नाम में क्या रखा है। बहुत बार यह अनमोल विचार इस्तेमाल होता है। कमाल की बात यह
कि जितनी बार कहा-लिखा जाता है यह विचार, उतनी बार यह किसने कहा था उस नाम का ज़िक्र अवश्य होता है!!! यूँ तो नाम में क्या
रखा है वाला यह विधान गहन चिंतन की दुनिया है। वैसे, नाम में क्या रखा है, पहचान पत्र में छोटी
सी स्पेलिंग एरर वाले को पूछ लेना। वैसे भी संसार के बारे में चिंतन अलग होता है, संसार के भीतर चिंतन
अलग होता है, संसार को चलाने वाली
सत्ता के लिए चिंतन अलग विषय होता है!
देश के सबसे बड़े खेल रत्न सम्मान से पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का नाम हटाकर
वहाँ हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंदजी का नाम रखना प्रशंसा और स्वागत के योग्य फ़ैसला
है। मक़सद चाहे जो भी हो, फ़ैसला तो सही ही है।
मेजर ध्यानचंदजी को भारत रत्न न देकर सचिन तेंदुलकर को वह सम्मान दे देना। इस ग़लती
को ठीक करने की तरफ़ यह पहला कदम है। ओलंपिक खेलों में भारत के महिला और पुरुष खिलाड़ियों
के यादगार प्रदर्शन के समय यह फ़ैसला दिल को खुश करता है।
किसी के समर्थक और किसी के विरोधी इस लेख का शीर्षक पढ़कर क्या कहेंगे यह सोचना
उतना भी मुश्किल काम नहीं है। वह क्या कहेंगे वाली एबीसीडी में घूमने की जगह शीर्षक
सीधे सीधे जेड की ही बात करता है। देश के सबसे बड़े खेल सम्मान का नाम किसी नेता ने
गटक लिया था, उसे बदलना जितना श्रेष्ठ
कर्म है, उतना ही बुरा कर्म
था दुनिया के सबसे बड़े क्रिकेट स्टेडियम का नाम गटक लेना।
6 अगस्त 2021 को प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर एलान किया कि राजीव गाँधी खेल रत्न पुरस्कार (Rajiv Gandhi Khel Ratna Award) का नाम अब मेजर ध्यानचंद खेल रत्न पुरस्कार (Major Dhyan Chand Khel Ratna Award) किया जाता है। बिना देरी किए यह कदम वाक़ई दिल को छू गया। अच्छा लगा यह एलान। बचपन से जनरल नॉलेज की पुस्तिका ख़रीद कर पढ़ा करते थे। उसमें
ज्ञान सूची में एक सूची हुआ करती थी। कब किसे राजीव गाँधी खेल रत्न पुरस्कार मिला, उसका ब्यौरा हुआ करता था। हर बार यही विचार
उत्पन्न होता था कि देश के सबसे बड़े खेल रत्न पुरस्कार का नाम किसी प्रधानमंत्री, यूँ कहे कि किसी राजनेता के नाम पर क्यों
है? अच्छा नहीं लगता था। अब अच्छा लग रहा है।
अरे भाई, सरकारी योजनाएँ, परियोजनाएँ, सरकारी कार्यक्रम, सड़कें, भवन, निर्माण, न जाने किस किस में राजनीतिक दलों ने अपने
अपने नेताओं के नाम चिटका दिए हैं! काम किया हो, या ना किया हो, नाम ज़िंदा रहना चाहिए!
