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Ganga Yamuna Water Report: जो पानी नहाने लायक नहीं उसे विश्वगुरु देश के लोग पी रहे हैं!


"आपने 50 करोड़ लोगों को प्रदूषित सीवेज के पानी में नहाने पर मजबूर किया" - उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की यह सख़्त टिप्पणी हर उस भारतीय नागरिक की चिंता बढ़ाती है जो संकीर्ण और भावुक राष्ट्रवाद की जगह शुद्ध देशभक्ति को धारण करके स्वतंत्रता के तमाम महानायकों का आदर करते हुए अपने भारत देश के प्रति समर्पित हैं।
 
"अभी ये रिपोर्ट देने की ज़रूरत नहीं थी, यह आस्था का मामला है, विज्ञान प्रमाण माँगता है लेकिन आस्था और विश्वास को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती" - प्रसिद्ध कथावाचक मोरारी बापू की यह टिप्पणी देश के महानायक भगत सिंह, देश के नक़्शे के सूत्रधार सरदार पटेल, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी समेत स्वतंत्रता के उन तमाम महानायकों के सपने और सर्वोच्च बलिदानों के विरुद्ध जाकर देश को ग़लत दिशा देने का कृत्य है।
 
"प्रयागराज में पानी की गुणवत्ता डुबकी लगाने और आचमन (पवित्र जल पीने की रस्म) करने, दोनों के लिए उपयुक्त हैं" उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की यह टिप्पणी असमतोल है। राज्यों तथा भारत संघ को जिन संस्थाओं के वैज्ञानिक और तथ्यात्मक निष्कर्षों को मानना चाहिए वह संकीर्ण समाज सृजन नीति पर चल रहे हैं।
 
गंगा और यमुना नदी के पानी पर सीपीसीबी की रिपोर्ट, पर्यावरण- पानी- पेयजल- नदियाँ और प्रदूषण का अतिमहत्वपूर्ण मसला, रिपोर्ट पर गंभीरता से चर्चा करने की जगह मोरारी बापू जैसे धार्मिक प्रतिनिधि की ग़ैरज़रूरी और विषय से भ्रमित करने वाली टिप्पणी, उस राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा कोरी बयानबाजी। यह सब दर्शाता है कि नदियों की सफाई करने से पहले अति संकीर्णता की सफाई ज़रूरी है।
 
गंगा यमुना नदियों के पानी पर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की रिपोर्ट तथा नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की सख़्त टिप्पणी तथा उस अतिमहत्वपूर्ण मसले पर धर्म और आस्था की छत्री फैलाकर ख़ुद को विश्वगुरु मान बैठे व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के मूर्ख विद्यार्थियों तथा उन मूर्ख विद्यार्थियों को पीछे से बल देने वाली टिप्पणियाँ कर रहे धार्मिक और राजनीतिक प्रतिनिधियों के ग़ैरज़रूरी बोल-वचन का यह घटनाक्रम दर्शाता है कि सिर्फ़ इतिहास, विज्ञान, अर्थतंत्र पर ही नहीं बल्कि पर्यावरण जैसे महत्वपूर्ण मसलों पर भी अब भारत उन कट्टर और धर्मांध देशों की तरह सोचने लगा है।
बता दें कि एनजीटी, यानी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल भारत की पर्यावरणीय अदालत है, जिसकी स्थापना 18 अक्टूबर 2010 को एनजीटी अधिनियम 2010 के तहत बहु-विषयक मुद्दों वाले किसी भी पर्यावरणीय विवाद से निपटने के लिए एक विशेष निकाय के रूप में की गई थी। इसका गठन राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलीय प्राधिकरण के स्थान पर किया गया था। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 से भी प्रेरणा लेता है जो भारत के नागरिकों को एक स्वस्थ वातावरण प्रदान करने का आश्वासन देता है।
 
ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के बाद भारत एक विशेष पर्यावरणीय अदालत स्थापित करने वाला दुनिया का तीसरा देश है, और ऐसा करने वाला पहला विकासशील देश भी है। बात शुरू करने से पहले याद रखें कि बीजेपी की सरकारें हो या कांग्रेस की या किसी और की, तमाम ने भारत की नदियों को प्रदूषित होने से मुक्त रखने के निर्देशों को ज़्यादातर दरकिनार किया है।

 
2017 में पर्यावरणीय मामलों पर तत्कालीन मोदी सरकार की धीमी गति से नाराज़ होकर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था, "रिपोर्ट को आज यहाँ होना चाहिए था। केंद्र सरकार कुंभकर्ण की तरह व्यवहार कर रही है। काफी समय दिया जा चुका है। आप 'रिप वैन विंकल' जैसे ही हैं।" रिप वैन विंकल 19वीं सदी की एक मशहुर कहानी का कामचोर किरदार था।
 
