भले ही विदेश नीति प्याज़ और टमाटर के दाम जितनी ही मायने रखती हो, किंतु भारत में लोग
उस पर लंबे समय तक और उतनी गहराई से कभी ध्यान नहीं देते। हालाँकि अब तो लोग प्याज़-टमाटर
के दाम पर भी ध्यान नहीं देते तो फिर पैरा की प्रथम पंक्ति किसी काम की रह नहीं जाती।
इस स्थिति में 'पड़ोस नीति' को भी जीडीपी के हाल मरना ही था।
यूँ तो हमारे यहाँ पड़ोस नीति नामक अत्यंत ज़रूरी शब्द पाकिस्तान और ज़्यादा से
ज़्यादा चीन तक ही लागू होता है। वो भी तब जब सरहद पर तनाव हो, वर्ना नहीं। उपरांत
मीडिया कह रहा हो कि तनाव है तभी, वर्ना वहाँ तनाव होने पर भी देश के भीतर तनिक भी तनाव नहीं होता!
क़रीब 11 साल पहले नरेंद्र
मोदी ने जब पहली बार भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी तो उन्होंने तमाम पड़ोसी
देशों की सरकारों या राष्ट्र के प्रमुखों को भारत आने का न्योता देकर सबको चौंका दिया
था। विपक्ष में रहते हुए पाकिस्तान से सभी प्रकार के रिश्ते समाप्त करने की बातें करने
वाले मोदी ने शपथ समारोह के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को भी आने का
न्योता दिया था।
2014 में केंद्र में सरकार बनाने के बाद मोदी कहते रहे कि भारत की विदेश नीति में पड़ोसी
देशों को सबसे ज़्यादा महत्व मिलेगा। बतौर प्रधानमंत्री उनकी यह बात तथ्यात्मक और ज़मीनी
रूप से ज़रूरी ही थी। विपक्ष में रहते हुए जो भी भ्रम फैलाए, किंतु सरकार बनाने
के बाद बतौर प्रधानमंत्री आपको काफी ज़िम्मेदारी से तथा बौद्धिकों और विशेषज्ञों की
सलाह के अनुसार काम करना होता है।
भारत के पड़ोसी देशों
को लेकर अपनी नीति को औपचारिक तौर पर उन्होंने 'नेबरहुड फ़र्स्ट' या 'पड़ोसी सबसे पहले' नाम दिया था। क़रीब 11 साल बाद भी स्वयं पीएम और उनके मंत्री या नीति निर्धारक बार-बार कहते हैं कि नेबरहुड
फ़र्स्ट ही मोदी सरकार की विदेश नीति का मूल आधार है।
'नेबरहुड फ़र्स्ट' की मूल बात यह है कि भारत भौगोलिक रूप से दूर (वह चाहे अमेरिका हो या नाइज़ीरिया)
के मुक़ाबले अपने पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को ज़्यादा अहमियत देगा और उनके हितों
को प्राथमिकता देगा।
किंतु सवाल कुछेक सालों
से उठ रहे हैं कि मोदी सरकार की कथनी और करनी का प्रचलित अंतर विदेश नीति के बारे में
बयानों-दावों और विदेश नीति को लेकर सरकार के कामकाज में भी लागू हो गया है? एक ओर जहाँ मोदी सरकार
ने अक्सर पश्चिमी देशों को ज़्यादा महत्व दिया है, वहीं वह चीन को लेकर भी ज़्यादा सिर खपाती रही है।
प्रधानमंत्री के तौर
पर अपने पहले दौरे के दौरान नेपाल (अगस्त 2014), श्रीलंका (मार्च 2015) और बांग्लादेश (जून 2015) में नरेंद्र मोदी का जिस तरह बड़े पैमाने पर स्वागत किया गया था और आम लोगों की
शानदार प्रतिक्रिया मिली थी, उन देशों में बाद में तस्वीर वैसी नहीं नज़र आई।
अब नेबरहुड फ़र्स्ट
के एक दशक बाद देखने में आ रहा है कि भारी आर्थिक संकट के दौर में भारत ने जिस श्रीलंका
की काफी मदद की थी, वहाँ की सरकार मोदी सरकार की टेढ़ी निगाहों को नज़रअंदाज़ कर चीन के जासूसी जहाज़
को अपने बंदरगाह पर लंगर डालने की अनुमति दे रही है।
नेपाल में नए संविधान
को लागू करने के दौरान भारत के मौन समर्थन से चलाए गए 'आर्थिक नाकेबंदी' कार्यक्रम के ख़िलाफ़
नेपाल की आम जनता भारत विरोधी प्रदर्शनों में शामिल हो गई थी। फ़िलहाल नेपाल की सत्ता
में केपी शर्मा ओली को भी कट्टर भारत विरोधी ही माना जाता है।
