"सदर अयूब ने कहा था कि वो दिल्ली तक चहलक़दमी करते हुए पहुंच जाएँगे। वो इतने बड़े
आदमी हैं। लहीम शहीम हैं। मैंने सोचा कि उन्हें दिल्ली तक चलने की तकलीफ़ क्यों दी
जाए। हम ही लाहौर की तरफ़ बढ़ कर उनका इस्तक़बाल करें।" - यह उस शख्स का दिल्ली
के रामलीला मैदान से जनता को संबोधन था, जिसके बाद तालियों की गूंज रुकने का नाम नहीं ले रही थी।
वे कद में छोटे थे, लेकिन पाकिस्तान को अपने विराट कारनामे का अहसास ज़रूर दिला गए। जिनका बतौर भारत
के प्रधानमंत्री कार्यकाल बहुत छोटा रहा, किंतु इतिहास में एक अमिट कालखंड के रूप में दर्ज है। ऐसे राजनेता
जिनकी सादगी, ईमानदारी और निष्ठा की आज भी मिसाल दी जाती है। एक ऐसे प्रधानमंत्री, जिनकी एक आवाज़ पर
लाखों भारतीयों ने एक वक़्त का खाना तक छोड़ दिया था। भारत के इकलौते ऐसे प्रधानमंत्री, जिनकी मौत आज भी रहस्य है।
'जय जवान जय किसान' का नारा देने वाले शास्त्रीजी ने भारत के
दूसरे प्रधानमंत्री के रूप में 9 जून 1964 से 11 जनवरी 1966 को अपनी मृत्यु तक लगभग अठारह महीने देश की सेवा की। इसी कार्यकाल के दौरान सन
1965 में भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध के दौरान इन्होंने सफलतापूर्वक देश का नेतृत्व
किया। शास्त्रीजी हरित क्रांति और श्वेत क्रांति के साधक थे।
संक्षिप्त जीवनी और
शिक्षा
लाल बहादुर शारदा प्रसाद
शास्त्री (श्रीवास्तव) का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी के पास छोटे से रेलवे टाउन, मुगलसराय में हुआ था। इनके पिता प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक
थे, अत: सब उन्हें मुंशीजी ही कहा करते थे। बाद में उन्होंने राजस्व
विभाग में क्लर्क की नौकरी की। इनकी माता का नाम रामदुलारी देवी था।
वे परिवार में सबसे
छोटे थे, इस वजह से सब इन्हें नन्हे के नाम से पुकारते
थे। जब नन्हें केवल डेढ़ वर्ष के थे तभी इनके पिता का देहांत हो गया। इनकी माँ को इन्हें
साथ लेकर अपने पिता के घर, मिर्ज़ापुर जाना पड़ा। ननिहाल में रहते हुए
इन्होंने प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की। फिर इनकी शिक्षा हरिश्चंद्र हाईस्कूल तथा काशी
विद्यापीठ में हुई। काशी विद्यापीठ से 'शास्त्री' की उपाधि मिलने के बाद इन्होंने जन्म से चला
आ रहा जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हमेशा के लिए हटा दिया और फिर वे सदैव के लिए शास्त्री
नाम से ही जाने गए। 1928 में इनकी शादी मिर्ज़ापुर निवासी गणेश प्रसाद की पुत्री ललिता देवी से हुई।
स्वतंत्रता आंदोलन
में योगदान
भारत के स्वतंत्रता
आंदोलन में इन्होंने सक्रीय रूप से अपना योगदान दिया। अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात
वे भारत सेवक संघ से जुड़ गए और देशसेवा का व्रत धारण कर लिया। शास्त्रीजी आजीवन गाँधीवाद
के काफ़ी करीब रहे और अपना पूरा जीवन सादगी से बिताया। स्वतंत्रता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण
कार्यक्रमों व आंदोलनों में इनकी सक्रिय भागीदारी रही और परिणामस्वरूप इन्हें कई बार
जेल में भी रहना पड़ा। इन्होंने 1921 का असहयोग आंदोलन, 1930 का दांडी मार्च तथा 1942 का भारत छोड़ो आंदोलनों में उल्लेखनीय योगदान दिया। भारत सरकार के वेबसाइट के
मुताबिक़ वे कुल सात वर्षों तक ब्रिटिश जेलों में रहे।
सादगी, ईमानदारी और निष्ठा की वो मिसाल, जो जीवनपर्यंत नहीं बदली
स्वतंत्रता आंदोलन
के दौर में एक बार जब इनकी पत्नी ने कहा कि महीने में जो 50 रुपये मिलते हैं, उसमें से 40 रुपये से ख़र्चा चल जाता है और बाकी के 10 रुपये वो बचाकर रखती हैं, तो इन्होंने सेनानी संगठन से तत्काल कहा कि
अब से उनके घर में 40 रुपये ही भेजे जाए!
