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Kakori Train Robbery: काकोरी ट्रेन लूट की कहानी, जिसने ब्रितानी हुकूमत को झकझोर दिया था

 
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक महत्वपूर्ण घटना का यह शताब्दी वर्ष है। आज से क़रीब सौ साल पहले भारत के जाँबाज़ क्रांतिकारियों ने एक ऐसी घटना को अंजाम दिया था, जिसने ब्रितानी हुकूमत को सिरे से झकझोर कर रख दिया था।
 
इसे इतिहास में 'काकोरी ट्रेन लूट' के नाम से जाना जाता है। तारीख़ थी 9 अगस्त 1925। जगह लखनऊ के पास काकोरी स्टेशन। इस दिन राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान, चंद्रशेखर आज़ाद, राजेंद्र लाहिड़ी समेत दूसरे क्रांतिकारी साथियों ने ट्रेन से ब्रितानी सरकार के पैसों को लूट लिया था। तात्कालिक उद्देश्य था क्रांतिकारियों के लिए हथियार ख़रीदना और स्वतंत्रता आंदोलन को बढ़ावा देना।
 
बता दें कि साल 2021 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इस क्रांतिकारी घटना का नाम बदलकर 'काकोरी ट्रेन एक्शन' कर दिया। इसके बाद आधिकारिक संचार में इस घटना के उल्लेख के लिए काकोरी ट्रेन एक्शन नाम इस्तेमाल किया जाता है।
 
9 अगस्त 1925 के दिन हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन (एचआरए) के क्रांतिकारियों ने सहारनपुर से लखनऊ जाने वाली 8 नंबर डाउन ट्रेन को काकोरी के पास रोककर गार्ड केबिन से ब्रिटिश ख़ज़ाने को लूट लिया था।
 
इस घटना में राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान, चंद्रशेखर आज़ाद, राजेंद्र लाहिड़ी, शचींद्र बख्शी, केशव चक्रवर्ती, मुरारी लाल खन्ना, बनवारी लाल, मुकुंदी लाल गुप्ता और मन्मथ नाथ गुप्ता शामिल थे। बताया जाता है कि ठाकुर रोशन सिंह, जो क्रांतिकारी थे, इस लूट में सीधे तौर पर शामिल नहीं थे, किंतु अंग्रेज़ी सरकार ने इन्हें बमरौली लूट मामले में सरकारी विफलता के चलते इस मामले में घसीट लिया था।
 
17 दिसंबर 1927 के दिन राजेंद्र लाहिड़ी को गोंडा जेल में, जबकि 19 दिसंबर 1927 को राम प्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर, ठाकुर रोशन सिंह को मलका और अश्फ़ाक़ उल्ला ख़ान को फ़ैज़ाबाद जेल में में फाँसी दी गई।
 
पैसों की कमी से जूझ रहे थे आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे क्रांतिकारी, सरकारी ख़ज़ाने की लूट का मुश्किल फ़ैसला
1925 आते आते आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे क्रांतिकारियों के आर्थिक हालात काफ़ी ख़राब हो चले थे। उनके पास अपनी गतिविधियों के लिए पैसों की भारी कमी थी। वे पाई-पाई के मोहताज हो चुके थे। कईं क्रांतिकारियों के पास पूरे कपड़े तक नहीं थे।
 
स्वाभाविक है कि इसे लेकर उनके बीच लंबा विचार-विमर्श हुआ होगा। कईं रास्तों को देखा-समझा और अपनाया भी गया होगा। लेकिन अंत में समय ऐसा आया कि उनके पास कोई रास्ता नहीं बचा। आज़ादी के ये दीवाने खाने-पीने-पहनने की कमी से निपट सकते थे, किंतु क्रांति संबंधित गतिविधियों को चलाने के लिए उन्हें पैसे चाहिए थे।
 
पैसों को लूटने के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा था। अनेक पुस्तकों में दर्ज है कि इस रास्ते को लेकर क्रांतिकारियों में मतभेद थे। क्रांति की उनकी परिकल्पना को नुक़सान पहुँचने का ख़तरा था। आज़ादी के दीवानों को क्रांतिकारियों की सार्वजनिक छवि की भी चिंता थी।

 
अंत में फ़ैसला लिया गया कि आम जनता या किसी हिंदुस्तानी नागरिक या हिंदुस्तानी संस्था की जगह ब्रितानी सरकार के पैसों को ही लूट लिया जाए। धन जुटाने के इस तरीक़े को लेकर क्रांतिकारियों में अंत तक मतभेद बने रहे।
 
सरकारी ख़ज़ाने की लूट का क्रांतिकारियों का यह फ़ैसला मुश्किल फ़ैसला था, जहाँ आपसी मतभेद, विचार-विमर्श, मजबूरियाँ, तत्काल समाधान, देश की आज़ादी का प्रण, क्रांति की नीतिसंगत परिभाषा, समेत कई चीज़ें शामिल रही।
 