मालदीव में भी 2023 के दौरान आम चुनाव
में भारत-समर्थक सरकार को सत्ता से हटा कर राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठने वाले मोहम्मद
मुइज़्ज़ू ने तुरंत अपने देश से भारतीय सेना को हटाने की माँग उठा दी थी। उनकी पार्टी
की ओर से चलाए गए 'इंडिया आउट' अभियान को काफ़ी समर्थन मिला और राष्ट्रपति मुइज़्ज़ू बिना किसी हिचकिचाहट के
चीन की ओर झुकते महसूस किए जा रहे हैं।
जो भूटान सामरिक, विदेशी और आर्थिक, लगभग तमाम मामलों
में भारत पर निर्भर है, उसने भी अकेले अपने दम पर चीन के साथ सीमा पर बातचीत शुरू कर दी थी। उसने कूटनयिक
संबंध स्थापना के चीन के प्रस्ताव को भी सीधे तौर पर ख़ारिज़ नहीं किया है।
यह भी नहीं कहा जा
सकता कि अफ़ग़ानिस्तान और म्यांमार में सत्तारूढ़ सरकार के साथ भी भारत के संबंध अच्छे
हैं। तालिबान के साथ अब तक भारत का पूर्ण कूटनयिक संबंध स्थापित नहीं हो सका है। इन
दोनों देशों में भारत की ओर से विभिन्न क्षेत्रों में किया गया सैकड़ों करोड़ का निवेश
भी अब अनिश्चितता के भंवर में फँसा हुआ है।
इस सूची में नाम बांग्लादेश
का भी है। वह देश, जिसके निर्माण में भारत की सीधी भूमिका थी। वहाँ बीते डेढ़ दशक से भारत की एक
घनिष्ठ मित्र सरकार के सत्ता में रहने के बाद लगभग रातों रात उसे सत्ता छोड़नी पड़ी।
उसके बाद वहाँ सत्ता में ऐसी कुछ ताक़तें शामिल हो गई हैं जिनको भारत का मित्र नहीं
कहा जा रहा।
इसके अलावा क़रीब चार
साल पहले नरेंद्र मोदी के बांग्लादेश दौरे के दौरान उनके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन और
हिंसा चरम पर थी। तमाम पर्यवेक्षक इस बात को मानते हैं कि बांग्लादेश में हाल के आरक्षण
विरोधी आंदोलनों में भी प्रबल भारत विरोधी भावना शामिल थी।
तो फिर सवाल उठता है
कि क्या भारत की विदेश नीति में कुछ गंभीर खामियाँ हैं? या फिर दक्षिण एशिया
की भू-राजनीतिक संरचना ही ऐसी है कि भारत के लिए यह नियति पहले से तय थी?
2021 का साल। हर कोई जानता था कि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से बाहर जा रहा है और तालिबान
वापस आ रहा है। फिर हुआ भी वही। एक समय वह भी आया जब अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान तेज़ी
से कब्ज़ा करने लगा। मोदी सरकार के पास पर्याप्त समय था। भारत से दूर नहीं बल्कि बिलकुल
पड़ोस में नज़दीक़ के समय में होने वाले घटनाक्रम के अनुमान थे।
बावजूद इसके वहाँ से
मोदी सरकार ने भारतीयों को निकालने में जो आलस दिखाया वह चौंकाने वाला था। लिखा गया
था कि आख़िरी समय में भारतीयों को निकालने के लिए तालिबानी ट्रैफ़िक कंट्रोलर्स की
दया पर निर्भर रहना पड़ा! और उस समय भी दूसरे
अनेक भारतीय अफ़ग़ानिस्तान में फँसे हुए थे।
उन दिनों द टेलिग्राफ़ में
एक राजनयिक का बयान छपा था कि, "हमें अपने पड़ोस में अचानक ही एक गंभीर रणनीतिक झटका मिला है
और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमने जो होने वाला है उससे अपनी आँखें मूंद ली थीं। हमें
अपने राष्ट्रीय हित में जो करना चाहिए था उसे नज़रअंदाज़ किया। अमेरिकी जा रहे थे, हम पीछे छूट रहे थे।"
यह भारत की तत्कालीन
मोदी सरकार की विदेश नीति को लेकर चिंता पैदा करने वाला घटनाक्रम था। सोचिए कि भारत
से हज़ारों किलोमीटर दूर स्थित अमेरिका के नागरिक पहले निकल पा रहे थे, किंतु हमारे बहुत
पास सटे हुए देश से हम हमारे नागरिकों को निकालने में किसी ट्रैफ़िक कंट्रोलर की दया
पर निर्भर दिख रहे थे!
