गुजरात के राजनीतिक
रण में सारे लड़ाकू अपने तमाम तिकड़म आज़मा कर अब इंतज़ार में हैं कि उनके तिकड़मों
के बाद उन्हें पटाखे ख़रीदने हैं या नहीं। गुजरात के राजनीतिक इतिहास को देखे तो, 1960 से लेकर 1985 के दौरान गुजरात में
जनता की पसंद कांग्रेस रही थी, जबकि 1990 से लेकर 2017 तक बीजेपी ने गुजरात की कमान संभाली है। गुजरात में पहली बार 1960 में विधानसभा का चुनाव
हुआ था। यह चुनाव 132 सीटों के लिए कराया गया था।
गुजरात विधानसभा चुनावों में आँकड़ों का इतिहास
वर्ष सबसे ज़्यादा सीटें कुल सीटें
1960 कांग्रेस, 112
132
1962 कांग्रेस, 113
154
1967 कांग्रेस, 93
168
1972 कांग्रेस, 140
168
1975 कांग्रेस, 75
182
1980 कांग्रेस (आई), 141 182
1985 कांग्रेस (आई), 149 182
1990 जनतादल 70 + भाजपा 67 182
1995 भाजपा, 121 182
1998 भाजपा, 117 182
2002 भाजपा, 127 181
2007 भाजपा, 117 182
2012 भाजपा, 115 182
2017 भाजपा, 99 182
सबसे ज़्यादा सीटें जीतने का रिकॉर्ड कांग्रेस के नाम, भाजपा-जनतादल गठबंधन
ने छुआ है 137 का आँकड़ा
गुजरात के चुनावी इतिहास
में 1985 के चुनाव में माधवसिंह सोलंकी के दम पर कांग्रेस ने 149 सीटें जीती थीं। इससे ज़्यादा सीटें अब तक कोई जीत नहीं पाया है। 1990 के चुनाव में भाजपा और जनतादल एक होकर चुनाव में उतरे थे। उस चुनाव में भाजपा
को 67 तथा जनतादल को 70 सीटें मिली थीं। दोनों को मिला दें तो इस गठबंधन ने 137 सीटें जीती थीं। भाजपा
ने 2002 में 127 सीटें जीती, जो उसका अब तक का सबसे बड़ा स्कोर है।
2022 के गुजरात विधानसभा चुनावों में नतीजों की संभावना को लेकर विश्लेषण
कुछ बातें दिमाग़ में
रखना बेहद ज़रूरी है। पहली चीज़ यह कि एक ज़माने में गुजरात में लगातार 7 विधानसभा चुनावों
में सत्ता के शिखर तक पहुंचने वाली कांग्रेस पिछले क़रीब 3 दशकों से यहाँ राजनीतिक
संन्यास भुगतने के लिए मजबूर है। किंतु दर्ज यह भी करना होगा कि आँकड़े तो यहाँ तक
बताते हैं कि कांग्रेस का वोट शेयर उतना कम भी नहीं है, बावजूद इसके सीटों
के आँकड़ों के मायाजाल में कांग्रेस पिछले 7 विधानसभा चुनावों में यहाँ पिछड़ ही गई। यूँ तो पिछले विधानसभा चुनाव, यानी 2017 के विधानसभा चुनावों
में कांग्रेस को अप्रत्याशित सीटें मिलीं, जबकि बीजेपी क़रीब 27 साल बाद 100 के आँकड़े के नीचे चली गई।
लेकिन अब की बार...
विश्लेषण को हम महाभारत के उस दोहे के रूप में रख रहे हैं। पूरा दोहा यूँ है कि –
आस कह रही साँस से, धीरज धरना सीख।
माँगे बिन मोती मिले, माँगे मिले न भीख।।
माँगे बिन मोती मिले, माँगे मिले न भीख!