लूट से हासिल की जाने वाली राशि को एचआरए की देश की आज़ादी की लड़ाई संबंधित गतिविधियों में इस्तेमाल करना था।
 
बिस्मिल ने तय किया था लौहे के संदूक़ को लूटना, पहला प्रयास हुआ था नाकाम
बता दें कि क्रांतिकारियों ने आज़ादी की लड़ाई के लिए कईं बार लूट की या लूट के प्रयास किए। काकोरी ट्रेन लूट, यह एकमात्र घटना नहीं थी। इसके अलावा भी बहुत सारी घटनाएँ हुई थीं। बाक़ायदा दूसरे ऐसे मामलों को लेकर ट्रायल चल रहे थे और आगे भी चले। किंतु यह वो घटना थी, जिसने ब्रितानी हुकूमत को हिला दिया था।
 
राम प्रसाद बिस्मिल अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि उन्होंने ग़ौर किया था कि गार्ड के डिब्बे में रखे लोहे के संदूक़ में टैक्स का पैसा होता है।
 
उस समय लाल रंग के लोहे के बक्सों में नक़दी ले जाने की परंपरा थी, जो कुछ सालों पहले तक जारी थी। उस समय हर स्टेशन से प्राप्त नक़दी को एक चमड़े के थैले में भर दिया जाता था। फिर उस चमड़े के थैले को लोहे के संदूक़ में रख दिया जाता था। उस पर नंबर लिखा होता था।
 
बिस्मिल ने लिखा है, "एक दिन मैंने लखनऊ स्टेशन पर देखा कि गार्ड के डिब्बे से कुली लोहे के संदूक़ को उतार रहे हैं। मैंने नोट किया कि उसमें न तो ज़ंजीर थी और न ही ताला जड़ा हुआ था। मैंने उसी समय तय किया कि मैं इसी पर हाथ मारूँगा।"

 
इस मिशन के लिए बिस्मिल ने नौ क्रांतिकारियों को चुना - राजेंद्र लाहिड़ी, रोशन सिंह, शचींद्र बख्शी, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान, मुकुंदी लाल, मन्मथ नाथ गुप्ता, मुरारी शर्मा, बनवारी लाल और चंद्रशेखर आज़ाद।
 
सरकारी धन लूटने के लिए बिस्मिल ने काकोरी को चुना, जो कि लखनऊ से आठ किलोमीटर दूर शाहजहाँपुर रेलवे रूट पर एक छोटा-सा स्टेशन था।
 
सब लोग पहले एक टोही मिशन पर काकोरी गए। 8 अगस्त 1925 को इन्होंने ट्रेन लूटने की एक नाकाम कोशिश की।
 
राम प्रसाद बिस्मिल लिखते हैं, "हम लोग लखनऊ की छेदीलाल धर्मशाला के अलग-अलग कमरों में ठहरे हुए थे। पहले से तय समय पर हम लोग लखनऊ रेलवे स्टेशन पहुँचना शुरू हो गए। जैसे ही हम प्लेटफ़ॉर्म पर घुसे हमने देखा कि एक ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म छोड़ रही है। हमने पूछा ये कौन सी ट्रेन है? पता चला कि ये 8 डाउन एक्सप्रेस ट्रेन है जिस पर हम सवार होने वाले थे। हम सब 10 मिनट देरी से स्टेशन पहुँचे थे। हम निराश होकर धर्मशाला लौट आए।"
 
बिस्मिल और अशफ़ाक़ की बेमिशाल दोस्ती
इस महान स्वतंत्रता संग्राम की यह बेहद ख़ूबसूरत कहानी थी। बिस्मिल और अशफ़ाक़ की दोस्ती पर काफी कुछ कहा-लिखा जा चुका है।
 
पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान एक ही जगह हवन करते और नमाज पढ़ते थे और एक ही थाली में खाना खाते थे। एक ऐसी दोस्ती, जो फाँसी तक नहीं टूटी।
 
संस्कृति मंत्रालय की एक पहल, 'भारतीय संस्कृति' पोर्टल के मुताबिक़ अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान 1920 में पंडित राम प्रसाद बिस्मिल से मिले और 1927 में उनकी मृत्यु तक उनकी दोस्ती बनी रही।
 
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान के बड़े भाई रियासत उल्ला ख़ान के पोते अफ़ाक़ उल्ला ख़ान ने पीटीआई-भाषा को बताया था, "उन दिनों, जब बिस्मिल साहिब शाहजहाँपुर के आर्य समाज मंदिर में हवन करते थे, अशफ़ाक़ उल्ला साहब उसी स्थान पर नमाज पढ़ते थे। वे दोनों न केवल एक ही थाली में खाना खाते थे, बल्कि हर समय एक-दूसरे के साथ खड़े भी रहते थे।"
 
