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Vaccine War: कोरोना के ख़िलाफ़ जंग के दौरान वैक्सीन को लेकर फ़ार्मा कंपनियों में जंग और दोस्ती का चक्रव्यूह

 
हमारी कंपनी की वैक्सीन ही वैक्सीन है, बाकी कंपनियों की वैक्सीन तो पानी है!!! हम हम हैं, बाकी सब पानी कम है!!! एक दिग्गज वैक्सीन उत्पादक का एक दूसरे दिग्गज वैक्सीन उत्पादक के लिए ऐसा सार्वजनिक रवैया!!! महामारी और वैक्सीनेशन, यह बहुत संवेदनशील विषय है। हमारे हिसाब से महामारी के समय वैक्सीनेशन से भी ज्यादा महत्वपूर्ण चीज़ है लोगों में भरोसा कायम रखना।
 
किसी भी वायरस के खिलाफ मानव सभ्यता के पास सबसे पहला और सबसे आखिरी रास्ता वैक्सीन का ही होता है। दुनिया में कई देश पिछले साल से वैक्सीन लगाना शुरू कर चुके हैं। भारत में भी इस साल पिछले महीने से वैक्सीनेशन कार्यक्रम शुरू हो चुका है। लोगों में चर्चा है कि वैक्सीन लगानी चाहिए या नहीं, आपातकालीन स्थितियों के बीच वैक्सीन को लाया गया है तो यह कारगर होगी या नहीं, इसका फायदा मिलेगा या नहीं। ऊपर से भारत में वैक्सीन बनाने वाली दोनों कंपनियाँ सरेआम जिस तरह से एकदूसरे के खिलाफ जंग करती दिखी, एक कंपनी ने दूसरी कंपनी की वैक्सीन को पानी जैसा कह दिया, लोगों में सवाल उठने लाजमी है। सबको पता होता है कि वैक्सीन विशुद्ध रूप से एक धंधा है। बावजूद इसके वैक्सीन लगानी चाहिए। बिल्कुल लगानी चाहिए।
 
दो चीजें हैं। पहली चीज़ - वैक्सीन हो या कोई सामान्य दवा हो, किसी बीमारी से पीड़ित मरीज़ को मानसिक और शारीरिक रूप से प्रभावी इलाज चाहिए। दूसरी चीज़ - महामारी और वैक्सीन का इतिहास दर्शाता है कि शुरुआत में वैक्सीन आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिए आनन फानन में ही तैयार की जाती है। जैसे जैसे वायरस अपनी प्रकृति बदलता है, वैक्सीन तथा वैक्सीनेशन का सिस्टम अपडेट होता रहता है। मसलन, वैक्सीन भी अपडेट हो सकती है, वैक्सीन के डोज़ को लेकर भी अपडेट होते रहते हैं और दूसरी कई चीजों को लेकर भी तरीके बदल सकते हैं। किंतु जैसे इस पैरा में कहा वैसे, किसी भी बीमारी से पीड़ित मरीज़ को मानसिक और शारीरिक रूप से प्रभावी इलाज चाहिए। वैक्सीन निसंदेह शारीरिक रूप से प्रभावी होती ही है। फिर भले उसका प्रभाव कुछ प्रतिशत तक हो, लेकिन प्रभावी तो होती ही है। कुछ ज्यादा प्रभावी हो सकती हैं, कुछ कम। किंतु मानसिक रूप से इसका प्रभाव ज्यादा फायदेमंद साबित हो सकता है। मरीज़ को मानसिक तरीके से मिलने वाला इलाज शारीरिक इलाज में भी फायदेमंद साबित होता रहता है। सो, वैक्सीन ज़रूर लगानी चाहिए। मानसिक और शारीरिक, दोनों फायदे हैं। 
 
2020 का साल खत्म हो इससे पहले दुनिया के कम से कम 11 देशों में कोरोना वैक्सीन लगाने का अभियान शुरू हो गया था। दिसंबर 2020 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि भारत में 8 ऐसी संभावित वैक्सीन हैं, जो ट्रायल के अलग-अलग चरण में हैं। प्रधानमंत्री ने तब अहमदाबाद के जाइडस बायोटेक पार्क, हैदराबाद की भारत बायोटेक और पुणे के सीरम इंस्टीट्यूट का दौरा कर वैज्ञानिकों से मुलाक़ात की थी और वैक्सीन को लेकर क्या तैयारियां हैं, इस बारे में जाना था।
उसके बाद 16 जनवरी 2021 से भारत में भी आधिकारिक रूप से वैक्सीनेशन शुरू हो चुका है। वैक्सीनेशन यूँ तो सिंपल सी बात नहीं है। वैक्सीन तैयार होने के बाद भी उस वैक्सीन को मानव शरीर में इंजेक्ट करने से पहले कई सारी संवेदनशील और बेहद ज़रूरी प्रक्रियाओं से सफलतापूर्वक गुजरना पड़ता है। वैक्सीन का सही तरीके से, सही मानकों के साथ स्टोर करना, उसे एक जगह से दूसरी जगह ढोना, उस दौरान तमाम मानकों का पालन करना और वैक्सीन को सुरक्षित रखना ज़रूरी होता है। साथ ही वैक्सीन को सही तरीके से इंजेक्ट करना भी ज़रूरी माना जाता है। टीकाकरण के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है, सत्र आयोजित किए जाते हैं। इसे पूर्वाभ्यास भी कहते हैं। यह सब लिखना जितना आसान है, दरअसल इतना आसान जमीन पर होता नहीं। वैक्सीनेशन के बाद भी बहुत सारा डाटा इक्ठ्ठा करना पड़ता है। बहुत सारा, मतलब बहुत ही सारा। उसीके आधार पर वैक्सीन अपडेट में मदद मिलती है।
 