2022 के गुजरात विधानसभा चुनावों का विश्लेषण हमें कुछ इस बात की तरफ़ ही ले जाता है।
पहली चीज़ यह कि बीजेपी यह चुनाव जीतने जा रही है। बात को घूमाने के बजाए सीधा कहे
तो, हमें नहीं पता कि गुजरात में सत्ता संभ्हाल रही बीजेपी को इस बार कितनी सीटें मिलेगी।
जी, हमें नहीं पता। दरअसल, हम में वो क़ाबिलियत और समझ ही नहीं है कि हम उस आँकड़े को तय कर पाए। क्योंकि इस
बार लोग पहले से ज़्यादा चुप हैं। जो मुद्दें गुजरात के तमाम चुनावों में, साफ़ कहे तो 2002 के बाद के चुनावों
में जो मुद्दे ज़िंदा रहते हैं, वो तमाम मुद्दे लोगों के दिमाग़ में दिख रहे हैं। बावजूद इसके लोग पहले से ज़्यादा रहस्यमयी हो चुके हैं ऐसा महसूस होता है।
वैसे एक बात तो बिलकुल साफ़ है, और ज़्यादातर निष्पक्ष विश्लेषक इस बात से सहमत भी हो रहे हैं कि 2022 के चुनाव बीजेपी जीत
रही है। इस बात से कोई इन्कार नहीं कर रहा। लेकिन सीटों का आँकड़ा तय कर पाना वाक़ई
मुश्किल है। विश्लेषण के तमाम तौर तरीक़े अलग अलग आँकड़े दिखा रहे हैं। एक बात तो तय
रही कि बीजेपी जीत रही है, किंतु कितनी सीटें जीत रही है यह तय नहीं हो पाया, तो एक दूसरा देशी चुनावी रास्ता
मिला।
जिस दूसरे देशी रास्ते की बात हम कर रहे हैं, वो रास्ता यह है कि
यह अनुमान लगाना कि विपक्ष कितने पानी में है,
उसे कितनी सीटें मिल सकती हैं!!! और फिर बाकी की सीटें जीतने
वाली पार्टी को दे देना!!! आपको यह रास्ता व्हाट्सएप विश्वविद्यालय वाला लग सकता है, लेकिन है नहीं। इस
रास्ते के पीछे ठोस तर्क हैं, तथ्य हैं और बाकी के सारे गुणाभाग भी लगाए गए हैं। जो चीज़ें-जो गुणाभाग-जो डाटा
प्रोसेस जीतने वाली पार्टी की सीटों का अनुमान करने में लगाए जाते हैं, वो सारी चीज़ें हमने
इस बार हारने वाली पार्टी की सीटों का अनुमान करने में लगा दी। ऐसा क्यों, इसकी वजह ऊपर लिख ही
दी है।
वैसे कौन कितने पानी
में रहेगा इसका अनुमान केवल एक पैरा जितना होता है, किंतु याद रखिएगा कि उसके पीछे बहुत सारी माथापच्ची शामिल होती
है। अंतिम निष्कर्ष एक लाइन का होता है, लेकिन उस निष्कर्ष के पीछे कई सारे दिन खपे हुए होते हैं।
अलग अलग जगहों से, अलग अलग माध्यमों से, अलग अलग रास्तों के
द्वारा जो भी डाटा इक्ठ्ठा हुआ, जिसे हम कच्चा माल कहेंगे, उसका विभिन्न तौर तरीक़ों से विश्लेषण किया गया और उसके बाद जब जीतने वाली पार्टी
का सही आउटपुट निकालना मुश्किल लगा, तो देशी रास्ते से हारने वालों का अनुमान लगाने की दिशा में सोचने लगे हम लोग!
इसको लेकर कुछ कहेंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है?
सिंपल सी बात है कि ऐसा इस लिए हो सकता है, क्योंकि डाटा अलग अलग
टाइप का होता है। अलग अलग टाइप के डाटा को,
यानी कि कच्चे माल को प्रोसेसींग में लगाकर और फिर सारे अनुमानों
को एक तराज़ू में तोल कर, जो चीज़ें आई थीं उसके साथ मिलाकर देखा, तो महसूस यही हुआ कि गुजरात के विधानसभा चुनावों
