सरदार पटेल, डॉ. आंबेडकर, सुभाष चंद्र बोस जैसे ऐतिहासिक नामों को बाद में भारत रत्न दिया जाता है, शातिर राजनेता और
बड़े पर्दे के अभिनेता इनसे पहले योग्यता प्राप्त कर लेते हैं!!! भारत रत्न से लेकर पद्म श्रेणी के सम्मानों की स्थिति यह है कि ऐसे ऐसे लोगों
को यह सम्मान दिया जा चुका है कि अब तो स्वयं सम्मान का ही सम्मान ख़तरे में है!
भारत रत्न से लेकर पद्म विभूषण, पद्म भूषण या पद्म श्री जैसे सम्मान। इनके साथ हर दफ़ा विवाद जुड़ते आए हैं। ज़्यादातर
पद्म श्रेणी के सम्मान राजनीतिक लॉबिंग और चुनावी चाल के साये के तले विवादों में ही
रहे हैं। राष्ट्र आपका सम्मान करें इसलिए स्वयं के नाम की किसी तरह सिफ़ारिश कराना, लंबी राजनीतिक पहुंच
होना, या फिर आपका नाम आगे करने से राजनीति को बड़ा फ़ायदा पहुंचना, राष्ट्रीय सम्मान
प्राप्त करने के लिए ये सब अतिआवश्यक तत्व हैं! आपकी कला, क़ाबिलियत, सिद्धियाँ, सब उसके बाद आते हैं!
हमें राष्ट्रीय पुरस्कारों
की बात करनी है। किंतु इससे पहले नोबेल शांति पुरस्कार का ज़िक्र करना आवश्यक है। महात्मा
गाँधी को इस पुरस्कार के लिए पाँच बार नामांकित किया गया, किंतु पुरस्कार नहीं
दिया गया। स्वतंत्रता से पहले गाँधीजी को चार बार नामांकित किया गया, किंतु उस समय की महासत्ता
ब्रिटेन की नाराज़गी की वजह से यह पुरस्कार भारत नहीं आया। गाँधीजी के बताए रास्ते पर
चलने वाले तीन-चार लोगों को यह पुरस्कार मिला, किंतु गाँधीजी को नहीं मिला! इतना ही नहीं, पुरस्कार समिति ने
इस बाबत अपनी ग़लती भी मानी।
हम राष्ट्रीय सम्मानों
की बात पर लौटते हैं। पद्म श्रेणी के सम्मान इतने विवादों में रहे हैं कि हर साल जब
इस सम्मान को पाने वाले लोगों की सूची घोषित की जाती है तब लोग तंज कसा करते हैं। क्योंकि
इस सूची में बहुत ज़्यादा नाम इसी प्रवृत्ति के प्रेरक समान होते हैं।
पद्म पुरस्कारों को
लेकर अमूमन सबसे ज़्यादा विवाद हुआ करते हैं। पद्म पुरस्कारों के लिए जिन नामों की
सिफ़ारिश की जाती है, उन पर विचार करने के लिए लिए प्रधानमंत्री हर साल कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में
एक कमेटी का गठन करते हैं। इन नामों पर विचार करने के बाद कमेटी प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति
से पद्म अवॉर्ड के नामों की सिफ़ारिश करती है। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से मंजूरी
मिलने के बाद पद्म अवॉर्ड के लिए नाम तय किए जाते हैं और गणतंत्र दिवस के मौक़़े पर इनकी
घोषणा की जाती है।
मास्टर ब्लास्टर सचिन
तेंदुलकर को भारत रत्न। इस घटना के दौरान जो विवाद हुआ वह भारत रत्न जैसे सम्मान के
लिए शायद ही कभी हुआ होगा। इससे पहले भारत रत्न सम्मान खेल से जुड़े किसी व्यक्ति को
नहीं दिया जाता था। विवाद यह नहीं था कि इस बार दिया गया। विवाद यह था कि अगर खेल से
जुड़े किसी व्यक्ति को दिया जाना था, तो फिर सचिन तेंदुलकर से ज़्यादा हक़ इस पर मेजर ध्यानचंद का था।
