ध्यान दें कि यहाँ बात बिना पूर्वतैयारी के, या फिर जो ज़मीनी
स्थितियाँ देखी गई हैं उसे नज़रअंदाज़ करके कदम आगे बढ़ाने को लेकर है। हमने एक बार
नहीं किंतु अनेकों बार देखा है कि हम दो या चार राज्यों के चुनाव भी एक साथ कर नहीं
पाए हैं। कभी दो राज्यों में चुनाव की तारीख़ घोषित होती है और बाकी दो राज्य छोड़
दिए जाते हैं। दो-चार तो छोड़ दीजिए, एक राज्य में ही इतने सारे चरणों में चुनाव कराए जाते हैं कि महीने तक वो राज्य
उसी चक्र में फँसा रह जाता है।
2024 लोकसभा चुनाव तो इतना लंबा चला कि सबसे पहले चुनाव आयोग और हमारी व्यवस्थाओं को
"एक चुनाव एक साथ" करने की योजना लागू करनी चाहिए, ना कि सारे चुनाव
एक साथ करने की। जो चुनाव चंद दिनों में पूरा हो जाना चाहिए उसे अलग अलग चरणों के नाम
पर लंबा क्यों खींचा जाता है?
तकनीक, संसाधन और व्यवस्था से लबालब इस ज़माने में भी दिल्ली जैसे राज्य में विधानसभा
चुनाव की तारीख़ घोषित करने में ही महीने निकल जाते हैं। किसी राज्य में एक अकेला चुनाव
इतने लंबे समय तक चलता है कि कम ख़र्चे और सरलता वाले मुद्दे की भद्द पिट जाती है।
एक देश एक चुनाव छोड़ दीजिए, ताज़ा समय में हम एक साथ दो राज्यों के चुनाव भी एक साथ नहीं करा सकें हैं! ऐसे में लोकसभा, तमाम राज्यों की विधानसभा और इससे नीचे के स्तर के तमाम चुनाव एक साथ!? ज़मीनी सच देखकर लगता
है कि यह 'अच्छे दिन' और 'पंद्रह लाख' से भी बड़ा चुटकुला है।
किसी समिति के विशेषज्ञ यदि यह कहते हैं कि कम संख्या में चुनाव होने से भारत विकास
की तीव्र गति पकड़ेगा तो यह संदिग्ध निष्कर्ष है। ये कथित विशेषज्ञ चुनावों को क्यों
विलेन या बाधा बता रहे हैं? विकास बाधित होने के पीछे भ्रष्टाचार, क्रिमिनल लीडरशिप, सत्ता एकाधिकार, संवैधानिक संस्थाओं का हनन, सत्ता- उद्योगपति- सरकारी बाबूओं का नेक्सस जैसी समस्याएँ ज़िम्मेदार हैं, ना की चुनाव संख्या।
उपरांत एक देश एक चुनाव से सरकार को फ़ायदा वाला दावा ही क्यों देखें, जबकि देश और जनता
को होने वाला नुक़सान सामने खड़ा है।
वैसे विश्लेषण करने
से पहले और बाद में भी, सबसे पहला ख़याल जो आता है वो यही है कि पीएम नरेंद्र मोदी ने वन नेशन वन इलेक्शन
वाला यह चैप्टर फिर से जिस समय शुरू किया है उसे देखते हुए वह उनके अनेक शिगूफ़ों में
से एक नया शिगूफ़ा है।
वैसे भी 4 जून 2024 के बाद चर्चा का केंद्र
नरेंद्र मोदी से हटकर राहुल गांधी बन चुके हैं। उपरांत मोदीजी के जन्मदिन पर केजरीवाल
ने इस्तीफ़े वाला नाटक खेल कर मोदीजी को उनके जन्मदिन पर मिलने वाला महत्व कम कर दिया
था। अपनी तीसरी पारी के पहले 100 दिनों में देश के मेनस्ट्रीम मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में मोदीजी को वह
रुतबा अब तक नहीं मिला है जो पहले मिला करता था। चौबीसों घंटे ख़बरों में छाये रहने
वाले मोदीजी इन 100 दिनों में उस तरह ख़बरों में नहीं आ पाए, जैसे पहले आया करते थे।
हो सकता है कि रात
को सोते समय मोदीजी को तरकीब सूझी हो कि बीजेपी के मेनीफेस्टो में शामिल यह मुद्दा
फिर से ख़बरों में ला दिया जाए। उसी बहाने कुछ दिनों तक सुर्खियों का सरताज बना जा
