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Sabarmati Ashram Redevelopment: सुंदरीकरण के नाम पर अब गाँधी आश्रम से छेड़छाड़? भव्य और दिव्य की सनक और स्मृति निष्प्राण होने का ख़तरा?


बहुत ही सीधी बात। पेट्रोल पंप, (सॉरी), डोनाल्ड ट्रंप गुजरात आए तब झुग्गियों को ढंकने की नौबत आन पड़ी थी। इतिहास को सुंदरीकरण के नाम पर छेड़ने से अच्छा है कि पहले उन चीज़ों को और उन लोगों को उनके हक़ की सुंदरता प्रदान दी जाए। ऐसा करने पर विदेशी राष्ट्राध्यक्षों के दौरों के समय नीले और हरे कपड़ों के पीछे तथा दीवारों से उन्हें ढकने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
 
देखिए। आप कुछ भी कहे, जितना भी कहे, जो करना है वो मोदी जैसे राष्ट्राध्यक्ष करके ही रहते हैं। कोरोना के दौर में देश में तमाम कामकाज ठप हो चुका था, सिवा नये संसद भवन के निर्माण कार्य के! जलियाँवाला बाग़ भी रिडेवलपमेंट के नाम पर अपनी मूल छाप और मूल स्मृति गँवा चुका है। बीजेपी और संघ के पास अपना कोई प्रतीक तो है नहीं, लिहाज़ा सरदार पटेलजी को उघार लेकर उनकी बड़ी मूर्ति बनवा चुके हैं मोदीजी। साधू बेट का इलाका पूरा का पूरा खाली करके, वहाँ दशकों से स्थायी समाज को जबरन हटाकर ये काम कर चुके हैं मोदीजी! बदले में उनके नाम का स्टेडियम गटक लिया वह अलग! अब बारी है अहमदाबाद स्थित साबरमती आश्रम की। अपनी सादगी, शांतिपूर्ण वातावरण तथा इतिहास के उस समय के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए जहाँ लोग जाते थे, वह जगह अपनी उस मूल पहचान व स्मृतियों से विलुप्त हो जाएगी।
 
यूँ तो बहुत बार सुना था कि जिसे हेरिटेज जगह कहा जाता है उसके साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। हमारे यहाँ ज़वेरचंद मेघानी को जहाँ सज़ा सुनाई गई थी, वह जगह इसी नियम को आगे करके जस की तस है। वहाँ रिपेयरिंग वगैरह होता है, किंतु जगह का नज़ारा बिलकुल बदला नहीं जाता। देश में लगभग तमाम हेरिटेज जगहों पर ऐसा ही होता है। किंतु यहाँ उस जगह को सिरे से बदलने का पूरा कार्यक्रम तैयार हो चुका है, जिस जगह को समूची दुनिया में जाना जाता है। वो जगह, जहाँ भारत आने वाला लगभग हर राष्ट्राध्यक्ष जाता ज़रूर है। उस जगह को उसकी मूल पहचान और मूल स्मृतियों से दूर ले जाने का ख़ाका तैयार हो चुका है। सादगी, शांति और इतिहास के प्रत्यक्ष दर्शन वाली जगह पर अब आलीशान और आधुनिक निर्माण होंगे।

इतिहास के ऐसे रिडेवलपमेंट को लेकर कहा जाता है कि इससे वहाँ जाने वाले लोगों को उस विषय का ज्ञान मिल सकता है। बात सही है, लेकिन सौ फ़ीसदी नहीं। वह ज्ञान मान्य पुस्तकों में, पुस्तकालयों में, सही और प्रमाणित रिसर्च में, यानी ज़्यादा से ज़्यादा प्रमाणित और तथ्यात्मक पढ़ाई में होता है। वह व्हाट्सएप या फ़ेसुबक पर नहीं होता। कुछ जगहें ज्ञान प्राप्ति केंद्र या संग्रहालय नहीं होती। वे तो स्वयं इतिहास होती हैं। वहाँ ज्ञान प्राप्त करने के बाद जाने से उस कालखंड व इतिहास को आप बेहतर समझ सकते हैं। या फिर मूल और प्रमाणित ज्ञान में वृद्धि कर सकते हैं।
 
अभी कुछ दिनों पहले जलियाँवाला बाग़ के नवीकरण का काम समाप्त हुआ। उसके बाद उस स्मृति स्थल की तस्वीरें देख सोशल मीडिया पर लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। मोदी सरकार की जमकर आलोचना हुई। ज़्यादातर आलोचनाएँ उन गलियारों को लेकर हुई, जिन्हें सिरे से बदल दिया गया है। जलियाँवाला बाग़ में इन गलियारों का अपना ऐतिहासिक महत्व रहा है। नोट करें कि यूँ तो इससे पहले भी बाग़ का रूप बदला गया है।
पुनर्निमित परिसर का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने देश के इतिहास की रक्षा वाला भाषण दिया। बदले में सोशल मीडिया ने उन पर नवीकरण के नाम पर इतिहास को नष्ट करने का आरोप लगाया। तीखे स्वर में नरेंद्र मोदीजी को कहा गया कि आप नेता हैं और नेताओं को शायद ही कभी इतिहास की अनुभूति होती है।

प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीब ने दुख जताते हुए कहा, "यह स्मारकों का नवीकरण नहीं बल्कि निगमीकरण है। जहाँ वे आधुनिक संरचनाओं के रूप में समाप्त हो जाते हैं, विरासत मूल्य खो देते हैं।"

सोशल मीडिया पर जलियाँवाला बाग़ का बदला रूप देखकर लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। लोग लिखने लगे कि जो लोग स्वतंत्रता संग्राम से दूर रहे हो वही लोग ऐसे कांड कर सकते हैं।
 
सुंदरीकरण, नवीकरण के नाम पर जलियाँवाला बाग़ का नया रूप देखरकर इतिहासकार किम ए वैगनर ने ट्वीट कर कहा, "यह सुनकर स्तब्ध हूँ कि 1919 के अमृतसर नरसंहार के स्थल जलियाँवाला बाग़ को नया रूप दिया गया है - जिसका अर्थ है कि घटना के अंतिम निशान प्रभावी रूप से मिटा दिए गए हैं। यही मैंने अपनी पुस्तक में स्मारक के बारे में लिखा है। एक स्थान का वर्णन करते हुए, जो अब ख़ुद इतिहास बन गया है।"
 
कई इतिहासकारों ने जीर्णोद्धार के तरीक़ों पर निराशा जताई। कुछ ने इसे 'स्मारकों का कॉपोर्रेटाइजेशन' करार दिया, कुछ ने 'इतिहास की हत्या' कहा। बाग़ के नये रूप में सबसे ज़्यादा आलोचना उसी गलियारों को लेकर हुई, जिसे सिरे से बदल कर हाई-टेक कर दिया गया है।

