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Literary Demolition: स्वामीनारायण संप्रदाय साहित्य के ज़रिए हिंदू संप्रदाय पर योजनाबद्ध अतिक्रमण कर रहा है?

 
अगर कोई भारतीय यह दावा करता है कि उसे साहित्य में, पुस्तकों में, पढ़ाई में दिलचस्पी नहीं है तो यह सच होगा, बावजूद इसके साहित्य ने, पुस्तकों ने, उसके जीवन, दिमाग़, विचार आदि को बिना दिलचस्पी के ही ग़हरा प्रभाव डाला होता है! मूर्त रूप से किया गया अतिक्रमण, विध्वंस या निर्माण, उससे कहीं ज़्यादा प्रभावी और घातक होता है अमूर्त रूप से किया गया अतिक्रमण, विध्वंस या निर्माण।
 
अतिक्रमण करना, विध्वंस कर देना, स्थापित करना, यह सारे शब्द या प्रवृत्ति सिर्फ़ इमारतें, महल, जैसी मूर्त रचनाओं के आसपास साँसे नहीं लेती। शताब्दियों से स्थापित सच है कि लिखित रूप से किसी अच्छे या बुरे विचार व मान्यताओं को फैलाने से वह आगे जाकर साहित्य या दस्तावेज़ की शक्ल में किसी सभ्यता के भीतर, देश या प्रदेश के भीतर, इतने घुस जाते हैं कि आगे जाकर वह सनातन सत्य सा बन जाता है!
 
संसार और भारत, दोनों का इतिहास स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि अच्छे या बुरे विचार तथा लाभदायक या हानिकारक मान्यताओं का प्रचार प्रसार जैसे ही लिखित रूप से होना शुरू हुआ, वह दस्तावेज़ के रूप में स्थापित होने लगा! जैसे ही छिटपुट लोगों ने उन अच्छे-बुरे विचारों को, लाभदायक-हानिकारक मान्यताओं को, किताब या ग्रंथों के रूप में पेश करना शुरू किया, वह अनंत सत्य के रूप में स्थापित होने लगे!
 
अनेक निष्पक्ष इतिहासकारों ने लिखित रूप से, तथ्यों- तर्कों- साक्ष्यों के साथ कहा है कि भारत का धार्मिक इतिहास अलग अलग युग के शासकों व धार्मिक सत्ताओं द्वारा अपने तरीक़े से, अपनी मान्यताओं और अपनी योजनाओं व अपनी ज़रूरतों के हिसाब से लिखी गई नवलकथा सरीखी किताबें ही हैं।
 
विवादों से चोली दामन का रिश्ता रखने वाला स्वामीनारायण संप्रदाय, जैसे कि इसी योजनाबद्ध तरीक़े से हिंदू मान्यताओं और परंपराओं को बदल रहा है। यूँ कहे कि वह हिंदू संप्रदाय के इतिहास पर अतिक्रमण कर रहा है। हिंदू साहित्य का विध्वंस कर अपनी नयी मान्यताओं को किताब या साहित्य के रूप में स्वामीनारायण संप्रदाय स्थापित कर रहा है।
 
यह लेख 9 जुलाई 2023 को प्रकाशित किए गए लेख का संशोधित हिस्सा है। इसमें दर्शाया गया है कि कैसे स्वामीनारायण संप्रदाय हिंदू संप्रदाय पर लिखित रूप से, साहित्य की शक्ल में, आक्रमण कर रहा है। कैसे वह हिंदू संप्रदाय की मान्यताओं, विचारों का विध्वंस कर रहा है। कैसे वह हिंदू संप्रदाय के आराध्य देवों, देवियों को अपने काल्पनिक भगवान से निचले स्तर पर रखकर योजनाबद्ध तरीक़े से हिंदुओं के धार्मिक इतिहास का विध्वंस कर रहा है, उस पर अतिक्रमण कर रहा है और अपना एक नया निर्माण स्थापित कर चुका है।
दशकों से यह संप्रदाय अपनी भोग विलासिता के लिए बदनाम तो है ही। गुजरात के जनमानस में बचपन से एक फ़िक़रा देखा है। गुजरात में लोग दशकों से धड़ल्ले से बोलते हैं कि साधु होना है तो स्वामीनारायण के हो लीजिए, वर्ना न हो!
 
