ओडिशा राज्य का यह मामला, जिसमें कथित रूप से भुवनेश्वर के एक पुलिस थाने में भारतीय सेना के एक अधिकारी
की मंगेतर के साथ पिशाची व्यवहार किया गया। ऐसा व्यवहार जो भारतीय संस्कृति से लेकर
भारत की स्थापित व्यवस्था, क़ानून और संविधान के नज़रिए से इतना ग़लत है कि इसे केवल यौन शोषण के द्दष्टिकोण
से ही नहीं देखा जाना चाहिए। पुलिस थाने में कथित रूप से जो घटना भारतीय सेना के अधिकारी
और उनकी मंगेतर के साथ घटी है वह अगर जाँच के बाद सही पाई जाती है तब भी यह अपराधियों
को कड़ी सज़ा के बाद भी शर्मसार करती रहेगी।
बेशक हम भारत की संस्कृति को लेकर गौरव कर सकते हैं, भारत के इतिहास को
महान बता सकते हैं। किंतु लगता है कि गौरव या महानता के नाम पर हम हमारी कमियों को
छिपाना चाहते हैं। महान भारत का यह कैसा समाज है, जो जघन्य अपराधों
में भी पसंदीदा सत्ता, नापसंदीदा सत्ता, जाति और धर्म से ही उन अपराधों को देखना शुरू करता है!
उधर हिन्दू-मुस्लिम तो छोड़ ही दीजिए, राजनीति तो अब एक ही संप्रदाय के भीतर जातिगत विभाजन की त्रासदी
को भी फैला चुकी है और इसी त्रासदी से जन्मी राजनीतिक सनक की बीमारी के चलते गिरगिट
जैसा हो चुका समाज किसी अपराध को अपनी पसंदीदा-नापसंदीदा राजनीति के चश्मे से ही देखता
है।
यह कथित मामला ओडिशा
राज्य के भुवनेश्वर शहर का है। सब कुछ राजनीतिक नज़रिए से ही देखने वाले समाज के लिए
लिख दें कि यहाँ बीजेपी सरकार है। राज्य के मुख्यमंत्री मोहन चरण माझी है। उस समाज
के ज्ञान के लिए यह भी बता देते हैं कि वह सरकार भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
ने अपने नाम पर अपनी गारंटी देकर बनाई थी। शिखर धवन के टूटे अँगुठे पर ट्वीट करने
वाले किंतु महिला पहलवानों से लेकर मणिपुर पर चुप रहने वाले पीएम मोदी इस पर भी
चुप हैं।
किसी एक राज्य की घटना
पर देश भर में शोर मचाने वाले उस राजनीतिक समाज को समझाया नहीं जा सकता, किंतु इस घटना की
पीड़िता ने मीडिया के समक्ष जो बताया है वह 'स्तब्ध' करने वाला है। यह जघन्य यौन शोषण तो है ही, साथ ही मानवता के विरुद्ध है, किसी नागरिक के गरिमापूर्ण
जीवन जीने के संवैधानिक और नैतिक अधिकार पर बहुत बड़ा हमला है।
अगर पीड़िता के आरोप
सही साबित होते हैं तब यह फिर से साबित हो जाएगा कि पुलिस थानों में लोगों की सुरक्षा
का दायित्व कुछ भेड़ियों को भी दिया गया है। घटना रविवार 15 सितंबर 2024 की बताई जाती है।
इस दिन भारतीय सेना के कैप्टन स्तर के अधिकारी की मंगेतर के साथ पुलिस थाने के भीतर
कथित रूप से क्रूर और शर्मनाक यौन हिंसा हुई।
मीडिया रिपोर्ट के
मुताबिक़ भारतीय सेना के कैप्टन स्तर के अधिकारी की वह मंगेतर एक रेस्टोरेंट की मालिक
है, साथ ही महिला वकील
भी है। यानी कि वह सशक्त महिला है और उनके साथ कथित रूप से जो हुआ वह विचलित करने वाला
है।
सत्यहिन्दी में कृणाल
पाठक की रिपोर्ट के मुताबिक़ हर तरह से सशक्त यह महिला अपने मंगेतर के साथ जब थाने
में कुछ गुंडों की शिकायत करने जाती है तो उसे पुलिस स्टेशन में यौन हिंसा का शिकार
होना पड़ता है। बकौल रिपोर्ट पीड़िता कहती हैं, "जब मैंने भुवनेश्वर स्थित भरतपुर थाने में जाकर उन गुंडों की शिकायत दर्ज करवाने
की कोशिश की तो थाने में मौजूद महिला कर्मियों ने मेरी बात नहीं सुनी। जब मैंने अपनी