सुरेन रेड्डी नाम के ट्विटर यूज़र ने लिखा, "मुझे अपने पिता के साथ जलियाँवाला बाग़ की यात्रा की एक अच्छी याद है। एक युवा लड़के के रूप में। वह जगह नरसंहार की एक भयानक तसवीर पेश करती है। कुआँ, गोली के छेद गवाह हैं। इससे बुरी तरह अपवित्रता नहीं हो सकती है और यह इतिहास को ज़बरदस्त भुलना है।"
 
लेजर शो, लाइट शो, साउंड शो वाले तामझाम को लेकर सोशल मीडिया नाराज़ रहा और प्रधानमंत्री के बारे में लिखने लगा कि इस आदमी के साथ क्या गड़बड़ी है, जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड की जगह जश्न की जगह नहीं है कि आपको ऐसे शो करके वहाँ आने वालों को ललचाना पड़े।
 
स्मारकों की देखरेख ज़रूरी है। बिलकुल ज़रूरी है। किंतु जीर्णोद्धार के नाम पर उन स्मारकों को उनकी मूल पहचान व मूल स्मृति से दूर कर देना इतिहास के साथ छेड़छाड़ ही नहीं, बल्कि इतिहास की हत्या भी है। जिन कालखंडों का ये स्मारक प्रतिनिधित्व करते हैं, उनके स्वरूप के साथ हस्तक्षेप किए बिना उनकी देखभाल करनी होती है। हमें उन स्मारकों को संभाल कर रखना चाहिए, किंतु उनकी जो मूल आत्मा है उसकी हत्या क़तई नहीं करनी चाहिए।
  
अब नरेंद्र मोदीजी और गुजरात सरकार महात्मा गाँधी से जुड़ी हुई उस जगह का निगमीकरण करना चाहते हैं, जिसे दुनिया गाँधी आश्रम या फिर साबरमती आश्रम के नाम से जानती है। अहमदाबाद में साबरमती नदी के तट पर बसा यह आश्रम अब तक उसके मूल रूप में है। सरकारों की थोड़ी बहुत मदद से बुद्धिजीवियों और गाँधीवादियों ने इस जगह पर उस दौर की पहचान को अब तक सफलतापूर्वक संभाल कर रखा हुआ है। वहाँ जाते हैं तो इतिहास के उस कालखंड से आप की मुठभेड़ होती है। वहाँ उस समय की अनुभूति होती है। परम शांति, ग़ज़ब की सादगी, हिंदुस्तान के उस कालखंड के दर्शन, सब कुछ अपने आप प्राप्त हो जाता है। अब वहाँ सुंदरीकरण के नाम पर चकाचौंध करने की परम इच्छा प्रभु के दिमाग़ में पैदा हो गई है!
हाँ, एक बात ज़रूर लिखी जा सकती है। आश्रम परिसर के भीतर और आसपास कुछ ग़ैरज़रूरी प्रवृत्तियाँ ज़रूर चल रही हैं। वहाँ बैंक का कामकाज भी ठीक नहीं है। किंतु इन सारी चीज़ों को शांति से हटाया जा सकता है। बिना निगमीकरण के।
 
जगहों के, सड़कों के, शहरों के नाम बदलने की सनक कांग्रेस में थी, तो बीजेपी में भी है। वहाँ तक तो ठीक है। किंतु इतिहास के उन स्मृति स्थलों से उनकी आत्मा छीन ली जाए, यह इतिहास की रक्षा तो नहीं कहा जा सकता।
 
स्मृति स्थल को लेकर एक बड़ी अच्छी बात एक शिक्षाशास्त्री ने कही है। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री कृष्ण कुमार ने अपनी किताब 'शांति का समर' के एक लेख में राजघाट और बिड़ला भवन के बीच के अंतर पर बात की है। उनकी राय में राजघाट गाँधी के अंत की स्मृति है, उनका समाधि स्थल, जहाँ जाकर आप कुछ शांति अनुभव कर सकते हैं, लेकिन वह उस इतिहास से आपकी मुठभेड़ नहीं कराता, जिसकी वजह से गाँघीजी को मरना पड़ा। उनका कहना है कि गाँधी की असली स्मृति राजघाट में नहीं, बिड़ला भवन में बनती है। बिड़ला भवन में ही प्रार्थना स्थल तक जाते हुए महात्मा गाँधी को नाथूराम गोडसे ने मार डाला था। आप बिड़ला भवन जाएं तो गाँधी के पद बने दिखाई पड़ते हैं, वह जगह दिखाई पड़ती है, जहाँ गाँधी को गोली मारी गई और आपके भीतर यह जानने की इच्छा पैदा हो सकती है कि आख़िर गाँधी को गोली क्यों मारी गई। राजघाट इतिहास से मुठभेड़ की ऐसी आकुलता आपके भीतर पैदा नहीं करता।
 
यह लिखकर वे समझाते हैं कि स्मृति स्थल की आत्मा क्या होती है। स्वतंत्रता और आज़ादी, दोनों में क्या फ़र्क़ होता है वह आपको गाँधीजी की स्मृतियाँ देखकर पता चल जाएगा। राजधाट आपके भीतर विश्वास पैदा करता है, धैर्य पैदा करता है, आपको दैवीय ताक़त देता है, लोगों को और समाज को स्वतंत्रता का सही मतलब समझाता है, साथ ही हक़ और अधिकारों की लड़ाई के लिए आत्मबल तथा त्याग व समर्पण का गुण भी प्रदान करता है। बिड़ला भवन इतिहास के एक दूसरे ही चेहरे का दर्शन कराता है। वहाँ इतिहास साँसे लेता है। वहाँ काल का एक खंड अपनी ज़िंदगी जीता है। यही तो स्मृति स्थलों का प्रभाव है। उसका मूल रूप बदल देने से वह प्रभाव नष्ट हो जाता है। साथ ही स्मृतियाँ भी।