सकता है। मोदीजी ने जिस तरह से, जिस समय और जिस अल्पमत की स्थिति में इस मुद्दे को दोबारा परोसा है, हो सकता है कि आगे
पाकिस्तान, पीओके, आदि चीज़ें भी परोसी जाएँ। हिंदुत्व में विफल होने के बाद राष्ट्रवाद पर जाना
तो है ही मोदीजी को।
ऐसा इसलिए लगता है, क्योंकि मोदीजी की
सरकार ने जिस दिन वन नेशन वन इलेक्शन के विषय को फिर से थामा, उसके महज़ कुछ दिन
पहले ही राज्यों के चुनाव घोषित करते समय महाराष्ट्र और झारखंड के लिए चुनाव तारीख़ें
घोषित करना छोड़ दिया गया और जम्मू-कश्मीर तथा हरियाणा, इन दो राज्यों के
लिए ही तारीख़ें घोषित की गईं। अगर केंद्र सरकार एक देश एक चुनाव को लेकर वाक़ई
गंभीर होती तो महज़ कुछ दिन पहले ही चारों राज्यों की तारीख़ें घोषित होती।
जिस तरह से मोदीजी
ने गुजरात से लेकर केंद्र तक अपनी राजनीति की है, जिस तरह से सत्ता चलाई है, यह असंभव लगता है कि चुनाव आयोग ने अपने हिसाब से यह तारीख़ें
घोषित की होगी। जिस तरह इंदिरा गांधी से लेकर दूसरी सरकारों के बारे में हम अनुमान
लगाते हैं, यहाँ भी उसी सरलता से यह अनुमान लगाया है। उपरांत मोदीजी को यक़ीन है कि वे जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र, चारों राज्य हारने
वाले हैं। मोदीजी ने सोचा होगा कि एक साथ चार जगहों पर हारना बड़ा सदमा भी होगा, साथ ही उनकी धूमिल
हो चुकी छवि पर गहरा घात भी होगा। इससे अच्छा है कि क्यों न क़िस्तों में हारा जाए।
दो राज्य अब हारते हैं, दो बाद में हार लेंगे।
ख़ैर, यह तो महज़ एक ख़याल
था। ख़यालों के पास अपने तथ्य नहीं थे, इसलिए कितना सच था, कितना झूठ, यह तो आने वाला समय बताएगा। हम यहाँ अपनी बात पर आगे बढ़ते हैं।
संक्षेप में देखें
तो 18 सितंबर 2024 के दिन केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कैबिनेट बैठक के बाद मीडिया को बताया
कि पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाले पैनल की रिपोर्ट को स्वीकार कर
लिया गया है। इस कमेटी को 2 सितंबर 2023 के दिन समस्त देश में सारे चुनाव एक साथ कराने को लेकर सभी से विचार-विमर्श कर
सुझाव पेश करने के लिए बनाया गया था। इस कमेटी ने मार्च 2024 में तत्कालीन राष्ट्रपति
द्रोपदी मुर्मू को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी।
18,626 पन्नों की यह रिपोर्ट 191 दिनों के विचार-विमर्श का परिणाम है। कमेटी ने लोकसभा और विधानसभाओं
के चुनाव एक साथ कराने का प्रस्ताव दिया है। साथ ही 100 दिनों के भीतर शहरी निकाय और पंचायत चुनाव कराने का प्रस्ताव
है। कमेटी का प्रस्ताव यह है कि चुनाव दो चरणों में कराए जाएँ। पहले चरण में लोकसभा
और राज्य की तमाम विधासभाओं के चुनाव हो और दूसरे चरण में नगरपालिकाओं और पंचायतों
के चुनाव हो। कमेटी ने एक मतदाता सूची और एक मतदाता फ़ोटो पहचान पत्र की व्यवस्था करने
के लिए संविधान में ज़रूरी संशोधन की सलाह भी दी है।
एक देश एक चुनाव के
फ़ायदे या नुक़सान पर माथा पीटने वालों को सबसे पहले ताज़ा ज़मीनी सच और उस सच के पीछे
की वाजिब वजहों को समझाना चाहिए। विश्लेषक, आप कृपया पहले यह बता दीजिए कि "एक चुनाव एक साथ" नहीं करा पाने
वाला देश "सारे चुनाव एक साथ" कैसे करा पाएगा?
