भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक
तरफ़ राम सेतु के दर्शन से अभिभूत होने का दावा करते हैं, और
दूसरी तरफ़ इसी प्रधानमंत्री की सरकार संसद में बाक़ायदा कहती है कि राम सेतु होने
के पुख़्ता प्रमाण अब तक मिले नहीं हैं। यानी, एक
तरफ़ इनकी सरकार कहती है कि राम सेतु था इसके कोई भी सबूत हम ढूँढ नहीं सके हैं, दूसरी
तरफ़ ये कहते हैं कि राम सेतु के दर्शन से जीवन धन्य हो गया!
राम सेतु। इसका सच क्या है, इस
सवाल का जवाब हर किसी के पास भिन्न होगा। आस्तिक, नास्तिक, तार्किक, यथार्थवादी, भावनाप्रधान, पर्यावरण
प्रेमी, व्यापारी, इतिहासकार, संशोधक, विज्ञान
प्रिय, तथ्यपसंद...
जिस भी तबके का व्यक्ति होगा, उसके पास जवाब भिन्न
ही मिलेंगे। लेकिन हर तबका एक बात पर सदैव एकमत होगा कि यह मुद्दा भारत के लिए
आस्था और भावना का विषय है।
स्वाभाविक सी बात है कि जब किसी मुद्दे
के साथ आस्था जुड़ी हुई हो, राजनीति उस पर ग़ज़ब
कर गुज़रती है। बता दें कि मोदी शासित सरकार ने राज्यसभा में राम सेतु को लेकर जो
कुछ भी कहा है, लगभग यही बात मनमोहन सरकार ने भी कही
थी।
दिसंबर 2022 में मोदी सरकार ने
राज्यसभा में ऑन रिकॉर्ड कहा था कि राम सेतु होने के अब तक कोई पुख़्ता प्रमाण
नहीं मिले हैं। 22
दिसंबर 2022
के दिन पृथ्वी विज्ञान मामलों के मंत्री जितेंद्र सिंह ने राज्यसभा में कहा था कि
भारतीय सैटलाइटों को राम सेतु की उत्पत्ति से संबंधित कोई सबूत नहीं मिले हैं।
राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में जितेंद्र सिंह ने कहा था, "भारतीय
सैटेलाइटों ने भारत और श्रीलंका को जोड़ने वाले राम सेतु वाले इलाक़े की हाई
रिज़ोल्यूशन तस्वीरें ली हैं। हालाँकि इन सैटेलाइट तस्वीरों से अब तक सीधे तौर पर
राम सेतु की उत्पत्ति और वो कितना पुराना है इससे संबंधित कोई पुख़्ता सबूत नहीं
मिले हैं।"
मोदी सरकार द्वारा दिए गए जवाब में ये
भी लिखा था कि, "समंदर
के नीचे डूबे शहर द्वारका की तस्वीरें रिमोट सेन्सिंग सैटलाइट के ज़रिए नहीं ली जा
सकती, क्योंकि
ये सतह के नीचे की तस्वीरें नहीं ले सकते।"
दरअसल राज्यसभा में एक निर्दलीय सांसद
कार्तिकेय शर्मा ने सरकार से सवाल पूछा था कि, "क्या सरकार भारत के
गौरवशाली इतिहास पर कोई वैज्ञानिक शोध कर रही है? क्योंकि पिछली सरकारों ने लगातार इस
मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया। क्या ये सच है कि भारत की प्राचीन सभ्यताएँ केवल मिथक
हैं या उनके अस्तित्व को साबित करने के लिए कुछ सबूत मौजूद हैं? और
अगर ऐसा है तो क्या रिमोट सेन्सिंग सैटेलाइट से ली गई तस्वीरों के ज़रिए राम सेतु
और समंदर में डूबे द्वारका शहर के अस्तिस्व को विज्ञान के आधार पर साबित किया जा
सकता है?"