कथित रूप से सारे राजनीतिक दल देश की सेवा के लिए मैदान में हैं। अरे भाई, ऐसा वे कहते हैं, हम नहीं। ख़ैर, सेवा करते हैं तो योजनाओं, परियोजनाओं, भवनों के नाम गटक ले जाते हैं वे लोग! हम
चला लेते हैं! यह सोचकर कि काम नहीं किया, नाम तो हो रहा है बेचारे
का!!! लेकिन देश के सबसे बड़े खेल रत्न पुरस्कार का नामकरण किसी राजनेता के नाम पर
हुआ करता था, यह अंदर ही अंदर तकलीफ़ दिया करता था।
सही है कि राजीव गाँधीजी
देश के प्रधानमंत्री रहे। ठीक है कि उन्होंने तकनीकी दिशा में अच्छे प्रयास किए। दूसरे
भी ढेरों अच्छे काम किए होंगे। किए होंगे क्या, किए हैं। लेकिन भ्रष्टाचार, राजनीति में अनीति
समेत कई नकारात्मक चीज़ें भी राजीव गाँधीजी के साथ चिपकी हुई हैं। ऐसे में उनके नाम
पर देश का सबसे बड़ा खेल पुरस्कार!!! यह चुभा करता था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा
इस पुरस्कार को मेजर ध्यानचंदजी का नाम देना, समर्थन और प्रशंसा
के लायक है।
मेजर ध्यानचंद
सिंह। वह नाम, जिन्होंने भारत को
अंतरराष्ट्रीय खेलों में एक ऐसा स्थान दिया, जिसके लिए भारत सदैव
उनका ऋणी रहेगा। हॉकी के जादूगर। उनका खेल, उनकी कहानियाँ, क्रिकेट के सर्वकालीन महान खिलाड़ियों को
भी बोना साबित करती है। जिस दौर में, जिन स्थितियों में, जिन सहूलियतों के साथ या बिना, उन्होंने हॉकी में भारत का परचम दुनिया भर
में लहराया, वह इतिहास का ऐसा पन्ना
है, जिसे अग्रीम पंक्ति में स्थान मिलना चाहिए
था। कांग्रेसी व ग़ैरकांग्रेसी सरकारों से यह शिकायत सदैव रहेगी कि उन्होंने वक़्त रहते
मेजर ध्यानचंदजी को वह रूतबा क्यों नहीं दिया, जिसके वे हमेशा से
अधिकारी रहे।
जब मनमोहन सिंह शासित
यूपीए सरकार ने सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न दे दिया, तब सचिन तेंदुलकर के खेल का बड़ा प्रशंसक होने के बाद भी अच्छा नहीं लगा था वह फ़ैसला। सचिन तेंदुलकर का एक भी मेच टेलीविज़न पर मिस नहीं किया। किंतु ध्यानचंद की जगह
उन्हें भारत रत्न का सम्मान मिलना अच्छा नहीं लगा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने
देश के सबसे बड़े खेल रत्न सम्मान का नाम मेजर ध्यानचंदजी के नाम से रखकर वह कमी पूरी
कर दी है।
राजनीतिक समर्थकों
और विरोधियों को जो भी लगता हो, हमें तो बिलकुल पता
है कि सरकारों द्वारा नाम बदलना बहुधा रूप से तो किसी अच्छी और साफ़-सुथरी दुनिया की तरफ़ चलने के लिए उठाया गया कदम नहीं होता। नामकरण, भारतीय राजनीति में यह ऐसी राजनीति है, जो अलग अलग मसलों में
अलग अलग तरह से इस्तेमाल होती रहती है। अपने अपने दिग्गज नेताओं का नाम ज़िंदा रखने
के लिए हर चीज़ को गटक लिया जाता है। ताकि उनका नाम ज़िंदा रहे। क्योंकि राजनीति को
सदैव पता रहता है कि दुनिया में काम नहीं, नाम ही अमर रहता है!
काम हो ना हो, नाम होना चाहिए! कांग्रेस
की सरकारों ने भारत में हज़ारों जगहों पर अपने अपने नेताओं के नाम चिटका दिए हैं! यह
मनोवैज्ञानिक नीति है, जिससे लंबे अरसे तक
एक विशेष नैरेटिव बना रहता है।
यूँ तो हम कुछ चीज़ों का नामकरण राजनेताओं के नाम पर रखने के विरोधी नहीं हैं! जी हाँ! कुछ योजनाएँ, परियोजनाएँ, सरकारी कार्यक्रम, वगैरह में वे लोग अपना नाम रखा करते हैं।
रखे! उतना भी बुरा नहीं है! किंतु ऐसी चीज़ों में, जिसका नाता सीधा सीधा देश से, देश की पहचान से, व्यापक रूप से होता है उसमें नेताओं के नाम चिटका देना किसी भी नज़रिए
से ठीक नहीं लगता। ऐसे सैकड़ों विषय हैं, जिसमें नेताओं ने नाम
गटक लिए हैं।
फ़िलहाल तो जिस चीज़
की बात कर रहे हैं उस पर लिखें तो, देश के सबसे बड़े खेल
रत्न पुरस्कार को किसी खिलाड़ी के नाम पर ही होना चाहिए था। भारत में ऐसे खिलाड़ियों
की कमी नहीं है, जिन्होंने अपने अपने
क्षेत्र में भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई हो। खेल पुरस्कार में राजनेता
का नाम चिटका देना, उस नेता का नाम, जिनके साथ ढेरों विवाद जुड़े हो, उनका नाम चिटका देना किसी नज़रिए से अच्छा
नहीं लगता था। महात्मा गाँधी, सरदार पटेल, शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, लाल बहादुर शास्त्री सरीखे ऐतिहासिक नाम होते
तो ठीक होता, लेकिन ऐसे ऐसे नाम
ऐसे ऐसे विषयों के साथ, जिसका राजनीति के सिवा
कुछ दूसरा तुक नहीं बनता!
