लोकतंत्र
में सत्ता पक्ष जितना ही ज़रूरी होता है विपक्ष। लोकतांत्रिक देश बिना प्रभावशाली आवाज़
के मजबूत नहीं हो सकता। मशहूर संवाददाता रेहान फ़ज़ल लिखते हैं - साठ और सत्तर के दशक
में एक शख़्स ऐसा हुआ करता था, जो काग़ज़ों
का पुलिंदा बगल में दबाए हुए जब संसद में प्रवेश करता था तो ट्रेज़री बेंच पर बैठने
वालों की फूँक सरक जाया करती थी कि न जाने आज किसकी शामत आने वाली है।
एक ऐसा
नेता, जिसने इंदिरा गांधी
तक की नाक में दम कर रखा था। जिसके छोटे फ़्लेट के छोटे कमरे में कईं राज्यों के राज्यपाल, मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, बुद्धिजीवी, पत्रकार, आदि की बैठकें हुई होगी। एक नेता, जो कभी सरकार का हिस्सा नहीं रहा। जब सरकार
में जाने का मौक़ा मिला, तब भी नहीं
गया।
आज 'राजनीति के साधक' में बात करते हैं मधु लिमये की। समाजवादी
आंदोलन से निकला हुआ एक ऐसा नेता, जिसे देख
सत्ता पक्ष के गलियारों में सिहरन पैदा हो जाती थी। इधर, समाजवादियों को भी डर सा लगा रहता था कि
पता नहीं कुर्सी की दौड़ में जीतने के लिए उनकी वक़्ती तिकड़मबाज़ियाँ मधु लिमये को
कितनी नागवार गुज़रें।
कहते हैं कि बहुत से लोगों को उनसे
चिढ़ भी हुआ करती थी, क्योंकि उनको लगता
था कि 1979 में उनका बना बनाया
खेल मधु लिमये की वजह से बिगड़ गया।
मधु लिमये के साथ लोकतंत्र, आडंबरहीनता और साफ़ सार्वजनिक जीवन, ये तीन हिस्से प्रमुख रूप से जुड़े रहे।
तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थ के समय ही सुनाई देने वाली आज कल के नेताओं की तरह उनकी
अंतरात्मा की आवाज़ काम नहीं करती थी।
लिमये ने अंग्रेज़ों की लाठियाँ भी
खाईं और पुर्तगालियों से भी लोहा लिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सबूतों और दस्तावेज़ों
के साथ ऐसा कमाल का भाषण कि इसके चक्कर में कई केंद्रीय मंत्रियों की कुर्सी चली गईं।
संसदीय परंपराओं और व्यवस्था का ऐसा ज्ञान कि सत्ता पक्ष के लोगों की तमाम दलीलें धरी
की धरी रह जाएँ।
जन्म, जीवनकाल और निधन
मधु लिमये का जन्म 1 मई 1922 को महाराष्ट्र के पूना (पुणे) में हुआ था। पूरा नाम – मधुकर रामचंद्र लिमये। अपनी स्कूली शिक्षा
के बाद उन्होंने 1937 में पूना के फर्ग्युसन
कॉलेज में उच्च शिक्षा के लिए प्रवेश लिया और तभी से उन्होंने छात्र आंदोलनों में भाग
लेना शुरू कर दिया। इसके बाद वह स्वतंत्रता आंदोलन और समाजवादी विचारधारा के प्रति
आकर्षित हुए।
1937 में पंद्रह
वर्ष की अल्पायु में मधु ने पहली बार सार्वजनिक रूप से स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा
लिया, जब वे एक जुलूस
में शामिल हुए। 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध
शुरू हुआ तो इसके बाद इन्होंने युद्ध के ख़िलाफ़ अभियान चलाया। उन्हें गिरफ़्तार कर
खानदेश की धुले जेल भेज दिया गया। रिहाई के बाद इन्होंने महाराष्ट्र में स्वतंत्रता
आंदोलन से संबंधित कार्यभार संभ्हाला। 1942 में भारत
छोड़ो आंदोलन के दौरान इन्होंने अपनी सक्रियता दिखाई। प्रमुख नेताओं की गिरफ़्तारी
के बाद मधु ने अच्युत पटवर्धन और अरुणा आसिफ़ अली के साथ भूमिगत प्रतिरोध आंदोलन में
भी हिस्सा लिया।
इस दौरान मराठी पत्रिका ‘क्रांतिकारी’ शुरू हुई, जिसमें मधु की भी भूमिका थी। ब्रितानी पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार
किया और वर्ली, यरवदा और विसापुर
की जेलों में बिना किसी मुक़दमे के रखा। 1947 में स्वतंत्रता
प्राप्ति तक वे स्वतंत्रता से जुड़े आंदोलनों में अपनी भूमिका निभाते रहे।
स्वतंत्रता के पश्चात 1950 के दशक में पुर्तगाली शासन से गोवा मुक्ति
आंदोलन में इन्होंने भाग लिया, जिसे डॉ. राम मनोहर
लोहिया ने 1946 में शुरू किया
था। गोवा मुक्ति आंदोलन के दौरान उन्हें जेल जाना पड़ा।
15 मई 1952 को मधु ने प्रोफ़ेसर चंपा गुप्ते से विवाह
किया। वह उनके व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन दोनों में प्रेरणा और समर्थन का एक बड़ा
स्रोत साबित हुईं।
मधु स्वतंत्रता प्राप्ति आंदोलन के
दौरान महाराष्ट्र के समाजवादी नारायण गणेश गोरे, श्रीधर महादेव जोशी जैसे लोगों के संपर्क में आए। बाद में कांग्रेस