अफ़ग़ानिस्तान में
पूर्व राजदूत विवेक काटजू कहते हैं, "सभी को ये अंदाज़ा हो गया कि तालिबान का कब्ज़ा होने वाला है। अमेरिकी उनसे बात
कर रहे थे तो हम क्यों नहीं? दूसरों ने भी ये सलाह दी थी, लेकिन मौजूदा विदेशी नीति निर्माताओं ने इस पर ध्यान नहीं दिया।"
जिस अफ़ग़ानिस्तान
में भारत ने अरबों डॉलर का निवेश किया था, जिस देश के संसद भवन बनाने से लेकर सड़क निर्माण में अपना सब कुछ लगाया था, इतना ही नहीं क्रिकेट
टीम तक खड़ी कर दी थी, वहाँ भारत को कोई पूछने वाला नहीं है!
15 अगस्त 2016 के दिन लाल क़िले से बलूचिस्तान का नाम लेकर पीएम मोदी ने सभी को चौंका दिया था।
गिलगित और पाक अधिकृत कश्मीर का नाम भी उस मंच से उस अवसर पर लिया गया था। सोशल मीडिया
पर क्या कुछ लिखा-कहा जा रहा था उन दिनों। जानकारी के लिए बता दें कि बलूचिस्तान की
सीमा अफ़ग़ानिस्तान और ईरान, दोनों से टकराती है। बलूचिस्तान को लेकर नारे लगाने वाले हम अफ़ग़ानिस्तान से
हमारे अपने नागरिकों को ठीक समय पर ठीक तरीक़े से निकाल नहीं पाए थे!
हम अपने नागरिकों को
वहाँ से निकालने के लिए उनके ट्रैफ़िक कंट्रोलर की दया पर निर्भर थे यह सारे लोग भूल
गए तो फिर अगस्त 2021 में तत्कालीन रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने एक कार्यक्रम में बड़े जोश से बोल दिया
कि अगर ज़रूरत पड़ी तो हम उनकी (अफ़ग़ानिस्तान) धरती पर जाकर सैन्य अभियान चलाएँगे
और आतंक को ख़त्म करेंगे। क्या विदेश नीति इसी तरह बयानों और नारों की दुनिया में सिमटी
जा रही है?
बलोची का एक शब्द है
चाबहार, जिसका मतलब है चार बहारें। 2016 में यह नाम भी ख़ूब लिया गया था। अब हालात यह है कि ईरान के चाबहार बंदरगाह और
उसमें भारत की भूमिका के भविष्य को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। उस वक़्त बंदरगाहों के
जो मंत्री थे वे बाद में स्वास्थ्य मंत्री हो गए! फिर तो आम चुनाव भी दो बार हुए।
नेपाल का शीर्ष नेतृत्व
एलान करता है कि कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा नेपाल का हिस्सा है और उन्हें हर हाल में वापस लाकर रहेंगे।
जैसे भारत के भीतर सत्ता अपने समर्थकों की मानसिक संतुष्टि मात्र के लिए सड़क से बयानबाजी
कर देती है, संभवत: पड़ोसी देश की सत्ता और वहाँ का नेतृत्व भी उसी सड़क पर चलते हो। फिर सवाल
यह उठता है कि विदेश नीति, कूटनीति आदि की व्याख्या सत्ता के लिए अपने समर्थकों की संतुष्टि मात्र ही है?
2015 का साल था, तपती गर्मी की महीना। उस साल 25 अप्रैल के दिन नेपाल में बड़ा भूकंप आया। हज़ारों लोग मारे गए, हज़ारों घायल हुए।
नेपाल में व्यापक तबाही मची। पूरी दुनिया से नेपाल की तरफ़ मदद पहुँचने लगी। 2001 के गुजरात के कच्छ
में भी दुनिया भर से मदद पहुँची थी। ठीक वैसे ही यहाँ भी दुनिया के देश अपने अपने हिसाब
से नेपाल को मदद पहुँचाने लगे।
तब केंद्र में मोदी
सरकार नयी नयी बनी थी। नया नया निज़ाम, नया नया मिज़ाज। भारत ने भी नेपाल को मदद की। किंतु उसके बाद स्वंय के महिमामंडन
के आदती नरेंद्र मोदी के शासन काल में जो हुआ उतना पहले नहीं होता था। भारतीय चैनलों
पर नयी सरकार और ख़ास कर नरेंद्र मोदी का जमकर गुणगान किया जाने लगा! मीडिया पर लंबे लंबे कार्यक्रम चलने लगे, जिसमें दिखाया जाता था कि नेपाल पूरी तरह तबाह हो चुका है और नरेंद्र मोदी उस
देश के एकमात्र उद्धारक के रूप में सामने आए हैं!