शिकायत पर जोर डाला और अपनी परेशानी को लेकर बोलना शुरू किया तो पुलिस ने मेरे मंगेतर
को कस्टडी में ले लिया। जब मैंने विरोध किया और कहा कि वे सेना के एक अधिकारी को हिरासत
में नहीं रख सकतें, क्योंकि यह ग़ैरक़ानूनी है तो दो महिला अधिकारियों ने मेरे बाल खींचना शुरू कर
दिया और मुझे पीटना शुरू कर दिया। जब मैंने उनसे रुकने की विनती की तो वो मुझे थाने
के गलियारे से घसीटकर ले गए।"
अपराधियों को मार मार कर लंगड़ा करने वाली पुलिस उस अपराधी का
जुलूस निकालती है तब समाज और मीडिया, सभी
को लगता है कि देश में क़ानून और संविधान का राज चलता है। लेकिन इसी पुलिस के इन जुलूस
वीडियो से ज़्यादा तो वह वीडियो घूमते रहते हैं जिसमें क़ानून और संविधान की धज्जियाँ
उड़ती होती है। अपराधियों या असामाजिक तत्वों के ख़िलाफ़ सफलता से काम करने वाली पुलिस
को क्या अधिकार है कि वह सभी नागरिकों के साथ अपमानजनक, आपत्तिजनक और अभद्र भाषा में बात करें? उस सफल पुलिस की सफलता उन्हें यह अधिकार कैसे दे सकती है कि
कोई शिक्षित व्यक्ति जो अपना जीवन गरिमा के साथ जीना चाहता है उसे बिना किसी गुनाह
के मारा-पीटा-घसीटा जाए?
बीबीसी हिंदी में संदीप
साहू की रिपोर्ट में पीड़िता के हवाले से लिखा गया है कि पुलिस ने शिकायतकर्ता के मंगेतर
(सेना में अधिकारी) को हवालात में बंद कर दिया। उनकी मंगेतर ने इसका विरोध किया तो
एक महिला अफ़सर ने उन्हें बेतहाशा पीटना शुरू किया और वह महिला अधिकारी शिकायतकर्ता
के बाल पकड़कर घसीटने लगी। शिकायतकर्ता ने अपने आपको बचाने के लिए उस अफ़सर के हाथ
पर काट लिया। इसके बाद वहाँ मौजूद सारे अधिकारी बौखला गए।
कृणाल पाठक की रिपोर्ट
बताती है कि पीड़िता के मुताबिक़ पुलिस की क्रूरता यहीं नहीं रुकी। रिपोर्ट में पीड़िता
के हवाले से लिखा है कि, "महिला पुलिसकर्मियों
ने मेरी जैकेट उतार दी और उससे मेरे दोनों हाथ बाँध दिए। उन्होंने मेरे दोनों पैरों
को दुपट्टे से बाँध दिया। बाद में एक पुरुष पुलिसकर्मी आया और मेरी ब्रा उतारने के
बाद लगातार मेरी छाती पर लात मारने लगा। फिर थाने का इंस्पेक्टर आया, अपनी पैंट की जिप खोली, अपने गुप्तांग दिखाए
और मुझे चिढ़ाने लगा।"
वहीं पुलिस का आरोप
है कि जब कैप्टन और उनकी मंगेतर भरतपुर थाने में आए थे, तब दोनों नशे में धुत थे, थाने में उन्होंने
हुड़दंग मचाया और वहाँ मौजूद अधिकारियों के साथ दुर्व्यवहार किया, जब एक महिला अधिकारी ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो उन्होंने उनके हाथ काट लिए
और थाने के अंदर तोड़फोड़ की, जिसमें एक कंप्यूटर
डैमेज हुआ, इसलिए उन पर मामला दर्ज किया गया और उन्हें
हिरासत में लिया गया।
सेना के उच्च अधिकारियों
के हस्तक्षेप के 10 घंटे के बाद सेना
के अधिकारी को छोड़ दिया गया। हालाँकि उनकी मंगेतर को पुलिस ने अपनी हिरासत में रखा
और फिर उन्हें एक स्थानीय अदालत में पेश किया गया, जहाँ उनकी ज़मानत अर्ज़ी ख़ारिज हो गई। ओडिशा हाईकोर्ट ने 18 सितंबर को निचले कोर्ट के फ़ैसले पर फटकार लगाते हुए उनकी तत्काल ज़मानत मंज़ूर
की और भुवनेश्वर के एम्स में उनके इलाज कराए जाने के आदेश दिए।
बीबीसी रिपोर्ट की
माने तो, एम्स की मेडिकल रिपोर्ट के मुताबिक़ पीड़िता
