अरसे से एक बात कही जाती है कि... कांग्रेस कभी नहीं जाती, जिसे सत्ता मिलती है वही कांग्रेस बन जाती है। और वर्तमान सरकार ने डंके की चोट पर, एक बार नहीं किंतु अनेकों बार यह साबित कर दिया है। वैसे यहां एक और बात का ज़िक्र करना पड़ेगा कि जिसके पास सत्ता नहीं है वो कभी भाजपा नहीं बन सकती! क्योंकि इसके बारे में भी कहा जाता है कि सत्ता के लिए सबसे अच्छा दल कौन सा है उस पर विवाद हो सकते हैं, लेकिन विपक्ष के रूप में भाजपा से श्रेष्ठ कोई हो ही नहीं सकता। आज का वर्तमान देखिए। उस दौर के कांग्रेस सरीखी या उससे भी ज्यादा शक्तिशाली सत्ता व्यवस्था, कथित रूप से बहुत याराना है वाला मीडिया और बिल्कुल पप्पू सरीखा विपक्ष... कुल मिलाकर कई वादे, कई वचन, कई योजनाएं, कई नीतियां, कई फैसलें, कई घटनाएं, कई विवाद, इन सब में से किसीके सवाल या तो पूछे ही नहीं जाते या सतह पर लाए नहीं जाते। बाकी का बचा-खुचा काम लठैत सेवा दल बड़े मन से कर देता है।
कांग्रेस के दौरान हम सरकार से सवाल पूछा करते थे और तब हमारे सवालों में यह लठैत सेवा दल त्वरित कूदता था। सवाल तो हम आज भी पूछा करते हैं, लेकिन उन सेवा दल वालों की राजनीति ने ऐसी सेवा (सर्विस) की हुई है कि वो हमारे पूर्वज समान बंदरों की तरह अपना ट्रेंड बदल चुके हैं। इश्क नचाए जिसको यार, फिर वो नाचे बीच बाजार वाले दल पर हम इससे पहले कुछ लेखों में बात कर चुके हैं। पप्पू टाइप विपक्ष और कथित याराना वाला मीडिया, इन सब पर भी पहले की बोर्ड को बेवजह घिस चुके हैं। खैर, आज के हमारे विषय पर बात शुरू करते हैं।
विपक्ष का कर्तव्य है सवाल उठाना, लेकिन घर के ही लोग सड़कों पर सवाल दागे तब मामला इतना सीधा तो नहीं लगता
विपक्ष का कर्तव्य है सवाल उठाना। जैसा कि भाजपा उस पुराने दौर में किया करती थी। सत्ता दल का काम है उठे हुए सवालों को सरकार के खिलाफ साजिश करार देना। जैसा कि पहले होता था और आज भी होता है। बहुत पुराना याराना वाला मीडिया का काम एक लफ्जों में बयां करे तो... नेता अपने आप को बचाए रखने के लिए सदैव गरीबी पर बात करते हैं लेकिन मीडिया किसी को बचाने के लिए हमेशा गरीबी पर बात नहीं करता! और इससे नेता की नियत की गरीबी छाते के नीचे आराम से आराम फरमाती रहती है। लेकिन भाजपा के ही दिग्गजों ने सड़क पर आकर सवाल उठाए हैं। उनके सवाल भी तथ्यात्मक से हैं। ये बात और है कि मीडिया के पास और भी कई काम है, और इसलिए वो सवालों को जगह नहीं दे सकता!