स्वाभाविक है कि नेपाल के लोगों
को यह रवैया बिलकुल पसंद नहीं आया। सोशल मीडिया पर भारत में चल रहे ऐसे प्रचार कार्यक्रम
का नेपाल में बहुत विरोध हुआ। इतना ही नहीं, नेपाल के लोगों ने 'गो होम इंडियन मीडिया' हैशटैग के साथ भारतीय मीडिया का विरोध भी किया।
पड़ोसी देश को प्राकृतिक
आपदा के समय मदद करने का कर्तव्य निभाकर उस कर्तव्य का आत्मप्रशंसा और स्वयं के महिमामंडन
के रूप में मीडिया द्वारा लगभग योजनाबद्ध तरीक़े से प्रचार कराने की यह विदेश नीति
तभी से दिशाहीन और लुंजपुंज लगने लगी।
कुछ ही महीने गुज़रे
थे कि एक दूसरे मामले में भारत ने आनन-फानन में नेपाल की आर्थिक नाकाबंदी कर दी। सवाल
आज तक उठता रहा है कि भारत द्वारा 2015 में की गई नेपाल की आर्थिक नाकाबंदी ठीक थी? अगर कोई दूसरा देश हमारे मसले, हमारी नीतियों पर
सिर्फ़ सवाल उठाता है, आलोचना करता है, तब हम उस देश को यह कहकर झाड़ते हैं कि हमारे अंदरूनी मामलों में कोई दखल न दें।
2015 के उस मामले को संक्षेप में देखे तो, भारत की सीमा से सटे नेपाल के तराई इलाक़े में भारतीय मूल के लोगों का विशाल बहुमत
है। उन्होंने अलग पहचान की माँग की और इलाक़ाई स्वायत्तता तक की माँग करने लगे। नेपाल
सरकार उनकी माँगों को सुनने और उस पर बात करने को तैयार थी, लेकिन वह स्वायत्तता
जैसी किसी चीज़ पर कोई बात करने को तैयार नहीं थी।
भारत इसे अपने पड़ोसी
देश का अंदरूनी मामला मान कर छोड़ सकता था, वह अपने पड़ोसी देश का सम्मान कर सकता था। या फिर किसी 'दूसरे तरीक़े से इसमें
दखल' दे सकता था। किंतु हर घटने वाली घटना में ख़ुद की भूमिका होनी ही चाहिए सरीखी
आरएसएस की पाठशाला के विद्यार्थी नरेंद्र मोदी ने यहाँ सीधा हस्तक्षेप किया, काठमांडू पर दबाव
बनाने की कोशिश की!
स्वाभाविक था कि नेपाल
अपने अंदरूनी मामले में भारत का ऐसा रवैया पसंद नहीं करने वाला था। किंतु उन दिनों
मोदी सरकार को यह नागवार गुज़रा कि नेपाल जैसा पिद्दी सा देश उसकी बात को नहीं मानता
है। अनुभवहीन मोदी सरकार ने बदले में नेपाल की आर्थिक नाकेबंदी जैसा ऐतिहासिक रूप से
ग़लत कदम उठा लिया।
शायद मोदी सरकार को
लगा होगा कि नेपाल 10-15 दिनों में घुटने टेक देगा। किंतु यह धारणा ग़लत साबित हुई और यह नाकेबंदी 135 दिन तक चली।
अनुभवहीन मोदी सरकार के इस
ग़लत कदम से नेपाल में आर्थिक स्थिति चरमराई, साथ ही ईंधन तथा खाने पीने की चीज़ों की क़िल्लत हो गई। पर्यवेक्षकों
का कहना है कि इसके बाद ही नेपाल ने भारत पर निर्भरता ख़त्म या सीमित करने के लिए चीन
के 'बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव' यानी 'बीआरआई' के प्रस्ताव को मान लिया। नेपाल इस पर राजी हो गया कि चीन तिब्बत
से लेकर भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश की सीमा से सटे नेपाली इलाक़े तक रेल लाइन बिछा
देगा। इसी तरह सड़क भी बनेगी। ज़ाहिर है, युद्ध के समय इसका सामरिक इस्तेमाल भी हो सकता है।
उपरांत नेपाल पेट्रोलियम
ने 28 अक्टूबर 2015 को पेट्रो चाइना के साथ एक समझौता किया और चीनी कंपनी ने नेपाल को 130,00,000 लीटर तेल मुफ़्त में
उपहार स्वरूप दे दिया। इसके अलावा चीन और नेपाल में दूसरे व्यापारिक समझौते भी हुए।
एक तरह से भारत ने
अपने पुराने दोस्त को धक्का देकर चीन की गोद में उतार दिया, सिर्फ़ अपनी श्रेष्ठता,
बोध, ईगो, बाँह मरोड़ने की मानसिकता और ग़लत कूटनीतिक समझ के कारण?