के पूरे शरीर पर मारपीट के निशान हैं, उनका एक दाँत टूट गया है और जबड़े में भी चोट है, वहीं उनकी एक हाथ की हड्डी भी टूट गई है। पुलिस का जो आरोप है कि दोनों शिकायतकर्ता
नशे में थे, उसका ज़िक्र या उसकी पुष्टि इस रिपोर्ट में
कहीं नहीं मिलती।
इस मामले में थाना
प्रभारी दीनकृष्ण मिश्र, जिन्हें निलंबित किया
गया है, के ख़िलाफ़ पहले भी शिकायतें सामने आ चुकी
हैं। पिछले वर्ष कटक में हुई बाली यात्रा के दौरान एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें उन
पर आरोप लगे थे कि वह एक साइकिल स्टैंड वाले से पैसे ऐंठने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई और उन्हें भुवनेश्वर के भरतपुर थाने
में बतौर प्रभारी नियुक्त कर दिया गया।
भरतपुर के जिस थाने
में ये मामला सामने आया है उसके उद्घाटन के दौरान कमिश्नर संजीव पंडा ने कहा था कि
यह एक 'मॉडल थाना' है, जिसमें सीसीटीवी सहित हर तरह की आधुनिक सुविधाएँ
मौजूद हैं। लेकिन जाँच के लिए क्राइम ब्रांच की टीम जब थाने में पहुंची तो पाया कि
वहाँ कोई सीसीटीवी नहीं था!
घटना के बाद पूर्व
सेना प्रमुख जनरल (रिटायर) और पूर्व केंद्रीय मंत्री वीके सिंह ने एक्स पोस्ट में लिखा,
"ओडिशा के भरतपुर पुलिस स्टेशन में एक सेना अधिकारी की मंगेतर
के साथ जो हुआ वह शर्मनाक और भयावह है। मुख्यमंत्री को पुलिसकर्मियों और उन सभी लोगों
के ख़िलाफ़ तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए जो पुलिस वर्दी में अपराधियों को बचाने की कोशिश
कर रहे हैं।"
वीके सिंह, मेजर गौरव आर्य (रिटायर), मेजर जनरल हर्षा कक्कड़ (रिटायर)
समेत कई पूर्व सैन्य अधिकारियों ने इस घटना के बाद पुलिस और राज्य सरकार की आलोचना
की। उघर विवादित पुलिस अधिकारी और पूर्व सीबीआई निदेशक एम नागेश्वर राव ने पुलिस
बल का पक्ष लिया और आग्रह किया कि सेना को अपने एक सैनिक के अनुचित आचरण और भारतीय
सेना के नाम को बदनाम करने के लिए कैप्टन को दंडित करना चाहिए।
इस मामले में सेना
और उसके रिटायर्ड अधिकारियों ने तत्काल हस्तक्षेप किया। घटना के बाद सेना के सेंट्रल
कमान ने अपने एक्स हैंडल सूर्य कमान से एक बयान जारी करते हुए कहा कि सेना इस घटना
को काफी गंभीरता से ले रही है और उचित कार्रवाई के लिए राज्य अधिकारियों के साथ संपर्क
में है। वहीं इस घटना को लेकर सेवानिवृत्त अधिकारियों ने दोषी पुलिस कर्मियों के ख़िलाफ़
कार्रवाई की माँग को लेकर कमिश्नर के दफ़्तर के सामने प्रदर्शन किया। इसके बाद इस मामले
की जाँच क्राइम ब्रांच को सौंप दी गई और पाँचों पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज
किया गया।
यहाँ फिर से नोट किया
जाना चाहिए कि वह महिला भारतीय सेना के कैप्टन की मंगेतर है, साथ ही स्वयं एक महिला
वकील है, उस राज्य की राजधानी में एक रेस्टोरेंट की मालकिन है। कृणाल पाठक की रिपोर्ट तो
यह बताती है कि उस महिला के पिता भी सेना से रिटायर्ड ब्रिगेडियर हैं। सोचिए, ऐसी महिला नागरिक
के साथ पुलिस थाने में इस तरह का व्यवहार हो सकता है तो फिर बाकी नागरिक, जो अपनी शिकायतें
लेकर पुलिस के पास पहुंचते हैं, उनके साथ कैसा व्यवहार होता होगा? किसी एक थाने का, किसी एक पुलिस अधिकारी या कर्मी का श्रेष्ठ मानवीय अभिगम वाला वीडियो या व्यवहार
मूल समस्या का उपाय कैसे हो सकता है?
