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Political Journey of UP: उत्तरप्रदेश का गेस्ट हाउस कांड, मुलायम सिंह और मायावती


'राजनीतिक किस्से' में आज बात करते हैं यूपी की। एक ऐसा राजनीतिक संस्करण, जिसका संबंध बहनजी से है, जिन्हें हम मायावती के नाम से जानते हैं। यूँ तो इस किस्से को यूपी की राजनीति का काला अध्याय माना जाता है, किंतु राजनीति के अध्याय स्याह के बजाए श्वेत भी होते हैं, यह भारत की राजनीति अब तक साबित नहीं कर पायी है!
 
Black Day of UP Politics?: 2 जून 1995, गेस्ट हाउस कांड, मायावती और मुलायम सिंह यादव
यूँ तो भारतीय राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी, गठबंधन और विच्छेद, आदि को लेकर सारे के सारे राजनीतिक दल निहायत अविश्वसनीय हैं। राज्य कोई भी हो, या फिर केंद्र की राजनीति हो, तमाम नेता और तमाम दल अपनी इस बंदरबाजी को साबित करते रहे हैं।
 
भारतीय राजनीति में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच गठबंधन की बात भी कुछ इसी तरह से अजीब है। मायावती और मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक तल्ख़ी की भारतीय राजनीति गवाह रही है। यह पूरा मामला लखनऊ गेस्ट हाउस कांड के नाम से जाना जाता है।
 
दिन था 2 जून। साल था 1995। किंतु कहानी शुरू होती है क़रीब ढाई साल पहले से। 6 दिसंबर 1992, वो दिन, जब बाबरी मस्जिद गिरा दी गई। यूपी में उस समय बीजेपी की सरकार थी। मुख्यमंत्री थे कल्याण सिंह। दरअसल राम भगवान की लहर के तले 1991 में बीजेपी ने यूपी में 221 सीटें जीती थीं और सरकार बनाई थी। 1992 के आख़िरी महीने में बाबरी मस्जिद का विध्वंश हुआ और इसके बाद नरसिंहराव की केंद्र सरकार ने यूपी की राज्य सरकार को बर्खास्त कर दिया।
 
इसके बाद 1993 में राज्यसभा के चुनाव हुए। बीजेपी की यूपी में जो लहर थी, उससे सपा तथा बसपा, दोनों परेशान थे। बीजेपी को सत्ता से बाहर करने के लिए समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव और बीएसपी प्रमुख कांशीराम ने गठजोड़ किया। उस समय उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश का हिस्सा हुआ करता था और कुल सीट थीं 422। मुलायम 256 सीट पर लड़े और बीएसपी को 164 सीट दीं। चुनाव में एसपी को 109 और बीएसपी को 67 सीटें मिलीं।

बीजेपी को आश्चर्यजनक रूप से राम लहर के बाद जितनी सीटें मिली थीं, उससे भी कम सीटें बाबरी मस्जिद विध्वंश के बाद मिलीं। बीजेपी की सीटों का आँकड़ा 177 तक ही पहुंचा और वो बहुमत से दूर रही। हालाँकि वो अब भी यूपी में सबसे बड़ी पार्टी थी। उधर एसपी-बीएसपी का गठबंधन पहले ही हो चुका था। सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद बीजेपी सरकार बना नहीं पाई।
 
सपा और बसपा ने मिलकर सरकार बना ली। मुलायम सिंह यादव बीएसपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बने। शुरुआत में सरकार सही चली। मंडल कमीशन की रिपोर्ट, सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थाओं में दलितों और पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण के प्रति समर्थन ही दोनों पार्टियों को जोड़ने का सैद्धांतिक सूत्र था। सरकार बनने के बाद कांशीराम ने यूपी की ज़िम्मेदारी मायावती को सौंप दी और ख़ुद दूसरे राज्यों में पार्टी का विस्तार करने में जुट गए।
मायावती के जीवन पर लिखी किताब 'बहनजी' में अजय बोस लिखते हैं, "कांशीराम कभी मुलायम से मिलने नहीं जाते थे। उनकी ज़िद होती थी कि मुलायम सिंह उनसे मिलने राज्य के अतिथि-गृह में आएं। मुलायम आते थे तब कांशीराम आधे-आधे घंटे इंतज़ार करवाते थे। अंत में बड़ी लापरवाही के साथ बनियान और लुंगी पहनकर नीचे उतरते थे। मीडिया के कैमरों के कारण मुलायम का संकोच और बढ़ जाता था।"
 