हालाँकि कोरोना वायरस के खिलाफ वैक्सीनेशन प्रोग्राम में शुरुआती स्तर पर सौ फीसदी टीकाकरण का लक्ष्यांक नहीं रखा गया है। पोलियो टीकाकरण में सौ फीसदी टीकाकरण का लक्ष्यांक था। कोरोना वायरस और पोलियो, दोनों अपने आप में अलग अलग हैं।
 
आज के दिन तक भारत में दो वैक्सीन को सरकार की तरफ से इजाजत मिल चुकी है। एक है सीरम इंस्टीट्यूट जिसका उत्पादन करने वाली है वह कोवीशिल्ड। यह ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी और एस्ट्राज़ेनेका कंपनी की वैक्सीन है। दूसरी है भारत बायोटेक की कोवैक्सीन। ऑक्यूजन नाम की एक विदेशी कंपनी भारत बायोटेक की अमेरिका में साझेदार है।

 
वैक्सीन को लेकर जिस प्रकार की राजनीति हो रही है, उसके लिए निसंदेह देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिम्मेदार है। पिछले महीने समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव कहते दिखे कि मैं बीजेपी की वैक्सीन नहीं लगवाऊंगा। दूसरी विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने भी इस प्रकार की राजनीति की। किंतु कम से कम इस मसले पर विपक्षी नेता से ज्यादा जिम्मेदार स्वयं प्रधानमंत्री मोदी जिम्मेदार है। पिछले साल बिहार चुनाव प्रचार के दौरान, यदि बिहार में बीजेपी जीतती है तो बिहार की जनता को मुफ्त वैक्सीन मिलेगी वाली ओछी राजनीति मोदीजी ने ही की थी। सो, वैक्सीन पर राजनीति का शुभारंभ यदि स्वयं पीएम करते हैं, और फिर उनके नकशेकदम पर दूसरे नेता चलते हैं, तो फिर हमारे हिसाब से वैक्सीनेशन प्रोग्राम के लिए ऐसी राजनीति सबसे बड़ी चिंता है।
 
ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी और एस्ट्राज़ेनेका कंपनी की कोवीशिल्ड, जिसका उत्पादन भारतीय कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट करने वाली है, तथा कोवैक्सीन, जिसका उत्पादन भारत में भारत बायोटेक करेगी, दोनों में से फिलहाल सरकार को कोवीशिल्ड ज्यादा पसंद आ गई है। जनवरी 2021 में एम्स के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया ने कहा था कि कोवैक्सीन फिलहाल बैक-अप वैक्सीन के तौर पर आपात स्थिति में ही इस्तेमाल की जा सकेगी, जबकि कोविशील्ड ही मुख्य वैक्सीन होगी। दरअसल, कोवैक्सीन को DCGI द्वारा आपातकालीन इस्तेमाल की मंजूरी दिए जाने के बाद ये सवाल उठने लगे थे कि अंतरराष्ट्रीय प्रकिया और मानकों को नजरअंदाज कर इसे मंजूरी दी गई है।
कोरोना वैक्सीन लोगों को लगना शुरू हो इससे पहले कोरोना वैक्सीन के ट्रायल में कथित दुष्परिणाम के बाद जिस सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया पर केस किया गया था उस कंपनी के सीईओ अदार पूनावाला सरकार से क़ानूनी मामलों से बचाव करने को कह चुके हैं। यह मसला किसी एक चैप्टर में लिखा नहीं जा सकता। कंपनी को सरकारी स्तर पर क़ानूनी तरीके से बचाना, यह द्दष्टिकोण किसी महामारी के दौरान कितना सही है और कितना गलत, यह लंबी चर्चा का विषय है। क्योंकि कभी कभी सचमुच वैक्सीन कंपनियों को फालतू मुकदमों का सामना भी करना पड़ता है। उधर कभी कभी वह मुकदमे फालतू भी नहीं होते।
 
दिसंबर 2020 के महीने में चेन्नई के एक वॉलिंटियर ने सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया पर केस किया था और 5 करोड़ रुपये के मुआवजे की माँग की थी। तब यह मामला आने के बाद सीरम इंस्टिट्यूट ने कहा था कि वह उस वॉलिंटियर के ख़िलाफ़ 100 करोड़ रुपये की मानहानि का दावा करेगा। भारत बायोटेक को लेकर भोपाल में भी वॉलिंटियर ने आरोप लगाए थे।
 