वैसे टू-जी स्पेक्ट्रम क्या था इसका जवाब ना ही भाजपा दे रही है और ना ही कांग्रेस। कांग्रेस तो पूछ ही नहीं रही। जैसे कि जान छूटी तो फिर क्या पूछना!!! रफ़ाल का मसला भी राजनीतिक फाइट के बाद फाइटर जेट की तरह हवा में उड़ जाएगा ये विश्वास हमारी व्यवस्था दिला देती है। लेकिन फिर भी सवाल तो उठना जायज है कि क्या रफ़ाल लड़ाकू विमान की खरीद में घोटाला हुआ है? इस बारे में 8 अगस्त 2018 को यशवंत सिन्हा, प्रशांत भूषण और अरुण शौरी ने प्रेस कोन्फरन्स की। कायदे से लोकशाही व्यवस्था में सरकार को इतने गंभीर सवालों के गंभीरता से जवाब देने चाहिए, लेकिन सरकार के ऊपर सवाल दागे जाते हैं और उनकी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जोब-लेस वाला जुमला टाइप जवाब देकर चुनाव प्रचार में बिजी हो जाते हैं। कमाल है कि सवाल सरकार से पूछा जाता है और जिसने शपथ नहीं ली है वो आदमी इसका बेस-लेस जवाब देकर हंसने लगता है! गजब है कि अपने ही दिग्गज नेता को उसी दल का अध्यक्ष जोब-लेस कहता है। शायद ऐसे में दूसरों को शिकायत नहीं करनी चाहिए कि उन्हें क्या क्या कहा जाता है!!!
रफ़ाल को लेकर रफ़ाल की गति से भी ज्यादा गति से इतना उलट-पुलट क्यों हुआ? एचएएल अचानक बाहर क्यों हुई? रिलायंस जैसी नयी-नवेली कंपनी ने कैसे जगह बनाई?
कहानी का हीरो है रफ़ाल विमान। कहानी के किरदार किसी को हीरो लगते हैं तो किसी को विलेन। रफ़ाल लड़ाकू विमान फ्रांस की कंपनी डास्सो एविएशन बनाती है। 2007 से भारत इसे ख़रीदने का सपना देख रहा है। 2007 में भारतीय वायुसेना ने सरकार को अपनी ज़रूरत बताई थी और उस वक्त यूपीए सरकार ने रिक्वेस्ट ऑफ प्रपोज़ल तैयार किया था कि वह 167 मीडियम मल्टी रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट खरीदेगा। इसमें साफ साफ कहा गया था कि जो भी टेंडर जारी होगा उसमें यह बात शामिल होगी कि शुरुआती ख़रीद की लागत क्या होगी, विमान कंपनी भारत को टेक्नॉलोजी देगी और भारत में उत्पादन के लाइसेंस देगी।
इस आधार पर टेंडर जारी हुआ था, जिसमें 6 लड़ाकू विमान बनाने वाली कंपनियों ने हिस्सा लिया था। जिनमें से एक डास्सो एविएशन भी थी। 2011 तक बातचीत और परीक्षण की प्रक्रिया चलने के बाद वायुसेना ने अपनी राय रखी कि उसकी ज़रूरत के अनुसार डास्सो एविशन और एक दूसरी कंपनी यूरोफाइटर्स के विमान सही लगते हैं। 2012 के टेंडर में डास्सो एविएशन ने सबसे कम पैसे में विमान आपूर्ति की बात की थी। इसके आधार पर भारत सरकार और डास्सो कंपनी के बीच बातचीत शुरू हुई। इसके बीच बहुत कुछ हुआ। जब प्रधानमंत्री मोदी फ्रांस की यात्रा पर गए तब, अप्रैल 2015 में तो इस खरीद की प्रक्रिया से संबंधित कई बातें बदल गई। नोट करे कि बाद में यूरोफाइटर्स ने भी दाम करके प्रपोज किया था, लेकिन कॉल रिसिव क्यों नहीं किया गया ये भी आंसर-लेस क्वेश्चन है।
रफ़ाल पर उठे सवालों को ठीक से समझना ज़रूरी है। भाजपा के घर से जिन्होंने प्रेस रिलीज़ की वो भी बहुत लंबी थी और बहुत सारे दस्तावेज़ सामने लाए गए थे। सवाल जायज थे या नहीं यह तो जवाबों के स्तर से तय होता है। मूल सवाल यह उठा कि रफ़ाल विमान की खरीद की बातचीत की प्रक्रिया में कई साल तक पब्लिक सेक्टर की कंपनी हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड शामिल रही थी, उसे अचानक ही बाहर क्यों कर दिया गया? और उसकी जगह नयी-नवेली रिलायंस कैसे आ गई? 10 अप्रैल 2015 को प्रधानमंत्री के डील साइन करने के 16 दिन पहले डास्सो एविशन, जो रफ़ाल बनाती है, उसके सीईओ के बयान के अनुसार हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड कंपनी से बातचीत हो रही थी। 