कोरोना की विभीषिका भूल जाओ, विभाजन की विभीषिका याद रखो!!! माँ गंगा की गोद में सैकड़ों भारतीयों की लाशें
बही, विभाजन के बाद पहली दफा भारत की सड़कों पर इतना बड़ा पलायन देखा गया, छोटे बच्चों के साथ
सैकड़ों परिवार दर दर भटकते रहे, बिना ऑक्सीजन के, बिना इलाज के, बिना बेड के लोग जान गँवाते रहे, शहरों आर गाँवों में श्मशानों तक में कतारे लग गईं, लाशें जलाते जलाते
चिमनियाँ तक पिघलने लगी, तिल तिल कर लोग तड़पते-मरते रहे, अपनों को मरते देख हज़ारों-लाखों आँखें आँसू बहाती रही, लोग मरते रहे वे चुनाव
लड़ते रहे... सब भूल जाओ, सारे ताज़ा दर्द भूल जाओ, बस पुराने ज़ख़्म कुरेदो!!! पॉजिटिविटी बढ़ेगी इससे!!! किसी की बढ़े ना बढ़े, संघ की ज़रूर बढ़ेगी!!! ताज़ा दिक्कतें, ताज़ा दर्द याद रखोगे तो सरकार की साँसें फूलेगी। पुराने ज़ख़्म याद करो, हकारात्मकता का फैलाव होगा!!! है न?
सीधी बात। भारत में विभाजन की विभीषिका ‘राजनीतिक’ तौर पर याद रखने का अर्थ क्या होता है? यही कि हिंदू-मुस्लिम वाली आग को और ज़्यादा प्रजवल्लित करो
और समाज को अधिक से अधिक बाँटो। जिस दौर को भूला देना चाहिए, उसे याद करने का अर्थ
राजनीति के लिए यही है कि ज़्यादा से ज़्यादा सांप्रदायिकता पैदा करो, उसका राजनीतिक फ़ायदा
उठाओ और किसी न किसी तरीक़े से सत्ता पर चिटके रहो। हम एक सीधी बात बहुत पहले से कहते
आए हैं। यही कि जो राजनीति आपको गाँधी और भगत सिंह में से किसी एक को चुनना सिखाती
हो, वो आपको गोडसे बनाकर
ही छोड़ती है।
यूँ देखा जाए तो विभाजन की विभीषिका वो दौर है, जिसे भूलना ही बेहतर है। जिन परिवारों ने, जिन लोगों ने, जिनके पूर्वजों ने
इसे सीधे सीधे भुगता था, उनके हिसाब से वह दौर भुलाया नहीं जा सकता। यह लाज़मी भी है। भूलना बेहतर है, यह कहना यूँ तो उन
लोगों के साथ अन्याय है। किंतु राष्ट्रीय स्तर पर उस दौर को याद रखने का मतलब तो एक
ही होता है कि बँटवारा, दंगे, सांप्रदायिकता, नफ़रत, द्वेष आदि को फिर से हरा भरा करो। यूँ तो उस विभीषिका को देश याद करता ही है।
अपने तरीक़े से याद करता रहता है। लेकिन राजनीति उसे आधिकारिक तौर पर उत्सव बना दे, तो फिर आगे का रास्ता-इरादे
और परिणाम क्या होंगे, नागरिकों के रूप में सभी को ज्ञात होगा।
याद करना ही है विभाजन की विभीषिका को, तो याद करते समय हर किसी के दिल-ओ-दिमाग़ में एक बात यह भी ज़रूर
दर्ज होनी चाहिए कि गोडसे नाम के एक गुनहगार ने उस दौर में महात्मा गाँधी नाम के एक
ऐसे इंसान की हत्या कर दी थी, जिन्हें आज भी समूची मानवता का प्रतिनिधि माना जाता है। भारतीय न्यायतंत्र ने
जिसे जघन्य अपराधी माना, जिसे फाँसी की सज़ा दी, उसके मंदिर बनाने वाले लोगों को उस विभीषिका का अपराधी मानने में कोई हर्ज नहीं
होना चाहिए।
एक नयी विभीषिका देखिए। सात साल पहले आभामंडल ऐसा तैयार किया था, जैसे कि देश में घी
दूध की नदियाँ बहा देंगे। सात साल बाद घी दूध की नदियाँ तो नहीं बही, नदियों में सैकड़ों
लाशें ज़रूर बहने लगी। आभामंडल का तो पता नहीं, लेकिन चुनाव जीतने
के लिए मंडल कमंडल के दौर को नये रूप में पेश करने के बाद अब एक और नया एलान कर दिया
है कि विभाजन की विभीषिका याद रखो।
प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी ने 14 अगस्त 2021 के दिन ट्वीट कर एलान किया कि अब से 14 अगस्त का दिन विभाजन
विभीषिका स्मृति दिवस के रूप में मनाया जाएगा। यही बात प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के
75वें स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर लाल क़िले से देश को संबोधित करते हुए 15 अगस्त
2021 के दिन भी दोहराई। पीएम मोदी के ट्वीट करने के बाद सरकार की ओर से इस बारे में
गैज़ेट नोटिफ़िकेशन भी जारी किया गया।
केंद्र सरकार ने जो
गैज़ेट नोटिफ़िकेशन जारी किया, उसमें लिखा गया कि, "भारत सरकार ने विभाजन के दौरान भारत के लोगों के दर्द और कष्टों के बारे में भारतीयों
की वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों को याद दिलाने के लिए 14 अगस्त को 'विभाजन विभीषिका स्मृति
दिवस' घोषित किया है।"
स्वतंत्रता दिवस के
भाषण में भी पीएम ने इस फ़ैसले का ज़िक्र किया। उन्होंने कहा, "हम आज़ादी का जश्न मनाते हैं, लेकिन बँटवारे का दर्द आज भी हिंदुस्तान के सीने को छलनी करता है। यह पिछली शताब्दी
की सबसे बड़ी त्रासदी में से एक है। कल ही देश ने भावुक निर्णय लिया है। अब से 14 अगस्त
को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के रूप में याद किया जाएगा।"
उन्होंने आगे कहा, "जो लोग विभाजन के समय अमानवीय हालात से गुज़रे, अत्याचार सहे, जिन्हें सम्मान के साथ अंतिम संस्कार भी नसीब नहीं हुआ, उन लोगों का हमारे
स्मृतियों में रहना ज़रूरी है।" पीएम मोदी ने कहा, "आज़ादी के 75वें स्वतंत्रता
दिवस पर विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस का तय होना ऐसे लोगों को हर भारतवासी की तरफ़
से आदरपूर्वक श्रद्धांजलि है।"
उन्होंने अपने भाषण
में कहा कि कल ही देश ने भावुक निर्णय लिया है। बताइए, देश को पता तक नहीं
था उस दिन तक कि उसने (देश ने) ऐसा कोई निर्णय लिया है!!! सिंपल सी बात है कि ये निर्णय
देश का नहीं, कैबिनेट का नहीं, राजनीति का है। लेकिन उन्होंने इसे देश का निर्णय बता दिया!!! वैसे भी मोदीजी
बोलते समय कहाँ तक बोलेंगे इसका भी निर्णय वे स्वयं नहीं कर पाते, तो फिर मोदीजी ने
कह दिया कि यह देश का निर्णय है, तो है। लेकिन जब देश ने पूछा कि यह किसका निर्णय है तो सरकार ने कह दिया कि यह
जानकारी नहीं दी जा सकती!!! बताइए, देश ने निर्णय लिया, लेकिन वे देश को बता नहीं सकते!!!
