बच्चों को शिक्षा देनी चाहिए, आस्था नहीं। किसी
भी धर्म का कोई भी ग्रंथ हो, रचना हो, शिक्षा संस्थान में इन सबको पढ़ाने से बेहतर है संविधान-नागरिकी अधिकार-कर्तव्यों
को लेकर विशेष विषय शुरू कर दिया जाए। जिस देश में ढंग के शिक्षा संस्थान नहीं हैं, पर्याप्त टीचर्स नहीं हैं, वहाँ बच्चों को संकीर्ण
समाज में परिवर्तित करने की घोर दूषित राजशिक्षानीति बंद होनी चाहिए।
जहाँ सार्वजनिक जगहों पर थूकना संस्कृति और संस्कार सरीखा बना हो, जहाँ गालियाँ आम बोल-चाल का हिस्सा हो, जहाँ ट्रैफिक सेंस
नाम की कोई चीज़ बची ना हो, जहाँ सार्वजनिक जीवन
में सभ्यता-संस्कृति-मदद जैसे तत्व लुप्त हो चुके हो, वहाँ बच्चों को आस्था-धर्मग्रंथ-धार्मिक रचना-उपदेश-संस्कार जैसे नारों में झोंकने
से बेहतर है कि उन्हें शिक्षा ही दी जाए, दूसरा कुछ नहीं। शिक्षा
ने ही दुनिया और भारत को वो सब कुछ दिया है, जिसकी बदौलत हम फेफड़े
फुलाते हैं।
सोचिए, स्कूलों में टीचर्स नहीं हैं, किंतु सुबह सुबह गीता-कुरान का ज्ञान लेना
आवश्यक है! जिन ग्रंथों, रचनाओं पर अनेका अनेक विवाद हैं, सवाल हैं, मतभेद हैं, उनमें बच्चों को झोंकने से बेहतर है कि शिक्षा संस्थान वही पढ़ाए-सिखाएँ, जो उन्हें पढ़ाना-सिखाना चाहिए। शिक्षा देंगे तभी वे मतभेदों पर ढंग से समझ पाएँगे, चर्चा कर पाएँगे, वर्ना उन व्हाट्सएपिये समाज की तरह हो जाएँगे, जो अपने विचारों और अपनी समझ को ही दुनिया का अंतिम सत्य मानते और मनवाते हैं।
दिल्ली यूनिवर्सिटी
में मनुस्मृति वाला हालिया विवाद हो, मदरसों या स्कूलों के विवाद हो... लगता है
कि राजनीति ने तय कर लिया है कि शिक्षा और स्वास्थ्य, इन दो ढाँचों को बर्बाद करके ही मानेंगे। इससे आगे का सच यह है कि नागरिकों ने
भी मान लिया है कि इस बर्बादी प्रक्रिया में वे अपना योगदान देंगे! भगवा, लीला, नीला, पीला, सफ़ेद कपड़ा लेकर घूम रहा युवा बिना दूसरे के विचारों-तर्कों-तथ्यों को सुने अब
तो संविधान-अधिकार-कर्तव्यों आदि को हल्के-फुल्के विषय मानने लगा है! कम से कम गुजरात में यह हर इलाक़े में आसानी से दिख जाता है।
इसी साल गुजरात के
सरकारी स्कूलों में गीता का ज्ञान लेना अनिवार्य करने का विवाद हुआ। अरे भाई, वे ग़लत रास्ते पर हैं, तो क्या हम भी उनके पीछे कूट दें अपने जीवन को?