एक देश एक चुनाव से
यह होगा, वह होगा। अरे भाई, देश की सबसे महत्वपूर्ण और सबसे ज़रूरी व्यवस्था में इतना बड़ा परिवर्तन करना
है तो इसके लिए कोई ताज़ा डेमो तो पेश करिए कोई। दो राज्यों में एक साथ चुनाव करा नहीं
सकते, और माथा पीट रहे हैं वन नेशन वन इलेक्शन का।
नॉन बायोलॉजिकल प्रधानमंत्री को एक लॉजिकल काम कर लेना चाहिए। वे पूरे भारत
में जिस राज्य में बीजेपी की सरकारें हैं उन विधानसभाओं के कार्यकाल ख़त्म कर दें
और उन सभी राज्यों में एक साथ चुनाव करा लें। डेमो भी मिल जाएगा, साथ ही सबूत भी कि एक साथ चुनाव कराने से भी सत्ता
नियंत्रण की सनक पूरी नहीं हो सकती।
यह लोकसभा में और राज्यसभा
में पास हो पाएगा या नहीं हो पाएगा, कितनी संख्या जुटानी होगी, कितनों को अनुपस्थित रखना होगा, कितने संविधान संशोधन करने होंगे, अनेक संविधान संशोधन करके पारित कराने के बाद सुप्रीम कोर्ट में वह टिक पाएगा
या नहीं, सब सही रहा तब भी वह महिला आरक्षण बिल की तरह कहीं कोने में पड़ा रहेगा या उसे
सचमुच लागू किया जाएगा, यह सब आप अपने हिसाब से सोच लीजिएगा।
हम पहले देखते हैं
इसके पक्ष में रखी जा रही दलीलों को। पहली दलील है - "इससे राजनीतिक स्थिरता आएगी
और इसके चलते विकास कार्यों को तीव्र या अति तीव्र गति मिल सकेगी और देश तेज़ी से विकास
करेगा।" दूसरी दलील है - "इससे देश का पैसा बचेगा, चुनावों में होने
वाले ख़र्चों में भारी कमी आएगी और बचने वाला पैसा विकास कार्यों में लगाया जा सकेगा।"
इस प्रस्ताव के पक्ष
में यह दो मुख्य दलीलें देश में चल रही हैं। इन दो मुख्य दलीलों के उपरांत अन्य भी
तर्क या दलीलें हैं, जैसे कि, "बार बार चुनावों से बहुत सारा लॉ एंड ऑर्डर बाधित होता है, वो नहीं होगा", "एक साथ चुनाव होने
से चुनावों में इस्तेमाल होने वाले काले धन के इस्तेमाल में काफी कमी आएगी", "कम समय में चुनाव ख़त्म
हो जाने की वजह से उम्मीदवारों और शासन-प्रशासन पर पड़ने वाला दबाव कम हो जाएगा", "छोटी पार्टियों को
इलेक्शन फंड इक्ठ्ठा करने का बोज उठाना नहीं पड़ेगा", "उम्मीदवारों और पार्टियों
को विधानसभा और लोकसभा के लिए अलग अलग चुनाव प्रचार करना नहीं पड़ेगा" इत्यादि...
सत्ता से जुड़े लोग
और उस सत्ता के समर्थक हर सरकारों के दौर में होता है वैसे एक सदाबहार दलील यह भी दे
रहे हैं कि देश चाहता है, देश की जनता चाहती है। ऐसी दलीलों को कूड़ेदान में डाल कर हम आगे बढ़ते हैं।
पहली दलील राजनीतिक स्थिरता और तीव्र विकास गति की है, तो सवाल यह है कि
भारत में कुछेक राज्य ऐसे हैं जहाँ 15-20-25-30 सालों से एक ही मुख्यमंत्री और एक ही पार्टी की सरकार रही, वहाँ पाँच साल में
एक ही बार चुनाव हुए, इतनी लंबी और मजबूत राजनीति स्थिरता के बाद भी वे राज्य भारत के विकसित राज्य
क्यों नहीं बन पाए? राजीनतिक स्थिरता और तीव्र विकास गति वाली दलील पहले स्टेप पर
ही कमज़ोर हो जाती है, क्योंकि स्थापित सत्य है कि विकास में सबसे बड़ी बाधा राजनीतिक स्थिरता नहीं
बल्कि भ्रष्टाचार समेत दूसरी समस्याएँ हैं।
यहाँ स्पष्ट हो कि
चुनाव आचार संहिता के दौरान आमतौर पर क़रीब डेढ़ महीने तक सरकार कुछ भी नया नहीं कर
सकती है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार और उसके सारे काम ठप हो जाते हैं। पहले
से चल रही योजना पर इसका कोई असर नहीं पड़ता है। सरकार, उसके मंत्रालय और
विभागों के सारे कामकाज, सारी योजनाएँ, नीतियाँ सब कुछ सुचारु रूप से ही चलाया जा सकता है, कुछ ठप करना नहीं
होता। सिर्फ़ होता यह है कि सरकार चुनावी चालाकी नहीं कर सकती। नयी योजना या नयी घोषणा
के बहाने मतदाताओं को ललचा नहीं सकती।
चुनाव या उसकी आचार संहिता किसी सरकार को उसके पहले से चल रहे विकास कार्यों को
करने से नहीं रोकती। होता इतना है कि नयी घोषणा नहीं हो सकती
या नयी योजना लागू नहीं होती। क्या सरकारें घोषणा करने के लिए ही बनाई जाती हैं? और घोषणा करने की
सहुलियत सरकारों को मिले इसलिए भी एक देश एक चुनाव ज़रूरी है? याद यह भी रखें कि
एक राज्य का चुनाव बाकी राज्यों की सरकारें या केंद्र की सरकार पर कोई रोक नहीं लगाता।
जो चुनाव चंद दिनों में पूरा हो जाना चाहिए उसे अलग अलग चरणों के नाम पर लंबा क्यों
खींचा जाता है?