हमें भूलना नहीं चाहिए
कि इस घटना को राष्ट्रीय स्तर पर जगह नहीं मिल पाती, यदि देश का नेता प्रतिपक्ष और बाकी लोग इसे प्रकाश में नहीं
लाते। हमें भूलना नहीं चाहिए कि देश की उन महिला पहलवान बेटियों को अपनी एफ़आईआर
कराने के लिए दिल्ली में आंदोलन करना पड़ा था, सुप्रीम कोर्ट जाना
पड़ा था और तब जाकर दिल्ली पुलिस ने उनकी एफ़आईआर दर्ज की थी।
ओडिशा की इस घटना के
प्रकाश में आने के बाद पाँच पुलिस कर्मियों को तत्काल निलंबित कर दिया गया है। किंतु
देश का मेनस्ट्रीम मीडिया और देश का वो समाज, जो गाहे-बगाहे नैतिकता, क़ानून, संविधान, संस्कृति पर फेफड़े फाड़ते हैं, वे इस कथित अपराध पर आधा घंटे का कार्यक्रम चलाने की बात तो छोड़ दीजिए, वे तो इसे अंडरलाइन
भी नहीं कर रहे।
उल्टा हो यह रहा है, जैसा शाहीन बाग आंदोलन
से लेकर उस ऐतिहासिक किसान आंदोलन के दौरान हुआ, जैसा उन महिला पहलवानों के प्रचलित आंदोलन के काल में हुआ।
हो यह रहा है कि मीडिया तो चुप है, किंतु वो समाज सोशल मीडिया पर इस पीड़िता को ख़राब नागरिक और शराबी महिला साबित
करने पर तुला हुआ है। किसानों, जवानों और महिला पहलवानों को भला-बुरा, कभी कभी आतंकवादी या खालिस्तानी के तौर पर प्रचारित कर रहा
यह समाज इस घटना पर महिला के साथ नहीं बल्कि सरकार और प्रशासन के साथ है, इससे कोई आश्चर्य
नहीं होता।
सोशल मीडिया में पीड़ित
महिला को बदनाम करने के लिए तमाम वीडियो जारी किए गए हैं। यह बताने की कोशिश जारी है
कि महिला ने शराब पी रखी थी? वह साबित नहीं हो रहा तो महिला ने दिनों-महीनों पहले शराब पी हो ऐसे कथित वीडियो
परोसे जा रहे हैं। जबकि पब में शराब पीना-डांस करना क़ानून या संविधान के ख़िलाफ़ तो
है नहीं। निसंदेह यह सब इसलिए किया जा रहा है ताकि भरतपुर पुलिस स्टेशन के कुकर्मों
को छिपाया जा सके और इससे प्रदेश सरकार की हो रही बदनामी को रोका जा सके। राजनीतिक
और पुलिस व्यवस्था में यह कोई नई बात नहीं है। राजनीतिक व्यवस्था में मोदीजी की सरकार
हो, मनमोहनजी की हो या
उससे पहले की सरकारें हो, यह कम या ज़्यादा प्रमाण में होता रहा है।
उधर पुलिस व्यवस्था
में बिना किसी सबूत के भी तमाम जगहों पर यह चर्चा दशकों से व्याप्त है कि पुलिस पहले
ग़लती करती है, अपराध को बढ़ावा देती है और जब कोई ज़िद्दी नागरिक उससे टकराता है तो समझौता करके
अपने कुकर्मों को छिपाती है। जब उस नागरिक की ज़िद नहीं टूटती तो पुलिस उस नागरिक को
हर प्रकार से तोड़ना शुरू कर देती है। पुलिस उगाही का रैकेट, पैसे लेकर जेल भेजना
या न भेजना, जेल से बाहर निकालना, पैसे लेकर थाने में मारपीट करना या नहीं करना, जज मिला हुआ है, यह सारी चर्चा दशकों पुरानी है और अब भी जारी है। इस चर्चा में किसी के पास कोई
सबूत तो नहीं होते, किंतु लाज़मी है कि कुछेक व्यवस्था ऐसी हो चली हैं, जहाँ बिना सबूत के
भी बहुत कुछ साबित हो चुका होता है।
खोखले नारों पर पर
तनने वाले गौरव सेना सरीखे समाज को भुवनेश्वर के डीसीपी का वो नारा याद होना चाहिए