 
सरकारों का तो ठीक है, लेकिन जब लोग ही इतिहास को पर्यटन स्थल की निगाहों से देखना चाहते हैं, तो फिर सरकारों को बल्ले बल्ले ही है। जैसे कि जलियाँवाला बाग़ अब इतिहास की धरोहर नहीं है, एक पर्यटन स्थल है। साबरमती आश्रम का इतिहास भी इसी तरह बदल दिया जाएगा यह तमाम बुद्धिजीवि और गाँधीवादी मानते हैं। पूरा अंदेशा है कि फिर वहाँ दुनिया भर से सैलानी आएँगे, रहेंगे, देखेंगे, सेल्फ़ी खिचेंगे। लेकिन वहाँ से वह तमाम चीज़ें गायब होगी, जो फ़िलहाल वहाँ मौजूद हैं। वहाँ अनुभव करने लायक कुछ नहीं बचेगा। हिंदुस्तान का वो कालखंड वहाँ जीवित अवस्था में नहीं होगा। अभी वहाँ साबरमती आश्रम दिखता है, गाँधी दिखते हैं, वह दौर जीवित है। फिर वहाँ नयी इमारतें दिखेगी। आश्रम मूल अवस्था में नयी इमारतों के बीच ख़ुद की ही स्मृतियाँ ढूंढ रहा होगा।
 
नवीकरण या सुंदरीकरण उन लोगों को ज़्यादा लुभाता है, जिनका इतिहास के साथ कोई वास्तविक लगाव नहीं होता। जिनके लिए वह कालखंड महज़ कथाएँ होती हैं, कहानियाँ होती हैं। जो अब तक वहाँ गए नहीं, वे फिर जाएँगे। बढ़ेगा तो केवल एक आँकड़ा। वह आँकड़ा कि इतने लोगों ने सालाना मुलाक़ात की। जैसा कि सरदार पटेलजी की मूर्ति को लेकर आँकड़ा आता रहता है।
 
बीजेपी अतीत की बात बहुत करती है, लेकिन उसे अतीत में उतरने का सलीक़ा नहीं आता। मोदीजी और गुजरात सरकार से एक शिकायत ज़रूर है। यही कि आपने पूरा का पूरा इलाका, जो दशकों से ज़िंदा और हरा भरा था, उसे उजाड़ कर वहाँ उस व्यक्ति की मूर्ति लगा दी, जिनका अपना ख़ुद का घर दशकों से ओसत हालत में है! ग़ज़ब ही कर दिया आपने मोदीजी और गुजरात सरकार! जहाँ सरदार पटेलजी का जन्म हुआ उस जगह को सिरे से और सालों से सरकार नज़रअंदाज़ करती है, और जहाँ सैकड़ों के घर थे उनको वहाँ से हटाकर वहाँ सरदार पटेलजी की मूर्ति लगाते हैं! ऐसा कृत्य तो स्वयं सरदार पटेल सहन नहीं कर पाते, यदि वे आज ज़िंदा होते।
  
सरदार पटेलजी की मूर्ति की वो जगह आज गुजरात में इतिहास की कोई ख़ास जगह नहीं है, बल्कि पर्यटन स्थल भर ही है। लोग छुट्टियों में वहाँ जाते हैं, सेल्फ़ी विल्फ़ी खींचते हैं, घूमते हैं और वापस लौट जाते हैं। वहाँ सरदार पटेलजी का इतिहास डिजिटल रूप में संग्रहित है। किंतु एंट्री फ़ीस से लेकर दूसरे ख़र्चे इतने ज़्यादा है कि बहुधा लोग सेल्फ़ी विल्फ़ी का चक्कर चलाकर दिन भर घूम कर लौट जाते हैं। वह जगह पिकनिक पाॅइंट ज़्यादा लगती है अब तो! महात्मा गाँधी के साबरमती आश्रम को भी अब सरकार इतिहास का कालखंड नहीं रखना चाहती, उसे पर्यटन स्थल बना देना चाहती है।
लगता है कि मोदीजी ने तय कर लिया है कि सब कुछ भव्य होना चाहिए बस! अरे मोदीजी, हमारा इतिहास भव्य ही है। बीजेपी और संघ का अपना कोई इतिहास नहीं है तो इसमें इतिहास की क्या ग़लती है? वर्ना इतिहास तो भव्य ही है भारत का। किंतु मोदीजी सब भव्य और दिव्य ही करना चाहते हैं। श्री राम का मंदिर भी भव्य होना चाहिए, संसद भवन भी शानदार होना चाहिए, राणा प्रताप भी दिव्य होने चाहिए, सरदार पटेल भी विशाल होने चाहिए, जलियाँवाला बाग़ भी चकाचक होना चाहिए, महात्मा गाँधी भी महान दिखने चाहिए! बेचारा गोडसे! अपने प्रिय पात्र को इतना अन्याय? गोडसे को भी कुछ गॉर्जियस वाला बना देना चाहिए।
 
मोदीजी भली भांति समझते हैं कि भव्यता का अपना एक आकर्षण होता है। फिर भले उस भव्यता और दिव्यता में अतीत, स्मृति या इतिहास का दर्शन गुम हो जाए! दरअसल इतिहास से जुड़ने से जो सनसनी पैदा होती है, वह भव्य स्थापत्यों से नहीं आती।

किंतु इतिहास तो शिक्षक सरीखा होता है। मुग़लों के निर्माणों से मुग़लों की भव्यता कभी आंकी नहीं जाती। निर्माण तो आगे जाकर खंडहरों में ही बदल जाते हैं। लेकिन उन खंडहरों में भी इतिहास टहलता रहता है।बिलकुल ज़िंदा अवस्था में! इमारत रहे ना रहे, इतिहास तो रहता ही है। स्मृति स्थल की मूल अवस्था इंसान अपनी नसों में महसूस करता है। यूरोप के कई देशों में दूसरे विश्वयुद्ध की स्मृतियाँ अब भी इस तरह संजोई हुई है कि लोग वहाँ दाखिल होते हैं, तो वे उस समय को महसूस कर पाते हैं। स्मारकों को स्मारक के रूप में ही रहने देना चाहिए, सैलानी स्थलों में नहीं बदलना चाहिए।
 
आज के दिन अगर आप गाँधी आश्रम के पास से गुज़र रहे हैं और आपका मन किया तो आप आसानी से आश्रम के भीतर जा सकते हैं। ना टिकट, ना कुछ दूसरी दिक्कतें। आप तुरंत अंदर जा सकते हैं, कोई बंधन नहीं है। लेकिन फिर बहुत सारे बंधन होंगे, बिना टिकट के तो सरकार अंदर जाने नहीं देगी। खादी बुटिक बन जाएगी। गाँधीजी को जानने के लिए आज बिना पैसे परिसर के भीतर जा सकते हैं, फिर आपको अपने राष्ट्रपिता को जानने के लिए पैसे देने पड़ेंगे!
 
दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद गाँधीजी द्वारा भारत में स्थापित पहला आश्रम 1915 में बने साबरमती आश्रम से लगभग छह किमी दूर कोचरब में था। हालाँकि, गाँधीजी द्वारा लागू की जाने वाली कुछ चीज़ों, खादी बुनाई, हरिजन सेवा आदि के लिए वो जगह छोटी थी, इस प्रकार साबरमती के तट पर नए आश्रम का गठन किया गया था।

 
यहीं उन्होंने अपनी विश्वप्रसिद्ध आत्मकथा लिखी थी। नमक मार्च शुरू करने से पहले, गाँधीजी ने स्वराज (स्वतंत्रता) प्राप्त करने से पहले आश्रम में नहीं लौटने का वादा किया था। 1933 में आश्रम को भंग कर दिया गया था। गाँधीजी की मृत्यु के बाद उनके सहयोगियों और अनुयायियों ने आश्रम की इमारतों और अभिलेखीय संपत्ति की रक्षा के लिए साबरमती आश्रम संरक्षण और स्मारक ट्रस्ट (एसएपीएमटी) का गठन किया। आज के दिन ट्रस्ट की बात करे तो कुल मिलाकर 6 अलग अलग ट्रस्ट हैं, जो साबरमती आश्रम से जुड़े हैं। ये तमाम स्वायत्त ट्रस्ट हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं - एसएपीएमटी, साबरमती आश्रम गौशाला ट्रस्ट, हरिजन आश्रम ट्रस्ट, हरिजन सेवक संघ, गुजरात खादी ग्रामोद्योग मंडल और खादी ग्रामोद्योग प्रयोग समिति। 
 
साबरमती आश्रम महज़ एक आश्रम नहीं है। वह केवल इस रूप में भी नहीं जाना जाता कि वहाँ महात्मा गाँधी रहे थे। बल्कि वो जीता जागता कालखंड है। वह उस दौर को याद दिलाता है। उन पलों को आपके सामने रख देता है। स्वतंत्रता संग्राम की उन स्मृतियों को सदैव ताज़ा रखता है। वह केवल गाँधीजी की याद नहीं दिलाता, वह उन तमाम घटनाओं को, परिघटनाओं को, स्मृतियों को, त्याग को, बलिदानों को उड़ेलता है, जो कालखंड में जीवित रह पाई हैं। वह इतिहास का वो पल है, जिसे आप महसूस करते हैं।
 
बिलकुल याद है वह दौर, जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। तब आये दिन वे भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. मोरारजी देसाई के स्मृति स्थल अभय घाट के विकास के लिए तत्कालीन यूपीए सरकार से मदद माँगा करते थे। आरोप लगाया करते थे कि स्व. मोरारजी देसाई और उनकी स्मृतियों को इतिहास से विलुप्त किया जा रहा है, केंद्र सरकार फंड नहीं दे रही। अब जब स्वयं प्रधानमंत्री हैं, उस स्मृति स्थल पर ढंग से पेंट भी नहीं कर रहे! कई महानुभावों के स्मृति स्थल पीड़ा की अवस्था में हैं। भगत सिंह से जुड़ी स्मृतियाँ कैसी बेढंग अवस्था में हैं कौन नहीं जानता। ऐसे अनेका अनेक महानुभावों के स्मृति स्थल पीड़ित हैं। उनकी पीड़ा हरने के बजाए इतिहास से सुंदरीकरण के नाम पर जो स्मृति स्थल पहले से बढ़िया स्थिति में हैं उनसे छेड़छाड़ करने का मतलब ही क्या है?
  
जानकारी के लिए बता दें कि पूर्व प्रधानमंत्री स्व. मोरारजी देसाई की समाधि अहमदाबाद में साबरमती आश्रम के पास है, जिसे अभय घाट के नाम से जाना जाता है। गुजरात सरकार ने तब यूपीए सरकार से 1 करोड़ मांगे थे। न जाने कितने साल गुज़र गए इस बात को। फिर तो गुजरात में नरेंद्र मोदी ने बतौर सीएम करोड़ो ख़र्च करके रिवर फ्रंट तक बना दिया, पर अभय घाट जस का तस पड़ा रहा! अब तो वे प्रधानमंत्री हैं। तीन हज़ार के पार का ख़र्चा करके सरदार पटेलजी की मूर्ति बनवा चुके हैं। करोड़ों ख़र्च करके साबरमती आश्रम का लुक बदल रहे हैं। जलियाँवाला बाग़ भी हो गया। लेकिन अभय घाट उसी अवस्था में है! कह सकते हैं कि आप कितना भी बड़ा चेहरा क्यों न हो, जब तक वोट बटोरने की सुविधा मृत व्यक्ति में नहीं होगी, मरणोपरांत राजनीतिक मोहब्बत मिलना मुश्किल ही है!!!
जो गाँधी आश्रम पहले से ही विश्वप्रसिद्ध है, उसके बारे में सरकार कह रही है कि उसे विश्वस्तरीय बनाया जाएगा!!! कुल मिलाकर, भव्य और दिव्य वाली सनक उस शांत और सादगी वाले इतिहास को बदलने के लिए आमादा है। आज भी दुनिया जिसे समूची मानवता का प्रतिनिधि मानती है वह गाँधीजी, वह इंसान जिसने यह कहकर एक लंगोट धारण कर लिया कि मेरे देश के ग़रीबों के पास पहनने को कपड़ा नहीं है ऐसे में मैं कैसे पूरे वस्त्र घारण करके जीता रहूँ, वह महात्मा जो एक छोटी थाली और वाटी को साथ लेकर घूमते और इसीमें खाना खाते और ख़ुद ही वह बर्तन घो लेते, जो व्यर्थ व्यय के लिए एक नया पैसा ख़र्च करने के सख़्त ख़िलाफ़ थें, उनके लिए करोड़ों रूपये बहाकर हम इतिहास की रक्षा का नाटक करेंगे!!! 
 
गाँधी आश्रम, जो स्वतंत्रता आंदोलन के मुख्य केंद्रों में से एक रहा है, को मूलरूप से सत्याग्रह आश्रम कहा जाता था। महात्मा गाँधी ने 1917 और 1930 के बीच अपने जीवन के 14 वर्ष यहाँ बिताए, और फिर दांडी के ऐतिहासिक नमक मार्च के लिए रवाना हुए। जानकारी के लिए बता दें कि मानव जाति के इतिहास में दस सबसे महत्वपूर्ण मार्च में दांडी मार्च शामिल है, जो इस गाँधी आश्रम से निकली थी।
 
इतिहास के उस कालखंड का दर्शन शब्दों में यूँ किया जा सकता है। अगस्त के एक उमस भरे दिन में देशभर से पर्यटक साबरमती नदी के पास स्थित गाँधी आश्रम में आये हुए हैं। जैसे ही वे आश्रम के कच्चे-पक्के रास्तों को पार करते हुए आगे बढ़ते हैं, हृदय कुंज तक पहुंचने पर उनकी चाल अचानक धीमी हो जाती है। ये वही जगह है, जहाँ गाँधी कस्तूरबा के साथ रहा करते थे। कई लोग ह्रदय कुंज के बरामदे में लेटे हैं, अन्य लोग खंभों या दीवारों के सहारे बैठ जाते हैं और आसपास की शांति का अनुभव करते हैं।
 
