वैसे तो अब प्रधानमंत्री मोदीजी अपनी दाढ़ी बढ़ा चुके हैं। मोदी सरकार पार्ट 1
के समय उनकी जो छवी थी, उसमें से वे सफलतापूर्वक बाहर निकल चुके हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के
दौरान बतौर पीएम उम्मीदवार, इन्होंने देश से वादा किया था कि एक साल के भीतर मैं संसद
को गुनहगारों से मुक्त कर दूँगा। वैसे मोदीजी जितने भी वादे करते हैं, बाद में उन वादों को
जुमला घोषित करने का सत्कर्म अमित शाह के ज़िम्मे होता है! अमित शाह जब ज़िम्मेदारी नहीं निभाते तब पीएम मोदी स्वयं ही बेफ़िक्री से कह देते
हैं कि चुनाव प्रचार में तो कुछ बातें यूँ ही कह दी जाती हैं, उस पर ध्यान न दें! बड़ी निराली जोड़ी ही कह लीजिए।
देश के स्वतंत्रता दिन के महज़ 4-5 दिन पहले देश के बड़े बड़े राजनीतिक दलों पर
सुप्रीम कोर्ट ने राजनीति में अपराधीकरण के एक मामले को लेकर जुर्माना ठोक दिया
है। बीजेपी और कांग्रेस जैसे दल भी इस सूची में शामिल हैं। कमाल का द्दश्य यह होगा
कि ऐसे गंभीर मामले में जुर्माने की सज़ा भुगतते हुए यह तमाम दल आज़ादी के अवसर पर
देशभक्ति और देशसेवा को लेकर फेफड़े भी फाड़ेंगे! और लठैत उनके कमज़ोर फेफड़ों को मजबूती देंगे!
संवैधानिक शख़्सियतों द्वारा समस्त प्रजा को दिया गया आश्वासन या वादा पूरा
नहीं होता तो उसे अदालत लागू करा सकती है। दिल्ली हाईकोर्ट का यह विधान महज़ 20-22
दिन ही पुराना है। देशसेवकों के लिए इशारा मात्र होना चाहिए यह विधान। लेकिन जो
स्पष्ट आदेशों को नहीं मानते, वह इशारों को काहे समझेंगे?
क्रिमिनल लीडरशिप।
यूँ तो 2014 से पहले हर चीज़ राष्ट्रीय समस्या हुआ करती थीं। अब हर राष्ट्रीय समस्या
छोटी सी चीज़ मानी जाती हैं! विकास पथ पर अग्रेसर
सरकार और प्रजा, दोनों अब ढेरों चीज़ों को समस्या ही नहीं मानते! तमाम समस्या का समाधान मोदी सरकार ने एक झटके में कर दिया है। समस्या को समस्या
न मानकर! जब समस्या को समस्या ही नहीं माना जा रहा, तो फिर समस्या ख़त्म ही मान ली गई है!
अभी 10 अगस्त 2021
के दिन ही सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की सत्ताधारी पार्टी भाजपा और दूसरी राजनीतिक पार्टी
कांग्रेस समेत अन्य राजनीतिक पार्टियों पर क्रिमिनल लीडरशिप का ब्यौरा समय पर नहीं
देने को लेकर जुर्माना लगाया है। वैसे तो जुर्माने की रकम इतनी नहीं है कि इन पार्टियों
को यह चीज़ जुर्माने सी लगे। देखा जाए तो सांकेतिक सज़ा है। वैसे भी इन पार्टियों से
कई नेता गंभीर मामलों में जेल चले गए, तब भी इन्हें संकेत समझ नहीं आता, तो फिर ऐसी सांकेतिक सज़ा कैसे समझ आएगी?