किसी को शारीरिक नुक़सान नहीं पहुँचाने का इरादा, चेन खींच कर ट्रेन को रोकने की योजना
अगले दिन दोपहर, यानी 9 अगस्त को ये सभी लोग फिर काकोरी के लिए निकले। उनके पास चार माउज़र पिस्तौलें और रिवॉल्वर थे।
 
अशफ़ाक़ ने बिस्मिल को समझाने की कोशिश की, "राम एक बार फिर से सोच लो। ये सही समय नहीं है। चलो वापस लौट चलें।" अशफ़ाक़ सही मौक़े के लिए थोड़ी और राह देखना चाहते थे। उन्हें लगता था कि स्थिति, योजना और समय पर दोबारा विचार करके फिर आगे बढ़ना चाहिए।
 
बिस्मिल ने उन्हें ज़ोर से डाँटा, "अब कोई बात नहीं करेगा।"

 
जब अशफ़ाक़ को लग गया कि बिस्मिल पर किसी बात का असर नहीं होगा, उन्होंने एक अनुशासित सिपाही और सच्चे दोस्त की तरह उनका साथ देने का फ़ैसला किया।
 
तय हुआ कि सभी लोग शाहजहाँपुर से ट्रेन पर चढ़ेंगे और काकोरी के पास पहले से तय स्थान तक जाएँगे। वहाँ पर गाड़ी की चेन खींची जाएगी और गार्ड के केबिन में पहुँच कर रुपयों से भरे संदूक़ पर कब्ज़ा कर लिया जाएगा।
 
राम प्रसाद बिस्मिल अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, "हमने ये तय किया था कि हम किसी को शारीरिक नुक़सान नहीं पहुँचाएँगे। मैं ट्रेन में ही ऐलान कर दूँगा कि हम यहाँ अवैध तरीक़े से हासिल किए गए सरकारी धन को हासिल करने आए हैं। ये भी तय हुआ कि हम में तीन लोग जिन्हें हथियार चलाने आते थे, गार्ड के केबिन के पास खड़े होंगे और रुक-रुक कर फ़ायर करेंगे ताकि कोई केबिन तक पहुँचने की हिम्मत न कर सकें।"
 
चंद्रशेखर आज़ाद ने अपनी चिंता प्रकट की, लेकिन अंत में जहाँ तय किया था वहीं रुक गई ट्रेन
चंद्रशेखर आज़ाद ने सवाल किया, "अगर किसी वजह से चेन खींचने के बावजूद ट्रेन नहीं रुकी तो हम क्या करेंगे?"
 
इस संभावना से निपटने के लिए बिस्मिल ने समाधान दिया, "हम ट्रेन में फ़र्स्ट और सेकेंड क्लास दोनों डिब्बों में चढ़ेंगे। अगर एक बार चेन खींचने से ट्रेन नहीं रुकती तो दूसरी टीम अपने डिब्बे में चेन खींच कर ट्रेन का रुकना सुनिश्चित करेगी।"
 
9 अगस्त को सभी लोग शाहजहाँपुर स्टेशन पहुँच गए। ये सभी लोग स्टेशन अलग अलग दिशाओं से गुज़रते हुए वहाँ पहुँचे थे। स्टेशन पर पहुँचने के बाद उन्होंने एक दूसरे की तरफ़ देखा तक नहीं था। सबने रोज़मर्रा के कपड़े पहन रखे थे, ताकि सभी सामान्य यात्रियों की तरह ही दिखे। सभी ने अपने हथियार कपड़ों के अंदर छिपा रखे थे।

 
सभी क्रांतिकारियों ने डिब्बों में बैठने के लिए वो जगह चुनी, जो चेन के बिलकुल नज़दीक़ हो। ऐसा इसलिए ताकि उन्हें ट्रेन रुकने पर नीचे उतरने में ज़्यादा समय न लगे।
 
राम प्रसाद बिस्मिल अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, "जैसे ही ट्रेन ने सीटी दी और स्टेशन से आगे बढ़ने लगी, मैंने अपनी आँखें बंद कीं और गायत्री मंत्र का जाप करने लगा। जैसे ही मुझे काकोरी स्टेशन का साइनबोर्ड दिखाई दिया, मेरी साँसें तेज़ हो गईं और मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा। अचानक ज़ोर की आवाज़ हुई और ट्रेन उसी जगह पर रुक गई जहाँ हमने तय किया था।"
 