दरअसल, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लाला लाजपतराय ने सर्वेंट्स ऑफ़
इंडिया सोसाइटी की स्थापना की थी, जिसका उद्देश्य ग़रीब पृष्ठभूमि से आने वाले
स्वतंत्रता सेनानियों को आर्थिक सहायता प्रदान करवाना था। आर्थिक सहायता पाने वालों
में लाल बहादुर शास्त्री भी थे।
इनको घर का ख़र्चा
चलाने के लिए सोसाइटी की तरफ़ से 50 रुपये प्रति माह दिए जाते थे। एक बार इन्होंने जेल से अपनी पत्नी ललिता को पत्र
लिखकर पूछा, "क्या उन्हें ये 50 रुपये समय से मिल रहे हैं और क्या ये घर का ख़र्च चलाने के लिए पर्याप्त हैं?"
ललिता शास्त्री ने
जवाब में लिखा, "ये राशि उनके लिए काफ़ी है। वो तो सिर्फ़ 40 रुपये ख़र्च कर रही हैं और हर महीने 10 रुपये बचा रही हैं।"
लाल बहादुर शास्त्री
ने तुरंत सर्वेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी को पत्र लिखकर कहा, "उनके परिवार का गुज़ारा 40 रुपये में हो जा रहा है, इसलिए उनकी आर्थिक सहायता घटाकर 40 रुपये कर दी जाए और
बाकी के 10 रुपये किसी और ज़रूरतमंद को दे दिए जाएँ।"
स्वतंत्रता के पश्चात
राजनीतिक जीवन
स्वतंत्रता के पश्चात
इन्हें उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। गोविंद बल्लभ
पंत के मंत्रिमंडल में इन्हें पुलिस एवं परिवहन मंत्रालय सौंपा गया। परिवहन मंत्री
के कार्यकाल के दौरान इन्होंने प्रथम बार महिला कंडक्टर्स की नियुक्ति की थी। इन्होंने
भीड़ को नियंत्रण में रखने के लिए लाठी की जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारंभ कराया।
1951 में वे अखिल भारत काँग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किए गए थे।
बाद में इन्होंने केंद्रीय
मंत्रिमंडल के कई विभागों का प्रभार संभाला। इन्होंने बतौर रेल मंत्री, परिवहन एवं संचार मंत्री, वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री, गृह मंत्री एवं नेहरूजी की बीमारी के दौरान
बिना विभाग के मंत्री के रूप में भी काम किया। शास्त्रीजी गाँधीजी की राजनीतिक शिक्षा
को ग्रहण करते हुए आजीवन विनम्र किंतु साहसी और दृढ़ स्वभाव के साथ देश की सेवा करते
रहे।
रेल दुर्घटना और ज़िम्मेदारी
लेते हुए शास्त्रीजी का पद से इस्तीफ़ा
सन 1956 में एक रेल दुर्घटना, जिसमें कई लोग मारे गए थे, के लिए स्वयं को ज़िम्मेदार मानते हुए इन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे
दिया था। देश एवं संसद ने इनके इस अभूतपूर्व पहल को काफ़ी सराहा।
दरअसल, शास्त्रीजी ने एक बार नहीं किंतु दो बार इस्तीफ़ा दिया था। अगस्त
1956 में आंध्र प्रदेश में एक बड़ा रेल हादसा हुआ। 112 लोग मारे गए। नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए शास्त्रीजी ने रेल
मंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया। हालाँकि प्रधानमंत्री नेहरू ने इस्तीफ़े को अस्वीकार
किया और शास्त्रीजी को मना लिया। कुछ ही महीने गुजरे थे कि 23 नवंबर 1956 के दिन एक और रेल
हादसा हो गया। तमिलनाडु में थूथुकुडी एक्सप्रेस ट्रेन के साथ हुए इस हादसे में 144 लोग मारे गए। 25 नवंबर के दिन शास्त्रीजी
ने इस्तीफ़े साथ प्रधानमंत्री नेहरू को एक चिठ्ठी लिखी। मान मनौवल के बाद 7 दिसंबर के दिन संवैधानिक
नैतिकता के आधार पर नेहरू ने इनका इस्तीफ़ा स्वीकार किया।
भारत के दूसरे प्रधानमंत्री
के रूप में नियुक्ति
27 मई 1964 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद अब देश की बागडोर किसे
सौंपी जाए, यह यक्षप्रश्न देश के सामने था। उसी दिन कार्यकारी
प्रधानमंत्री के रूप में यह दायित्व वरिष्ठ नेता गुलज़ारी लाल नंदा को सौंपा गया। तत्पश्चात
9 जून 1964 के दिन लालबहादुर
शास्त्री को विधिवत नेता निर्वाचित कर प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई और वे भारत
के दूसरे प्रधानमंत्री बने।
इन्होंने अपने प्रथम
संवाददाता सम्मेलन में कहा था, "मेरी शीर्ष प्राथमिकता खाद्यान्न मूल्यों को बढ़ने से रोकना है।" और वे ऐसा
करने में सफल भी रहे। इनकी कार्यशैली पूर्णत: व्यावहारिक और जनता की आवश्यकताओं के
अनुरूप थी।
हरित क्रांति और श्वेत
क्रांति के साधक रहे शास्त्रीजी
यूँ तो श्वेत क्रांति
(Operation Flood/White Revolution) का शुभारंभ सन् 1970 से हुआ। किंतु इस दिशा में पहला ठोस कदम इन्हीं के कार्यकाल में उठाया गया था।
जब 1964 में प्रधानमंत्री शास्त्रीजी पशुओं के चारे की एक फ़ैक्ट्री का उद्घाटन करने के
लिए आणंद पहुंचे, तो इन्हें महसूस हुआ कि आणंद मॉडल को पूरे
भारत में अपनाया जा सकता है। इस तरह एक आंदोलन की शुरुआत हुई। शास्त्रीजी ने 1965 में राष्ट्रीय डेयरी
विकास बोर्ड की शुरुआत की और कुरियन को उसका प्रमुख बनाया। और फिर पाँच साल बाद श्वेत
क्रांति का शुभारंभ हुआ।
हरित क्रांति (Green Revolution) में भी शास्त्रीजी ने अपना योगदान दिया। भारत-पाक युद्ध के बीच अमेरिका की धमकी
और फिर स्वाभिमानी शास्त्रीजी का देश को आह्वान, शास्त्रीजी ने देश को अनाज संकट से उबारने के लिए ठोस कदम उठाए। दुग्ध उत्पादन
और खेती-किसानी पर पहले से काम हो रहा था और इसे शास्त्रीजी ने प्राथमिकता देते हुए
आगे बढ़ाया। खाने लायक अनाज की कमी की समस्या सुलझाने के लिए इन्होंने ठोस काम किए।
किसानों में जोश भरने के लिए इस प्रधानमंत्री ने ख़ुद खेत में हल चलाया!