दूसरी दलील बहुत सारे
पैसे का बचना, कम ख़र्चा और बचे हुए पैसे का विकास कार्यों में लगाने को लेकर है। किंतु एक
साथ इतने सारे चुनाव कराने के लिए जितनी संख्या में ईवीएम चाहिए, जितनी तादाद में तमाम
संसाधन चाहिए, जितने सुरक्षा बल चाहिए, जिस तरीक़े की अतिविशाल तैयारी चाहिए उसके लिए लगने वाला पैसा भी इतना चाहिए कि
अंत में इतनी विशाल माथापच्ची के बाद भी बचने वाला पैसा इतना ज़्यादा नहीं होगा कि
इसके लिए संविधान - संसदीय - संघीय - सामाजिक - राजनीतिक
व्यवस्था में इतना विशाल परिवर्तन कर दिया जाए। उपरांत कौन सा मेट्रिक पास आदमी यह मान सकता है कि बचा हुआ पैसा ये नेता लोग विकास
कार्यों में लगाएँगे।
इससे तो अच्छा है कि 45 करोड़ का पूल बनाने में भ्रष्टाचार न हो, उस पूल को बनाने का ठेका नियमों के हिसाब से ही दिया जाए, पूल उतने ही समय में बन जाए जितने समय में वह बनना चाहिए, मटेरियल ऐसा हो कि कुछ महीने में वह पूल गिर ना पड़े और यदि
कमज़ोर हो जाए तो उसे तोड़ने का टेंडर 55 करोड़ का न हो तब भी पैसे बच सकते हैं और विकास कार्य तीव्र
गति प्राप्त कर सकते हैं।
रही बात लॉ एंड ऑर्डर, काले धन की कमी, कम समय में चुनाव
ख़त्म कराना, इलेक्शन फंड, चुनावी प्रचार-प्रसार वगैरह दलीलों की, सबको पता है कि इन दलीलों को आसानी से चुनौती दी जा सकती है। भूलना नहीं चाहिए
कि आतंकवाद और काले घन को काबू करने के नाम पर नोटबंदी (नोटबदली) की गई थी जिसका अंतिम
परिणाम यह आया कि विधानसभा से लेकर लोकसभा चुनावों में सत्ता दल नोटबंदी को याद नहीं
कर रहा। फंड का फंडा स्थायी सरकार ने ही कुछ ऐसे बनाया कि इलेक्टोरल बॉन्ड का अवतार
हुआ, जिसे भ्रष्टाचार की उस्तादी योजना कहा गया।
अरे भाई, यदि देश का प्रधानमंत्री अपने पद को संभ्हालने के बाद देश का काम ज़्यादा करें, वह विधानसभाओं या
नगर निगमों के चुनावों में ज़रूरत से ज़्यादा रैलियाँ करने से बचे तब भी देश का अगाध
पैसा बच सकता है, साथ ही सरकार जो काम करने के लिए चुनी गई है उस पर ध्यान दे
सकती है। ऐसा किस संविधान में लिखा है कि किसी राज्य या किसी नगर निगम के चुनाव घोषित
होने पर केंद्रीय मंत्रियों को वहाँ दौड़ना पड़ेगा? मंत्री अपना काम करें, उसकी पार्टी के लोग चुनाव लड़ लेंगे भाई?