अनेक रिपोर्टों में
दर्ज है कि गुजरात के सैकड़ों सरकारी स्कूलों के बच्चों को ठीक से मिड डे मील नहीं
मिल पाता। जहाँ मिलता है वहाँ स्थिति इतनी बुरी है कि बच्चे बीमार पड़ सकते हैं। आज
भी अनेक सरकारी स्कूलों के बिल्डींग बुरी स्थिति में हैं। अनेक नये बिल्डींग बने हैं, किंतु भ्रष्टाचार ने उन बिल्डिंगों को बचपन में ही बूढ़ा कर दिया है। ऊपर से पर्याप्त
टीचर्स नहीं हैं। जहाँ सब कुछ हैं, वहाँ राजनीति हावी है। सरकारी स्कूलों के
टीचर्स को ग़ैरज़रूरी कार्यक्रमों में लगाना फैशन है यहाँ। सरकारी कार्यक्रमों में
ये टीचर्स व्यस्त रहते हैं। उधर ग़ैरसरकारी स्कूल तो सरेआम लूटतंत्र चला रहे हैं।
लेकिन सरकार कहती है
कि इन बच्चों को अब गीता का ज्ञान अनिवार्य रूप से लेना होगा! बेशक उनके पेट खाली हों, लेकिन सुबह प्रार्थना के समय गीता का ज्ञान लेना होगा! सरकारी स्कूलों में अन्य विषयों को पढ़ाने के लिए टीचर्स नहीं हैं, जो हैं उन्हें सरकारी कार्यक्रमों में लगाया जाता है, इसके बावजूद गुजरात विधानसभा में भगवद् गीता को सरकारी स्कूलों में पाठ्यक्रम
का हिस्सा बनाने का प्रस्ताव फ़रवरी 2024 में पास हो गया था!
गुजरात के शिक्षा मंत्री
प्रफुल्ल पनशेरिया ने इसी साल अहमदाबाद में इस प्रोजेक्ट को लॉन्च किया। इसे नाम दिया
गया - विद्यार्थी जीवन पथदर्शक बंशे श्रीमद्भभगवद्गीता। यानी, श्रीमद्भ भगवद्गीता छात्र जीवन के लिए मार्गदर्शक बनेगी। इस साल की शुरुआत में
7 फ़रवरी को पनशेरिया ने बजट सत्र के दौरान छठी से बारहवीं कक्षा तक भगवद् गीता
को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने के लिए प्रस्ताव पेश किया था। स्वाभाविक है कि प्रस्ताव
बिना विरोध के पारित हो गया।
गुजरात शिक्षा विभाग
के फ़ैसले को लागू करने के लिए अहमदाबाद ज़िला शिक्षा कार्यालय (ग्रामीण) ने वीडियो पाठ तैयार किए। डीईओ अहमदाबाद ग्रामीण कृपा
झा ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि, "ये वीडियो अहमदाबाद
के 600 से अधिक स्कूलों में सुबह की सभा का अनिवार्य हिस्सा होंगे। हर सप्ताह एक श्लोक
या एक वीडियो लिया जाएगा। सभी स्कूलों को इसके लिए सर्कुलर जारी किया जा रहा है। यह
कदम राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 और राज्य सरकार की
पहल के तहत उठाया गया है।"
गुजरात राज्य स्कूल
पाठ्यपुस्तक बोर्ड (जीएसएसटीबी) के निदेशक वीआर गोसाई ने बताया, "शिक्षा विभाग भगवद् गीता को पूरे राज्य में लागू करने के लिए स्कूलों में कक्षा
VI से XII तक गुजराती प्रथम भाषा पाठ्यक्रम के दो अध्याय शामिल किए गए हैं, जबकि ग़ैर गुजराती छात्रों के लिए एक अलग साहित्य तैयार किया गया है।"
गुजरात में लगभग 926 सरकारी प्राथमिक विद्यालय केवल एक शिक्षक के साथ चल रहे हैं। राज्य विधानसभा में
यह जानकारी पिछले साल (2023 में) दी गई थी। राज्य सरकार द्वारा सदन में साझा किए गए आँकड़ों के अनुसार, महिसागर ज़िले में 106 स्कूलों में सिर्फ़ एक-एक शिक्षक है, जबकि कच्छ में 105, तापी में 84, देवभूमि द्वारका में 46, नर्मदा में 45 और खेड़ा जिले में
41 स्कूल हैं, जहाँ ऐसी स्थिति है।
गुजरात सरकार द्वारा
विधानसभा में दी गई जानकारी के मुताबिक़ राज्य भर के विभिन्न अनुदान प्राप्त और सरकार