हिंदू सप्रदाय के आराध्य देव हनुमानजी महाराज के धार्मिक आभामंडल और व्यापकता का खुलकर इस्तेमाल करके फ़ाइव स्टार से लेकर सेवन स्टार तक की आलिशान इमारतों में वैभवी और ज़मीं पर जन्नत जैसा जीवन कैसे जी सकते हैं, उसका अभ्यास करना हो तो गुजरात में स्वामीनारायण संप्रदाय से बढ़कर कोई दूसरा मंच हो नहीं सकता। फिर किसी घटिया राजनेता की तरह इन्होंने उसी हनुमानजी महाराज को अपने काल्पनिक भगवान का दास या सेवक बताने से भी परहेज़ नहीं किया!

 
यूँ तो नारायण यानी स्वयं श्री भगवान विष्णु। हिंदू संप्रदाय के पुराणों और घार्मिक ग्रंथों के मुताबिक़ भगवान विष्णु स्वयं, और उनके जो भी अवतार हैं, श्री राम का अवतार हो या श्री कृष्ण का, वे अपने आराध्य देव स्वयं शिव को बताते हैं। इसे लेकर एक बार इस संप्रदाय के नाम को ही विवादित बताते हुए कहा गया था कि स्वामीनारायण - स्वामी ख़ुद ही स्वयं नारायण हो नहीं सकता, और स्वयं नारायण का शिव के सिवा दूसरा कोई स्वामी है नहीं।
 
वैसे स्वामीनाराण संप्रदाय का विवादों से ग़हरा रिश्ता स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले से ही है। समाज में जितने भी दुर्गुण हैं, जितने भी अनैतिक कार्य हैं, अपराध हैं, उनमें से लगभग ज़्यादातर दुर्गुण, अनैतिक कार्य, अपराध स्वामीनाराण संप्रदाय से जुड़े साधु, संत, प्रतिनिधि, लोग, अनुयायी, कर चुके हैं! अति गंभीर कारनामे, अति अनैतिक कार्य, अति संवेदनशील अपराध, बच्चों और महिलाओं से संबंधित असंवैधानिक और अमानवीय कृत्य, हत्या, मंदिर की सत्ता और संपत्ति के लिए हदें पार करना, स्वामीनाराण वाले इन सबमें संलिप्त पाए गए और फिर भी वे भगवा पहनते हैं, स्वयं को संत कहलाते हैं, संन्यासी बताते हैं, समाज सुधारक दिखाते हैं!
 
फ़िलहाल तो असीमित पैसा, विशाल अनुयायी गण और इसके चलते सत्ता से क़रीबी, इन तीनों का चक्र इस संप्रदाय को तमाम चक्रव्यूह से बाहर निकालते नज़र आते हैं।
शायद इसी वजह से इस प्रकार के निरंतर साहित्यिक अतिक्रमण विध्वंस के बाद भी किसी की धार्मिक भावना इतनी आहत नहीं हो पाई है कि इसका कोई स्थायी समाधान मिले। स्वामीनारायण संप्रदाय को हिंदू संप्रदाय से बाहर करने का आदेश, सनातन संप्रदाय विरोधी घोषित करने की घोषणा, के बाद भी दस्तावेज़ी विध्वंस रुका नहीं है! इन सब घटनाओं (आयोजित विध्वंसों) के बाद भी हिंदू संस्कृति रक्षा, हिंदू इतिहास अभिमान, सनातन गौरव, का झंडा थामने वाले आरएसएस को स्वामीनारायण संप्रदाय द्वारा आयोजित हनुमान जंयति कार्यक्रम में कैंप बनाकर सेवा करते देखा है! सवाल पूछे जाए तो बहाने बताकर पल्ला झाड़ते हुए भी देखा है।
 