ये सारी चीजें और मसले किसी महामारी और वैक्सीनेशन के दौरान अब तो सामान्य सी चीजें हो चुकी हैं। लिहाजा ये सब महत्वपूर्ण होने के बाद भी उतनी महत्वपूर्ण नहीं रहीं। किंतु इस बीच अदार पूनावाला ने हम हम हैं, बाकी सब पानी कम है, वाला जो दावा किया, वह विवाद उत्पन्न कर गया।
 
सीरम इंस्टिट्यूट के अदार पूनावाला ने अपनी वैक्सीन को ज्यादा प्रभावी बताने के लिए जिस प्रकार का सार्वजनिक दावा कर दिया वह बिल्कुल अप्रत्शायित था। समूचा देश पिछले साल से वैक्सीन का इंतजार कर रहा है। वैक्सीन आई, साथ में बिजनेस का बवाल भी ले आई! कोई और नहीं बल्कि वैक्सीन के उत्पादक ही बवाल लेकर सामने आ गए! सिर्फ इसलिए ताकि अपने उत्पाद को दूसरे उत्पादों से बढ़िया बताया जा सके! बाबा रामदेव की आत्मा अदार पूनावाला में जा घूसी हो ऐसा लगा!
 
कोवीशिल्ड और कोवैक्सीन। इसे लेकर सबसे बड़ा बवाल वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों ने ही खड़ा कर दिया। सबसे चौंकानेवाला बयान सीरम इंस्टिट्यूट के सीईओ ने दिया। सीरम के सीईओ ने कह दिया कि हमारी वैक्सीन प्रभावी है। उन्होंने यहाँ तक कहा होता तब तक ठीक होता। उन्होंने आगे यहाँ तक कह दिया कि हमारी वैक्सीन ही प्रभावी है, बाकी तो पानी है!!! बॉलीवुड वाला डायलोग हम हम हैं, बाकी सब पानी कम है।
  
सीरम और भारत बायोटेक के बीच महामारी के दौरान यह एलान ए जंग वाक़ई कई चिंताओं को जन्म दे गया। रफ़ाल के कथित घोटाले के समय डासो एविएशन तथा रिलायंस डिफेंस वर्सेज हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स वाला द्दश्य रिपीट हो गया।
एक बात निसंदेह स्वयं सिद्ध तथ्य है कि बीमारियाँ या महामारियाँ फ़ार्मा कंपनियों के लिए बिज़नेस का सुवर्ण समय सरीखी होती हैं। भारत में वैक्सीन की एक निर्माता कंपनी सीरम ने बिज़नेस के लिए तमाम हदें पार करते हुए दूसरी कंपनी के साथ धंधे के लिए लड़ाई का सरेआम एलान ही कर दिया! भारत में अब तक दो वैक्सीन को इजाजत मिली है। इजाजत मिली तभी से मीडिया की दुकानें बेवजह के सवाल लोगों के मन में डाल रही हैं कि कौन सी वैक्सीन कितनी प्रभावी है। लोगों के मन में ये सवाल फिर आए, पहले मीडिया की दुकानों में ये सवाल उठने लगे! वैक्सीन धंधा है तो मीडिया भी एक धंधा ही है न!
 
मीडिया ने अपने धंधे के लिए यह सवाल वैक्सीन के धंधे वाले से पूछ लिया। सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया के सीईओ अदार पूनावाला से एक टीवी कार्यक्रम में दवा के बारे में पूछा गया। मीडिया भी विशुद्ध रूप से एक धंधा ही है। एक धंधे ने दूसरे धंधे वाले से पूछ लिया तो बात का बतंगड़ बन गया।

 
मीडिया की दुकानों ने पूछ लिया तो वैक्सीन की दुकान वाले अदार पूनावाला ने कह दिया कि, "इस समय दुनिया में सिर्फ़ तीन वैक्सीन हैं जिन्होंने अपनी प्रभावकारिता सिद्ध की है। इसके लिए आपको बीस से पच्चीस हज़ार लोगों पर दवा आज़मानी होती है। कुछ भारतीय कंपनियां भी इस पर काम कर रही हैं। और उनके नतीजों के लिए हमें इंतज़ार करना होगा। लेकिन फ़िलहाल सिर्फ़ तीन वैक्सीन फ़ाइज़र, मॉडर्ना और एस्ट्रोज़ेनेका ऑक्सफ़ोर्ड हैं जिन्होंने ये साबित किया है कि ये काम करती हैं। इसके अलावा कोई भी चीज़ जिसने ये साबित किया है कि वह सुरक्षित है, वह पानी जैसी है। जैसे पानी सुरक्षित होता है। लेकिन एफ़िकेसी 70%, 80% या 90% होती है। ये सिर्फ़ इन तीन वैक्सीनों ने साबित किया है।"
 