मोदी सरकार के मंत्री जितेंद्र सिंह ने जवाब
देते हुए कहा कि इतिहास से जुड़ी बातों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए
आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है, स्पेस एंड टेक्नोलॉजी विभाग इस काम में
लगा हुआ है।
राम सेतु के सवाल पर मंत्रीजी ने जो जवाब
दिया वो ग़ौर से पढ़ना और समझना चाहिए। जितेंद्र सिंह ने राज्यसभा में राम सेतु पर
कहा था, "इस
खोज की कई सीमाएँ हैं क्योंकि इसका इतिहास 18 हज़ार सालों से अधिक
पुराना है। और इतिहास को देखें तो ये पुल 56 किलोमीटर लंबा था।
स्पेस तकनीक के ज़रिए हम चूना पत्थर के बने नन्हे द्वीप और कुछ टुकड़े खोज पाए
हैं। हालाँकि हम पुख़्ता तौर पर ये नहीं कह सकते कि ये टुकड़े सेतु का हिस्सा रहे
होंगे लेकिन इनमें कुछ तरह की निरंतरता दिखती है।"
उन्होंने कहा, "इससे
कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं, लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि वहाँ कैसा ढाँचा रहा होगा इस बारे
में ठीक-ठीक कह पाना मुश्किल है। लेकिन हां इसके प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संकेत
हैं कि वहाँ कुछ तो था।"
अंतिम निष्कर्ष जो बिलकुल स्पष्ट था वो
यही था कि मोदी सरकार ने राज्यसभा में ऑन रिकॉर्ड कहा कि राम सेतु होने के कोई
पुख़्ता प्रमाण अब तक नहीं मिले हैं।
और उसके कुछ सालों बाद, 6
अप्रैल 2025
के दिन, अपनी
तीन दिवसीय श्रीलंका यात्रा समाप्त होने के बाद वापस तमिलनाडु के लिए उड़ान के समय, एक्स
को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने एक पोस्ट में लिखा: "थोड़ी देर पहले
श्रीलंका से लौटते समय, राम सेतु के दर्शन करने का सौभाग्य मिला। और, एक
दिव्य संयोग के रूप में, यह उसी समय हुआ जब अयोध्या में सूर्य तिलक हो रहा था। दोनों के
दर्शन पाकर धन्य हो गया। प्रभु श्री राम हम सभी को एकजुट करने वाली शक्ति हैं।
उनका आशीर्वाद हमेशा हम पर बना रहे।"
एक तरफ़ मोदी सरकार ऑन रिकॉर्ड कहती है
कि राम सेतु होने के पुख़्ता प्रमाण अब तक नहीं मिले हैं, और
दूसरी तरफ़ प्रधानमंत्री राम सेतु के दिव्य दर्शन की पोस्ट लिखते हुए मामले को
संवेदना वाली राजनीति की तरफ़ खीँचते हैं!
बता दें कि मोदी सरकार ने 22
दिसंबर 2022
के दिन राज्यसभा में जो कहा था, लगभग यही बात मनमोहन सरकार ने भी संसद में कही थी और अपने उस
हलफ़नामे में भी, जो
राजनीतिक नुक़सान कम करने के लिए वापस लिया गया था।
आस्था नाम की वो वस्तु तब आहत हुई थी जब
बिलकुल यही बात मनमोहन शासित सरकार ने कही थी। तब बीजेपी और उसके संगठनों ने काफी
हंगामा किया था। लेकिन यही बात अब की बार मोदी सरकार में कही गई, तो
आस्था नामक वह वस्तु जस की तस किसी डिब्बे में पड़ी रही!
यूँ तो अब स्वामीनारायण संप्रदाय वाले
हिंदू आस्था और मान्यताओं को सरेआम, लिखित रूप से अपनी किताबों में झूठी साबित कर रहे हैं। स्वामीनारायण
वाले हिंदुओं के तमाम आराध्य देवों को, देवियों को, अपने
घनश्याम भाई, जिन्हें
वे भगवान बताते हैं, के सेवक या अनुयायी बता चुके हैं। ग़ज़ब प्रसंगों को लिखकर
साहित्य के ज़रिए हिंदू ग्रंथों और मान्यताओं को चुनौती दे चुके हैं। द्वारका में
तो भगवान है ही नहीं, स्वामीनारायण वाले यह लिख कर कह चुके हैं कि असली ईश्वर तो
वड़ताल में है।
हिंदू रक्षा के बन बैठे ठेकेदार, जैसे
कि आरएसएस जैसे संगठन, स्वामीनारायण वालों के ऐसे कारनामों के बाद भी स्वामीनारायण
वालों के धार्मिक कार्यक्रमों या समागमों में अपने स्वयंसेवकों को भेजकर, तंबू-संबू
गाड़कर, सेवा
करते हैं!