चुनावी उम्मीदवारों
के ख़िलाफ़ दर्ज आपराधिक केस सार्वजनिक नहीं करने पर सुप्रीम कोर्ट ने बीजेपी, कांग्रेस सहित 9 दलों
पर जुर्माना लगाया है। बीजेपी, कांग्रेस और पाँच अन्य दलों पर एक-एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया है। पिछले
साल के बिहार विधानसभा चुनाव में आदेश का पालन नहीं करने पर सीपीएम और राष्ट्रवादी
कांग्रेस पार्टी पर 5-5 लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया है।
अदालत ने यह फ़ैसला
एक याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया। याचिका में उन राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्ह को
निलंबित करने की माँग की गई थी, जो अपने उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि का खुलासा
नहीं करते हैं। उसमें यह भी मांग की गई थी कि उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ दर्ज मामले सार्वजनिक
नहीं करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का मामला माना जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने इससे
पहले अपने एक फ़ैसले में कहा था कि उम्मीदवारों को इन विवरणों को प्रत्याशी चयन के
48 घंटों के भीतर या नामांकन पत्र दाखिल करने की पहली तारीख़ से कम से कम दो सप्ताह
पहले अपलोड करना होगा। अदालत ने यह फ़ैसला पिछले साल बिहार विधानसभा चुनाव से जुड़े
एक मामले में दिया था।
इस फ़ैसले
में कहा गया था कि सभी राजनीतिक दलों को यह बताना होगा कि उन्होंने आपराधिक मामलों
वाले उम्मीदवारों को क्यों चुना, और ऐसे उम्मीदवारों के चयन के कारणों के साथ मामलों
के विवरण अपनी पार्टी की वेबसाइट पर खुलासा करें। चुनाव आयोग ने भी राजनीतिक दलों को
उम्मीदवारों के बारे में यह जानकारी अख़बारों में प्रकाशित करने का निर्देश दिया था।
इसका सही से पालन नहीं किए जाने का आरोप लगाते हुए ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर
की गई थी।
राजनीति में अपराधीकरण को 1 साल में ख़त्म
करने का वादा मोदीजी ने किया था। लेकिन वह नरेंद्र मोदी, जो चुनाव आचार संहिता
का ही अचार बनाने में यक़ीन करते हैं, वह इस चीज़ का अमल क्यों करेंगे? नरेंद्र मोदी ही नहीं, बल्कि तमाम राजनीतिक जमात के लिए कहा जा सकता है कि जो लोग आचार संहिता का उल्लंघन
करते हैं, वे अपराध मुक्त राजनीति का आसान काम नहीं करेंगे। तरह तरह के क़ानून लाने वाली
ये जमात मेनिफेस्टो को लेकर क़ानून काहे लाएगी?
यूँ तो अदालत ने केंद्र
की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी समेत दूसरे दलों पर भी जुर्माना लगाया है। किंतु राजनीति
को गुनहगारों से मुक्त करने का वादा मोदीजी ने जिस अंदाज़ में किया था, लगा था कि
वह करेंगे ज़रूर। बतौर पीएम उम्मीदवार वह वादा किया गया था। वे भारी विरोध के बाद भी
न जाने कितने फ़ैसले लागू करते हैं, क़ानून लागू करते हैं। उन्होंने जो कभी कहा नहीं था, वैसी चीज़ें लागू करते
हैं। लेकिन जो कहा था उसे लागू नहीं करते! हाल के दिनों में हम अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, राहुल गांधी, शरद पवार जैसे नेताओं से भी पूछ सकते हैं कि आपने राजनीति में अपराधीकरण कम क्यों
नहीं किया? वहाँ भी यही हाल है। आख़िरी ताक़त केंद्र के हाथ में है। वे सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा
देकर राजनीति में अपराधीकरण को एक झटके में रोक सकते हैं। लेकिन रोक नहीं रहे!