1995 का साल था। राज्य में पंचायत चुनाव हुए। 50 ज़िलों में से 30 पर सपा जीत गई, जबकि बसपा के हाथ महज़ 1 सीट ही लगी। 9 में बीजेपी और 5 पर कांग्रेस जीती। इस रिजल्ट से साफ़ हो गया कि सपा-बसपा गठबंधन के बीच फ़ायदा सपा को ही हुआ। छोटी मोटी चीज़ों के चलते सपा और बसपा के बीच दूरियाँ बढ़ ही रही थीं। पंचायत चुनाव के नतीजों के बाद दोनों पार्टियों के बीच विवाद गहराया। एक तरफ़ मुलायम सिंह बसपा के विधायकों को अपने पाले में करने लग गए। दूसरी तरफ़ बसपा बीजेपी के संपर्क में आने लगीं।
 
1 जून 1995 को मुलायम सिंह को ख़बर लग गई कि बसपा समर्थन वापस लेने जा रही है। मायावती ने तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा से मिलकर बीजेपी के सहारे सरकार बनाने का प्रस्ताव रखा। मुलायम गुस्से से लाल हो गए। बसपा के प्रदेश अध्यक्ष रामबहादुर को अपने पाले में कर लिया। उनके साथ 15 और विधायक भी आ गए। लेकिन दल-बदल कानून से बचने के लिए एक तिहाई सदस्य चाहिए, यानी 8 और विधायक चाहिए थे।
 
अजय बोस बताते हैं"कांशीराम के अस्पताल में होने के कारण मुलायम सिंह इस बात को लेकर निश्चिंत थे कि सरकार चलती रहेगी। क्योंकि बसपा के कई विधायक पहले से उनकी जेब में थे। लेकिन जब समर्थन वापस लेने की बात आई तब तय हुआ कि बसपा के और विधायकों को डरा धमकाकर अपने पाले में किया जाए।"
 
आख़िरकार 2 जून, 1995 को बसपा ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और समर्थन वापसी की घोषणा कर दी। इस वजह से मुलायम सिंह की सरकार अल्पमत में आ गई। सरकार को बचाने के लिए जोड़-घटाव किए जाने लगे। ऐसे में अंत में जब बात नहीं बनी, तो नाराज़ सपा के कार्यकर्ता और विधायक लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्थित स्टेट गेस्ट हाउस पहुंच गए, जहाँ मायावती कमरा नंबर-1 में ठहरी हुई थीं।

2 जून 1995 के दिन उत्तर प्रदेश की राजनीति में जो हुआ, वह शायद ही कहीं हुआ होगा। मायावती पर गेस्ट हाउस के कमरा नंबर 1 में हमला हुआ। 2 जून 1995 को मायावती लखनऊ के स्टेट गेस्ट हाउस के कमरा नंबर 1 में अपने विधायकों के साथ बैठक कर रही थीं। तभी दोपहर क़रीब तीन बजे के बाद समाजवादी पार्टी के कथित कार्यकर्ताओं की भीड़ ने अचानक गेस्ट हाउस पर हमला बोल दिया। कांशीराम के बाद बीएसपी में दूसरे नंबर की नेता मायावती थीं। उस दिन समाजवादी पार्टी के विधायकों और समर्थकों की उन्मादी भीड़ सबक सिखाने के लिये आमादा थी।
मायावती लखनऊ के मीराबाई स्टेट गेस्ट हाउस में पार्टी के विधायकों और सांसदों के साथ मीटिंग कर रही थीं। सभी विधायक कॉमन हॉल में बैठे थे। तीन-चार बजे के आसपास का समय था, तभी सपा के क़रीब 200 कार्यकर्ता और विधायक गेस्ट हाउस पहुंच गए। उनकी पहली लाइन थी, "चमार पागल हो गए हैं।" सपा कार्यकर्ता भद्दी-भद्दी गालियाँ दे रहे थे। जातिसूचक सबसे अधिक। बसपा के विधायकों ने मेन गेट बंद करना चाहा तभी उग्र भीड़ ने उसे तोड़ दिया। इसके बाद बसपा के विधायकों को हाथ-लात और डंडों से पीटा जाने लगा।
 