2016 का साल दोनों देशों के रिश्तों को लेकर अब भी ख़राब स्थिति लेकर आने वाला था।
इसी साल भारत में अचानक से नोटबदली (नोटबंदी) की घोषणा हुई, जिसका कोई भी सकारात्मक
परिणाम अब तक तो भारत को मिला नहीं है। भारत की मुद्रा नेपाल और भूटान दोनों में चलती
है। मोदी सरकार के इस कदम ने नेपाल को फिर परेशान किया, किंतु इसका कोई भी
सकारात्मक समाधान नहीं हो पाया।
नेपाल के प्रधानमंत्री
ने कई बार इस मसले को उठाया कि भारत की नोटबंदी के कारण उसकी अर्थव्यवस्था तबाह हो
रही है। दोनों देशों के केंद्रीय बैंकों के अधिकारियों के बीच भी चर्चा हुई। इसका कोई
नतीजा नहीं निकला। आख़िरकार नेपाल राष्ट्र बैंक ने भारत के 2000, 500 और 200 रुपये के नए नोट पर
प्रतिबंध लगा दिया।
नेपाल के ब्लॉकेड के
बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेपाल की यात्रा की योजना बनाई। किंतु पीएम
मोदी की यात्रा के ख़िलाफ़ नेपाल में #BlockadeWasCrimeMrModi
#ModiIsCriminal #ModiSaySorryForBlockade
जैसे हैशटैग से ट्विटर पर अभियान चलाया गया। नेपाली लोगों ने
लिखा, "छह महीने तक तेल, खाद्य सामान, दवाओं की कमी। दर्द अभी ताज़ा है मिस्टर मोदी।"
फिर 2018 का साल और मई का महीना
आया। पीएम नरेंद्र मोदी ने नेपाल का दौरा किया। आर्थिक नाकेबंदी वाले ग़लत कदम से दोनों
देशों के रिश्तों को तथा हितों को जो नुक़सान हुआ था उसे पाटने की कोई कूटनीतिक या
आर्थिक कोशिश करने की जगह पीएम ने वहाँ जाकर नेपाल को याद दिलाया कि वह कुछ दिन पहले
तक दुनिया का एक मात्र हिंदू राष्ट्र था!
दो साल पहले जो ग़लती
की गई थी उसे सुघारने की कोशिश नहीं, ना ही कोई बहुत बड़ा एलान, ना कोई समझौता। बस हिंदू हितों की बात और कोरी राजनीति करके पीएम वापस आ गए। नेपाल
और भारत के रिश्ते के जानकारों ने लिखा कि दरअसल वह यात्रा दोतरफा रिश्तों को मजबूत
करने के लिए थी ही नहीं, वह यात्रा थी भारत के अपने वोटरों के लिए, अपने कांसटीचूऐन्सी के लिए, जिसे दिखाना था कि देखो मोदीजी का डंका बज रहा है।
लाज़मी है कि उस यात्रा
में आर्थिक नाकेबंदी पर मरहम ना लगा तो दोनों देशों के बीच बनी खाई और चौड़ी हो गई।
नेपाल की सत्ता को क्या लगा वह कह नहीं सकते, किंतु नेपाल के बहुत सारे लोगों को लगा कि भारत को उसकी परवाह नहीं है। इस
प्रकार की बेतुकी विदेश नीति के चलते एक और स्वाभाविक ख़तरा उठ खड़ा हुआ। वहाँ सक्रिय
भारत विरोधी या चीन समर्थक लॉबी ने इसे अच्छे मौक़े के रूप में भुनाया।
फिर जुन 2020 आया। नेपाली संसद ने उस संविधान संशोधन विधेयक को आम सहमति
से पारित कर दिया, जिसमें नया नक़्शा प्रकाशित करने की बात कही गई। इस नक्शे में
कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को नेपाल का हिस्सा दिखाया गया। भारत
का दावा था और है कि ये इलाक़े उसके हैं। नोट करना चाहिए कि इस संविधान संशोधन विधेयक
के पक्ष में 275 में से 258 वोट
पड़े थे और किसी ने इसके ख़िलाफ़ मतदान नहीं किया था। यानी यह प्रस्ताव आम सहमति से
पास हुआ था।
नया राजनीतिक नक़्शा
जारी करने के तीन महीने बाद नेपाल की एक स्कूली किताब में अब उत्तराखंड के पिथौरागढ़
को अपना बताया गया। टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने इस ख़बर को प्रमुखता से प्रकाशित किया था।