बिलकुल सही जगह, पहले से तय की गई जगह पर ही चेन खींची गई थी। बिस्मिल लिखते हैं, "मैंने तुरंत अपनी पिस्टल निकाल ली और चिल्लाकर कहा, शांत रहिए। डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। हम सिर्फ़ सरकार से वो धन लेने आए हैं जो हमारा है। अगर आप अपनी सीट पर बैठे रहेंगे तो आपको कोई नुक़सान नहीं पहुँचाया जाएगा।"
 
ज़ेवर खोने का बहाना बनाकर खींची गई थी ट्रेन की चेन
अशफ़ाक़, राजेंद्र लाहिड़ी और शचींद्र बख्शी ने सेकेंड क्लास के टिकट ख़रीदे थे। ट्रेन को रोकने के लिए चेन खींचनी थी और चेन खींचने के लिए अन्य यात्रियों और गार्ड को कुछ तो वजह बतानी थी। इसकी भी योजना बनी और अच्छे से लागू भी हुई।
 
शचींद्रनाथ बख़्शी अपनी किताब मेरा क्रांतिकारी जीवन में लिखते हैं, "मैंने अशफ़ाक़ से धीमे से पूछा - मेरा ज़ेवरों का डिब्बा कहाँ है? अशफ़ाक़ ने फ़ौरन जवाब दिया - अरे वो तो हम काकोरी में भूल आए।"
 
अशफ़ाक़ के बोलते ही बख्शी ने ट्रेन की चेन खींच दी। राजेंद्र लाहिड़ी ने भी दूसरी तरफ़ से चेन खींची। तीनों ज़ल्दी से नीचे उतरे और काकोरी की तरफ़ चलने लगे।
 

बख्शी लिखते हैं, "थोड़ी दूर चलने पर ट्रेन का गार्ड दिखाई दिया। उसने पूछा चेन किसने खींची है? फिर उसने हमें वहीं रुकने का इशारा किया। हमने जवाब दिया कि ज़ेवर का डिब्बा काकोरी में छूट गया है। हम उसे लेने जा रहे हैं।"
 
बख्शी आगे लिखते हैं, "तब तक हमारे सारे साथी ट्रेन से उतर कर वहाँ पहुँच चुके थे। हमने पिस्तौलों से हवा में गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। तभी मैंने देखा कि गार्ड ट्रेन चलाने के लिए हरी बत्ती दिखा रहा है। मैंने उसके सीने पर पिस्टल लगा दी और उसके हाथ से बत्ती छीन ली। उसने हाथ जोड़कर कहा - मेरी जान बख़्श दीजिए। मैंने उसे धक्का देकर ज़मीन पर गिरा दिया।"
 
पैसों से भरा संदूक़ टूट नहीं रहा था
अशफ़ाक़ ने गार्ड से कहा, "अगर आप हमारे साथ सहयोग करेंगे तो आपको नुक़सान नहीं पहुँचाया जाएगा।"
 
बिस्मिल लिखते हैं, "हमारे साथियों ने थोड़ी-थोड़ी देर पर हवा में गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। रुपयों से भरा लोहे का संदूक़ काफ़ी भारी था। हम उसे लेकर भाग नहीं सकते थे इसीलिए अशफ़ाक़ उसे एक हथौड़े से तोड़ने लगे। कई प्रयासों के बाद वो कामयाब नहीं हुए।"
 
संदूक़ का ताला किसने तोड़ा उस बात में मतभेद हैं।
 
कोई कहता है कि संदूक़ का ताला अशफ़ाक़ ने तोड़ा था, कोई मुकुंदी लाल के बारे में यह दावा करता है। सबसे ज़्यादा प्रमाणिक वर्णन पर विश्वास किया जाए तो वह ताला बिस्मिल ने तोड़ा था।
 
अचानक ऐसी घटना हुई जिसने वहाँ मौजूद क्रांतिकारियों की ज़िंदगी को हमेशा के लिए बदल दिया, ट्रेन यात्री को गोली लगी
पैसों से भरा संदूक़ टूट नहीं रहा था। सभी लोग अशफ़ाक़ की तरफ़ रुकी हुई साँसों से देख रहे थे। तभी एक ऐसी घटना हुई जिसने वहाँ मौजूद क्रांतिकारियों की ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल दी।
 
दो डिब्बे पहले ट्रेन का एक यात्री अहमद अली अपने डिब्बे से नीचे उतरा और गार्ड के केबिन की तरफ़ बढ़ने लगा। क्रांतिकारियों ने ये उम्मीद नहीं की थी कि कोई शख़्स ऐसा करने की भी जुर्रत करेगा।
 
दरअसल, अहमद को ट्रेन लूट के बारे में बिलकुल पता नहीं था। वह ट्रेन के अचानक रुक जाने पर उस महिला डिब्बे की तरफ़ बढ़ रहा था जहाँ उसकी पत्नी बैठी हुई थीं। चूँकि ट्रेन रुकी हुई थी उसने सोचा कि नीचे उतरकर पत्नी का हालचाल ले लिया जाए। उसे ये बिलकुल अंदाज़ा नहीं था कि ट्रेन में क्या हो रहा है।
 