उसी साल सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को कहा था, "ऐसे तो युगों तक गंगा साफ नहीं हो सकती।" अदालत ने सख़्त लहज़े में पूछा था, "आप एक ऐसी जगह बता दीजिए जहाँ गंगा की सफाई हो पायी हो।"
 
2025 के इस महीने में जिस रिपोर्ट की चर्चा हो रही है उसकी बात करें तो, उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में चल रहे महाकुंभ में पवित्र डुबकी लगाने के लिए जहाँ बेफ़िक्र भीड़ उत्सुक है, वहीं केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की इस रिपोर्ट ने गंभीर चिंता जताई है। और हर बार की तरह भारत और उसके नागरिक इस चिंता पर चितिंत होना नहीं चाहते!
16 फ़रवरी 2025 को एनजीटी की प्रधान पीठ ने उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) को फटकार लगाते हुए कड़ी टिप्पणी की। पीठ ने कहा, "आपने 50 करोड़ लोगों को प्रदूषित सीवेज के पानी में स्नान करने पर मजबूर किया, जो पानी नहाने लायक नहीं था, और लोगों को वह पानी पीना पड़ा।"
 
जस्टिस प्रकाश श्रीवास्तव की अध्यक्षता वाली पीठ ने व्यापक रिपोर्ट प्रस्तुत करने में विफल रहने के लिए यूपीपीसीबी की भी आलोचना की। पीठ ने कहा, "ऐसा लगता है कि आप किसी प्रकार के दबाव में हैं।"
 
एनजीटी बेंच ने आगे सवाल किया, "मेले की शुरुआत से पहले नदी में प्रदूषण को दूर करने के लिए कोई महत्वपूर्ण कार्रवाई क्यों नहीं की गई? यह स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था कि सीवेज सीधे नदियों में बह रहा था।"
 

एनजीटी ने सीपीसीबी द्वारा 3 फ़रवरी 2025 को दाखिल एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा, "दो सप्ताह बीत चुके हैं और यूपीपीसीबी द्वारा कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। यह बहुत गंभीर है।"
 
सीपीसीबी की रिपोर्ट के अनुसार, 12 जनवरी और उसके बाद 23 जनवरी 2025 को किए गए निरीक्षणों के दौरान कई निगरानी स्थलों पर पानी की गुणवत्ता घटिया पाई गई। डेटा में श्रृंगवेरपुर घाट, लॉर्ड कर्जन ब्रिज, शास्त्री ब्रिज, नागवासुकी मंदिर पांटून ब्रिज, संगम, देहा घाट और पुराने नैनी ब्रिज के पास गंगा और यमुना के संगम जैसे महत्वपूर्ण स्थलों से प्राप्त रीडिंग शामिल थीं।
रिपोर्ट में कहा गया कि, "विशेष रूप से पवित्र स्नान के दिनों में, 19 जनवरी को लॉर्ड कर्जन ब्रिज सहित कई स्थानों पर जैव रासायनिक ऑक्सीजन मांग (बीओडी) का स्तर 3 मिलीग्राम (एमजी) प्रति लीटर के सामान्य मानक से अधिक पाया गया।" उच्च बीओडी प्रदूषण के उच्च स्तर को इंगित करता है, क्योंकि सूक्ष्मजीवों को पानी में कार्बनिक कचरे को विघटित करने के लिए अधिक ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है।
 
रिपोर्ट में फेकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया के अत्यधिक उच्च स्तर के बारे में एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर भी प्रकाश डाला गया, जो मुख्य रूप से मानव और पशु मल से आते हैं। इन बैक्टीरिया की उपस्थिति से संकेत मिलता है कि पानी सीवेज से दूषित है, जिससे टाइफाइड, डायरिया, हैजा, गैस्ट्रोएंटेराइटिस, पेचिश जैसी जलजनित बीमारियों के फैलने की संभावना है।
 
सीपीसीबी की रिपोर्ट ने संकेत दिया कि कई स्थानों पर नदी का पानी प्राथमिक जल गुणवत्ता मानकों के अनुसार नहाने के लिए उपयुक्त नहीं था। रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि महाकुंभ में स्नान करने वाली बड़ी भीड़ के दौरान फेकल कोलीफॉर्म की भारी उपस्थिति थी।
 
डाउन टू अर्थ (डीटीई) द्वारा हाल ही में किए गए आकलन से पता चला है कि भले ही वर्तमान सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) की क्षमता चालू है, फिर भी लगभग 53 मिलियन लीटर प्रतिदिन (एमएलडी) अनुपचारित सीवेज सीधे गंगा में बहाया जा रहा है।