कहने का अर्थ यह है कि इस प्रकार के 'लचीले
ठेकेदार' किस
तरह किसी संप्रदाय की धार्मिक भावना या अस्मिता का रक्षण करेंगे? संपत्ति, सत्ता
और विशाल अनुयायी गण के सामने ये लचीले ठेकेदार बदल जाते हैं, झुक
झाते हैं!
इसीका नतीजा है कि ये लोग किसी बात को
आस्था और भावना से जोड़ देते हैं और आपको अपने काम-धंधे से दूर कर सड़क पर ले आते
हैं। कहते हैं कि यह बात अधर्म है, इसे रोकना होगा, वर्ना हमारा धर्म ख़त्म हो जाएगा। फिर लोग अपना काम-धंधा छोड़
इसीमें लग जाते हैं। लोगों को लगता है कि वे धर्म बचाने का काम कर रहे हैं, संसार
को नष्ट होने से रोक रहे हैं।
और फिर इसी बात को, जिसे
पहले विवाद या पाप माना गया हो, वही बात ठेकेदार स्वयं कहते हैं तो यह धर्म हो जाता है, समझ
हो जाती है! जो बात दूसरों ने कही हो उससे आपका धर्म
ख़त्म हो जाना था, लेकिन यही बात उनके
कहने पर कुछ नहीं होना!
राजनीति इसी तरह हम नागरिकों को कठपुतली की भाँति नचाती है। न जाने कितने
हज़ारों-लाखों नागरिक अपनी मौत तक इसी भ्रम में जीते रहे कि वे किसी महान काम में
अपना योगदान दे रहे हैं!
जब ये लोग नहीं थे तबसे हिंदू संप्रदाय
है। जब ये लोग नहीं होंगे तब भी होगा। मुग़ल आए, अफ़ग़ान आए, अंग्रेज़
आए, भारत
के भीतर तमाम हिंदू शासकों ने एकदूसरे पर आक्रमण किया, एकदूसरे
को जीता, हराया, कभी
हिंदू धर्म नष्ट नहीं हुआ। बस इनके आने के बाद से हिंदू धर्म ख़तरे में आ गया!
राष्ट्रपति इनके, प्रधानमंत्री
इनके, राज्यों
में मुख्यमंत्री इनके, सेना की बागडोर इनके हाथों में, पुलिस इनकी, संविधान, क़ानून, लोकसभा, राज्यसभा, न्यायपालिका, नौकरशाही, समाज, शिक्षा, सब
जगह इनकी पैंठ, फिर
भी हिंदू ख़तरे में रहता हो तो सिंपल सी बात है कि ये दशकों से झूठ बोल रहे थे, कोरी
राजनीति कर रहे थे, सत्ता का खेल खेल रहे थे, समाज और देश को भ्रमित कर रहे थे।
ऊपर से हिंदू भावना और मान्यताओं का
सरेआम अनेकों बार अपमान करने वालों के लिए ये लोग सेवा भी कर आते हैं! और इसके लिए वे व्हाट्सएप सरीखे तर्क
भी आगे धर देते हैं! ऐसे ठेकेदार कितने
झूठे होते हैं इसे समझना हो तो यह समझ लीजिए कि जो धर्म शाश्वत है, चिरंतर
है, अपरिवर्तनशील
है, उसे
भला ख़तरा कैसे?