स्वामीनारायण संप्रदाय का हिंदू धर्म के देवी-देवताओं पर अतिक्रमण किताबों या साहित्य के अमूर्त रूप में हो रहा है, और फिर धार्मिक समागमों में वाणी विलास के ज़रिए भी। वे हिंदूओं के आराध्य देव श्री शिव, श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु, श्री राम, श्री कृष्ण से लेकर तमाम हिंदू देवता और देवियों के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी कर चुके हैं! वे हिंदू संप्रदाय और उनकी मान्यताओं के साथ अनेक बार उलझ चुके हैं!

 
जो संप्रदाय महज़ 300-350 साल पहले जन्म लेता है वह पहले तो अपने विवादित प्रतिनिधि या प्रचारक को भगवान के रूप में स्थापित करता है! और फिर कुछ दशकों के बाद 3000-4000 साल पुराने हिंदू साहित्य, विचार, दर्शन और मान्यताओं पर अतिक्रमण करता है!
 
पहले तो अपने एक विवादित प्रतिनिधि को भगवान बताना शुरू करते हैं! काल्पनिक भगवान की माता का नाम भक्ति देवी (मूर्ति देवी) और पिता का नाम धर्म देव रखते हैं। उनके चार पुत्र नर, नारायण, हरि और कृष्ण बताते हैं! यानी हिंदू पुराणों, ग्रंथों, मान्यताओं का एक ही पंक्ति में विध्वंस!!!
 
जब इनके एक प्रतिनिधि का निधन हुआ तो इन्होंने भारत भर में फैले अपने अनुयायियों में एक अफ़वाह फैलाई कि फलाँ फलाँ रात को घरती से चंद्रमा को देखेंगे तो उसमें उनके काल्पनिक भगवान का चेहरा दिखेगा!!! कोरोना को थाली-ताली से भगाने वाले समाज ने उस रात अपने सारे काम ज़ल्द पूरे किए और चंद्रमा की तरफ़ मुँडी करके ताकने लगे!!!
हिंदू ख़तरे में हैं, हिंदुत्व ख़तरे में है। यह राजनीतिक जुमला, जो अब सामाजिक मान्यता बन चुका है, उसमें यदि तनिक भी सच्चाई है तो वो यह है कि हिंदू या हिंदुत्व के लिए वह ख़तरा बाहर से नहीं बल्कि भीतर से है। आप औरंगज़ेब औरंगज़ेब करते रह गए, आप मुग़ल मुग़ल करते रह गए और इधर आपका धार्मिक इतिहास लिखित रूप से, साहित्य की शक्ल में तोड़-मरोड़ दिया गया!
 
अतिक्रमण करते हुए स्वामीनारायण संप्रदाय यहाँ तक कह जाता है कि स्वयं श्री शिव उनके स्वघोषित भगवान के चरण छूने आते हैं, श्री राम के बारे में आपत्तिनजक टिप्पणी, नारायण नाम से विवाद, हिंदू संप्रदाय के तमाम देवी-देवता उनके श्रीजी महाराज की वजह से हैं, आत्मा को लेने यम नहीं उनके स्वामी आते हैं, और न जाने क्या क्या!!!
 
शिव-ब्रह्मा और विष्णु के भी भगवान हैं स्वामीनारायण, ये वाला विवादित दावा हो या दूसरे मामले, हिंदू धर्मग्रंथों को मरोड़ना, बदलना, अपने तरीक़े से प्रसंग डालना और अपनी नवलकथा सरीखी कहानियों को धार्मिक इतिहास बताना, इनकी सूची बहुत लंबी है। एक दावे की माने तो 150 से ज़्यादा बार इन्होंने हिंदू संप्रदाय और हिंदू मान्यताओं पर अतिक्रमण किया है और विवाद उत्पन्न किए हैं।

