि हम लोकसभा और राज्यसभा के चुनाव एकसाथ करवाने के लिए तैयार है। ठीक है कि हमारा आयोग इतना बड़ा उत्सव ढंग से तथा सफलतापूर्वक संपन्न करवा लेता है। लेकिन क्या इसी एक आधार पर दूसरे तमाम मसलों को स्वच्छता अभियान के तहत डस्टबिन में डालना ठीक है?

2019 लोकसभा चुनावों के बाद जो सवाल उठ खड़े हुए उसे लेकर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने कहा, प्रथम दृष्टि में यह एक गंभीर मामला है। अतीत में इस तरह की गड़बड़ी की कोई घटना मेरी जानकारी में नहीं है। जब मैं मुख्य चुनाव आयुक्त था, इस तरह की किसी गड़बड़ी की कोई घटना नहीं हुई थी। ठीक है कि ओपी रावत के बारे में कोई राजनीतिक इश्कबाज कह दे कि रावत तो कांग्रेसी है, भाजपा विरोधी है। मान भी लेते हैं सब। लेकिन किसी भी सवाल के बदले यही जवाब मिले कि ये सरकार विरोधी मानसिकता है, देश विरोधी है वगैरह वगैरह... तब तो फिर विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने ऐसे ही जितने सवाल उठाए थे, ईवीएम हैकिंग पर जो किताब लिखी थी, उन सबके लिए बाकायदा देश से माफी मांगनी चाहिए। सरकारें तो आती रहेगी-जाती रहेगी। कल कोई और था, आज कोई और है, आने वाले समय में कोई और होगा। कभी कभी लगता है कि हमारे यहां सरकारें बदलती है, समस्याएँ कभी नहीं!!!

राजनीतिक इश्कबाज की आत्मा छोड़कर एक नागरिक की आत्मा में कुछ मिनटों के लिए घुसे। सोचिए कि 2014 के पहले का समय हो या 2014 के बाद का, तमाम चुनावों में, चाहे विधानसभा के हो या लोकसभा के, एक ही टाइप की गड़बड़ियां क्यों होती रहती हैं? ईवीएम बिगड़ना हमारे यहां ओल टाईम फूल सीजन सरीखी घटनाएँ हैं। आयोग और तमाम सत्ता दलों के अनुसार हमारे ईवीएम अतिसुरक्षित और अतिआधुनिक है। सोचिए इतने सुरक्षित मशीन चुनाव के दौर में कहां कहां नहीं मिल जाते? कभी किसी कार्यकर्ता के घर, कभी किसी अधिकारी के घर, कभी सड़क पर, कभी किसी मैदान में!!! पता नहीं चल पाता कि घास है या ईवीएम? हर कहीं दिख जाता है यह मशीन! बताइए, अतिसुरक्षित श्रेणी में आता है तब भी यह हाल है, सिर्फ सुरक्षित वाली श्रेणी में आता तो पता नहीं, शायद चुनाव के महीनों बाद आयोग को मिलता!!!

आधुनिक नहीं बल्कि अतिआधुनिक श्रेणी में आता है यह मशीन। फिर भी हर चुनावों में इसे एक ही बीमारी रहती है! यही कि बटन दबाने पर किसी एक ही राजनीतिक दल का पक्ष ले लेती हैं यह मशीनें!!! ऐसे जितने भी वाक़ये हैं, खुद ही गौर कीजिएगा कि यह मशीनें बिगड़ने पर उसीका पक्ष लेती है जिसकी सत्ता हो!!! 100 किस्सों में से चंद ही किस्से मिल जाएंगे जहां विपक्षी की साइड गई हो मशीन। ज्यादातर तो मशीनें उसीकी बत्ती जलाती है जिसके पास फिलहाल लाल बत्ती हो!!! तभी तो अतिआधुनिक श्रेणी में रखा जाता होगा इन्हें!
2014 से पहले का दौर हो या 2014 के बाद का, जितनी भी ऐसी प्रमाणित शिकायतें आई, मशीनें उसीकी बत्ती जलाती रही जिसकी सत्ता होती थी। 2014 के बाद मशीन को लेकर जितनी भी शिकायतें-गड़बडियां वगैरह सामने आई, 2014 से पहले भी ऐसी ही चीजें होती थी। नोट करे कि उस वक्त बीजेपी आवाज उठाती थी, आज कोई दूसरा उठाता है। इन तमाम मसलों पर आयोग का एक ही जवाब होता था – मशीन खराब हो चुकी थी, बदल दी गई है। बताइए, मशीन खराब होती है, लेकिन उसकी आधुनिकता अति है कि वो उसीकी बत्ती जलाती है, जिसकी सत्ता हो!!! आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वाली मशीनें है शायद!