जिसमें वे कहते थे कि महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार बंद करें या फिर भुवनेश्वर छोड़े।
पीडित़ा ने आरोप लगाए हैं और फ़िलहाल तो नारा बुरी तरह से फेल हो गया है। उनकी नाक
के नीचे महिला के साथ कथित रूप से रेस्टोरेंट के बाहर गुंडों ने बदतमीज़ी की, पुलिस थाने में कथित
यौन शोषण हुआ, कथित क्रूरता हुई, एफ़आईआर नहीं लिखी गई, उस महिला के मंगेतर और सेना में कैप्टन की पैंट उतरवाई गई, उस कैप्टन को पुलिस
कस्टडी में डाल दिया गया।
पुलिस अधिकारी स्वयं
को नेता समझने लगे हैं, जो मनभावन नारों से काम चला रहे हैं। आईपीएस, आईएएस तो छोड़ दीजिए, हमारे यहाँ सेंट्रल
आईबी स्तर के अधिकारी अपने शानदार वीडियो बनाते हैं, फैलाते हैं और लोगों
में उस चालाक राजनीति की तरह एक ख़ास धारणा को गढ़ने का काम किया करते हैं।
इस कथित घटना के चार
दिन बाद पीड़िता 19 सितंबर को जनता के सामने आई तब जाकर ये बातें सामने आईं। घटना रविवार 15 सितंबर 2024 की बताई गई है। 20 सितंबर के दिन मामला
दर्ज किया गया है।
जाँच के बाद इस घटना
में क्या बाहर आएगा हमें नहीं पता। जैसे कि अनेक मामले, जो धर्म परिवर्तन
के, लव जिहाद के, दुष्कर्म के या यौन
शोषण के बताकर महीनों तक मीडिया और देश को उबालते रहें, उसमें जाँच के बाद
ऐसे कोई कोण नहीं मिले थे, जैसे उन उबाल के समय दिखाए-बताए गए थे।
हमें नहीं पता कि आगे जाकर यह मामला क्या मोड़ लेता है। हमें
नहीं पता कि पीड़िता ने जो कहा है वह जाँच के बाद सही साबित होता है या नहीं। किंतु
इतना पता है कि बिना जाँच के ही भारत में सब कुछ होता है, आरोप लगाने भर से यहाँ सब कुछ उबल जाता है। इस स्थिति में भारतीय
सेना के अधिकारी को पुलिस थाने में यातना दी जाती है, उसकी मंगेतर के साथ स्तब्ध करने वाला व्यवहार किया जाता है, यौन शोषण होता है, भारतीय सेना के अधिकारी की उस मंगेतर का पुलिस थाने में गौरवपूर्ण
जीवन जीने का संवैधानिक अधिकार पिशाची तरीक़े से कुचला जाता है और इधर सेना और देश
के नाम पर अपनी देशभक्ति बताने वाले, भारत
की बेटी - भारत की नारी वाले सूत्र बोलने-लिखने वाले लोग चुप हो जाते हैं।
हम यहाँ उस विवादित
विषय को लिखना भी ज़रूरी समझते हैं, जिसमें अनेक बेटियों या महिलाओं ने झूठ बोले, ग़लत आरोप लगाए और बेचारी महिला वाली बहुमत आधारित सामाजिक
विचारधारा के चलते उन झूठे आरोपों के तुरंत बाद उस आरोपी की पूरी ज़िंदगी, पूरा करियर, परिवार, सब कुछ ख़त्म हो गया।
उस आरोपी के सारे मानवीय और संवैधानिक अधिकार चीर कर फाड़ दिए गए। और फिर महीनों या
सालों की जाँच के बाद पता चला कि आरोपी सिरे से बेकसूर था, उल्टा उन बेटियों
या महिलाओं ने उसे फँसा दिया था।
निष्पक्ष लेखन कर्तव्य का दबाव है हम पर और हम चाहते हैं कि यह दबाव हम पर क़ायम
रहे। और इसीलिए हम यहाँ नोट कर रहे हैं कि पूर्व में अनेक महिलाओं ने या बेटियों ने
स्वयं महिला होने का तथा इसके चलते बेचारी महिला वाली उस बहुमत आधारित सामाजिक विचारधारा