बिस्मिल लिखते हैं, "मुझे सारा माजरा समझने में ज़्यादा देर नहीं लगी लेकिन मेरे दूसरे साथी चीज़ों का उतनी तेज़ी से आकलन नहीं कर पाए। मन्मथ नाथ बहुत उत्साही थे लेकिन उन्हें हथियार चलाने का अधिक अनुभव नहीं था। जैसे ही उन्होंने उस शख़्स को केबिन की तरफ़ आते देखा उन्होंने उसको निशाने पर ले लिया। मैं उनसे कुछ कहता इससे पहले मन्मथ ने अपनी पिस्टल का ट्रिगर दबा दिया। अहमद अली को गोली लगी और वो वहीँ ज़मीन पर गिर गए।"
 
इस बीच अशफ़ाक़ संदूक़ को तोड़ने में व्यस्त थे लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिल रही थी। अंतत: बिस्मिल ने हथौड़ा सँभाला और संदूक़ के ताले पर पूरी ताक़त से वार किया। ताला टूट कर नीचे गिर गया। सारे रुपयों को निकाल कर चादरों में बाँधा गया।
 

लेकिन इस बीच एक और मुसीबत आ खड़ी हुई। दूर से एक ट्रेन आने की आवाज़ सुनाई दी। क्रांतिकारियों को डर था कि सामने से आती हुई ट्रेन का ड्राइवर ये नज़ारा देख कर शक न करे। लुटी जा रही ट्रेन के भीतर मुसाफ़िर भी अपनी जगह से हिलने-डुलने लगे थे।
 
क्रांतिकारियों की क़िस्मत अच्छी थी कि कोई मुसाफ़िर ट्रेन से नीचे नहीं उतरा। इस बीच बिस्मिल अपनी लोडेड माउज़र हवा में लहराते रहे। बाकी साथियों से उन्होंने अपने हथियार छिपा लेने के लिए कहा। अशफ़ाक़ से उन्होंने अपना हथौड़ा नीचे फेंक देने के लिए कहा।
 
सामने से जो ट्रेन आ रही थी वो पंजाब मेल थी। वो बिना रुके आगे बढ़ गई। पूरी घटना को आधे घंटे से भी कम समय में पूरा कर लिया गया।
 
बिस्मिल लिखते हैं, "मुझे महसूस हुआ कि सभी को एक मासूम व्यक्ति की जान जाने का गहरा अफ़सोस था। उसकी ग़लती यही थी कि वो ग़लत समय पर ग़लत जगह पर था। मन्मथ नाथ को बहुत रंज था कि उन्होंने एक निर्दोष आदमी पर गोली चला दी थी। उनकी आँखें सूजकर लाल हो गईं थीं। वो रो रहे थे।"
 
अगली सुबह ख़बर अख़बारों में थी, क्रांतिकारियों ने जितना सोचा था उतनी रकम लूट में नहीं मिली
बिस्मिल अपनी आत्मकथा में दावा करते हैं कि इस लूट का पूरे भारत पर ज़बरदस्त असर पड़ा। अन्य प्रमाणिक किताबों और संशोधनों में भी यही दावा किया गया है।
 
बिस्मिल लिखते हैं, "जैसे ही लोगों को पता चला कि इस हमले में बहुत कम लोग शामिल थे और इसका उद्देश्य सिर्फ़ सरकारी ख़ज़ाने को लूटना था, वो हमारे साहस से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें ये बात भी पसंद आई कि हमने ट्रेन से सरकारी पैसे के अलावा कुछ भी नहीं लूटा था।"
 
बिस्मिल ने लिखा है, "भारत के अधिकतर अख़बारों ने हमें देश का हीरो करार दिया। अगले कई हफ़्तों में युवाओं में हमसे जुड़ने की होड़ लग गई। इस घटना को लोगों ने एक साधारण लूट की तरह नहीं लिया। इसको एक ऐसी घटना के तौर पर लिया गया जिसने भारत में आज़ादी की लड़ाई को एक बड़े कैनवास पर स्थापित कर दिया।"
 
इतनी मेहनत करने के बाद उस लोहे के संदूक़ से क्रांतिकारियों को सिर्फ़ पाँच हज़ार से भी कुछ कम रकम ही मिली। हालाँकि यह रकम भी उस ज़माने में बहुत बड़ी रकम थी। आज के हिसाब से लाखों में। किंतु क्रांतिकारियों ने शायद जितनी उम्मीद की थी उतनी बड़ी रकम उऩ्हें नहीं मिली पाई थी।
 