16 फ़रवरी 2025 को एनजीटी की सुनवाई के दौरान सीपीसीबी के वकील ने अदालत को सूचित किया कि, "सभी 10 एसटीपी अपनी क्षमता से कहीं अधिक सीवेज प्राप्त कर रहे हैं, जिससे प्रभावी उपचार असंभव हो रहा है, जिसके परिणामस्वरूप अनुपचारित सीवेज सीधे गंगा में बह रहा है।"
डीटीई के आकलन के दौरान पाया गया कि कई स्थानों पर नालों से अनुपचारित कचरा जल सीधे गंगा में बह रहा था। जबकि कुछ नालों को टैप करके उपचारित किया जा रहा था, लेकिन उपचार प्रक्रिया या तो आंशिक थी या अप्रभावी थी।
 
गंगा के पास के गाँवों में एसटीपी आउटलेट से उपचारित पानी को नदी में छोड़ा जा रहा था, जहाँ स्थानीय लोग इसका इस्तेमाल सिंचाई और धार्मिक उद्देश्यों के लिए करते थे। नीवाव गाँव के पास कोडरा एसटीपी आउटलेट की जाँच से इसकी पुष्टि का दावा किया गया। इसके अलावा प्रयागराज में 10 एसटीपी में से एक, पोंग घाट एसटीपी, बुनियादी उपचार मानकों को भी पूरा करने में विफल रहा। यह सुविधा गंगा के संगम से ठीक पहले स्थित है।
 
एनजीटी बेंच ने सवाल उठाया कि, "एसटीपी के लिए 2019 में निर्धारित कड़े उपचार मानकों को क्यों लागू नहीं किया गया?" हालाँकि यूपीपीसीबी की ओर से कोई जवाब नहीं दिया गया।
 
सनातन, इसके इतिहास के मूल तक पहुँचे तो सनातन का मूल ही प्रकृति और प्रकृति की पूजा है। सनातन समाज प्रकृति को पूजने वाला समाज था यह ऐतिहासिक रूप से स्थापित सत्य है। और आज उसी मूल को कुछ धार्मिक प्रतिनिधि अपनी संकीर्ण सोच और धर्मांध वचनों के बल पर बर्फ़ की सिल्लियों के नीचे छिपाने का प्रयास कर रहे हैं! दरअसल, रिपोर्ट की ज़रूरत थी, किंतु मोरारी बापू जैसे धार्मिक प्रतिनिधि को इस संवेदनशील और महत्वपूर्ण रिपोर्ट पर टिप्पणी देने की ज़रूरत नहीं थी।
 
मोरारी बापू ने इससे पहले कोविड19 के दौरान भी फ़ेक न्यूज़ कैटेगरी की टिप्पणी कर दी थी। मोरारी बापू ने उन दिनों यह टिप्पणी प्रयागराज से ही की थी। 4 मार्च 2020 के दिन प्रयागराज में कथावाचन करते समय इन्होंने कहा था, "चीन का कोई सामान टिकाऊ नहीं होता, इसलिए कोरोना वायरस से डरने की ज़रूरत नहीं। यह बीमारी भी बहुत दिनों तक नहीं टिक सकती।"
मोरारी बापू का जिस विषय से दूर दूर तक लेना-देना नहीं था उस विषय में महामारी के दौरान समाज को ऐसा ज्ञान दे दिया था। फिर इस बीमारी ने भारत समेत दुनिया का क्या हाल किया था यह सार्वजनिक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन, तमाम वैज्ञानिक, तमाम रिसर्च, नतीजे, आँकड़े चीख चीख कर बता रहे थे कि सावधान रहिए, जबकि मोरारी बापू ने व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी के भाँति बयान दे दिया था।
 
धोर राजनीति करने वाले नेता तो समाज को बरगलाते ही हैं, किंतु धार्मिक प्रतिनिधि भी बिना किसी उस विषय की जानकारी के कुछ भी कह देते हैं! उन्हें समझना चाहिए कि ऐसी रिपोर्ट सिर्फ़ डुबकी लगाने वालों के लिए ही चिंता प्रकट नहीं करती। उस इलाक़े के आस-पास जो लोग बसते हैं, खेती-किसानी या दूसरी जीवनयापन प्रवृत्तियाँ करते हैं, वहाँ से पैदा होकर जो अनाज-सब्ज़ियाँ दूर दूर तक पहुँचते हैं, यह उन सभी के लिए हैं। ये सिर्फ़ कुंभ मेले के लिए थोड़ी है?
 