क्रिमिनल लीडरशिप को
रोकने का काम अनुच्छेद 370 को निष्क्रिय करने जितनी बड़ी माथापच्ची नहीं है। क्रिमिनल
लीडरशिप को ख़त्म करने का काम कृषि क़ानूनों को लागू करने जितना मुश्किल काम नहीं है।
आसानी से हो सकता है। मोदीजी राजनीति में अपराधीकरण को रोकने के लिए कोई क़ानून लाते
हैं तो इसका विरोध जनता नहीं करेगी। कोई आंदोलन नहीं होगा, जैसे कई मसलों को
लेकर फ़िलहाल हो रहे हैं। लेकिन मोदीजी जो वादे करते हैं, काम उससे उल्टा करते
हैं!
अभी तो एक याचिका पर
सुनवाई करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना, न्यायमूर्ति विनीत
सरन और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की बेंच ने कहा कि राजनीतिक दलों को अपने उम्मीदवारों
के चयन के 48 घंटों के भीतर आपराधिक रिकॉर्ड सार्वजनिक करना ही होगा। इसके साथ ही अदालत
ने यह भी कहा कि सांसदों, विधायकों के ख़िलाफ़ दर्ज आपराधिक मामले हाईकोर्ट की मंजूरी के बिना वापस नहीं
लिए जा सकेंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने सत्ताधारी
पार्टी बीजेपी, राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस, सीपीएम, एनसीपी समेत दूसरे दलों पर इस आदेश के उल्लंघन पर जुर्माना लगाया है। जुर्माने
की रकम यूँ तो छोटी सी है। किंतु अदालत ने चेतावनी दी है कि आगे ऐसा होगा तो वह और
गंभीर कदम उठाएगी। इन दलों को अदालत की अवमानना का दोषी भी पाया गया है!
चुनाव सुधार का इतिहास, राजनीति में अपराधीकरण
का इतिहास, पीएम मोदी जैसे लोकप्रिय नेता के क्रिमिनल लीडरशिप को लेकर झूठे वादे और जुमले...
सब कुछ मिलाकर खिचड़ी पकती है तब लगता है कि इन राजनेताओं की खाने की थाली में सीधी
सादी खिचड़ी नहीं है, बल्कि रजवाड़ी खिचड़ी परोसी गई है! नागरिक कम हैं, प्रजा की तादाद ज़्यादा है, सो क्रिमिनल छवी वाले लोग चुने जाते हैं और बाबा साहब आंबेडकर जैसे नेता से लेकर
इरोम शर्मिला जैसे लोग थैंक्स फॉर 90 वोट्स कहकर राजनीति को अलविदा कहने को मजबूर हो
जाते हैं!
2014 के लोकसभा चुनाव
के अभूतपूर्व चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र
मोदी ने जो वादे किए थे सारे के सारे जुमले साबित हो चुके हैं! कुछ को बाक़ायदा अमित शाह जुमला कह चुके हैं, कुछ को स्वयं लोग ही मान चुके हैं! मोदी सरकार पार्ट 1, यू टर्न सरकार और जुमला सरकार के रूप में स्थापित हो चुकी थी।
प्रधानमंत्री बनने
के बाद चुनावी वायदों पर जब सवाल पूछे जाने लगे तो बतौर पीएम इन्होंने बेफ़िक्री से
कह दिया था कि चुनाव में तो कुछ बातें यूँ ही कह दी जाती हैं, उस पर ध्यान ने दें!!! चुनावी वायदों से कन्नी काटने के बाद बतौर पीएम उन्होंने जो आश्वासन दिए, जितने एलान किए, उस पर सवाल पूछने
की हिम्मत किसी में नहीं रही है अब!
चुनाव जीतने से पहले, यूँ कहे कि प्रधानमंत्री
बनने से पहले, नरेंद्र मोदी ने जितने भी वादे किए थे उनको जुमला माना जाए, कुछ ऐसा वातावरण अमित
शाह ने बना दिया! काला धन वाली बात को बाक़ायदा जुमला बोलकर! फिर दूसरी बातों को जुमला माना जाए, यह एलान अमित शाह को करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी!!! प्रजा ने अपने आप दूसरी बातों को जुमला मान लिया! यू टर्न सरकार, जुमला सरकार, सूट बूट की सरकार, बहुत सारे दाग़ चिपक गए मोदी सरकार की पहली पारी में। दाग़ बिना सर्फ एक्सेल के
धो लिए, अपनी दाढ़ी बढ़ा कर!
