2024 लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वह बयान, जिसमें उन्होंने कहा
था कि दुनिया महात्मा गाँधी को जानती नहीं थी, 1982 में उन पर फ़िल्म
बनने के बाद दुनिया ने गाँधीजी को जाना, इस बयान ने संदिग्ध–अपुष्ट-तथ्यहीन और हास्यास्पद भाषण देने के आदती पीएम नरेंद्र मोदी को महाअज्ञानी
भारतीय प्रधानमंत्री के रूप में चिन्हीत ज़रूर किया।
भारत, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश। इस देश ने 1857 से 1947 के बीच अपनी स्वतंत्रता
के लिए एक ऐसी अभूतपूर्व लड़ाई लड़ी, जिसे मानव जाति के श्रेष्ठतम अध्यायों में स्थान मिला हुआ है। इस अवधि के दौरान
अनेक ऐसे आंदोलन, बलिदान, त्याग, घटना, प्रयास दर्ज हैं, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय विवेचक आश्चर्य मानते हैं। इस लड़ाई को सभी ने मिल-जुल
कर लड़ा, अनेक लोगों ने, महिलाएँ-पुरुषों-बच्चों-जवानों-वृद्धों ने अपने जीवन इस लड़ाई में समर्पित किए।
सर्वोच्च बलिदान–त्याग–समर्पण–हिम्मत–ज़िद–आदर्श–चेतना–कूटनीति–राजनीति–नेतृत्व–सार्वजनिक हित–परोपकार–अन्याय के विरुद्ध संघर्ष, समेत अनेक सिद्धांतों और गुणों से लबालब यह संग्राम इतिहास का वह ग्रंथ है, जिसे समूची दुनिया
ने उस कालखंड से ही अभूतपूर्व मान लिया था।
अहिंसा तथा क्रांति के अभूतपूर्व संयोग ने इसे महान स्वतंत्रता संग्राम के रूप
में स्थापित कर दिया। इस महान अध्याय की एक धारा के सूत्रधार मोहनदास करमचंद गाँधी
ने इस संग्राम को 20वीं शताब्दी की शुरुआत से ही भारत की सीमाओं के बाहर तक फैला दिया और भारत की स्वतंत्रता
प्राप्ति से बहुत पहले से ही वे महात्मा गाँधी के नाम से प्रसिद्ध हो गए, जिन्हें 1947 के तुरंत पश्चात ही
दुनिया ने मानवता का प्रतिनिधि मान लिया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत पश्चात इनके निधन के समय सोवियत रूस को छोड़ पूरी
दुनिया से आधिकारिक भाव विह्वल संदेश आए। सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक़ उस समय स्वतंत्र
भारत को विदेशों से संवेदना के 3441 संदेश प्राप्त हुए थे। इतना ही नहीं, अनेक देशों के शासनाध्यक्षों और प्रतिनिधियों ने इनकी शव यात्रा
में हिस्सा लिया। पाकिस्तान समेत दुनिया भर के अनेक अख़बारों और न्यूज़ चैनलों नें
इनके शोक संदेश चलाए और इन्हें श्रद्धांजलि देते हुए एपिसोड प्रसारित किए। इनके नाम
से अनेक देशों में स्मृति स्थल बने, सम्मान देने जाने लगे। 1947 से लेकर 2024 तक भारत का कोई भी प्रधानमंत्री जब विदेश गया तब बाक़ायदा यही कहा गया कि वह महात्मा
गाँधी के देश भारत से आया है।
ऊपर हमने 1857 से 1947 लिखा इस समयावधि के
बारे में कोई टिप्पणी हो इससे पहले स्पष्ट कर देते हैं कि यूँ तो 1857 से पहले ही स्वतंत्रता
प्राप्ति के छिटपुट प्रयास हो चुके थे, किंतु भारतीय स्वतंत्रता संग्राम इतिहास की विवेचना 1857 से ही ज़्यादा ध्यान
देकर की जाती है, क्योंकि यह वह साल था जब इस संग्राम में संगठन तथा सामूहिक और योजनाबद्ध प्रयासों
को स्थान मिला था और यह प्रयास आगे जाकर और ज़्यादा प्रभावी होते चले गए।
2024 लोकसभा चुनाव प्रचार के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह बयान स्पष्ट रूप
से इनकी महा अज्ञानता को उजागर कर गया। पीएम मोदी का महात्मा गाँधी पर ऐसा बयान उनके
भाषणों के स्तर को नहीं बल्कि बतौर एक व्यक्ति उनकी महा अज्ञानता को प्रदर्शित कर गया।
प्रेस वार्ता से सदैव
बचने वाले पीएम मोदी ने बीच चुनाव (मई महीने के अंत में) एबीपी न्यूज़ को एक इंटरव्यू
दिया। इस इंटरव्यू में पीएम ने कहा, "महात्मा गाँधी एक महान आत्मा थे। क्या इस 75 साल में हमारी ज़िम्मेदारी नहीं थी कि पूरी दुनिया महात्मा गाँधी को जाने। माफ़
करना मुझे, कोई नहीं जानता था महात्मा गाँधी को। पहली बार जब गाँधी फ़िल्म बनी तब दुनिया
में क्यूरियोसिटी हुई कि कौन है, क्या है। हमने नहीं किया।"
उन्होंने आगे कहा, "अगर दुनिया मार्टिन
लूथर किंग, नेल्सन मंडेला को जानती है तो गाँधी उनसे कम नहीं थे और आपको यह स्वीकार करना