 
स्वामीनारायण संप्रदाय के इन कारनामों की वजह से एक मत यह भी बन रहा है कि विधर्मी लोगों ने तो केवल हिंदू मंदिरों और प्रतीकों को ही तोड़ा था, ये लोग तो हिंदू ग्रंथों, हिंदू मान्यताओं, हिंदू शास्त्रों और हिंदुओं के इतिहास तक को तोड़ रहे हैं! स्वामीनारायण संप्रदाय की इस अतिक्रमण वाली प्रवृत्ति को सदियों पहले हुए अतिक्रमण से भी ख़तरनाक प्रवृत्ति मानने वाले एक वर्ग का निर्माण होने जा रहा है।
 
दरअसल स्वामीनारायण संप्रदाय के इस अतिक्रमण वाले स्वभाव का मूल उनके अपने ग्रंथों में है। यूँ तो हिंदू धर्म में नीलकंठ स्वयं श्री शिव हैं। किंतु यहाँ वे अपने एक संत को नीलकंठी नाम देकर अतिक्रमण की शुरुआत करते हैं!
उनके संप्रदाय की कुछ पुस्तकें, सर्वोपरि श्री स्वामीनारायण भगवान भाग 1 और भाग 2, नीलकंठ चरित्र, छपैयापुरे श्रीहरि बालचित्र, श्री भूमानंदस्वामी कृत श्री हरिलीलामृत ग्रंथ, सत्सगं विहार भाग 2, सहजानंद चरित्र, श्रीजी संकल्पमूर्ति सद्गुरू श्री गोपालनंद स्वामी नी वातों, जैसी पुस्तकों में ऐसी ऐसी काल्पनिक कहानियाँ हैं, जिसे पढ़ने या सुनने के बाद जिस सनातन धर्म और उसके वेद या ग्रंथों व पुराणों को समग्र भारत वर्ष का आधार बताया जाता है उस पर आघात होंगे।
 
इन पुस्तकों में श्री शिव, श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु, श्री विष्णु के अनेक अवतार जैसे कि श्री राम-श्री कृष्ण, श्री हनुमानजी, इंद्र देव तथा हिंदू संप्रदाय में जिनका वर्णन किया गया है वे तमाम देवियाँ तथा माताजी, तमाम के ऊपर स्वामीनारायण के एक संत या एक से अधिक संतों को दर्शाया गया है!!!

 
ऐसी ऐसी कहानियाँ रची गई हैं, जिसमें समग्र हिंदू देवों और देवियों को इनके संतों के आगे नतमस्तक दिखाया गया है! इन शोर्ट, इन्होंने अपने लंबे काल में चुपके से ऐसे ऐसे ग्रंथ, ऐसी ऐसी कहानियाँ बना कर रखी हैं, जिसमें तमाम हिंदू मान्यताओं को चुनौती दी जा सकें। ऐसे ऐसे उदाहरण और घटनाएँ हैं, जिससे उनके संप्रदाय के एक प्रतिनिधि को समग्र ब्रह्मांड का असली अधिपति, असली नाथ, असली ईश्वर दर्शाया गया है!!!
 
इस बारे में गुजरात के अख़बार दिव्य भास्कर, ऑपइंडिया तथा अन्य मंचों ने विस्तृत रिपोर्ट भी प्रकाशित की हुई है। हम यहाँ उन रिपोर्ट्स का हिंदी अनुवाद पेश करते हैं।
 
