नागरिक किसे माना जाए और किसे नहीं, इस मुद्दे को लेकर देश उबलेगा, किंतु नवजात
नागरिकों को जिंदा कैसे रखा जाए उसे लेकर बर्फ की सिल्लियां जमती रहेगी। मंदिर और
मस्जिद चमकते-दमकते रहेंगे, अस्पतालें मरती रहेगी। यह कैसा मंजर है जहां भारत का
सुनहरा भविष्य कहे जाने वाले बच्चे अपने भारत को ठीक से आंखें खोलकर देखे उससे पहले
तो हमारी व्यवस्था इन्हें सदा के लिए मौत की नींद सुला देती हैं। इस व्यवस्था के
सर्जक और पालनहार भारतीय नागरिक हैं। कहने को तो आजाद है, किंतु है किसी न किसी
राजनीतिक दल के गुलाम। कोई भाजपाई है, कोई कांग्रेसी है, कोई आपियां, कोई
सपा-बसपियां, कोई कोई दूसरा-तीसरा-चौथा...। ये सारे वो लठैत है जो मुद्दों की नहीं अपने-अपने नेताओं की फिक्र करते रहते हैं। इनकी लंपटता की चरमसीमा यही है कि यह लठैत
चिंतित होने में भी चॉइस करते हैं। सीधा सवाल है – लंपटता कौन से सनातन धर्म का अंग
माना जाता है भाई?
“मोदियाबिंदों” और “सोनपापड़ियों” का ज़िक्र किया तो यह दोनों मुझे किसी
दूसरे-तीसरे राजनीतिक दल या विचारधारा से जोड़ देंगे। यही इनकी सोच है और यह कहते
हैं कि हमीं भारत को विश्वगुरू बनाएंगे! हमने बहुत पहले एक लेख लिखा था - “Dire side of Advance India :
वे खबरें जिसने देश की संवेदनशीलता को कटघरे में खड़ा किया...
क्या हमने आहत होने की आदत डाल दी है?” मर्हूम बख्शी बाबू कह गए कि इंडिया इस अ फर्स्ट क्लास कंट्री विद थर्ड क्लास
लीडर्स। लेकिन इस सत्यता में एक और तथ्य जुड़ता नजर आ रहा है। वो यह कि – इंडिया इस अ फर्स्ट क्लास कंट्री विद थर्ड क्लास लीडर्स एंड टेंथ क्लास पॉलिटिकल फॉलोअर्स। आहत
होना... दुखी होना... हम इन सीमाओं को लांध चुके हैं, शायद अब आहत होने वाली या दुखी
करने वाली खबरें हमारे कमरों तक आती रहती हैं... जाती रहती हैं?
अपनी पार्टी की
जहां सरकार हो वहां कुछ भी हो, यह लोग बिना ठंड के भी रजाई ओढ़ लेते हैं। दूसरी जगह
कुछ हो तो यह लोग सामनेवाले की रजाई को भी आग लगा देने को आमादा हो जाते हैं। यह
बीमारी उन तमाम गुलामों में हैं। यूपी-बिहार-एमपी-राजस्थान-गुजरात में बीजेपी की सरकार
होती है और बच्चे अस्पतालों में मरते है तो गैरबीजेपी वाले फेफड़े फाड़ने लगते हैं और
बीजेपी वाले रजाई ओढ़कर सो जाते हैं। फिर वहां कांग्रेस की सरकारें आए तो दृश्य बदल
जाता है। यह गुलाम ऐसी ही लंपटता में जीते हुए व्यवस्थाओं को मार देते हैं। और ऐसे ही
गुरू### टाइप लोग कहते हैं कि हमीं भारत को विश्वगुरू बनाएंगे!!!