होगा। मैं दुनिया भर की यात्रा करने के बाद यह कह रहा हूँ कि गाँधी और उनके माध्यम
से भारत को मान्यता मिलनी चाहिए थी।"
यूँ तो पीएम नरेंद्र
मोदी मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस और उसके नायकों व सरकारों को कोसने के चक्कर में ऐसे
ऐसे बयान दे चुके हैं कि जैसे जैसे वक़्त बीतता जा रहा है, स्वयं पीएम मोदी मज़ाक
के अधिकारी बनते जा रहे हैं। नेहरू, पटेल, गाँधी और भगत सिंह के बारे में उनके अनेक पुराने बयान को लेकर मोदीजी के मीम्स
सोशल मीडिया पर मिल जाएँगे। किंतु इस बार पीएम मोदी ने अपने चक्कर को इस कदर घुमा दिया
कि बतौर पीएम मोदीजी का यह भाषण महाअज्ञान की श्रेणी में गिना गया।
बता दें कि रिचर्ड
एटनबरो ने 1982 में फ़िल्म 'गाँधी' बनाई थी। और यह फ़िल्म इसलिए बनी थी, क्योंकि गाँधी 1982 से ही नहीं बल्कि 1947 से पहले ही दुनिया में जाना-पहचाना नाम थे। रिचर्ड एटनबरो ने फ़िल्म गाँधी नामक
उस व्यक्ति को या उनके समर्पित प्रयासों को प्रसिद्ध करने हेतु बिलकुल नहीं बनाई थी, बल्कि इसलिए बनाई
थी, क्योंकि वह व्यक्ति
और उसके समर्पित प्रयास विश्व प्रसिद्ध ही थे तथा दुनिया के अनेक देशों में चिंतन और
प्रेरणा के स्त्रोत माने जाते थे।
पीएम नरेंद्र मोदी
को उस इतिहास का भी पता होना चाहिए कि जिस साल उनका (मोदी का) जन्म हुआ, उसी साल, यानी 1950 में अमेरिकी पत्रकार
लुई फ़िशर की मशहूर किताब 'The Life of
Mahatma Gandhi' का प्रकाशन हुआ था। इसी किताब की धूम पूरी दुनिया में थी। मोदीजी
को जानना चाहिए था कि इसी किताब को पढ़कर ही रिचर्ड एटनबरो गाँधीजी पर फ़िल्म बनाने
को बेचैन हो उठे थे।
एटनबरो ने इस सिलसिले
में 1963 में दिल्ली आकर नेहरू से मुलाक़ात भी की थी। लेकिन अगले साल ही नेहरू की मृत्यु
हो गयी। कुछ कारणों की वजह से एटनबरो ने अपना यह प्रोजेक्ट दोबारा तब परवान चढ़ाया
जब 1980 का साल आया। पीएम नरेंद्र मोदी और एबीपी न्यूज़ के एंकरों को पता होना चाहिए था
कि उस वक़्त एक फ़िल्म और केंद्र सरकार की भूमिका को लेकर विवाद भी हुआ था। इंदिरा
गाँधी ने इसके बावजूद इस प्रोजेक्ट में रुचि ली और फ़िल्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ़
इंडिया (NFDC) से 7 मिलियन डॉलर लोन की व्यवस्था कराई, जो आज के हिसाब से क़रीब 60 करोड़ रुपये होते
हैं। यह फ़िल्म के कुल बजट की एक तिहाई राशि थी। यानी, जिस अज्ञानता को पीएम
मोदी अपने बयान में कह रहे थे उसमें भी गाँधीजी की प्रसिद्धि का कारण कांग्रेस सरकार
ही थी।
वैसे इस आलोचना में
दम है कि गाँधीजी के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए अपेक्षित प्रयास नहीं किया गया।
महज़ करेंसी नोट में गाँधीजी की तस्वीर छाप देने या स्कूली किताबों के आख़िरी पन्ने
में गाँधीजी का जंतर छाप देना काफ़ी नहीं था। न यह देखकर ख़ुश हुआ जा सकता है कि दुनिया
में ज़्यादातर देशों में महात्मा गाँधी की प्रतिमा स्थापित है।
किंतु अपने बयान में पीएम मोदी ने जिस स्तर पर, जिस लहजे के साथ बात कही, वह बात गाँधीजी के बारे में सौ फ़ीसदी ज़रूरी अपेक्षित प्रयास
की कमी पर नहीं, बल्कि उस मुद्दे पर वे ख़ुद ज़्यादा ले गए कि महात्मा गाँधी
को 1982 में उनकी फ़िल्म आने से पहले कोई जानता नहीं था। तब तो पीएम
मोदी को इस बात का भी जवाब देना चाहिए कि गाँधीजी के हत्यारे गोडसे को प्रसिद्धि दिलाने
का काम आरएसएस, बीजेपी और उनसे जुड़े संगठनों के लोग ही क्यों करते हैं? वे क्यों गाँधीजी की प्रसिद्धि की बातें-प्रयास नहीं करते?
महात्मा गाँधी की मृत्यु
के पश्चात उन पर अनेक किताबें, जीवनी, लेख प्रकाशित हुए, अनेक टीवी शो आए, ढेरों डॉक्यूमेंट्री वगैरह बनीं। गाँधीजी को पाँच-पाँच बार नोबेल शांति पुरस्कार
के लिए नामांकित किया गया। 1982 से पहले ही महात्मा गाँधी के नाम पर कई देशों में पुरस्कार तक दिए जाते हैं। एटनबरो
ने दुनिया में जाने-पहचाने और रिसर्च के लिए सबसे बड़े विषय बन चुके महात्मा गाँधी
पर फ़िल्म बनाई थी। और उसी गाँधीजी के देश का प्रधानमंत्री अज़ीबोग़रीब बात कर गया
कि उस फ़िल्म से पहले कोई गाँधीजी को जानता नहीं था!