जब पीएम नहीं थे मोदीजी, तब देश से 5 साल
माँगा करते थे। 5 साल दे दीजिए, मैं 50 सालों का काम कर दूँगा। फिर पीएम बनने को आए तो हिम्मत इतनी बढ़ी कि 5
साल के बदले 1 साल माँग लिया! कह दिया कि 1 साल के भीतर संसद को गुनहगारों से मुक्त कर देंगे। मोदीजी कह देते
हैं, फिर क्या हुआ यह पूछने का चलन ना प्रजा में है, ना मीडिया में! मोदीजी की हिम्मत और बढ़ी। 5 साल के बाद 1 साल और फिर 1 साल से भी कम समयावधि
वाला सपना! इन्होंने नोटबंदी में 50 दिन मांग लिए। कह दिया कि 50 दिन बाद आपके सपनों का भारत
होगा। ऐसा ना हो तो मुझे फाँसी पर लटका देना। क्या हुआ और क्या नहीं, सबको पता है। प्रजा
और मीडिया का प्यार देखकर हिम्मत इतनी बढ़ी कि फिर 50 दिन से भी कम, 18 दिन की अवधि ले
ली! कह दिया कि महाभारत
का युद्ध 18 दिनों में जीता गया था, हम कोरोना को भी 18 दिनों में हरा देंगे! फिर क्या हुआ वह भी जगज़ाहिर है। माँ गंगा की गौद में कितनी लाशें बहीं, कितने मरें, आँकड़ा ही नहीं मिल
पा रहा!
हमारे यहाँ चुनाव सुधार
एक बड़ा मुद्दा रहा है। यह मुद्दा बड़ा नहीं होता, लेकिन बड़ा मुद्दा शायद इसलिए रहा, क्योंकि लगभग तमाम राजनीतिक
दल चुनाव सुधार के मुद्दे पर अमूमन एकजुट दिखाई देते रहे हैं! इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत में चुनाव सुधार के ज़्यादातर
कार्य, जो कि मींल के पत्थर समान थे, न्यायालय ने ही किए! जनसेवा या देश को
बदलने की बातें करने वाले राजनीतिक दल इसके बाद यही कहते नज़र आए कि हम न्यायालय का
सम्मान करते हैं। लेकिन जो काम उन्हें करने चाहिए थे, न्यायालय को करने
पड़े! यहाँ नज़रिया यह समझने को लेकर भी है कि जो
राजनीतिक दल सदैव हमें अलग-थलग करने में जुटे रहते हैं, वे कितने एकजुट होते हैं, जब उनके साम्राज्यों
को लेकर छोटा-मोटा भी ख़तरा मंडराने लगे।
राजनीति में अपराधीकरण
कम करने का वादा मोदीजी ने देश से किया था। गाजे बाजे के साथ किया था। उनसे किसी ने
नहीं कहा था कि इतने दिनों में कर दीजिए यह काम। उन्होंने स्वयं ही देश को आश्वासन
दिया कि 1 साल के भीतर यह काम कर दूँगा। परिणाम यह कि अपराधीकरण कम होने की जगह बढ़ता
गया! मोदीजी ने यूँ ही कह दिया यह आश्चर्य नहीं है। वे यूँ ही कहने
के आदती नेता हैं। किंतु बतौर पीएम उम्मीदवार, उन्होंने यूँ ही कह दिया यह नोटेबल सब्जेक्ट
ज़रूर है। ऐसा नेता, जो महत्वपूर्ण संवैधानिक पद धारण करने को आतुर हैं, वह यूँ ही बोलता और
भूलता रहता हैं!