पुस्तक संख्या-1: सर्वोपरि स्वामीनारायण भगवान भाग-1 एवं भाग-2
 
शिव और पार्वती को वर्णिराज की सेवा का अवसर प्राप्त हुआ
जूनागढ़ में शिव पार्वती को वर्णिराज ने स्थापित किया
शिव को वरदान दिया
चंद्रमा को मुक्ति शिव नहीं दिला पाएँ तो वर्णिराज ने चंद्र को मुक्ति दिलवाई
स्वामीनारायण के स्वामी को सर्वोपरि और अनंत ब्रह्मांडों का नाथ बताया
मणिनगर स्वामीनारायण गादी संस्थान द्वारा प्रकाशित और सद्गुरु शास्त्री सर्वेश्वर दासजी द्वारा लिखित सर्वोपरि श्री स्वामीनारायण भगवान खंड -2 वन विचरण पुस्तक का पहला संस्करण 2015 में प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक के पृष्ठ 224 पर पार्वती सेवा से लाभ नामक अध्याय है।
 
यह अध्याय वर्णिराज के एक घने जंगल में अकेले भटकने से शुरू होता है। इसके बाद आगे पढ़ने के लिए मिलता है कि ठीक इसी समय एक संयोग घटित हुआ। कैलासपति शिवजी और पार्वती उत्तर प्रदेश में घूमते हुए छपैया भूमि पर आएँ। वहाँ नारायणसर के निकट शिवजी भूमि पर उछलने और कूदने लगे।
 
यह देखकर पार्वतीजी ने पूछा, हे पतिदेव! आप क्या कर रहे हैं? आप यहाँ क्यों घूम और कूद रहे हैं?”
 
शंभू महादेव ने समझाया, अनंत ब्रह्मांडों के नाथों ने यहाँ खेला है, इसलिए इस भूमि की मिट्टी सर्वोच्च तीर्थ बन गई है।
 
किंतु पतिदेव, यह तो बताइए कि यह कब की बात है?”
 

अरे सती, अभी हाल ही की बात है।
 
तो बताइए, आपने दर्शन कब किए?”
 
यहाँ नारायणसर में उस भगवान की माता भक्तिदेवी उन्हें स्नान कराती थीं, उस समय ब्रह्मा और विष्णु के साथ मैं भी दर्शन के लिए आया था।
 
पति देव, आप मुझे छोड़ कर गए यह अच्छा नहीं है। हमारे प्रत्येक धर्मग्रन्थ में लिखा है कि जो भी व्रत, यज्ञ, तीर्थ आदि हों, पति को पत्नी के साथ जाना चाहिए। आप उसका पालन क्यों नहीं करते? आपको यह शोभा नहीं देता। अब अगर आप मुझे छोड़कर अकेले चले जाएँगे तो नतीजा अच्छा नहीं होगा और आपको पछताना पड़ेगा। अब बताइए तो सही कि वह अब कहाँ हैं?”
 
फ़िलहाल तो वह यहाँ नहीं है। वे असंख्य प्राणियों के कल्याण हेतु संपूर्ण भारतवर्ष में विचरण कर रहे हैं।
तो ज़ल्दी चलिए, मुझे उनके दर्शन कराइए।
 
इस तरह दर्शन की उत्कंठा से शंकर और पार्वती नंदी पर सवार होकर ज़ल्दी से इस स्थान पर पहुँचे। दोनों ने सन्यासी के वस्त्र पहने हुए थे। वर्णिराज की कृषमूर्ति देखकर वे दोनों आश्चर्यचकित हो गए। अरे! अनन्त ब्रह्माण्डों के नाथ की यह स्थिति?
 
उन्होंने वर्णिराज को प्रणाम करते हुए कहा, हे भगवन्! आप अकेले किस तरफ़ विचरण कर रहे हैं?”
 
दोनों की मनोदशा देखकर वर्णिराज ने उनकी ओर देखा। उन दोनों ने वर्णिराज को प्रणाम करके कहा, हे भगवन्! आप अकेले किस तरफ़ विचरण कर रहे हैं? आप अपने पास किसी सेवक को नहीं रखते? तपस्या से आपका कोमल शरीर कितना क्षीण हो गया है! आप भूखे होंगे।
 
यह कहते हुए पार्वती ने अपने पास मौजूद एक गठरी को खोला, उसमें से सातव (भुना हुआ आटा) और नमक निकाला और वर्णिराज को दिया। वर्णिराज ने पूछा, आप कौन हैं?”