मोरारी बापू या श्री श्री रविशंकर सरीखे दिग्गज धार्मिक प्रतिनिधि क्यों भूल जाते हैं कि इसी गंगा नदी को स्वच्छ रखने के महायज्ञ में हाल ही के वर्षों में स्वामी सानंद (प्रोफ़ेसर जीडी अग्रवाल), स्वामी निगमानंद, स्वामी गोकुलानंद सरीखे धार्मिक प्रतिनिधि आमरण अनशन और जल त्याग के रास्ते पर चलते हुए अपना जीवन त्याग चुके हैं।
 
कुछ ही साल पहले पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर हुए कार्यक्रम को श्री श्री रविशंकर महाराज ने इस तरह आयोजित किया कि अंत में यमुना का किनारा बुरी तरह से प्रदूषित हो गया था! 2016 में दिल्ली में यमुना किनारे आर्ट ऑफ़ लिविंग ने, जिसके संचालक श्री श्री रविशंकर हैं, पर्यावरणीय विषय को लेकर एक कार्यक्रम आयोजित किया था। इस कार्यक्रम में तामझाम वाली तैयारियाँ कुछ ऐसी हुई कि इसने यमुना किनारे को नुक़सान पहुँचाना शुरू कर दिया!
 
एनजीटी के ध्यान पर यह मामला लाया गया। पता चला कि आयोजन के लिए इस्तेमाल की जा रही अनेक चीज़ें पर्यावरण के नियमों के ख़िलाफ़ थी, यमुना किनारे के लिए नुक़सानदेह थी। एनजीटी ने आयोजक को इससे अवगत कराया और निर्देश दिए।
श्री श्री रविशंकर की संस्था ने इन निर्देशों को अनदेखा दिया! जाँच-पड़ताल की गई और आख़िरकार एनजीटी ने उनकी संस्था पर 5 करोड़ का जुर्माना लगाया और आदेश दिया कि यह राशि कार्यक्रम शुरू होने से पहले अदा की जाए। यह राशि यमुना को हो रहे नुक़सान के भरपाई कामकाज को लेकर निर्धारित की गई थी।
 
बदले में श्री श्री रविशंकर ने एनजीटी के लिए विवादित बयान दिया, साथ ही जुर्माना भरने से इनकार कर दिया! श्री श्री रविशंकर के इस धोर ग़ैरज़िम्मेदार व्यवहार ने विवाद जगा दिया। एनजीटी ने रविशंकर के ख़िलाफ़ अवमानना नोटिस जारी किया और रविशंकर को फटकार लगाई। अंत में रविशंकर ने जुर्माना भरने की हामी भरी, लेकिन इसके लिए कुछ समय की माँग की।
 
बाद में वहाँ वह कार्यक्रम हुआ। फिर दिनों तक यह रिपोर्ट प्रकाशित होते रहे कि आर्ट ऑफ़ लिविंग ने नियमों के तहत कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद यमुना किनारे की सफाई तक नहीं की, नदी के किनारे को नुक़सान पहुँचा रही कई चीज़ें वहाँ छोड़ दी गईं!
 
बाद में एनजीटी ने अपनी तरफ़ से रिपोर्ट पेश की जिसमें लिखा गया कि, "जगह की जैव विविधता हमेशा के लिए ख़त्म हो गई है। सबसे ज़्यादा नुक़सान उसी मंच ने पहुँचाया जो रविशंकर के लिए बनाया गया था।" रिपोर्ट के मुताबिक़ डीएनडी फ्लाईओवर से लेकर बारापुला के बीच जितने इलाक़े का इस्तेमाल किया गया था वो बुरी तरह से प्रभावित हुआ था। बाढ़ से बचने के लिए डाली गई मिट्टी की व्यवस्था ख़त्म हो चुकी थी। मंच तथा अन्य जगहों पर ढाँचा या व्यवस्था खड़ी करने के लिए अलग अलग प्रकार की सामग्रियों का ज़मीन में उपयोग किया था, जिस वजह से ज़मीन सख़्त हो गई।
 
अप्रैल 2017 में जलसंसाधन मंत्रालय के विशेषज्ञों ने एक रिपोर्ट एनजीटी की सौंपी। रिपोर्ट में बताया गया कि, "इस सांस्कृतिक कार्यक्रम से जो नुक़सान पहुँचा है उसे ठीक करने में 13.29 करोड़ का ख़र्च आएगा।"
गंगा-यमुना नदी के पानी पर जो हालिया रिपोर्ट है उसे इन धार्मिक प्रतिनिधियों को गंभीरता से लेना चाहिए था। जो लोग अपनी दैनिक ज़रूरतों के लिए नदियों पर निर्भर हैं उनके प्रति चिंताएँ भी तो इस रिपोर्ट में शामिल हैं। दरअसल रिपोर्टें आती रहती हैं। उसे कौन देखता-पढ़ता या जानता है भला? मोरारी बापू की समझ जो भी हो, दरअसल यह रिपोर्ट सही समय पर सामने आई है।
 