हम राम सेतु और उससे जुड़ी परियोजना पर
संक्षेप बात करें तो सबको पता है कि राम सेतु आस्था का मुद्दा है और इसीलिए इससे
जुड़ी हर बात या हर योजना राजनीति के हिसाब से संवेदनशील विषय हो जाता है। और राजनीति
समाज की संवेदना से ही तो लाभ प्राप्त करती है।
राम सेतु। इसे आदम ब्रिज भी कहा जाता
है। कभी इसका उच्चारण एडम्स ब्रिज भी मिल जाता है। हिंदुओं के लिए वह राम सेतु है, मुस्लिमों
के लिए आदम सेतु। वैज्ञानिक पृथ्थक्करण इसे प्राकृतिक रचना मानता है, जो
इसी इलाक़े में दूसरी जगहों पर भी देखी जा सकती हैं।
बता दें कि स्वयं बीजेपी ने 2007
में अपनी एक प्रेस विज्ञप्ति में परियोजना के लिए हिस्से को तोड़ने की आलोचना करते
हुए कहा था कि इस पूल को हिंदू, मुस्लिम और ईसाई पूजते हैं। यानी राम सेतु, आदम
ब्रिज, एडम्स
ब्रिज... सबका दावा है कि यह निर्माण उनकी अपनी आराध्य शक्तियों ने किया था!
आम नागरिक के रूप में इतनी माथापच्ची के
बाद मत्था पकड़ते हुए कहना पड़ता है कि जो भी हो, वो था या नहीं था, यह
सब तय करने से पहले यही तय कर लीजिए कि वो किसका था? ताकि जो लोग मेहनत कर रहे हैं उन्हें
पता तो चले कि वो किसके लिए मेहनत कर रहे हैं।
यूँ तो भारत में 3000-3500
से अधिक प्रकार के रामायण मौजूद हैं। इनमें से ज़्यादा प्रसिद्ध तुलसीकृत रामायण, वाल्मीकि
रामायण तथा रामचरित मानस की कथाओं के मुताबिक़ भगवान राम ने लंका में रावण की क़ैद
से अपनी पत्नी सीता को बचाने के लिए वानर सेना की मदद से राम सेतु का निर्माण किया
था।
वर्तमान समय में यह तमिलनाडु के तट पर
पंबन द्वीप को श्रीलंका के तट पर मन्नार द्वीप से जोड़ने वाला एक चूना पत्थर का
मार्ग है। 1913-14
में राम सेतु से 30
किलोमीटर आगे पंबन ब्रिज बनाया गया, जो भारत और श्रीलंका के बीच नेविगेशन में प्रमुख सहायक ढाँचा
है। 19वीं
शताब्दी में ब्रिटिश इंजीनियर एडी टेलर, उसके बाद ब्रिटिश शासन और फिर
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अनेक बार इस परियोजना के संबंध में हलचल होती रही।
राम सेतु को लेकर 21वीं
शताब्दी में विवाद तब शुरू हुआ जब साल 2005 में तत्कालीन मनमोहन
सिंह शासित यूपीए-1 सरकार ने सेतु समुद्रम परियोजना पर काम
करना शुरू किया। सेतु समुद्रम परियोजना शिपिंग नहर सरीखा समुद्री मार्ग तैयार करने
की योजना है, जिससे
बंगाल की खाड़ी से आने वाले जहाज़ों को श्रीलंका का चक्कर काटना न पड़े।
सेतु समुद्रम परियोजना का जो मूल
प्रस्तावित मार्ग था, उसका एक हिस्सा राम सेतु से होकर गुज़रता था। परियोजना के मूल
डिज़ाइन के अनुसार प्रस्तावित समुद्र मार्ग के लिए राम सेतु से होकर एक चैनल बनाया
जाना था, जिसके
लिए क़रीब 30
हज़ार मीटर लंबे बताए जा रहे राम सेतु का 300 मीटर चौड़ा और 12
मीटर गहरा एक हिस्सा तोड़ा जाना था।
परियोजना के समर्थकों के अनुसार इस
परियोजना से जहाज़ों के ईंधन और समय में लगभग 36 घंटे की बचत होगी, क्योंकि
अभी जहाज़ों को श्रीलंका की परिक्रमा करके जाना होता है। स्वाभाविक बात है कि