प्रधानमंत्री होते
हुए भी स्कूल के नियम और पिता का फर्ज सादगी से निभाने वाले शास्त्रीजी
साल 1964 में जब शास्त्रीजी
प्रधानमंत्री बने तब इनके बेटे अनिल शास्त्री दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल में पढ़
रहे थे। उस ज़माने में पैरेंट्स-टीचर मीटिंग नहीं हुआ करती थी, बल्कि अभिभावकों को छात्र का रिपोर्ट कार्ड लेने के लिए बुलाया
जाता था।
एक दिन प्रधानमंत्री
शास्त्रीजी अपने बेटे का रिपोर्ट कार्ड लेने उनके स्कूल पहुंच गए। स्कूल पहुंचने पर
वो स्कूल के गेट पर ही उतर गए। सिक्योरिटी गार्ड ने इनसे आग्रह कर कहा कि वो कार को
स्कूल के परिसर में ले आएँ, लेकिन इन्होंने मना कर दिया।
अनिल याद करते हुए
बीबीसी को बताते हैं, "मेरी कक्षा 11 बी पहले माले पर थी। वो ख़ुद चलकर मेरी कक्षा में गए। मेरे क्लास टीचर रेवेरेंड
टाइनन इन्हें वहाँ देखकर हतप्रभ रह गए और बोले सर आपको रिपोर्ट कार्ड लेने यहाँ आने
की ज़रूरत नहीं थी। आप किसी को भी भेज देते। बाबूजी का जवाब था कि मैं वही कर रहा हूँ
जो मैं पिछले कई सालों से करता आया हूँ और आगे भी करता रहूँगा।"
रेवेनेंड टाइनन ने
कहा, "लेकिन अब आप भारत के प्रधानमंत्री हैं।" शास्त्री जी मुस्कराए और बोले, "ब्रदर टाइनन मैं प्रधानमंत्री
बनने के बाद भी नहीं बदला, लेकिन लगता है आप बदल गए हैं।"
जब अमेरिकी राष्ट्रपति
का न्योता ठुकराया
आज भारत सैन्य बल, शिक्षा, अर्थतंत्र, सभी मामलों में उस समय से बेहतर है। किंतु इस बेहतर भारत के राजनेता पहले से ज़्यादा
कमजोर दिखते हैं। शास्त्रीजी की निष्ठा और स्वाभिमान वाला यह घटनाक्रम इस चीज़ को पुष्ट
कर देता है।
दरअसल प्रधानमंत्री
शास्त्रीजी को काहिरा दौरे पर जाना था। काहिरा जाने से पहले अमेरिकी राजदूत चेस्टर
बोल्स ने इनसे मिलकर अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन का अमेरिका आने का न्योता दिया।
लेकिन इससे पहले कि शास्त्रीजी इस बारे में कोई फ़ैसला ले पाते, जॉनसन ने अपना न्योता वापस ले लिया था।
कहते हैं कि इसका कारण
फ़ील्ड मार्शल अयूब का अमेरिका पर दबाव था। अयूब का कहना था कि ऐसे समय जब वो भारत
के साथ नए समीकरण बनाने की कोशिश कर रहे हैं, अमेरिका को तस्वीर में नहीं आना चाहिए।
वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप
नैयर लिखते हैं कि शास्त्रीजी ने इस बेइज़्ज़ती के लिए जॉनसन को कभी माफ़ नहीं किया।
समय बदला और शास्त्रीजी के पास भारत के स्वाभिमान को प्रदर्शित करने का मौका आया। दरअसल, कुछ महीनों बाद जब शास्त्रीजी कनाडा जा रहे थे तो जॉनसन ने इन्हें
बीच में वॉशिंगटन में रुकने का न्योता दिया। शास्त्रीजी ने इस न्योते को अस्वीकार कर
दिया।
रूसी प्रधानमंत्री
ने शास्त्रीजी को बताया 'सुपर कम्युनिस्ट'
जब लालबहादुर शास्त्री
ताशकंद सम्मेलन में भाग लेने रूस गए तो वो अपना खादी का ऊनी कोट पहन कर गए थे। रूस
के प्रधानमंत्री एलेक्सी कोसिगिन फ़ौरन ताड़ गए कि इस कोट से ताशकंद की सर्दी का मुक़ाबला
नहीं हो सकेगा। अगले दिन उन्होंने शास्त्रीजी को ये सोच कर एक ओवरकोट भेंट किया कि
वो इसे ताशकंद की सर्दी में पहनेंगे।
अनिल शास्त्री बताते
हैं, "अगले दिन कोसिगिन ने देखा कि शास्त्रीजी फिर वही पुराना खादी का कोट पहने हुए हैं।
उन्होंने बहुत झिझकते हुए शास्त्री से पूछा कि क्या आपको वो कोट पसंद नहीं आया?"