मायावती के जीवन पर आधारित अजय बोस की किताब 'बहनजी' में गेस्टहाउस में उस दिन घटी घटना की जानकारी विस्तार से दी गई है। बताया जाता है कि 1995 के गेस्टहाउस कांड में कथित तौर पर सपा के कार्यकर्ताओं ने बसपा के कार्यकर्ताओं और नेताओं को कमरे में बंद करके मारा और उनके कपड़े फाड़ दिए। किसी तरह मायावती ने अपने को कमरे में बंद किया। उधर बाहर से समाजवादी पार्टी के विधायक और समर्थक दरवाज़ा तोड़ने में लगे हुए थे। इस बीच, कहा जाता है कि बीजेपी विधायक ब्रम्हदत्त द्विवेदी मौक़े पर पहुंचे और सपा विधायकों और समर्थकों को पीछे ढकेला।
 
यूपी की राजनीति में इस कांड को गेस्ट हाउस कांड कहा जाता है और ये भारत की राजनीति के माथे पर कलंक है। ख़ुद मायावती ब्रम्हदत्त द्विवेदी को भाई कहने लगीं और सार्वजनिक तौर पर कहती रहीं कि अपनी जान की परवाह किए बिना उन्होंने मेरी जान बचाई थी।


बता दें कि ब्रह्मदत्त द्विवेदी की छवि भी दबंग नेता की थी। ब्रह्मदत्त द्विवेदी संघ के सेवक थे और उन्हें लाठी चलानी भी बख़ूबी आती थी, इसलिए वो एक लाठी लेकर हथियारों से लेस कार्यकर्ताओं से भिड़ गए थे। यही वजह है कि मायावती ने उन्हें हमेशा अपना बड़ा भाई माना और कभी उनके ख़िलाफ़ अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया। पूरे राज्य में मायावती बीजेपी का विरोध करती रहीं, लेकिन फर्रुखाबाद में ब्रह्मदत्त द्विवेदी के लिए प्रचार करती थीं। कहा जाता है कि जब कुछ लोगो ने बाद में ब्रह्मदत्त द्विवेदी की गोली मारकर हत्या कर दी, तब मायावती उनके घर गईं और फूट-फूट कर रोईं थीं। उनकी विधवा ने जब चुनाव लड़ा तब मायावती ने उनके ख़िलाफ़ कोई उम्मीदवार नहीं उतारा, बल्कि लोगों से अपील की थी कि मेरी जान बचाने के लिए दुश्मनी मोल लेकर शहीद होने वाले मेरे भाई की विधवा को वोट दें।
 
उस दिन सपा विधायकों से बचने के लिए मायावती ने भागकर अपने आप को एक कमरे में बंद कर लिया। उनके अलावा कमरे में दो और लोग थे। उनमें एक सिकंदर रिज़वी थे। उपद्रव कर रहे लोग दरवाज़ा पीटने लगे। कह रहे थे, "चमार औरत को उसकी मांद में से घसीटकर बाहर निकालो।" अंदर से सिकंदर रिज़वी ने दरवाज़े के पास सोफे और मेज को लगा दिया, ताकि अगर सिटकनी टूटे भी तो दरवाज़ा न खुल सके। उस वक़्त पेजर का चलन था। प्रशासन को सूचना दी गई। मौक़े पर बड़े अधिकारी पहुंचे।
गेस्ट हाउस कांड में उस दिन जो हुआ उसे देखे तो, कुछ रिपोर्टों के मुताबिक़, चीख़-पुकार मचाते हुए समाजवादी पार्टी के विधायक, कार्यकर्ता और भीड़ अश्लील भाषा और गाली-गलौज़ का इस्तेमाल कर रहे थे। कॉमन हॉल में बैठे विधायकों (बहुजन समाज पार्टी के विधायक) ने जल्दी से मुख्य द्वार बंद कर दिया, परन्तु झुंड ने उसे तोड़कर खोल दिया। फिर वे असहाय बसपा विधायकों पर टूट पड़े और उन्हें थप्पड़ मारने और ‌लतियाने लगे। बताया जाता है कि कम-से-कम पाँच बसपा विधायकों को घसीटते हुए ज़बर्दस्ती अतिथि गृह के बाहर ले जाकर गाड़ियों में डाला गया, और उन्हें मुख्यमंत्री के निवास स्थान पर ले गए।
 