यहाँ फिर एक बार नोट कर देते हैं कि सीरम वाली वैक्सीन विशुद्ध रूप से विदेशी वैक्सीन है, स्वदेशी नहीं है। उसका सिर्फ उत्पादन भारत में होगा। दरअसल सीरम सिर्फ उत्पादन करेगा। वैक्सीन तो ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी और एस्ट्राज़ेनेका कंपनी की है। पूनावाला का यह कहना कि हमारी वैक्सीन ही वैक्सीन है, बाकी सारी तो पानी है, विवाद उठना ही था।
 
सीरम के सीईओ पूनावाला का यह बयान वाक़ई वैक्सीन के धंधे की काजल की कोठरी को खुला कर गया। गनीमत है कि भारत बायोटेक के चेयरमैन ने संयमित भाषा में प्रतिक्रिया दी। भारत बायोटेक के एमडी कृष्णा एल्ला ने अपनी वैक्सीन को लेकर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की, जिसमें उन्होंने कहा कि, "किसी कंपनी ने मुझे (कोवैक्सिन को) पानी की संज्ञा दी है। इस वजह से मुझे ये बताना पड़ रहा है। अगर मैं थोड़ा नाराज़गी के साथ बोलूं तो मुझे माफ़ करिएगा। इस सबसे दुख होता है। एक वैज्ञानिक को दुख होता है जो 24 घंटे काम करता है। क्योंकि उसे लोगों की ओर से आलोचना मिलती है। वो भी उन लोगों के स्वार्थी कारणों की वजह से इससे दुख होता है।"
सीरम के पूनावाला के हमले के जवाब में भारत बायोटेक के एल्ला ने कहा कि, "कई लोग कहते हैं कि मैं अपने डेटा को लेकर पारदर्शी नहीं हूं। मुझे लगता है कि लोगों में थोड़ा धैर्य होना चाहिए ताकि वे इंटरनेट पर पढ़ सकें कि हमने कितने लेख प्रकाशित किए हैं। अंतरराष्ट्रीय जर्नल्स में हमारे 70 से ज़्यादा लेख प्रकाशित हो चुके हैं। कई लोग गपशप कर रहे हैं। ये सिर्फ़ भारतीय कंपनियों के लिए एक झटका है। ये हमारे लिए ठीक नहीं है। हमारे साथ ये सलूक नहीं होना चाहिए। मर्क कंपनी की इबोला वैक्सीन ने कभी इंसानों पर क्लिनिकल ट्रायल पूरा नहीं किया लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने फिर भी लाइबेरिया और गुआना के लिए आपातकालीन मंज़ूरी दे दी। जब अमेरीकी सरकार कहती है कि अगर कंपनी का अच्छा इम्यूनाइज़ेशन डेटा है तो उसे इमरजेंसी मंज़ूरी दी जा सकती है। मर्क कंपनी की इबोला वैक्सीन को मंज़ूरी फ़ेज़ 3 ट्रायल पूरा होने से पहले दी गई। जॉन्सन एंड जॉन्सन ने सिर्फ़ 87 लोगों पर टेस्ट किया, और उसे मंज़ूरी मिल गई।"
 
कमाल है न! भारत में दो वैक्सीन कंपनियों को इजाजत दी गई है। माहोल ऐसा है जैसे कि एक वैक्सीन के ऊपर सरकार का हाथ हो, दूसरा अपने बल बूते पर जगह बना रही हो। और दोनों कंपनियाँ सरेआम एलान ए जंग कर चुकी हैं! जिस कंपनी को भारत सरकार अग्रीम पंक्ति पर रख रही है वह कंपनी अपनी वैक्सीन को बढ़िया बता रही है। यहाँ तक को ठीक है। लेकिन वह कंपनी दूसरी कंपनी की वैक्सीन को महज पानी कह देती है!!!
 
हम तो पहले से कह चुके हैं कि वैक्सीन ही एकमात्र हथियार है महामारी के खिलाफ, किंतु वह विशुद्ध रूप से धंधा भी है। सीरम के सीईओ इस कथन को सच साबित कर रहे हैं। बाकायदा देश को बतलाने की कोशिश कर गए कि हमारा उत्पाद श्रेष्ठ है, बाकी सारे कचरा! बाबा रामदेव वाला ट्रेंड सीरम में दिखा! रामदेव अपने तमाम उत्पाद को श्रेष्ठ बताने के लिए एक ही रास्ता चुनते हैं। वह बाकायदा दूसरे तमाम उत्पाद को कचरा बताते हैं! लगा कि सीरम वाले किसी बॉलीवुड या क्रिकेटर के सितारे को लेकर टेलीविजन पर एड ना बना दे!
 