का अनेकों बार फ़ायदा उठाया है। हम गुजरात के अनुभवी
और प्रसिद्ध क्राइम रिपोर्टर-लेखक के उस लेखन को नहीं भूल सकते, जिसमें उन्होंने गुजरात
राज्य के संदर्भ में लिखा था कि यहाँ महिला पुलिस थाने शुरू किए गए इससे पहले पुरुष
पुलिस थानों में तीन अलिखित नियम विद्यमान थे और वह यह थे कि बच्चों-महिलाओं और वृद्धों
के साथ हुए अपराधों में सही जाँच होगी, उन मामलों में वो विवादित और भ्रष्टाचारी तरीक़ा अपनाया नहीं जाएगा, किंतु यह नियम महिला
पुलिस थाने शुरू करने के बाद महिला पुलिस कर्मियों और अधिकारियों द्वारा ही तोड़े गए! लाज़मी है कि जिस सिस्टम के बारे में यह दावा है इसे देखते हुए इसे किसी एक राज्य
तक सिमित नहीं किया जा सकता।
हम इस लेख को लिखते
समय यह भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि राष्ट्रीय अपराध का डाटा और उसका विश्लेषण दर्शाता
है कि महिलाओं ने अपराध करते समय जो क्रूरता और पिशाचीपन दिखाया है वह अभूतपूर्व है।
हम यह भी नहीं भूले, जब राष्ट्रीय स्तर के अन्वेषण जाँचकर्ताओं ने हमें बताया था कि डाइंग डिक्लेरेशन, यानी मरते समय दिया
गया बयान, यदि कोई महिला देती है तब उस पर सदैव संदेह किया जाना चाहिए, क्योंकि देखा गया
है कि महिलाएँ उस समय भी झूठ बोलती हैं या छिपाती हैं। निसंदेह, सामाजिकता- नैतिकता-
राजनीति- बिज़नेस- अपराध- भ्रष्ट आचार आदि में महिलाओं द्वारा हदें पार कर किए गए अपराधों के क़िस्से
अनेक हैं और निष्पक्ष लेखन कर्तव्य के दबाव के चलते बेटियों या महिलाओं को केवल और
केवल भावनात्मक नज़रिए से लिखकर तथ्यों को अन्याय नहीं पहुंचाया जा सकता।
इन सारे स्वीकृत तथ्यों
के बाद हम यहाँ जिस विषय को प्रस्तुत कर रहे हैं वह उपरोक्त पैरा से इतर है। हम राजनीतिक
सनक के वायरस से संक्रमित हो चुके गिरगिटिए समाज की बात कर रहे हैं। किसी भी व्यक्ति
के साथ अनैतिक, अमानवीय, ग़ैरक़ानूनी व्यवहार होता है तब उसे पसंदीदा-नापसंदीदा सत्ता, जाति, धर्म के साँचे में
ढाल कर सोचना संक्रमण है, समझदारी नहीं। ऐसा ज़रूरी नहीं है कि समाज हर घटना, हर दुर्घटना पर प्रतिक्रिया
व्यक्त करें, किंतु यह अपेक्षित नहीं है कि समाज किसी विशेष सत्ता, विशेष संप्रदाय या
विशेष जाति को देखकर प्रतिक्रिया व्यक्त करें।
राजनीति, पुलिस और राजनीतिक
सनक के वायरस से संक्रमित समाज के गिरगिटिए अंदाज़ को भारत अनेकों बार देख चुका है, जो पसंदीदा-नापसंदीदा
सत्ता के चश्मे से सोचना शुरू और बंद करते हैं।
सब देख ही रहे हैं कि अगर मामला राजनीति या पुलिस के ही ख़िलाफ़
हो तो वे (राजनीति और पुलिस) एक सिस्टम की तरह लड़ते हैं और उधर शिकायतकर्ता नागरिक
को अकेले लड़ना पड़ता है। सिस्टम के पास सबूत बनाने और बिगाड़ने के संसाधन उपलब्ध हैं, जबकि नागरिक के पास अपना ही पक्ष रखने के लिए संसाधनों की कमी
पड़ जाती है। इसीलिए अक्सर जिन नागरिकों से यह देश बना है, जिन्हें संविधान समर्पित किया गया है, जिनके लिए तमाम प्रशासन है वो नागरिक फेल हो जाता है और आरोपी