के अंदर के समाजवादियों जैसे आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राम
मनोहर लोहिया, यूसुफ़ मेहरअली, मीनू मसानी द्वारा 1934 में बनाई गई कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से
प्रभावित होकर 1938 में उसकी सदस्यता
ली।
स्वतंत्रता के पश्चात समाजवादी आंदोलन
कांग्रेस से अलग होकर रचनात्मक विपक्ष की भूमिका में अपने आपको देखने लगा और मधु लिमये
की राजनीतिक पारी भी स्वतंत्र भारत में भी इन्हीं संगठनों से होकर गुज़री। वह सोशलिस्ट
पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट
पार्टी और फिर पार्टी में टूट आने के बाद डॉ. लोहिया के नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी
एवं 1960 के दशक में बनी
संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य रहे।
महाराष्ट्र के मधु ने चार चार बार
बिहार से लोकसभा चुनाव जीता और संसद पहुँचे। संसदीय भाषणों और सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता, सादगी, सिद्धांत स्थिरता, आदि के लिए मधु पहचाने गए।
मधु लिमये ने 1982 में सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के
बाद अंग्रेज़ी, हिंदी और मराठी
में सौ से अधिक पुस्तकें लिखीं और विभिन्न पत्रिकाओं, पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में एक हज़ार
से अधिक लेख लिखे। लोकसभा में अपने प्रदर्शन की तरह अपने लेखन में भी इन्होंने तार्किक, निर्णायक, निर्भीक और स्पष्ट रूप से तथ्यों को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से पेश
किया।
संक्षिप्त बीमारी के बाद 72 वर्ष की आयु में 8 जनवरी 1995 को मधु लिमये का नई दिल्ली में निधन हो गया।
मराठी होते हुए भी उस ज़माने में बिहार से चार बार लोकसभा चुनाव जीते थे लिमये
साठ और सत्तर के दशक में मधु लिमये
ने, जो महाराष्ट्र के पुणे से थे, मराठा थे, बिहार से एक-दो
बार नहीं किंतु चार-चार बार लोकसभा का चुनाव जीता और संसद पहुँचे। इससे पहले वे महाराष्ट्र
के बांद्रा से दो बार चुनाव लड़ कर हार चुके थे।
वे 1964 से 1979 के बीच बिहार से चार बार लोकसभा के सदस्य रहे। वर्ष 1964-67 व 1967-71 में मुंगेर
तथा वर्ष 1973-77 व 1977-79 में बांका से।
1964 में मधु
ने मुंगेर से लोकसभा का चुनाव लड़ा और कांग्रेसी प्रतिद्वंदी शिवनंदन भगत को पराजित
कर पहली बार संसद पहुँचे।
आपातकाल के पूर्व से ही इन्होंने
1973 में बांका संसदीय
सीट से चुनाव जीतकर कांग्रेस के क़िले को ढहा दिया था। 1977 की आंधी में मधु लिमये रिकार्ड 71 प्रतिशत वोट हासिल कर दूसरी बार बांका के
सांसद बने थे।
जब लोकसभा में नेता विपक्ष का पद रिक्त था तब मधु ने अपनी बुलंद आवाज़ का लोहा
मनवाया
डॉ. ए. रघु कुमार ने अपने लेख ‘मधु लिमये: द पास्ट इन द प्रेजेंट’ में उनके संबोधन का उल्लेख किया है, जिसमें मधु कहते हैं, “संसद जन और लोकप्रिय आंदोलनों का विकल्प नहीं थी, बल्कि जनसेवा का एक अतिरिक्त साधन और जनता
की शिकायतों को व्यक्त करने का एक मंच थी। इसका इस्तेमाल आम आदमी की उम्मीदों और प्रेरणाओं
को दर्शाने के साधन के रूप में किया जाना चाहिए।”
मधु लिमये को अपने तीख़े, स्पष्ट, धारदार, तार्किक, तथ्यात्मक और निर्भीक भाषणों और कमोबेश इसी प्रकार के सार्वजनिक
जीवन जीने के लिए जाना जाता है। आश्चर्य यह कि यह सब मधु ने तब किया, जब देश में विपक्ष पहली बार कमज़ोर दशा में था।
सनद रहे कि 1969 तक लोकसभा के अंदर नेता प्रतिपक्ष का पद
रिक्त था, क्योंकि किसी भी
पार्टी के पास सदन की कुल सीटों की कम से कम 10 प्रतिशत
सीट नहीं थी। ऐसे कमज़ोर विपक्षीय संभावनाओं के दरमियान मधु लिमये जैसे सांसदों ने
मज़बूत विपक्ष की भूमिका निभायी। वे सरकार को कटघरे में रखते थे।
द वायर रिपोर्ट की माने तो, भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मधु
लिमये को अपना राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी मानते हुए भी अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर उनसे
सलाह मशविरा किया करती थीं और पूर्व सोवियत संघ के राष्ट्रपति ब्रेझनेव अपनी भारत यात्रा