द्वारा संचालित स्कूलों में 7,906 क्लासरूम जीर्ण-शीर्ण स्थिति में हैं। इनमें से 6,539 सरकार द्वारा संचालित प्राथमिक विद्यालयों में, 574 अनुदान प्राप्त माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में, और 413 अनुदान प्राप्त माध्यमिक विद्यालयों की कक्षाएं हैं।
जुलाई 2024 में दिल्ली यूनिवर्सिटी में मनुस्मृति पढ़ाने को लेकर विवाद हुआ। हालाँकि दिल्ली
यूनिवर्सिटी के एलएलबी छात्रों को 'मनुस्मृति' पढ़ाने के प्रस्ताव
को मंजूरी की ख़बरें सामने आने के बाद, यूनिवर्सिटी के कुलपति योगेश सिंह ने स्पष्ट
किया कि सुझावों को ख़ारिज कर दिया गया है और छात्रों को मनुस्मृति नहीं पढ़ाई जाएगी।
दिल्ली यूनिवर्सिटी
के तमाम शिक्षकों का कहना था कि, "देश में 85 फ़ीसदी आबादी हाशिए पर रहने वालों की है और 50 फ़ीसदी आबादी महिलाओं की है। उनकी प्रगति एक प्रगतिशील शिक्षा प्रणाली और शिक्षण
पर निर्भर करती है। मनुस्मृति में कई धाराओं में महिलाओं की शिक्षा और समान अधिकारों
का विरोध किया गया है। मनुस्मृति के किसी भी खंड या हिस्से का परिचय हमारे संविधान
की मूल संरचना और भारतीय संविधान के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ है।"
सार्वजनिक है कि मनुस्मृति
को लेकर भारत में गंभीर विवाद हैं, गंभीर मतभेद हैं। मनुस्मृति को लेकर तर्कों
और तथ्यों का महाभारत हमारे भारत में दशकों से विद्यमान है। संविधान के प्रमुख निर्माता
बाबा साहेब आंबेडकर ने इसकी प्रतियाँ जलाई थीं।
दरअसल, शिक्षा का अर्थ प्रगतिशील प्रणाली से जुड़ा है। बौद्धिकों ने ही मानव सभ्यता को
वो प्रदान किया है, जिसकी बदौलत हम फेफड़े फाड़ सकते हैं। और
बौद्धिक समाज दशकों से एकमत है कि शिक्षा में सिर्फ़ प्रगतिशील प्रणाली ही होनी चाहिए।
राज्यों और केंद्र में राजनीति अपना अपना वोट बैंक साधने हेतु या फिर अपनी मान्यताओं-कल्पनाओं
को स्थापित करने हेतु शिक्षा नीतियों में, विषयों में, कंटेट में ऊंचनीच करती रहती है, जो बौद्धिक जगत के मुताबिक़ दूषित राजनीति है।
पिछले दिनों महाराष्ट्र
राज्य स्कूल शिक्षा विभाग ने अपने स्कूल पाठ्यक्रम ढाँचे (एससीएफ) को राष्ट्रीय शिक्षा
नीति (एनईपी) के साथ मिलाने के बाद 'भारतीय ज्ञान प्रणाली' (आईकेएस) का एक ड्राफ्ट पेश किया था। आईकेएस ड्राफ्ट के लिए सुझाव और आपत्तियाँ
माँगी गई थीं। इसमें सुझाव दिया गया था कि संतों जैसे धार्मिक व्यक्तित्वों के जीवन
का अध्ययन किया जाना चाहिए और साथ ही भगवद् गीता और मनुस्मृति के श्लोकों का पाठ भी
किया जाना चाहिए।
विरोध होने पर महाराष्ट्र
के शिक्षा मंत्री दीपक केसरकर ने बयान दिया कि राज्य सरकार मनुस्मृति का समर्थन नहीं
करती है और इसे किसी भी छात्र पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया जाएगा। शिक्षा पर राजनीति
का ख़तरा टल गया यह मानने वाले अब दिल्ली यूनिवर्सिटी के चैप्टर से मानने लगे हैं कि
यह ख़तरा टलेगा नहीं, क्योंकि आस्था शिक्षा पर भारी ही पड़ती है।
आस्था अंधविश्वास की जननी है, जबकि शिक्षा प्रगतिशील समाज का सृजन करती है। धर्म, भगवान, धार्मिक ग्रंथो, मान्यताओं, कहानियों की राजनीति करने वाले संसद में बाक़ायदा कह चुके हैं कि राम सेतु होने के कोई प्रमाण नहीं हैं। वे तो यह भी कह चुके हैं कि लव जिहाद जैसी कोई चीज़ नहीं है। आस्था और शिक्षा के संघर्ष का अंतिम नतीजा
यही है कि यह जीडीपी होती क्या है यही नहीं पता तो फिर वह गिर कर टूट जाए तो भी क्या?