यूपीए-1
सरकार द्वारा यह जो हलचल शुरू की गई थी इसका विरोध तो होना ही था। हिंदू संगठनों, बीजेपी
आदि ने इसका ज़बरदस्त विरोध किया।
बता दें कि विरोध परियोजना का नहीं था, लेकिन
परियोजना के दौरान कथित राम सेतु की चट्टानों को तोड़े जाने को लेकर था। 2006
में सुब्रमण्यम स्वामी इस मामले को अदालत ले गए।
जानकारी के लिए बता दें कि सेतु समुद्रम
परियोजना, यूपीए-1
के दौरान जिस पर काम शुरू होने जा रहा था, इसकी मंजूरी अटल बिहारी वाजपेयी शासित
एनडीए सरकार ने दी थी। एबीपी वेबसाइट पर संजय सिंह के एक लेख के अनुसार सेतु
समुद्रम परियोजना को वाजपेयी सरकार में मंजूरी दी गई थी। साल 2004
में वाजपेयी सरकार ने इसके लिए 3,500 करोड़ रुपये का बजट
भी रखा था।
उन दिनों सुप्रीम कोर्ट में सुब्रमण्यम
स्वामी बहस में दिखाई देते थे। लेकिन वे बहस किसके ख़िलाफ़ कर रहे थे और किसके
पक्ष में? स्वामी
परियोजना के निर्माण के दौरान राम सेतु का हिस्सा न तोड़ा जाए इस पक्ष में थे। तो
फिर सवाल बनता है कि सामने कौन सा पक्ष था? वे किसके ख़िलाफ़ बहस कर रहे थे? सामने
था अटल बिहारी वाजपेयी-करुणानिधि गठबंधन!
और इस बात को अप्रैल 2025 में स्वामी ने एक्स पर भी लिखा है।
पार्टी कार्यकर्ताओं को लिखे पत्र में करूणानिधि ने दावा किया था कि 15 सितंबर 1998 को चेन्नई में
अन्नादुरई के जन्मदिन समारोह में वाजपेयी ने कहा था कि भाजपा सरकार सेतुसमुद्रम
परियोजना को ज़ल्द से ज़ल्द लागू करेगी।
डीएमके के संसद सदस्य टीआर बालू ने साल 2020
में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राम सेतु के संबंध में पत्र लिखा था, जिसमें
उन्होंने कहा था कि अरुण जेटली ने उस दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए थे जिसमें एडम्स
ब्रिज के माध्यम से सेतु समुद्रम परियोजना को जितनी ज़ल्दी हो सके पूरा करने का
प्रस्ताव था। बक़ौल टीआर बालू, इस प्रोजेक्ट को राजनाथ सिंह, नीतीश कुमार, पीयूष
गोयल के पिता वी.पी. ने मंजूरी दी थी।
केंद्र में मनमोहन सिंह शासित यूपीए
सरकार के आने के बाद 2005 में जब सेतु समुद्रम परियोजना पर काम
शुरू किए जाने की ख़बरें आईँ तो बीजेपी और अन्य हिंदू संगठनों ने इस बात का विरोध
किया कि इससे राम सेतु को नुक़सान पहुँच सकता है।
उस वक़्त इसके विरोध में मद्रास
हाईकोर्ट में याचिका दायर हुई। बात सुप्रीम कोर्ट तक पहुँची। 13
सितंबर 2007
को केंद्र की कांग्रेस सरकार ने अदालत में कहा कि रामायण में जिन बातों का ज़िक्र
है उसके वैज्ञानिक सबूत नहीं हैं। रिपोर्टों के मुताबिक़ भारत सरकार ने भारतीय
पुरातत्व सर्वेक्षण की मदद से कोर्ट में हलफ़नामा दायर कर कहा कि ये केवल
प्राकृतिक तौर पर बना एक फॉर्मेशन है, जो भूगर्भीय क्रियाओं के कारण अस्तित्व में आई, और
इस बात के कोई ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद नहीं हैं कि इसे भगवान राम ने बनाया था।
यूपीए सरकार ने अदालत में जो हलफ़नामा