25 मार्च 2015 को रफ़ाल विमान बनाने वाली कंपनी डास्सो एविएशन के सीईओ ने मीडिया से बात करते हुए हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड के चेयरमैन का ज़िक्र किया था। बयान था कि, "एचएएल चेयरमैन से सुनकर आप मेरे संतोष की कल्पना कर सकते हैं कि हम ज़िम्मेदारियों को साझा करने से सहमत हैं। हम रिक्वेस्ट फ़ॉर प्रपोजल तय की गई प्रक्रिया को लेकर प्रतिबद्ध हैं। मुझे पूरा भरोसा है कि कॉन्ट्रैक्ट को पूरा करने और और उस पर हस्ताक्षर करने का काम जल्दी हो जाएगा।"
मार्च 2014 में दोनों के बीच एक करार भी हुआ था कि भारत में 108 रफ़ाल लड़ाकू विमान बनेंगे और इसका 70 फीसदी काम एचएएल को मिलेगा और बाकी काम डास्सो एविएशन करेगी। लेकिन प्रधानमंत्री के डील साइन करने से दो दिन पहले हिस्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड का नाम कट जाता है!!! यह खेल कैसे हुआ किसी को पता नहीं। इस सवाल का जवाब कोई दे नहीं रहा।
उच्च स्तर पर जो बयान आए थे उसके मुताबिक बातचीत की सारी प्रक्रिया यूपीए के समय जारी रिक्वेस्ट ऑफ प्रपोजल के हिसाब से चल रही थी। यानी नया कुछ नहीं हुआ था। यह वोह समय था जब प्रधानमंत्री की यात्रा को लेकर तैयारियां चल रही थी। माहौल बनाया जा रहा था। 16 दिन बाद प्रधानमंत्री मोदी फ्रांस के लिए रवाना हुए थे। यानी अब तक इस डील की प्रक्रिया में हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड कंपनी शामिल थी, तभी तो रफ़ाल कंपनी के चेयरमैन ने उनका नाम लिया था।
सवाल उठना जायज है कि 60 साल से जो कंपनी विमान बना रही है वो बाहर कर दी जाती है और एक ऐसी कंपनी आ जाती है जिसका कोई अनुभव नहीं है!!! जिसे भारतीय नौ सेना को खास तरह का जहाज़ बनाकर देना था मगर वो नहीं दे पा रही है। यह सब रिलायंस डिफेंस के बारे में कहा जा रहा है कि इस कंपनी पर भारतीय बैंकों का 8,000 करोड़ का कर्ज़ा भी है। वैसे कुछ लोग कहते हैं कि इस कंपनी पर कर्जा इससे भी ज्यादा है। यानी कि एक तरफ हजारों करोड़ का चूना लगाकर कोई लंदन चला जाता है और दूसरी तरफ जिसने चूना तो नहीं लगाया, लेकिन पान तैयार करके रखा है, उसे कॉन्ट्रैक्ट मिलता है!!! रक्षा संसाधनों से जुड़े इस मामले में गंभीर आरोप लग रहा है कि इस मामले में बड़ा घपला हुआ है। आरोप है कि सरकार सीक्रेसी यानी गोपनीयता के करार का बहाना बना रही है।
कहा जाता है कि अप्रैल 2015 में जो डील हुई वो 2012 से लेकर 2015 के बीच चली प्रक्रिया से बिल्कुल अलग है। अब ऐसे में सवाल लाजमी है कि अचानक तीन साल की सारी बातचीत कैसे पलट गई? किसके फायदे के लिए पलटी गई? 2007 में 126 जहाज़ की कुल लागत 42,000 करोड़ थी। अंतिम कीमत क्या थी, इसकी सही जानकारी सार्वजनिक रूप से मौजूद नहीं है। लेकिन 13 अप्रैल 2015 को दूरदर्शन को इंटरव्यू देते हुए रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा था कि 126 एयरक्राफ्ट की कीमत 90,000 करोड़ होगी। दाम बताने के बाद अब सरकार दाम क्यों नहीं बता रही है यह भी स्वाभाविक संदेह है।