के दौरान किसी ग़ैर-सरकारी व्यक्ति से अगर मिले तो ये श्रेय भी मधु लिमये को ही जाता
है।
सांसदों को पेंशन के ख़िलाफ़ थे मधु लिमये, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पेंशन को लेने से भी किया था इनकार
मधु लिमये की राय थी कि सांसदों को
पेंशन नहीं मिलनी चाहिए। रघु ठाकुर बीबीसी को बताते हैं कि मधु लिमये ने सांसद की पेंशन
नहीं ली थी। इतना ही नहीं, उन्होंने
अपनी पत्नी को भी कहा कि उनकी मृत्यु के बाद वो पेंशन के रूप में एक भी पैसा न ले।
1976 में आपातकाल
के दौरान इंदिरा गांधी ने जब संसद का कार्यकाल एक वर्ष बढ़ा दिया तब मधु ने इसे अनैतिक
घोषित करके जेल से ही पाँच वर्ष पूर्ण होने पर इस्तीफ़ा दे दिया।
बता दें कि स्वतंत्रता आंदोलन में
सराहनीय योगदान के लिए मधु लिमये को भारत सरकार द्वारा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सम्मान
पेंशन की पेशकश की गई थी, लेकिन उन्होंने
इसे विनम्रता के साथ अस्वीकार कर दिया था।
स्वतंत्रता संग्राम,
गोवा मुक्ति आंदोलन और आपातकाल के दौरान महीनों
तक जेल में रहे, दूसरों की तरह माफ़ीनामे लिख जेल से बाहर नहीं निकले लिमये
1937 से भारतीय
स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने वाले मधु 1947 तक अनेक
बार गिरफ़्तार कर जेल भेजे गए। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ़्तारी के बाद जेल में
उन पर ब्रितानी पुलिस ने अनेक ज़ुल्म ढाए। लेकिन मधु ने पुलिस को सह्योग नहीं किया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गोवा मुक्ति आंदोलन के दौरान भी वे पुर्तगाली शासन की जेल
में भेजे गए।
जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल
लगाया तो मधु लिमये महीनों तक जेल में रहे। इस दौरान अनेक राजनीतिक दलों और संगठनों
के कार्यकर्ता या नेता लोग माफ़ीनामे लिख आपातकाल के दौरान क़ैद से छूट घर में चुपचाप
बैठ गए। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संध के स्वयंसवेकों और दूसरे नेताओं तक ने माफ़ीनामे वाला
विकल्प पसंद किया। लेकिन मधु लिमये ने इस तरह जेल से बाहर निकलना पसंद नहीं किया।
किसी भी समय, किसी भी जेल में, किसी भी शासन के दौरान, मधु ने रिहाई की गुहार नहीं लगाई, ना माफ़ीनामे का विकल्प पसंद किया और ना
ही गुहार लगाती चिठ्ठियाँ लिखीं।
प्रश्न काल और शून्य काल के अनन्य स्वामी रहे लिमये, मधु नहीं लेकिन कटु लिमये!
धीरे धीरे देश की राजनीति भूल रही
थी कि संसदीय लोकतंत्र में बहस कैसे की जाती है, उसका स्तर कैसा होना चाहिए। यह लिखना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि
मधु लिमये ने देश को यह याद दिलाया। संसदीय चर्चा में निर्भिकता, होम वर्क, आँकड़े और तथ्य, अध्ययन
और विश्लेषण, सटीक वार, भुलाई जा चुकी इस परंपरा को इन्होंने नया
जीवन दिया।
मधु लिमये प्रश्न काल और शून्य काल
के अनन्य स्वामी हुआ करते थे। जब भी ज़ीरो आवर होता, सारा सदन साँस रोक कर एकटक देखता था कि मधु लिमये अपने पिटारे
से कौन-सा नाग निकालेंगे और किस पर छोड़ देंगे।
सोनल मानसिंह बीबीसी को कहती हैं, "मधुजी की आवाज़ बहुत भारी थी। बिल्कुल ऐसी
जैसे कोहरे में चलने वाले शिप के हॉर्न की आवाज़। इसलिए मैं उनकी आवाज़ को फ़ॉग हॉर्न
कहा करती थी।"
लिमये जब संसद में होते थे, तो सत्तापक्ष को डर सताता रहता था कि कब
उन पर तीख़े सवालों की बौछार हो जाएगी। शतरंज के चैंपियन लिमये के सवाल साक्ष्य और
सबूत के साथ किसी को भी फँसाने के लिए काफ़ी थे।
मशहूर पत्रकार और एक ज़माने में मधु
लिमये के नज़दीक़ी रहे डॉ. वेद प्रताप वैदिक बीबीसी को बताते हैं, "मधुजी ग़ज़ब के इंसान थे। ज़बरदस्त प्रश्न
पूछना और मंत्री के उत्तर पर पूरक सवालों की मशीनगन से सरकार को ढेर कर देना मधु लिमये
के लिए बाएं हाथ का खेल था।"
वे बताते हैं, "होता यूँ
था कि डॉ. लोहिया प्रधान मल्ल की तरह खम ठोंकते और सारे समाजवादी भूखे शेर की तरह सत्ता
पक्ष पर टूट पड़ते और सिर्फ़ आधा दर्जन सांसद बाकी पाँच सौ सदस्यों की बोलती बंद कर
देते। मैं तो उनसे मज़ाक में कहा करता था कि आपका नाम मधु लिमये है, लेकिन आप बड़े कटु लिमये हैं!"