जिसको पसंद करते हैं, जिन्हें बिना बौद्धिक चर्चा के सही मानते हैं, वे लोग जो कहेंगे वही करेंगे। आसाराम, रामपाल जैसों को क़ानूनी और संवैधानिक रूप से अपराधी घोषित करने के बाद भी उनके
समर्थक कम थोड़ी न हुए हैं?
केंद्र की मोदी सरकार
नई शिक्षा नीति 2020 लेकर आई और उसने NCERT की किताबों में इतिहास, नागरिक शास्त्र और समाज शास्त्र के स्कूली
पाठ्यक्रम में तमाम बदलाव किए गए। सबसे पहले 1968 में शिक्षा नीति बनी
थी। 1986 में इसे लागू किया गया और 1992 में संशोधित किया गया।
साल 2000 और 2005 में NCERT ने प्राथमिक और माध्यमिक स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम को बदला था। 2009 में राष्ट्रीय मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा क़ानून पास किया गया था। 2017 में यूजीसी ने इंस्टीट्यूट ऑफ़ एमिनेंस नियमन जारी किया था।
साल 2020 में कोविड19 महामारी के बीच कर्णाटक सरकार ने स्कूली किताबों से इतिहास के कई हिस्से हटा दिए
थे। वजह बताई गई थी कि कोविड19 लॉकडाउन के चलते पढ़ाई के लिए जो दिन थे वह कम हो गए हैं। सिलेबस
को 30 फ़ीसदी कम करने की आड़ में विषयों के मूल को मार दिया गया, कई चैप्टर तो पूरे के पूरे हटा दिए गए! और कोविड19 महामारी त्रासदी समाप्त होने के बाद भी विषयों के मूल को मारने का काम लगभग लगभग
जारी ही रहा। सिलेबस घटाने के नाम पर चुन चुन कर कंटेट को हटा दिया गया!
2019 में राजस्थान में
तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने स्कूली पाठ्य पुस्तकों की विषय वस्तु में कुछ बदलाव किये, जिसमें किताबों में सावरकर तो रहे, लेकिन नाम के आगे वीर नहीं रहा, उसे हटा दिया गया। साथ ही सावरकर के उस माफ़ीनामे का भी ज़िक्र शामिल किया गया।
उधर महाराष्ट्र में सावरकर के आगे वीर ही नहीं, बल्कि उनके महिमामंडन का चैप्टर हर सरकार
को रखना पड़ता है। दूसरे राज्यों में वीर हटाया जाता है, कहीं तो सावरकर को भी।
इससे पूर्व जो भाजपा
सरकार थी उसने सावरकर का जो महिमामंडन किया था, उसे नयी कांग्रेस सरकार ने बदल दिया। माफ़ीनामा
शामिल किया, साथ ही सावरकर द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन के विरोध को तथा हिन्दू राष्ट्र की स्थापना
के आह्वानों को भी शामिल किया। किताब में शामिल किया गया कि सावरकर महात्मा गाँधी के
हत्यारे गोडसे की मदद के आरोपी थे, किंतु सबूत नहीं मिले तो दोषमुक्त साबित
हुए। इससे पहले जो बीजेपी सरकार थी उसने एक किताब में जो कंटेट डाला था उसके चलते उस
सरकार पर आरोप यह भी लगे थे कि वे दिनदयाल उपाध्याय को महात्मा गाँधी से भी बड़ा दिखाने
का प्रयास कर रहे हैं।
जहाँ कांग्रेस की सरकारें
होती हैं वहाँ राजनीति के छात्र नोटबंदी की नकारात्मकताओं के बारे में पढ़ते हैं, बीजेपी सरकार आती है तो हकारात्मकता के बारे में! कहीं इंदिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपातकाल एक पंक्ति में ख़त्म हो जाता है, कहीं उसकी ज़्यादतियों को विस्तृत रूप से शामिल किया जाता है।
महाराणा प्रताप और अकबर के बीच की लड़ाई को