दरअसल एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक़ एक आरटीआई
के ज़रिए केंद्र सरकार से पूछा गया था कि 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के
रूप में मनाने के लिए किसने आवेदन किया था, कितने लोगों ने गुहार
लगाई थी, फ़ैसला किस स्तर पर हुआ, जानकारी दीजिए। केंद्र सरकार ने एक लाइन में जवाब दे दिया कि इसकी जानकारी नहीं
दी जा सकती। कमाल है न!!! देश ने भावुक निर्णय लिया है, लेकिन देश को नहीं
पता!!! देश पूछता है तो देश को बता देते हैं कि देश को बता नहीं सकते!!!
ख़ैर, अच्छा तो यह हुआ कि
ट्वीट कर बता दिया। राष्ट्र के नाम संदेश वाला कार्यक्रम नहीं चलाया। यह बात अच्छी
हुई। छोटी मोटी बातों को लेकर राष्ट्र के नाम संदेश वाला कार्यक्रम नहीं करके ट्वीट
कर जानकारी दे दी, यह हकारात्मक बदलाव है। पीएम मोदी ने विभाजन की विभीषिका याद रखने के लिए जिन
वजहों को आगे किया, वह सारी वजहें सही लगती हैं। आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी विभीषिका पिछले एक-देढ़
साल से देश भुगत रहा है। लेकिन उस मसले पर राजनीति कह रही है कि भूलो और आगे बढ़ो!!!
लेकिन विभाजन को लेकर कहती हैं कि भूलो मत, याद रखो और हमें आगे बढ़ाओ!!!
दरअसल विभाजन विभीषिका
स्मृति दिवस विशुद्ध रूप से राजनीति है। जिससे दो बड़े लाभ सरकार के पलड़े में जाते
हैं। पहला, कोरोना की विभीषिका भूल जाओ, विभाजन की विभीषिका याद रखो। इससे ताज़ा नाकामियों के बारे में सफ़ाई देनी नहीं
पड़ेगी। मोहन भागवत कह चुके हैं कि जो कोरोना में मरे वे मुक्त हो गए। भूल जाओ कोरोना
की पीड़ा और दर्द। ताज़ा ज़ख़्म भूलने हैं और पुराने कुरेदने हैं। इससे दूसरा बहुत बड़ा
लाभ सांप्रदायिकता की पुरानी सवारी नये सिरे से करके होगा। सबको पता है कि इक्का दुक्का
चुनावों को छोड़ दें तो बीजेपी और संघ, दोनों सांप्रदायिकता की सड़क नापकर ही चुनाव
लड़ते हैं, जीतते हैं।
भारत का स्वतंत्रता
संग्राम। फिर स्वतंत्रता का जश्न। इस बीच विभाजन की त्रासदी। काल के तीनों खंडों में
बीजेपी या आरएसएस के उस ज़माने के ढाँचे का कोई पॉजिटिव योगदान कहीं दर्ज नहीं है। वे
इतिहास को अपने तरीक़े से आलू मटर की तरह छीलते रहते हैं। अपना कोई बड़ा स्वतंत्रता
प्रतीक नहीं है, इसलिए दूसरों के प्रतीकों को हथियाते रहते हैं। मनगढ़ंत इतिहास रचते हैं, फिर उस खोखले इतिहास
का प्रचार प्रसार करते हैं। बीजेपी और संघ के लोग माने या ना माने, किंतु उनके साथ चिपका
हुआ यह प्रमाणित इतिहास है। ऐसे में ये लोग विभाजन की विभीषिका को कैसे याद करेंगे, इसका अंदाज़ा लगाना बिलकुल आसान है। कोई मुश्किल काम नहीं है।
एक बात तो है। जिन्होंने
विभाजन की उस विभीषिका को भुगता था, जिनके परिवारों ने, जिनके पूर्वजों ने इसे देखा, सहन किया, उन सबके लिए यह अविस्मरणीय त्रासदी थी। वे इसे कभी भूल नहीं सकते। साथ ही देश
भी इसे अपने अपने तौर पर याद करता ही रहता है। सांप्रदायिकता, द्वेष, नफ़रत कितना बुरा समय
दिखाती है, कितने गहरे ज़ख़्म देती है, यह समझ हर उस समझदार नागरिक में है, जो विभाजन की उस विभीषिका को याद करते हैं। ऐसा बिलकुल नहीं है कि देश वो दौर
भूल गया हो। जिन्हें वो दौर याद है, वे सांप्रदायिकता नामके उस ज़हर के ख़तरों से परिचित हैं।
किंतु काल के उस खंड
का राजनीतिकरण एक चुनावी योजना भर है। जो लोग इतिहास को आलू मटर की तरह छीलने में, ग़लत शलत चीज़ें फैलाने
में ही अपनी ज़िंदगियाँ बीता रहे हैं, उनको इस स्मृति में आधिकारिक तौर पर शामिल करके किसी अच्छे परिणाम की उम्मीद नहीं
की जा सकती। जिनके लिए गोडसे हीरो है, जिनके लिए सांप्रदायिकता चुनाव जीतने का रास्ता है, उस तबके को आधिकारिक
रूप से इस स्मृति में शामिल करके देश कुछ भी अच्छा हासिल कैसे करेगा?