गोमती नदी के किनारे कुछ मील चलकर सभी लखनऊ शहर में दाख़िल हुए।
 
मन्मथ नाथ गुप्ता ने अपनी किताब दे लिव्ड डेंजेरसलीमें लिखा, "हम चौक की तरफ़ से लखनऊ में दाख़िल हुए। ये लखनऊ का रेड लाइट इलाक़ा था जो हमेशा जागता रहता था। चौक में दाख़िल होने से पहले आज़ाद ने सारे पैसे और हथियार बिस्मिल को सौंप दिए। आज़ाद ने सुझाव दिया कि क्यों न हम पार्क की बेंचों पर सो जाएँ। आख़िर हमने पार्क में ही एक पेड़ के नीचे अपनी आँखें मूँदने की कोशिश की। भोर होते ही चिड़ियाँ चहचहाने लगीं और हमारी आँख खुल गई।"
 
जैसे ही वे पार्क से बाहर निकले, अख़बार विक्रेता का शोर सुनाई दिया, काकोरी में डकैती, काकोरी में डकैती क्रांतिकारियों ने एक दूसरे को देखा। कुछ ही घंटों के अंदर ये ख़बर हर जगह फैल गई थी।
 
छोड़ी गई चादर से मिला पहला सबूत, क्रांतिकारियों के कुछ साथियों ने भी आज़ादी के इन दीवानों के साथ किया था धोखा
जगह छोड़ने से पहले सभी लोगों ने उसका पूरा मुआयना किया था कि कहीं कोई चीज़ छूट तो नहीं गई है। उस समय सबको लगा कि उन्होंने अपनी तरफ़ से घटनास्थल पर कोई सबूत नहीं छोड़ा है। लेकिन उनको ये अंदाज़ा ही नहीं था कि ट्रेन के पास हो रही अफ़रा-तफ़री के बीच वो वहाँ एक चादर छोड़ आए थे। उस चादर पर शाहजहाँपुर के एक धोबी का निशान था।
 
इससे पुलिस को अंदाज़ा हुआ कि लूट में शामिल लोगों का कोई न कोई रिश्ता शाहजहाँपुर से है। पुलिस शाहजहाँपुर में उस धोबी को ढूंढ निकालने में कामयाब हो गई। वहाँ से पुलिस को पता चला कि ये चादर एचआरए के एक सदस्य की है।
 
यही नहीं इन क्रांतिकारियों के कुछ साथियों ने भी उनके साथ धोखा किया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अहिंसावादियों और क्रांतिकारियों, दोनों के हिस्सों में भीतरी धोखे और मतभेद जैसी घटनाएँ अविरत चलती दिखाई देती हैं। ये नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि भगत सिंह की फाँसी में भी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका सरकारी गवाह बने कई क्रांतिकारी साथियों की थी। यहाँ भी यही दिखाई दिया।
 
राम प्रसाद बिस्मिल लिखते हैं, "दुर्भाग्यवश हमारे बीच भी एक साँप रह रहा था। वो उस शख़्स का बहुत क़रीबी दोस्त था जिस पर मैं संगठन में आँख मूँद कर विश्वास करता था। मुझे बाद में पता चला कि ये शख़्स न सिर्फ़ काकोरी टीम की गिरफ़्तारी बल्कि पूरे संगठन को नेस्तानबूद करने के लिए ज़िम्मेदार था।"
 
बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में इस शख़्स का नाम नहीं लिया है लेकिन प्राची गर्ग अपनी किताब काकोरी द ट्रेन रॉबरी देट शुक द ब्रिटिश राज में लिखती हैं, "बनवारी लाल भार्गव एचआरए के सदस्य थे। काकोरी डकैती में भी उनकी भूमिका हथियार सप्लाई करने की थी। बाद में चले मुक़दमे में फाँसी से बचने और सरकार से मिली आर्थिक सहायता के एवज़ में सरकारी गवाह बन गए थे।"
 
चंद्रशेखर आज़ाद को छोड़कर सभी गिरफ़्तार, जाँच और काकोरी ट्रायल
इस लूट के बाद ब्रिटिश हुकूमत तिलमिला उठी। ब्रितानी सरकार ने काकोरी हमले में शामिल लोगों की गिरफ़्तारी के लिए पाँच हज़ार रुपये का इनाम रखा। इससे संबंधित इश्तेहार सभी रेलवे स्टेशन और थानों पर चिपकाए गए। तीन महीने के अंदर एक एक करके इसमें भाग लेने वाले सभी व्यक्तियों की गिरफ़्तारी शुरू हो गई।
 
काकोरी ट्रेन लूट या काकोरी ट्रेन एक्शन के मुक़दमे को आधिकारिक रूप से 'काकोरी षडयंत्र केस' के नाम से जाना जाता है। ट्रेन लूट में 10 क्रांतिकारी सीधे शामिल थे, किंतु यह केस एचआरए के 28 सक्रिय सदस्यों के ख़िलाफ़ शुरू हुआ। पूरे भारत से क़रीब 40 स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ़्तार किया गया था।
 