उस समय के विदेश सचिव के एक बयान को भी देखना होगा, जो उन्होंने प्रधानमंत्री के दौरे से पहले मीडिया से कहा था। यह बयान 8 अप्रैल 2015 का है, जिसके अनुसार, “रफ़ाल को लेकर मेरी समझ यह है कि फ्रेंच कंपनी, हमारा रक्षा मंत्रालय और हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड के बीच चर्चा चल रही है। ये सभी टेक्निकल और डिटेल चर्चा है। नेतृत्व के स्तर पर जो यात्रा होती है उसमें हम रक्षा सौदों को शामिल नहीं करते हैं। वो अलग ही ट्रैक पर चल रहा होता है।” अब सिम्पल सा तर्क है कि रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को भी नहीं पता कि क्या होने वाला था!!! विदेश सचिव को भी नहीं पता कि क्या होने वाला था!!! क्योंकि विदेश सचिव 8 अप्रैल 2015 को पत्रकारों को बता रहे थे कि इस प्रक्रिया में हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड शामिल है, मगर 25 मार्च 2015 को अडानी डिफेंस सिस्टम एंड टेक्नॉलजी लिमिटेड और 28 मार्च को रिलायंस डिफेंस लिमिटेड कंपनी को इस प्रक्रिया में शामिल कर लिया जाता है!!! जबकि इसके लिए भी भारत में कानून है कि अगर कोई नई कंपनी बीच रास्ते में शामिल होगी तो उसके लिए रक्षा मंत्री की मंज़ूरी ज़रूरी होगी।
विदेश सचिव की बातचीत के अनुसार यूपीए के समय की बातचीत के हिसाब से ही डील हो रही थी। मगर जब डील साइन होती है तब पहले की बातचीत की कई बातें बदल चुकी थीं। पहले डील थी कि 18 फाइटर प्लेन मिलेंगे, लेकिन 36 फाइटर प्लेन की बात कहां से आ गई ये सवाल बनता है। क्या इसके लिए वायुसेना ने अपनी तरफ से कुछ प्रस्ताव पेश किया था? क्या नई डील को रक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी ने मंज़ूरी दी थी? नई डील के अनुसार नया टेंडर क्यों नहीं जारी किया गया? 4 जुलाई 2014 को यूरोफाइटर ने रक्षा मंत्री अरुण जेटली को पत्र लिखा था कि वह अपनी लागत में 20 फीसदी की कमी करने के लिए तैयार है। तो फिर नया टेंडर क्यों नहीं जारी हुआ? मार्च 2014 में एचएएल और डास्सो के बीच एक करार हुआ था, जिसके अनुसार 108 विमान भारत में बनेंगे और 70 फीसदी काम एचएएल में होगा। बाकी का काम डास्सो एविशन कंपनी करेगी।
लेकिन गजब सरप्राइज यह था कि डील के दो दिन पहले नई कंपनी का नाम सामने आता है!!! 10 अप्रैल 2015 को प्रधानमंत्री मोदी फ्रांस में इसकी घोषणा करते हैं। काम एक नई कंपनी को मिल जाता है। अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस लिमिटेड को। एचएएल को बाहर कर दिया जाता है, जबकि 25 मार्च को डास्सो एविएशन के सीईओ एक प्रेस कोन्फरन्स करते हैं जिसमें वे एचएएल का नाम लेते हैं और बताते हैं कि उनके साथ बातचीत हो रही है। वे कहते हैं कि, “हम ज़िम्मेदारियों के साझा करने से सहमत हैं। हम रिक्वेस्ट फ़ॉर प्रोजेक्ट में तय की गई प्रक्रिया को लेकर प्रतिबद्द हैं। मुझे पूरा भरोसा है कि कॉन्ट्रैक्ट को पूरा करने और और उस पर हस्ताक्षर करने का काम जल्दी हो जाएगा।”
सोचिए कि रफ़ाल कंपनी के सीईओ एचएएल के चेयरमैन की बात कर रहे थे, साथ ही वे रिक्वेस्ट फ़ॉर प्रपोज़ल की बात कर रहे थे, जो यूपीए के समय से चल रहा था। फिर अचानक सब कैसे बदल गया? दावा है कि 36 विमानों की तैयार अवस्था में तुरंत आपूर्ति होनी थी। तीन साल बीत गए मगर एक भी विमान भारत की सरज़मी पर नहीं उतरा है। संसद में बताया गया था कि पहली खेप अप्रैल 2019 में आएगी। यानी डील साइन के 4 साल बाद। कहा गया कि 2022 के मध्य तक 36 एयरक्राफ्ट की पूरी खेप नहीं आ सकेगी।
गजब था कि जैसे जियो विश्वविद्यालय बिना जमीन पर अवतरित हुए उस सूची में आ गया था, यहां अनिल अंबानी की कंपनी, जिसे कोई अनुभव नहीं था, बने कुछ दिन हुए थे, जो पिक्चर में कहीं नहीं थी, वो कहानी का मुख्य किरदार बन चुकी थी!!!