सीरम ने जिस प्रकार से भारत बायोटेक की वैक्सीन को लेकर कहा वह बिल्कुल सामान्य सी चीज़ नहीं थी। सोचिए, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में करोड़ों की जनसंख्या के लिए दो टीकों को मान्यता मिलती है। मान्यता मिलने के तुरंत बाद एक कंपनी दूसरी कंपनी की वैक्सीन को पानी कह देती है!!! यानी एक कंपनी बाकायदा देश को जानकारी देने की कोशिश करती है कि हमारी वैक्सीन ही वैक्सीन है, दूसरी वैक्सीन तो वैक्सीन है ही नहीं!!! मतलब कि एक कंपनी देश को यह जानकारी देती है कि भाई, दूसरी कंपनी आपको पानी देगी, वैक्सीन नहीं!!! आगे का मतलब यह कि एक कंपनी यह आरोप लगाती है कि दूसरी कंपनी वैक्सीन के नाम पर देश के करोड़ों लोगों के साथ, भारत सरकार के साथ छल कर रही है।
  
क्या यह सारी चीजें सामान्य सी बातें हैं? बिल्कुल नहीं। वैक्सीनेशन प्रोग्राम को लेकर प्रथम ग्रासे मक्षिका सरीखी दुर्घटना थी यह। सीरम ने भारत बायोटेक की वैक्सीन को पानी कह दिया!!! गनीमत है कि सीरम कंपनी जिस स्तर तक नीचे गई, भारत बायोटेक ने उस स्तर को नहीं छूआ। भारत बायोटेक के चेयरमैन डॉ. कृष्णां इल्ला को बिल्कुल लाचार होकर कहना पड़ा कि हम पर अनुभवहीन होने का आरोप न लगाएं, हम कई टीकों के निर्माता हैं। उन्होंने आगे कहा कि एक दूसरी कंपनी ने हमारे बारे में कहा कि हमारी वैक्सीन पानी की तरह सुरक्षित है, ऐसा कहना बहुत गलत है।
भारत बायोटेक के चेयरमैन ने एम्स के निदेशक डो. गुलेरिया के उस बयान को लेकर भी आपत्ति जताई, जिसमें डॉ. गुलेरिया ने कहा था कि भारत बायोटेक की कोवैक्सीन फिलहाल बैकअप वैक्सीन के तौर पर इस्तेमाल की जाएगी। भारत बायोटेक के चेयरमैन ने कहा कि टीवी चैनल पर कोई भी आता है और कीचड़ उछालकर चला जाता है और हम फिर साफ करते रहते हैं, यह बहुत दुखद बात है, दुनिया में कहीं पर भी बैकअप नाम का कुछ नहीं होता, ये वैक्सीन है बस, हमने इस तरह के बयान देखे हैं और लोगों को इस तरह के बयान देने में थोड़ा जिम्मेदारी दिखानी चाहिए।
 
भारत में दो टीकों को मंजूरी मिली और फिर टीके का भारत में उत्पादन करने वाली कंपनियाँ एक दूसरे को साबित करने की कोशिश करने लगी। सरकारे ऊपर भी सवाल उठाए जा सकते हैं। यूँ तो सीरम वाली वैक्सीन भारतीय नहीं है। वह विदेशी है। उसका उत्पादन ही भारत में होगा। भारत बायोटेक वाली वैक्सीन में भी कुछ कुछ ऐसा ही हाल है। प्रधानमंत्री मोदी से लेकर सत्ता दल के तमाम लोग दोनों वैक्सीन को स्वदेशी बता रहे हैं। किंतु देखा जाए तो सीरम वाली वैक्सीन विशुद्ध रूप से विदेशी वैक्सीन है। भारत बायोटेक वाली वैक्सीन बहुधा रूप से विदेशी है। स्वदेशी वाला तत्व सीरम वाले से कुछ ज्यादा है। किंतु अंतिम रूप से दोनों हैं विदेशी।

 
इस हाल में भी दोनों को लेकर भारत में स्वदेशी विदेशी वाला राग चल रहा हो, तो फिर ऐसे राग के बीच दोनों कंपनियाँ एक दूसरे को बेहतर बताने के लिए ऐसे निम्न स्तर के रास्ते पकड़ती हैं, तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ था किसी को।
 
भारत में वह चीज़ शुरू में ही हो चुकी थी, जो बिल्कुल नहीं होनी चाहिए थी। जिसे सरकारी स्तर पर अग्रीम स्थान मिल ही चुका है वह कंपनी अपनी वैक्सीन को वैक्सीन और दूसरी कंपनी की वैक्सीन को पानी कह देती है!!! गनीमत है कि ऊपर से कोई नसीहत आई होगी। सो, दूसरे दिन दोनों कंपनियों ने सुलह कर ली!!!
 
कुल मिलाकर, वैक्सीन को लेकर दोनों फ़ार्मा कंपनियों ने एलान ए जंग किया, फिर सुलह कर ली। दोनों कंपनियों ने एक साझा बयान दूसरे दिन ही जारी कर दिया।
इस बयान में कंपनियों ने बताया कि वे यह बात समझते हैं कि इस समय दुनिया के लोगों और देशों के लिए वैक्सीन की अहमियत क्या है, ऐसे में हम इस बात का प्रण लेते हैं कि कोविड 19 वैक्सीन की उपलब्धता वैश्विक स्तर पर हो सके। ये बयान जारी करने के बाद सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया के सीइओ अदार पूनावाला ने अपने ट्वीट में लिखा कि इस (साझा बयान) से किसी भी तरह की ग़लतफ़हमी दूर हो जानी चाहिए, हम इस महामारी के ख़िलाफ़ जंग में एक साथ खड़े हैं। भारत बायोटेक ने अपने ट्विटर अकाउंट पर ये साझा बयान शेयर करते हुए लिखा कि हमारा प्रण भारत और विश्व में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया के साथ सहज ढंग से वैक्सीन पहुँचाना है।
 