के नतीजों में जो विपक्ष है, जिसमें कांग्रेस-आम आदमी पार्टी और स्वतंत्र उम्मीदवार मिल जाते हैं, कुल मिलाकर 30-35 सीटें जीत पाएँगे।
सीधा सीधा लिखते हैं
कि जब कान को उल्टा पकड़ा और पाया गया कि तमाम विपक्षों का मिलजुल कर आँकड़ा 30-35 के ऊपर नहीं जा रहा
तब हमारी आँखें मूँद थीं। इसका सीधा मतलब यह होता है कि बीजेपी 145-150 के क़रीब सीटें जीत
रही है, ऐसा आँकड़ा विश्लेषण में निकल रहा है।
नरेंद्र मोदी जब प्रत्यक्ष रूप से गुजरात
में मौजूद थे और वे यहाँ रहकर लोगों से वोट मांगते थे, तब भी उन्हें गुजरात के लोग इतनी
सीटें नहीं देते थे। और आज जब नरेंद्र मोदी प्रत्यक्ष रूप से गुजरात में मौजूद नहीं
है तब उनके नाम पर गुजरात उन्हें इतनी सीटें कैसे दे सकता है, यह सिंपल सा सवाल दिमाग़ में चकराने लगा। लाज़मी है कि यह सवाल आना ही है। जब तक नतीजे नहीं आते तब तक ही नहीं, बल्कि नतीजे आने के
बाद भी यह सवाल तैरता ही रहेगा। अगर हमारा विश्लेषण ग़लत साबित होता है तब नहीं, किंतु
सही साबित होता है तब यह सवाल ज़्यादा जोर से तैरेगा।
हमारा जो टेली है, उसमें यूँ तो जितना
भी विपक्ष है उसे कुल मिलाकर 30 से ज़्यादा सीटें नहीं मिल रही! इस हिसाब से बीजेपी को 150 से ज़्यादा सीटें मिलती
दीख रही हैं। इस आँकड़े ने हमें ही झकझोर के रख
दिया था। लेकिन जितना और जिस प्रकार का डाटा इकठ्ठा हुआ है, आउटपुट तो यही निकल
रहा है। लेकिन दूसरी तरफ़ बहुत सारे लोग और बहुत सारे विश्लेषक एंटी इनकंबेसी और दूसरी
बातों का हवाला दे रहे हैं। इसलिए हम अंतिम रूप से यही लिखेंगे कि विपक्ष का कुल आँकड़ा
35 से ज़्यादा नहीं होगा।
इस हिसाब से जीतने वाली पार्टी, जो कि बीजेपी ही है, 147 तक पहुंचती है। तो कुल मिलाकर, बीजेपी को 150 के आसपास सीटें मिल सकती हैं, जबकि बाकी का बचा खुचा नास्ता विपक्ष बाँट लेगा।
इस चुनाव में एक ज़िंदा सवाल आम आदमी पार्टी के वोट शेयर को लेकर भी है। यूँ तो विश्लेषक आम आदमी पार्टी की
सीटों को लेकर चर्चा नहीं कर रहे, बल्कि उसके वोट शेयर को लेकर बातें करते दिख रहे हैं। सबको पता है कि आप पार्टी
यहाँ सीटें जीतने नहीं, बल्कि एक नये प्लेयर के रूप में अपनी जगह बनाने के लिए लड़ रही
है। उसे नेशनल पार्टी बनना है यह उसका पहला लक्ष्य है। यूँ तो किसी राजनीतिक दल का
कोई भी कार्य किसी एक लक्ष्य को लेकर नहीं होता। उसके पीछे बहुत सारी चीज़ों का गुणाभाग
होता है। लिहाज़ा हम यहाँ आम आदमी पार्टी का गुजरात में भविष्य पर निबंध नहीं लिखेंगे।
नरेंद्र मोदी बड़े मोदी हैं और केजरीवाल छोटे मोदी हैं, यह बात हम एक अलग आर्टीकल
में बहुत पहले लिख चुके हैं। लिहाज़ा उसे दोहराने की ज़रूरत फ़िलहाल यहाँ नहीं है।
माँगे बिन मोती मिले, माँगे मिले न भीख...
इस तरह हम यहाँ उल्टा
कान पकड़ते हुए विपक्ष को कुल मिलाकर 30 से 35 और बाकी की सारी सीटें, मतलब की 150 से 155 सीटें जीतने वाली पार्टी बीजेपी को दे रहे हैं। माँगे बिन मोती मिले, माँगे मिले न भीख...