जब देश को संवैधानिक संकट से बचाया, संसदीय नियमों के ज्ञान के
चैंपियन, रात में चलाया गया था संसद का काम
मधु लिमये को अगर संसदीय नियमों के
ज्ञान का चैंपियन कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। साथ ही उन नियमों के ताक पर
रखे जाने पर भी वे उग्र हो जाते थे। वे संवैधानिक मामलों के ज्ञाता थे। उन्हें भारतीय
संविधान का ‘इनसाइक्लोपीडिया’ कहा जाता था।
1969 में कांग्रेस
में विभाजन हो गया। इंदिरा गांधी सरकार के कई मंत्री उनके विरोधी खेमें में चले गए।
नतीजतन कुछ दिनों तक कई मंत्रियों के पास एक से ज़्यादा विभागों का प्रभार रहा। ख़ुद
इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री पद के साथ-साथ वित्त मंत्रालय संभाल रही थीं। इसी वजह से
1970 का बजट इंदिरा
गांधी ने ख़ुद ही पेश किया था।
बजट का वर्ष 1 अप्रैल से 31 मार्च तक होता है, जबकि बजट पास होते-होते पहले मई का महीना
आ जाता है। इसलिए बजट के साथ-साथ 2 महीने
का वोट ऑन अकाउंट, यानी लेखानुदान
पेश किया जाता है। इस लेखानुदान को 31 मार्च
से पहले संसद से पारित करा लिया जाता है ताकि अगले 2 महीने (अप्रैल और मई) तक देश का ख़र्च चलाने के लिए सरकार को
पर्याप्त रकम मिल सके।
लिमये के एक साथी और मशहूर समाजवादी
नेता लाडलीमोहन निगम द्वारा वर्णित घटना का संदर्भ पेश करते हुए रेहान फ़ज़ल बताते
हैं, "एक बार इंदिरा गांधी
ने लोकसभा में बजट पेश किया जो आर्थिक लेखानुदान था। भाषण समाप्त होते ही मधु लिमये
ने व्यवस्था का प्रश्न उठाना चाहा, लेकिन स्पीकर
ने सदन को अगले दिन तक के लिए स्थगित कर दिया।"
शाम को संसद की उस दिन की कार्यवाही
समाप्त हो गई। सभी सांसद अपने घर चले गए। लेकिन तभी मधु लिमये ने पाया कि आज 31 मार्च है और लेखानुदान तो पास ही नहीं हुआ
है। कल से देश का ख़र्चा कैसे चलेगा? सरकारी कर्मचारियों
को वेतन कैसे मिलेगा? बाकी कामकाज
कैसे होंगे?
मधु झल्लाते हुए लोकसभा स्पीकर गुरदयाल
सिंह ढिल्लों के चैंबर में गए और बोले,
"आज बहुत बड़ा गुनाह हो गया है। आप सारे रिकॉर्ड्स मँगवा कर देखिए।
मनी बिल तो पेश ही नहीं किया गया। अगर ऐसा हुआ है तो आज 12 बजे के बाद सरकार का सारा काम रुक जाएगा
और सरकार का कोई भी महकमा एक भी पैसा नहीं ख़र्च कर पाएगा। जब स्पीकर ने सारी प्रोसीडिंग्स
मँगवा कर देखी तो पता चला कि धन विधेयक तो वाक़ई पेश ही नहीं हुआ था। वो घबरा गए क्योंकि
सदन तो स्थगित हो चुका था।"
"तब मधु
ने कहा ये अब भी पेश हो सकता है। आप तत्काल विरोधी पक्ष के नेताओं को बुलवाएँ।"
तत्काल इंदिरा गांधी से बात की गई।
उसके बाद ऑल इंडिया रेडियो पर पौने नौ के न्यूज़ बुलेटिन में न्यूज़ प्रसारित करवाई
गई कि तत्काल सभी सांसद संसद पहुँचें क्योंकि लेखानुदान पर तत्काल वोटिंग ज़रूरी है।
इसके अलावा लुटियंस दिल्ली में माइक लगी हुई गाड़ियों से सांसदों के इलाक़े में एनाउंसमेंट
कराया गया। तब जाकर रात में संसद बैठी, कोरम पूरा
हुआ और लेखानुदान को संसद की मंज़ूरी दिलाई गई।
सांसद नहीं रहे तो तुरंत घर खाली किया, सामान के साथ सड़क पर खड़ी
रही थीं उनकी पत्नी
यूँ तो भारतीय राजनीति में लिहाज़
का दौर वाजपेयीजी के राजनीतिक सन्यास के साथ ही ख़त्म हो चुका है। वे उस लिहाज़ वाली
राजनीति के आख़िरी राजनेता थे।
रघु ठाकुर मधु लिमये के बारे में
बीबीसी को बताते हैं, "वो कभी-कभी
हमारे स्कूटर की पिछली सीट पर बैठ कर जाया करते थे। इतनी नैतिकता उनमें थी कि जब उनका
संसद में पाँच साल का समय ख़त्म हो गया तो उन्होंने जेल से ही अपनी पत्नी को पत्र लिखा