किसी ऐसे विषय पर समर्थन
या विरोध की दलीलें सुनने-समझने के बाद ज़मीनी स्थिति और हक़ीक़त को देखना चाहिए। आशावाद
या निराशावाद से ज़्यादा काम का होता है हक़ीक़तवाद।
1951, 1957, 1962 तथा 1967 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हुए थे। हालाँकि तब भी 1955 में आंध्र राष्ट्रम
(जो बाद में आंध्र प्रदेश बना), 1957 और 1965 में केरल और 1961 में ओडिशा में अलग से चुनाव हुए थे। 1951 के पहले आम चुनाव में लोकसभा के साथ साथ 22 राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए थे और यह प्रक्रिया 6 महीने तक चली थी।
उस समय क़रीब 17 करोड़ मतदाता थे, आज यह तादाद क़रीब 100 करोड़ है।
1967 के बाद अलग अलग राज्य सरकारों को बर्ख़ास्त करना और इस्तीफ़े की घटनाओं के चलते
यह ट्रेंड समाप्त हो गया। इसके बाद एक देश एक चुनाव के बड़े प्रयास का ज़िक्र 1983 में मिलता है, जब चुनाव आयोग ने
इसका प्रस्ताव तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार को दिया था, जिसे अस्वीकार कर
दिया गया था। 1999 में लॉ कमिशन ने अपनी रिपोर्ट में ये सिफ़ारिश की थी कि देश में चुनाव एक साथ
होने चाहिए, जिससे देश में विकास कार्य चलते रहें।
फ़िलहाल बेल्जियम, स्वीडन, दक्षिण अफ़्रीका, कनाडा, इंडोनेशिया समेत 10 देशों में सारे चुनाव
एक साथ होते हैं। किंतु यह सारे देश भारत की तुलना में बहुत छोटे हैं, साथ ही व्यवस्थाओं
में भिन्न हैं। हमारे पड़ोसी देश नेपाल ने 2015 में नये संविधान को लागू करने के बाद अगस्त 2017 में तमाम चुनाव एक साथ कराए थे। हालाँकि नेपाल ने एक देश एक
चुनाव वाली व्यवस्था स्थायी ढंग से अब तक स्वीकार नहीं की है।
भारत में 2024 के
लोकसभा चुनाव इतने लंबे चले, लगा
कि दो-तीन देशों के चुनाव एक साथ हो रहे हैं क्या? इस लोकसभा चुनाव में एक ही राज्य में बारी बारी मतदान कराया
गया था। यानी कि एक ही लोकसभा चुनाव, एक
ही राज्य, लेकिन उसमें मतदान बारी बारी, एक साथ नहीं। वर्तमान में हम 4 राज्यों में से 2 राज्यों के चुनाव करा रहे हैं, 2 के
नहीं।
2024 के लोकसभा चुनाव में ऐसे कई राज्य थे, जहाँ एक साथ मतदान नहीं कराया गया था। उस राज्य के एक हिस्से में मतदान के लिए
अलग दिवस, दूसरे हिस्से में मतदान के लिए अलग दिवस। इस चुनाव में कुछ राज्य तो ऐसे थे, जहाँ पाँच-पाँच या
छह-छह पारियों में मतदान कराया गया था। एक ही चुनाव एक साथ नहीं हो रहा, और हम बात करते हैं
वन नेशन वन इलेक्शन की!
वन नेशन वन इलेक्शन, जो 1967 तक चला और फिर उसे
त्याग दिया गया, उसे बीजेपी-आरएसएस और मोदीजी ने अरसे से थाम रखा है। किसी की विचारधारा में है
तो वह मुद्दा ज़रूरी ही होगा ऐसा मानना ज़रूरी तो नहीं होता।
भारत विविधताओं से
भरा देश है। इसकी भौगोलिक सीमा विशाल है और इससे भी विशाल उसकी विविधताएँ हैं। सामाजिकता, संस्कृति, विचारधारा, मुद्दे, समस्याएँ, ज़रूरतें, क्षेत्रीय शक्तियाँ...
