हमारी कंपनी की वैक्सीन ही वैक्सीन है, बाकी कंपनियों की वैक्सीन तो पानी है!!! हम हम हैं, बाकी सब पानी कम है!!! एक दिग्गज वैक्सीन उत्पादक का एक दूसरे दिग्गज वैक्सीन उत्पादक के लिए ऐसा सार्वजनिक रवैया!!! महामारी और वैक्सीनेशन, यह बहुत संवेदनशील विषय है। हमारे हिसाब से महामारी के समय वैक्सीनेशन से भी ज्यादा महत्वपूर्ण चीज़ है लोगों में भरोसा कायम रखना।
कोवीशिल्ड और कोवैक्सीन। इसे लेकर सबसे बड़ा
बवाल वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों ने ही खड़ा कर दिया। सबसे चौंकानेवाला बयान सीरम
इंस्टिट्यूट के सीईओ ने दिया। सीरम के सीईओ ने कह दिया कि हमारी वैक्सीन प्रभावी है।
उन्होंने यहाँ तक कहा होता तब तक ठीक होता। उन्होंने आगे यहाँ तक कह दिया कि हमारी
वैक्सीन ही प्रभावी है, बाकी तो पानी है!!! बॉलीवुड वाला डायलोग – हम हम हैं, बाकी सब पानी कम है।
सीरम ने जिस प्रकार से भारत बायोटेक की वैक्सीन
को लेकर कहा वह बिल्कुल सामान्य सी चीज़ नहीं थी। सोचिए, दुनिया के सबसे बड़े
लोकतंत्र में करोड़ों की जनसंख्या के लिए दो टीकों को मान्यता मिलती है। मान्यता मिलने
के तुरंत बाद एक कंपनी दूसरी कंपनी की वैक्सीन को पानी कह देती है!!! यानी एक कंपनी बाकायदा देश को जानकारी देने की कोशिश करती है कि हमारी वैक्सीन
ही वैक्सीन है, दूसरी वैक्सीन तो वैक्सीन है ही नहीं!!! मतलब कि एक कंपनी देश को यह जानकारी देती है कि भाई, दूसरी कंपनी आपको
पानी देगी, वैक्सीन नहीं!!! आगे का मतलब यह कि एक कंपनी यह आरोप लगाती है कि दूसरी कंपनी वैक्सीन के नाम पर
देश के करोड़ों लोगों के साथ, भारत सरकार के साथ छल कर रही है।
मीडिया की दुकानों ने बेमतलबी सवाल खड़ा किया
कि दोनों वैक्सीन में से कौन सी अच्छी है। मीडिया की दुकानों के बाद वैक्सीन की दुकानवालों
ने इसे आगे बढ़ाया। यह सारी चीजें सरकार की नाकामी की तरफ भी ले जाती है। भारत में
जो टीकाकरण होगा, निसंदेह वह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा टीकाकरण होगा। किंतु टीकाकरण शुरू होने
से पहले सरकार सोती रही और फ़ार्मा कंपनियाँ सरेआम एकदूसरे के उत्पाद को खराब कहती
रही। सरकार तुरंत एक्शन में आई होगी और चंद घंटों बाद दोनों फ़ार्मा कंपनियाँ भाई–भाई दिखने लगी। सार्वजनिक
सुलह हो गई, यह अच्छी बात ही कह लीजिए।
डॉ. गिरिधर बाबू कहते हैं, "मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि लोगों का वैक्सीन में भरोसा पैदा करने में बहुत
समय लगता है। लोगों के पास जाकर वैक्सीन से जुड़ीं शंकाओं का निवारण करना होता है।
ये सब करने में कई साल लगे हैं। जब एक वैक्सीन को लेकर शक पैदा किया जाता है तो जनता
को नहीं पता होता है कि किस वैक्सीन को लेकर बात की गई है। वे सभी वैक्सीनों को शक
की नज़र से देखते हैं। इस वजह से ये जो चर्चा है, वो वैज्ञानिकों के
लिए मुफ़ीद है। मुझे लगता है कि ये सब बातें आम जनमानस तक पहुँचाने का वक़्त नहीं है।"
वे कहते हैं, "इस समय ज़रूरत है कि वैक्सीन के प्रति भरोसा पैदा किया जाए, लोगों को बताया जाए
कि फ़लां वैक्सीन अच्छी है और उसे लिया जा सकता है। जब ट्रायल पूरा होगा, तब कौन सी वैक्सीन
अच्छी, ये सब को बताया जाएगा। तब तक तसल्ली रखें और इंतज़ार करें।"
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