इन विधायकों को राजबहादुर के नेतृत्व में बसपा विद्रोही गुट में शामिल होने के लिए और एक काग़ज़ पर मुलायम सिंह सरकार को समर्थन देने की शपथ लेते हुए दस्तख़त करने को कहा गया। उनमें से कुछ तो इतने डर गए थे कि उन्होंने कोरे काग़ज़ पर ही दस्तख़त कर दिए। दावा किया जाता है कि विधायकों को रात में काफ़ी देर तक वहाँ बंदी बनाए रखा गया।

जिस समय अति‌थिगृह में बसपा विधायकों को इस तरह से धर कर दबोचा जा रहा था, कमरों के सेट 1-2 के सामने, जहाँ मायावती कुछ विधायकों के साथ बैठी थीं, वहाँ एक विचित्र नाटक ‌घटित हो रहा था। बाहर की भीड़ से कुछ-कुछ विधायक बच कर निकल आए थे और उन्होंने उन्हीं कमरों मे छिपने के लिए शरण ले ली थी। अंदर आने वाले आख़िरी वरिष्ठ बसपा नेता आरके चौधरी थे, जिन्हें सिपाही रशीद अहमद और चौधरी के निजी रक्षक लालचंद की देखरेख में बचा कर लाए थे। कमरों में छिपे विधायकों को लालचंद ने दरवाज़े को अंदर से लॉक करने की हिदायत दी और उन्होंने अभी दरवाज़े बंद ही किए थे कि भीड़ में से एक झुंड गलियारे में धड़धड़ाता हुआ घुसा और दरवाज़ा पीटने लगा।


मायावती को दो क‌निष्ठ पुलिस अफ़सरों ने बचाया। ये ‌थे विजय भूषण, जो हजरतगंज स्टेशन के हाउस अफ़सर (एसएचओ) थे, और सुभाष सिंह बघेल, जो एसएचओ (वीआईपी) थे, जिन्होंने कुछ सिपाहियों को साथ ले कर बड़ी मुश्किल से भीड़ को पीछे धकेला। फिर वे सब गलियारे में कतारबद्ध होकर खड़े हो गए, ताकि कोई भी उन्हें पार न कर सकें। क्रोधित भीड़ ने फिर भी नारे लगाना और गालियाँ देना जारी रखा और मायावती को घसीट कर बाहर लाने की धमकी देती रही।
 
कुछ पुलिस अफ़सरों की इस साहसपूर्ण और सामयिक कार्यवाही के अलावाज़्यादातर उपस्थित अधिकारियों ने, जिनमें राज्य अतिथि गृह के संचालक और सुरक्षा कर्मचारी भी शामिल थे, इस पूरे पागलपन को रोकने की कोई कोशिश नहीं की। यह सब एक घंटे से ज़्यादा समय तक चलता रहा। कई बसपा विधायकों और कुछ पुलिस अधिकारियों के ये बयान ‌स्तम्भित करने वाले थे कि जब विधायकों को अपहरण किया जा रहा था और मायावती के कमरों के आक्रमण हो रहा था, उस समय वहाँ लखनऊ के सीनियर सुपरिण्टेडेण्ट ऑफ़ पुलिस ओपी सिंह भी मौजूद थे।
 