बच्चों के अंकपत्र में फोटूं चिपकाने का चस्का नेताजी को है, लेकिन अस्पतालों में
ऑक्सीजन के सिलेंडर मुहैया करवाने का फ़र्ज़ यह लोग भूल जाते हैं
अस्पतालों में
ऑक्सीजन खत्म हो गया और बच्चे मारे गए। अगर आप मानते है कि यह किसी एक शहर या
प्रदेश की वारदातें है तो फिर आप को आपकी मानसिक विकलांगता मुबारक हो। यह समूचे
भारत की त्रासदी है। उधर दूसरा दृश्य देख लीजिए। कई राज्यों में मंत्रीजी अपनी फोटू
बच्चों के अंकपत्र में चिपकाने का चस्का रखते है, लेकिन अस्पतालों में ऑक्सीजन के
सिलेंडर मुहैया करवाने का फ़र्ज़ यह लोग भूल जाते हैं! बच्चों के अंकपत्र हो, स्टेट ट्रांसपोर्ट की बसें हो, शहर की सड़कें हो-चौराहे
हो, नेताजी हर सरकारी इस्तेहार में अपनी मॉडलींग टाइप फोटू चिपकाना नहीं भूलते, बस
सरकारी अस्पतालों में मासूमों को जिंदा रखने का कर्तव्य भूल जाते हैं। थर्ड क्लास
लीडर्स के पास टेंथ क्लास लठैत भी होते है, जो किसी मुद्दे-किसी फिल्म-किसी
धार्मिक मसले को लेकर जिंदा नजर आते है, लेकिन सरकारी अस्पताल और सरकारी स्कूलों को
लेकर सारे के सारे मुर्दे बने हुए पाए जाते है।
कांग्रेस हो या
बीजेपी, इन्होंने सरकार कैसे चलाई उसका एक तथ्य देख लीजिए। इन दोनों के शासन में और
शासन के पश्चात इस देश में सरकारी स्कूल और सरकारी अस्पताल, यह दोनों जगहें कमियां और
कमजोरियों के मंच माने जाते है।
मंदिर-मस्जिद की
राजनीति ही टेंथ क्लास फोलोअर्स की वजह से इस देश की राजनीति के लिए ऑक्सीजन है।
सरकारी स्कूल और सरकारी अस्पतालों पर सरकारें कभी रैस नहीं लगाती! नये-नये मॉडल लाकर जिम्मेदारी से हाथ घोने का चलन है यहां। स्कूल-अस्पताल-सड़क
परिवहन-रेल परिवहन से लेकर कभी सुने ना हो ऐसे सरकारी उपक्रमों को चंदा देनेवालों के
हाथ में गिफ्ट देने की रैस ज़रूर होती है यहां।
योगी-नीतीश-वसुंघरा-शिवराज आदि पर फेफड़े फाड़नेवाले कांग्रेसी कोटा पर क्यों
बिल में घुस गए? राजस्थान में कोटा
समेत अन्य जगहों पर 150 से ज्यादा बच्चे देश को देखने से पहले ही देश को छोड़ गए!
उत्तर प्रदेश में
गोरखपुर, बिहार में मुज़फ़्फ़रपुर समेत अन्य जगहों पर, बिहार में बीजेपी-जेडीयु सरकार
के राज में, राजस्थान में वसुंधरा सरकार के दौरान, मध्यप्रदेश में शिवराजसिंह के राज
के समय ऐसे ही सैकड़ों बच्चे अस्पतालों में ही बेमौत मारे गए थे। उन दिनों कांग्रेसी
नेता और उनके लठैत अपने फेफड़े फाड़ते नहीं थके। मन की बात, दिल की बात, फ़र्ज़ की बात,
कर्तव्य की बात... न जाने क्या क्या उपदेश झाड़े गए। लेकिन जब राजस्थान में गेहलोत
सरकार के राज में ऐसी ही त्रासदी ने जन्म लिया तो वो सारे आत्मा परलोक सिधा गए! इसीलिए तो हम हमेशा लिखते हैं कि यहां किसीको देश की या मुद्दों की नहीं, अपने
अपने नेताओं और अपनी अपनी पार्टी की ही फिक्र ज्यादा है। इसे ज्यादा समझने के लिए
दूसरे कोण से भी इसे देख ले। अभी गेहलोत सरकार को जो लोग उपदेश दे रहे हैं, वो सारे
योगी-नीतीश-वसुंधरा-शिवराज वाली त्रासदी के वक्त परलोक में बैठे थे!
सोनपापड़ी वालों, तुम भी तो कभी बच्चे थे... बड़े होकर इतने लंपट क्यों हो गए? अपने नेताओं को बोलो कि दौरा भी करे, मुलाकातें भी करे और इस औपचारिकता के बाद
समस्या का समाधान भी करे...