कि तुरंत दिल्ली जाओ और सरकारी घर खाली कर दो।"
"चंपाजी
की भी उनमें कितनी निष्ठा थी कि वो मुंबई से दिल्ली पहुँची और वहाँ उन्होंने मकान से
सामान निकाल कर सड़क पर रख दिया। उनको ये नहीं पता था कि अब कहाँ जाएँ। एक पत्रकार
मित्र, जो समाजवादी आंदोलन
से जुड़े हुए थे, वहाँ से गुज़र रहे
थे। उन्होंने उनसे पूछा कि आप यहाँ क्यों खड़ी हैं? जब उन्होंने सारी बात बताई तो वो उन्हें अपने घर ले गए।"
एक व्यापारी ने कृतज्ञतावश अपने आप उन्हें मनीऑर्डर भेजा तो लिमये ने गुस्सा होकर
पैसे वापस भिजवा दिए
वेद प्रताप वैदिक बीबीसी को एक क़िस्सा
बताते हैं, "एक बार मैं उनके
घर में अकेला था। डाकिए ने घंटी बजाकर कहा कि उनका 1000 रुपए का मनीऑर्डर आया है। मैंने दस्तख़त करके वो रुपए ले लिए।
शाम को जब वो आए तो वो रुपए मैंने उन्हें दिए। वो पूछने लगे कि ये कहाँ से आए। मैंने
उन्हें मनीऑर्डर की रसीद दिखा दी। पता ये चला कि संसद में मधु लिमये ने चावल के आयात
के सिलसिले में जो सवाल किया था उससे एक बड़े भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ हुआ था और उसके
कारण एक व्यापारी को बहुत लाभ हुआ था और उसने ही कृतज्ञतावश वो रुपए मधुजी को भिजवाए
थे।"
वेद प्रताप आगे कहते हैं, "रुपए देखते ही मधुजी बोले हम क्या किसी व्यापारी
के दलाल हैं? तुरंत ये पैसे उसे
वापस भिजवाओ। दूसरे ही दिन मैं ख़ुद पोस्ट ऑफ़िस गया और वो राशि उन सज्जन को वापस भिजवाई।"
जब आरएसएस के सवाल पर लोहिया से भिड़ गए थे मधु लिमये, हिंदू राष्ट्रवाद के ख़िलाफ़ थे
डॉ. राम मनोहर लोहिया के साथ मधु
ने स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात तक काम किया।
किंतु लिमये अपने समाजवादी साथियों की तुलना में आरएसएस, जनसंघ (बाद में भारतीय जनता पार्टी) और दक्षिणपंथी
राजनीति को लेकर अपने शुरुआती दिनों से ही स्पष्ट थे। लिमये ने आरएसएस की राजनीति को
बहुत क़रीब से देखा, परखा और बार-बार
विरोध किया।
‘मधु लिमये
इन पार्लियामेंट: अ कमेमोरेटिव वॉल्यूम’ में छपे
अपने लेख ‘मधु लिमये: एक धर्मनिरपेक्ष
व्यक्तित्व’ में लिखा गया है, “मधु लिमये
ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन से की थी, इसलिए मधु लिमये की सोच पर राष्ट्रीय आंदोलन
की गहरी छाप थी। पुणे के साने गुरु के प्रभाव के कारण सांप्रदायिक राजनीति और राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से वे शुरू से ही सहमत नहीं थे। इसलिए अपने जीवन के अंतिम
दिनों तक वे इसके ख़िलाफ़ रहे।” (मधु लिमये
इन पार्लियामेंट: अ कमेमोरेटिव वॉल्यूम, लोकसभा
सचिवालय, 2008, पृष्ठ 67)
मधु लिमये ने इस मुद्दे पर स्पष्ट
रूप से वर्ष 1979 में ‘रविवार’ साप्ताहिक में छपे अपने लेख में लिखा, “मैंने राजनीति में 1937 में प्रवेश किया। उस समय मेरी उम्र बहुत
कम थी। मैंने मैट्रिक की परीक्षा ज़ल्दी पास कर ली थी, इसलिए कॉलेज में भी मैंने बहुत ज़ल्दी प्रवेश
किया। उस समय पूना में आरएसएस और सावरकरवादी लोग एक तरफ़ और राष्ट्रवादी व विभिन्न
समाजवादी और वामपंथी दल दूसरी तरफ़ थे। मुझे याद है कि 1 मई 1937 को हम लोगों ने मई दिवस का जुलूस निकाला था। उस जुलूस पर आरएसएस
के स्वयंसेवकों और सावरकरवादी लोगों ने हमला किया था और उसमें प्रसिद्ध क्रांतिकारी
सेनापति बापट और हमारे नेता एस. एम. जोशी को भी चोटें आई थीं। उसी समय से इन लोगों
के साथ हमारा मतभेद था।”
1960 के दशक
में उत्तर भारत में डॉ. लोहिया के नेतृत्व में ग़ैरकांग्रेसवाद की एक नई राजनीति जन्म