जानकार बताते हैं कि अगर किसी स्तर पर कोई नई कंपनी डील में शामिल होती है तो इसके लिए अलग से नियम बने हैं। 2005 में बनी इस नियमावली को ऑफसेट नियमावली कहते हैं। इस नियम के अनुसार उस कंपनी का मूल्यांकन होगा और रक्षा मंत्री साइन करेंगे। तो क्या रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने किसी फाइल पर साइन किया था? क्या उन्हें इस बारे में पता था? साथ ही रक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी में क्या इस पर चर्चा हुई थी?
वैसे कुछ रक्षा विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि बात मल्टी कॉम्बैट एयरक्राफ्ट की थी, न्यूक्लियर मिसाइल दागने के लिए हमारे पास कई सारे रास्ते हैं। वे कहते हैं कि न्यूक्लियर हथियार फाइटर जेट से दागने का जमाना बीत चुका है। उसके लिए और भी रास्ते हैं, जो मौजूद भी है। इसलिए रफ़ाल के साथ न्यूक्लियर वाला एंगल, जो कुछ दिनों तक चला, उसमें सवाल उठते रहे। हालांकि यह सवाल (न्यूक्लियर वाला) मतभेद का मामला है। जबकि दूसरे सवाल मतभेद का नहीं किंतु मतभेद से ज्यादा कुछ भेद-भरम का मामला है।
सवाल किसीसे पूछा जा रहा है, जवाब कोई और दे रहा है, जो भी जवाब आ रहे हैं वो एकदूसरे से मेल ही नहीं खा रहे, यह कैसी डील है जहां रक्षा मंत्रालय, विदेश सचिव और जिससे विमान खरीदे जाने हैं उनको सरप्राइज का पता ही नहीं था, रक्षा मंत्रालय को जो नहीं पता था वो रिलायंस को कैसे पता था?
रिलायंस के संदर्भ में कुछ सवाल पूछे गए थे, जिसके जवाब रिलायंस की ओर से कुछ यूं दिए गए। पहला सवाल था कि - कहा जा रहा है कि रिलायंस को रक्षा मंत्रालय से 30 हज़ार करोड़ के कॉन्ट्रैक्ट का फ़ायदा हुआ जो 36 रफ़ाल विमानों के ऑफ़सेट्स से जुड़ा है। जवाब मिला कि - रिलायंस डिफेंस या रिलायंस ग्रुप की किसी और कंपनी ने अभी तक 36 रफ़ाल विमानों से जुड़ा कोई कॉन्ट्रैक्ट रक्षा मंत्रालय से हासिल नहीं किया है। ये बातें पूरी तरह निराधार हैं। एक और सवाल था – एचएएल को नज़रअंदाज़ कर रिलायंस को ऑफ़सेट दिए जाने को आप कैसे एक्सप्लेन करेंगे? जवाब था – एचएएल 126 एमएमआरसीए प्रोग्राम के तहत नामांकित प्रोडक्शन एजेंसी थी जो कभी कॉन्ट्रैक्ट की स्टेज तक नहीं पहुंची।