पीएम मोदी का वह बयान
महा अज्ञानता की श्रेणी में गिना गया। अज्ञानता बुरी बात नहीं है। किंतु बालक बुद्धि
और बैल बुद्धि वाला फ़र्क़ बुरी बात है। बालक बुद्धि शब्द किसी व्यक्ति की अज्ञानता
को दर्शाता ज़रूर है, किंतु उसमें एक भाव यह भी है कि व्यक्ति की बुद्धि बालक जैसी है, किंतु उसमें सुधार
या विकास की संभावना है। जबकि बैल बुद्धि शब्द में भाव यह है कि व्यक्ति की बुद्धि
में सुधार या विकास की संभावना है ही नहीं।
कई चीज़ों के बारे
में महात्मा गाँधी में भी अज्ञानता थी, लेकिन वे अपने क्षेत्र के बारे में अज्ञानी नहीं थे। यह बात गाँधीजी द्वारा पढ़ी
गई और लिखी गई किताबों-लेखों-पत्रों और मिलने वाले लोगों की सूची देखकर समझी जा सकती
है।
अनेक जगहों पर तथ्यों
और उदाहरणों के साथ लिखा गया है कि गाँधीजी फ़िल्में नहीं देखते थे। फ़िल्मों के बारे
में उनकी राय भी बहुत अच्छी नहीं थी। एक तरह से गाँधीजी इस मामले में मार्क्सवादियों
के उस सिद्धांत के क़रीब थे कि कला सिर्फ़ कला या मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि समाज के
लिए भी होनी चाहिए।
महात्मा गाँधी के जीवन
और उनके संघर्षों, त्याग, विवादों पर भारत के बाहर भी अनेक डॉक्यूमेंट्री बनी हैं, शो हैं, एपिसोड बने हैं। गाँधीजी
के बारे में भारत और भारत के बाहर फ़िल्में भी बनी हैं, जिसमें आठ फ़िल्में
अधिक प्रसिद्ध हैं। लेकिन स्वयं गाँधीजी ने अपने जीवन काल में महज़ दो फ़िल्में देखी
थीं। एक फ़िल्म थी रामराज्य (1943) जो विजय भट्ट ने बनाई थी और दूसरी फ़िल्म थी मिशन टू मॉस्को (1943)।
पीएम मोदी अपनी महा
अज्ञानता को उजागर कर गए, जबकि दूसरी तरफ़ स्वयं महात्मा गाँधी की फ़िल्म जगत के बारे में अज्ञानता को लेकर
काफी कुछ लिखा गया है। महात्मा गाँधी फ़िल्मों में उतनी दिलचस्पी नहीं रखते थे, किंतु दूसरी तरफ़
फ़िल्म और संगीत जगत के अनेक दिग्गज गाँधीजी के मुरीद थे।
गाँधीजी जब 1931 में
दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए लंदन गए तो मशहूर फ़िल्मकार और कलाकार चार्ली चैप्लिन
उनसे मिलने को आतुर थे। जब उनकी मेजबान मुरियल लिस्टर ने कहा कि आप से चार्ली चैप्लिन
मिलना चाहते हैं तो गाँधीजी ने पूछा कि यह कौन हैं। गाँधीजी की इस फ़िल्मी अज्ञानता
की चर्चा बहुत सारे संदर्भों में की जाती है, किंतु उसी व्यक्ति के देश के प्रधानमंत्री के तौर पर यह कह
देना कि दुनिया गाँधीजी को जानती नहीं थी, भारत जैसे महान देश के सबसे बड़े संवैधानिक व्यक्ति की अज्ञानता
को दर्शाता है।
किसी भी राजनेता से
यह उम्मीद नहीं की जाती, और ना ही की जानी चाहिए कि वह फ़िल्म और क्रिकेट के बारे में जाने, किंतु इतनी तो उम्मीद
की ही जाती है कि वह अपने देश के इतिहास को, उस इतिहास के नायकों के जीवन, कार्यों और प्रसिद्धि के बारे में जाने। विशेषत: जो व्यक्ति विश्वगुरु वाला दावा
करता है उसे तो इसे नज़दीक़ से जानना चाहिए था।
मान लेते हैं कि एक
राजनेता आख़िरकार राजनेता ही होता है, वह राजपुरूष बन नहीं सकता, किंतु मीडिया को मीडिया तो होना ही चाहिए। एबीपी न्यूज़ के रोमाना ईसार खान, रोहित सावल और सांगे
सुमन जैसे महान एंकरों से इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती थी कि वे जिसका इंटरव्यू लें
उससे प्रकट होने वाले असत्य पर विनम्रतापूर्वक प्रतिवाद करें।
वैसे तो गाँधीजी दक्षिण
अफ़्रीका के सत्याग्रह से ही लोकप्रिय होने लगे थे। 1930 तक गाँधीजी दुनिया
में जाना-पहचाना नाम थे और आख़िरकार इनकी लोकप्रियता का लोहा 1930 से विधिवत रूप से
दुनिया मानने लगी थी।
12 मार्च 1930 की तारीख़। ये दिन भारतीय इतिहास में दांडी कूच के लिए जाना जाता है। एक ऐसा आंदोलन, जिसका ज़िक्र उस ज़माने
में दुनिया भर में होने लगा था। "दांडी कूच" भारत की वो तस्वीर है जो कभी
भुलाई नहीं जा सकती। इसे "नमक सत्याग्रह" भी कहा जाता है।
सौ से भी कम स्वयंसेवकों
के साथ संसार की सबसे ताक़तवर महासत्ता के ख़िलाफ़ एक बूढ़ा आदमी सत्याग्रह करने के
लिए निकलने वाला था। उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि मुठ्ठी भर लोगों के साथ चला यह
आदमी भारत की लाखों-करोड़ों जनता को अभूतपूर्व तरीक़े से एकजुट कर जाएगा। किसी ने कल्पना
नहीं की थी कि इस सत्याग्रह की गुँज भारत की सीमाओं से पार जाकर दुनिया में फैलेगी
और भारतीय इतिहास का अमिट पन्ना बन जाएगी।
दुनिया भर के पत्रकार