दायर किया उसमें सरकार ने स्पष्ट कहा था, "यह ढाँचा किसी सुपर
पावर से बना होगा और फिर ख़ुद ही नष्ट हो गया। इसी वजह से सदियों तक इसके बारे में
कोई बात नहीं हुई और न कोई सबूत हैं।"
बीजेपी और हिंदू संगठऩों ने इस हलफ़नामे
का विरोध किया। उस वक़्त हिंदू संगठनों और बीजेपी के प्रमुख चेहरे लाल कृष्ण
आडवाणी ने अपने तमाम दूसरे साथियों के साथ केंद्र सरकार पर धावा बोल दिया। गुजरात
के तत्कालीन मुख्यमंत्री और आडवाणी के शिष्य नरेंद्र मोदी भी इस विरोध प्रक्रिया
में शामिल थे। राजनीतिक नुक़सान होते देख केंद्र सरकार ने अपना हलफ़नामा वापस ले
लिया।
साल 2007 में तत्कालीन सीजेआई
केजी बालकृष्नन की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस प्रोजेक्ट में राम सेतु के आसपास होने
वाले निर्माण पर रोक लगा दी। इसके बाद 2014 में आरएसएस और दूसरे
हिंदू संगठनों के लिए ख़ुशी का मौक़ा आया। बीजेपी ने अपने दम पर सरकार बनाई और
नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने।
लेकिन राम सेतु पर कुछ प्रगति न होते
देख बीजेपी के चर्चित सासंद सुब्रमण्यम स्वामी ने फिर एक बार मोर्चा खोला।
उन्होंने अदालत में याचिका दायर की। याचिका में राम सेतु पर अनेक बिंदुओं को रखा
और राम सेतु को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करने की माँग की।
अदालत में फिर एक बार मामला पहुँच चुका
था। स्वाभाविक था कि अदालत की तरफ़ से केंद्र सरकार को ही पूछा जाना था। इसके बाद
नरेंद्र मोदी शासित सरकार ने राम सेतु से जुड़े सबूत जुटाने के लिए शोध की अनुमति
दी। इस शोध का उद्देश्य यह पता करना था कि राम सेतु मानव निर्मित है या नहीं और
इसके बनने का वक़्त क्या रामायण के दौर से मिलता है?
राम सेतु के नाम से जिस समुद्री ढाँचे
को जाना जाता है उसका एक हिस्सा तोड़ने का विरोध सिर्फ़ हिंदू सभ्यता या हिंदू
संगठनों ने ही नहीं किया था। पर्यावरण प्रेमियों और वैज्ञानिकों ने भी इसका विरोध
किया था। उनका विरोध आस्था से जुड़ा नहीं था। पर्यावरण और समुद्री जीव जंतुओं के
कारण इन्होंने तोड़फोड़ का विरोध किया था। समुद्री पर्यावरण और समुद्री जीव सृष्टि
के पैरोकारों का विरोध तार्किक, तथ्यात्मक और वैज्ञानिक था। उपरांत इसमें पहले से ही बहुसंख्यक
समुदाय की आस्था भी जुड़ी हुई थी।
13 नवम्बर 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने
तत्कालीन नरेंद्र मोदी शासित सरकार को राम सेतु पर अपना रूख स्पष्ट करने के लिए
कहा। सत्ता संभ्हाल ने 4 साल बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने मार्च 2018
में सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा देकर स्पष्ट किया कि सेतु समुद्रम परियोजना के
दौरान राम सेतु को नुक़सान नहीं पहुँचाया जाएगा और परियोजना के लिए सरकार दूसरा
वैकल्पिक रास्ता तलाशेगी। फिर भले इतना कहने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने 4
सालों का लंबा समय लिया हो!