आप जिस हद तक सोच पाएँ उस हद तक सोच लें, यहाँ विविधता ही विविधताएँ हैं। आज से 50-100 सालों बाद भारत कैसा होगा, हमें नहीं पता। किंतु आज के भारत में एक देश एक चुनाव विवादास्पद विषय है। इस
विषय से उपरोक्त मसलों को नुक़सान होने की संभावनाएँ दिखती हैं।
यहाँ कदम कदम पर सब
भिन्न या विविध है। राजनीति और चुनाव इस देश की प्रमुख व्यवस्था है। और यह व्यवस्था
सारे राज्यों की अपनी विविध सामाजिकता, संस्कृति, विचारधारा, समस्याएँ, ज़रूरतें, मुद्दे आदि पर बनती-बिगड़ती है। यह असंभव है कि तमाम राज्यों में इसके बनने-बिगड़ने
का समय एक सरीखा हो।
स्वतंत्रता के पश्चात
वह दौर कांग्रेस और नेहरू के अभूतपूर्व आभामंडल का दौर था। कांग्रेस केवल राष्ट्रीय
राजनीतिक दल नहीं था उस समय, बल्कि इससे भी अधिक था। क्षेत्रीय शक्तियों का उतना उदय नहीं हुआ था, देश और समाज ख़ुद
को लोकतंत्र में ढाल रहे थे, विविधता से भरा देश उस समय लंबी गुलामी के बाद स्वतंत्र होकर मूल ढाँचों, मूल ज़रूरतों पर ध्यान
दे रहा था, मूल समस्याओं से रूबरु हो रहा था, उन्हें निपटा रहा था या नियंत्रित कर रहा था।
आज स्थितियाँ बिलकुल
अलग हैं। बल्कि उसी समय स्थितियाँ अलग होने लगी होगी, तभी वन नेशन वन इलेक्शन
को त्याग दिया गया था। आज जो विविधता है उसे ऊपर सामाजिकता से लेकर समस्याओं और ज़रूरतों
में दर्शाने की छोटी सी कोशिश की है।
जिस कदम से क्षेत्रीय शक्तियों को नुक़सान पहुंच सकता हो, विपक्षी राजनीतिक दलों की ताक़त कम हो सकती हो, ऐसा कदम इन नुक़सानों को सदैव के लिए रोके जा सकें इस तरह से
उठाने चाहिए। जिसके पास सत्ता हो, जिसके
पास अगाध धन हो वे लाभ उठाते रहे ऐसी संभावना है भी, तो फिर उन संभावनाओं को दूर दूर
तक देख न सकें इस तरह से दूर करने के बाद कोई कदम उठना चाहिए। जिस रास्ते पर चलने के
बाद राष्ट्रपति शासन वाली अलोकतांत्रिक शासनप्रथा से रूबरू होना पड़े उस रास्ते पर
यह प्रथा दूर हो जाए उसके बाद कदम उठने चाहिए।
1967 तक यह प्रथा चली और फिर उसे त्याग दिया गया। उसके 32 सालों बाद 1999 में लॉ कमिशन ने अपनी
रिपोर्ट में ये सिफ़ारिश की कि देश में चुनाव एक साथ होने चाहिए, जिससे देश में विकास
कार्य चलते रहें। इन 32 सालों की अवधि के दौरान भारत ने रक्षा, अवकाश, परमाणु, कृषि, सिंचाई, वितरण, सड़कें, अर्थतंत्र, तमाम क्षेत्रों में विकास किया। बिना उस प्रथा के
यह विकास कार्य बेहतर तरीक़े से चल ही रहे थे।
हमारे यहाँ भारत में
कुछेक राज्यों में तो 15-20-25 सालों तक एक ही व्यक्ति मुख्यमंत्री बना रहा और दो-ढाई या तीन-तीन दशकों तक उन
कुछेक राज्यों में स्थायी सरकार रही। क्या उन राज्यों ने इस स्थायी राजनीतिक स्थिति
में छप्परफाड़ विकास किया है? वहाँ भी हर पाँच साल में एक ही बार चुनाव होते थे और सत्ता दो-ढाई-तीन दशकों तक
स्थायी रही। क्या इन राज्यों ने विकास कार्यों ने इतनी तीव्र गति पकड़ ली कि भारत के
दूसरे राज्य पीछे छूट जाए?