शास्त्रीजी ने जवाब दिया, "वो कोट वाकई बहुत गर्म है, लेकिन मैंने उसे अपने दल के एक सदस्य को कुछ दिनों के
लिए पहनने के लिए दे दिया है। क्योंकि वो अपने साथ इस मौसम में पहनने के लिए कोट नहीं
ला पाया है।"
कोसिगिन ने भारतीय
प्रधानमंत्री और पाकिस्तानी राष्ट्रपति के सम्मान में आयोजित किए गए सांस्कृतिक समारोह
में इस घटना का ज़िक्र करते हुए कहा कि, "हम लोग तो कम्युनिस्ट हैं लेकिन प्रधानमंत्री शास्त्री 'सुपर कम्युनिस्ट' हैं।"
बेटे ने सरकारी कार
इस्तेमाल की तो शास्त्रीजी ने किलोमीटर के हिसाब से सरकारी तिजोरी में किराया जमा करा
दिया
सादगी, ईमानदारी और निष्ठा की ऐसी मिसाल के चलते ही वे स्वतंत्र भारत
के दुर्लभ राजनेता हैं। लाल बहादुर शास्त्री के दूसरे बेटे सुनील शास्त्री एक घटना
बीबीसी को बताते हैं।
वो याद करते हैं, "जब शास्त्रीजी प्रधानमंत्री बने तो उनके इस्तेमाल के लिए इन्हें एक सरकारी शेवरोले
इंपाला कार दी गई। एक दिन मैंने बाबूजी के निजी सचिव से कहा कि वो ड्राइवर को इंपाला
के साथ घर भेज दें। हमने ड्राइवर से कार की चाबी ली और दोस्तों के साथ ड्राइव पर निकल
गए।"
सुनील आगे बताते हैं
कि वे देर रात घर लौटे और घर के पीछे के रास्ते से दाखिल होकर अपने कमरे में सो गए।
अगले दिन सुबह उनके कमरे के दरवाजे पर दस्तक हुई। वे बाहर आए तो सामने शास्त्रीजी खड़े
थे। चाय पीते समय उनकी माँ ने कल रात के बारे में पूछा। सुनिल को सच बताना पड़ा।
सुनिल कहते हैं, "उन्होंने (शास्त्रीजी ने) मुझसे कार के ड्राइवर को बुलाने के लिए कहा। उन्होंने
उससे पूछा क्या आप अपनी कार में कोई लॉग बुक रखते हैं? जब उसने हाँ में जवाब दिया तो पूछा कि कल इंपाला कार कुल कितने
किलोमीटर चली है? जब ड्राइवर ने कहा कि 14 किलोमीटर, तो उन्होंने कहा कि इसे निजी इस्तेमाल की
मद में लिखा जाए और अम्मा को निर्देश दिया कि प्रति किलोमीटर के हिसाब से 14 किलोमीटर के लिए जितना
पैसा बनता है, उनके निजी सचिव को दे दें, ताकि उसे सरकारी
खाते में जमा कराया जा सके।"
सुनिल कहते हैं कि
उसके बाद घर के किसी भी सदस्य ने कभी भी निजी काम के लिए सरकारी कार का उपयोग नहीं
किया।
भारत-पाकिस्तान युद्ध, छोटे कद के शास्त्रीजी ने युद्धकाल में पाकिस्तान को अपने विराट
कद का परिचय करा दिया, दुनिया ने देखा पैटन टैंकों का सबसे बड़ा कब्रगाह
इनके शासनकाल में 1965 में भारत और पाकिस्तान
के बीच युद्ध हुआ। युद्ध से पहले शास्त्रीजी के छोटे कद का मजाक उड़ाने वाले पाकिस्तान
को इनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और साहसी स्वभाव का सामना करना पड़ा। हालात यह बने कि लाहौर
की गलियों में भारतीय सेना घूम रही थी। इसकी कल्पना पाकिस्तान ने सपने में भी नहीं
की थी।
युद्ध के दौरान प्रधानमंत्री
शास्त्रीजी को एक फ़ैसला लेना था। दरअसल, भारत के पश्चिमी कमान के सेना प्रमुख ने तत्कालीन
सेनाध्यक्ष जनरल चौधरी को भारत-पाक पंजाब सीमा पर एक नया फ्रंट खोलने का प्रस्ताव दिया
था। हालाँकि, सेनाध्यक्ष ने इसे तुरंत ख़ारिज कर दिया।
किंतु दूसरी तरफ़ शास्त्रीजी इस प्रस्ताव से सहमत हुए।
सीपी श्रीवास्तव (शास्त्रीजी
के निजी सचिव) की किताब 'ए लाइफ़ ऑफ़ ट्रूथ इन पॉलिटिक्स' के मुताबिक, शास्त्रीजी आधी रात को अपने आवास के कमरे में चहलक़दमी कर रहे