इस किताब की प्रस्तावना ख़ुद नेपाली शिक्षा मंत्री गिरिराज मणि पोखरियाल ने लिखी थी।
नोट यह भी करें कि नेपाल और भारत के रिश्ते के बीच इतनी बड़ी खटाश स्वतंत्रता के
बाद पहली बार आई थी। इसके अलावा भारत और चीन के बीच सीमा पर जिस
प्रकार की तनानती बनी रही है, नेपाल के साथ भी सरहद पर अनेक बार ऐसी तनातनी देखी गईं! फिर नेपाली प्रधानमंत्री ने आरोप लगाया कि भारत उन्हें पदभ्रष्ट करने की साज़िश
कर रहा है। इस बात को लेकर भारत के मेनस्ट्रीम मीडिया ने स्टोरी चलाई, जिसमें कथित रूप से
कई अपुष्ट बातें परोसी गईं! नतीजन जुलाई 2020 में भारतीय समाचार
चैनलों के प्रसारण पर नेपाल ने रोक लगा दी। हालात यहाँ तक जा पहुँचे कि नेपाल के विपक्षी दलों ने भी भारतीय चैनलों के उस
कवरेज पर नाराज़गी जताई।
भारत और नेपाल के मध्य
क़रीब दो हज़ार किलोमीटर से अधिक लंबी सीमा है। दोनों देशों के बीच इससे पहले इतने
अच्छे रिश्ते रहे हैं कि इतनी लंबी सीमा खुली हुई है, यानी दोनों देशों के
नागरिक इस सीमा को बग़ैर वीज़ा-पासपोर्ट के पैदल चल कर पार कर सकते है। सीमाई इलाक़ों
में रोजी-रोटी और रोटी-बेटी का रिश्ता है। इतने अच्छे और ऐतिहासिक रिश्ते में कड़वाहट
घुलने की वजह कमजोर विदेश नीति के सिवा दूसरी तो क्या होगी? जिसके साथ खुली सीमा
है, उस नेपाल के साथ अब सीमा विवाद भी है! उत्तराखंड में नेपाली सीमा से कुछ दूरी पर चीनी सेना तैनात है, ज़ाहिर है, नेपाल की इसमें रज़ामंदी
होगी।
वहीं 2020 में भूटान ने उस नहर
को बंद कर दिया जिससे बहता हुआ पानी असम पहुँचता है और वहाँ के किसान धान की खेती में
सिंचाई के लिए उसका इस्तेमाल करते हैं। यह भी स्वतंत्रता बाद पहली घटना थी जब भूटान
ने ऐसा कोई कदम उठाया हो जिससे भारत को दिक्कत हो।
बात आगे बढ़ी तो दोनों
पक्ष सफ़ाई देने में जुट गए। भूटान ने कहा कि उसने कभी पानी बंद नहीं किया था, बल्कि साफ़-सफ़ाई
कर रहा था। भारत ने भी उसकी पुष्टि करते हुए कहा कि दरअसल थिम्पू ने कभी पानी बंद किया
ही नहीं था। पर कुछेक मीडिया रिपोर्ट में लिखा पाया गया कि सच यह था कि पानी बंद किया
गया था और इसकी वजहें थीं।
चीन के साथ तमाम मुद्दों
पर तनातनी इन तमाम सालों में बराबर चलती रही। चीन के साथ सरहद से लेकर भारतीय सीमा
में उसके सैनिकों की घूसखोरी, पड़ोसी देशों में चीन की भारत के ख़िलाफ़ लामबंदी, समंदर और ज़मीन से
लेकर आसमान तक चीन की प्रवृत्तियाँ, तमाम घटनाएँ आज तक जारी हैं। चीन को लेकर सरहदी विवादों की जानकारी छुपाने
का आरोप मोदी सरकार पर विपक्ष तो लगा ही चुका है, कुछेक रिपोर्ट भी
मोदी सरकार के चीन के साथ विवादों के लेकर किए गए दावों पर सवाल उठाते रहे हैं।
दूसरी तरफ़ ईरान ने
जुलाई 2020 में चाबहार बंदरगाह से ज़हेदन को जोड़ने वाली 628 किलोमीटर लंबी रेल लाइन परियोजना से भारत को बाहर कर दिया।
भारतीय रेल की आनुषंगिक कंपनी इंडियन रेलवेज़ कंस्ट्रक्शन लिमिटेड यानी इरकॉन को यह
ठेका मिला था। इससे ठीक एक सप्ताह पहले ही तेहरान ने चीन के साथ एक क़रार किया, जिसके तहत बीजिंग
चाबहार ड्यूटी फ्री ज़ोन और तेल साफ़ करने का कारखाना बनाएगा। यानी भारत बाहर, चीन अंदर!