सिर्फ़ चंद्रशेखर आज़ाद को पुलिस गिरफ़्तार नहीं कर पाई। जिन्होंने आगे जाकर संगठन को नया नाम और नया जीवन प्रदान किया।
 
सबसे बाद में राम प्रसाद बिस्मिल गिरफ़्तार हुए। कानपुर से छपने वाले अख़बार प्रताप की सुर्ख़ी थी - भारत के नौ रत्न गिरफ़्तार। इस अख़बार के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी थे।
 
क्रांतिकारियों का बचाव करने वाले वकील थे - गोविंद बल्लभ पंत, चंद्र भानु गुप्ता, गोपीनाथ श्रीवास्तव, आर.एम. बहादुरजी, कृपा शंकर हजेला, बी. के. चौधरी, मोहन लाल सक्सेना और अजीत प्रसाद जैन।
 
इनमें से गोविंद वल्लभ पंत स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद में उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री और भारत के चौथे गृह मंत्री बने। चंद्र भानु गुप्ता तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। अजीत प्रसाद जैन केंद्र खाद्य मंत्री तथा केरल के राज्यपाल बने।
 
राम प्रसाद बिस्मिल ने प्रसिद्ध रूप से अपने मामले का बचाव किया। ब्रिटिश क्राउन के सरकारी वकील पंडित जगत नारायण मुल्ला थे।
 
ब्रिटिश अधिकारियों ने एचआरए के 28 सक्रिय सदस्यों पर डकैती, षड्यंत्र, ग़ैर इरादतन हत्या और क्राउन के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने का आरोप लगाया।
 
मुक़दमे की ख़ास बात यह थी कि इसमें वह मामले भी शामिल कर ले गए थे, जिनका काकोरी ट्रेन लूट से कोई संबंध नहीं था। जैसे 25 दिसंबर 1924 को पीलीभीत ज़िले के बमरौला गाँव, 9 मार्च 1925 को बिचुरी गाँव और 24 मई 1925 को प्रतापगढ़ ज़िले के द्वारकापुर गाँव के मामले। गिरफ़्तार किए गए कईं क्रांतिकारी ऐसे थे, जो काकोरी ट्रेन लूट मामले में शामिल तक नहीं थे।
 
घटना की एफ़आईआर अंग्रेज़ सरकार ने काकोरी थाने में दर्ज कराई थी। इसकी मूल कॉपी उर्दू में लिखी गई थी। बाद में इसका हिंदी अनुवाद भी कि‍या गया। इस एफ़आईआर की कॉपी आज भी काकोरी थाने में फ़ोटो फ्रेम में सुरक्षि‍त रखी गई है। हालाँकि पूरी कॉपी नहीं है, केवल एक पन्ना भर ही सुरक्षित रखा जा सका है। इसमें अभियुक्तों  की संख्या 20 से 25 और लूट की रकम 4,601 रुपए 15 आने और 6 पाई दर्ज है।
 
इस मामले का अंतिम फ़ैसला जुलाई 1927 में सुनाया गया। लगभग 15 लोगों को सबूतों के अभाव में अदालत ने रिहा कर दिया।
 
ट्रायल के बाद सज़ा
ब्रितानी सरकार ने काकोरी ट्रेन लूट मामले में,
चार क्रांतिकारियों को फाँसी की सज़ा सुनाई
राम प्रसाद बिस्मिल
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान
ठाकुर रोशन सिंह और
राजेंद्र लाहिड़ी
को फाँसी की सज़ा सुनाई गई
 
अन्य क्रांतिकारियों को भी ब्रितानी हुकूमत ने सज़ा दी थी
शचींद्र बख्शी और सचींद्रनाथ सान्याल को काला पानी
मन्मथ नाथ गुप्ता को 14 वर्ष कारावास की सज़ा,
उनकी आयु अठ्ठारह से कम थी इसलिए उन्हें कम अवधि की सज़ा दी गई थी
रामकृष्ण खत्री, मुकुंदी लाल, राज कुमार सिंह, गोविंद चरण कर और योगेश चंद्र चटर्जी को 10 साल जेल की सज़ा,
सुरेश चरण भट्टाचार्य और विष्णु शरण दुबलिश को 7 साल की जेल,
प्रेम कृष्ण शर्मा और भूपेननाथ सान्याल को 5 वर्ष की क़ैद तथा
केशव चक्रवर्ती को 4 साल जेल की सज़ा सुनाई गई
 