इस ऐतिहासिक पल का गवाह बनने सत्याग्रह आश्रम साबरमती पहुंचे थे। मशहूर अमेरिकी पत्रकार
वेब मिलर तक इस पल को कवर करने भारत के लिए निकल चुके थे, हालाँकि वे यातायात
समस्याओं के कारण बहुत देर से भारत पहुंचे पाए थे। बाद में इन्होंने धरसाना नमक सत्याग्रह
की रिपोर्टिंग की थी। वेब मिलर बड़े युद्ध संवाददाता थे, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध
से लेकर दुनिया के तमाम युद्धों को कवर किया था और तमाम राष्ट्राध्यक्षों को इंटरव्यू
किया था।
वेब मिलर के अलावा
लुई फिशर, विलियम शरर, विन्सेंट सीन, मारग्रेट बर्क व्हाइट, एडगर स्नो जैसे मशहूर संवाददाता भी इस मार्च को कवर करने वालों में शामिल थें।
इसी आंदोलन ने आगे जाकर भारत के बाहर मार्टिन लूथर किंग तथा जेम्स बेवल जैसे दिग्गजों
को प्रेरित किया। नोट करें कि मानव जाति के इतिहास में दस सबसे महत्वपूर्ण मार्च में
दांडी मार्च शामिल है।
इन मशहूर पत्रकारों
की रिपोर्ट दुनिया भर में छपने लगी और उन रिपोर्टों और तस्वीरों के प्रकाशित होने के
बाद दुनिया में हंगामा मच गया। गाँधीजी ने इस आंदोलन के ज़रिए दुनिया में भारत की सभ्यता
की श्रेष्ठता और ब्रिटिश साम्राज्य की बर्बरता को प्रक्ट कर दिया। अनेक किताबों और
लेखों में दर्ज है कि इन रिपोर्टों, तस्वीरों और अख़बारों को ब्रिटिश संसद की मेज पर रखा जाने लगा और इसके चलते इंग्लैंड
की आम जनता में अपनी लोकतांत्रिक कहने वाली सरकार के चरित्र पर संदेह किया जाने लगा।
महात्मा गाँधी की लोकप्रियता और उनके नाम का विस्तार दुनिया
के बड़े बड़े देशों, राष्ट्राध्यक्षों, राजनयिकों, राजाओं
और राजकुमारों, पत्रकारों, कलाकारों, बौद्धिकों, चिंतकों
से लेकर आम जनों में फैला हुआ था। नोट करें कि यह उस ज़माने की बात है जब आज के जैसे
संचार-प्रचार-प्रसार माध्यम नहीं थे, इंटरनेट
नहीं था, सोशल मीडिया नहीं था। पीएम मोदी का गाँधीजी पर यह बयान सिर्फ़
मोदीजी की ही महा अज्ञानता नहीं, बल्कि
वे जहाँ से आए हैं उस संस्था आरएसएस की बौद्धिक क्षमता को भी कटघरे में खड़ा करता है।
गाँधीजी की लोकप्रियता
को उस कालखंड से समझा जा सकता है, जब वे दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए युरोप गए। पीएम मोदी और उनके विद्वान सलाहकारों
और इंटरव्यू करने वालों को मुरियल लिस्टर की वह किताब पढ़नी चाहिए जो उन्होंने गाँधीजी
की मेजबानी करते हुए लिखी थी। किताब के हिन्दी संस्करण का नाम है - गाँधी की मेज़बानी।
गाँधीजी लंदन में शाही
मेहमान नहीं बने और लंदन की सामान्य बस्ती में मुरियल लिस्टर के घर पर ठहरे। किंतु
गाँधीजी की लोकप्रियता ने मुरियल को परेशान कर दिया। उनके पास पत्रकारों की सिफ़ारिशें
आती थीं कि इंटरव्यू दिला दीजिए। वे मना करती थीं तो कई पत्रकार फ़र्ज़ी इंटरव्यू
चला देते थे। सुबह जब गाँधीजी घूमने निकलते थे तो उनके साथ घूमने वालों में बूढ़े, बच्चे, औरतें और युवा नागरिक
उमड़ पड़ते थे।
1931 का गाँधीजी का यह दौरा उनकी वैश्विक लोकप्रियता देखने के लिए बहुत महत्वपूर्ण
है। वे रोम भी गए और मुसोलिनी से भी मिले। जब वे मुसोलिनी से मिलकर लौट रहे थे तो
रोम के रेलवे स्टेशन पर खड़े थे। उनको नोबल पुरस्कार विजेता रोमां रोलां की बहन ने
देखा। उनके हवाले से रोमां रोलां ने अपने वर्णन में लिखा है कि वहाँ के लोगों को ऐसा
लग रहा था जैसे ईसा मसीह दुनिया को शांति और प्रेम का संदेश देने आए थे वैसे ही यह
व्यक्ति युरोप को आगामी युद्ध से बचाने आया है।
गाँधीजी रोमां रोलां
से मिलने स्विटजरलैंड गए और उनके घर पर ठहरे। रोमां रोलां विकलांग थे लेकिन गाँधीजी
के स्वागत के लिए भाव विह्वल थे। उन्होंने गाँधीजी को सिम्फोनी का संगीत सुनाया और
गाँधीजी के जाने के बाद लिखा कि वह मेरी नींदे चुरा कर ले गया है। रामकृष्ण परमहंस
और विवेकानंद की जीवनी लिखने वाले रोमां रोलां ने गाँधीजी की भी जीवनी लिखी है।
गाँधीजी और रोमां रोलां
के बीच हुए पत्र व्यवहार को देखकर कोई भी जान सकता है कि युरोप के बौद्धिक जगत में
गाँधीजी का कितना प्रभाव था। लेकिन स्विटजरलैंड के लोगों को जब पता चला कि गाँधी
यहाँ आ रहे हैं तो तमाम नाटककारों, फ़िल्मकारों, कहानीकारों, कवियों ने आसपास किराए पर कमरे ले लिए। वे गाँधीजी के चरित्र को देखना चाहते थे और उन्हें अपनी कृतियों में बसाना चाहते
थे। वहाँ भी गाँधीजी के घूमने के समय लोग उनके साथ हो लेते थे और उनसे सवाल पूछना चाहते
थे और अपनी जिज्ञासा शांत करना चाहते थे। स्विटजरलैंड का राजकुमार भी उनका मित्र