कोविड19 के दौरान नदियों में लाशों को बहाने पर भी ख़ूब चिंताएँ जताई गई थीं। गंगा या दूसरी नदियों में लाशें मिलने की यह कोई प्रथम घटना नहीं थी, किंतु स्वतंत्र भारत में इस कदर सैकड़ों लाशें नदियों में तैरती दिखाई दे, 50-100 की तादाद में लाशों का जमघट घाट-घाट पर नज़र आने लगे और आँकड़ा 2000 के पार चला जाए, क्योंकि अंतिम संस्कार के लिए साधन नहीं थे, क्योंकि सामाजिक और धार्मिक मान्यताएँ हावी थी, क्योंकि कोविड को लेकर तरह तरह की भ्राँति थी, क्योंकि सरकार जागरूकता और जानकारी पहुँचाने में विफल रही थी, यह एकमात्र और पहली घटना ज़रूर थी।

 
किंतु तब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन सब चिंताओं, तथ्यों, रिपोर्टों, तस्वीरें, वीडियो तमाम सच को दरकिनार हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी को लेकर कहा था कि उनका तथा उनकी सरकार का कोविड19 के दौरान काम बहुत ही सुंदर था। जबकि सच तो बिलकुल उलट था।
 
एनजीटी ने प्रयागराज में गंगा-यमुना नदियों में फेकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया (Faecal Coliform Bacteria) का लेवल बढ़ने पर चिंता जताई है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) ने 3 फ़रवरी को एक रिपोर्ट पेश की, जिसमें महाकुंभ मेले के दौरान इस बैक्टीरिया के स्तर में बढ़ोतरी के संकेत मिले। ख़ासतौर पर संगम के पास दोनों नदियों में कई जगह पर इस बैक्टीरिया का लेवल बढ़ा पाया गया। शाही स्नान के दिनों में यह बढ़ोतरी ज़्यादा देखने को मिली।
 
यूँ तो आधुनिक हो चुके इंडिया के लोग ख़ुद को भारत का नागरिक बताते हैं। इतना पढ़ने-लिखने के बाद भी ये नागरिक ना सायबर-डिजिटल सिक्योरिटी को लेकर चिंतित हैं, ना डाटा प्रोटेक्शन को लेकर, ना प्राइवेसी को लेकर, ना पर्यावरण को लेकर, ना महंगाई-सहंगाई को लेकर! जीडीपी क्या होती है वही पता नहीं तो वह गिरकर टूट जाए तो भी क्या? फेकल कोलीफॉर्म कौन सा कीड़ा है पता नहीं तो वह बढ़ भी जाए तो क्या फ़र्क़ पड़ता है?
फेकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया क्लेबसिएला, ई. कोली, एंटरोबैक्टर कोली, एंटरोबैक्टर क्लोके, सेरेशिया और सिट्रोबैक्टर होते हैं। ये आमतौर पर आंतों में पाए जाते हैं और इसलिए इंसान और जानवरों के मल में होते हैं। इन्हें आमतौर पर पानी में संभावित संदूषण के संकेतक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि उनकी मौजूदगी से पता चलता है कि पानी में हानिकारक रोगाणु भी हो सकते हैं।
 
सीएसई (सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट) रिपोर्ट में स्पष्ट किया गया है कि यद्यपि कोलीफॉर्म बैक्टीरिया स्वयं बीमारी का कारण नहीं है, लेकिन यह पानी के नमूनों में बैक्टीरिया, वायरस या प्रोटोजोआ जैसे मल मूल के रोगजनक जीवों की उपस्थिति का संकेत देता है। सीएसई रिपोर्ट के अनुसार सीवेज में मल पदार्थ मात्रा की निगरानी कोलीफॉर्म काउंट द्वारा की जाती है, जो जल गुणवत्ता का एक मापदंड और रोगाणुओं का सूचक है।
 
जल की गुणवत्ता के आकलन में अक्सर फेकल कोलीफॉर्म का परीक्षण किया जाता है, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि पानी पीने, तैराकी या अन्य मनोरंजक गतिविधियों के लिए सुरक्षित है या नहीं।
 
विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक शोधपत्र के अनुसार पेयजल में फेकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया के कारण जल का संदूषण हैजा, टाइफाइड, पेचिश, हेपेटाइटिस, गियार्डियासिस, गिनी कृमि और सिस्टोसोमियासिस जैसी महत्वपूर्ण संक्रामक और परजीवी बीमारियों के फैलने में ज़िम्मेदार पाया गया है।
 