उनका कहना है कि 36 राफेल के मामले में सभी विमान फ़्लाई अवे कंडीशन में डिलीवर किए जाने हैं। दूसरे शब्दों में डास्सो द्वारा फ्रांस से निर्यात किए जाने हैं। एचएएल या कोई भी अन्य इसमें प्रोडक्शन एजेंसी नहीं हो सकती क्योंकि कोई भी विमान भारत में नहीं बनना है। रिलायंस डिफेंस का कहना है कि विदेशी वेंडरस के भारतीय पार्टनर्स के चयन में रक्षा मंत्रालय की कोई भूमिका नहीं है। उनके अनुसार 2005 से अभी तक 50 ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट साइन हो चुके हैं सबमें एक ही प्रक्रिया अपनाई गई है। रिलायंस डिफेंस ने कुछ मसलों पर कहा कि इस सवाल का जवाब रक्षा मंत्रालय ही सबसे सही दे सकता है। वे आगे कहते हैं कि लेकिन ये समझना बेहतर होगा कि डीपीपी-2016 के मुताबिक विदेशी वेंडर को इस चुनाव की सुविधा है कि वो ऑफ़सेट क्रेडिट्स के दावे के समय अपने ऑफसेट पार्टनर्स का ब्योरा दे सके। इस मामले में ऑफसेट ऑब्लिगेशन्स सितंबर 2019 के बाद ही ड्यू होगी। इसलिए ये संभव है कि रक्षा मंत्रालय को डास्सो से उसके ऑफ़सेट पार्टनर्स के बारे में कोई औपचारिक जानकारी ना मिली हो।
गजब है कि यह कैसी डील थी कि अप्रैल 2015 से अगस्त 2018 आ गया, अभी तक रक्षा मंत्रालय को जानकारी ही नहीं है, डास्सो एविएशन ने जानकारी ही नहीं दी है!!! रिलायंस के इस जवाब के बाद कम से कम रक्षा मंत्रालय को तो जवाब देना ही चाहिए, जो अभी तक नहीं आया है। एक सवाल के जवाब में रिलायंस डिफेंस कहती है कि उसे 30,000 करोड़ का ठेका नहीं मिला है। डास्सो एविएशन किस ऑफसेट पार्टनर को कितना काम देगी, यह अभी तय नहीं हुआ है। डास्सो एविएशन ने इसके लिए 100 से अधिक भारतीय कंपनियों को इशारा किया है। इसमें से दो सरकारी कंपनियां हैं एचएएल और भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड। एक तो इशारा करने का क्या मतलब होता होगा यह समझ से बाहर है। रिलायंस कह रही है कि रक्षा मंत्रालय को हो सकता है कि ऑफसेट पार्टनर के बारे में जानकारी न हो मगर रिलायंस को पता है कि 100 से अधिक ऑफसेट पार्टनर्स हो सकते हैं!!! इसमें दो सरकारी कंपनियां भी हैं। क्या यह मुमकिन हो सकता है कि रक्षा मंत्रालय को इतना भी पता न हो? 100 कंपनियां पार्टनर बनने वाली हैं फिर भी रक्षा मंत्रालय को ऑफसेट पार्टनर के बारे में पता नहीं होगा?