आर्टिकल का टाइटल ऐसा इसलिए, क्योंकि अगर ये विश्लेषण सच या सच के क़रीब आता है, तब यही समझ आएगा कि
जब नरेंद्र मोदी प्रत्यक्ष रूप से गुजरात में लोगों से सीटें मांगते थे तब लोग उन्हें
चुनाव दर चुनाव कम सीटें देते थे। 2002 के बाद से बीजेपी की सीटों का आँकड़ा लगातार कम ही हो रहा है। लेकिन इस दफा नरेंद्र
मोदी गुजरात से बाहर हैं, जो कि वो 2017 में भी थे, तो फिर लोग उन्हें इतना बंपर इनाम क्यों दे रहे हैं? साफ़ साफ़ फ़िलहाल तो
हमें नहीं पता। और शायद पता ना भी लग पाए। क्योंकि यह समझने के लिए बहुत सारा दिमाग़ होना चाहिए, जो हमारे पास नहीं है। बस यही समझ आता है कि माँगते नहीं तब हीरे-मोती मिलते हैं, और माँगते रहो तब भीख
भी नहीं मिलती।
अगर हमारा गुणाभाग
और ज़मीनी भाग वाला तथ्य सही के क़रीब आता है, तो कांग्रेस 2002 के बाद गुजरात में
अपने सबसे बुरे दौर में पहुंचेगी। 1990 के चुनावों में पहली बार कांग्रेस की सीटों का आँकड़ा 50 के नीचे जा पहुंचा।
इस साल कांग्रेस 33 पर सिमट कर रह गई थी। कांग्रेस के लिए 1985 तक हालात जितने सुनहरे थे, 1985 के बाद के हालात उतने ही बुरे रहे। कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि इस बुरे दौर में
कांग्रेस का वोट शेयर उतना नहीं गिरा, किंतु सीटों के मामले में कांग्रेस का प्रदर्शन बदतर ही रहा। लेकिन इस बार कांग्रेस
के लिए वोट शेयर से लेकर सीटें, सारे मामले गड़बड़ दिख रहे हैं।
चुनावी राजनीति हद
से ज़्यादा ‘जातिगत’ हो चली है, जब हम इस बात को स्वीकार करेंगे तब हमें यह भी समझना होगा कि हम कम से कम एक दशक
पीछे हैं। क्योंकि जब हम जातिवाद वाला तथ्य स्वीकार कर रहे होंगे, तब राजनीति ‘समुदायवाद’ का हथियार आज़मा रही
होगी, जातिवाद को पर्दे के पीछे डालकर लड़ रही होगी। समुदायवाद को हम स्वीकार करने लगेंगे, तब राजनीति किसी दूसरे
हथियार को आज़मा रही होगी। हम राजनीति को समझने में सदैव कम से कम एक दशक पीछे रहेंगे।
या उससे भी ज़्यादा पीछे।
2022 के विधानसभा चुनावों के दौरान बहुत सारे विश्लेषक बताते और लिखते हैं कि हिंदू-मुस्लिम
वाला फैक्टर इस बार काफ़ी कम है। मतलब कि वे कहते हैं कि हिंदू-मुस्लिम वाला मुद्दा
इस बार जोरों से जमीन के ऊपर नहीं है और इसलिए वोटिंग में उसका कितना असर रहेगा यह बता
पाना मुश्किल है। किंतु हम तो लिख रहे हैं कि गुजरात में हिंदुत्व वाला मुद्दा इनबिल्ट
मुद्दा है। जी हाँ, यह मुद्दा इनबिल्ट है ऐसा महसूस होता है। आज कल गुजरात के भीतर मतदाताओं के दिमाग़ में हिंदू-मुस्लिम वाला मुद्दा उभारने की ज़्यादा ज़रूरत होती ही नहीं, क्योंकि बहुत ही ज़्यादा मात्रा में वो पहले से ही दिमाग़ में है। वोट करने जा रहे लोगों के दिमाग़ में वो चीज़
कम से कम गुजरात में तो इनबिल्ट ही है। इसलिए हम नहीं मानते कि इस बार हिंदुत्व वाला
मुद्दा जोरों पर नहीं है। वो है और इनबिल्ट है।
हिंदुत्व वाला फैक्टर
यहाँ इनबिल्ट है। और इसके पीछे स्वयं मुसलमान समुदाय ज़्यादा ज़िम्मेदार है। कैसे ज़िम्मेदार
है और कितने हद तक, इसको लेकर हम अलग से लेख लिख चुके हैं। इन शोर्ट, हिंदुत्व वाला मुद्दा
चाहे प्रचार में या चुनावी चर्चा में बहुत ज़्यादा न दिखा हो, किंतु जो इनबिल्ट है
उससे निजात पाना विपक्ष के लिए मुश्किल है।
अंतिम डाटा प्रोसेस
के दौरान यह भी मालूम पड़ रहा है कि कम मतदान प्रतिशत विपक्ष के लिए ख़तरा है, सत्ता के लिए नहीं।
अहमदाबाद जैसे शहरी इलाक़ों में मतदान कम हुआ जैसी चीज़ों को लेकर बहुत बातें हुईं। लेकिन
पता चलता है कि जहाँ बीजेपी बहुत ज़्यादा अंतर से जीतती आई है, वहाँ कम मतदान प्रतिशत
बीजेपी को परेशान नहीं करेगा। 25-30 के आसपास ऐसी सीटे हैं, जहाँ कांग्रेस कम अंतर से जीती थी, इसलिए परेशानी विपक्ष
के लिए ज़्यादा है। इस डाटा प्रोसेस में दूसरी बात यह भी मिलती है कि कम मतदान प्रतिशत
का मतलब इस बार यह नहीं है कि बीजेपी के वोटर कम निकले, बल्कि विपक्ष वालों
के वोटर भी कम ही निकले हैं। कम अंतर से जीती हुई सीटें इस बार विपक्ष गँवा सकता है, सत्ता पक्ष नहीं।
कांग्रेस ने रणनीति
बदली है, शांत होकर घर घर पहुंच कर प्रचार कर रही है,
वगैरह जैसी चीज़ें...। विधानसभा चुनाव प्रचार ख़ुद ही अपने आप
में सबूत है कि यह बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उछाली थी। प्रधानमंत्री ने ऐसी
बात क्यों कहीं यह समझ पाने की ताक़त हम में नहीं है। वर्ना हम भी नेता-वेता होते!