दोनों कंपनियों ने कोविड 19 के ख़िलाफ़ जंग में एकजुट होकर काम करने की बात कही। लाजमी है कि केंद्र की तरफ से निर्देश मिले होंगे। लेकिन कुछ घंटों पहले तक दोनों कंपनियों के शीर्ष अधिकारी एक दूसरे की वैक्सीन पर हमला बोलते दिख रहे थे।
 
सिंपल सी बात है। क्या सीरम के सीईओ पूनावाला दूसरी कंपनियों की वैक्सीन को पानी कह कर वैक्सीन के विशुद्ध धंधे को स्वीकार कर गए थे? बिल्कुल कर गए थे। पूनावाला का दूसरी तमाम वैक्सीन पानी है वाला बयान, जैसे कि दूसरी वैक्सीन पानी है और इसलिए हमारी ही वैक्सीन अच्छी है, हमारी वैक्सीन ले, ज्यादा से ज्यादा ले, हमारा धंधा बढ़ाने में सह्योग करे, सरीखा प्रयास था। भारत बायोटेक ने बदले में भावनात्मक वातावरण तैयार करने का प्रयास किया।
 
मीडिया की दुकानों ने बेमतलबी सवाल खड़ा किया कि दोनों वैक्सीन में से कौन सी अच्छी है। मीडिया की दुकानों के बाद वैक्सीन की दुकानवालों ने इसे आगे बढ़ाया। यह सारी चीजें सरकार की नाकामी की तरफ भी ले जाती है। भारत में जो टीकाकरण होगा, निसंदेह वह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा टीकाकरण होगा। किंतु टीकाकरण शुरू होने से पहले सरकार सोती रही और फ़ार्मा कंपनियाँ सरेआम एकदूसरे के उत्पाद को खराब कहती रही। सरकार तुरंत एक्शन में आई होगी और चंद घंटों बाद दोनों फ़ार्मा कंपनियाँ भाईभाई दिखने लगी। सार्वजनिक सुलह हो गई, यह अच्छी बात ही कह लीजिए।
  
लेकिन वैक्सीन विशुद्ध रूप से एक धंधा है, यह फिर एक बार सच साबित हो गया। सवाल यह कि क्या दोनों कंपनियों ने जो दलीलें दी, इससे उनकी जो वैक्सीन है उसका प्रभाव और गुणवत्ता सिद्ध हो जाती है? प्रसिद्ध संक्रामक रोग विशेषज्ञ जय प्रकाश मुलियल के मुताबिक फ़ार्मा कंपनियों के बयानों पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए। वे कहते हैं कि इसके लिए एक प्रक्रिया है, प्रक्रिया का पालन होना चाहिए तथा वैक्सीन की मंज़ूरी देने के लिए उसका ठीक ढंग से पालन किया जाना चाहिए।
निसंदेह, भारत में दोनों फ़ार्मा कंपनियों के शीर्ष अधिकारियों का ऐसा सार्वजनिक व्यवहार निराशाजनक रहा। भारत के लोगों ने अपार पीड़ा सहन करने के बाद वैक्सीन को लेकर राहत की सांस ली थी। लेकिन दोनों वैक्सीन निर्माता कंपनियाँ धंधे के लिए प्रतिस्पर्धा के चक्कर में समय और स्थिति को ताक पर रख गई! मुनाफ़े के लिए एक दूसरे के साथ एलान ए जंग करने लगी! स्वाभाविक है कि फ़ार्मा कंपनियों के लिए यह बिजनेस टाइम है। उम्मीद की जाती है कि वे धंधा तो करे, किंतु साथ ही उनसे संयमित आचार विचार तथा नैतिक मूल्यों का पालन करते हुए भी दिख जाए। वैक्सीनेशन प्रोग्राम शुरू हो उससे पहले तो ये लोग बिजनेस के मूल्यों का पूरा पालन करते हुए दिखाई दिए!
 
भारत में जिन दो वैक्सीन तो मंजूरी मिली है उसके उत्पादकों ने जिस तरीके का सार्वजनिक रवैया अपनाया है वह निराशाजनक या चिंताजनक तो है ही। यूँ तो वैक्सीन को लेकर प्रतिस्पर्धा तो होती ही है। यह अरसे से चला आ रहा है। किंतु प्रतिस्पर्धा के चक्कर में वैक्सीन उत्पादक इस तरह सीमाएँ लांधने लगे ये नया ट्रेंड है। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वैक्सीन कंपनियों को सेवा ही परमो धर्म वाला सूत्र आत्मसात करना चाहिए। हम ऐसा बिल्कुल नहीं कहेंगे। हमें पता होना चाहिए कि यह बिजनेस है। पैसा कमाना उनका अधिकार है। मुनाफा प्राप्त करना चाहिए उनको। हा, हद से ज्यादा मुनाफा वगैरह को लेकर चर्चा होनी चाहिए। किंतु कुछ पैसे कमाना चाहिए उनको। बिल्कुल कमाने चाहिए। किंतु याद यह भी रखना चाहिए कि यह सामान्य सा समय नहीं है, यह आम परिस्थिति नहीं है। प्राथमिकता लोगों की जिंदगियाँ भी हैं। मुनाफे के चक्कर में कुछ सीमाओं को पार करना ठीक नहीं है।