जीत जाते हैं। इन समस्याओं के बीच नागरिक को राजनीतिक बीमारी से संक्रमित उस गिरगिटिए
समाज से भी लड़ना पड़ता है।
यह स्पष्ट है कि पुलिस
के लिए थाने के भीतर यौन उत्पीड़न करना कोई नई बात नहीं है। 2020-21 का नवदीप कौर का मामला
ही ले लीजिए। नवदीप उस समय 23 साल की थीं, मज़दूर अधिकार संगठन से जुड़ी महिला ऐक्टिविस्ट थीं। एक दिन जब वो सिंघू बॉर्डर
के पास स्थित एक फैक्टरी के पास धरना देने गईं तो सोनीपत पुलिस ने उन्हें अरेस्ट कर
लिया। उनके ख़िलाफ़ दो एफ़आईआर की गईं। बकौल नवदीप उन्हें पुरुष पुलिसकर्मियों द्वारा
करनाल जेल भेजे जाने से पहले तक लगातार पीटा गया, अभद्रता की गई, निजी अंगों पर भी हमला किया गया।
नवदीप बताती हैं कि
जब जेल में उन्होंने अन्य महिलाओं से बात की तो पता चला मामला और भी अधिक गंभीर है।
उन्हें अनगिनत महिलाएँ मिलीं जिन्हें बकौल नवदीप हिरासत में पीटा गया, यौन उत्पीड़न किया
गया, दुष्कर्म किया गया और हाथ-पैर तोड़ दिए गए। सोनी सूरी का मामला भी याद करना चाहिए।
सोनी को माओवादी होने के शक में गिरफ़्तार कर लिया गया था। इसके बाद उनका यौन उत्पीड़न
किया गया। सोनी को भीषण यौन यातनाएँ दी गई थीं, उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। उन्होंने अपने वकील को लिखे पत्र में जो बयान
दर्ज कराया था वह समाज और पुलिस व्यवस्था के लिए शर्मनाक था।
पिछले डेढ़ साल से
जल रहे मणिपुर और इस हिंसा की उस राक्षसी घटनाओं को याद कर लीजिए। याद करिए उस बेहद
शर्मनाक वीडियो को, जिसमें दो महिलाओं को नग्न अवस्था में कई पुरुष लेकर घूम रहे थे और उनका वीडियो
बना रहे थे। इसने सरकार के साथ साथ समग्र समाज का घिनौना चेहरा प्रकट कर दिया। मणिपुर
हिंसा पर चुप रहने वाले, मणिपुर नहीं जाने वाले पीएम मोदी ने थोड़ा बहुत खेद प्रकट किया और सरकार और पूरा
समाज नये संसद भवन, चंद्रयान मिशन-3, जैसी चीज़ों पर गौरव करने में व्यस्त हो गया।
14 अगस्त 2016 का वो दिन याद करिए। स्वतंत्रता दिन की पूर्वसंध्या जैसा पवित्र समय, जब वन रेंक वन पेंशन
की माँग को लेकर धरणे पर बैठे देश के पूर्व सैनिकों को केंद्र सरकार की पुलिस ने जबरन
हटाया था, खीँचा था, घसीटा था। जिन मेडल पर हम नाज़ किया करते हैं वे मेडल सड़क पर गिर गए थे। ऐसे
मंजर राष्ट्रवादी लठैत भूल सकते हैं, देशभक्त नागरिक नहीं।
कश्मीर में सैनिकों
पर पत्थर बरसते हैं तब चिंता करने वाले समाज को उन सैनिकों की चिंता तब भी होनी चाहिए
जब उन्हें जंतर मंतर पर घसीटा जाता है। सर्वोच्च बलिदान देने वाले सैनिक के घर पर जाते
समय अगर ये शहीद का घर नहीं होता तो यहाँ एक कुत्ता भी नहीं आता जैसे घटिया बयाने देने
वाले केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन से लेकर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक का विरोध होना चाहिए, जो वीर जवान के घर में जाने से पहले वहाँ सोफा-कालीन बिछाते
हैं, कूलर लगवाते हैं।
सेना का जवान सरहद
से घटिया खाने की शिकायत करें या पूर्व सैनिक दिल्ली में आकर ख़ुदकुशी करें, तब समाज सत्ता प्रेम