ले रही थी। यह नीति वे राजनीतिक फ़लक पर कांग्रेस के प्रभुत्व को ख़त्म करने के लिए
लेकर आए थे। परिणामस्वरूप उन्होंने ग़ैरकांग्रेसी संगठनों को साथ लाने की कोशिश शुरू
की, जिसमें उन्होंने
जनसंघ जैसे दक्षिणपंथी संगठन को भी तरजीह दी।
लोहिया की इस नीति से सवर्ण प्रभुत्व
की सरकारें गिर गईं और भारी संख्या में बहुजन समाज के लोगों की, ख़ास कर पिछड़ों की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित
हुईं। लेकिन दूसरी तरफ़ जनसंघ और आरएसएस जैसे संगठन, जो महात्मा गाँधी की हत्या के बाद राजनीतिक रूप से अस्पृश्य
हो चुके थे और किनारे पर जा चुके थे, उन्हें
मुख्यधारा में आने का मौक़ा मिल गया।
लिमये ने डॉ. लोहिया के साथ इस नीति
के विषय में बहुत शुरू से ही बहस करना शुरू कर दिया था और इस नीति के धरातल पर आने
से पहले ही मधु डॉ. लोहिया का वैचारिक विरोध करते रहे। लिमये ने ख़ुद लिखा था कि उनका
और डॉ. लोहिया के बीच वैचारिक विवाद लगातार चलता रहा। लिमये कहते रहे कि आरएसएस और
जनसंघ के साथ हमारा तालमेल नहीं बैठेगा। एक लेख में इन्होंने लिखा भी कि डॉ. लोहिया
मान नहीं रहे, अंत में आरएसएस
और डॉ. लोहिया की विचारधारा में संधर्ष होकर रहेगा।
लिमये ने अपनी लेखनी के द्वारा आरएसएस
जैसे संगठनों से अपने मतभेद के कारण स्पष्ट किए। उन्होंने संघ के प्रमुख विचारक और
दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर की दो प्रमुख पुस्तकों, ‘वी ऑर आवर नेशनहुड डिफ़ाइंड’ तथा ‘बंच ऑफ़
थॉट्स’ में लिखे उनके विचारों
की आलोचना की।
राष्ट्रवाद, हिंदू राष्ट्रवाद, नफ़रत की राजनीति, जाति व्यवस्था, भाषा, तिरंगा झंडा, संविधान
और संवैधानिक मूल्य, जैसे अनेक मुद्दों
पर लिमये ने खुलकर आरएसएस और जनसंघ से असमहति जताई और उनका विरोध किया।
लिमये ने लिखा था, “मुझे गाली देने में अपने अख़बारों का जितना
संसाधन आरएसएस ने ख़र्च किया, उतना तो
शायद इंदिरा गांधी को भी गाली देने के लिए नहीं किया होगा।” अपने इसी लेख में लिमये ने लिखा था, “मैं अब इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि उनके दिमाग़
का किवाड़ बंद है। उसमें कोई नया विचार पनप नहीं सकता। बल्कि आरएसएस की यह विशेषता
रही है कि वह बचपन में ही लोगों को एक ख़ास दिशा में मोड़ देता है। पहला काम वे यही
करते हैं कि बच्चों और नौजवानों की विचार प्रक्रिया को ‘फ्रीज़’ कर देते हैं। उन्हें जड़ बना देते हैं, जिसके बाद कोई नया विचार वे ग्रहण ही नहीं
कर पाते।”
तीख़े लिमये को पार्टी का अध्यक्ष नहीं बनने दिया गया, फिर केंद्र सरकार में विदेश मंत्री पद ठुकराया
1977 में जब
जनता पार्टी की सरकार बनी तो मोरारजी देसाई ने उन्हें मंत्री बनाने की पेशकश की लेकिन
उन्होंने वो पद स्वीकार नहीं किया।
रघु ठाकुर बीबीसी संवाददाता को बताते
हैं, "पहले उनका नाम जनता
पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए तय हुआ था। सुबह इसका एलान होना था। लेकिन जब मोरारजी
देसाई इसका एलान करने के लिए खड़े हुए तो कुछ लोगों ने उन्हें रोका और जोड़-तोड़ करके
उन्हें अध्यक्ष नहीं बनने दिया गया।"
बक़ौल ठाकुर, "उसके बाद उनसे कहा गया कि आप विदेश मंत्री
बन जाइए। लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया। तब उनसे कहा गया कि आप अपने स्थान
पर किसी को नामज़द करिए। तब उन्होंने छत्तीसगढ़ के एक समाजवादी नेता पुरुषोत्तम कौशिक
का नाम सुझाया। इस तरह कौशिक को मोरारजी मंत्रिमंडल में जगह मिली।"