दिसम्बर 2019 से
लेकर अब तक राजस्थान के कोटा के जेके लोन अस्पताल के साथ जोधपुर और बीकानेर में भी
बच्चों की मौत का सिलसिला जारी है। बेहतर इलाज और सुविधाओं के अभाव में जोधपुर के
डॉ. संपूर्णानंद मेडिकल कॉलेज में महीनेभर में 102 नवजात समेत 146 बच्चों की मौत
हो चुकी है। वहीं कोटा में 110 से ज्यादा, बीकानेर में 162 से ज्यादा और बूंदी में 10 से ज्यादा मासूम जिंदगी की जंग हार
चुके हैं। जोधपुर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का गृह जिला है। जैसा हर प्रदेश में होता
है वैसे यहां भी हो रहा है। मेडिकल कॉलेज के अधिकारी इन मौतों को सामान्य बता रहे
हैं, वहीं मुख्यमंत्री गहलोत जोधपुर में
बच्चों की मौत के सवाल को अनसुना कर गए। मासूमों की मौतों का यह आंकड़ा महीने-दो महीने
भर का है यह तथ्य क्यों किसीको चिंतित नहीं कर रहा?
राजस्थान
के जोधपुर संभाग के सबसे बड़े अस्पतालों में से एक एसएन मेडिकल कॉलेज के बाल रोग
विभाग ने दिसम्बर-जनवरी
महीने के दौरान
हर दिन लगभग पांच बच्चों की मौत दर्ज की गई। कोटा में शिशुओं की मौत के बाद मेडिकल
कॉलेज द्वारा तैयार रिपोर्ट में यह बात सामने आई। यह सीएम अशोक गेहलोत का इलाक़ा है। रिपोर्ट
में कहा गया कि बच्चों के मरने की संख्या इसलिए ज्यादा है क्योंकि सुदूर क्षेत्रों
में रहने वाले मरीज़ समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाते हैं। बताइए, जिस कांग्रेस ने सामूहिक हत्याकांड के आरोपी को
विदेश-गमन करवाने का इंतज़ाम कार-हेलीकॉप्टर से करवा दिया था, वे अपने ही देश के
नागरिकों को अस्पताल पहुंचाने का इंतज़ाम नहीं करवा पा रहे!
रिपोर्ट के अनुसार यहां अकेले 2019 में 754
बच्चों की मौत हुई।
यानी हर महीने औसतन 63 बच्चों ने दम तोड़ा। सोनपापड़ी वालों... तुम भी तो कभी बच्चे थे। अभी बड़े हुए तो
इतने लंपट कैसे हो गए? मोदी-शाह को छोड़ो और अपने-अपने नेताओं को बोलो कि वहां का दौरा करे। वहां तुम्हारे नेताओं को कोई रोकेगा भी नहीं। अपने नेताओं को बोलो की पीड़ितों के परिवारों के
दुख में सहभागी हो। औपचारिकताएं निभाने के पश्चात समस्या के समाधान के लिए ज़रूर
बोलना। वर्ना, पटते पटते लंपटता भी दम तोड़ देगी।
जिस गुजरात मॉडल की बैसाखी के सहारे दिल्ली तक पहुंचे उसी गुजरात में भी मासूमों
की मौतें हुई, यहां भी नवजातों की मौतों का आंकड़ा भयावह ही था
बात बीजेपी की भी
होनी चाहिए। जो लोग यूपी-बिहार-एमपी-राजस्थान में अपनी सरकारों की त्रासदी के वक्त
चुप रहे थे वे राजस्थान में अशोक गेहलोत सरकार की त्रासदी के वक्त आग उगलने लगे। जब
वे राजस्थान की कांग्रेस सरकार के खिलाफ आग उगल रहे थे, ठीक उसी वक्त गुजरात से भी ऐसा ही मंजर उठकर राष्ट्रीय स्तर पह पहुंचा। फिर क्या था। मोदियाबिंदों ने बच्चों की
मौतों का मुद्दा छोड़कर राष्ट्रधर्म और देशभक्ति वाला बाम मत्थे पर घिसना शुरू कर
दिया!