2019 में, महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती के अवसर पर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि आश्रम के मूल शांतिपूर्ण वातावरण को संरक्षित करते हुए इसका पुनर्विकास किया जाएगा। अब गुजरात सरकार ने 55 एकड़ में फैले साबरमती आश्रम परिसर को विश्वस्तरीय पर्यटक आकर्षण केंद्र बनाने के लिए 1,246 करोड़ रुपये की एक भव्य, लेकिन विवादास्पद योजना को मंजूरी दे दी है। कई लोग जो दशकों से यहाँ काम कर रहे हैं और रह रहे हैं, उन्हें अब डर है कि आश्रम और उसके आसपास का इलाक़ा हमेशा के लिए बदल जाएगा।

 
योजना के अनुसार 55 एकड़ क्षेत्र में फैले, पुनर्विकसित आश्रम परिसर में मुख्य आश्रम के भीतर और आसपास 63 विरासत भवनों का संरक्षण शामिल होगा, जो गाँधी के समय से आश्रम में मौजूद थे। हालाँकि शुरुआती समाचार लेखों में हवाला दिया जा रहा था कि योजना आश्रम को विश्वस्तरीय स्मारक बनाने की थी, लेकिन इस योजना से जुड़े एक सूत्र ने दि प्रिंट को बताया कि इस शब्द का अब उपयोग नहीं किया जा रहा है। गाँधीवादियों ने विरोध किया था कि आश्रम पहले से ही विश्वस्तरीय है।
 
परियोजना के लिए 1,246 करोड़ रुपये का बजट रखा गया है। दि प्रिंट द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार इस राशि में से 490 करोड़ रुपये मुख्य आश्रम को विकसित करने, मरम्मत, पैदल मार्ग डिज़ाइन करने और आश्रम रोड ट्रैफ़िक को डायवर्ट करने जैसी चीज़ों के लिए ख़र्च किए जाने हैं। आश्रम परिसर के विकास के लिए 273 करोड़ रुपये, उपग्रह परिसर के विकास के लिए 316 करोड़ रुपये (जैसे शैक्षणिक भवन और आश्रम से जुड़ी कार्यशालाएँ) आवंटित किए गए हैं। बाकी को पुनर्वास और आश्रम क्षेत्र में रहने वालों के मुआवज़े पर ख़र्च किया जाना है। पूरी परियोजना के लिए धनराशि संस्कृति मंत्रालय द्वारा दी जाएगी।
यदि सरदार पटेल ज़िंदा होते और उन्हें पता चलता कि सरकार पूर्व सैनिकों को पैसा नहीं है कहकर टाल रही हैं और इधर उनकी मूर्ति के पीछे करोड़ो रूपये बर्बाद कर रही है, तो ऐसे में सरदार पटेल क्या करते वह हम लिख चुके हैं। यदि गाँधीजी को पता चलता कि कोरोना की विभीषिका में मारे गए लोगों के लिए पैसा नहीं है, कहने वाली सरकार उनके सीधे सादे आश्रम के पीछे करोड़ों रुपये बर्बाद कर रही है, तो ऐसे में गाँधीजी का सत्य आग्रह क्या होता यह इतिहास को सही तरीक़े से पढ़ने-जानने वाले आसानी से समझ सकते हैं।
 
वर्तमान में, हृदय कुंज के अलावा, पाँच एकड़ के मुख्य आश्रम क्षेत्र में एक प्रार्थना क्षेत्र शामिल है, विनोबा-मीरा कुटीर- एक छोटी सी झोपड़ी, जो विनोबा भावे और गाँधीजी की शिष्य मीराबेन के निवास के रूप में जानी जाती है, और मगन निवास, गाँधीजी के भतीजे और शिष्य मगनलाल गाँधी का निवास स्थान। हृदय कुंज के आसपास ऐतिहासिक महत्व की अन्य इमारतें हैं नंदिनी (जो आश्रम गेस्ट हाउस के रूप में काम करती थी), उद्योग मंदिर (जहाँ खादी तकनीक विकसित की गई थी) और सोमनाथ छात्रालय। एक संग्रहालय, पुस्तकालय और प्रदर्शनी क्षेत्र, जो अब परिसर का हिस्सा है, वास्तुकार चार्ल्स कोरिया द्वारा बाद में जोड़ा गया था।
 
दि प्रिंट द्वारा प्राप्त जानकारी के मुताबिक़ परियोजना के लिए आश्रम परिसर के भीतर की संरचनाओं को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया है। कुछ गतिविधियाँ, जो आश्रम के अनुरूप नहीं हैं, जैसे कि परिसर में बैंक, अनावश्यक अतिक्रमण, आश्रम के आसपास बसे निवासी, दुकानें जैसी चीज़ों को दूर किया जाएगा। दि प्रिंट ने जो जानकारी दी है उसके मुताबिक़, परियोजना में आश्रम के मूल लुक को छेड़ा नहीं जाएगा, किंतु उसके आसपास बहुत सारा नवीकरण होगा और कुछ नयी इमारतें भी बनेगी। कुछ अनावश्यक भवनों और गतिविधियों को परिसर के बाहर स्थानांतरित किया जाएगा।

 
हालाँकि मूल आश्रम को तोड़ा तो नहीं जाना है, लेकिन उसके आसपास के पूरे वातावरण को सिरे से बदला जाना है। यह दावा दि प्रिंट निर्माण कंपनी के हवाले से लिखता है। उधर Sabarmati Ashram Preservation and Memorial Trust की चेयरपर्सन इलाबेन भट्ट बीबीसी को बताती हैं कि सरकार के साथ सलाह-मशविरे के बाद इस बात पर सहमति बनी है कि आश्रम में सभी की सहमति से ही कोई बदलाव किया जाएगा।
 
दि प्रिंट ने लिखा है कि योजना में कुछ नए भवनों का निर्माण भी शामिल है। लेकिन आश्रम का प्लान बनाने में जुटी वास्तुकला और डिज़ाइन फर्म HCP Design, Planning and Management Pvt. Ltd. के अनुसार, नयी इमारतें एकदम पुरानी इमारतों की तरह और आश्रम के स्वरूप को ध्यान में रखकर ही बनायी जाएगी। एचसीपी, आर्किटेक्ट बिमल पटेल की कंपनी है, जो सेंट्रल विस्टा परियोजना को भी संभाल रही है और साबरमती रिवरफ्रंट योजना का नेतृत्व भी इसी कंपनी ने किया था। साबरमती आश्रम जीर्णोद्धार परियोजना में आश्रम के परिवेश में सुधार करना भी शामिल है, जिसमें पास के चंद्रभागा नाले का संरक्षण और सीवेज सिस्टम की स्थापना शामिल है।
 