17 दिसंबर 1927 के दिन राजेंद्र लाहिड़ी को गोंडा जेल में, जबकि 19 दिसंबर 1927 को राम प्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर, ठाकुर रोशन सिंह को मलका इलाहाबाद और अश्फ़ाक़ उल्ला ख़ान को फ़ैज़ाबाद जेल में में फाँसी दी गई।
 
घटना के पूर्व ताज़ा उथलपुथल, जिसके बाद एचआरए की स्थापना हुई
1922 में बहुचर्चित चौरी चौरा काँड हुआ, जिससे व्यथित होकर महात्मा गाँधी ने असह्योग आंदोलन वापस ले लिया। असह्योग आंदोलन पूरे भारत में फैल चुका था, जिसमें भारतीय समाज बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहा था। महात्मा गाँधी द्वारा चलाए गए इस आंदोलन की व्यापक्ता और प्रभाव ने अंग्रेज़ी हुकूमत को परेशान कर दिया था।
 
इस आंदोलन में अनेक क्रांतिकारी भी शामिल थे, जैसे कि स्वयं शहीद सरदार भगत सिंह। भगत सिंह के अलावा भी दूसरे अनेक क्रांतिकारी चेहरे महात्मा गाँधी द्वारा चलाए जा रहे असह्योग आंदोलन से जुड़े हुए थे।
 
असह्योग आंदोलन अपने उफ़ान पर था, तभी 4 फ़रवरी 1922 के दिन ब्रिटिश भारत के संयुक्त राज्य के गोरखपुर ज़िले में चौरी चौरा इलाक़े में असह्योग आंदोलन में भाग लेने वाले प्रदर्शनकारियों का एक बड़े समूह और ब्रिटिश पुलिस के बीच भिड़ंत हो गई। इस भिड़ंत ने हिंसा का रूप धारण कर लिया। पुलिस स्टेशन में आग लगा दी गई, कुछ नागरिकों, 20 से ज़्यादा पुलिसकर्मियो और सरकारी कर्मचारियों की मृत्यु हुई।
 

महात्मा गाँधी ने इस आंदोलन को अहिंसा और त्याग के सिद्धांतों पर शुरू किया था। इस हिंसक घटनाक्रम ने उन्हें दुखी कर दिया और 12 फ़रवरी 1922 के दिन उन्होंने असह्योग आंदोलन वापस लेने की घोषणा कर दी। उन्होंने यंग इंडिया में लिखा कि आंदोलन को हिंसक होने से बचाने के लिए मैं हर एक अपमान, हर एक यातनापूर्ण बहिष्कार, यहाँ तक की मौत भी सहने को तैयार हूँ।
 
स्वाभाविक है कि आंदोलन को स्थगित करने का महात्मा गाँधी का फ़ैसला अधिकतर जनता, अहिंसावादी नेताओं, स्वतंत्रता सेनानियों तक को पसंद नहीं आया। राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान, आदि को भी गाँधीजी के फ़ैसले ने रोष से भर दिया।
 
इसीके चलते बंगाल और उत्तर के कुछ राज्यों में कुछ नए संगठन तैयार हुए। इनमें से एक हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन (एचआरए) था। यह वही संगठन था, जिसे बाद में चंद्रशेखर आज़ाद ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) नाम दिया और उसे फिर खड़ा किया।
 
स्वतंत्रता आंदोलन पर प्रभाव
काकोरी के शहीदों के साहस, विद्रोह और बलिदान ने नई पीढ़ी के क्रांतिकारियों - भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को प्रेरित किया। इस घटना ने अलग-अलग धर्म और क्षेत्र से आने वाले क्रांतिकारियों के बीच एकता को उजागर किया। अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान और राम प्रसाद बिस्मिल की दोस्ती और कहानी ने स्वतंत्रता संग्राम की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति को सामने रखा।
 
इस बहुचर्चित मुक़दमे और बाद में हुई फाँसी ने व्यापक राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया। इसने ब्रिटिश शासन की क्रूरता को उजागर किया और क्रांतिकारी लक्ष्यों के लिए आम जनता के समर्थन को बढ़ावा दिया। इस घटना ने स्वतंत्रता आंदोलन में एक नया मोड़ दिया।
 
इसे भारत की स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय के अधिकार की एक ऐसी साहसिक घोषणा के रूप में याद किया जाता है, जो बलिदान और दृढ़ संकल्प की भावना को दर्शाती है। इस घटना ने न केवल औपनिवेशिक शोषण के आर्थिक आधार को चुनौती दी, बल्कि प्रतिरोध के लिए क्रांतिकारी तरीक़ों, विचारधारा और संगठनात्मक बदलाव को भी रेखांकित किया। यह वह घटना थी, जिससे अहिंसक प्रतिरोध के समानातंर सशस्त्र संधर्ष की निरंतरता का सफ़र फिर शुरू हुआ।
 
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)