स्वयंभू घोषित नायक
ने बार बार सबूत दिए हैं कि वह यूँ ही नायक हैं, नायक के लिए लायक हैं या नहीं, यह दूसरी बात है।
यूँ तो हमारे यहाँ चुनाव सुधार के लगभग तमाम बड़े और अच्छे काम न्यायालय ने ही किए।
वह अच्छे काम, जो राजनीतिक व्यवस्था को करने थे, वह काम न्यायिक व्यवस्था को करने पड़े! क्यों, इसका उत्तर नागरिक समझ सकते हैं, प्रजा का पता नहीं। चुनाव सुधार की तमाम अड़चनों के लिए राजनीतिक व्यवस्था ज़िम्मेदार
है। और इस स्थिति के लिए अपराधी जनता है। ऐसी राजनीति को जनता आशीर्वाद दे देती है, जो राजनीति आचार संहिता
तक की चीथड़े उड़ाती हुई संविधान की रक्षा करने का जुमला फेंकती रहती है।
राजनीति में अपराधीकरण
को लेकर सबसे बड़ा मसला रहा है क्रिमिनल बैकग्राउंड वाले उम्मीदवारों को चुनावी प्रक्रिया
से दूर करना। इसे लेकर हालिया इतिहास में 2006 में मामला न्यायिक चौखट तक पहुंचा। 2006
में चुनाव आयोग ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर कहा था कि, “यदि जनप्रतिनिधित्व
क़ानून 1951 में ज़रूरी बदलाव नहीं किया गया, तो वह दिन दूर नहीं जब देश की संसद और विधानसभाओं
में दाऊद इब्राहीम और अबू सलेम जैसे लोग बैठेंगे।”
7 साल तक राजनीति इस
मामले पर एकजुट रही। कुछ नहीं हुआ! आख़िरकार सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में सख़्त फ़ैसला देते हुए 2013 में इस धारा
को खारिज़ कर दिया। सियासी बिरादरी में खलबली मच गई। सर्वोच्च न्यायालय के इस ऐतिहासिक
फ़ैसले का सभी दलों ने विरोध कर दिया! इतना ही नहीं, तमाम राजनीतिक दलों ने अदालत को अपनी हद में रहने की नसीहत भी दे डाली! मनमोहन सिंह शासित यूपीए सरकार ने इस अदालती फ़ैसले की काट के लिए अध्यादेश जारी
कर दिया! राजनीति ने सचिवालय से अधिसूचना जारी करने
की प्रक्रिया में मनमानी कर अदालती फ़ैसले से बचने का रास्ता निकाला! किसी राजनीतिक दल ने यूपीए सरकार के इस कदम का विरोध नहीं किया! जैसे कि सारे इस मसले पर केंद्र सरकार के साथ खड़े दिखाई दिए!
याचिका के 15 साल गुज़र गए, अदालत के उस फ़ैसले के 8 साल निकल गए, किंतु राजनीति ने
मामला लटका कर रखा हुआ है! चुनावी समर में एक
दूसरे को फिसड्डी कहने वाले ये राजनीतिक दल इस मामले में एकजुट हैं! 2006 में मामला अदालत में पहुंचा। इस दौरान 2009 में कांग्रेस शासित यूपीए सरकार
बनी और 2014 में एनडीए शासित बीजेपी सरकार। अदालत ने 2016 में केंद्र की बीजेपी सरकार
से पूछा था कि हमारे आदेश के 3 साल गुज़र जाने के बाद भी सरकार ने क़ानून लागू करने
के लिए कदम क्यों नहीं उठाया है?