हालाँकि, इस परियोजना को कई गाँधीवादियों और बुद्धीजीवियों का समर्थन नहीं मिला है। पिछले महीने की शुरुआत में, राजमोहन गाँधी और रामचंद्र गुहा, फ़िल्म निर्माता आनंद पटवर्धन, गुजराती साहित्य परिषद के अध्यक्ष प्रकाश शाह सहित 130 लोगों ने गाँधीवादी संस्थानों के सरकारी अधिग्रहण का विरोध करने के लिए एक खुला पत्र लिखा था। उन्होंने आरोप लगाया कि गाँधी आश्रम को विश्वस्तरीय स्मारक बनाने की योजना, आश्रम की पवित्रता से गंभीर रूप से समझौता और तुच्छीकरण करेगी। उन्होंने सरकार के सभी गाँधीवादी अभिलेखागारों पर नियंत्रण करने के भयानक पहलू पर भी अपनी चिंता व्यक्त की थी। ग़ौरतलब है कि जब 50 विशेषज्ञों ने कोरोना काल में स्कूल खोलने के पक्ष में खुला पत्र लिखा तो कई राज्यों ने इसे मजबूत आधार बना लिया। यहाँ खुला पत्र 130 लोगों ने लिखा है। अगर गणित का इतिहास अभी बदला न हो तो शायद अब भी 130 का आँकड़ा 50 से अधिक ही होता होगा।
  
योजना का विरोध करने वाली याचिका का नेतृत्व करने वाले प्रकाश एन. शाह ने दि प्रिंट को कहा कि मेरी दलील है कि अगर आश्रम परिसर को थीम पार्क की तरह माना जाएगा तो यह गाँधीजी का बहुत बड़ा अपमान है। उन्होंने एक ताज़ा घटनाक्रम को याद दिलाते हुए कहा, "सरकार की मानसिकता को देखिए- इन्होंने हाल ही में गुजरात के प्रसिद्ध कवि ज़वेरचंद मेघानी की 125वीं जयंती मनाई, और पोस्टर और मंच पर उनकी कोई तस्वीर नहीं थी।" ये कहकर उन्होंने उस सच को कहा। यही सच कि नेताओं के लिए किसी महानुभावों की जयंति मनाना उस महानुभाव को याद करने की जगह अपनी ख़ुद की छवि का प्रचार प्रसार करने का मौक़ा ज़्यादा होता है।
गुजराती साहित्य परिषद के प्रकाश एन शाह कहते हैं कि यह सेंट्रल विस्टा नहीं है, यह गाँधी आश्रम है। इस योजना को सार्वजनिक किया जाना चाहिए और इस पर सार्वजनिक बहस और चर्चा होने दें।
 
परिसर के भीतर एक वीआईपी लाउंज और एक फ़ूड कोर्ट के निर्माण की बातें भी हो रही हैं। हालाँकि द प्रिंट से एचसीपी के सूत्र नपीतुली भाषा में कहते हैं कि यहाँ बुनियादी सुविधाएँ होंगी। सूत्र द प्रिंट को बताते हैं कि, "मुलाक़ात लेने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि होने वाली है, लिहाज़ा पार्किंग सुविधा, शौचालय, पानी या चाय के लिए जगह होना स्वाभाविक है, लेकिन फ़ालतू फ़ूड कोर्ट नहीं बनाया जाएगा।"

यह नपीतुली भाषा है। पानी या चाय के लिए जगह होना स्वाभाविक है, तो उसके साथ नास्ते के लिए भी कोई जगह बनाया जाना स्वाभाविक है। फिर इसे फास्ट फ़ूड कोर्ट कहे या फ़ालतू फ़ूड कोर्ट? ऊपर से जवाब में ही लक्ष्य देख लीजिए। कहते हैं कि मुलाक़ात लेने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि होने वाली है। मतलब कि अभी से उस लक्ष्य की बातें हो रही हैं।
 
मुख्यमंत्री के मुख्य प्रधान सचिव, के. कैलाशनाथन कहते हैं कि हम आश्रम के संरक्षण की कोशिश कर रहे हैं। वे आश्रम की तरफ़ जाने वाली सड़क के शोर भरे यातायात को शांत करने की योजना के फ़ायदे बताते हैं। कहते हैं कि जहाँ गाँधीजी रहते थे उस जगह के पास शांति हो यह अच्छा होगा। कैलाशनाथन आगे कहते हैं कि वर्तमान समय में लोग केवल तीन मुख्य संरचनाओं को देखने के लिए ही आश्रम में आते हैं और महज़ 15-20 मिनट गुज़ारने के बाद चले जाते हैं। वे सवाल पूछते हैं कि जो युवा यहाँ आते हैं वे 15-20 मिनट में गाँधीजी के बारे में क्या सीखेंगे? कैलासनाथन कहते हैं कि हम चाहते हैं कि वे अधिक समय यहाँ बिताएँ और पुरा अनुभव लें।
 
कैलासनाथन की यह बात ठीक लगती है। किंतु गाँधीजी के बारे में सिखाने के जो तरीक़े हैं, वे सरकारें स्वयं ही लागू नहीं करती और अपने ही मंत्रियों और नेताओं से गाँधीजी के बारे में अनाप शनाप बोलते हुए देख चुप रहती है!!! दरअसल, इतिहास से जुड़े स्मृति स्थल को उसकी मूल अवस्था में रखकर आप युवाओं को बेहतर मौक़ा दे सकते हैं उस व्यक्ति और उस समय को समझने का।
 