हो गया और वह चाहता था कि गाँधीजी युद्ध विरोधी अभियान में उसकी मदद करें।
स्विटजरलैंड के राजकुमार
और यूरोप के अनेक लोगों ने गाँधीजी से आग्रह किया कि युरोप पर युद्ध (दूसरे विश्वयुद्ध)
के बादल मंडरा रहे हैं, आप उसे रोकने के लिए यहाँ रुक जाइए। गाँधीजी का जवाब था कि मैं धरती के एक हिस्से
पर अपना प्रयोग कर रहा हूँ, अगर वह सफल हो गया तो मैं यहाँ भी उसे दोहराने आऊँगा।
गाँधीजी के महत्व पर
चर्चा करते हुए एक बार दक्षिण अफ़्रीका के शासक जनरल स्मट्स और विन्सटन चर्चिल उलझ
गए। चर्चिल गाँधीजी के प्रति अवमानना जनक रवैया रखते थे और उन्हें अधनंगा फकीर कहते
थे। स्मट्स ने कहा कि आप उस व्यक्ति को समझ नहीं पा रहे हैं, वह ईसा मसीह के संदेश
को ही आगे बढ़ा रहा है। इस पर चर्चिल ने कहा कि शायद आप को नहीं मालूम कि मैंने ईसाई
धर्म के लिए कितना किया है।
गाँधीजी को चाहने वाले
लोग सात समुंदर पार तो थे ही, एशिया और अफ़्रीका में भी ख़ूब थे। मिस्र और ईरान में उनकी प्रशंसा में कविता लिखने वाले कवि थे, जापान में उनके चाहने
वाले बौद्ध गुरु फूजी गुरुजी थे, जो उनके लिए तीन प्रतीकात्मक बंदर लेकर आए थे।
गाँधीजी की विदेशों में लोकप्रियता के इस आलम के बीच नोट यह
भी करना चाहिए कि वह लोकप्रियता, वह
भीड़, वह लोग, वह
कतारें ख़रीदी हुई, बुलाई गई हो ऐसी नहीं थी। वह किसी एजेंसी द्वारा फ़र्ज़ी तरीक़े
से गढ़ी गई हो, प्रचार और प्रसार माध्यमों से हक़ीक़त से अति विशाल दिखाई गई
हो, पैसे देकर भाड़े पर लाई गई हो, ऐसी नहीं थी।
ऊपर लिखा वैसे मशहूर
पत्रकार और युद्ध संवाददाता वेब मिलर, लुई फिशर, मार्गरेट बर्क व्हाइट, विलियम शरर, विन्सेंट सीन जैसे बड़े पत्रकारों की लंबी सूची है जो गाँधीजी को कवर करने के
लिए एक देश से दूसरे देश पहुँच जाया करते थे। रोमां रोलां के अलावा लियो टॉलस्टॉय जैसे
बड़े बड़े नाम भी महात्मा गाँधी से मिलते थे।
नोट करें कि गाँधीजी पर सबसे पहली किताब सन 1909 में रेवरेंड डोके
द्वारा लिखी गई थी। और वह किताब भारत से नहीं बल्कि भारत से दूर दक्षिण अफ़्रीका से
लिखी गई थी। क्या बिना गाँधीजी को जाने विदेश का कोई लेखक उनकी जीवनी उनके
भारत-आगमन से सालों पहले लिख सकता था?
फ़िल्म ही नहीं बल्कि
नरेंद्र मोदी के पैदा होने से पहले ही गाँधी विश्वप्रसिद्ध हो चुके थे। पीएम मोदी
का जन्म हुआ उसके भी लगभग बीस साल पहले अमेरिका की मशहूर टाइम मैगज़ीन ने 'टाइम पर्सन ऑफ़ द इयर' चुनते हुए महात्मा
गाँधी की तस्वीर अपने कवर पेज पर छापी थी। वह साल 1930 का था। नोट करें कि पूरी दुनिया को अपनी शख़्सियत से प्रभावित करने वाले व्यक्ति को यह
सम्मान दिया जाता है। साथ में नोट यह भी करें कि महात्मा गाँधी अकेले भारतीय हैं जिन्हें
यह सम्मान हासिल हुआ है। क्या बिना गाँधी को जाने टाइम मैगज़ीन यह सम्मान दे सकता था?
नरेंद्र मोदी को ज्ञान होना चाहिए कि गाँधीजी की दाँडी कूच, जिसे नमक सत्याग्रह
भी कहा जाता है, को मानव जाति के इतिहास में दस सबसे महत्वपूर्ण मार्च में शामिल किया जा चुका
है। इससे भी 20 साल पहले से ही गाँधी का नाम भारत के बाहर फैला था।
नरेंद्र मोदी को उस
इतिहास का भी पता होना चाहिए कि जिस साल उनका (मोदी का) जन्म हुआ, उसी साल, यानी 1950 में अमेरिकी पत्रकार
लुई फ़िशर की मशहूर किताब 'The Life of
Mahatma Gandhi' का प्रकाशन हुआ था। इसी किताब की धूम पूरी दुनिया में थी। मोदीजी
को जानना चाहिए था कि इसी किताब को पढ़कर ही रिचर्ड एटनबरो गाँधीजी पर फ़िल्म बनाने
को बेचैन हो उठे थे।
भारत, स्वर्णिम भारत, सांस्कृतिक इतिहास
का जनक भारत, सनातनी भारत, हिन्दू एकता जैसे शब्दों के आसपास नागरिकों को रखकर उन्हें जाति और संस्कृति में
बाँट कर सत्ता की राजनीति करने वाले आरएसएस और बीजेपी का भारत देश को आभारी होना चाहिए, जिसकी चौखट से ऐसी
प्रतिभा जन्मी, जिसने कहा कि सन् 1982 में बन कर आई रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म 'गाँधी' से पहले उनको दुनिया जानती ही नहीं थी। दूसरी प्रतिभा ने कुछ वर्षों पहले कहा
था कि गाँधी एक चतुर बनिया थे।
अमित शाह ने महात्मा
गाँधी पर जो टिप्पणी की थी उसमें उनकी दुर्भावना थी और उसका स्तर बीस और तीस के दशक
में की जाने वाली कम्युनिस्टों की आलोचना के समकक्ष ही था, लेकिन प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने जो टिप्पणी है वह उनकी महा अज्ञानता है।
मेक इन इंडिया, मेड इन इंडिया, इंडिया शाइनिंग या