तो फिर फलां फलां कमिशन
या समिति किस हिसाब से दावा करती है कि स्थायी राजनीतिक परिस्थितियों से विकास तीव्र
गति की तरफ़ जाएगा।
स्वाभाविक सी बात है
कि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव, दोनों में जनता की प्राथमिकताएँ अलग अलग होती हैं, समस्याएँ- सवाल- मुद्दे-
ज़रूरतें- पसंदगी- नापसंदगी- स्थितियाँ, समेत अनेक चीज़ें अलग अलग होती हैं। नगर निगमों के या पंचायतों के चुनाव इन सबसे बिलकुल भिन्न परिस्थितियों से घिरे
होते हैं। राष्ट्र, राज्य और ज़िले या गाँव के स्तर पर विभिन्नताएँ होती हैं, जिसमें से अनेक
विभिन्नताएँ विकास के विषय से भी अधिक महत्व रखती हैं।
उपरांत संविधान का
जो मूल ढाँचा है, जो संघीय व्यवस्था है, जिसके गुणगान हर नेता गाता है, उस पर यह व्यवस्था लागू करना यानी उस मूल ढाँचे और मूल व्यवस्था को कमज़ोर करना।
केंद्र और राज्यों के अधिकारों के बँटवारे की मूल व्यवस्था को बदले बिना लागू किया
जाता है तो एक देश एक चुनाव का अर्थ नहीं रहेगा, और अगर उस मूल व्यवस्था को बदला जाता है तो फिर संघीय व्यवस्था
का अनर्थ हो जाएगा।
अगर वन नेशन वन इलेक्शन को उस जीएसटी की तरह रखना है, जिसे वन नेशन वन टैक्स
कहा गया था, तो फिर यह नया सिस्टम आसानी से लागू हो सकता है। जीएसटी वन नेशन वन टैक्स नहीं बल्कि वन नेशन मल्टीपल टैक्स साबित हुआ है। जीएसटी
के ज़रिए टैक्स सिस्टम में कोई भी आमूल या सुधारात्मक परिवर्तन नहीं आया है, बल्कि पुराने टैक्स
सिस्टम को एक नया नाम देकर उसके भीतर टैक्स का व्याप या दायरा बढ़ाया गया है। इसी क्रम
में वन नेशन वन इलेक्शन को लागू किया जाता है तो फिर ना इसके समर्थकों की दलीलें या
आशाएँ पूरी होगी, ना विरोधियों की भावना की पूर्ति हो पाएगी।
स्थापित सत्य है कि चुनावों की संख्या नहीं बल्कि भ्रष्टाचार, सत्ता नियंत्रण, संवैधानिक संस्थाओं का हनन, आदि समस्याएँ विकास करने नहीं देती। ये समस्याएँ जनता का पैसा
बर्बाद करती हैं। यह सह बद से बदतर हो रहे हैं और ध्यान किसी ऐसे मुद्दे की तरफ़ खीँचा
जा रहा है, जो फ़िलहाल प्राथमिक नहीं है। स्थिति ऐसी है, जैसे कि बोरवेल से बच्चे निकालने की तकनीक ज़रूरी लगती है, किंतु बोरवेल को ढक्कन लगाने की ज़िम्मेदारी पर ध्यान नहीं
जाता।
सरकार और उसकी समितियों के कथित विशेषज्ञ जनता को मिलने वाले मौक़े कम क्यों करना
चाहते हैं? विकास को लेकर ये कथित
विशेषज्ञ इतने ही संवेदनशील हैं तो सबसे पहले नेताओं की ख़रीद-फ़रोख़्त को देशद्रोह
की श्रेणी में रख दो। एक अकेला नेता ही नहीं, बल्कि एक साथ पचास-सत्तर नेता पार्टी बदल लें तब भी इनके संवैधानिक ओहदे तुरंत
ख़त्म कर दो और देशद्रोह का मुक़दमा लगाकर ऐसों को जेल भेज दो।
विकास को लेकर कथित विशेषज्ञ लोग इतने ही चिंतित हैं तो फिर सरकारें गिराने का काम देशद्रोह की श्रेणी में रख दो। बंद करवा दो इन क्रिमिनल
लोगों का चुनाव लड़ना। अध्यादेश ला दो कि अगर सरकारें अपने चुनावी घोषणापत्र के
वादे अपने पाँच साल के कार्यकाल में पूरे ना करें तो उस पार्टी को जुर्माना देना होगा
और फिर उस पाँच साल की सरकार में जो भी नेता मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री रहा हो, वह अगले टर्म में
चुनाव नहीं लड़ सकेगा और ना ही उस पद पर रह पाएगा।
क्या एक देश एक चुनाव
लागू होने से चुनाव आयोग, सीबीआई, ईडी जैसी संस्थाओं के मुखिया चुनते या हटाते समय वह स्वायत्तता, पारदर्शिता और सिद्धांत
लागू हो जाएँगे? क्या एक देश एक चुनाव से सीबीआई सरकारी तोता नहीं रहेगा? क्या एक देश एक चुनाव
से चुनाव आयोग टीएन शेषन काल का शेर बन जाएगा? क्या इससे सारे सरकारी टेंडर, टेंडर की प्रक्रिया सुधर जाएगी और पुल ढहना बंद हो जाएँगे?