सबसे पहले तो किसी
खिलाड़ी को यह सम्मान दिया जाना था, इसलिए नियमों में ख़ास बदलाव किए गए! विवाद उतना नहीं होता, किंतु हॉकी के जादूगर को किनारे कर सचिन को दिया गया, यह ज़्यादा विवादास्पद
था।
मेजर ध्यानचंद, जिन्हें जर्मनी ने
बाक़ायदा उनकी तरफ़ से खेलने के लिए आमंत्रित किया, पर वे भारत को छोड़ किसी के लिए नहीं खेले। वह शख़्स, जिन्होंने भारत की
अस्मिता को ऊंचा किया। जिन्होंने स्वतंत्रता से पहले लगातार तीन ओलिंपिक में भारत को
हॉकी में गोल्ड मेडल दिलाए। ध्यानचंद ने अपनी करिश्माई हॉकी से जर्मन तानाशाह हिटलर
ही नहीं, बल्कि महान क्रिकेटर डॉन ब्रैडमैन को भी अपना क़ायल बना दिया था। जिनका जन्मदिन
भारत में राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है।
ऐसे शख़्स को छोड़ सचिन
तेंदुलकर को चुना जाना विवादास्पद बना। सचिन बेशक क्रिकेट के महानतम खिलाड़ी हैं। एक
खिलाड़ी के तौर पर उनका कोई मुक़ाबला नहीं हो सकता। किंतु नोट यह भी किया जाना चाहिए
कि बतौर ख़िलाड़ी सचिन महान हैं, किंतु बीसीसीआई एक निजी संस्था है और सचिन बीसीसीआई की तरफ़ से खेलते हैं, देश की तरफ़ से नहीं।
आयकर विभाग, विज्ञापनों की दुनिया, आदि विवादों में फँस
चुके सचिन भारत रत्न के सम्मान के लायक हो गए और मेजर ध्यानचंद रह गए! सचिन को आप उस सम्मान के लिए किसी भी तरह योग्य मान लें, किंतु उनसे भी ज़्यादा योग्य थे हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद।
सैफ़ अली ख़ान को भी
पद्म श्री सम्मान मिला हुआ है! इनकी कुंडली खोली
जाए तो ये महाशय कई विवादों के साये में रहे हैं। ऊपर से इनकी कुंडली में ऐसा कुछ मिलता
ही नहीं कि इन्हें पद्म श्री के लायक माना जाए।
शरद यादव जैसे नेता
ने एक बार कह दिया था कि पद्म सम्मान झूठे, मक्कार, बेईमान और बड़े लोगों को ही दिए जाते हैं। सौ फ़ीसदी मुमकिन है कि उनका यह बयान
राजनीतिक होगा। राजनीतिक लोग राजनीतिक बयान ही देंगे। किंतु नागरिकों का बड़ा समूह
इन सम्मानों के लिए ऐसा ही मानता है।
उधर शरद पवार भारत
के दूसरे सबसे बड़े सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित किए जा चुके हैं! शरद पवार अपने आप में विवादित व निहायत मौक़ापरस्त राजनीति के धनी रहे हैं। इनके
नाम के साथ बड़े बड़े विवाद जुड़ चुके हैं। राजनीति में भ्रष्टाचार से लेकर क्रिकेट
की दुनिया में काले संस्करणों से इनका और इनकी पार्टी का नाम सदैव जुड़ता रहा है। शुगर
किंग जैसे बदनाम नाम से पवार पहचाने जाते रहे हैं। मीडिया के सामने एक युवक से जन्नाटेदार
थप्पड़ भी खा चुके हैं शरद पवार।
राष्ट्रीय सम्मानों
के साथ अरसे से विवाद जुड़ते रहे हैं। पहले कम विवाद होते थे, अब ज़्यादा। 1954 में शुरू किए गए इस
सम्मान को बीच में निरस्त कर दिया गया था। सन 1977 में मोरारजी देसाई सरकार ने इन पदकों और सम्मानों का प्रावधान ही ख़त्म कर दिया