राजनैतिक लड़ाई की जगह धार्मिक और आस्था तथा जाति विशेष की लड़ाई में स्कूली किताबों
के ज़रिए बदल दिया जाता है! राजनीति ने शिक्षा और स्कूली किताबों को हथियार बना लिया है। अब तो स्कूली बच्चों
के दिमाग़ में हम और वे का भाव डालने के प्रयास हो रहे हैं। शिक्षा और पाठ्य पुस्तकों
में बदलाव किया जाता है तो विभाजन और घ्रुवीकरण की बू आने लगती है।
राज्य सरकारें अपनी
अपनी राजनीति शिक्षा के ज़रिए साधती नज़र आती हैं। बीजेपी शासित राज्य सरकारों पर तार्किक
आरोप लगते रहे हैं कि वे लोग महात्मा गाँधी, स्वतंत्रता आंदोलन, आंदोलन में शामिल लोगों को लेकर स्कूली किताबों में ऊंच-नीच करते रहते हैं, या फिर उनके अप्रसिद्ध लोगों को प्रसिद्धि दिलाने हेतु कोई न कोई तिकड़म चलाते
हैं। दूसरी तरफ़ कांग्रेस शासित राज्य सरकारों पर भी तार्किक आरोप लगते हैं कि वे नेहरू, इंदिरा, वैश्वीकरण, राष्ट्रीयकरण का महिमामंडन कराते हैं।
आज़ादी के पश्चात हर
राज्यों में प्रगतिशील शिक्षा प्रणाली में राजनीतिक प्रणाली को शामिल कराने के भद्दे
प्रयास मिल जाएँगे। व्यक्तियों, नायकों, ऐतिहासिक किरदार, घटनाएँ, शोध, संसोधन, रचना, गद्य से लेकर पद्य तक, आपको इसके अनेका अनेक ऊदाहरण मिल जाएँगे।
इतिहास को आलू-मटर
की तरह छिल कर बच्चों को पढ़ाना, तर्को-तथ्यों-इतिहास को छिपाना, कम करना, यहाँ तक पहुंचने के बाद राजनीति अपने घर का नया और अपुष्ट इतिहास-तर्क-तथ्यों
को पढ़ाने की दिशा में है! और अब इससे आगे जाकर
धर्म-आस्था-मिथकों-मान्यताओं को मासूम दिमाग़ में ठेलने का शैतानी प्रयास वाक़ई गंभीर
है।
इतिहास, विज्ञान, गणित, राजनीति, तमाम चैप्टर के कंटेट राजनीति अपने हिसाब से बदलती रहे, और फिर उसमें आस्था-मिथकों को मिला दें, तो फिर यह संकीर्ण समाज सृजन नीति सरीखा
है।
शिक्षा नीति शिक्षाविदों
और बौद्धिकों के अधिकार क्षेत्र में ही रहनी चाहिए। कोई भी चैप्टर या उसका कंटेट एकांगी
नहीं हो सकता, उसमें वो सारी सच्चाई आनी चाहिए। सावरकर जेल गए, उन्हें यातनाएं दी गईं, यह भी आना चाहिए, साथ में आप छात्रों से यह भी नहीं छूपा सकते
कि सावरकर ने माफ़ीनामा लिख अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगी थी और भारत छोड़ों आंदोलन का
विरोध किया था। इतिहास के हमारे नायकों की लड़ाईयों, युद्धों को उसी राजनैतिक
द्दष्टिकोण से देखना चाहिए, जिस कोण से वह लड़े गए थे। उसमें धर्म-जाति-संप्रदाय-मिथक-मान्यता
को मिलाने का अपराध नहीं करना चाहिए।
मानव सभ्यता और उसके विकास का इतिहास बेसिक
सेंस, बेहतर होती जाती समझ और एकदूसरे के विचारों-समझ-तर्कों-तथ्यों को सुनने-समझने-मानने
का इतिहास है। और शताब्दियों की इस सफल यात्रा के पीछे प्रथम और प्रमुख स्थान शिक्षा
का है, आस्था का नहीं।
अंग्रेज़ी का विरोध
आस्था से खिन्न दिमाग़ कर सकता है। शिक्षा लेने वाला दिमाग़ सिंपल सी बात समझ सकता
है कि स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय, तमाम भाषाएँ पढ़ना ज़रूरी है। शिक्षा में प्रगति की जगह धार्मिक
कोण डालने का असर देख लीजिए। प्रेमपूर्वक और शांत मन से सीताराम महीं सब जग जाना गाने