रिलायंस डिफेंस ने उस सवाल का भी जवाब दिया कि एक ऐसी कंपनी को ठेका कैसे मिल गया जिसके पास कोई अनुभव नहीं है। रिलायंस कहती है कि - हमें अपने तथ्य सही कर लेने चाहिए। इस कॉन्ट्रैक्ट के तहत कोई लड़ाकू विमान नहीं बनाए जाने हैं क्योंकि सभी विमान फ्रांस से फ्लाई अवे कंडीशन में आने हैं। भारत में एचएएल को छोड़ किसी भी कंपनी को लड़ाकू विमान बनाने का अनुभव नहीं है। अगर इस तर्क के हिसाब से चलें तो इसका मतलब होगा कि हम जो अभी है उसके अलावा कभी कोई नई क्षमता नहीं बना पाएंगे। और रक्षा से जुड़े 70% हार्डवेयर को आयात करते रहेंगे। एक और सवाल किया गया था कि जब प्रधानमंत्री पेरिस में डील का एलान कर रहे थे तो अनिल अंबानी वहां क्यों मौजूद थे? जवाब था - अंबानी फ्रांस और अन्य देशों के लिए सीईओ फोरम का हिस्सा थे। वो पेरिस में इसलिए थे, क्योंकि प्रधानमंत्री के दौरे के दौरान वहां सीईओ फोरम की भी बैठक थी। भारतीय कंपनी के 25 अन्य सीईओ भी वहां मौजूद थे। इनमें एचएएल के चेयरमैन भी थे।
अनिल अंबानी को बताना चाहिए था कि वे कौन कौन से हार्डवेयर बना रहे हैं जिसके कारण भारत को आयात नहीं करना पड़ेगा। क्या उन्हें नहीं पता कि इस डील के तहत ट्रांसफर ऑफ टेक्नॉलजी नहीं हुई है। यानी डास्सो ने अपनी तकनीक भारतीय कंपनी से साझा करने का कोई वादा नहीं किया है। अब फिर एक संदेहहात्मक और गंभीर सवाल उठता है कि यूपीए के समय ट्रांसफर ऑफ टेक्नॉलजी देने की बात हुई थी, वो बात क्यों ग़ायब हो गई?
कीमत बताना गुप्तता है तो फिर गुप्तता का भंग पहले ही क्यों हुआ?
भारत सरकार की बातें निराली हैं। जब यह मामला नेता विपक्ष ने उठाया तो रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि देश के सामने सब रख देंगे, मगर बाद में मुकर गईं!!! सदन के भीतर कहने लगीं कि फ्रांस से गुप्तता का क़रार हुआ है। जबकि 13 अप्रैल 2015 को दूरदर्शन को इंटरव्यू देते हुए रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर बता चुके थे कि 126 एयरक्राफ्ट की कीमत 90 हजार करोड़ होगी। एक रक्षा मंत्री कह रहे हैं कि 90 हजार करोड़ की डील है और एक रक्षा मंत्री कह रही हैं कि कितने की डील है, हम नहीं बताएंगे!!! यही नहीं, दो मौके पर संसद में रक्षा राज्य मंत्री दाम के बारे में बता चुके थे तो फिर दाम बताने में क्या हर्ज होगा यह भी नया सवाल है। आरोप है कि जब टेक्नोलॉजी नहीं दे रहा है तब फिर इस विमान का दाम प्रति विमान 1,000 करोड़ ज़्यादा कैसे हो गया? यूपीए के समय वही विमान 700 करोड़ में आ रहा था, अब आरोप है कि एक विमान के 1600-1700 करोड़ दिए जा रहे हैं, ऐसा क्यों? एक पत्रकार (अजय शुक्ला) ने भी लिखा है कि डील के बाद प्रेस से एक अनौपचारिक ब्रीफिंग में सबको दाम बताए गए थे। उन लोगों ने रिपोर्ट भी की थी।
इस साल फ्रांस के राष्ट्रपति मैंक्रों भारत आए थे। उन्होंने इंडिया टुडे चैनल से कहा था कि भारत सरकार चाहे तो विपक्ष को भरोसे में लेने के लिए कुछ बातें बता सकती है। उन्हें ऐतराज़ नहीं है। सदन में नेता विपक्ष के बयान के बाद फ्रांस की ओर से जो स्पष्टीकरण आया था वो भी कीमतों के विषय पर कम, दूसरे कोण की तरफ ज्यादा था।
सरकार कहती है कि इस डील से संबंधित कोई बात नहीं बता सकते। देश की सुरक्षा का सवाल है और गुप्तता का करार है। लेकिन यहां तो रिलायंस डिफेंस कंपनी चार पन्ने का प्रेस रिलीज़ दे रही है!!! तो क्या गुप्तता का करार डील में हिस्सेदार कंपनी पर लागू नहीं है? सिर्फ मोदीजी की सरकार पर लागू है? गजब है कि सरकार ने जितनी जानकारी दी है उससे भी ज्यादा जानकारी रिलायंस प्रेस रिलीज़ में देती है। गुप्तता के करार के बाद भी रिलायंस को स्पेशल छूट होगी।
(इंडिया इनसाइड)
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