जबकि 2014 में मोदीजी
गाजे बाजे के साथ कहते थे कि 1 साल के भीतर संसद को गुनहगारों से मुक्त कर दूँगा। उन्हें
इस काम के लिए ज़्यादा कुछ करने की ज़रूरत भी नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट के 2013 के एक
आदेश को लागू कराना था। लेकिन नयी सरकार ने भी नहीं किया! अप्रैल 2017 में टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने एक ख़बर छापी। अख़बार ने लिखा कि केंद्र सरकार
आपराधिक मामलों में दोषी साबित हुए व्यक्ति के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध के ख़िलाफ़ है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया के मुताबिक़ सरकार ने यह बात सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका की सुनवाई
के दौरान कही थी।
यानी यूँ तो मोदीजी
ने देश से जो वादा किया था वह यूँ ही किया था! बाक़ायदा वे अपने उस वादे से बिल्कुल विपरित जाकर काम कर रहे थे! राजनीति में अपराधीकरण को रोकने का बड़ा अदालती काम ख़त्म हो चुका था। मोदी सरकार
को तो बस उस आदेश को लागू करना था। लेकिन नहीं किया! ऊपर से चुनावी प्रचार को धर्म और जाति से दूर रखने के उस अदालती आदेश की धज्जियाँ
चुनाव दर चुनाव उड़ाते चले गए!
5 साल से 1 साल, 1 साल से 50 दिन, 50 दिन से 18 दिन।
अब मोदीजी को दिन विन मांगने की ज़रूरत ही नहीं है। उनको दिन क्या, महीने क्या, साल क्या, वे चाहे उतना समय
देने को भारत की बहुधा प्रजा तैयार बैठी है। प्रजा का बहुधा हिस्सा अब कह रहा है कि
दिन महीने साल गुज़रते जाएँगे, हम प्यार में जीते मरते जाएँगे। मोदीजी कहते हैं कि देखेंगे। प्रजा का वह बहुधा
हिस्सा कहता है कि देख लेना। मोदीजी जानते हैं कि उनकी (नेताओं) की बात जुमला हो सकती
है, प्रजा का आश्वासन तो शाश्वत होता है।
1 साल के भीतर संसद
को गुनहगारों से मुक्त कर दूँगा। मोदीजी का यह एलान एक बड़ा जुमला साबित हो चुका है।
प्रजा भी इसे याद नहीं करती।
सांसदों और विधायकों
के ख़िलाफ़ दर्ज ऐसे मामले काफ़ी ज़्यादा आते रहे हैं। चुनाव सुधार के लिए काम करने
वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (Association for Democratic
Research), यानी एडीआर इसका आकलन करती रही है। हाल ही में केंद्रीय कैबिनेट
विस्तार के बाद एडीआर ने दागी मंत्रियों पर ऐसी ही एक रिपोर्ट जारी की है।
एडीआर की एक रिपोर्ट
के मुताबिक़, कैबिनेट में शामिल 78 मंत्रियों में से 42 फ़ीसदी ने अपने ख़िलाफ़ आपराधिक
मामले घोषित किए हैं, जिनमें से 4 पर हत्या के प्रयास से जुड़े मामले हैं। एडीआर ने इसी साल जुलाई में
तब रिपोर्ट जारी की जब 15 नए कैबिनेट मंत्रियों और 28 राज्य मंत्रियों ने शपथ ली थी।
इसी के बाद मंत्रिपरिषद की संख्या 78 हो गई।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक
रिफॉर्म्स ने चुनावी हलफ़नामों का हवाला देते हुए कहा है कि विश्लेषण किए गए सभी मंत्रियों