जो है वो दिख यही रहा है कि कांग्रेस कहीं पर है ही नहीं! उसके मतदाता घर से बहुत कम
निकले हैं, उसके उम्मीदवार भी मतदाताओं के पास कम ही पहुंचे हैं! इक्का-दुक्का जगहों पर कांग्रेस
ने जितना भी जोर लगाया हो, भारत जोड़ो यात्रा से वक़्त निकालकर भले ही राहुल गाँधी ने गुजरात में कदम रखे हो, किंतु लार्ज पिक्चर
तो यही है कि कांग्रेस को जितनी सीटें मिल सकती हैं, मतदाताओं के आर्शीवाद से मिल सकती है, अपनी मेहनत से नहीं।
गुजरात के इन चुनावों
में केवल स्थानीय या राज्य स्तर के मुद्दे ही नहीं, बल्कि देश और देश की अस्मिता से
जुड़े मुद्दों का वजन भी मतदाताओं के बीच चर्चा में रहा है! केवल हिंदुत्व ही नहीं
बल्कि दूसरे मुद्दों में भी किसीको बाजी मारनी और किसीको बाजी हारनी है। A, C और P, इसका मिलन विपक्ष के
खेमे में नहीं बल्कि सत्ता पक्ष के खेमे में जाता दिख रहा है। देखा गया है कि राजनीति
की ऐबीसीडी में ACP का बहुत ही ज़्यादा रोल रहा है। ACP, यानि कि Attraction, Connection और Perception। लोगों को बीजेपी और आम आदमी पार्टी अट्रेक्ट कर रहे हैं, किंतु कनेक्शन और परसेप्शन
के मामले में बीजेपी आगे निकल रही है। कांग्रेस के पास अपना बेसिक कनेक्शन है, किंतु अट्रेक्शन और
परसेप्शन के मामले में बहुत नीचे जा चुकी है।
आम आदमी पार्टी और
उसके मुखिया केजरीवाल, बीजेपी और उसके मुखिया नरेंद्र मोदी से कितने मिलते जुलते हैं, उसे लेकर हम एक लेख पिछले दिल्ली विधानसभा चुनावों के समय लिख चुके हैं। देखना यह है
कि आप पार्टी अपने वोट शेयर वाले टार्गेट तक पहुंचती है या नहीं। आम आदमी पार्टी के
लिए गुजरात में जो भी मिलना है, फ़ायदा ही है, नुकसान नहीं। आम आदमी पार्टी गुजरात में चुनाव नहीं लड़ रही होती तो कांग्रेस को
कितनी सीटें मिलती और बीजेपी को कितनी, इसे लेकर चर्चा करने का फ़िलहाल तो कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि आम आदमी पार्टी मैदान
में है और वे गुजरात का चुनाव लड़ रहे हैं। प्रथम द्दष्टया दिखा तो यही कि अगर आप पार्टी
मैदान में नहीं होती, तो गुजरात का चुनाव मतदाताओं और मीडिया, दोनों के लिए इतना
दिलचस्प नहीं होता।
एक बात साफ़ है कि महंगाई
चाहे कितनी भी ज़्यादा हो, क़ीमतें आसमान भले ही छू रही हो, रोजगार, अर्थतंत्र और दूसरी तमाम मूल चीज़ों पर भारत सरकार चाहे फिसद्दी साबित हुई हो, पीएम मोदी चाहे कितने
भी झूठ बोलते हो, मंदी भले ही आने वाली हो या आ गई हो, लोग केंद्र या राज्य सरकार का विरोध भी करेंगे, साथ ही वोट भी उन्हें करना ही पसंद करेंगे! व्यापारी सत्ता की
आलोचना कर लेगा, लेकिन उससे आगे नहीं जाएगा। और यह चीज़ बहुत बार साबित हो चुकी है।
धर्म, राजनीति, व्यापार, विकास, सपने, मजबूरियाँ, भावनात्मक धारा, समुदायवाद समेत कई
सारी चीज़ों का कॉकटेल विपक्ष के लिए उपलब्ध नहीं दिखता। गुजरात का शहरी समुदाय और
साथ ही मध्य वर्ग मोरबी झूला पुल हादसा, कोरोना की अभूतपूर्व त्रासदी, सैंकड़ों मौतें, महंगाई, बेरोजगारी समेत कई सारी चीज़ों से तकलीफ़ तो महसूस करता है, किंतु उन्हें इससे
मतलब नहीं है कि यह सब किस सरकार के दौरान हुआ!