 
भारत में जिन दो कंपनियों को वैक्सीन को लेकर मंजूरी मिली है उनका सार्वजनिक व्यवहार बिल्कुल निराशाजनक रहा ऐसा सीधे सीधे कहा जा सकता है। सीरम इंस्टिट्यूट को लेकर ज्यादा कहा जा सकता है। कंपनियों के बीच विवाद हो सकता है, बिजनेस को लेकर प्रतिस्पर्धा भी तत्व है, किंतु सार्वनजिक रवैया इस तरह हदें पार करता हुआ नहीं दिखना चाहिए था।
 
वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों के लोग इससे पहले मसीहाओं की तरह दिखते थे, अब इस विवाद के बाद वे व्यापारी की तरह दिखेंगे। इसके पीछे स्वयं कंपनियाँ जिम्मेदार हैं।
 
पब्लिक हेल्थ फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया से जुड़े संक्रामक रोगों के विशेषज्ञ डॉ. गिरिधर बाबू मानते हैं कि कंपनियों की ओर से बयानबाज़ी टीकाकरण अभियान के लिए ठीक नहीं है। वे कहते हैं, "अभी तक जो भी टीकाकरण अभियान होते थे, उसमें वैक्सीन किस कंपनी की ओर से बनाई गई है, ये कभी भी पब्लिक नॉलेज में नहीं आता था। रेगुलेटर वैक्सीन को मंज़ूरी देते थे और सरकार या यूनिसेफ़ जो भी वैक्सीन लेते थे, वो सरकारी तंत्र में चली जाती थी। इस बार जो हुआ है, वो सब काफ़ी दुर्भाग्यशाली है। ये सब नहीं होना चाहिए था। मैंने पोलियो टीकाकरण पर कई सालों तक काम किया है।"
 
डॉ. गिरिधर बाबू कहते हैं, "मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि लोगों का वैक्सीन में भरोसा पैदा करने में बहुत समय लगता है। लोगों के पास जाकर वैक्सीन से जुड़ीं शंकाओं का निवारण करना होता है। ये सब करने में कई साल लगे हैं। जब एक वैक्सीन को लेकर शक पैदा किया जाता है तो जनता को नहीं पता होता है कि किस वैक्सीन को लेकर बात की गई है। वे सभी वैक्सीनों को शक की नज़र से देखते हैं। इस वजह से ये जो चर्चा है, वो वैज्ञानिकों के लिए मुफ़ीद है। मुझे लगता है कि ये सब बातें आम जनमानस तक पहुँचाने का वक़्त नहीं है।" वे कहते हैं, "इस समय ज़रूरत है कि वैक्सीन के प्रति भरोसा पैदा किया जाए, लोगों को बताया जाए कि फ़लां वैक्सीन अच्छी है और उसे लिया जा सकता है। जब ट्रायल पूरा होगा, तब कौन सी वैक्सीन अच्छी, ये सब को बताया जाएगा। तब तक तसल्ली रखें और इंतज़ार करें।"
  
उधर ब्रिटेन जैसे राष्ट्र, जहाँ वैक्सीनेशन शुरू हो चुका है और कइयों को वैक्सीन लग चुकी है, वहाँ कोरोना वायरस का नया वेरिएंट खोफ पैदा किए जा रहा है। सतर्कता के लिए दुनिया के 43 देशों ने ब्रिटेन के साथ संपर्क स्थगित कर दिए थे। ऐसी चिंताएँ उस राष्ट्र में व्याप्त थी उन दिनों, जहाँ कोरोना वैक्सीन का टीका सबसे पहले लगाया गया था। भारत में हरियाणा के गृह मंत्री अनिल विज का टीकाकरण होने के बाद भी वह कोरोना से संक्रमित हो गए। ब्रिटेन में फिलहाल तीन वैक्सीन को मंजूरी मिली हैं और इस्तेमाल की जा रही हैं।
वैक्सीन और कोरोना वायरस को लेकर कुछ चिंताएँ ज़रूर व्याप्त हैं। किंतु महामारियों का इतिहास दर्शाता है कि ऐसी घटनाएँ होती रही हैं। वैक्सीन ही वायरस के खिलाफ प्रथम और अंतिम हथियार है। वायरस की प्रकृति है खुद को बदलते रहना। वैक्सीन को भी उसी प्रकार से अपडेट करते रहना होता है। तत्काल ज़रूरत के हिसाब से, यूँ कहे कि आपातकालीन स्थिति को देखते हुए दुनिया में कई राष्ट्र कुछ वैक्सीन को आनन-फानन में मंजूरी देते रहते हैं। वायरस खुद को बदलता रहता है, उसी हिसाब से वैक्सीन भी बाद में अपडेट होती रहती है।
 