लल्नटॉप ने दिल्ली के वेलनैस क्लीनिक और स्लीप सेंटर के पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. विकास मित्तल के हवाले से बताया है कि दूषित पानी में इन बैक्टीरिया की मौजूदगी हो सकती है। जब आप ऐसा पानी पीते हैं, या ऐसा पानी आपकी आँखों या मुँह पर लगता है, जिसमें यह बैक्टीरिया हो तो फेकल बैक्टीरिया आपके शरीर में पहुँच सकता है। अगर कोई व्यक्ति साफ-सफाई का ध्यान नहीं रखता और उसकी खाने-पीने की चीज़ों में यह बैक्टीरिया पहुँच जाए, तो स्वास्थ्य संबंधी जोखिम बढ़ जाता है।
डॉ. मित्तल के अनुसार अगर फेकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया शरीर में चला जाता है, तो इससे डायरिया और यूरिनरी इन्फेक्शन हो सकते हैं। इसके अलावा सेप्सिस जैसा सीरियस इन्फेक्शन भी हो सकता है। अगर शरीर के अंदर फेकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया का प्रभाव बढ़ता है, तो इससे मौत भी हो सकती है।
 
शहरी विकास मंत्रालय द्वारा गठित 2004 की एक समिति ने सिफ़ारिश की थी कि फेकल कोलीफॉर्म की वांछनीय सीमा 500 एमपीएन/100 एमएल होनी चाहिए, तथा कहा था कि नदी में प्रवाहित करने के लिए अधिकतम स्वीकार्य सीमा 2,500 एमपीएन/100 एमएल होनी चाहिए।

 
केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के सीपीसीबी ने गंगा और यमुना के किनारे विभिन्न स्थानों पर जल की गुणवत्ता पर अपने महाकुंभ 2025 डैशबोर्ड में यह भी कहा है कि जल में फेकल कोलीफॉर्म की मात्रा 2,500 एमपीएन/100 एमएल से कम या उसके बराबर होनी चाहिए।
 
4 फ़रवरी को फेकल कोलीफॉर्म पर अंतिम रिकॉर्ड किए गए आँकड़ों में सीपीसीबी ने शास्त्री ब्रिज से पहले गंगा में इसका स्तर 11,000 एमपीएन/100 मिली और संगम पर 7,900 एमपीएन/100 मिली बताया था। गंगा नदी पर बना शास्त्री ब्रिज संगम स्थल से लगभग 2 किमी आगे है। संगम पर गंगा के साथ संगम से पहले यमुना में पुराने नैनी पुल के पास यह रीडिंग 4,900 एमपीएन/100 एमएल थी।
 
बताए गए यह आँकड़े बसंत पंचमी के एक दिन बाद दर्ज किए गए थे, जो शाही स्नान के दिनों में से एक है। इस साल बसंत पंचमी 3 फ़रवरी को थी।
इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक़ सीपीसीबी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि प्रयागराज में गंगा फेकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया से दूषित है। पानी की क्वालिटी बिगड़ने से प्रयागराज की नदियों का पानी नहाने लायक नहीं है। फेकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया इंसान और जानवरों के मल में होता है और सीवेज के ज़रिए पानी में मिल जाता है। इससे पानी की क्वॉलिटी ख़राब हो जाती है।
 
इंडिया टुडे की इस रिपोर्ट में नई दिल्ली के सर गंगा राम अस्पताल में आंतरिक चिकित्सा विभाग के वरिष्ठ परामर्शदाता डॉ. अतुल कक्कड़ ने कहा है, "स्वच्छता और तैयारी का स्तर अपेक्षित स्तर का नहीं है, और हमारे मल से बैक्टीरिया पानी में प्रवेश कर रहे हैं"। डॉ. काकर ने कहा, "इसलिए यह पीने या नहाने के लिए भी सुरक्षित नहीं है। रिपोर्ट में यही संकेत दिया गया है।"
 
डॉ. अतुल कक्कड़ ने समाचार एजेंसी पीटीआई को बताया, "जब भी संक्रमित पानी होता है, तो इससे विभिन्न जलजनित बीमारियाँ हो सकती हैं, जिनमें त्वचा रोग, दस्त, उल्टी, टाइफाइड और हैजा जैसी बीमारियाँ शामिल हैं।"
 
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक़ सीपीसीबी ने जो रिपोर्ट दी है कि उसमें नदी के दूषित होने का मुख्य कारण सीवेज पानी का ट्रीटमेंट न होना है।
 
सीपीसीबी की रिपोर्ट बताती है कि महाकुंभ मेले के दौरान फेकल कोलीफॉर्म का स्तर प्रति 100 मिलीलीटर में 2,500 यूनिट की सेफ लिमिट से कहीं ज़्यादा है, जिससे नदी में जाने वालों के स्वास्थ्य के लिए यह नदी ख़तरनाक हो गई है। आसपास के इलाक़ों से सीवेज का पानी निकलने से हालात और भी बदतर हो गए हैं।
 