विशेषज्ञ कहेंगे कि
हम कुतर्क पर उतर आए है। माफ़ कीजिएगा कथित विशेषज्ञों, कुतर्क तो आपका है
कि कम संख्या में चुनाव होने से देश तीव्र विकास गति की तरफ़ जाएगा। ऐसा होता तो 20-25 सालों तक एक ही मुख्यमंत्री
चुनने वाले स्थायी राजनीतिक व्यवस्था सभर वो सारे राज्य भारत के सबसे विकसित राज्य
हो जाते।
यूँ तो यह ख़याल अच्छा लगता है कि एक देश एक चुनाव से जनता का
पैसा बचेगा, समय बचेगा, सरलता
होगी। दिल बहलाने के लिए ग़ालिब यह ख़याल अच्छा है। जनता के पैसे बचाने के लिए जो तरीक़े
अनगिनत समितियों ने, अर्थशास्त्रियों
ने, बुद्धिजीवियों ने पूर्व में सुझाए हैं उन सुझावों को लागू कर
दें। 45 करोड़ में बना पूल 55 करोड़ में तोड़ने से कौन सा पैसा बचता है भाई?
संविधान के अनुच्छेदों
में संशोधन, संघीय ढाँचे की समस्या, यह सब तकनीकी बातें हैं, और सबको पता है कि राजनीति और सत्ता का खेल इससे इतर होता है। इतने गहरे विषयों
की जगह सतही विषय की बात करें तो, जन प्रतिनिधित्व क़ानून और सदन में अविश्वास प्रस्ताव को लाने के नियमों को भी
बदलना होगा। यानी अविश्वास प्रस्ताव के साथ यह भी बताना होगा कि किसी सरकार को हटाकर
कौन सी नई सरकार बनाई जाए, जिसमें सदन को विश्वास हो, ताकि पुरानी सराकर गिरने के बाद भी नई सरकार के साथ विधानसभा या लोकसभा का कार्यकाल
पाँच साल तक चल सकें।
सवाल यह है कि स्वयं
केंद्र, या फिर इतने सारे राज्यों में ऐसा नये प्रकार का अविश्वास प्रस्ताव कैसे अपनी
उम्र पूरी करेगा? देश में तमाम चुनाव एक साथ कराने के लिए देश की सारी विधानसभाओं का एक साथ भंग
होना अनिवार्य होगा। यह कैसे संभव है? यह कितना व्यावहारिक है? अगर किसी राज्य में चुनाव के बाद किसी एक दल या गठबंधन को बहुमत नहीं मिलता तब
सिंपल सी बात है कि तमाम राज्यों में स्पष्ट बहुमत के साथ सरकारें तो बनेगी नहीं। तब
वन नेशन वन इलेक्शन की मूल भावना का क्या होगा?
चुनाव एक मात्र मौक़ा
होता है जब जनता के हाथ में बागडोर आती है। यह नेता लोग जनता को कम मौक़े मिले ऐसा
क्यों चाहते हैं? अंत में जो थोड़ा बहुत पैसा बच सकता है, उसे बचाने के लिए ईवीएम, दूसरे संसाधन, तमाम तैयारियाँ, तमाम संवैधानिक और
संघीय माथापच्ची करके जो मिलेगा उस पर सवाल और संदेह तो जस के तस ही रहेंगे।
ध्यान हटाने के लिए या फिर ध्यान खींचने के लिए अच्छा राजनीतिक कदम है यह। जाते
जाते आपको याद दिला दें कि महिला आरक्षण बिल संसद में भारी बहुमत से पारित हो चुका
है। इसके बाद अनेक राज्यों के चुनाव हो चुके हैं, लोकसभा के लिए भी
चुनाव संपन्न हो चुके हैं। अगले कुछ महीनों में और भी चुनाव आ रहे हैं। महिला आरक्षण
बिल किसी चुनाव में लागू नहीं हुआ है और ना आने वाले कुछ सालों तक लागू होने वाला है।
घ्यान हटाने, भटकाने या खींचने के लिए राजनीति कुछ कदमों को ऐतिहासिक बता देती है, जबकि वे होते नहीं।
जीएसटी की तरह वन नेशन वन टैक्स जैसा नाम देकर उस टैक्स व्यवस्था को वन नेशन मल्टीपल
टैक्स में चलाया जा रहा है उसी प्रकार वन नेशन वन इलेक्शन जैसा नाम देकर आगे जाकर व्यवस्था
को वर्तमान चुनावी व्यवस्था के रूप में ही चलाना पड़े तो फिर पहाड़ खोदने के बाद चूँहा
भी नहीं मिलेगा।
है कथित विशेषज्ञों, चुनावों की कम या ज़्यादा संख्या पर आप बाद में जाना, पहले चुनावों के दौरान
संस्थाओं की स्वायत्तता, निष्पक्षता और उसकी प्रक्रियाओं में सुधार के जो सुझाव पैंडिग हैं उस पर कदम आगे
बढ़ाएँ। फ़िलहाल "एक चुनाव एक साथ" की ज़रूरत है, "एक देश एक चुनाव"
की बातें फिर करें।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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