नायक समाज और राष्ट्र
को हर नज़रिए से समान रूप से प्रेरित करता है। नायक भेदभाव नहीं करता। नायक हर द्दष्टिकोण
से एकसरीखा काम करता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजीव गाँधी का नाम खेल रत्न
पुरस्कार से हटा तो दिया, किंतु दुनिया के सबसे
बड़े क्रिकेट स्टेडियम का नाम जीते जी गटक लिया!!! यह दोनों बातें तुलनात्मक रूप से
एक पलड़े में फिट नहीं बैठती।
राजीव गाँधीजी का नाम
हटाना कांग्रेसी नेताओं को तथा उनके समर्थकों को निश्चित रूप से आहत कर गया होगा। लेकिन
वहाँ उनका नाम होना ही नहीं चाहिए था। सो, हम जैसों को खुश कर
गया। किंतु सरदार पटेल जैसे ऐतिहासिक नाम को गटक कर वहाँ अपना नाम चिटका देना, सरदार पटेल क्रिकेट स्टेडियम को नरेंद्र मोदी
स्टेडियम बना देना, यह भी आहत करने वाला
कृत्य ही था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देश के
सबसे बड़े खेल रत्न सम्मान से किसी राजनेता का नाम हटाकर वहाँ देश के सर्वकालीन दिग्गज
खिलाड़ी का नाम जोड़ना जितना अच्छा है, उतना ही बुरा है दुनिया
के सबसे बड़े क्रिकेट स्टेडियम का नाम जीते जी गटक लेना। राजीव गाँधी का नाम हटाना
जितना अच्छा है, उतना ही बुरा था सरदार पटेल जैसे ऐतिहासिक नाम को हटाकर वहाँ अपना नाम चिटका देना।
फ़रवरी 2020 का वह महीना था, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अहमदाबाद
के सरदार पटेल क्रिकेट स्टेडियम, जिसे पहले मोटेरा क्रिकेट
स्टेडियम के नाम से जाना जाता था, का नाम गटक लिया था!!!
समर्थक दो दलील दागेंगे। पहली, मोदीजी ने ख़ुद नहीं
कहा था कि मेरा नाम रखो, उनके सम्मान में लोगों
ने रख दिया, इस लिए नाम गटक लिया
वाला लफ्ज़ मत लिखो। दूसरी, स्टेडियम का नाम सरदार
पटेल स्टेडियम नहीं था। दोनों दलीले एक मिनट के लिए भी ज़िंदा नहीं रह सकती। ख़ैर, उस चीज़ पर उस दौर में लिख चुके हैं। सो, दोबारा लिखने का कोई अर्थ नहीं है। वैसे भी, दलीलों का स्तर दलीलों का नहीं होता, दलील करने वालों का होता है।
दिल्ली के फिरोजशाह
कोटला स्टेडियम का नाम अरुण जेटली के नाम पर रखने का तुक तो इतना ही है न कि अरुण जेटली
डीडीसीए (Delhi & District Cricket
Association) के अध्यक्ष थे। तब तो कांग्रेस वालों का नामकरण वाला इतिहास
भी जायज़ माना जाए। अरुण जेटली लुटिंयस राजनीति के दिग्गज खिलाड़ियों में शुमार थे।
लुटिंयस राजनीति वाली दुनिया कैसी होती है, उसको जानने-समझने वाले
समझ जाएँगे। कहीं पढ़ा था कि जेटलीजी की तो मूर्ति भी लगाई गई है या फिर लगाई जाएगी।
मायावतीजी याद आ गई!