आत्मनिर्भर, स्वनिर्भर जैसे कमज़ोर प्रदर्शन करने वाले हालिया नारों के सामने आज से 100 साल से भी पहले ही, वर्ष 1917 में, गाँधीजी ने चरखे नामक
साधारण यंत्र को ब्रितानी हुकूमत के ख़िलाफ़ भारत के सूक्ष्म राजनीतिक साधन के रूप
में सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया, जिसने उस समय दुनिया की महासत्ता को नाकों चने चबवा दिए थे। वह गाँधीजी ही थे, जिन्होंने भारत और
भारत के बाहर चरखे को द व्हील ऑफ़ फॉर्च्यून बना दिया।
1917 का वह वर्ष चंपारण सत्याग्रह, साबरमती आश्रम और चरखा क्रांति का वर्ष था। गाँधीजी ने चरखे को एक ऐसा राजनीतिक
और सामाजिक हथियार बनाया, जिसकी बदौलत ब्रितानी साम्राज्य, ब्रितानी उद्योग व्यवस्था और ब्रितानी राजसत्ता ही नहीं बल्कि भारत का ग्रामोद्योग, भारत के ग़रीब परिवारों
की आय सृजन शक्ति, भारतीय समाज का तानाबाना, सब कुछ हिलाकर रख दिया। 1917 में दुनिया के अख़बारों और पत्रिकाओं ने लिखा कि गाँधी ने इस चरखे से खादी के
केवल सूत ही नहीं काते, बल्कि उन्होंने भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक रुई भी उधेड़ दी है।
बिना मिले ही दुनिया के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन गाँधी
के मुरीद थे। उनका कथन आज भी इतिहास में दर्ज है कि, "आने
वाली पीढ़ियाँ मुश्किल से ही यह विश्वास कर पाएगी कि हांड़-मांस से बना ऐसा कोई व्यक्ति
भी कभी धरती पर आया था।" प्रोफेसर सुधीर चंद्र ने गाँधीजी को "एक असंभव संभावना"
बताया है।
गाँधीजी की लोकप्रियता
का ही आलम था जब उन्होंने 1932 में कम्युनल अवॉर्ड के विरुद्ध यरवदा जेल से अनशन किया तो भारत ही नहीं पूरी दुनिया
में बवाल कट गया। एक ओर सवर्ण हिंदुओं ने उनकी जान बचाने के मंदिरों के द्वार अछूतों
के लिए खोल दिए तो दूसरी ओर रैमसे मैकडोनाल्ड की सरकार पर दबाव बना कि वे गाँधीजी से
कोई न कोई समझौता करें। इसकी झलक आप प्यारेलाल की पुस्तक 'The Epic Fast'
में देख सकते हैं। कई इतिहासकारों का कहना है कि छुआछूत और जाति
व्यवस्था पर उतना कठोर हमला भारतीय इतिहास में शायद किसी ने नहीं किया था।
दुनिया का हर बड़ा
पत्रकार गाँधीजी से मिलना चाहता था, उनका इंटरव्यू करना चाहता था। पीएम मोदी को जवाब देना चाहिए कि जेल की ऊँची चाहर
दीवारी के भीतर से ऐसा प्रभाव दुनिया में कौन पैदा कर सकता था? जिसे दुनिया नहीं
जानती थी वह ऐसा प्रभाव पैदा कर सकता था?
लुई फिशर ने तो वर्धा
में गाँधीजी के साथ ही रहकर 'The Life of
Mahatma Gandhi' नामक पुस्तक लिखी थी। शायद ही इंटरव्यू लेने वालों और देने
वालों को यह बात मालूम हो कि रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म 'गाँधी' उसी पर बनी थी। अगर
इंटरव्यू लेने वाले और देने वाले इतना नहीं जानते तो दीनानाथ गोपाल तेंदुलकर द्वारा
लिखी गई आठ खंडों में महात्मा की जीवनी के बारे में क्या जानते होंगे?
विलियम शरर ने गाँधीजी
पर एक किताब लिखी है जिसका नाम है - Gandhi:
A Memoir। इसमें उन्होंने आंदोलनों के दौरान गाँधीजी को काम करते हुए
देखा और दिखाया है। वे बताते हैं कि किस तरह गाँधीजी से मिलने के लिए रात के समय भी
रेलवे स्टेशनों पर तांता लगा रहता था और लोग उन्हें जगाकर उनसे मिलते थे।
इसके सालों बाद जब
भारत स्वतंत्र हुआ और साथ ही दंगों में घिर गया तब काफी मशक्कत के बाद विलियम शरर गाँधीजी
को मिल पाए। गाँधीजी से विलियम शरर की मुलाक़ात के बाद विन्सेंट सीन ने 'Lead, Kindly Light: Gandhi and the Way to Peace' नामक किताब लिखी। विलियम शरर ने विन्सेंट सीन के साथ बातचीत के दौरान कहा कि यह
व्यक्ति जिस तरह दंगों को शांत कराने के लिए घूम रहा है, वह भय–डर–घृणा से बहुत परे हैं, उसे अपनी मृत्यु की
भी चिंता नहीं है।
और यह सच भी था, क्योंकि आज झेड या
झेड प्लस सिक्योरिटी के साथ घूम रहे और ख़ुद को क़रीब क़रीब भगवान बता रहे पीएम मोदी
समेत तमाम नेताओं के सामने महात्मा गाँधी स्वयं को आम इंसान बताकर उस भयानक दंगों और
मार-काट के बीच भी बिना सुरक्षा के, बिना किसी भय या डर के आम लोगों के बीच ले जाते थे।
महात्मा गाँधी का आख़िरी
इंटरव्यू लेने वाला कोई विदेशी व्यक्ति था तो वह मार्गरेट बर्क व्हाइट थी। उस इंटरव्यू
में गाँधीजी ने कहा था कि अगर परमाणु बम गिरने लगे तो मैं सीना तानकर खड़ा हो जाऊँगा
और बमवर्षक विमान के पायलट को दिखाऊँगा कि देख लो तुम्हारे प्रति मेरे मन में कोई द्वेष