थे। और फिर इन्होंने फ़ैसला ले लिया। इन्होंने सेनाध्यक्ष के फ़ैसले को काटते हुए उस
प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। शास्त्रीजी ने सेना को अंतरराष्ट्रीय सीमा पार करने का
आदेश दे दिया। और फिर भारत ने अंतरराष्ट्रीय सीमा को पार करते हुए पश्चिमी मोर्चे पर
हमला करने की शुरुआत कर दी। उसके बाद युद्ध में घटनाक्रम तेजी से बदलने लगा।
पश्चिमी कमान के प्रमुख
जनरल हरबख़्श सिंह ने लिखा, "युद्ध का सबसे बड़ा फ़ैसला (लाहौर की तरफ़ बढ़ना), सबसे छोटे कद के शख़्स ने लिया।"
स्वतंत्रता के बाद
ये पहला मौका था, जब दोनों देशों की वायुसेना युद्ध में शामिल
हुईं। हालाँकि इस युद्ध में थलसेना का इस्तेमाल अधिक हुआ था। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद
यह पहला सबसे बड़ा टैंक युद्ध था। यह वह युद्ध था जिसके बाद दुनिया ने पैटन टैंकों
का सबसे बड़ा कब्रगाह देखा। भारत की सेना ने पाकिस्तान के पैटन टैंक, जो अमेरिका द्वारा मुहैया कराए गए थें, का ऐसा हाल कर दिया कि उसके बाद अमेरिका को अपने पैटन टैंकों
की समीक्षा तक करनी पड़ी!
इसी युद्ध के शुरुआती
समय में 20 सितंबर 1965 के दिन गुजरात के तत्कालीन मुख़्यमंत्री बलवंतराय मेहता के नागरिकी विमान को पाकिस्तानी
सेना ने नष्ट कर दिया था, जिसमें मेहता और अन्य लोग मारे गए थे।
युद्ध के बीच अमेरिका
की धमकी और उसके सामने शास्त्रीजी की हुँकार, जब अपने प्रधानमंत्री की एक आवाज़ पर देश के लोगों ने एक वक्त
का खाना तक छोड़ दिया था
यह वह घटनाक्रम था, जिसके बाद 'जय जवान जय किसान' का नारा गूँज उठा।
दरअसल, युद्ध के दौरान अमेरिका ने भारत को लाल गेहूँ
न भेजने की धमकी दी तो शास्त्रीजी ने दूसरे दिन देशवासियों को अन्न संकट से उबरने के
लिए सप्ताह में एक दिन का व्रत रखने की अपील की। इनकी अपील पर देशवासियों ने सोमवार
को व्रत रखना शुरू कर दिया था।
लाल बहादुर शास्त्री
के बेटे अनिल शास्त्री बीबीसी को बताते हैं, "1965 की लड़ाई के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने शास्त्रीजी को धमकी दी थी
कि अगर आपने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ लड़ाई बंद नहीं की तो हम आपको पीएल 480 के तहत जो लाल गेहूँ
भेजते हैं, उसे बंद कर देंगे।"
उस समय भारत गेहूँ
के उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं था। स्वाभिमानी शास्त्रीजी को ये बात बहुत चुभी। शास्त्रीजी
कमरे में चहलक़दमी करने लगे। लाजमी है कि कोई फ़ैसला होने वाला था। शास्त्रीजी ने फ़ैसला
ले लिया था और वे उस फ़ैसले को अपने घर से ही लागू करने जा रहे थे।
अनिल शास्त्री बताते
हैं, "उन्होंने मेरी माँ ललिता शास्त्री से कहा कि क्या आप ऐसा कर सकती हैं कि आज शाम
हमारे यहाँ खाना न बने। मैं कल देशवासियों से एक वक्त का खाना न खाने की अपील करने
जा रहा हूँ।"
"मैं देखना चाहता हूँ कि मेरे बच्चे भूखे रह सकते हैं या नहीं। जब उन्होंने देख
लिया कि हम लोग एक वक्त बिना खाने के रह सकते हैं तो उन्होंने देशवासियों से भी ऐसा
करने के लिए कहा।"
और फिर दूसरे दिन शास्त्रीजी
ने देशवासियों से अपील करते हुए कहा कि हम हफ़्ते में एक वक्त भोजन नहीं करेंगे, उसकी वजह से अमेरिका से आने वाले गेहूँ की आपूर्ति हो जाएगी।
अपने प्रधानमंत्री की एक आवाज़ पर पूरा भारत उनके साथ खड़ा हो गया। शास्त्रीजी ने देश