इसकी पूर्वभूमिका, यानी ईरान के साथ भारत के रिश्तों में तल्ख़ी आनी उसी समय शुरू
हो गई जब भारत ने अमेरिकी दबाव में आकर ईरान से तेल ख़रीदना बंद कर दिया। ईरान की अर्थव्यवस्था
इससे चरमरा गई। ऑर्गनाइजेशन ऑफ़ इसलामिक कोऑपरेशन और संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर समेत
तमाम मुद्दों पर पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारत का साथ देने वाले तेहरान को यह नागवार गुज़रा
कि वह संकट में आया तो भारत ने पल्ला झाड़ लिया।
इसके बाद यह हुआ कि
सीएए, एनआरसी और दिल्ली दंगों पर ईरान ने खुल कर भारत का विरोध किया। ईरान के 'सुप्रीम लीडर' यानी 'सर्वोच्च नेता' और शिया मुसलमानों
के दुनिया के सबसे बड़े धर्मगुरु अयातुल्ला खामेनेई ने दिल्ली दंगों पर गहरी चिंता
जताते हुए भारत की तीखी आलोचना की।
2020 में चाबहार से संबंधित रेल परियोजना से भारत को बाहर कर चीन को अंदर करने वाले
ईरान के उस फ़ैसले की तरफ़ लौटे तो, चीन पहले से ही पाकिस्तान का ग्वादर बंदरगाह बना रहा है। वह चाबहार से महज़ 72 किलोमीटर दूर है।
चाबहार से यह लगता था कि भारत की मौजूदगी इरान में है। किंतु इसके बाद स्थितियाँ बदलती
दिखीं।
बतौर विपक्ष जिस भूमि
सौदे का मोदी विरोध किया करते थे, पीएम बनने के बाद उन्होंने उस भूमि सौदे को किया और ऐतिहासिक भी बताया। बात कर
रहे हैं बांग्लादेश भूमि सौदे की। मोदीजी बतौर विपक्ष इस सौदे का विरोध किया करते थे, किंतु पीएम बनने
के बाद पूर्व सरकारों की योजना में जो था उससे भी अधिक गाँव मोदी सरकार ने बांग्लादेश
को दिए! किंतु भारत के इतने
विराट त्याग के बाद भी इस पारंपरिक पड़ोसी के साथ रिश्ते उलझते ही रहे!