नहीं है। मार्गरेट बर्क व्हाइट युद्ध संवाददाता थीं और लाइफ़ मैगज़ीन की फ़ोटोग्राफर
थीं। इन्हीं की फ़ोटो और रिपोर्टों के आधार पर गाँधीजी दो बार लाइफ़ मैगज़ीन के कवर
पर आए।
टॉलस्टॉय ने गाँधीजी
को जो पत्र लिखा था वह 'लेटर टू ए हिंदू' के नाम से मशहूर है। नेल्सन मंडेला और मार्टिन लूथर किंग तो गाँधीजी को अपना आदर्श
मानते ही थे और उनसे प्रेरणा लेकर उन्होंने रंगभेद को मिटाया।
गाँधीजी की लोकप्रियता
किसी फ़िल्म की मोहताज नहीं थी और न ही कम पढ़े लिखे आज के राजनेताओं की पैरोकारी की।
इस मामले में वे बेताज बादशाह थे। गाँधीजी के सचिव महादेवभाई देसाई और फिर प्यारेलालजी
उन चिट्ठियों को देखकर हैरान और परेशान रहते थे, जो गाँधीजी के नाम से आती थीं। गाँधीजी जब 1936 में सेवाग्राम गए
तो उन्हें चाहने वाले उन्हें पत्र लिखने लगे। लेकिन वह जगह वर्धा शहर से थोड़ी दूर
थी और वहाँ डाकघर नहीं था। महादेवभाई देसाई उनके पत्रों के बोरों को इक्के पर लाद कर
सेवाग्राम तक लाते थे। बाद में अंग्रेज़ों ने गाँधीजी के लिए सेवाग्राम में डाकघर खुलवाया
और फिर आश्रम में टेलीफोन लाइन लगवाई।
उनकी लोकप्रियता आमजन
के उन पत्रों से प्रमाणित होती है जिन पर पते नहीं लिखे होते थे। किसी पत्र पर पते
की जगह गाँधीजी का चित्र बना होता था, तो किसी पत्र पर पते के स्थान पर लिखा होता था - महात्मा गाँधी, जहाँ कहीं भी
हों। यह पत्र पूरी दुनिया से आते थे। और कोशिश करके गाँधीजी और उनके सहयोगी उनका जवाब
देते थे।
यह स्पष्ट है कि आधुनिक
भारत की राजनीति में, सार्वजनिक जीवन में, सामाजिक जीवन में सत्य और अहिंसा का समावेश उन्होंने ही किया। पर अगर ऐसा उन्हें
कहा जाता तो वे तुरंत कह देते कि यह तो उतनी ही पुरानी चीज़ है जितने पर्वत और पहाड़।
2024 के
लोकसभा चुनाव प्रचार के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ुद को ख़ुद ही नॉन बायोलॉजिकल
बता दिया था! यानी कि मोदीजी ने कह दिया कि अप्पून ही भगवान है! उधर वे जिस व्यक्ति को अंजाना
नाम बता रहे थे उन्हें तो भारत ही नहीं बल्कि यूरोप और एशिया के अनेक देशों के लोग, विद्वान या लेखक ईश्वर के प्रतिनिधि और कभी कभी ईश्वर के साथ
एक पंक्ति में रखकर पेश करते थे। इन सारी स्थितियों को बावजूद गाँधीजी कभी 'मैं मैं' नहीं
करते थे। न ही वे यह कहते थे कि मैंने यह किया और मैंने वह किया।
आम जनता की भावना तो
ठीक है, टॉलस्टॉय ने गाँधीजी के अफ़्रीका संघर्ष की तुलना ईसा मसीह से कर दी थी और रोम्याँ
रोलाँ ने उन्हें कृष्ण का अवतार कह दिया था। गाँधीजी के बारे में विलियम शरर का एक
बयान बहुत मौजूं है। उन्होंने लिखा है कि,
"बुद्ध, ईसा मसीह, सुकरात और गाँधी की विशेषता यह है कि वे बड़े से बड़ा काम सहज रूप से कर लेते
थे और अपने को उस काम को संपन्न करने के निमित्त महान नहीं मानते थे। लेकिन उनकी कमी
यह है कि वे सोचते थे कि जो काम वे कर सकते हैं वे कोई साधारण मानव भी कर सकता है।
यानी वे अपने को साधारण मानव ही मानते थे।"
महात्मा गाँधी एक प्रसिद्ध शख़्सियत के रूप में ही 1915 में भारत लौटे थे
यह लिखे तो यह सच के आसपास ही होगा। यही वजह थी कि बंबई
(अब मुंबई) में उनका स्वागत करने वाली विशिष्टजनों की सभा में फ़ीरोज़शाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले
और बाल गंगाधर तिलक के अलावा मो. अली जिन्ना भी थे। तब 45 साल के हो चले गाँधीजी
की शोहरत का आलम ये था कि भारत लौटने के कुछ समय बाद ही उन्हें ब्रिटिश सरकार ने 'कैसर-ए-हिंद' की उपाधि दी थी। उसे
डर था कि गाँधीजी दक्षिण अफ़्रीका की तरह भारत में भी कोई प्रयोग न शुरू कर दें इसलिए
सम्मान का यह दाँव फेंका गया था।
जिन नेल्सन मंडेला
और मार्टिन लूथर किंग जूनियर का हवाला नरेंद्र मोदी ने अपने उलाहने में दिया, वे भी दरअसल महात्मा
गाँधी को भी अपना पथ प्रदर्शक मानते थे। अमेरिका में अश्वेतों के अधिकारों के लिए संघर्ष
करते हुए 1964 में शहीद हो जाने वाले मार्टिन लूथर ने तो महात्मा गाँधी की वजह से अपनी भारत
यात्रा को तीर्थयात्रा क़रार दिया था। वे जूते उतार कर राजघाट में महात्मा गाँधी की
समाधि पर फूल चढ़ाने पहुँचे थे।
वहीं 27 साल तक जेल में रहने
वाले नेल्सन मंडेला को तो दक्षिण अफ़्रीका का गाँधी ही कहा जाता है। 1994 में जब मंडेला को
नोबेल पुरस्कार मिला तो उन्होंने इसका पूरा श्रेय महात्मा गाँधी को दिया था। उन्होंने
कहा था, "भारत गाँधी को जन्म देने वाला देश है, दक्षिण अफ़्रीका उनका गोद लिया देश है!"