मोदियाबिंद भी सोनपापड़ी वालों से कम लंपट नहीं है, गुजरात से खबरें आई तो इन्होंने
बच्चों की मौतों का मुद्दा छोड़कर राष्ट्रभक्ति-देशभक्ति वाला बाम घिसना शुरू कर दिया...
मोदियाबिंद
प्रजाति सोनपापड़ी वालों से कम लंपट नहीं है। दरअसल, दोनों प्रजातियों में रैस लगी है।
यह साबित करने की कौन ज्यादा लंपट है! राजस्थान की गेहलोत सरकार वाली त्रासदी में यह लोग आग उगल रहे थे, तभी गुजरात
से ऐसी ही खबरें आई। फिर क्या था। यह लोग बच्चों की मौतों का मुद्दा छोड़कर
कानून-राष्ट्रवाद-देशभक्ति का बाम सर पर घिसने लगे!
यहां भी दिसंबर-2019 से राजकोट में 111 से ज्यादा बच्चों और अहमदाबाद
में 85 से ज्यादा नवजात
बच्चों की मौतें दर्ज की गई। ये आंकड़े इन जिलों के सरकारी अस्पताल
के थे।
राजकोट के अस्पताल पंडित दीन दयाल उपाध्याय के चिकित्सा अधिक्षक मनीष मेहता ने
पत्रकारों को मासूमों की मौत का
आंकड़ा बताया था। आंकड़े सभी जगहों से जुटाए गए तो पता चला कि राजकोट
के अस्पताल में बीते तीन महीनों में 269 नवजात मर गए थे। वहीं अहमदाबाद में
बीते तीन महीनों में 253 बच्चों ने दम तोड़ा था। इतना ही नहीं, यहां तो भूज स्थित अडानी
फाउंडेशन के अस्पताल में पिछले पांच महीने में 100 से ज्यादा बच्चे मारे गए थे।
सत्ता जिम्मेदारी को मत्थे नहीं लेती। गुजरात में भी यही हुआ। गुजरात
सीएम विजय रूपाणी से जब इस पर सवाल किया गया तो वे बिना जवाब दिए ही चले गए। नोट करे कि जैसे राजस्थान में सीएम गेहलोत के इलाक़े में भी
मासूमों की मौते हुई थी, वहीं गुजरात के सीएम रुपाणी का संबंध राजकोट जिले से है,
जहां से बच्चों की मौतों की खबरें आ रही थी।
मासूमों की मौतों के मंजर... देश का कोई भी राज्य हो, सरकारी अस्पताल बनते रहे
हैं बच्चों की कब्रगाह
कहते हैं कि भारत
आधुनिक हो चुका है और आधुनिक भारत इतना ज्यादा आधुनिक हो गया है कि अस्पतालों में
ऑक्सीजन खत्म होने से मरीज़ दम तोड़ देते है! ताज़ा इतिहास देखते है...