में डूब जाता दिखे तो वह समाज नहीं बल्कि किसी सरकार का मेंढक मात्र है। जवान हो, किसान हो या महिला
पहलवान हो, राजनीतिक वायरस से ग्रसित समाज ने हर मामले में अपना मेंढकपन आगे ही रखा।
2017 का गुरमेहर कौर का वो मामला याद किया जाना चाहिए, जिसमें राजनीति और
राजनीति के वायरस से संक्रमित समाज ने आपत्तिजनक और अनैतिक आचरण किया था। जो बातें
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर देश के कईं प्रधानमंत्री कह चुके हैं, अनेक मंत्री, नेता, ग़ैर राजनीतिक शख़्सियतें, कलाकार, रमतवीर, विवेचक, साहित्यकार, विश्लेषक, फ़िल्में, सभी जो बातें कह चुके
हैं, अमूमन वही बात गुरमेहर कौर ने कही थी। किंतु राजनीति और समाज ने जिस तरीक़े का
राक्षसी व्यवहार दिखाया, गुरमेहर को दुखी मन से कहना पड़ा कि मैं मेरे शहीद पिता की बेटी हूँ, आपके शहीद की बेटी
नहीं हूँ।
2023 का महिला पहलवानों का वो आंदोलन, जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के लिए मेडल जीत कर भारत का नाम ऊँचा करने
वाली उन महिला पहलवानों ने भारतीय कुश्ती महासंघ के तत्कालीन अध्यक्ष और भाजपा सांसद
बृजभूषण शरण सिंह के ख़िलाफ़ यौन शोषण के मामले को उठाया और फिर उन बेटियों को दिल्ली
पुलिस ने नयी संसद के अनावरण के दिन ही शहर की सड़क पर घसीटा, बाल खींचे और अभद्र
व्यवहार कर उनका आंदोलन जबरन बंद करा दिया।
ऐसी शर्मनाक घटनाओं
की लंबी सूची है, जो पूर्व सरकारों से लेकर नॉन बायोलॉजिकल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन काल
तक बिना दुविधा के चल रही हैं। संक्रमित समाज अपने सहुलियत के हिसाब से चिंतित होने
में चॉइस करता रहता है।
हमने ऊपर लिखा वैसे पीड़िता के यह आरोप और पूरा मामला कितना सच है, कितना झूठ, यह फ़िलहाल कहा नहीं
जा सकता। किंतु हर मामले में पसंदीदा-नापसंदीदा सत्ता और संप्रदाय के संक्रमण का लग
जाना महान देश के लक्षण बिलकुल नहीं है। देश के पीएम मोदी हालिया विदेश दोरे पर जाकर
कहते हैं कि मैं यहाँ इसलिए आया हूँ ताकि हिन्द महासागर को सुरक्षित किया जा सके। उन्हें
ओडिशा के अपने मुख्यमंत्री को बताना चाहिए कि यदि देश की सेवा में लगा कैप्टन और उनकी
मंगेतर पुलिस से ही सुरक्षित नहीं होगी तो हिन्द महासागर की सुरक्षा के नारे का हम
क्या करेंगे?
महान भारत का यह समाज बिलकुल महान नहीं है जो किसी एक धर्म या किसी एक जाति में
हुए आपसी जघन्य अपराधों तक को सह लेता है, इसे चिंता तभी होती है जब अपराधी उसके अपने धर्म या उसकी अपनी
जाति के बाहर का हो! वह देश महान होगा
और है भी, किंतु उसे इस प्रकार का समाज नुक़सान पहुंचा रहा है, जो अपराधों के समय
सबसे पहले पसंदीदा-नापसंदीदा सरकार, धर्म, जाति, समुदाय देखता है। चिंतित होने में चॉइस करने वाला समाज दरअसल देश का समाज या देश
का नागरिक माना ही नहीं जा सकता। ऐसा समाज या ऐसे लोग राजनीतिक सनक के वायरस से संक्रमित
लठैत भर हैं।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)