डाटा प्रोसेस दिखलाता है कि मतदाताओं
के दिल-ओ-दिमाग़ में यहाँ बीजेपी तीन हिस्सों में बँटी हुई है। एक मोदी की बीजेपी है, दूसरी वो बीजेपी है
जो बिना मोदी के 15 से 18 फ़ीसदी कम वोट नीचे पहुंच जाती है, और तीसरी आरएसएस की बीजेपी है। तीनों बीजेपी
के मेल को कम से कम इस बार तोड़ पाना मुश्किल सा दिख रहा है।
यहाँ पिछले कुछ चुनावों
का मंज़र यही रहा है कि शहरी इलाक़ों की सीटों को बीजेपी में बाँट दीजिए, और ग्रामीण इलाक़ों की सीटों को बीजेपी और कांग्रेस में बँटना है। इस बार तीसरा प्लेयर भी मैदान में है।
ग्रामीण इलाक़ों की सीटों का हिस्सा जब बँटेगा तो बीजेपी के हिस्से ज़्यादा आता दिख रहा
है। वैसे भी चुनावों में मोटे तौर पर तीन प्रकार के मतदाता होते हैं। पहला मतदाता वोटिंग
से बहुत पहले ही अपना वोट तय कर चुका होता है। दूसरा मतदाता वोटिंग से कुछ दिनों पहले
अपना वोट तय करता है। लेकिन तीसरा वो है, जिसे फैन सीटर्स, या फ्लोटिंग वोटर्स बोलते
हैं। ये लोग आख़िरी पलों में अपना रास्ता नापते हैं। अमूमन ऐसे वोटर्स का प्रतिशत 15 से 25 के बीच होता है। कहीं
कुछ ज़्यादा, कहीं कुछ कम। चुनाव का ज़्यादातर खेल इसी 15 से 20 फ़ीसदी वोटर्स के बीच का खेल होता है।
वोट शेयर में महज़ कुछ
प्रतिशत की ऊंच नीच सारा मामला उल्टा पुल्टा कर देती है। पिछले 20 सालों के डाटा के
मुताबिक़ ऐसा नहीं है कि किसी पार्टी के वोट शेयर में गिरावट उसे कम सीटें देगी, बल्कि सीटें बढ़ी भी
है। मतदान का कुल प्रतिशत, अलग अलग जोन का मतदान प्रतिशत, शहरी या ग्रामीण इलाक़ों का प्रतिशत, कम या ज़्यादा अंतर वाली सीटों का प्रतिशत,
गुणाभाग, माथापच्ची कराता है।
किंतु चुनाव सिर्फ़ एक गाणितिक प्रक्रिया
ही नहीं है। जातिवाद से लेकर समुदायवाद, मान्यताओं की संतुष्टि, भावनात्मक वातावरण का निर्माण, एक ही चीज़ के लिए अनेका अनेक तिकड़मों को लागू करना, मतदाताओं को या तो
उत्तेजित करना या कभी कभार उन्हें मायूसी की खाई में धकेलना, कला-वाणिज्य और विज्ञान, तथा धर्म और विकास का मिलन, जैसे बहुत सारे सिलेबस जहाँ शामिल होते हो वहाँ राजनीति
से ज़्यादा राज़ दूसरी जगहों पर कैसे होंगे?
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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