उधर, सरदार वल्लभ भाई पटेल, इस नाम की पहचान के बारे में कुछ लिखना ज़रूरी
है क्या? भले ही कांग्रेस के नेता थे सरदार पटेल, किंतु आज भी उनका आभामंडल
ऐसा है कि वह कांग्रेस के नहीं बल्कि समस्त भारत वर्ष के हैं। वह नाम, जिन्होंने आज़ाद भारत का नकशा बनाया। इतने
बड़े नाम को गटक कर वहाँ अपना नाम चिटकाने का नरेंद्र मोदीजी का वह कारनामा सरदार पटेलजी
के नहीं, बल्कि मोदीजी के ही
आभामंडल को कलंकित कर गया था।
कांग्रेस ने सरदार
पटेल के साथ न्याय नहीं किया। बीजेपी यह इल्जाम कांग्रेस पर अरसे से लगाती रही है।
वैसे एक तरीक़े से देखा जाए तो यह इल्ज़ाम सही भी है। फिर बीजेपी ने गुजरात में सरदार
पटेल का बहुत बड़ा स्टैच्यू बनाकर उनके साथ न्याय किया। फिर उनके नाम से दुनिया का
सबसे बड़ा स्टेडियम, जो अहमदाबाद में था, वहाँ परिसर में तो उनका ही नाम रखा, किंतु स्टेडियम के नाम में सरदार पटेल का
नाम हटाकर वहाँ अपना नाम लगा दिया! स्टैच्यू बनाकर सरदार पटेलजी से न्याय किया और फिर
बाद में स्टेडियम का नाम गटक कर स्वयं के साथ भी थोड़ा न्याय कर लिया! वह भी स्वयं
ही!
यहाँ ऐतिहासिक नायकों
को मरने के बाद भी न्याय नहीं मिलता, बीजेपी के नायक ने
जीते जी न्याय ले लिया तो बुरा ही क्या है? वैसे भी इस जालिम दुनिया
में कोई देता कहाँ है? हक़ छिनना पड़ता है, कोई देता नहीं!
जब पहले मोदीजी कहते
कि एक ही परिवार का नाम हर जगह बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जाता है और दूसरे नायकों का योगदान
भूला दिया जाता है, तब दिल को यह सच्ची
बात अच्छी लगती थी। पता नहीं था कि एक ही परिवार का क्यों, हमारा क्यों नहीं, यह भावना भी शामिल थी!
ऐतिहासिक नायकों के
नाम हर जगह हो, वह लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ में ज़िंदा रहे यह ज़रूरी है। इसके लिए उनके नाम सार्वजनिक जगहों पर हो तो वह
बुरा भी नहीं है। किंतु ऐतिहासिक नायकों की बात हो रही है। राजीव गाँधी या नरेंद्र
मोदी समेत दूसरे तमाम राजनीतिक नेताओं के नाम छोटी मोटी योजनाएँ हो वहाँ तक ठीक है, लेकिन देश के प्रतीकों के साथ इन्हें जोड़ा
जाना, प्रतीकात्मक राजनीति
की फूहड़ता भर है। इतिहास की आराधना ठीक है, किंतु व्यक्ति पूजा
वैसे भी अच्छी चीज़ नहीं होती। जहाँ लेखकों, सामाजिक नायकों, ग़ैरराजनीतिक शख़्सियतों के नाम होने चाहिए, वहाँ नेताओं के नाम! उन नेताओं के नाम, जिनके नाम ढेरों गंभीर विवाद हो!