दूसरा सवाल तो पहले ही उठा लिया। एक दृश्य सोच लीजिए। किसी निजी संस्थान को किसी जगह पर अपने कंप्यूटर ले जाकर वहां ट्रेनिंग देनी है। वो अपने कंप्यूटर, दूसरे संसाधन वहां ले जाता है, और कभी उसका कोई मशीन खराब नहीं होता। एक निजी संस्थान यह कर सकता है, लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का इतना बड़ा संस्थान यह नहीं कर सकता! उसके वहां तो एक ही महाभारत होता है। मशीनें बिगड़ गई, मशीन खराब हो गई! कुछ लोग कहते हैं कि भाई इतना बड़ा उत्सव है, हजारों मशीनें हैं तो कुछ तकनीकी कमियां आ जाती हैं। उनके इस बीच-बचाव पर दो ही सिम्पल से सवाल हर दफा कोई न कोई उठा देता है। पहला – खराब मशीनें उसीकी बत्ती क्यों जलाती है जिसकी सत्ता हो? दूसरा – मशीनें खराब होती ही क्यों है? क्या ऐसा होता है कि चुनाव घोषित हुआ, मशीनें गोडाउन से निकाली और सैकड़ों किलोमीटर दूर जनता का पैसा खर्च करके भेज दी? देखा भी नहीं कि मशीनें चल रही है या बंद है? ईवीएम कोई सामान्य मशीनें तो है नहीं। उसका मतदान से ठीक पहले या बीच मतदान में खराब हो जाना, यह चीज़ भी एकाध बार नहीं होती। यह सब हर चुनाव का महाभारत है। पता नहीं चलता कि लोकतंत्र का महाउत्सव चल रहा है या एन्ड्राइड पर कोई गेम?

2014 से पहले और 2014 के बाद का अध्ययन कर लीजिएगा, समस्याएँ वहीं की वहीं हैं, बस सवाल उठानेवाले बदलते रहते हैं। जो सत्ता में हो उसकी बत्ती जलना आयोग के मुताबिक इत्तेफाक है। इत्तेफाफ भी अतिआधुनिक वाली श्रेणी में आता होगा शायद! उपरांत मतदान से ठीक पहले या मतदान के दौरान मशीनों का बीमार हो जाना, यह भी इत्तेफाक ही होगा!। या फिर इत्तेफाक का दूसरा भाई होगा!!!

आयोग का जवाब किसी वाट्सएपिया यूजर सरीखा था। आयोग ने कहा मनुष्यों ने ही वोट डाले थे, ना कि भूतों ने
विपक्ष तो सवाल पूछ नहीं रहा था। कुछ स्वंत्रत जगहों से सवाल उठे तो दिनों तक आयोग चुप रहा। जब जवाब दिया तब जवाब भी काबिल-ए-तारिफ था। आयोग ने कहा – 2019 लोकसभा चुनावों में मनुष्यों ने ही वोट डाले थे, भूतों ने नहीं। ऐसे उत्तर तो भक्त प्रजाति के लोग वाट्सएप पर दिया करते हैं। आयोग के योग शायद गर्म मिजाज के होंगे। लगा कि आयोग को गुस्सा आ गया कि कौन होते हैं जो हमसे सवाल पूछे।

द क्विंट ने यह मुद्दा उठाया और ख़बर की तो उसके बाद चुनाव आयोग ने अपनी वेबसाइट से इन आँकड़ों को हटा लिया। वेबसाइट ने 373 सीटों पर पाई गई इन अनियमितताओं के बारे में चुनाव आयोग को ई-मेल भेजा, आयोग से किसी अफ़सर ने फ़ोन पर बात की और कहा कि जल्द ही इस मामले में पूरी जानकारी दे दी जाएगी। लेकिन उसी दिन शाम को आयोग के वेबसाइट पर चल रहा टिकर हटा लिया गया और जानकारी भी हटा दी गई!!! बाद में आयोग ने ई-मेल कर जवाब दिया और कहा कि ये आंकड़े तात्कालिक हैं और बाद में इनमें सुधार किया जाएगा!!!