में से 33 (42 फ़ीसदी) ने अपने ख़िलाफ़ आपराधिक मामले घोषित किए हैं। लगभग 24 यानी 31 प्रतिशत
मंत्रियों ने अपने ख़िलाफ़ दर्ज हत्या, हत्या के प्रयास, डकैती आदि से संबंधित मामलों सहित गंभीर आपराधिक मामले घोषित किए हैं।
कूचबिहार निर्वाचन
क्षेत्र से निसिथ प्रमाणिक, जिन्हें गृह राज्य मंत्री नियुक्त किया गया है, ने अपने ख़िलाफ़ हत्या (आईपीसी धारा-302) से संबंधित मामला घोषित
किया है। 35 साल की उम्र में वह कैबिनेट में सबसे कम उम्र के मंत्री भी हैं। चार मंत्रियों-
जॉन बारला, प्रमाणिक, पंकज चौधरी और वी मुरलीधरन ने हत्या के प्रयास (आईपीसी की धारा-307) से जुड़े मामले घोषित
किए हैं।
विश्लेषण किए गए मंत्रियों
में से 70 (90 फ़ीसदी) करोड़पति हैं और प्रति मंत्री औसत संपत्ति 16.24 करोड़ रुपये हैं। चार
मंत्रियों ने 50 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति घोषित की है। ये मंत्री ज्योतिरादित्य
सिंधिया, पीयूष गोयल, नारायण राणे और राजीव चंद्रशेखर हैं।
आपराधिक पृष्ठभूमि
वाले सांसद भारत में कोई नया मामला नहीं है,
लेकिन नरेंद्र मोदी ने 2014 में जिस तरह से राजनीति में अपराध, पैसे के प्रभाव और
भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का वादा किया था उससे काफ़ी ज़्यादा उम्मीदें थीं।
लेकिन इसके कम होने
की तो बात ही दूर है, और ज़्यादा मामले बढ़ते रहे हैं! एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार 2019 में चुनाव के बाद संसद के निचले सदन के नए सदस्यों
में से लगभग 43% ने आपराधिक आरोपों का सामना करने के बावजूद जीत हासिल की। यह उनके द्वारा दायर
चुनावी हलफ़नामे में ही कहा गया है। रिपोर्ट के अनुसार, उनमें से एक चौथाई
से अधिक बलात्कार, हत्या या हत्या के प्रयास से संबंधित हैं।
एडीआर की ही एक रिपोर्ट के अनुसार पूर्व मुख्य
चुनाव आयुक्त एस वाई. क़ुरैशी ने कहा था कि 2004 के राष्ट्रीय चुनाव में लंबित आपराधिक
मामलों वाले उम्मीदवारों का प्रतिशत 24 प्रतिशत था, जो 2009 में बढ़कर
29 या 33 प्रतिशत, 2014 में 34 प्रतिशत था। 1 साल के भीतर संसद को गुनहगारों मुक्त कर दूँगा के एलान के
बाद 2019 में यह हिस्सा और ज़्यादा बढ़कर 43 प्रतिशत हो गया!
राजनीति में अपराधीकरण।
क्रिमिनल लीडरशिप की सूची बनाने बैठेंगे तो महाभारत से भी बड़ा ग्रंथ तैयार हो सकता
है! आप नाम लिखते लिखते-पढ़ते पढ़ते-गिनते गिनते ज़िंदगी गुज़ार देंगे, लेकिन इनकी गाथा ख़त्म नहीं होगी!
ग़ज़ब तो यह है कि आप
ऐसे महानुभावों की सूची बनाएंगे तो अंत में आपको इसमें भी अपराधों के अनुसार वर्गीकरण
वाली प्रक्रिया आजमानी होगी! मसलन, दुष्कर्म के आरोपी, डकैती के आरोपी, दंगाई, हत्या के आरोपी, फिरौतीबाज़... वगैरह
वगैरह!!!
भाजपा को वाजपेयी और
फिर मोदी काल में दिल्ली का तख़्त मिला तब तक वे कांग्रेस से अलग दिखते थे। लेकिन अपने
सत्ताकाल में भाजपा जैसे दल ने भी दिखा दिया कि कांग्रेस कभी नहीं जाती, जिसे सत्ता मिलती है वही कांग्रेस बन जाता
है!