उम्मीद करते हैं कि मोदीजी एक नायक जिस प्रकार
से सचमुच जैसा करता है वैसा करेंगे और ऐसी ऐसी जगहों से दूसरों के तथा अपनों के नाम
हटा देंगे, जिसे वहाँ नहीं होना चाहिए। आश रखते हैं कि मोदीजी वापस उस स्टेडियम का नाम नरेंद्र
मोदी से बदलकर सरदार पटेल क्रिकेट स्टेडियम कर देंगे। उम्मीद करते हैं कि नायक जिस
प्रकार से समाज व राष्ट्र को एकसमान रूप से प्रेरित करता है, वैसा नज़ारा भविष्य
में देखने को मिले। सनक और सोच में फ़र्क़ होता है। आश रखते हैं कि ऐसी छवि को बदलने
का प्रयास वह ज़रूर करेंगे।
नेताओं के नाम से इतने
सारी चीज़ें हो चुकी हैं अब तो, कि अब उसमें उन नेताओं
की देश के प्रति कथित सेवाओं के लिए देश के नागरिकों की श्रद्धा कम, बल्कि राजनीतिक दलों की ज़िद और राजनीति ज़्यादा लगती है। सरदार पटेल जैसे विराट नाम की जगह ख़ुद का नाम दुनिया के सबसे बड़े क्रिकेट
स्टेडियम से जोड़ने के नरेंद्र मोदी के कृत्य का काफ़ी विरोध हुआ था। दिल्ली के क्रिकेट
स्टेडियम का नाम बदलकर वहाँ अरुण जेटली जैसे लुटिंयस राजनेता का नाम चिटकाने का भी काफ़ी विरोध हुआ था। दिग्गज क्रिकेटर बिशन सिंह बेदी ने काफ़ी तीखा विरोध किया था इस
कृत्य का।
नामकरण भारत की राजनीति
है इसमें कोई शक नहीं। सनक और सोच में फ़र्क़ होता है। अगर नामकरण विरासत के सम्मान हेतु
वाली प्रक्रिया होती तो अपनों के नाम हर जगह ये राजनीतिक दल नहीं चिटकाते। कांग्रेस, बीजेपी जैसे राष्ट्रीय दल ही नहीं, प्रादेशिक राजनीति वाले दल भी अपने अपने नेताओं
का किसी न किसी जगह नामकरण करते हैं। मूर्तियाँ, नामपट्ट लगाते रहते हैं। जीते जी अपनी मूर्ति बनाने का चलन भी चल पड़ा है! जीते
जी स्टेडियम का नाम गटक ले जाने का चलन नायकजी ने दे दिया है!
कांग्रेस ने दशकों
तक राज्यों और केंद्र में राज किया। उन्होंने इस फूहड़ता को आसमान की बुलंदियों तक
पहुंचा दिया था! हर चीज़ पर नेहरू-गाँधी परिवार लग गया! ग़ैरकांग्रेसी दल भी इसी कांग्रेसी
विरासत की तरफ़ कदम बढ़ाते रहे। आज बीजेपी इसी कांग्रेसी विरासत को अपनाए हुए हैं, लेकिन बड़ी चालाकी से। बीजेपी ने शहरों, सड़कों, चौराहों का नाम बदला। पहले तो उन्होंने पौराणिक या ऐतिहासिक नाम देने वाली भावनात्मक
सड़क को नापा। गुड़गाँव को गुरुग्राम, बनारस को काशी, इलाहाबाद को प्रयागराज, अहमदाबाद को कर्णावती। सूची बहुत लंबी है।
शहरों, सड़कों, चौराहों की लंबी सूची है। कुछ के नाम बदले
गए, कुछ के नाम बदलने की माँग उठती-टूटती रहती
है। हर भारतीय चाहता है कि ऐतिहासिक विरासत को ज़िंदा किया जाए, याद रखा जाए। लिहाज़ा इस प्रवृत्ति के पीछे
जो राजनीति है उसे नज़रअंदाज़ करना नागिरकी मजबूरी है।
वैसे पौराणिक या ऐतिहासिक
वाला तत्व नाम बदलने से ख़ुद ही मिट भी जाता है, यह भी एक नज़रिया है।
ऐतिहासिक नज़रिया, ऐतिहासिक स्मृतियाँ, ऐतिहासिक निरंतरता वाला तत्व नाम बदलने से
मिट जाता है, यह नज़रिया भी खड़ा
है। अहमदाबाद को कर्णावती करने के प्रस्ताव पर यही नज़रिया हावी होता हुआ दिखा था। स्थानिक
अख़बारों की माने तो उस समय अहमदाबाद के ज़्यादातर लोगों ने शहर का नाम बदलने के प्रस्ताव
से नाराज़गी जताई थी।
नरेंद्र मोदी शासित