जून 2017 के
उतरार्ध में मध्यप्रदेश से यह खबर आई थी। प्रदेश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल में
ऑक्सीजन खत्म हो गया और 17 मरीजों ने दम तोड़ दिया, जिनमें कई नवजात शिशु भी थे।
इंदोर के महाराजा यशवंतराव अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी की वजह से 48 घंटे में यह
मौतें हुई थी। इसी साल उत्तर प्रदेश से गोरखपुर के सरकारी अस्पताल से जो खबरें सामने
आई इसने आधुनिक भारत के गौरव गेंग को आइना दिखा दिया। यहां भी ऑक्सीजन की कमी के
चलते 100 से ज्यादा नवजात बेमौत मारे गए। यह सीएम योगी का इलाक़ा था। यहां बीआरडी
मेडिकल कॉलेज के अस्पताल में चंद दिनों के भीतर मासूमों को मौत नसीब हुई थी। यह वही
हादसा था जिसमें योगी के मंत्री तथा बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने
निहायती गैरज़िम्मेदाराना बयान दिए थे। इस अस्पताल से संबंधित एक रपट भी छपी थी,
जिसमें दावा किया गया था कि बीते छह सालों में यहां 3,000 के आसपास बच्चों की मौतें हो
चुकी है।
एमपी, यूपी के बाद
छत्तीसगढ से भी ऐसा ही मंजर सामने आया। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के सबसे बड़े सरकारी
अस्पताल बीआर अंबेडकर में भी ऑक्सीजन की कमी की वजह से कई बच्चों ने दम तोड़ दिया। विश्वगुरू या डिजिटल बनने की चाह में देश बेसिक्स को ही रौंदे जा रहा था। झारखंड के जमशेदपुर
से कुछ कुछ ऐसी ही खबर आई थी। यहां एक माह में 52 नवजात शिशुओं की मौतें हुई थी। यहां
चार माह में 167 नवजात मारे गए थे। जमशेदपुर के महात्मा गांधी मेडिकल कॉलेज अस्पताल
से यह मामला जुड़ा था। उधर रांची के अस्पतालों में 117 दिनों में 164 बच्चे अपनी जान
गंवा बैठे थे। बताइए, डिजिटल बनने की चाह इतनी थी कि 21वीं सदी में भी ये देश अपने
बच्चों को चंद दिनों तक की दुनिया नहीं दे पा रहा था।
उधर गोरखपुर का
बीआरडी अस्पताल सुधरने को तैयार नहीं था। यहां दोबारा ऐसी ही त्रासदी हुई। यहां फिर
एक बार नवजातों की मौतें हुई और अब एक माह में इसी अस्पताल में बच्चों की मौत का आंकड़ा
350 के पार जा चुका था। राजस्थान के बांसवाड़ा में महात्मा गांधी चिकित्सालय में 51 दिनों के भीतर 81 नवजात शिशुओं की मौतें इन्हीं दिनों हुई। फिर फर्रुखाबाद के राम
मनोहर लोहिया संयुक्त चिकित्सालय में 49 बच्चों की मौत हो गई। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर
से भी 100 से ज्यादा नवजातों की मौतों की त्रासदी सामने आई।
गुजरात में सीएम
रुपाणी के इलाक़े राजकोट में 2019 में 100 से ज्यादा बच्चे सरकारी अस्पताल में मारे
गए। इतना ही नहीं, यहां तो भूज स्थित अडानी फाउंडेशन के अस्पताल में पिछले पांच महीने
में 100 से ज्यादा बच्चे मारे गए थे। गुजरात के अलावा महाराष्ट्र जैसे राज्य से भी ऐसी ही खबरें आई थी। कुल मिलाकर, भारत का कोई भी राज्य हो, सरकारें किसीकी भी हो, देश
की व्यवस्था ने मासूमों को मौत की नींद सुला ही दिया था।
नवजातों की मौतों के बाद व्यवस्था ठीक करने के बजाय राजनीति गैरज़िम्मेदाराना
बयानों के जरिए ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ देती है, सबके लठैत इसे सहजता से ले लेते
हैं... ऐसे ही विश्वगुरू बनेगा भारत!!!
अगस्त में तो बच्चे मरते रहते हैं...। योगी के मंत्री का यह बयान लंपटता से कई आगे का चरण है। जवान तो
मरते रहते हैं – यह कहनेवाले बच्चे तो मरते रहते है तक कहकर अपनी ज़िम्मेदारी से
पल्ला झाड़ देते हैं। कोटा कांड के बाद सीएम गेहलोत कह गए कि होता रहता है। यूपी में
योगी के मंत्री कह गए थे कि अगस्त में तो बच्चे मरते रहते हैं। योगी के मंत्री को
क्या कहे, क्योंकि इन्हीं दिनों गोरखपुर मामले के बाद बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष
अमित शाह कह गए थे कि इतना बड़ा देश है, ऐसे हादसे तो होते रहते हैं।
सभी के बयान
लंपटता से कई चरण आगे है। सभी के बयान देखे तो पता चलता है कि सबको पता है कि
बच्चे मरते रहते हैं, लेकिन इन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता!!! मंदिर-मस्जिद से ही देश विश्वगुरू बनेगा, स्वास्थ्य-शिक्षा से तो बर्बाद हो
जाता होगा देश!!!