वैसे भले प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने यूँ ही कह दिया कि देश चाहता था। लेकिन देश ने आरटीआई के ज़रिए पूछा
तो देश को कह दिया कि कौन चाहता था इसकी सूचना नहीं दी जा सकती!!! कुल मिलाकर, यह नरेंद्र मोदी और
दूसरे कुछ लोगों की राय रही होगी कि 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के रूप
में मनाया जाए। उनकी राय थी, वे सत्ता में हैं, तो लगे हाथ अपनी ही राय को स्वयं ही सम्मान देते हुए उसे आधिकारिक रूप से घोषित
भी कर दिया। वैसे भी नरेंद्र मोदी दिन-उत्सव आदि के आदती हैं। गुजरात में थे तबसे।
निश्चय ही हमें विभाजन
की विभीषिका भी याद रखनी चाहिए। इस विभीषिका ने सैकड़ों-हज़ारों नहीं, लाखों घर उजाड़े थे।
14 अगस्त के दिन विभाजन पूर्ण हुआ था। यानी पाकिस्तान के भारत से अलग होने पर अंतिम
मुहर लगी थी। यूँ देखे तो 14 अगस्त विभाजन दिवस हो सकता है, विभाजन विभीषिका दिवस
नहीं। क्योंकि विभाजन की विभीषिका तो इसके पहले शुरू हो चुकी थी और इसके बाद तक चलती
रही थी। स्मृति दिवस उसे और लंबा खींचने की प्रक्रिया सी लगता है।
विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाने से क्या
होगा? बहुत ही सीधी सादी बात है। ज़्यादा सोचने की भी ज़रूरत नहीं है। देखिए न। अभी घोषणा
ही हुई है। मनाया तो एक बार भी नहीं गया। और अभी से लठैत तथा भक्त प्रकार की प्रजाति
न जाने क्या क्या लिख रही है, बोल रही है। हिंदू मुस्लिम से ही व्हाट्सएप भरा पड़ा है अभी से स्मृति दिवस को लेकर। विभाजन किसकी वजह
से हुआ इसे लेकर अपनी अपनी मान्यताओं को देश का इतिहास बताया जा रहा है। घर की रसोई
से न जाने कैसा कैसा मनगढ़ंत इतिहास पका कर सोशल मीडिया पर ये लोग परोस रहे हैं। किसी
एक को दोषी बताना और हिंदू मुस्लिम के बीच नफ़रत की दीवार को और ज़्यादा मजबूत करना, घोषणा के बाद इसी
सड़क पर लठैत और भक्त प्रजाति सरपट दौड़ लगा रही है। मीडिया की दुकानें आग में डालने
के लिए घी बेचने को तैयार बैठी हैं। विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस का भविष्य अभी वर्तमान
में ही नज़र आने लगा है।
जो अपने मोबाइल का
डाटा पैक भी मुश्किल से कराते थे, वही लोग धारा 370 निष्क्रिय होने के बाद जम्मू-कश्मीर
में प्लॉट ख़रीदने की शेखचिल्ली हरकतें सोशल मीडिया पर करके अपनी फूहड़ता का सार्वजनिक
प्रदर्शन कर रहे थे। ऐसी प्रजाति बहुत ज़्यादा है। यह प्रजाति अब विभाजन का इतिहास आलू
मटर की तरह छील कर अपनी फूहड़ता का प्रदर्शन इस बार भी कर रही है। स्मृति दिवस का ट्रेलर
दिख ही रहा है।
वैसे कुछ लोग कहते
हैं कि आगे जाकर शिक्षक और पढ़े-लिखे लोग सही जानकारी से अवगत कराएँगे। ये तो अच्छे
दिन वाले से भी बड़ा जोक है। कोरोना काल में इन पढ़े-लिखे लोगों और शिक्षक सरीखी प्रजाति
से ‘बहुत सारे’ शिक्षकों ने जिस तरीक़े की फूहड़ता, अज्ञानता और मूर्खता का प्रदर्शन करके अपुष्ट, संदिग्ध, फ़ेक कैटेगरी सरीखी बातों को फैलाने में अपना योगदान दिया उसकी चर्चा हम कर चुके
हैं। अभी कुछ दिनों पहले प्रायमरी स्कूल के एक प्रिंसिपल कम टीचर मिले थे। बता रहे
थे कि कोरोना जैसा कुछ दूसरी लहर में था ही नहीं, बस आम बुखार था, खामखाँ लोग डर गए। ऐसे शिक्षकों को सीधे सीधे वैज्ञानिक घोषित कर देना चाहिए। क्योंकि
बेचारे वैज्ञानिक जीनोम सिक्वेसिंग भी ठीक से कर नहीं पा रहे। प्रिंसिपल महोदय ने बिना
रिसर्च, बिना डाटा, बिना जीनोम सिक्वेसिंग के एलान ही कर दिया कि कोरोना आया ही नहीं था अब की बार।
पढ़ने लिखने से समझदारी, सजगता और जागरूकता
आती है। यह कथन 21वीं शताब्दी के पढ़े-लिखे लोग झूठा साबित करते जा रहे हैं। पिछली
शताब्दी के लोगों से 21वीं शताब्दी के लोग ज़्यादा पढ़े लिखे लोग हैं। तभी पिछली शताब्दी
से ज़्यादा सांप्रदायिकता, ज़्यादा नासमझी, ज़्यादा उग्रता, ज़्यादा स्वार्थ, ज़्यादा नफ़रत, सब कुछ ज़्यादा है!!! अब तो इसीको समझदारी
और जागरूकता कहते हैं!!!
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 74 वर्ष पुरानी
भारत विभाजन की विभीषिका को याद दिलाना चाहते हैं, लेकिन महज़ 4
महीने पहले बिना इलाज के, बिना ऑक्सीजन के मरते लोग और गंगा में तैरती लाशों की विभीषिका
उन्हें याद नहीं है और न ही वे चाहते हैं कि कोई उसे याद रखें। 1947 में सैकड़ों भारतीयों
का सम्मानजनक ढंग से अंतिम संस्कार नहीं हुआ था वह बात याद रखनी है, किंतु अभी कुछ महीनों पहले वैसी ही पीड़ा देश ने झेली, उसे भूल जाना है!!!