दोहरी सदस्यता और राजनीति में धर्म के इस्तेमाल के ख़िलाफ़ लिमये, गिरा दी थी मोरारजी सरकार
मधु लिमये राजनीति में धर्म के इस्तेमाल
के ख़िलाफ़ थे। और इसका असर दोहरी सदस्यता के मुद्दे में भी दिखा। 1979 में मधु लिमये ने जनता पार्टी में दोहरी
सदस्यता और आसएसएस से मतभेद का मुद्दा ज़ोरशोर से उठाया, जिसकी वजह से जनता पार्टी
में विभाजन हुआ और मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई।
रघु ठाकुर बीबीसी रिपोर्ट में कहते
हैं, "मैं तो मानता हूँ कि अगर मधु लिमये जनता पार्टी के अध्यक्ष हो
जाते तो जनता पार्टी कभी टूटती ही नहीं। मधु लिमये टूट नहीं चाहते थे, लेकिन वो वैचारिक राजनीति की स्पष्टता के
पक्षधर भी थे।"
बक़ौल ठाकुर, "मधु लिमये राजनीति में धर्म के इस्तेमाल
के पक्ष में नहीं थे, इसलिए उन्होंने
दोहरी सदस्यता का सवाल उठाया। सांप्रदायिकता का विरोध करने वाला उनके जैसा नेता मैंने
कभी नहीं देखा।"
"जब जनता
पार्टी बन रही थी तो ये सवाल उठा था कि जनता पार्टी में शामिल होने वाले जनसंघ घटक
और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बीच क्या संबंध हो। तब संघ ने कहा था कि जनसंघ और उनमें
कोई संबंध नहीं है। लेकिन बाद में ये बात ग़लत साबित हुई। जब जनसंघ के लोगों को काफ़ी
सीटें मिल गईं तो उन्होंने पहले लिए गए फ़ैसले को पलट दिया।"
रघु ठाकुर के अनुसार, "पार्टी बनाना कुछ लोगों की मजबूरी थी और
पार्टी तोड़ना कुछ लोगों का षडयंत्र था, लेकिन उसका
दोष उन्होंने मधु लिमये पर लगा दिया। मधु लिमये का इस टूट से कोई संबंध नहीं था। उन्हें
इसलिए निशाना बनाया गया, क्योंकि
उनकी प्रतिभा और उनकी बेबाकी से व्यवस्था के बहुत से लोगों को भय था।"
देश की जनता की बात जनता की ज़ुबान में ही करने के हिमायती
मधु बहुत अच्छी अंग्रेज़ी जानते थे।
लेकिन संसद में उन्होंने अंग्रेज़ी का इस्तेमाल बहुत कम किया। उनकी भाषाई पकड़ ग़ज़ब
थी कि जब वो बोलते थे तो अंग्रेज़ी का एक भी शब्द अपनी भाषा में आने नहीं देते थे।
मधु कहते थे, "अगर मैं देश की जनता की बात कर रहा हूँ तो
उसकी ज़ुबान में क्यों न करूँ?"
उन्हें शतरंज का खेल बहुत पसंद था।
वो और उनके बेटे अनिरुद्ध बड़े चाव से इस खेल को खेलते थे। अनिरुद्ध लिमये बीबीसी को
बताते हैं, "वो बहुत स्नेही
और उदार पिता थे। उन्होंने किसी के साथ कभी कोई ज़बरदस्ती नहीं की। मेरे साथ भी नहीं।
उनकी हर छोटे बच्चे से बहुत पटती थी। वो बच्चों के साथ उनके बचपने का ख़्याल रखते हुए
भी एक वयस्क की तरह व्यवहार करते थे।"
अनिरुद्ध कहते हैं, "वो हमसे हर चीज़ पर बात करते थे और बहुत
सारे प्रश्न पूछते थे। बचपन की मेरी याद है कि जब मेरी माँ नहीं होती थीं तो वो अक़्सर
अपने हाथों से मुझे नहलाया करते थे।"
फ़िज़ूलखर्ची पसंद नहीं थी, ऑटो या बस से सफ़र किया करते
थे लिमये
डॉ. वैदिक बीबीसी को बताते हैं कि
उन्होंने मधु लिमये को कभी फ़िज़ूलखर्ची करते नहीं देखा। उनके साथ घर की खिचड़ी और
नॉर्थ एवेन्यू की कैंटीन का ढाई रुपए वाला खाना उन्होंने कई बार खाया था।
बक़ौल डॉ. वैदिक, मधु लिमये की पत्नी
पहले हमेशा साधारण तृतीय श्रेणी में और जब तृतीय श्रेणी ख़त्म हुई तो द्वितीय श्रेणी
में यात्रा करती थीं। उनके पंडारा रोड के छोटे-से फ़्लैट की छोटी-सी बैठक में अनेक
राज्यपाल, अनेक मुख्यमंत्री, अनेक केंद्रीय मंत्री और विख्यात संपादक, पत्रकार और बुद्धिजीवी उन्हें घेरे रहते
थे।
मधु लिमये की सादगी का आलम ये था
कि उनके घर में न तो फ़्रिज था, न एसी और