था। सन 1980 में इंदिरा गांधी सरकार ने इसे फिर से शुरू कर दिया।
सरदार पटेल को सन 1991 में भारत रत्न दिया
गया था। देश के संविधान के प्रमुख निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर को 1990 में भारत रत्न मिला।
नोट करें कि इनसे पहले के. कामराज जैसे शातिर राजनेता और रामचंद्रन जैसे अभिनेता तक
भारत रत्न से सम्मानित हो चुके थे!!! इसीसे बहुत कुछ समझा जा सकता है। सुभाष चंद्र बोस को यह सम्मान 1992 में दिया गया। मशहूर
लेखक व पत्रकार खुशवंत सिंह ने 2008 में लिखा था, "हर साल होने वाले इस चयन पर किस बात का ध्यान दिया जाता है, यह आज तक मेरी समझ
में नहीं आया है।"
पद्म श्रेणी के सम्मानों की हालत देखिए। शरद
पवार को तथा इनकी पार्टी एनसीपी को तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेचुरल करप्ट
पार्टी का तमगा सार्वजनिक रूप से अनेकों बार पहना चुके हैं। किंतु उन्होंने ही 2017 में शरद पवार को पद्म विभूषण से नवाज दिया!!! भारत रत्न के बाद दूसरा सबसे बड़ा सम्मान विवादित व शातिर नेता शरद पवार को दे
दिया गया! सोशल मीडिया से लेकर राजनीतिक विश्लेषकों की एक राय थी कि नरेंद्र मोदी ने शरद
पवार को यह सम्मान राजनीतिक मक़सद से दिया था, ताकि उन्हें अपनी
तरफ़ किया जा सके।
इस साल मुरली मनोहर
जोशी और पीए संग्मा जैसे राजनेताओं तक को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्म विभूषण
दिया गया था! हालाँकि शरद पवार जैसे विवादित नाम की कृपा
के चलते इन दोनों का बचाव हो गया।
तमिलनाडु में जयललिता
के निधन के बाद उन्हें भारत रत्न पुरस्कार देने की मांग 2017 में उठने लगी थी!!! तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ओ पनीरसेल्वम ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जयललिता
को भारत रत्न देने की मांग की थी। जयललिता के साथ भ्रष्टाचार और अनैतिकता के बहुत सारे
मामले सार्वजनिक हैं। ग़नीमत है कि देश का सर्वोच्च सम्मान इन्हें अब तक तो नहीं मिल
पाया है।
जयललिता की पार्टी
के सांसद विजेता सत्यानंत ने तो यहाँ तक कह दिया था कि जयललिता के अमूल्य योगदान को
देखते हुए भारत सरकार को उन्हें नोबेल पुरस्कार दिलाने की कोशिश करनी चाहिए! भ्रष्टाचार और अनैतिक राजनीति में अमूल्य योगदान के अलावा देश के लिए इनका कौन
सा योगदान अमूल्य होगा यह रिसर्च करने के बाद भी किसी को नहीं मिल सकता।
2016 में भारत के जाने माने उद्योगपति और रिलायंस के संस्थापक धीरूभाई अंबानी को पद्म
विभूषण से सम्मानित किया गया। धीरूभाई अंबानी ने देश के लिए कोई उत्कृष्ट या असाधारण
काम नहीं किया था कि उन्हें यह सम्मान मिले। लेकिन फिर भी मिला! वजह सभी को मालूम होगी। रिलायंस बेशक दुनिया का बहुत बड़ा उद्योग समूह है। किंतु