विभाजन विभीषिका स्मृति
दिवस के एलान के बाद से पढ़े-लिखे लोगों से लेकर हम जैसे अनपढ़ लोगों तक में जिस प्रकार
का वातावरण दिख रहा है, पक्की बात यही लगती है कि विभाजन की स्मृति से केवल और केवल सांप्रदायिकता निकलेगी
और वह सांप्रदायिकता राजनीति के हवाले हो जाएगी। घर बैठे आलू मटर की तरह इतिहास ज़्यादा जल्दी से छील जाएगा। स्मृति का एक विशेष और ख़ास पन्ना, एक ख़ास नज़रिए से ही
याद रखा जाएगा। अंत में उस कालखंड के इतिहास के पन्ने अधूरे रह जाएँगे। यूँ कहे कि
स्मृति दिवस की राजनीति ऐसा चक्र घूमाएगी कि स्मृति से कुछ पन्ने ही हट जाएँगे।
यूँ तो विभाजन की वह
विभीषिका कोई एक दिन नहीं चली थी। महीनों तक चली थी वह त्रासदी। दुनिया की सबसे भयावह
विस्थापन वाली घटना थी। इस विभीषिका का चरम समय 30 जनवरी, 1948 की शाम महात्मा
गाँधी की हत्या के रूप में आया।
जो लोग चुपचाप गाँधीजी
से आज़ादी की लड़ाई का श्रेय छीन लेना चाहते हैं, जो गाँधीजी और सरदार पटेल को अलग थलग करते रहते हैं, जो
गाँधीजी और भगत सिंह में देश को बाँटते रहते हैं, जो चुपके से यह झूठ स्थापित करना
चाहते हैं कि भगत सिंह की फाँसी रुकवाने के लिए गाँधीजी ने कुछ नहीं किया या फिर जो
सुभाषचंद्र बोस से उनके मतभेदों को कुछ इस तरह उछालते हैं कि गाँधी जैसे बोस के पूरी
तरह ख़िलाफ़ थे, वे लोग जिन्होंने स्वयं स्वतंत्रता की लड़ाई में कोई योगदान नहीं दिया किंतु आज
उस लड़ाई के सेनानियों को बाँट कर राजनीति करते हैं, उस इतिहास को अपनी सोच स्थापित करने के लिए बदलते रहते हैं, जो गोडसे की मूर्तियाँ बनवाने वालों को बढ़ावा देते हैं, वे लोग कैसे गाँधीजी की पुण्यतिथि को विभाजन विभीषिका दिवस के रूप में मनाना चाहेंगे? अगर वे ऐसा करेंगे
तो उन्हें फिर बार-बार याद करना होगा कि गाँधीजी को किसने और क्यों मारा था? फिर उनके लिए यह दिवस
मनाने की वजह भी बदल जाएगी।
दरअसल, किसी तारीख़ का चुनाव
बताता है कि हम घटना को किस तरह देखना चाहते हैं। हमारे लिए अपने दुख, संताप या अपने साथ
घटी किसी त्रासदी का क्या मतलब है? हम उससे क्या सबक लेना चाहते हैं? इस मोड़ पर यह दिखाई पड़ता है कि कम से कम विभाजन और उसकी विभीषिका से बीजेपी
और उसके परिवार की वैचारिकी कोई सबक लेने को तैयार नहीं है। उसे अखंड हिंदू राष्ट्र
को तोड़ने वाला एक खलनायक चाहिए, जो पाकिस्तान है और 14 अगस्त की तारीख़ यह याद दिलाती रहेगी।
सच ये है कि विभाजन
का ख़याल सिर्फ़ अल्लामा इक़बाल, जिन्ना या मुसलमानों को ही नहीं आया था, उसके पहले वह हिंदू आंदोलनकारियों में भी तैर रहा था। भाई परमानंद, लाला लाजपत राय और
सावरकर तक अलग-अलग ढंग से देश के बंटवारे का नक़्शा सुझा रहे थे। कांग्रेस के भीतर
बहुत सारे तत्व थे, जो गाँधीजी और नेहरू की ‘सर्व धर्म समभाव’ वाली नीति से अलग राय रखते थे और वह रेखा खींच रहे थे, जो धीरे-धीरे जिन्ना
को दूर और अबुल कलाम आज़ाद जैसे नेताओं को अकेला करती चली गई। रही-सही कसर पूरी करने
के लिए मुस्लिम लीग थी ही, जिसे आरएसएस की स्थापना से मदद ही मिली।
दरअसल, बंटवारे और उससे जुड़े
हुए इतिहास की एक ख़ास दुर्व्याख्या हमारे यहाँ मौजूद है, जो विभाजन स्मृति
दिवस की घोषणा के बाद फिर से नये जोश में दिखाई देने लगी है। जिस सामाजिक-सांप्रदायिक
घृणा की ज़मीन पर 1947 का बंटवारा हुआ था, उसे फिर से मज़बूत किया जा रहा है। जो मज़बूत करने वाली ताक़तें हैं, वे फिर से
‘फ़ेक न्यूज़’ की भी मदद ले रही हैं।
वही ताक़तें इन दिनों सत्ता में हैं। सड़क पर भाषण देते हुए "गोली मारो...को" जैसी भाषा बोलने वाले
मंत्री बनाए जा रहे हैं। इनके बीच विभाजन की विभीषिका का दिवस मनाने की घोषणा होती
है तो इससे यह आश्वस्ति कम मिलती है कि यह विभाजन की त्रासदी को समझ कर दुबारा वैसी
भूल न करने की कोशिश है, और यह अंदेशा ज़्यादा होता है कि यह चुनावी राजनीति है, सांप्रदायिकता के
हथियार को नयी धार देने की कोशिश है।
ये बिलकुल सच है कि
विभाजन केवल भारत के लिए ही नहीं बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए त्रासद रहा है।
महाद्वीप की भौगोलिक परिस्थितियों और विभाजन के तौर-तरीक़ों को देखा जाए तो लगता है
कि बंटवारा बहुत अनियत, अनियंत्रित और अनियोजित था। किंतु आज़ादी के पश्चात की सबसे बड़ी महामारी की त्रासदी
को भूलकर, उसमें राजनीतिक ग़लतियों को किनारे कर के विभाजन के समय हुए ख़ून-खराबे और बीसवीं
शताब्दी के सबसे बड़े विस्थापन को याद रखना क्यों ज़रूरी है? अव्वल तो विभाजन जैसे