बीजेपी कई योजनाओं में अपने नेताओं के नामों को शामिल कर चुकी है! जनसंघ के संस्थापक
व दूसरे नेताओं के नाम पर योजनाएँ चल रही हैं। डिफेंडस, यानी देश की रक्षा के लिए शिक्षा प्राप्त
करने वाले संस्थान का नाम, जिसमें किसी भी नेता
का नाम नहीं था, वहाँ मनोहर पर्रिकर
का नाम चिटका दिया गया है। प्रवासी भारतीय केंद्र, जिसमें किसी भी नेता का नाम नहीं था, वहाँ सुषमा स्वराज
का नाम है। नये राजनयिकों को प्रशिक्षित करने वाली विदेश सेवा संस्थान का नाम भी अब
सुषमाजी के नाम पर है।
राष्ट्रीय आर्थिक प्रबंधन, यहाँ भी किसी नेता का नाम नहीं था, वहाँ अरुण जेटली का नामकरण कर दिया गया है।
गुजरात का कांडला बंदर, जहाँ किसी नेता का
नाम नहीं था, उसका नाम दीनदयाल पोर्ट
कर दिया गया है। दीनदयालजी के नाम पर केंद्र और राज्यों में अनेक योजनाओं का नामकरण
हो चुका है। लखनौ के इकाना स्टेडियम के नाम में अब अटल बिहारी वाजपेयीजी का नाम भी
जोड़ दिया गया है। बीजेपी, आरएसएस, जनसंघ से जुड़े नेताओं के नाम पर अनेक चीज़ें अब हैं। क्यों न हो, जबकि ख़ुद मोदीजी ने सरदार पटेल का नाम हटाकर वहाँ अपना नाम लगा दिया है! 2014 के
बाद अपने नेताओं के नाम चिटकाने की सूची भी लंबी है। जैसे कि पहले कांग्रेस किया करती
थी। बीजेपी तो जहाँ नेताओं के नाम नहीं होते थे, वहाँ भी नामकरण अपने नेताओं के नाम पर कर रही है!
राजनीति को सदैव पता रहता है कि दुनिया में
काम नहीं, नाम ही अमर रहता है! काम हो ना हो, नाम होना चाहिए! उन्हें
पता है कि इतिहास के नाम पर इतिहास पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले लोग नाम ही याद रखते
हैं, काम नहीं।
सरकारें आती जाती रहती
हैं और हमारे यहाँ नाम बदलने की प्रवृत्ति निरंतर जारी रहती है। पौराणिक या ऐतिहासिक
नाम देने वाली भावनात्मक सड़क के साथ साथ राजनीतिक प्रतिशोध वाला तत्व भी बाहर आता
रहता है। राजीव गाँधी का नाम हटाकर वहाँ मेजर ध्यानचंदजी का नाम रखना स्वागत योग्य फ़ैसला है। किंतु आप नरेंद्र मोदी स्टेडियम या अरुण जेटली स्टेडियम वाली प्रवृत्ति की
याद दिलाते हैं तो बीजेपी बाक़ायदा उन 23 स्टेडियमों की सूची ले आती है, जहाँ कांग्रेसी नेताओं का कब्ज़ा है।
समझना मुश्किल नहीं
है कि सोच और सनक में कितना अंतर है। नामकरण की राजनीति भावनाओं से जुड़ी हुई राजनीति
है। भारत भावनात्मक सभ्यताओं का देश है। यहाँ कोई नेता एक अच्छा काम कर दें तो प्रजा
उसे दो-चार बुरे काम करने की इजाज़त दे देती है!!! नाम बदलने से राजनीति के अलावा दूसरा कोई फ़ायदा होता हो ग़रीबी का भी नाम बदल देना चाहिए।
कांग्रेस ने 23 स्टेडियम
पर अधिकार जमाया था, हमने तो 3 पर ही जमाया
है। इस राजनीतिक दलील के सामने दलीलबाजी करना समय के हिसाब से हारने के लिए खेलने जैसा
ही है। हमने पहले लिखा कि हर चीज़ों में, हर विषयों में, अपने नेताओं के नाम चिटका देना, इस प्रकार की फूहड़ता को कांग्रेस ने आसमान
के पार पहुंचा दिया था! बीजेपी कांग्रेस की उस राजनीतिक विरासत को ज़िंदा रखने की कोशिशें
करती नज़र आती है! उसने भी अनेक जगहों पर अपने नेताओं के नाम चिटका रखे हैं! योजनाओं, परियोजनाओं, शहरों, सड़कों, पुलियाँ, भवनों का नाम बीजेपी ने अपने नेताओं के नाम
पर कर दिये हैं!