दूसरी तरफ़ उसके साथ जुड़े हुए विवाद, उस समूह की छवि, व्यापार करने का उसका विवादित तरीक़ा, भ्रष्टाचार, जासूसी, राजनीति के साथ साँठगाँठ, शेयर बाज़ार के विवादास्पद मामले, वीपी सिंह का रिलायंस के पीछे पड़ जाना, फिर राजीव गाँधी का उस उद्योग समूह को बचाना, यह सब रिलायंस के साथ अरसे से चिपके हुए तथ्य हैं।
वैसे कौन किस सम्मान
के लायक है, कौन नहीं, यह तय करने का अधिकार सरकार का है और इस संबंध में सरकारी फ़ैसले को चुनौती नहीं
दी जा सकती। सुप्रीम कोर्ट में धीरूभाई अंबानी को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्म
विभूषण देने का मामला पहुंचा था। लेकिन ये सब चीज़ें अदालतें कैसे तय कर सकती हैं? ऐसे मामलों को क़ानूनी
तौर पर चुनौती देने का दूर दूर तक कोई तुक बनता ही नहीं है। यह मसला तो नैतिकता, पारदर्शिता, योग्यता, मनशा, जैसी चीज़ों से जुड़ा
है।
भारत रत्न जैसे सबसे
बड़े सम्मान के साथ इतने विवाद जुड़े हैं, तो फिर पद्म श्रेणी के पुरस्कारों से संबंधित विवादों की गाथाएँ अनगिनत हैं। कत्थक
गायिका सितारा देवी ने 2002 में पद्म भूषण यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि मुझसे जूनियर व अल्पज्ञात लोगों को
पद्म विभूषण मिल चुका है। उस्ताद विलायत ख़ाँ ने 1964 में पद्म श्री और 1968 में पद्म विभूषण यह कह कर ठुकराया कि चयन समिति में संगीत की गुणवत्ता के बारे
में फ़ैसला करने की योग्यता रखने वाले सदस्य नहीं हैं।
पद्म श्रेणी के पुरस्कार
अनेकों बार विवादित उद्योगपतियों तक को बाँट दिए गए हैं। फ़िल्मी दुनिया के ऐसे ऐसे
लोग इस सम्मान के हक़दार बन जाते हैं कि बेचारा सम्मान स्वयं ही असम्मानित सा महसूस
कर जाता है।
जिस इलाक़े में चुनावी फ़ायदा उठाना हो वहाँ
के किसी व्यक्ति को ऐसे सम्मान दे दिए जाते हैं! ऐसा नहीं है कि सम्मान पाने वाला हरेक व्यक्ति अयोग्य हो। योग्य व्यक्ति होते
हैं और अनेकों बार होते हैं। किंतु सम्मान देने के बजाए जैसे कि सम्मान की रेवड़ी बँट
रही हो ऐसी स्थिति आ चुकी है! मामला उस कॉस्मेटिक इंडस्ट्री की तरह है, जिसमें दुनिया के
जिस कोने में व्यापार करना हो वहाँ की लड़की मिस वर्ल्ड बन जाती है। यहाँ भी राजनीति
को भारत के जिस कोने में फ़ायदा उठाना हो, वहाँ के व्यक्ति योग्य
हो जाते हैं, बाकी अयोग्य!
शहरों, गाँवों, सड़कें, इलाक़े, आदि का नाम बदलने
वाली राजनीति पुरस्कारों के नाम से ही राजनीति शुरू कर देती है! इस बात को नज़रअंदाज़ बिलकुल नहीं करना चाहिए कि राजीव गाँधी या ऐसे नामों से जो
सम्मान दिए जाते रहे, वे सम्मान कम किंतु राजनीतिक तीर-कमान ज़्यादा होते थे। दूसरी तरफ़, जो सत्ता चुनावी फ़ायदे
के मक़सद से देश के बड़े बड़े सम्मान बेच रही हो, वे राजीव गाँधी खेल रत्न पुरस्कार का नाम बदल कर मेजर ध्यानचंद
खेल रत्न पुरस्कार कर दे, तो इसके पीछे की वजहें भी राजनीतिक ही होती हैं।
एक खेल रत्न पुरस्कार
से नेता के नाम को हटाने का जश्न भी कैसे मनाए? क्योंकि ऐसा करने वाले इससे पहले एक विश्व स्तरीय क्रिकेट स्टेडियम से सरदार पटेल
का नाम हटाकर अपना नाम दे चुके होते हैं!