दुस्वप्न को भूलकर आगे बढ़ने की ज़रूरत है। बेशक विभाजन के समय हुई ग़लतियों और बदमजगी
से बचने की आज भी ज़रूरत है। इसलिए इतिहास से निश्चित तौर पर सबक लिया जा सकता है।
धर्म के आधार पर बने
पाकिस्तान के बावजूद आज़ादी के आंदोलन के मूल्यों पर आगे बढ़ते हुए भारत एक समावेशी
और धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक राष्ट्र बना। लेकिन उस समय भारत में ऐसी ताक़तें ज़िंदा थीं, जो ना सिर्फ़ द्विराष्ट्र सिद्धांत के आधार पर अलग मुस्लिम राष्ट्र की समर्थक थीं, बल्कि
वे उसी तरह भारत को भी अतीतजीवी हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहती थीं। तत्कालीन गृह मंत्रालय
और पुलिस की ख़ुफ़िया रिपोर्ट के अनुसार आरएसएस और हिंदू महासभा की इसमें बड़ी भूमिका
थी। ग़ौरतलब है कि गाँधीजी की हत्या में नाथूराम गोडसे के साथ एक विस्थापित मदनलाल पाहवा
भी था; जिसने अपने बयान में भड़काने वाली इन हिंदू सांप्रदायिक शक्तियों की ओर इशारा किया
था।
गाँधीजी की हत्या के
बाद हिंदूवादी शक्तियाँ लंबे समय तक समाज में अस्वीकार्य रहीं। लेकिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों
के ज़रिए संघ ने अपनी वैचारिकी का धीरे-धीरे प्रचार-प्रसार किया। पहले जनसंघ और फिर
बीजेपी के माध्यम से संघ ने अपनी राजनीतिक ताक़त को भी मजबूत किया। नब्बे बरस के बाद
संघ के राजनीतिक दल बीजेपी ने भारत में पूर्ण बहुमत की सत्ता स्थापित की। प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी संघ के प्रचारक रहे हैं। संघ का घोषित एजेंडा हिंदू राष्ट्र है। विभाजन
की त्रासदी और इसलामी राष्ट्र पाकिस्तान को बार-बार भारतीयों की स्मृति में झोंककर
हिंदू राष्ट्र के सपने को साकार करने की रणनीति है। दूसरी तरफ़ समाज को हिंदू और मुसलमान
की बायनरी में विभाजित रखना है। समाज इस बायनरी में जितना विभाजित होगा, उतना ही बीजेपी को चुनावी फ़ायदा होगा। 'विभाजन की विभीषिका' की स्मृति को मनाने का यही फ़ायदा बीजेपी को है।
74 वर्ष पहले 14 अगस्त
के दिन ही पाकिस्तान नामक देश अस्तित्व में आया था, जो कि भारत के दर्दनाक विभाजन का
परिणाम था। सांप्रदायिक नफ़रत और हिंसा के वातावरण में हुआ यह विभाजन महज़ एक देश के
दो हिस्सों में बंटने वाली घटना ही नहीं थी, बल्कि त्याग और समर्पण की चरम सीमा को
लाँघते हुए चले स्वाधीनता संग्राम के विकसित हुए उदात्त मूल्यों की, उस संग्राम में शहीद
हुए क्रांतिकारी योद्धाओं के शानदार सपनों की और असंख्य स्वाधीनता सेनानियों के संघर्ष, त्याग और बलिदानों
की ऐतिहासिक पराजय थी। उसी पराजय का परिणाम था- पाकिस्तान का उदय।
जिस तरह भारत विभाजन की ऐतिहासिक विभीषिका
इतिहास में अमिट है और जिसे कोई भुला या झुठला नहीं सकता, उसी तरह इस हक़ीक़त को भी कोई नहीं झुठला या भुला सकता है कि मौजूदा सत्ताधीशों के वैचारिक पुरखों का भारत
के स्वाधीनता संग्राम से कोई सरोकार नहीं था। मौजूदा सत्ताधीशों और उनके राजनीतिक संगठन
(भारतीय जनता पार्टी) की गर्भनाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और हिंदू महासभा
से जुड़ी हुई है। इन दोनों ही संगठनों ने स्वाधीनता संग्राम से न सिर्फ़ ख़ुद को अलग
रखा था, बल्कि स्पष्ट तौर पर उसका विरोध भी किया था।
1942 के भारत छोड़ो
आंदोलन के रूप में जब भारत का स्वाधीनता संग्राम अपने तीव्रतम और निर्णायक दौर में
था, उस दौरान तो उस आंदोलन
का विरोध करते हुए आरएसएस और हिंदू महासभा पूरी तरह ब्रिटिश हुकूमत की तरफ़दारी कर रहे
थे।
पाकिस्तान के स्वप्नदृष्टा
और संस्थापक मुहम्मद अली जिन्नाह ने तो बहुत बाद में अपने आपको स्वाधीनता आंदोलन से
अलग कर पाकिस्तान का राग अलापना शुरू किया था, लेकिन आरएसएस और हिंदू महासभा का तो शुरू से ही मानना था कि हिंदू और मुसलमान
दोनों अलग-अलग राष्ट्र हैं और दोनों कभी एक साथ रह ही नहीं सकते। जिस तरह मुस्लिम लीग
देश के मुसलमानों में हिंदुओं के प्रति नफ़रत फैलाने के काम में सक्रिय थी, उसी तरह आरोप है कि
आरएसएस हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति नफ़रत फैलाने में जुटा हुआ था। यानी दोनों
ही क़िस्म की सांप्रदायिक ताक़तें अंग्रेज हुकूमत के एजेंडा पर काम कर रही थीं।
स्वाधीनता आंदोलन से
अपनी दूरी और मुसलमानों के प्रति अपने नफ़रत भरे अभियान का आरएसएस का इतिहास जगज़ाहिर
है। आरएसएस, जिन नागरिकों को आज के समय राष्ट्रविरोधी कहता है, दरअसल संघ को उन नागरिकों
का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि वे कम से कम संघ के लोगों को भारतीय तो मानते हैं!!!