चुनाव आयोग का कहना था कि वह अभी भी आँकड़ों को इकट्ठा ही कर रहे हैं। आयोग के मुताबिक़ हर बूथ पर तैनात प्रीसाइडिंग अफ़सर हर दो घंटों पर अपने वरिष्ठ को जानकारी देते रहता है कि कितने वोट पड़े। आयोग के पास आधुनिक से आधुनिक तकनीकें हैं। उपरांत आयोग को कोई दूसरा काम नहीं करना होता, उसे चुनाव संबंधित ही काम करना होता है। ऐसा नहीं है कि किसी मंत्री की तरह उसे एक-साथ चार-पांच अलग अलग मंत्रालयों के काम दिए गए हो। आयोग को तो यही एक काम करना होता है। उसके लिए आयोग के पास तमाम संसाधन है, तमाम तकनीकें हैं, पूरा का पूरा ढांचा है जो सालों पुराना है, अनुभव है, हजारों का स्टाफ है। फिर आयोग को आँकड़े एकत्रित करने में इतना समय क्यों लग रहा होगा, यह सवाल तो है ही। लेकिन मूल सवाल यह है कि इतने समय के बाद भी आंकड़ों में इतना ऊंच-नीच क्यों है?

मनुष्य और भूत योनि का जाप जपने के बाद आयोग ने कहा कि उसके वेबसाइट पर डाले गए मतदान प्रतिशत के आंकड़े प्रोविजनल थे और इन्हें बदला जाना था। आयोग ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि उसके वेबसाइट पर मतदान का जो प्रोविजनल डाटा दिया गया वह फ़ाइनल डाटा नहीं था। प्रोविजनल और फाइनल। अरे भाई... चुनाव आयोग को संसद भवन में जाकर चुनावों से पहले ही घोषणा कर देनी चाहिए थी कि अब देश में मत के आंकड़ों की जो गणना होती है उसमें हमारे ऑफिस की जो अंदरूनी प्रक्रिया होती है उसे लाइव दिखाया जाएगा। कृपया दर्शक लाइव वाला लोगो देखे। फाइनल आंकड़े आएंगे तो लाइव वाला लोगो हटा दिया जाएगा। यही घोषणा कर देते आयोग महोदय। करीब करीब 373 सीटों पर अंतर रह जाए और आप आयोग से सवाल पूछे इससे पहले भूतों से पूछ ले!!! पता कर ले कि मनुष्यों ने वोट डाला था या भूतों ने? आयोग को अपना एक टेगलाइन रख लेना चाहिए – न भूतो न भविष्यति!!!

चलिए मान लेते हैं कि मीडिया तो सदैव आदर्श गुलाम बने रहना पसंद करता है, लेकिन विपक्षों की खामोशी ने सारे मामले को अंडरग्राउंड गटर में डाल दिया
गैर-कानूनी चुनावी प्रचार रथ, रथ का आरटीओ में रजिस्ट्रेशन होना या नहीं होना, कानूनों और नियमों को तोड़ने वाली बाइक रैलियां, बिना इजाज़त के या फिर इजाज़त लेकर नियमों को तोड़ते हुए चुनावी समारंभ और रैलियां, आचार संहिता के चीथड़े उड़ाते भाषण...। आयोग में योग है, लेकिन बिना योग के कोई आयोग नहीं हो सकता क्या? नोट करे कि बात ईवीएम हैकिंग या टेम्परिंग की नहीं है। कतई नहीं है और दूर दूर तक नहीं है। बात डाटा में अंतर की है। लोकसभा चुनाव में डाले गए वोट और गिने गए वोट, इनमें अंतर रह जाए या फिर मतदान के प्रतिशत सभी जगहों पर अलग अलग बताए जाए, तो फिर ये असामान्य सी चीज़ होनी चाहिए। चलिए मान लेते हैं कि मीडिया तो सदैव आदर्श गुलाम बने रहना पसंद करता है इसलिए वो सास-बहू या छुपे हुए खजाने का रहस्य ढूंढने निकल पड़ेगा। लेकिन विपक्ष, खास करके इतने सारे दलों का समूह, जो विपक्ष है, वो भी चुप रहे, कोई शिकायत ना हो, कोई बात ना हो, कोई बिनती ना हो, तो फिर पूरा का पूरा मामला अंडरग्राउंड गटर में ही चला जाता है। चुनाव आयोग क्यों कोई जवाब देगा, जब सवाल ही ढंग से उठ ना पाए। जिन्हें सवाल उठाने चाहिए उनके मुंह में ही बर्फ की सिल्लियां जमी हुई हो तो फिर मसले को लेकर यहीं मान लिया जाएगा कि मसला था ही नहीं। और हुआ भी यहीं।

(इंडिया इनसाइड, एम वाला)