न ही कूलर। कार भी नहीं थी उनके पास। हमेशा ऑटो या बस से चला करते थे। जिस नेता की
आवाज़ संसद और सत्ता के गलियारों को कँपा देती थी, वह नेता
ऑटो या बस से सफ़र किया करता था।
चटख गर्मी में कूलर या एयरकंडीशनर
की जगह पंखे से निकलती गरम हवा में सोना या ख़ुद चाय, कॉफ़ी या खिचड़ी बनाना न तो उनकी मजबूरी
थी और न ही नियति, बल्कि यह उनकी पसंद
थी। रघु ठाकुर बीबीसी को बताते हैं, "एसी उन्होंने
कभी लगाया नहीं। जब बाद में वो बीमार पड़े तो हम लोगों ने काफ़ी ज़िद की कि आपके यहाँ
एसी लगवा देते हैं। लेकिन वो इसके लिए तैयार नहीं हुए।"
रुचियों की विस्तृत रेंज के धनी, महाभारत पर तो उनका अधिकार
सा था, संगीत की बारीकियों का भी था ज्ञान
आज कल के नेताओं में अज्ञानता, नीरसता और ग़ैर कलात्मकता का जो व्यापक असर
है, उस दौर में नेता
इतने अज्ञानी, नीरस और अरुचिकर
नहीं हुआ करते थे। अध्ययन और विश्लेषण का असर उस ज़माने के प्रमुख नेताओं में दिखाई
देता था।
मधु लिमये की रुचियों की रेंज भी
बहुत विस्तृत हुआ करती थी। 'महाभारत' पर तो उनको अधिकार-सा था। अंग्रेज़ी तो अच्छी
थी ही, साथ ही संस्कृत
भाषा और भारतीय बोलियों के वे बहुत जानकार थे। संगीत और नृत्य की बारीकियों को भी वे
बख़ूबी समझते थे।
जानी-मानी नृत्यांगना सोनल मानसिंह
उनकी नज़दीक़ी दोस्त हुआ करती थीं। बीबीसी को सोनल बताती हैं, "उस ज़माने में राजनीतिज्ञ इतने नीरस और ग़ैर
कलात्मक नहीं होते थे। पहली मुलाकात के बाद मधुजी ने इच्छा ज़ाहिर की कि मैं लोधी गार्डन
में टहलने के बाद सुबह नाश्ते के लिए उनके घर आऊँ।"
"मैं जब
पहुँची तो घाघरा और टी शर्ट पहने हुए थी। मुझे देखते ही उन्होंने 'शाकुंतलम' से श्लोक पढ़ना शुरू कर दिया और बोले कि तुम एकदम शकुंतला जैसी
लग रही हो। जब भी मैं उन्हें फ़ोन करती तो उनकी पत्नी चंपा फ़ोन उठातीं और हंसते हुए
उनसे कहतीं - 'लो तुम्हारी गर्लफ़्रेंड
का फ़ोन है।"
"मुझे याद
है एक बार मॉर्डन स्कूल में रविशंकर और अली अकबर ख़ाँ का प्रोग्राम था। वो सीधे हवाई
अड्डे से कार्यक्रम में पहुँचे थे। कार्यक्रम शुरू होने के बाद मैंने देखा कि मधुजी
थोड़े बेचैन से हो रहे हैं। मैंने उनसे पूछा कि आप इतने अनमने से क्यों हैं, तो कहने लगे कि सितार तो मिली हुई नहीं हैं
तो कैसे सुनूँ? तब मुझे अहसास हुआ
कि संगीत में भी उनका कितना दख़ल है।"
सोनल मानसिंह बीबीसी को एक मार्मिक
क़िस्सा सुनाती हैं, "बात उस
समय की है जब मैं अपना घर बनवा रही थी। एक दिन मैं उनके घर गई। जब चलने लगी तो उन्होंने
एक लिफ़ाफ़ा मेरे हाथ में रख दिया और कहा कि घर जा कर खोलना। घर आकर जब मैंने लिफ़ाफ़ा
खोला तो उसमें 5001 रुपये थे। मेरी
आँखों में आँसू आ गए। मैंने उन्हें फ़ोन किया तो बोले किताब की रायल्टी से ये पैसे
आए हैं। ये मेरा छोटा-सा कांट्रीब्यूशन है तुम्हारे घर के बनने में।"
बचपन के
दिन निकाल दें तो लिमये ने क़रीब साठ साल का सार्वजनिक जीवन जिया। भारी भरकम बहुमत
वाली सरकारों पर भारी पड़ने वाले लिमये ने संसद से लेकर सड़क तक अपनी आवाज़ का लौहा
मनवाया। ना सड़क को सुना होने दिया, ना संसद
को नकारा और ना ही सरकार को आवारा।
जोड़, जुगत, जुगाड़ या तिकड़म से सियासत को साधने वाले
दौर में मधु लिमये की ज़रूरत आज किसी को नहीं है। आज कौन चाहेगा कि उनके पास कोई ऐसा
नेता हो जो विचारधारा और सिद्धांत का स्थायी लोकतांत्रिक पक्षधर हो। शायद देश की जनता
ही नहीं चाहती, तो फिर
नेता या उनकी पार्टियाँ क्यों चाहेंगे।
(इनसाइड
इंडिया, एम वाला)