आरएसएस के संस्थापक
और पहले सर संघचालक (1925-1940) केशव बलिराम हेडगेवार ने सचेत तरीक़े से आरएसएस को औपनिवेशिक शासन के ख़िलाफ़ आज़ादी
की लड़ाई से अलग रखा। उन्होंने बड़ी राजनीतिक ईमानदारी के साथ आरएसएस को ऐसी किसी भी
राजनीतिक गतिविधि से अलग रखा, जिसके तहत उसे ब्रिटिश हुकूमत के विरोधियों के साथ नत्थी नहीं किया जा सके। हेडगेवार
की आधिकारिक जीवनी में स्वीकार किया गया है- ''संघ की स्थापना के बाद डॉक्टर साहब अपने भाषणों में हिन्दू संगठन के बारे में ही
बोला करते थे। सरकार पर टीका-टिप्पणी नहीं के बराबर रहा करती थी।''
महात्मा गाँधी के नेतृत्व
में सभी समुदायों की एकताबद्ध लड़ाई की कांग्रेस की अपील को ठुकराते हुए हेडगेवार ने
कहा था- ''हिंदू संस्कृति हिंदुस्तान की ज़िंदगी की सांस है। इसलिए स्पष्ट है कि अगर हिंदुस्तान
की रक्षा करनी है तो हमें सबसे पहले हिंदू संस्कृति का पोषण करना होगा।'' यानी जब समूचा देश
एक होकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने की ज़रूरत को आगे रख रहा था, आरएसएस हिंदू मुस्लिम
वाली सड़क पर चलने का आह्वान किए जा रहा था। जैसे कि उसके लिए स्वतंत्रता गौण विषय
था।
पूरे स्वतंत्रता संग्राम
के दौरान आरएसएस और उसकी ताक़तों ने स्वयं को उस त्याग और समर्पण से दूर ही रखा था। ग़ज़ब है कि आज तैयारी थाली में खाते हैं वे लोग, और ख़ुद को इतिहास का सृजनकर्ता बताते हैं!!! जबकि इतिहास उनकी नकारात्मकताओं से भरे पन्ने संजोये हुए है। आज जो नायक
आंदोलन का मज़ाक उड़ाता है, आंदोलनजीवी लफ्ज़ की गरिमा को लांछित करता है, उसी नायक
के राजनीतिक पुरखों ने उस ज़माने में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ भारत के आंदोलन को महज़ ‘उथल पुथल’ के रूप में रेखांकित किया था!!!
हेडगेवार ने महात्मा
गाँधी के नमक सत्याग्रह आंदोलन की निंदा करते हुए कहा था- ''आज जेल जाने को देशभक्ति
का लक्षण माना जा रहा है।...'' और फिर अपने बयान में हेडगेवार ने देश के लिए जेल भरो कार्यक्रम को महज़ क्षणभंगुर
भावना कहकर देशभक्ति के उन उच्चतम प्रयासो को सार्वनजिक रूप से अपमानित किया था। उन्होंने
बाक़ायदा उन दिनों जेल जाने के आह्वान का मज़ाक तक उड़ाया था!!! नमक सत्याग्रह और ब्रिटिश सरकार के बढ़ते हुए दमन के संदर्भ में आरएसएस कार्यकर्ताओं
को उन्होंने निर्देश दिया था कि, "इस वर्तमान आंदोलन के कारण किसी भी सूरत में
आरएसएस को ख़तरे में नहीं डालना है।"
1940 में हेडगेवार
की मृत्यु के बाद आरएसएस के प्रमुख भाष्यकार और दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर
का भी स्वाधीनता आंदोलन के प्रति रवैया वैसा ही रहा। वे अंग्रेज़ शासकों के विरुद्ध
किसी भी आंदोलन अथवा कार्यक्रम को कितना नापसन्द करते थे इसका अंदाज़ा उनके इन शब्दों
से लगाया जा सकता है- ''नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय-समय
पर देश में उत्पन्न परिस्थिति के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती ही रहती है। 1942
में ऐसी उथल-पुथल हुई थी। उसके पहले 1930-31 में भी आंदोलन हुआ था। उस समय कई लोग डॉक्टर
जी (हेडगेवार) के पास गए थे। इस 'शिष्टमंडल’ ने डॉक्टर जी से अनुरोध किया कि इस आंदोलन से आज़ादी मिल जायेगी और संघ को पीछे
नहीं रहना चाहिए। उस समय एक सज्जन ने जब डॉक्टर जी से कहा कि वह जेल जाने के लिए तैयार
है, तो डॉक्टर जी ने कहा-
'ज़रूर जाओ। लेकिन पीछे
आपके परिवार को कौन चलाएगा?’ उस सज्जन ने बताया, 'दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं, आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने
कर रखी है।’ तो डॉक्टर जी ने कहा- 'आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए
निकलो।’ घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गए, न संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले।”
गोलवलकर द्वारा प्रस्तुत
इस ब्यौरे से यह बात सीधे तौर पर सामने आ जाती है कि आरएसएस का मक़सद स्वाधीनता संग्राम
के प्रति आम लोगों को निराश व निरुत्साहित करना था। ख़ासतौर से उन देशभक्त लोगों को, जो अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ कुछ करने की इच्छा लेकर घर से आते थे। भारत छोड़ो
आंदोलन को आरएसएस ने महज़ उथल पुथल बताया था!!! यही तो राष्ट्रवाद का अंतिम नतीजा है। स्वतंत्रता संग्राम से संघ और उसके
साथियों ने आयोजित दूरी बनाए रखी। इतना ही नहीं, इंदिरा गाँधी द्वारा लगाए गए
आपातकाल के दौरान भी संघ आपातकाल और इंदिरा के प्रति नरमी बरतता रहा।
अगर आरएसएस का रवैया
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति जानना हो तो गोलवलकर के इस वक्तव्य को पढ़ना काफ़ी
होगा - ''सन 1942 में भी अनेक लोगों के मन में तीव्र आंदोलन था। उस समय भी संघ का नित्य
कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया। परन्तु संघ के
स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल चल ही रही थी। संघ अकर्मण्य लोगों की संस्था है, इनकी बातों का कुछ