समझ नहीं आता कि आख़िरकार प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड जैसी संस्थाएँ या एनजीटी जैसी पर्यावरण संबंधित अदालत है क्यों? समझ नहीं आता कि आख़िरकार इस देश में वैज्ञानिक संशोधन, शोध, पर्यावरण सुरक्षा आदि के लिए पढ़ाया ही क्यों जाता है? जबकि इनके तथ्यात्मक निष्कर्षों को स्वीकारना और समझना ही नहीं है।
दुनिया भर में जो प्रणाली, पद्धति मान्य है उसीके मुताबिक़ काम करने के बाद जो सत्य सामने आता है, जो जोखिम बताया जाता है उसे सिर्फ़ और सिर्फ़ धर्मांधता और संकीर्णता का दायरा बढ़ाने हेतु संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्तिओं द्वारा झुठलाना ही है, नज़रअंदाज़ करते रहना है, तो फिर यह विशाल और विकसित भारत देश को धर्मांध और संकीर्ण राष्ट्र बनाने का आयोजन सरीखा है।
 
मोरारी बापू तो ख़ैर सिर्फ़ कथावाचक हैं, जिनका यूँ तो विज्ञान, जाँच, तथ्य, सत्य, प्रणाली, पद्धति जैसे तत्वों से लेना-देना नहीं है। किंतु राज्य के मुख्यमंत्री सरीखे संवैधानिक शख़्स का तो इन सबसे प्रत्यक्ष संबंध होता है, किंतु रहा नहीं!
 
सीपीसीबी की रिपोर्ट और एनजीटी की संवैधानिक और अदालती कार्रवाई के बाद भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आश्वासन देते दिखे कि प्रयागराज में पानी की गुणवत्ता डुबकी लगाने और आचमन (पवित्र जल पीने की रस्म) करने दोनों के लिए उपयुक्त है।
 

आदित्यनाथ ने कहा, "फेकल कोलीफॉर्म बढ़ने के कई कारण हो सकते हैं, जैसे सीवेज लीकेज और पशु कचरा, लेकिन प्रयागराज में फेकल कोलीफॉर्म की मात्रा मानकों के अनुसार 2,500 एमपीएन प्रति 100 मिलीलीटर से कम है। इसका मतलब है कि झूठा अभियान केवल महाकुंभ को बदनाम करने के लिए है। एनजीटी ने भी कहा है कि फेकल कचरा 2000 प्रति 100 मिलीलीटर से कम था।"
 
हर व्यावहारिक तथ्यों को, चिंता को, सत्य को इसी व्हाट्एसएप यूनिवर्सिटी की कार्यशैली पर ही झुठलाया जा रहा है कि यह बदनाम करने का प्रयास है! भारत की किसी संस्था, व्यवस्था, सरकार, सरकारी योजना, कथित भ्रष्टाचार, उद्योगपति, उनके कारनामे, किसी भी मामले पर कोई भी रिपोर्ट आती है तब भारत को बदनाम करने का प्रयास! आधार पर सवाल उठाए जाए तो वह आधार योजना को बदनाम करने की योजना! पर्यावरण जैसे संवेदनशील मसले पर सच्चाई सामने आए तो वह कुंभ मेले को बदनाम करने का प्रयास!
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जो दावा किया उसके साथ उन्होंने जो आधार सामने रखा है, रिपोर्ट और अदालती कार्रवाई इससे उलट है! उन्होंने तो बस दावा कर दिया है! जबकि सीपीसीबी की रिपोर्ट जाँच-तथ्य-परिणाम के आधार पर कहती है कि नदी के पानी की गुणवत्ता बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) के मामले में नहाने के लिए तय किए गए मानदंडों के अनुरूप नहीं है, साथ ही यह फेकल कोलीफॉर्म (एफसी) के मामले में नहाने के लिए तय किए गए प्राथमिक जल गुणवत्ता के अनुरूप भी नहीं है।
 
इसे सीधी भाषा में समझने की कोशिश करे तो अमेरिका स्थित जल अनुसंधान कार्यक्रम, नोयोरएच2ओ का कहना है कि अनुपचारित मल पदार्थ जल में अतिरिक्त कार्बनिक पदार्थ जोड़ता है, जो सड़ता है, जिससे जल में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है।
 
नई दिल्ली स्थित विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि, "जलाशयों की सतह पर इस तरह का जीवाणु संदूषण, इसके पुनः उपयोग में स्वास्थ्य के लिए ख़तरा पैदा करता है, चाहे वह सुरक्षित पेयजल सहित विभिन्न घरेलू प्रयोजनों के लिए हो। साथ ही इससे उन किसानों को भी ख़तरा होता है जो अपनी सिंचाई आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अक्सर कच्चे मलजल या प्रदूषित जलधाराओं का उपयोग करते हैं।"
 
सीधी बात है कि की कमजोर और कथित भ्रष्टाचार से लबालब सीवेज व्यवस्था, उस व्यवस्था का कमजोर प्रबंधन और उपचार, ऊपर से जीवाणु संबंधी मानकों की कमी, यह तमाम बातें स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पैदा करती हैं।
 