ट्विटर पर लगातार
सक्रिय रहनेवाले पीएम मोदी शिखर धवन के टूटे अंगुठे को लेकर ट्वीट कर सकते हैं,
लेकिन इन्हीं दिनों मुज़फ़्फ़रपुर के बच्चों की मौतों पर वे नहीं बोलते! क्योंकि बच्चे तो मरते रहते हैं, शिखर धवन का अंगूठा रोज-रोज थोड़ी टूटता है! मोदियाबिंद टाइप लोग कह देंगे कि मुज़फ़्फ़रपुर में मारे गए बच्चों के गरीब
माता-पिता ट्विटर थोड़ी न देखते है कि ट्वीट कर दे साहब। बात तो सही है, लेकिन फिर
तो जहां इंटरनेट-अख़बार-चैनल-रेडियो-संचार माध्यम बंद होते है उसी लोगों के लिए साहब
मन की बात कर रहे होते है। पता नहीं बिना इंटरनेट-अख़बार-चैनल के उनकी बात वहां के
लोग कैसे सुनते-देखते होंगे।
इन्हीं दिनों बिहार
में तो नेताजी गजब करते दिखे थे। एएनआई ने एक वीडियो पोस्ट किया था, जिसमें दिख रहा था
कि बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे इस गंभीर समस्या के बीच क्रिकेट वर्ल्डकप
का स्कोर पूछ रहे थे। राज्य स्वास्थ्य मंत्री अश्वनी चौबे बच्चों की मौत मामले में
हुई एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान सोते हुए दिख रहे थे। पकड़े गए तो इन्होंने गजब का
बहाना बनाया और कहा कि वह सो नहीं रहे थे बल्कि गहरी सोच में थे!!! सरकारें बदली, लेकिन ना नेताजी बदले, ना अस्पतालें सुधरी और ना ही नागरिकों की
बेफिक्री।
देश मंदिर-मस्जिद को लेकर लड़ रहा था, मासूम जिंदगी से लड़ते लड़ते हार गए...
त्रासदी की जगहें अनेक, वजहें और बहाने एक, हमारे यहां किसी भी सरकार की सफलता यही है
कि दूसरी सरकारें भी फेल रही हैं
हमें यह ज़रूर देखना चाहिए कि यह महज कुछ महीनों या कुछ साल पहले से शुरू हुई
समस्या नहीं है। यह सालों से चली आ रही त्रासदी है। कांग्रेस हो या बीजेपी या कोई
दूसरा-तीसरा, इन सभी ने इस समस्या का समाधान क्या किया है पता है? यही कि आज के दिन
भारत में सरकारी स्कूल और सरकारी अस्पताल, दोनों कमियों और कमजोरियां का अड्डा माने
जाते हैं। देश दशकों से मंदिर-मस्जिद पर लड़ता रहा, इधर मासूम जिंदगी से लड़ते-लड़ते
हार गए! नोट यह भी करे कि
त्रासदी की जगहें अनेक किंतु वजहें और बहाने एक।
तमाम जगहों की इस त्रासदी के बाद जितनी वजहें या बहाने बताए गए, सारे एक ही थे।
चलिए मान लेते है कि वजहें सचमुच सही थी, जो प्रशासन ने कही थी। लेकिन फिर क्यों
रुकता नहीं यह? राजनीति से सीधा सवाल तो बनता है कि आपके पास इलाक़े चाहे जो भी हो, वजहें एक
है तो फिर समस्या का समाधान भी सीधा होगा। लेकिन राजनीति कहती है कि हमारा पालतु
कुत्ता बीमार होगा तो घर में ही अस्पताल बनवा लेंगे इसमें कौनो दिक्कत नाही!