अर्थ नहीं, ऐसा केवल बाहर के लोगों ने ही नहीं, कई अपने स्वयंसेवकों ने भी कहा। वे बड़े रुष्ट भी हुए।"
गोलवलकर का यह कहना कि भारत छोड़ो आंदोलन के
दौरान आरएसएस का 'रोज़मर्रा का काम’ ज्यों का त्यों चलता रहा, बहुत अर्थपूर्ण है। यह रोज़मर्रा का काम क्या था? इसे समझना ज़रा भी
मुश्किल नहीं है। ग़ौरतलब है कि अंग्रेज़ी शासन में आरएसएस और मुस्लिम लीग पर कभी भी
प्रतिबंध नहीं लगाया गया।
सच तो यह है कि गोलवलकर
ने स्वयं भी कभी यह दावा नहीं किया कि आरएसएस अंग्रेज़ विरोधी संगठन था। अंग्रेज़ शासकों
के चले जाने के बहुत बाद गोलवलकर ने 1960 में मध्य प्रदेश के इंदौर में अपने एक भाषण
में कहा- ''कई लोग पहले इस प्रेरणा से काम करते थे कि अंग्रेज़ों को निकाल कर देश को स्वतंत्र
करना है। अंग्रेज़ों के औपचारिक रूप से चले जाने के बाद यह प्रेरणा ढीली पड़ गयी। वास्तव
में इतनी ही प्रेरणा रखने की आवश्यकता नहीं थी। हमें स्मरण रखना होगा कि हमने अपनी
प्रतिज्ञा में धर्म और संस्कृति की रक्षा कर राष्ट्र की स्वतंत्रता का उल्लेख किया
है। उसमें अंग्रेज़ों के जाने-न जाने का उल्लेख नहीं है।" स्वयं इतिहास साक्षी
है कि जिस समय सुभाषचंद्र बोस सैन्य संघर्ष के ज़रिए ब्रिटिश हुकूमत को भारत से उखाड़
फेंकने की रणनीति बुन रहे थे, ठीक उसी समय हिंदू महासभा के नेता विनायक दामोदर सावरकर ब्रिटेन को युद्ध में
हर तरह की मदद दिए जाने के पक्ष में थे। यहाँ यह भी याद रखा जाना चाहिए कि इससे पहले
सावरकर माफ़ीनामा देकर इस शर्त पर जेल से छूट चुके थे कि वे ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़
किसी भी तरह की गतिविधि में शामिल नहीं होंगे और हमेशा उसके प्रति वफ़ादार बने रहेंगे।
इस शर्त पर उनकी न सिर्फ़ जेल से रिहाई हुई थी बल्कि उन्हें 60 रुपए प्रति माह पेंशन
भी अंग्रेज़ हुकूमत से प्राप्त होने लगी थी।
1941 में बिहार के
भागलपुर में हिन्दू महासभा के 23वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए सावरकर ने ब्रिटिश
शासकों के साथ सहयोग करने की नीति का एलान किया था। उन्होंने कहा था, "देश भर के हिंदू संगठनवादियों (हिंदू महासभाइयों) को दूसरा सबसे महत्वपूर्ण और
अति आवश्यक काम यह करना है कि हिन्दुओं को हथियारबंद करने की योजना में अपनी पूरी ऊर्जा
और कार्रवाइयों को लगा देना है। जो लड़ाई हमारी देश की सीमाओं तक आ पहुँची है वह एक
ख़तरा भी है और एक मौक़ा भी।"
इसके आगे सावरकर ने
कहा था, "सैन्यीकरण आंदोलन को तेज़ किया जाए और हर गाँव-शहर में हिन्दू महासभा की शाखाएँ
हिन्दुओं को थल सेना, वायु सेना और नौ सेना में और सैन्य सामान बनाने वाली फ़ैक्ट्रियों में भर्ती होने
की प्रेरणा के काम में सक्रियता से जुड़ें।"
इससे पहले 1940 के मदुरा अधिवेशन में सावरकर
ने अपने भाषण में बताया था कि पिछले एक साल में हिंदू महासभा की कोशिशों से लगभग एक
लाख हिन्दुओं को अंग्रेज़ों की सशस्त्र सेनाओं में भर्ती कराने में वे सफल हुए हैं।
जब आज़ाद हिन्द फ़ौज जापान की मदद से अंग्रेज़ी फ़ौज को हराते हुए पूर्वोत्तर में दाखिल
हुई तो उसे रोकने के लिए अंग्रेज़ों ने अपनी उसी सैन्य टुकड़ी को आगे किया था, जिसके गठन में सावरकर
ने अहम भूमिका निभाई थी।
लगभग उसी दौरान, यानी
1941-42 में सुभाष बाबू के बंगाल में सावरकर की हिन्दू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ
मिल कर सरकार बनाई थी। हिन्दू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी उस साझा सरकार में वित्त
मंत्री थे।
उस सरकार के प्रधानमंत्री
मुस्लिम लीग के नेता अबुल
कासिम फजलुल हक थे। अहम बात यह है कि फजलुल हक ने ही भारत का बंटवारा
कर अलग पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव 23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर सम्मेलन
में पेश किया था।
हिन्दू महासभा ने सिर्फ़
'भारत छोड़ो आन्दोलन' से ही अपने
आपको अलग नहीं रखा था, बल्कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने एक पत्र लिख कर अंग्रेज़ों से कहा था कि कांग्रेस
की अगुआई में चलने वाले इस आन्दोलन को सख़्ती से कुचला जाना चाहिए। मुखर्जी ने 26 जुलाई, 1942 को बंगाल के
गवर्नर सर जॉन आर्थर हरबर्ट को लिखे पत्र में कहा था, "कांग्रेस द्वारा बड़े
पैमाने पर छेड़े गए आन्दोलन के फलस्वरूप प्रांत में जो स्थिति उत्पन्न हो सकती है, उसकी ओर मैं आपका
ध्यान दिलाना चाहता हूँ।"
मुखर्जी ने उस पत्र में 'भारत छोड़ो आन्दोलन' को सख़्ती से कुचलने की बात कहते हुए इसके लिए कुछ ज़रूरी सुझाव भी दिए
थे। उन्होंने लिखा था, "सवाल यह है कि बंगाल में भारत छोड़ो आन्दोलन को कैसे रोका जाए। प्रशासन को इस तरह
काम करना चाहिए कि कांग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद यह आन्दोलन प्रांत मे अपनी जड़ें
न जमा सके। इसलिए सभी मंत्री लोगों को यह बताएँ कि कांग्रेस ने जिस आज़ादी के लिए आन्दोलन
शुरू किया है, वह लोगों को पहले से ही हासिल है।"
जहाँ तक राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे का सवाल है, सत्ता का स्वाद चखने