यह पहली बार नहीं है कि गंगा-यमुना समेत किसी दूसरी-तीसरी नदी के बारे में ऐसी चिंतित करने वाली रिपोर्ट आयी हो। 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश के वाराणसी में लंबा अध्ययन किया गया था। यह स्थापित सत्य है कि भारत में अनुपचारित मलजल का इस्तेमाल होता है!
सबसे पहले इसके प्रत्यक्ष संपर्क में आने वाले कृषि श्रमिक और शहर निगम के श्रमिक दस्त रोग, रक्त संक्रमण या त्वचा रोगों की चपेट में आते हैं। तमाम रिपोर्ट और अध्ययन साफ बताते हैं कि फेकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया के उच्च स्तर वाले पानी में स्नान करने से रोगज़नकों के मुँह, नाक, कान या त्वचा में कट के माध्यम से शरीर में प्रवेश करने से बीमारी (बुखार, मतली या पेट में ऐंठन) विकसित होने की संभावना बढ़ जाती है, या टाइफाइड, हेपेटाइटिस, गैस्ट्रोएंटेराइटिस, पेचिश और कान के संक्रमण भी ऐसे पानी में नहाने या तैरने से हो सकते हैं।
 
हमारे यहाँ लगभग तमाम शहरों में सीवेज समस्याएँ हैं। कथित भ्रष्टाचार के साथ सीवेज व्यवस्था शुरूआत में ही मरीज़ की तरह बीमार होती है! फिर आगे का खेल चलता रहता है। बरसात के मौसम में घरों में, सड़कों पर सीवेज का गंदा पानी दिनों तक परेशान करता है। जो नदियाँ कभी सुंदर दिखती थीं, वह आज काले पानी या सफ़ेद झाग के साथ बहती दिख जाती हैं!
 
इससे लोग प्रत्यक्ष रूप से बीमार तो होते ही हैं, साथ ही इस पानी का इस्तेमाल खेती-किसानी में किया जाता है। रसायणों से लबालब आधुनिक खेती में ऐसे दूषित पानी का इस्तेमाल! कैंसर जैसी बिमारियों को आमंत्रण। छोटी-मोटी शारीरिक समस्याएँ और बीमारियों से सीधा वास्ता।
 
तमाम चीज़ें नागरिकों को, उनके घर के सदस्यों को बीमार बनाती हैं, आजीवन किसी बीमारी की भेंट देती हैं, उनकी बचत को स्वास्थ्य समस्याओं के पीछे ख़र्च करा देती हैं। स्वास्थ्य समस्या नागरिक को, उसके परिवार को सिर्फ़ शारीरिक रूप से ही नहीं बल्कि आर्थिक रूप से भी कमजोर कर देती है। आर्थिक समस्या दूसरे अनेक गुनाहों को, दूसरी अनेक समस्याओं को जन्म देती है।
नागरिक हो, उससे बनने वाला समाज हो, सभ्यताएँ हो, प्रदेश हो, देश हो या पूरी दुनिया हो, सभी को ख़तरे पता हैं, फिर भी प्रकृति या पर्यावरण को नुक़सान पहुँचाते ही आए हैं! यह इंसानी स्वभाव है, जिसके पीछे त्वरित निजी आकांक्षा और महत्वाकांक्षा शामिल होती हैं। समय समय पर सभी पर्यावरण और स्वच्छता से संबंधित कार्यक्रम करते रहेंगे, नारे लगाते रहेंगे, चिंतित होने का नाटक करते रहेंगे! यदि निजी आकांक्षा और महत्वाकांक्षा को ख़तरा होगा तब बड़े से बड़े पर्यावरणीय ख़तरों को नज़रअंदाज़ करने का काम भी जारी रहेगा।
 
सिपंल सी बात है कि यदि उत्तर प्रदेश में या केंद्र में किसी दूसरे दल की सरकार होती तो नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ समेत तमाम इस पर महाभारत खड़ा कर देते। वे सारे एनजीटी और सीपीसीबी से भी ज़्यादा चिंतित दिखाई देते। स्वाभाविक है कि जब तक पाप धोने की व्यवस्था है, तब तक...।
 
इससे ज़्यादा सिंपल बात यह है कि भारत का एक भी शहर अपनी सीवेज समस्या से पूरी तरह निपटने में सक्षम नहीं है। लगभग तमाम शहरों की नदियाँ दूषित पानी को ढोते हुए उसी समाज को बीमारियाँ देने के वाहक के रूप में तब्दील हो गई हैं। स्वच्छ भारत और पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर राजनीति नौटंकी करती है और जब स्थापित प्रणाली, पद्धति, वैज्ञानिक पृथक्करण, जाँच के बाद चिंता जताई जाती है तो धर्मांधता और संकीर्णता की नाँव में समाज को सवार कर ख़तरों के सरोवर की सैर करने के लिए भेज दिया जाता है! 
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)