भाजपा के अध्यक्ष, कथित चाणक्य और देश
के गृहमंत्री सरीखे शख़्स अमित शाह पर भी कई मामले दर्ज हुए थे, जिनसे वे छुटकारा पा चुके हैं और अब आधिकारिक
रूप से स्वच्छ हैं। किंतु मोदी-शाह की जोड़ी के दौरान देश के लगभग तमाम राजनीतिक दलों
से कई क्रिमिनल रिकॉर्ड वाले नेता बीजेपी में आए, मंत्री बने और भारत को विश्वगुरू बनाने में योगदान देते रहे यह बात नज़रअंदाज़ नहीं
की जा सकती। स्वयं मोदीजी महाराष्ट्र में कथित गैंगस्टर के लिए चुनाव प्रचार करते हुए
दिख चुके हैं! मंच पर कथित शराब माफ़िया के साथ गुजरात
में मोदी द्वारा प्रचार करना, यह तस्वीर भी कुछ सालों
पहले की ही है।
मैं संसद को 1 साल
के भीतर गुनहगारों से मुक्त कर दूँगा। इस एलान पर मोदीजी ने अमल ऐसा किया कि पिछली
दफा से भी ज़्यादा अपराधियों को संसद के भीतर ले आए! 2009 वाली लोकसभा का विक्रम तोड़ दिया। 34 फ़ीसदी सांसद ऐसे ले आए मोदीजी, जिन पर आपराधिक मुकदमे दर्ज थे! फिर तो कोई उनसे पूछता ही नहीं था कि आपके उस वादे का क्या हुआ? ऊपर से प्रजा ने पिछली बार से ज़्यादा प्यार दिया तो इनकी हिम्मत और बढ़ी। अपना
ख़ुद का 2014 वाला विक्रम तोड़ 2019 में 43 फ़ीसदी अपराधियों को संसद में लाकर बिठा दिया!
अब तो अनगिनत मामलों
में तथाकथित जनसेवकों पर मामलें दर्ज हो चुके हैं। झूठे प्रमाणपत्रों से लेकर अतिगंभीर
मामलों वाले राजनेताओं की संख्या कम नहीं है। न्यायालयों द्वारा जुर्माने पाने वाले, फटकार पाने वाले तथा सज़ा पाने वाले राजनेताओं
की सूची लंबी है। ग़ौरतलब है कि क्रिमिनल लीडरशिप की सूची बहुत ही लंबी है तथा इसमें
लगभग तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं के नाम शुमार हैं। देश को सपना दिखाकर फिर यू टर्न
लेने वाले चालाक और छलिया नेताओं की सूची में कोई अव्वल नंबर पर पहुंचना चाह रहा है।
अभी कुछ दिनों पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने एक मामले को लेकर कहा था कि एक
मुख्यमंत्री द्वारा किया गया वादा या दिया गया आश्वासन पूरा नहीं होता, तो उसे
अदालत लागू करा सकती है। यानी आम भाषा में पूरा करने के लिए संबंधित सरकार के
मुखिया को आदेश या निर्देश दे सकती है। हालाँकि अदालत ने चुनावी वादा, राजनीतिक
वादा आदि चीज़ों में अंतर ज़रूर देखा था। अदालतें सीधा आदेश देती हैं तो राजनीति
आदेश की काट में अध्यादेश ले आती है! ऐसे में अदालतें अंतर समेत आदेश देगी, तो फिर अध्यादेश लाने की ज़रूरत ही
क्या है! है न? वादा या आश्वासन पूरा नहीं होता तो उसे अदालत लागू करा सकती है। दिल्ली
हाईकोर्ट का यह विधान देशसेवकों के लिए इशारा मात्र होना चाहिए। लेकिन जो आदेशों
को नहीं मानते, वह इशारों का काहे समझेंगे?
21वीं सदी के महान लोकतंत्र की समझदार जनता होने के नाते आपको यह ज्ञात होना चाहिए
कि ऐसे जनसेवक चाहे किसी भी दल से हो, लेकिन इन्हें हमारे
देश का हर दल बड़ी आसानी से अपने यहाँ जगह देता हैं और लोग सहजता से स्वीकार कर लेते
हैं। अंतिम तस्वीर तो यही है कि आज हर किसी के पास क्रिमिनल लीडरशिप है, और वे यह कहते हैं
कि हम करप्शन फ्री गवर्नमेंट देंगे, और प्रजा इस दावे पर यक़ीन भी करती नज़र आती हैं!!!
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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