चश्मदीदों के अनुसार वे सिर्फ़ खड़े हुए सिगरेट फूंक रहे थे। आक्रमण शुरू होने के तुरंत बाद रहस्यात्मक ढंग से अतिथि गृह की बिजली और पानी की सप्लाई काट दी गई। इसका आरोप भी उन्हीं पर लगा। लखनऊ के ज़िला मजिस्ट्रेट के वहाँ पहुंचने के बाद ही परिस्थिति में सुधार आया। उन्होंने क्रोधित भीड़ का डट कर मुक़ाबला किया। एसपी राजीव रंजन के साथ मिलकर ज़िला मजिस्ट्रट ने सबसे पहले भीड़ के उन सदस्यों को अतिथिगृह के दायरे के बाहर धकेला, जो विधायक नहीं थे। बाद में पुलिस के अतिरिक्त बल संगठनों के आने पर उन्होंने सपा के विधायकों समेत सभी को राज्य अति‌‌थि-गृह के दायरे के बाहर निकलवा दिया।
हालाँकि ऐसा करने के लिए उन्हें विधायकों पर लाठीचार्ज करने के हुक्म का सहारा लेना पड़ा। फिर भी सपा के विधानसभा सदस्यों के ख़िलाफ़ कार्यवाही न करने की मुख्यमंत्री के कार्यालय से मिली चेतावनी को अनसुनी करके वे अपने फ़ैसले पर डटे रहे। कहते हैं कि अपनी ड्यूटी बिना डरे और पक्षपात न करने के फलस्वरूप रात को 11 बजे के बाद ज़िला मजिस्ट्रेट के लिए तत्काल प्रभावी रूप से तबादले का हुक्म जारी कर दिया गया।
 
जैसे ही राज्यपाल के कार्यालय, केंद्र सरकार और वरिष्ठ भाजपा नेताओं के दखल देते ही ज़्यादा से ज़्यादा रक्षा दल वहाँ पहुंचने लगे, अतिथि गृह के अंदर की स्थिति नियंत्रित होती गई। जब रक्षकों ने बिल्डिंग के अंदर और बाहर कब्ज़ा कर लिया, तब गालियाँ, धमकियाँ और नारे लगाती हुई भीड़ धीरे-धीरे कम होती चली गई। मायावती और उनके पार्टी विधायकों के समूह को, जिन्होंने अपने आप को कमरे के सेट 1-2 के भीतर बंद किया हुआ था, यक़ीन दिलाने के लिए ज़िला मजिस्ट्रेट और अन्य अधिकारियों को अनुरोध करना पड़ा कि अब ख़तरा टल गया है और वे दरवाज़ा खोल सकते हैं। जब उन्होंने दरवाज़ा खोला, तब तक काफ़ी रात हो चुकी थी।
 
और फिर अगले दिन मायावती मुख्यमंत्री बनीं। राजनीति का यह ग़ज़ब समयचक्र था। जिस महिला को उनके समर्थकों के साथ घेरकर डराया और धमकाया जा रहा था, उनके विधायकों को पीटा जा रहा था, वो अगले दिन सूबे की सीएम बन जाती हैं।
 
यह वो दिन था, जिसके बाद मायावती के पहनावे में सदैव के लिए बदलाव आ गया। 2 जून से पहले मायावती कई बार सार्वजनिक तौर पर साड़ी पहने हुए नज़र आती थीं। लेकिन इसके बाद उन्होंने कभी साड़ी नहीं पहनी।
 
इसीके बाद से मायावती और मुलायम सिंह के रिश्ते ख़राब हो गए। उसके बाद से 24 साल तक दोनों दलों के बीच ना तो चुनाव पूर्व, और ना ही चुनाव के बाद कोई गठबंधन हुआ। 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस-सपा गठबंधन को जब एग्जिट पोल के बाद सरकार बनती हुई नहीं दिखाई दी, तब तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बीबीसी हिंदी को बयान दिया कि ज़रूरत पड़ी तो मायावती की पार्टी से गठबंधन करने में कोई आपत्ति नहीं होगी। हालाँकि भाजपा 300 से ज़्यादा सीटों पर विजयी हुई, लिहाज़ा यूपी की राजनीति में एक नया संस्करण बनने से पहले ख़त्म हो गया।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)