वैक्सीन और वायरस। कुछ चीजें नोट करनी चाहिए। पहली मानव सभ्यता के पास वायरस से बचने के लिए वैक्सीन के सिवा दूसरा कोई प्रभावी हथियार नहीं है। दूसरी वैक्सीन विशुद्ध रूप से धंधा है। तीसरी वायरस और वैक्सीन, दोनों एकदूसरे से बचने की कोशिशें करते रहते हैं।
 
पहली और दूसरी बात आसानी से समझ आ सकती है। तीसरी बात को लेकर ज्यादा लिखे तो, वायरस की प्रकृति ही खुद को बदलते रहने की होती है। वह चालाक, छलिया और बहरूपिया जीव होता है। वैक्सीन से बच निकलने की कोशिशें वह करता रहता है। सामने मानव सभ्यता उसे घेरने की कोशिशें करती रहती है। वायरस और वैक्सीन, दोनों में ऐसी जंग चलती रहती है। कभी वायरस जीतता है, कभी मानव सभ्यता। ज्यादातर लंबे समय के बाद मानव सभ्यता इसका तोड़ ढूंढ ही लेती है। हमने यहाँ ज्यादातर लफ्ज़ लिखा है। इसलिए, क्योंकि कई वायरस ऐसे हैं, जिनका तोड़ अब तक मानव सभ्यता के पास नहीं है। किंतु मोटे तौर पर देखे तो सैकड़ों वायरस के खिलाफ मानव सभ्यता खुद को सुरक्षित करने में कुछ हद तक ज़रूर सफल रही है।
 
वैज्ञानिक भाषा बहुत ज्यादा वैज्ञानिक होती है। सो, सामान्य भाषा में कहे तो, केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर डॉक्टर रवि गुप्ता कहते हैं कि दरअसल वायरस वैक्सीन से बचने के लिए अपना रूप बदलता है जिससे वैक्सीन पूरी तरह कारगर नहीं हो पाती और वायरस लोगों को संक्रमित करता रहता है। वो कहते हैं कि वायरस वैक्सीन से बचने की कगार पर है, वो उस दिशा में कुछ क़दम आगे बढ़ चुका है। उन्होंने जो बात कही वह इस समय के लिए कही है। वे कहते हैं कि इसका अर्थ यह नहीं है कि वैक्सीन कारगर नहीं होगी। वे जो कहते हैं उसका अर्थ यही है कि वायरस और वैक्सीन, दोनों एकदूसरे से जंग लड़ते रहते हैं। वैक्सीन और वैक्सीनेशन प्रोग्राम को अपडेट करते रहना पड़ता है। वायरस अपने नये वेरिएंट के साथ आता रहता है, वैक्सीनेशन प्रोग्राम उस हिसाब से अपडेट होता रहता है।
 
फ़्लू को ही देख लीजिए। यह वह वायरस है, जिसके खिलाफ वैक्सीन को आज भी नियमित रूप से अपडेट करना पड़ रहा है। इसलिए यदि वैक्सीनेशन के बाद भी संक्रमण के या बीमारी के मामले आते रहते हैं तो यह चिंता की बात ज़रूर है, किंतु इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि हथियार नाकाम है। कोरोना वायरस का रंग और रूप नया है, किंतु उसका फैमिली, यानी सार्स सीरीज़ से मानव सभ्यता पहले से ही परिचित है। सो, कोरोना वायरस की वैक्सीन में आसानी से बदलाव मुमकीन है। वैक्सीन और वायरस, दोनों अपडेट होते रहते हैं।
 
वैक्सीन में बदलाव तो होते ही हैं, वैक्सीनेशन प्रोग्राम में भी बदलाव होते रहते हैं। ये सब होता रहेगा। किंतु जिस प्रकार से फ़ार्मा कंपनियों ने बेवजह का बवाल खड़ा किया, उस तरह की गलतियाँ आगे सरकारी स्तर पर न हो यह भी ज़रूरी है। महामारी मानसिक रूप से बहुत बड़ी बीमारी होती है। इस लिहाज से टीकाकरण कार्यक्रम बहुत संवेदनशील चीज़ है। वैक्सीन में अपडेट, वैक्सीनेशन प्रोग्राम में बदलाव, जैसी चीजें आगे होती रहेगी। सारी चीजों में लोगों का भरोसा कायम रखना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
 
फिलहाल दो चीजें ध्यान में रखना ज़रूरी है। पहली, वैक्सीन ज़रूर लगानी चाहिए। यह मानसिक और शारीरिक, दोनों तरीके से मरीज़ के इलाज में सहाय करती है। दूसरी, वैक्सीन लगाने के बाद भी किसी मुगालते में रहना नहीं चाहिए। वैक्सीन लगाने से पहले तथा वैक्सीन लगाने के बाद, दोनों समय सजगता, समझदारी और जागरूकता को घारण करते हुए आगे बढ़ना चाहिए।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)