वाला समाज अब आक्रोश से दोनों हाथों की मुठ्ठी भींच जय श्री राम का उद्घोष करता है।
2023 के दिसंबर माह की
वो घटना। उन दिनों ग़ाज़ियाबाद की एक स्कूल के छात्र ने अपने डेस्क पर जय श्री राम
कुरेद दिया। लेडी टीचर समझ गई कि स्कूल का ये बच्चा शिक्षा की जगह आस्था की सड़क पर
चल पड़ा है। ज़िक्र नहीं करना चाहिए, किंतु करना पड़ रहा है कि छात्र और वो लेडी
टीचर, दोनों हिन्दू ही थे।
लेडी टीचर ने ग़लती
यह कर दी कि उसने उस बच्चे को समझाने की जगह सख़्त शिक्षा दे दी। लेडी टीचर ने मासूम
दिमाग़ को समझाया नहीं, बल्कि काफ़ी सख़्त शिक्षा का अधिकारी मान लिया। बच्चे ने घर
जाकर अपने माता-पिता को बताया। माता-पिता ने भी बच्चे को समझाया नहीं, या स्कूल संस्थान से सख़्त सज़ा की शिकायत नहीं की, बल्कि वे चले गए बजरंग दल के पास! और फिर संस्थान के बाहर जोरदार विरोध प्रदर्शन, जय श्री राम, सनातन धर्म, सब कुछ हुआ। अंतिम नतीजा यही कि उस लेडी टीचर को स्कूल से निकाल दिया गया।
जय श्री राम या अल्लाह
हू अकबर लिखने के मामले उसे मासूम दिमाग़ को पढ़ाने के मामले तक पहुँच जाएँगे। इसके
बाद धार्मिक मान्यताओं को वैज्ञानिक साबित करने का जो अधकचरा शास्त्र हमने विकसित
किया है, वह वास्तविक प्रयोगों की जगह ले सकता है।
इस धर्म में थोड़ा राष्ट्र-गौरव का मसाला
शामिल कर लें तो न्यूटन-आइंस्टीन पश्चिमी सभ्यता की देन बताए जा सकते हैं। डार्विन
की पढ़ाई बंद की जा सकती है, क्योंकि वह सभ्यता
के विकास की सारी मान्यताओं को पलट देता है। हर नयी शोध तो भारत में शताब्दियों पहले
से ही थी, इन मिथकों को शिक्षा प्रणाली का वैज्ञानिक
इतिहास बताया जा सकता है।
उधर स्वामीनारायण संप्रदाय
वाले, जिनके अनेक शिक्षा संस्थान हैं, अपनी धार्मिक कल्पनाओं को स्कूली शिक्षा
प्रणाली में शामिल किए जा रहे हैं। हिजाब, बुर्क़ा, जीन्स, जैसे विवाद तो निरंतर जारी ही रहते हैं।
पाकिस्तान की जनता
घास-फूस खाएगी, लेकिन न्यूक्लियर बम बनाएँगे, यह पाकिस्तान के शासक ने कहा था। वह देश, जो अपने गठन के समय से ही राष्ट्र को पीछे और धर्म को आगे लेकर चला, उसकी स्थिति घास-फूस खाने की आयी, किंतु न्यूक्लियर बम बनाया ज़रूर! शिक्षा को छोड़ आस्था की जिद वाली संस्कृति का यही परिणाम आता है। जो ज़रूरी
है, वह नहीं करना, किंतु जो ग़ैरज़रूरी है वह नहीं करेंगे तो दुनिया ख़त्म हो
जाएगी, यह सोच नहीं सनक है।
नवम्बर 2023 में पाकिस्तान के ख़ैबर पख़्तूनख्वा के एक पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज के शिक्षक को
डार्विन को पढ़ाने पर माफ़ी माँगनी पड़ी थी। वहाँ डार्विन का वैश्विक और पुख़्ता सत्य
पढ़ाया नहीं जाता।
भारत के स्कूल-कॉलेजों
में भी यह करना बहुत मुश्किल काम नहीं होगा, यदि इसी तरह शिक्षा आस्था के सामने मरती
रही तो। शिक्षकों और छात्र-परिवारों की बहुत बड़ी तादाद है जो ज्ञान-विज्ञान-चिकित्सा
और इतिहास के नाम पर बहुत सारी अवैज्ञानिक क़िस्म की धारणाओं को गले लगाए बैठी है और
एक इशारा मिलते उसे राष्ट्रीय गौरव से जोड़ कर पाठ्यक्रम का हिस्सा बना सकती है।
हमारे यहाँ यूजीसी