अक्टूबर 2019 में जब पीएम मोदी ने साबरमती आश्रम के नवीकरण की घोषणा की, उसके तुरंत बाद आश्रम के परिसर में रहने वाले लोगों ने बेदखल और विस्थापित होने के डर से इस योजना के विरोध में रैली निकाली। वर्तमान समय में 263 परिवार मुख्य आश्रम से सड़क पार या आस पास की कॉलोनियों में रहते हैं। जानकारी के लिए बता दें कि वे उन लोगों के वंशज हैं, जिन्हें गाँधीजी द्वारा लाया गया था। वे आश्रम की गतिविधियों से जुड़े थे। यहाँ के हर घर में गाँधीजी के साथ परिवार के जुड़ाव के बारे में बताने लायक एक एक कहानी है। हालाँकि अब कई परिवारों के सदस्य सीधे तौर पर आश्रम की गतिविधियों से नहीं जुड़े हैं और निजी या सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में हैं।
जहाँ गाँधीजी द्वारा लाए गए लोगों के वंशज रहते हैं, उनके सामने अब दो विकल्प पेश कर दिए गए हैं। या तो 60 लाख रुपये का एकमुश्त मुआवज़ा स्वीकार करें, या नया मकान। ज़िला कलेक्टर कार्यालय के अनुसार, 48 परिवारों को पहले ही 40 लाख रुपये की पहली मुआवज़ा किस्त मिल चुकी है, जबकि 9 परिवारों को पूरी राशि मिल चुकी है। परिवारों को मुआवज़े का पहला भाग दिए जाने के एक महीने के भीतर सरकार को संपत्ति सौंपनी है। हालाँकि, किसी एक विकल्प को स्वीकार करने में लोग पूरी तरह से ख़ुश नहीं हैं। लेकिन सरकार ने उन्हें दो ही विकल्प दिए थे, और उन्हें किसी एक को चुनना ही था!

तुषार गाँधी सवाल उठाते हैं कि अभी जो ज़मीन हरिजन सेवक संघ के पास हैं, उस ज़मीन को पैसे देकर ख़रीदा जाएगा, तो फिर ख़रीदी गई ज़मीन का मालिक कौन होगा यह ना सरकार बता रही है, ना ट्रस्टी।
 
एक दिक्कत यह भी है कि अधिकतर लोगों के पास अपने निवासों के स्वामित्व का प्रमाण ही नहीं है। वे जिन घरों में रहते हैं, बस पीढ़ियों से वहाँ ही रहते आए हैं। यही एक चीज़ उनके पास है। लेकिन अब जब परियोजना तय हो गई है, वे सहमत हैं या नहीं, उससे फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला। जिनके पास अपने घरों के कोई दस्तावेज़ नहीं हैं उन्हें घर मिलेगा या नहीं, यह तो समय तय करेगा। किंतु उन्हें उस इतिहास से दूर जाना है।

 
कैलाशनाथन की वह दलील, युवा गाँधीजी के बारे में अधिक से अधिक जानें, इसी मोड़ पर आकर दम तोड़ जाती है। वे लोग, जो गाँधीजी के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा बता सकते हैं, जिनके परिवारों ने उस दौर को जिया, जो बता सकते हैं कि गाँधीजी कैसे रहते थे, कहाँ बैठते थे, तब कौन कौन आता था, क्या क्या होता था, उन्हीं लोगों को वहाँ से जाना है! प्रत्यक्ष बताने वाले लोगों को ही जाना है! मतलब कि सरकार जो चाहेगी, वही युवा जानेंगे!
 
वैसे साधू बेट खाली कराते समय भी वहाँ के लोगों को अनेक आश्वासन दिए गए थे और आज भी उनमें से ज़्यादातर लोग उन आश्वासनों की पूर्ति के लिए सरकारी कचहरियों के चक्कर काट रहे हैं। उम्मीद करते हैं कि इन निवासियों के साथ ऐसा न हो।
 
गुजरात में महात्मा गाँधी से जुड़े हुए दो प्रमुख ऐतिहासिक स्थान हैं। एक है उनका जन्म स्थान, जो पोरबंदर में है। दूसरा है दांडी, जो अपने नमक सत्याग्रह की वजह से दुनियाभर में जाना गया। दोनों जगहों पर जितना भी है, गाँधीवादियों और दूसरे बुद्धिजीवियों के अथक प्रयासों की बदौलत है। उन स्मृति स्थलों को उनकी पुरानी रौनक लौटाने की जगह, उन स्मृति स्थलों की ऐतिहासिक छाव को छिन्नभिन्न करने की कोशिशे बेतुकी सी ही हैं।
  
यूँ तो भारत में सबसे ज़्यादा प्रताड़ित होता हो, तो वह है इतिहास!!! आलू मटर से भी बुरी तरह छील दिया जाता है इतिहास को यहाँ! और इतिहास में जो तीन प्रमुख विषय सबसे ज़्यादा पीड़ित हुए, उनमें महात्मा गाँधी का भी नाम आता है। उनके बारे में जितने फ़ेक न्यूज़, प्रोपेगेंडा, अफ़वाहें, झूठी कहानियाँ, झूठे दावे हुए, यह कृत्य भी एक प्रकार की विभीषिका ही कह लीजिए। कहानियाँ गढ़ी गईं, पात्र गढ़े गए, पात्र के नाम बदले गए, और भी बहुत कुछ किया गया। जब अभ्यास किया गया तो मालूम हुआ कि लगभग लगभग तमाम कहानियाँ, जो गाँधीजी के बारे में फैलाई गई, झूठी ही थीं! कई शोधकर्ताओं ने जब शोध किया तो पाया कि गाँधीजी के बारे में जितनी विवादित ख़बरें फैलाई गई, उसमें से तक़रीबन तमाम ख़बरें झूठी ही थीं! सन 2000 में गाँधीजी के कार्यों का संशोधित संस्करण विवादों के घेरे में आ गया था, क्योंकि गाँधीजी के अनुयायियों ने सरकार पर राजनीतिक उदेश्यों के लिए परिवर्तन शामिल करने का आरोप लगाया था।
साबरमती आश्रम प्रिज़र्वेशन एंड मेमोरियल ट्रस्ट की चेयरपर्सन इलाबेन भट्ट बीबीसी से बातचीत में कहती हैं कि हम गाँधीवादी मूल्यों को जोखिम में डाल कर कुछ भी नहीं करेंगे, सरकार ने लिखित में आश्वासन दिया है कि इनका सरकारीकरण नहीं होगा, गाँधी आश्रम की पवित्रता, सादगी और गाँधी विचार के तत्व संभाल कर रखे जाएँगे। उधर आश्रम से जुड़े दूसरे लोग कहते हैं कि आश्रम को विश्वस्तरीय स्मारक बनाने की आवश्यकता नहीं है यह पहले से ही विश्वस्तरीय है और लोग इससे प्रेरणा लेते हैं। वे कहते हैं कि लिखित में (सरकार द्वारा) कुछ भी वादा नहीं किया जा रहा है, वे केवल मौखिक रूप से बातें कह रहे हैं, हमें उन पर विश्वास क्यों करना चाहिए? लोग यह पूछते हैं और इसका कोई जवाब नहीं है। गाँधीजी के परपोते तुषार गाँधी भी इसे परेशान करने वाला कारक बताते हैं।
 