2021 के दौरान फ़िल्म अभिनेता रजनीकांत को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार दिया गया। रजनीकांत
को यह सम्मान मिलना चाहिए या नहीं, विवाद इस पर नहीं था। विवाद था सम्मान के राजनीतिक इस्तेमाल पर। कोरोना ने रजनीकांत
को थकाया नहीं होता तो वे इन दिनों तमिलनाडु में वोट माँग रहे होते। वे अपनी राजनीतिक
पार्टी बनाने की घोषणा कर चुके थे। फिर पीछे हट गए। क्यों, यह उन्हें ही पता
होगा। 6 अप्रैल को तमिलनाडु में वोट पड़ने वाले थे और उससे महज़ पाँच दिन पहले रजनीकांत
को यह पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई।
पूरा मामला संदेह के ज़्यादा नज़दीक़ पहुंचा केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर की वजह से।
इन्होंने एक प्रेस कॉन्फरन्स की, जिसमें रजनीकांत को पुरस्कार दिए जाने की जानकारी दी गई। किंतु उसके बाद जावड़ेकर
राजनीति और ममता बनर्जी की बातें करने लगे! पहचान पाना मुश्किल हो रहा था कि सम्मान की घोषणा देश का मंत्री कर रहा है या
सत्ताधारी दल का नेता? उसके बाद सत्ताधारी दल के नेता सोशल मीडिया पर लिखने लगे कि हिम्मत है तो कांग्रेस
या डीएमके विरोध करके दिखाएँ। ज़ाहिर है पुरस्कार देने के पीछे उस व्यक्ति के स्टारडम
का चुनावी इस्तेमाल एक बड़ा मक़सद था।
कमल हासन भी रजनीकांत
की तरह ही प्रतिभावान कलाकार हैं। वे भी तमिलनाडु की राजनीति में कदम बढ़ा रहे थे।
कमल हासन और रजनीकांत, दोनों पद्म भूषण हैं। लेकिन उस दिन तक कमल हासन मोदी सरकार के आलोचक थे, रजनीकांत प्रशंसक।
कमल हासन मोदी सरकार को प्रिय नहीं थे, रजनीकांत बेहद प्रिय थे। एक से सत्ता की राजनीतिक ज़रूरत पूरी नहीं होती थी, दूसरे से हो रही थी।
इंदिरा गांधी ने सन
1976 में के. कामराज को मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया था! के. कामराज को भारत रत्न देना किसी अचंभे से कम नहीं माना जा सकता। अनैतिक राजनीति, मशहूर व बदनाम कामराज
प्लान, कामराज के बारे में शातिर राजनीति के सिवा दूसरा कुछ स्वतंत्रता के पश्चात जुड़ा
नहीं। सन 1977 में तमिलनाडु में चुनाव थे और कामराज उस इलाके से ग़हरा संबंघ रखते थे। मतदाताओं
को लुभाने के लिए यह सम्मान दिया गया था ऐसा मत आज भी विद्यमान है। कामराज को भारत
रत्न, यह घटना सैफ़ अली ख़ान को पद्म सम्मान से भी ज़्यादा चौंका जाती है।
1989 में तमिलनाडु में चुनाव होने थे और उससे पहले सन 1988 में राजीव गांधी सरकार
ने एमजी रामचंद्रन को भारत रत्न से सम्मानित किया! रामचंद्रन तमिल फ़िल्मों के सुपरस्टार थे, साथ ही सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री भी थे। यहाँ भी कहानी और संशय वही था जो पहले
और आज के समय में होता है।
मशहूर गायक भूपेन हज़ारिका
और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न देने की घोषणा भी असम और बंगाल में
होने वाले चुनाव और सियासत को ध्यान में रखकर की गई हो ऐसा साफ़ दिख रहा था। तब भी
इन हस्तियों की योग्यता या पात्रता को लेकर सवाल नहीं उठे, बल्कि जिन प्रदेशों
में चुनाव होने वाले हो सिर्फ़ उन्हें ध्यान में रखकर भारत रत्न जैसे सम्मान तय किए
जाए, इस पर सवाल उठे थे।
भारत रत्न या पद्म
श्रेणी के साथ इतने सारे विवाद जुड़े हैं, तो फिर सोचिए कि दूसरे राष्ट्रीय सम्मानों के क्या हालात होंगे? साहित्य, कला, फ़िल्म, खेल के अनेक अवॉर्ड
हर साल दिए जाते हैं। सब में बवाल कटता ही रहता है।
अगर आप लेखक हैं, कलाकार हैं, पत्रकार हैं, तो फिर आप अपने राज्य
की सरकार के लिए अच्छा अच्छा लिख दें, बोल दें, आपकी सिफ़ारिश हो जाएगी। दूसरी तरफ़ अगर राजनीति की अपनी ज़रूरत पूरी होती हो
तो वे आपको सामने से सम्मान दे देंगे। कुल मिलाकर चापलूसी और राजनीति की ज़रूरत, दोनों पहली प्राथमिकता
है। और यह चीज़ अरसे से इन सम्मानों को विवादित बनाती है।
वैसे जब भी ऐसे पुरस्कारों की घोषणा होती है तब विवाद होते हैं। कुछ विवाद जायज़
होते हैं, कुछ नहीं। राजनीतिक उपयोगिता, राजनीतिक फ़ायदा, चुनावी राजनीति, यही इन सम्मानों के आसपास घूमते तथ्य हैं। तभी तो आजकल स्थिति यह है कि ऐसे राष्ट्रीय
सम्मानों का ख़ुद का ही सम्मान अब ख़तरे में है!
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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