ने पिछले सालों में विश्वविद्यालयों के स्नातक स्तरीय पाठ्यक्रम को केंद्रीकृत कर दिया
है। एक ही क़िस्म का पाठ्यक्रम जो यूजीसी बना रही है, सबको लागू करना है। शिक्षा के स्टैंडर्ड की रक्षा के नाम पर यूजीसी ने दाख़िले
और पाठ्यक्रम, दोनों मामलों में भारतीय विश्वविद्यालय की स्वायत्तता लगभग लगभग छीन ली है।
सितंबर 2021 में मध्य प्रदेश के शिक्षा मंत्री मोहन यादव ने जानकारी दी थी कि राज्य में इंजीनियरिंग
के छात्रों के पाठ्यक्रम में रामायण, महाभारत और रामचरितमानस को शामिल किया जाएगा।
फिर तो कोई दूसरी सरकार आएगी तो कुरान, बाइबिल, गुरू ग्रंथ साहिब को शामिल करेगी। फिर क्या? शिक्षा के दौरान स्कूलों-कॉलेजों में तो अलग अलग मुद्दों पर विचार-विमर्श, सवाल उठाना चलता रहता है। धार्मिक ग्रंथ शामिल करने के बाद चर्चा, सवाल, विचार-विमर्श होने पर धार्मिक भावनाएँ आहत
होगी! दूसरा मसला खड़ा होगा। फिर सरकार कहेगी कि विचार-विमर्श को प्रतिबंधित किया जाता
है! है न? यानी, प्रगतिशील शिक्षा में विचार-विमर्श कैंसिल! विश्वगुरू बनने में आसानी होगी इससे!
सितंबर 2021 के दौरान बिहार में जेपी विश्वविद्यालय में स्वंय जेपी, यानी जयप्रकाश नारायण एवं डॉ. राम मनोहर लोहिया के राजनीतिक विचार एवं दर्शन को
समीक्षा के नाम पर निकाल दिया गया! भारी विरोध हुआ तब सरकार ने यू टर्न लिया।
इसी महीने मध्य प्रदेश
में भावी डॉक्टरों को आरएसएस के विचार (विशेष रूप से हेडगेवार और दिनदयाल) पढ़ाए जाने
के फ़ैसले पर रार मच गई। तंज कसा गया कि हेडगेवार और दिनदयाल ही क्यों, पूरा का पूरा सच पढ़ा दिया जाए, ताकि आरएसएस-सावरकर-गोडसे सभी की सच्चाई
सबके सामने आ सकें।
कभी कभी लगता है कि
फ़ेक न्यूज़ को शिक्षा के नाम पर आधिकारिक और पुष्ट इतिहास बनाने की चालाकी की जा रही
हो।
जैसे कि सीबीएसई की
किताबों में भारत-चीन का एक नया-नवेला इतिहास ही सामने आया था। संस्कृत की एक किताब
में बताया गया था कि 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध में भारत ने चीन को हराया था! यह किताब मध्य प्रदेश में सीबीएसई के कई स्कूलों में पढ़ाई जा रही थी। किताब में
बताया गया था कि 1962 की जंग भारत ने जीत ली थी! संस्कृत की किताब
सुकृतिका भाग-3, जो 8वीं के बच्चों को पढ़ाई जा रही थी, में कहा गया था कि 1962 की साइनो-इंडिया जंग में भारत ने चीन का हरा दिया था। यह किताब लखनऊ के कृति प्रकाशन
प्राइवेट लिमिटेड द्वारा प्रकाशित की गई थी, जिसे पाँच लेखकों ने लिखा था। युद्ध की यह
जानकारी किताब के 8वें अध्याय में दी गई थी, जिसका शिर्षक श्री जवाहरलाल नेहरू था।
स्वयं नेहरू
सरकार, उस दौर के सरकारी दस्तावेज़ तथा प्रमाणित इतिहास में इस युद्ध का सच सार्वजनिक
है, जबकि यहाँ कुछ और ही इतिहास पढ़ाया जा रहा था! कभी कहीं पर ये भी पढ़ाया जाता है कि महाराणा प्रताप ने अकबर को जंग में हराया
था! भारत के प्रमुख और श्रेष्ठ इतिहासकार एकमत से मानते हैं कि
राधा, जोधाबाई, पद्मावती जैसे पात्रों से लेकर अनेक दूसरी कहानियाँ मिथक या कल्पनामात्र हैं, जबकि अनेक विवादास्पद हैं। तो फिर इन सब बातों को शिक्षा प्रणाली में शामिल ही
क्यों किया जाए?