बांग्लादेश, जिसके सृजन में भारत
की सीधी भूमिका थी, जिसके लिए भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तान से पूर्ण और ऐतिहासिक युद्ध लड़ा और अपना
ख़ून बहाया, जिसके साथ भारत के ऐतिहासिक और पारंपरिक संबंध रहे, जिस देश के राष्ट्रपिता
ने भारत में शरण लेकर अपनी जान बचाई, जिनकी बेटी शेख हसीना बांग्लादेश की तत्कालीन प्रधानमंत्री थीं, उस बांग्लादेश ने
पाकिस्तान के साथ बातचीत करना शुरू किया! पाकिस्तान-बांग्लादेश के बीच हुई बातचीत के बाद बाक़ायदा प्रेस बयान जारी किया
गया, जिसमें कहा गया कि पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के साथ बांग्लादेश
के साथ जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर लंबी बातचीत की थी।
इसकी पृष्ठभूमि में
भारत के तत्कालीन गृह मंत्री अमित शाह के उस भाषण को एक वजह माना गया, जिसमें उन्होंने एक
चुनावी सभा में महज़ वोटों के लिए बांग्लादेश से आए शरणार्थियों पर तीखा हमला बोला
था और कहा था कि बांग्लादेश से आए घूसखोरों को भारत से बाहर कर दिया जाएगा। उस पूरे
चुनाव प्रचार में अमित शाह ने इस मुद्दे को बार बार चुनावी हथियार बनाकर बांग्लादेश
और उसके वासियों को भारत के लिए एक समस्या के रूप में पेश किया था।
उसके बाद एनआरसी और
सीएए के विषय पर बातों को मोदी सरकार ने तथा मोदी सरकार के शीर्ष मंत्रियों ने इस तरह
पेश किया, जिससे पड़ोसी देशों में भारत विरोधी लॉबी को बैठे बिठाए हथियार मिला।
ऊपर से तो भारत-बांग्लादेश
के रिश्ते सामान्य लगते रहे किंतु अंदरूनी नाराज़गी विविध रूप से दर्ज होती गई। जैसे
कि उसके विदेश मंत्री की भारत यात्रा अंतिम समय टाल दी गई और उनके व्यस्त होने का बहाना
गढ़ा गया। बांग्लादेशी प्रधानमंत्री शेख हसीना की भारत यात्रा भी टाल दी गई।
इन रिश्तों को फिर
से सही पटरी पर लाने की कोशिश तो नहीं हुई किंतु कुछ सालों बाद बांग्लादेश के भीतर
गृहयुद्ध सरीखे हालात बने और शेख हसीना को देश छोड़कर भागना पड़ा। इन सब चीज़ों से
भारत और बांग्लादेश के रिश्तों में फैली कड़वाहट दूर नहीं हुई।
जिस बांग्लादेश के लिए भारतीय सैनिकों ने अपना ख़ून बहाया था उससे कड़वाहट के बाद
श्रीलंका के साथ भी वही वातावरण भारत को देखना पड़ा। वही श्रीलंका, जहाँ भारत ने एक ज़माने में भारतीय शांति रक्षक सेना के नाम पर लगभग 10 हज़ार सैनिक भेजे
थे, ताकि वे तमिल विद्रोहियों
को निरस्त्र कर सकें।
उस श्रीलंका ने
अपना एक महत्वपूर्ण बंदरगाह चीन को लीज़ पर दे दिया। कोलंबो ने कहा कि उसके पास
इतने पैसै नहीं हैं, लिहाज़ा उसने वह बंदरगाह चीन को 99 साल की लीज़ पर दे दिया। श्रीलंका के हम्बनटोटा में चीनी नियंत्रण में बंदरगाह
भारतीय तट से कुछ नॉटिकल माइल्स की दूरी पर है।
हिंद महासागर का छोटा
देश सेशेल्स कई मामलों में भारत पर निर्भर रहा है। भारत वहाँ पर्यटन से लेकर शिक्षा, मत्स्य पालन, ढाँचागत सुविधाओं
वगैरह में निवेश कर चुका है। उस सेशल्स ने भारत का मुफ़्त में दिया हुआ लड़ाकू हेलीकॉप्टर
वापस कर दिया। समझा जाता है कि उसने ऐसा चीन के प्रभाव में किया था।
तमाम पड़ोसी देशों के साथ जो मसले थे वे इतने बड़े या बहुत गंभीर मसले नहीं थे।
कूटनीतिक विशेषज्ञ और विदेश नीति के जानकार अक्सर बताते पाए गए हैं कि वे सारे मसले, जो पड़ोसी देशों के
साथ थे, वे सुलझाए जा सकते थे। किंतु अब तो पीएम नरेंद्र मोदी ने 'नेबरहुड' की जगह 'ग्रेटर नेबरहुड' का नया नारा थमा दिया
है!
विश्व के तमाम देशों की विदेशनीति में एक अलिखित नियम है कि कोई भी देश स्थायी
मित्र या स्थायी दुश्मन नहीं होता। हर मौक़े पर ख़ुद को क्या मिलेगा यह सोचना ही तमाम
देशों के लिए देशसेवा की व्याख्या है। जो भी कड़वाहट हो, कमजोरियाँ हो, मतभेद हो, मुद्दे हो, ऐसा नहीं है कि वह
चिरकालीन होंगे, उसे ठीक किया जा सकता है। किंतु रिश्ता कोई भी हो, उसमें सुधार के प्रयास
ठोस भी होने चाहिए और तत्काल भी, क्योंकि देरी अक्सर घातक सिद्ध होती है या तो मिलने वाले फ़ायदों को कम कर देती
है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)