बीजेपी और उनके लठैत, उधर कांग्रेस और उनके लठैत, इन सबका सारा ध्यान एक-दूसरे
पर निशाना साधने में ही होता है। एकदूजे पर निशाना साधने की इनकी साधना इतनी गहरी
होती है कि देश का क्या हो रहा है इन्हें फर्क नहीं पड़ता! यह लोग एकदूसरे पर आरोप मड़ने के लिए अवतार धारण किए हुए
है, ज़िम्मेदारी निभाने के लिए नहीं! कोटा वाला ताज़ा मामला ही देख लीजिए। महीने भर से यह मुद्दा
पब्लिक में था, लेकिन महीने के बाद जब एक्सप्रेस के पत्रकार दीप ने देखा कि इंटेसिव
यूनिट में खुल्ला डस्टबिन है, जिसमें कचरा बाहर तक छलक रहा है। राजनीति इतनी लंपट है
कि यही कहेगी कि कचरा कचरापेटी में ड़ाले वाला अभियान तो चल ही रहा है न, भले कचरा
डस्टबीन से बाहर आने के लिए तरस रहा हो।
गंदगी और खराब उपकरणों की स्थिति उन सभी अस्पतालों में जस की तस होगी, जहां से देश
को ये त्रासदियां मिली थी। शायद मनमोहन या मोदी का कोई अध्यादेश होगा कि सरकारी
अस्पतालों में गंदगी रहनी ही चाहिए, ताकि पता चल जाए कि यह अस्पताल सरकारी है!!! जाहिर है कि सरकारी अस्पतालों के लिए बहुत से पैसे, अन्य
उपकरण, दवाइयां आती हैं। पता नहीं इनसे कौन मोटा हो रहा होगा? लठैत एक-दूसरे के
प्रदेशों की तस्वीरें ठेलते रहते हैं। तस्वीरें दुख के लिए नहीं, खिंचाई के लिए ठेलते
हैं। इन लठैतों के मां-बाप तो इनके नेता है, इन्हे भला इन बच्चों के गरीब मां-बाप से
क्या वास्ता।
कांग्रेस हो या बीजेपी, स्वास्थ्य के मामले में इन दोनों का ट्रैक रिकॉर्ड
एकसरीखा ही फिसद्दी है। कोटा का ताज़ा उदाहरण देख लीजिए। एक्सप्रेस के पत्रकार दिप
ने लिखा है कि वर्ष 2014 में 1198 मौतें, 2015 में 1260 मौतें, 2016 में 1193 मौतें, 2017 में 1027 मौतें, 2018 में 1005 मौतें और 2019 में अभी तक 963 मौतें यहां दर्ज हो चुकी है।
बीजेपी और कांग्रेस, दोनों का ट्रैक रिकॉर्ड दोयम दर्जे का ही है। यह एक ही उदाहरण
है, समूचे देश में आपको ऐसे सैकड़ों मामलें मिल जाएँगे।
जब स्वास्थ्य व्यवस्था की बात आती है तो आई-टी सेल वाला गिरोह रजाई तनकर सो
जाता है! नोट करे कि
बीजेपी और कांग्रेस, दोनों के पास आई-टी सेल है। आई-टी सेल का जन्म लंपटता के लिए ही
हुआ होगा! वैसे आई-टी सेल
वाले ही फेक न्यूज़ फैलाते है और डिटेन हो जाता है बेचारा इंटरनेट!!! खैर, उस सड़क को दूर रखते है यहां पर। स्वास्थ्य व्यवस्था को
लेकर जब भी कोई त्रासदी होती है तो इन आई-टी सेलवालों का एक ही काम होता है। काम
यही कि पूरे मसले में कौन हिंदू है और कौन मुसलमान यह ढूंढो और अगर ना मिले तो बना
दो!!!
हर मामलों में किसी ने किसी नौकरशाही पर दोष मड़ दिया जाता है। फिर क्या होता है यह
पूछने का चलन हमारे यहां है ही नहीं। पुल का गिरना आसान है, मुश्किल है तो यह जानना
कि पुल गिरा ही क्यों था!!!