को 'जय जवान जय किसान' का नारा दिया। देश के हजारों-लाखों लोगों ने, अनेक परिवारों ने इस स्वाभिमान यज्ञ में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया।
घबराए पाकिस्तान ने
अमेरिका और रूस का दामन थामा, ताशकंद समझौता और शास्त्रीजी की असामयिक मृत्यु
भारतीय सेना पाकिस्तान
के भीतर तक पहुंच चुकी थी। वहाँ की गलियों में भारतीय सैनिक टहल रहे थे! आख़िरकार घबराए पाकिस्तान ने अमेरिका और रूस का दामन थामा और अंतरराष्ट्रीय दबाव
के बाद रूस के ताशकंद में शास्त्रीजी और पाकिस्तान के सैनिक शासक अयूब के बीच बैठक
हुई।
बैठक का दौर कई दिनों
तक चला। शास्त्रीजी आखिर तक जिद पर अड़े रहे कि भारत को तमाम शर्तें मंजूर हैं, परंतु जीती हुई ज़मीन पाकिस्तान को लौटाना भारत स्वीकार नहीं
करेगा। काफ़ी मान मनौवल, मशक्कत और अंतरराष्ट्रीय दबाव के बाद भारत
ने जीती हुई ज़मीन लौटाना स्वीकार किया। पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान के साथ
युद्धविराम के समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घंटे बाद, 11 जनवरी 1966 की रात को शास्त्रीजी की मृत्यु हो गई। मृत्यु का कारण हृदयाघात बताया गया।
शास्त्रीजी की मृत्यु, पूरा घटनाक्रम तथा अनेक दूसरे अनसुलझे सवालों की वजह से आज भी
इनकी मृत्यु संदिग्ध बनी हुई है। इनकी मौत के बारे में उठ रहे सवालों को लेकर समितियाँ
बनीं, रिपोर्ट भी पेश किए गए होंगे, फाइलें बनी, किंतु तमाम जानकारियाँ सार्वजनिक नहीं की
गई है।
रूस के प्रधानमंत्री
कोसीजिन ने अपने देश से भारत के इस महान सपूत को कंधा देकर विदा किया और इनके अंतिम
संस्कार में सम्मिलित हुए। शास्त्रीजी की अन्त्येष्टि पूरे राजकीय सम्मान के साथ यमुना
किनारे की गई और उस जगह को 'विजय घाट' नाम दिया गया। इसी साल इन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया। वे पहले व्यक्ति
हैं, जिन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित
किया गया हो।
"शास्त्रीजी की मौत के समय उनकी ज़िंदगी की क़िताब पूरी तरह से साफ़ थी। न तो वो
पैसा छोड़ कर गए थे, न ही कोई घर या ज़मीन।"
शास्त्रीजी के देहांत
के बाद जब कुलदीप नैयर दिल्ली वापस लौटे तो कांग्रेस अध्यक्ष कामराज ने उनसे पूछा कि
शास्त्रीजी के परिवार वालों का ख़र्चा कैसे चलेगा? कुलदीप ने उन्हें बताया कि शास्त्रीजी का बैंक बैलेंस नहीं के बराबर है और उनके
परिवार के लिए अपना ख़र्च चला पाना मुश्किल होगा। उसके बाद संसद में एक बिल लाया गया, जिसमें व्यवस्था थी कि दिवंगत प्रधानमंत्री की पत्नी को कुछ
भत्ता और रहने के लिए घर दिया जाए।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में एक बार जब इनकी पत्नी ने कहा कि महीने में जो 50 रुपये मिलते हैं, उसमें से 40 रुपये से ख़र्चा चल
जाता है और बाकी के 10 रुपये वो बचाकर रखती हैं, तो इन्होंने सेनानी संगठन से तत्काल कहा कि अब से उनके घर 40 रुपये ही भेजे जाए! इनमें आजादी के बाद भी तनिक बदलाव नहीं आया था। वे स्वतंत्र भारत के दुर्लभ राजनेता
थे। इनकी नेतृत्व क्षमता, सादगी, निष्ठा और ईमानदारी को आज भी श्रद्धा के साथ याद किया जाता है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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