कांग्रेस ने भारत में
लंबे समय तक सत्ता को भुगता। चाहे वह केंद्र की सत्ता हो या राज्यों की। इस हिसाब से
भारत में जितना कुछ अच्छा हुआ और बुरा हुआ, उन दोनों का श्रेय
उन्हें जाता है। इसी नज़रिए को आगे बढ़ाए तो नामकरण वाली प्रवृत्ति को कांग्रेस ने चापलूसी
में बदल दिया! स्वातंत्र सेनानियों और ग़ैरराजनीतिक लोगों के नामकरण वाली प्रवृत्ति
को किसी प्रकार से बुरा नहीं माना जा सकता। किंतु जैसे आज बीजेपी कर रही है, कांग्रेस ने भी वही किया। यानी, भावनात्मक सड़क को नापना। चालाकी से उस सड़क
पर चलते चलते कांग्रेस ने एक समय पर हर चीज़ में नेहरू-गाँधी कर दिया!
इंदिरा और राजीव आते
आते जैसे कि हर योजना उनकी हो गई! बात राष्ट्रीय, या यूँ कहे कि केंद्रीय योजनाओं की करे तो, 2015 तक 600 के आसपास ऐसी
केंद्रीय सरकारी योजनाएँ थीं, जिसमें नेहरू-गाँधी
परिवार का नाम शामिल था! नोट करें कि केवल केंद्रीय सरकारी योजनाओं की ही बात है, राज्य व ग़ैरसरकारी व सहकारी चीज़ें इसमें शामिल
नहीं है! उसकी सूची तो बहुत ही लंबी है! सूचना के अधिकार के तहत 2012 में जो जानकारी सामने
आई थी उसके मुताबिक़ 50 से ज़्यादा राज्य की योजनाएँ, 28 खेल प्रतियोगिताएँ, 19 स्टेडियम (जिसकी तादाद
बाद में बढ़ी थी), 5 एयरपोर्ट, 98 शिक्षा संस्थान, 51 पुरस्कार, 15 फेलोशिप, 15 राष्ट्रीय अभ्यारण, 39 अस्पताल और चिकित्सा
संस्थान, 37 संस्थान, 74 सड़कें, समेत कई इमारतों और जगहों के नाम नेहरू-गाँधी
परिवार से जुड़े थे!
कांग्रेस की नामकरण
वाली राजनीतिक विरासत को बीजेपी ज़िंदा रखे हुए नज़र आती है। वह भी कांग्रेस की तरह भावनात्मक
रूप से सभ्यताओं को संतुष्ट करते हुए हर जगह अपने नेताओं के नाम चिटकाकर अपनी राजनीतिक
विरासत को नयी धार देने में जुटी हुई है।
राजनीति में प्रतीकात्मक
राजनीति अच्छा हथियार मानी जाती है। प्रतीकों की राजनीति। धार्मिक प्रतीक, ऐतिहासिक प्रतीक, सामाजिक प्रतीक, प्रादेशिक प्रतीक, खेलों के प्रतीक, मनोरंजन के प्रतीक।
बात खेल की हो रही है तो क्रिकेट के अलावा दूसरे तमाम खेलों के लिए बुनियादी सुविधाओं
का इंतज़ाम करना मुश्किल काम है। हमारे यहाँ मुमकिन होता तो क्रिकेट के सिवा दूसरे
खेलों को राइट क्लिक करके रिसायकल बीन में डाल दिया जाता! गनीमत है कि दूसरे खेलों
के खिलाड़ियों ने अपने ख़ून पसीने से उन खेलों को जीवंत रखा है।
कांग्रेसी नेताओं के
नाम हटा देना कोई बुरी प्रक्रिया नहीं है। हम तो नागरिक हैं, प्रजा नहीं है। सो, हमें नेताओं के नाम
हटना वाक़ई अच्छा लगता है। चाहे वे नेता किसी भी दल के क्यों न हो। किंतु नागरिक हैं, प्रजा नहीं। इसीलिए दूसरों के नाम
हटाते रहना और अपनों के नाम चिटकाते रहना वाली लंपटता भी अच्छी नहीं लगती।
काम हो न हो, नाम ही सब कुछ है! इतिहास नाम ही याद रखता है, काम नहीं! काम से जिन्होंने
अपना नाम किया, उन्हें काम नहीं मिला! बिना काम के नाम करने वालों को काम और नाम, सब कुछ मिला! देख तेरे
संसार की हालत क्या हो गई भगवान वाला बेतुका राग आलापने की मूर्खता न करें। हालत ख़ुद
ही करनी है और फिर पूछना भगवान को है???!!!
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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