31 अगस्त 2022 को तमाम मुद्दों को
देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सेतु समुद्रम परियोजना के लिए राम सेतु (कथित ढाँचा)
तोड़ने पर रोक लगा दी। जस्टिस बीएन अग्रवाल और जस्टिस पीपी माओलेकर की बेंच ने कहा
कि राम सेतु को किसी तरह की क्षति नहीं पहुँचाई जाए।
और फिर 22 दिसंबर 2022
के दिन, नरेंद्र
मोदी सरकार के मंत्री जितेंद्र सिंह ने राज्यसभा से यह बताया कि राम सेतु होने के
कोई भी पुख़्ता प्रमाण अब तक नहीं मिले हैं, ढाँचे और टुकड़ों के बारे में ठीक से
बता पाना अभी तो मुमकिन नहीं है।
2005 से राम सेतु को राष्ट्रीय स्मारक घोषित
करने की माँग हिंदू संगठनों ने उठाई थी। 2014 में पूर्ण बहुमत के
साथ कथित रूप से हिंदू समर्थित सरकार बनी। 2019 में वह सरकार
ज़्यादा ताक़त के साथ फिर एक बार स्थापित हुई। 2024 में अल्पमत में ही
सही, लेकिन
तीसरी बार सरकार बना ली। साल 2023 में भारत की
सर्वोच्च अदालत ने राम सेतु, आदम सेतु या एडम्स ब्रिज को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने का
निर्देश देने की माँग वाली याचिका को खारिज़ कर दिया।
इमेजिस इंडिया नाम की एक किताब छपी थी,
जो अंतरिक्ष विभाग से जुड़े प्रोफ़ेसर और पूर्व निदेशक ने लिखी थी। किताब में लिखा
था, "एडम्स
ब्रिज एक रहस्य है। पुरातत्त्व के अध्ययनों से पता चला है कि ये क़रीब 1,75,000
वर्ष पुराना है। लेकिन इसके स्ट्रक्चर को देखकर नहीं लगता कि मानव निर्मित
था।" और अमूमन ऐसा निष्कर्ष भारत की कई वैज्ञानिक संस्थाएँ और एएसआई दे चुके
हैं।
यूपीए-1 के दौरान यही बात
तत्कालीन मनमोहन सरकार ने अदालती हलफ़नामे में कही। इसके सालों बाद, राम
सेतु की भावनाओं के बन बैठे ठेकेदार बीजेपी, आरएसएस, उनके संगठनों की समर्थित
नरेंद्र मोदी सरकार ने यही बात ऑन रिकॉर्ड राज्यसभा में कही।
मनमोहन सरकार ने जो हलफ़नामा दिया था, और
मोदी सरकार ने राज्यसभा में जो कहा, दोनों सरकारी दावों
में कोई अंतर दिखाई नहीं देता। दोनों ने अंतिम रूप से देखे तो एकसरीखी बात ही कही
है। यानी, अगर
कांग्रेस हिंदू विरोधी थी, तो आज बीजेपी भी
हिंदू विरोधी है। या तो दोनों में से कोई हिंदू विरोधी नहीं था, बस
दोनों में से कोई एक किसी ख़ास सभ्यता की संवेदना का इस्तेमाल कर राजनीति ही कर
रहा था।
धार्मिक आस्था तथा समझ की जगह सनक, इन दोनों
हथियारों का इस्तेमाल करते हुए राजनीति नागरिकों को सिलेक्टिव या कन्फ्यूज़ जीव
बना देती है। वे करें तभी आस्था आहत होगी, हम करें तब नहीं होगी! जब काशी में एक आलीशान कॉरिडोर बनाने
के लिए अनेक मंदिर तोड़े गए तब आस्था डिब्बे में शांत पड़ी थी! जब स्वामीनारायण वाले तमाम ग्रंथों, मान्यताओं
को धत्ता बताते हैं, तब आस्था इतनी सी
उछलती है कि डिब्बा हिलने लगे!
आस्था को कब यक्ष प्रश्न मानना है, कब डिब्बे से बाहर
निकालना है, कब उसे आग की भाँति धधकना है, यह
तय करने का काम नागरिक कहाँ करते हैं?
(इनसाइड इंडिया, एम
वाला)