भारत में नवजात शिशु की मृत्यु दर बहुत अधिक है। 2008 से 2015 के बीच 1 करोड़
11 लाख बच्चे 5 साल से पहले ही दम तोड़ गए। इनमें से 62 लाख बच्चे जन्म के 28 दिनों
के भीतर ही दुनिया छोड़कर चले गए। हर साल के आंकड़े ऐसे ही है। हमारे यहां
मोदियाबिंद और सोनपापड़ी का आईटी सेल 99 बच्चों की मौत पर ट्रोल कर रहा होता है। लेकिन
सोचिए, 62,00,000 बच्चे पैदा होने के 28 दिनों के भीतर मर जाते हैं!!! यह कितना भयावह है। कॉमन सेंस लगाइए और सोचिए, 62 लाख मौतें
कहां-कहां होती होंगी??? क्या कोई राज्य ऐसा होगा जो बचा होगा? कांग्रेस का या भाजपा
का? ज़ाहिर है दोनों की सरकारें इस मामले में फेल हैं। हमारे
यहां तमाम सरकारों की एक ही सफलता है कि दूसरी सरकारें भी फेल रही होती हैं।
राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का बजट करीब 24,000 करोड़ का है। पीआरएस इंडिया के 2018-19 के स्वास्थ्य बजट का विश्लेषण बताता है कि देश के सरकारी अस्पतालों
में 81 प्रतिशत बाल रोग विशेषज्ञों की कमी हैं। नर्सों की सेवा का हाल बुरा है।
एंबुलेंस ठेके पर चलती है। किसी दाना मांझी को नहीं मिलती तो वो अपनी पत्नी का शव
कंधे पर ढोकर हम सबके ड्राइंग रुम तक पहुंच भी जाता है!!! क्योंकि मोदियाबिंद और सोनपापड़ी वाले सिर्फ बीजेपी और
कांग्रेस को देख रहे है, देश को नहीं।
ऐसा नहीं है कि नवजात शिशु मृत्यु दर में कुछ भी सुधार नहीं हुआ है। हुआ है,
लेकिन फिर भी हमारे यहां जो नवजात शिशु मृत्यु दर है वो दुनियाभर में सबसे अधिक है। पैदा
होने वाले प्रति 1000 बच्चों में 28 दिनों के भीतर मरने वाले बच्चों की संख्या के मामले
में भारत से कहीं ज्यादा बेहतर चीन,
भूटान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका हैं। हां, पाकिस्तान हमसे ज्यादा पिछड़ा हुआ है। इसलिए जब भी सवाल उठे तो आई-टी सेल वालों को सीखा दिया है कि कह देना कि
हम पाकिस्तान से बेहतर है। देखिए न, श्रीलंका जैसा देश मलेरिया मुक्त हो चुका है,
हमारे यहां तो मोदियाबिंद और सोनपापड़ी वाले मच्छर पिछा ही छोड़ नहीं रहे, ऐसे में असली
मच्छरों से लोग कैसे मुक्त हो पाते।
गुजरात हो, मध्यप्रदेश हो, उत्तर प्रदेश हो, राजस्थान हो, बिहार हो या भारत का
कोई भी प्रदेश हो... सरकारी अस्पतालों की खिड़कियां अब भी टूटी हुई है, गंदगी का
एकछत्र राज है, उपकरण काम नहीं कर रहे, दवाइयों में स्कैम है, ऑक्सीजन खत्म हो
जाता है, खुले में सूअर और कुत्ते घूम रहे होते हैं, वेंटिलेटर काम नहीं कर रहे होते,
आईसीयू खुद ही ऑपरेशन टेबल पर होता है। सरकारें बदलती है लेकिन यह दृश्य कभी नहीं बदलता। एक दिन तो ऐसा आएगा कि राजनीति कह देगी कि सरकारी अस्पताल ढंग से काम नहीं कर रहे इसलिए फलांने फलांने मॉडल के अनुसार इसे निजी हाथों में सोंप दिया जाएगा।
तमाम जगहों पर नवजातों की मौतें हुई और इन तमाम जगहों पर यही हाल है। बहाने या
वजहें भी एक सरीखी। यह काम नहीं कर रहा था, वो काम नहीं कर रहा था, यह बुखार था, वो
वाला बुखार था, फलाना था, ढिमका था। बेशक, कारण हो सकते हैं, कमियां हो सकती हैं।
लेकिन यह सब एक-दो त्रासदियों के बाद कायदे से रुक जाना चाहिए। लेकिन मासूमों की
मौतें रुकती नहीं, चाहे प्रदेश और सरकारें कोई भी हो। और तमाम में वजहें और बहाने तकरीबन एक ही मौड़ पर आकर रुक जाते हैं। कुछ ना मिले तो राजनीति बोल देगी कि बच्चे तो मरते रहते हैं।
(इनसाइड इंडिया,
एम वाला)