महात्मा गाँधी के निधन
पर जो हज़ारों आधिकारिक संदेश भारत को मिले, उसमें अमेरीकी संयुक्त राज्यों के राज्य-सचिव जनरल जार्ज मार्शल का संदेश भी था, जिसमें वे बताते हैं
कि, "महात्मा गाँधी सारी
मानव-जाति की अंतरात्मा के प्रवक्ता थे।"
महात्मा गाँधी की हत्या हुई तब सोवियत रूस को छोड़ पूरी दुनिया
से आधिकारिक भाव विह्वल संदेश आए थे। सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक़ भारत को विदेशों से
संवेदना के 3441 संदेश प्राप्त हुए थे। अनेक देशों के शासनाध्यक्ष और प्रतिनिधियों
ने महात्मा गाँधी की शव यात्रा में हिस्सा लिया था। पाकिस्तान समैत दुनिया भर के अख़बारों
और न्यूज़ चैनलों ने महात्मा गाँधी पर शोक संदेश चलाए थे और उन्हें श्रद्धांजलि देते
हुए एपिसोड प्रसारित किए थे। पीएम मोदी से एबीपी न्यूज़ के एंकर को पूछना चाहिए था
कि क्या दुनिया ने बिना गाँधीजी को जाने ये सब किया था?
महात्मा गाँधी की शहादत
की ख़बर मिलने के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने शोक में अपना झंडा झुका दिया था। यह सब
गाँधी फ़िल्म रिलीज़ होने के 34 सालों पहले हो रहा था। एबीपी न्यूज़ के एंकर की यह ज़िम्मेदारी थी कि उन्हें पीएम
मोदी से पूछना चाहिए था कि इतना सब कुछ बिना गाँधीजी को जाने हो रहा था?
महात्मा गाँधी 1910 के बाद से ही दुनिया
में छाने लगे थे और 1925 आते आते दुनिया में जाना-पहचाना नाम बन गए थे। यह वही गाँधी थे जिन्होंने दुनिया
के सबसे ताक़तवर साम्राज्य को उसीकी ज़मीन पर जाकर चुनौती दी थी। वह शख़्स, जिसकी एक बाइट के
लिए दुनिया का मीडिया उतावला रहता था, जिनका इंटरव्यू लेने दुनिया के बड़े बड़े पत्रकार लगे रहते थे। वह व्यक्ति, जिसकी दांडी कूच, सविनय अवज्ञा आंदोलन, चरखा क्रांति, भारत छोड़ो आंदोलन
जैसे अनेक लोकोपयोगी आंदोलनों और कार्यों को दुनिया ने सलाम किया।
गाँधीजी को 1937 और 1948 के बीच प्रतिष्ठित
नोबेल शांति पुरस्कार के लिए पाँच बार नामांकित किया गया था। वे अपनी मृत्यु से पहले
टाइम और लाइफ़ मैगज़ीन जैसी अति प्रसिद्ध पत्रिकाओं के मुख्य पृष्ठ पर आ चुके थे।
ऊपर लिखा वैसे गाँधीजी
पर पहली किताब, उनकी जीवनी 1909 में लिखी गई थी, दक्षिण अफ़्रीका में। गाँधीजी उसके छह साल बाद भारत लौटे थे। तब तक वे भारत ही
नहीं, दक्षिण अफ़्रीका समेत अनेक देशों में जाने जा चुके थे। आज की भाषा में कहे तो
सेलेब्रिटी बन चुके थे।
हमें भूलना नहीं चाहिए
कि जिस आइंस्टाइन, रोमां रोलां, लियो टॉलस्टॉय, मार्टिन लूथर किंग की बातें हम करते हैं, वे सभी उस ज़माने में उस गाँधीजी की अभूतपूर्व शब्दों में प्रशंसा कर रहे थे जब
एटनबरो को फ़िल्म गाँधी का विचार भी पैदा नहीं हुआ था।
एकमात्र नाम, जिसे दुनिया समूची इंसानियत का प्रतीक मानती है-मानवता का प्रतिनिधि मानती है।
वह महात्मा गाँधी, जिसे मार्टिन लूथर किंग-जेम्स बेवल-नेल्सन मंडेला-आंग सान सू की जैसे अनेक दिग्गजों
ने अपना आदर्श माना। वह गाँधी, जिसे हिटलर-मुसोलिनी जैसे तानाशाह भी जानते थे। वह इंसान, जिसकी एक झलक देखने
के लिए वे जिस भी देश में जाते वहाँ लोगों का तांता लगा रहता था।
वह गाँधी, जिसे दुनियाभर के अनेका अनेक लोग प्रेरणा, चिंतन, संशोधन, नैतिक ताक़त, सत्य के लिए ज़िद, आदर्शवाद, आश्चर्य का एक यादगार
ग्रंथ सरीखा मानते हैं, जिसका चिंतन और नाम भारतीय सीमाओं को लाँधते हुए संसार में फैला, जिसका जीवन दुनिया
ने संदेश माना। वह एकमात्र व्यक्ति जिसका उल्लेख दुनिया के अनेक देशों के भीतर लेखों
में, पुस्तकों में, सबसे अधिक मिलता है। वह इंसान जिसके नाम पर दुनिया में कई सड़कें, कई चौराहे, गलियाँ या जगहें हैं, उसे 1982 में फ़िल्म आने के
बाद दुनिया ने जाना?! पीएम मोदी का यह बयान
उनकी महा अज्ञानता का सबसे बड़ा प्रतीक है।
आरएसएस और नरेंद्र मोदी, यह उन दोनों की कमनसीबी है कि वे लोग ना गाँधीजी के बारे में सही समझ विकसित कर
पाए हैं, और ना गोडसे के बारे में! यह हमारे वर्तमान नेतृत्व का निम्न स्तर है, जिसमें एक यह कहता
है कि गाँधी एक चतुर बनिया था तो दूसरा कहता है कि गाँधी फ़िल्म बनने से पहले गाँधीजी
को दुनिया में कोई जानता ही नहीं था। यह स्थिति हास्यास्पद है कि वे लोग देश को महान
और विश्वगुरु बनाने निकले हैं, जो न तो विश्व के बारे में जानते हैं और न ही अपने गुरुओं के बारे में!
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
Social Plugin