के बाद पिछले कुछ सालों से भले ही आरएसएस तिरंगे के प्रति प्रेम जताने लगा हो और उसके
मुख्यालय पर भी तिरंगा फहराया जाने लगा हो, मगर हक़ीक़त यह है
कि आज़ादी से पहले और आज़ादी मिलने के बाद कई वर्षों तक आरएसएस तिरंगे के प्रति हिकारत
जताता रहा है। आरएसएस ने अपने अंग्रेज़ी पत्र ऑर्गनाइज़र में 14 अगस्त 1947 वाले अंक
में लिखा, “वे लोग, जो क़िस्मत के दांव से सत्ता तक पहुँचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगा
थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा ना इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा और ना ही अपनाया जा सकेगा।
तीन का आँकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झंडा, जिसमें तीन रंग हो वह बेहद ख़राब
मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुक़सानदेह होगा।”
गोलवलकर ने भी अपने
लेख में कहा है, "कौन कह सकता है कि यह एक शुद्ध तथा स्वस्थ राष्ट्रीय दृष्टिकोण है? यह तो केवल राजनीतिक, कामचलाऊ और तात्कालिक
उपाय था। यह किसी राष्ट्रीय दृष्टिकोण अथवा राष्ट्रीय इतिहास तथा परंपरा पर आधारित
किसी सत्य से प्रेरित नहीं था। वही ध्वज आज कुछ छोटे से परिवर्तनों के साथ राज्य ध्वज
के रूप में अपना लिया गया है। हमारा राष्ट्र एक प्राचीन तथा महान राष्ट्र है, जिसका
गौरवशाली इतिहास है। तब क्या हमारा कोई अपना ध्वज नहीं था? क्या सहस्त्र वर्षों
में हमारा कोई राष्ट्रीय चिन्ह नहीं था? निःसन्देह, वह था। तब हमारे दिमाग़ में यह शून्यतापूर्ण रिक्तता क्यों?" (एम. एस. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ- 237)
बीजेपी को सत्ता तक
पहुंचाने वाले संगठन आरएसएस तथा उससे जुड़े दूसरे साथी संगठनों से जुड़े उपरोक्त तमाम
तथ्य यह साबित करते हैं कि आज जो लोग सत्ता में बैठे हैं, उनका और उनके वैचारिक
पुरखों का भारत के स्वाधीनता आंदोलन से रत्तीभर भी जुड़ाव नहीं था और इसीलिए उनके लिए
स्वाधीनता दिवस का भी सिर्फ़ प्रतीकात्मक महत्व है। विभाजन विभीषिका दिवस जैसे कि स्वाधीनता
दिवस को महत्वहीन बनाकर सांप्रदायिक विभाजन को ज़्यादा तेज़ करने का एजेंडा भर है।
जहाँ चुनाव ही
सांप्रदायिकता, धर्म, जाति, आदि राक्षसी लक्षणों के आधार पर लड़े जाते हैं, वहाँ
विभाजन की पीड़ा याद कराने का उद्देश्य क्या होगा? जहाँ समाज को बाँट कर राजनीति की जाती है, वहाँ उस पीड़ा को स्मृतिपटल पर
स्थायी कराने का उद्देश्य क्या होगा? 14 अगस्त की तारीख़ खाली पड़ी थी। उसे एक विशेष राजनीतिक उद्देश्य के लिए बुक
कर लिया गया है। वैसे यह दिन कैसे मनाया जाएगा, कैसे विज्ञापन आएँगे, कैसे बैनर
लगेंगे, उसमें किसके फ़ोटू लगेंगे, किसके नहीं लगेंगे, जो पर्चे बाँटे जाएँगे उसमें
क्या होगा और क्या नहीं होगा, क्या कार्यक्रम होंगे, कार्यक्रमों में क्या बोला
जाएगा, कुछ तय नहीं है। इसकी घोषणा नहीं हुई है।
किंतु स्मृति दिवस
नियंत्रित होगा या अनियंत्रित, इसको लेकर आशंका अभी से हर जगह व्याप्त है। उस
त्रासदी का इतिहास कितना तोड़ा जाएगा, कितना मरोड़ा जाएगा, झूठ का तड़का कितना
लगेगा, सच का स्वाद कितना होगा, बहुत सारी चीज़ें सामने खड़ी हैं। विभाजन के उस
इतिहास का जिस तरह अभी से श्रृंगार हो रहा है, आशंका यह भी है कि उस पीड़ा को लेकर
अब आँसू और समझ की जगह क्रोध और नफ़रत का पलड़ा ज़्यादा भारी होगा। स्थापित इतिहास
से छेड़छाड़ होने की संभावना तो है ही। इससे नये बँटवारे की ज़मीन खड़ी की जाएगी। वह
भौगोलिक विभाजन था, अब भावनात्मक विभाजन होगा। उस समय देश द्दश्य रूप से विभाजित
हुआ था, अब विभाजन अद्दश्य होगा। वह अद्दश्य विभाजन भीतर से होगा।
स्मृति के बहाने
विभाजन का वो दंश स्थायी रूप से स्मृतिपटल पर अंकित करने की क़वायद! स्वतंत्रता की लड़ाई में आहुति देने वालों की सूची यूँ तो एक ख़ास समुदाय अपनी मान्यताओं
के आधार पर संशोधित कर ही चुका है! यह संशोधन और ज़्यादा तेज़ होगा। इतिहास का, मान्यताओं का, धारणाओं का, विचारों
का विभाजन।
विभाजन विभीषिका दिवस के एलान के बाद से ही व्हाट्सएप विश्वविद्यालय से लेकर
फ़ेसबुक तक प्रजा जिस तरह से इतिहास को तोड़ मरोड़ रही है, आलू मटर की तरह छील रही
है, विभाजन की विभीषिका से समझ लेने की जगह सांप्रदायिकता और हिंदू मुस्लिम वाली
नफ़रत को मजबूत किए जा रही है, फ़ेक न्यूज़ और मनगढ़ंत इतिहास का सृजन किए जा रही है,
किसी के लिए चुनावी राजनीति के लिहाज़ से अच्छा वातावरण तैयार हो रहा है।
ऊपर से कोरोना काल की विभीषिका को प्रजा भूल जाए यह एक के साथ एक फ्री वाले
स्कीम जैसा है। देश के नायक के हिसाब से देश ने यह भावुक निर्णय लिया है। नायक स्वयं
भावुक होने के साथ साथ देश को भावुक बनाने के फ़ायदे जानता होगा, तभी उन्होंने
भावुक लफ्ज़ इस्तेमाल किया। क्योंकि भावुकता का तर्क, तथ्यों, प्रमाण आदि से
ताल्लुक़ नहीं होता। भावुक सभ्यता सरकारों के लिए वरदान समान होती है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
Social Plugin