इलाबेन भट्ट कहती हैं, "नवनिर्माण के बाद सादगी नहीं रहेगी ऐसा कह नहीं सकते, सरकार को लोगों ने ही चुना है और लोगों तथा सरकार दोनों की ज़िम्मेदारी है कि जो कुछ है उसे उसी स्थिति में रखें।" उसके सामने तुषार गाँधी कहते हैं, "लोगों ने लोकतांत्रिक तरीक़े से ही हिटलर को चुना था, तो क्या उसकी सारी बातों से सहमत हो जाना चाहिए? एक बार सहमति का मतलब हर बार सहमति नहीं होता।" प्रकाश शाह कहते हैं कि, "इलाबेन बात तो अच्छी कह रही हैं, लेकिन ये प्रक्रिया से होना चाहिए।"
 
तुषार गाँधी एक बात बताते हैं कि, "गाँधी स्मारक निधि की स्थापना के समय जो सिद्धांत तैयार किए गए थे, वे स्पष्ट रूप से बताते हैं कि आश्रम या स्मारक के किसी भी काम में सीधे तौर पर सरकार शामिल नहीं होगी। यह भी लिखा था कि सरकार से पैसे मत लो।" वे आगे जानकारी देते हुए कहते हैं, "साथ ही लिखा गया है कि अगर सरकार से पैसा लेना ज़रूरी है, तो सरकार की भूमिका सिर्फ़ पैसे देने तक ही सीमित होनी चाहिए। कोई भी कार्य ट्रस्ट की इच्छा से होना चाहिए। सरकार सिर्फ़ फंड प्रदान करे और बाकी कार्य से अलग रहे।" 
 
वैसे बात तो सही है कि बारह सौ करोड़ रूपये से अधिक के बजट का भव्य आवंटन, एक ऐसे व्यक्ति की जगह के लिए, जो मितव्ययी और सादगी भरे तरीक़े से रहता था। सरदार पटेलजी की मूर्ति का उदाहरण दिया जाता है। यह कहकर कि प्रतिमा की ऊंचाई, वोटरपार्क, बटरफ्लाई पार्क आदि सरदार पटेल से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गए! लोग पूछते हैं कि स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी जाकर लोग सरदार पटेल के बारे में क्या अधिक जान पाए हैं? बस दिन भर की छुट्टी मनाने के लिए ही तो जाते हैं लोग वहाँ!
गाँधीवादी सोच और अंतरराष्ट्रीय स्तर का पर्यटन स्थल, दोनों चीज़ें मेल नहीं खातीं। धूमधाम और व्यावसायीकरण के बीच स्मृति स्थल की स्मृतियाँ खोने की संभावना बेहद ज़्यादा है। मोदीजी भव्यता के प्रति आकर्षित व्यक्ति हैं, गाँधी आश्रम और गाँधीजी, दोनों का इस भव्यता वाले अभिगम से मेल नहीं खाता। गाँधीजी और गाँधीजी का आश्रम, दोनों की विशेषता है - उनका ग़ैरसरकारी होना। इस विशेषता को भी बनाए रखना चाहिए।
 
रही बात गाँधीजी की, गाँधीजी के विचारों की, गाँधीजी की दुनिया पर असर की, आज भी दुनिया में महात्मा गाँधी के सिवा दूसरा कोई इंसान नहीं मिलता, जिसे दुनिया मानवता का प्रतिनिधि मानती हो। दुनिया में वे इकलौते ऐसे इंसान हैं, जिनके नाम पर किसी न किसी देश में कुछ न कुछ मिल जाएगा। उनके नाम से दुनिया में जितनी चीज़ें हैं, किसी और इंसान की फ़िलहाल तो नहीं है। दुनिया का कोई भी राष्ट्राध्यक्ष भारत आए, वो गाँधीजी के साबरमती आश्रम ज़रूर जाता है। गाँधीजी की पहचान, उनका नाम, उनके विचार, उनकी ज़िंदगी भारत की सीमाओं को पार कर दुनिया भर में दशकों से फैली हुई है। उन्हें किसी पहचान की या प्रचार की ज़रूरत है ही नहीं। रही बात साबरमती आश्रम की, हर साल सैकड़ों लोग आते हैं यहाँ। क्योंकि उन्हें यहाँ की सादगी और शांति आकर्षित करती है। भव्यता से दूर यह सादगी और शांति लोगों को दिव्यता के क़रीब ले जाती है।
 
निर्माण का ठेका जिनके पास है वे कहते हैं कि कुछ अल्ट्रा मोर्डन नहीं बनाया जाएगा, सब जस का तस रहेगा। और फिर वे दूसरे दिन ये कहते हुए दिख जाते हैं कि यह निर्माण होगा, वह निर्माण होगा, यह इमारत बनेगी, वह इमारत बनेगी वगैरह वगैरह! ऊपर से सरकार कुछ नहीं कह रही यह भी ग़ज़ब की परियोजना है!
 
इतिहास का संरक्षण बहुत एहतियात से करना पड़ता है। पुराने स्मारकों को चमकाना या नई शक्ल दे डालना दरअसल इतिहास के साथ खिलवाड़ करना है, उसको मिटा देना है, उसकी ऐसी अनुकृति तैयार करना है, जिसमें चमक-दमक और तराश तो हो, लेकिन जान न हो। इतिहास की स्मृतियों को धड़कता और सांस लेता हुआ होना चाहिए। वहाँ पुरानी कराहें सुनाई पड़नी चाहिए। वहाँ जाने से उस कालखंड की आवाज़ हमारी आत्माओं पर पड़नी चाहिए। वहाँ जाकर किसी को समझ में आना चाहिए कि यह इतिहास क्यों दुहराए जाने लायक है, या क्यों दुहराए लायक नहीं है। इतिहास को इतिहास की नज़र से देखना चाहिए और उसी अवस्था में संभाल कर रखना चाहिए, किसी पर्यटन स्थल के रूप में नहीं।
 
हम बार बार लिख चुके हैं हमारी सरकारों के कारनामों पर। यही कि अच्छाई दूसरी किसी अच्छाई को प्रभावित करें ना करें, एक बुराई किसी दूसरी बड़ी बुराई को अवश्य प्रभावित कर जाती है। फिर छगन और मगन वाला चैप्टर चल पड़ता है। मगन कहता है कि छगन ने 100 किलोग्राम के काले कारनामे किए थे, हमने तो 90 किलोग्राम ही किए हैं! उनसे 10 किलोग्राम कम!!! यह इतिहास कभी नहीं बदलता। इसका निगमीकरण ज़रूर होता है। आगे सरकारें इन ऐतिहासिक जगहों और स्मृति स्थलों को लेकर कह देगी कि फलां फलां स्थल ये ये कंपनियाँ संभालेगी! वही पुराना, तेरा बहाना! सरकार सब कुछ नहीं संभाल सकती!!!
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)