दिल्ली यूनिवर्सिटी
में मनुस्मृति का ताज़ा विवाद तो एक झलक भर है, दरअसल राज्यों और केंद्रो की चुनी हुई सरकारों
ने शिक्षा का बेसिक दशकों से मार दिया है। शिक्षा अब केवल व्यापार नहीं रह गया, वह तो संकीर्ण समाज सृजन का राजनीतिक खेल भी हो गया है।
दरअसल, सियासत जानती है कि मासूम सा बालमन तो कोरी स्लेट होता है। उस स्लेट पर जो इबारत
लिख दोगे, वैसी ही भविष्य की इमारत खड़ी होगी। कदाचित इसीलिए राजनीति यह स्लेट अपने हाथ
में लेना चाहती है।
आपका बच्चा 90 प्रतिशत से ज़्यादा मार्कस लेकर आए तब भी उसे और आपको यह कर्तव्य
याद रहना चाहिए कि आपको उनकी भी मार्कशीट देखनी होती है, जिन्हें आप चुन रहे हैं। जो लोग बेरोजगारी से तंग आकर साधु बनते हैं उनसे रोजगार
या किसी दूसरी समस्या के हल की अपेक्षा रखना मूर्खता है यह बेसिक ज्ञान शिक्षा दे सकती
है, कोई ऐसी रचना-सचना नहीं। लक्ष्मी देकर लक्ष्मी की मूर्ति ख़रीदना, फिर उसी लक्ष्मी से लक्ष्मी माँगना, इसे भक्ति नहीं कहते
ये बेसिक सेंस शिक्षा से मिल सकता है, किसी धार्मिक आयोजन
से नहीं। शिक्षा ही वो समझ दे सकती है कि छिपकली पूरी रात कीड़ों को खाती है और फिर
देवता की तस्वीरों के पीछे छुप जाती है।
कौन सा व्रत रखने से क्या होता है यह पता हो उससे बेहतर यह है कि बच्चों और नागरिकों
में यह ज्ञान हो कि अधिकार-कर्तव्य और संविधान की मूल भावना क्या है। बोरवेल से बच्चों
को निकालने वाली टेक्नोलॉजी पर इतराने की जगह बोरवेल को ढक्कन लगाना क्यों भूल गए थे, यह सवाल शिक्षा पैदा कर सकती है। आग भड़काने वाली पीढ़ी नहीं किंतु आग बुझाने
वाली सीढ़ी शहर में होनी चाहिए, और इसका प्लेटफॉर्म
शिक्षा तैयार करती है, आस्था नहीं। शिक्षा से ही सवाल उठता है कि अगर मंदिर-मस्जिद
जाने से समस्याओं का हल मिल जाता तो बाबा-साधु-बुखारी-मौलवी जैसे लोग नेता बन संसद
में काँहे आते?
केवल धर्म, संप्रदाय या जाति ही ख़तरे में नहीं है, दरअसल विज्ञान-भूगोल-इतिहास, सब ख़तरे में है! क्योंकि आस्था हावी है, शिक्षा हार रही है।
एजुकेटेड का अर्थ इंटेलीजेंट होना नहीं रह गया अब, जो दरअसल होना चाहिए। धर्म-उससे संबंधित रचना, आदि घर-मंदिर-मस्जिद-चर्च से मिल जाएँगे, लेकिन दो से ज़्यादा बच्चे हो तो सरकारी नौकरी और सरकारी स्कीम या मदद नहीं मिलेगी
उस पर ख़ुश होने की जगह वह सच शिक्षा ही दिखा सकती है कि नौकरी है ही नहीं, तो बच्चे दो हो या बीस, मिलेगी कहाँ से? और इसीलिए शिक्षा एक प्रणाली होनी चाहिए, किसी का एजेंडा नहीं।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)