 
दोनों ने कहा, आप पाँच पाँच दिनों से भूखे हैं, इसलिए हम आपकी सेवा के लिए यह छोटा सा उपहार लाए हैं।
 
वर्णिराज कहते हैं, पहले यह बताओ कि आप कौन हैं? हम किसी अजनबी का खाना नहीं खाते।
 
शंकर कहते हैं, हे सर्वज्ञ भगवान! आप सब कुछ जानते हैं फिर भी पूछते हैं, इसलिए मैं बताता हूँ कि मैं कैलासवासी शिव हूँ और यह पार्वती हैं।
 
वर्णिराज ने सातव को जल में मिला लिया और शालिग्राम को अर्पण कर स्वयं स्वीकार किया। शंकर-पार्वती की सेवा से प्रसन्न होकर वर्णिराज ने वरदान दिया कि हम आपको सेवा में रखेंगे। उस वचन के अनुसार जूनागढ़ मंदिर में शंकर और पार्वती को स्थापित किया है।
 
सद्गुरु शास्त्री श्री सर्वेश्वरदासजी स्वामी सर्वोपरि श्री स्वामीनारायण भगवान खंड-1 बाललीला के पृष्ठ 59 पर अध्याय 'चंद्र आव्यो दर्शन काजे' में लिखते हैं कि शरद पूर्णिमा की रात थी, चंद्रमा सोलह कला में खिला हुआ था। उस रात भक्ति माता, धर्मदेव तथा अन्य परिजन घर के आँगन में बैठे थे। बाल प्रभु अपनी माँ की गोद में बैठे थे। चंद्रमा दूधिया धवल चाँदनी बिखेर रहा था। बाल प्रभु ने चंदा मामा को आकाश में घूमते हुए देखा।
यह बच्चे की स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह जो कुछ भी देखता है उसके साथ उसे खेलने का मन होता है। बालप्रभु ने अपना स्वाभाविक भाव दिखाते हुए सोचा कि मुझे सचमुच इस चम्मच, छोटी सी प्लेट जैसे खिलौने की आवश्यकता है। अपनी मीठी भाषा में बोलते हुए और अपने दाहिने हाथ की उंगली से इशारा करते हुए कहने लगे, माँ, इसे मेरे पास लाओ।
 
बाल प्रभु के दर्शन की इच्छा तो स्वयं चंद्रमा को भी थी। दूर से तो दर्शन हो गए थे, लेकिन पास आने का मौक़ा नहीं मिला था। परमेश्वर की इच्छा के बिना कोई कैसे निकट आ सकता है? बाल प्रभु ने उनकी इच्छा पूरी करने का संकल्प लिया। इसीलिए उन्होंने अपनी माँ से कहा, माँ,  मुझे चन्द्र ला दीजिए।
 
भक्ति माता कहती हैं, “वह हमारे पास नहीं आएगा। वह आकाश में घूमता है। हमारे बुलाने पर भी वह नहीं आएगा।
 
क्यों नहीं आएगा? हम बुलाएँगे तो ज़रूर आएगा। आपको बुलाना नहीं है इसलिए मना कर रहे हैं। मुझे चन्द्र चाहिए ही चाहिए।
 
यह सुनकर माँ परेशान होने लगी और बोलीं, हम उसे बुलाते हैं तो वह नहीं आता। अब आप खेलना चाहते हैं तो आप बुलाएँ। देखे तो सही कि वह आता है या नहीं?”
 
पुस्तक में आगे लिखा है कि जिस भगवान की इच्छा से ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति और स्थिति और विनाश होता है, इंद्र, शेषजी आदि बड़े-बड़े देवता जिनकी आज्ञा को शिरोमान्य मानते हैं, उस शक्तिशाली स्वामी की इच्छा से चंद्रमा क्यों नहीं आते? आएँगे ही न? बाल प्रभु ने तुरंत चँद्रमा की ओर देखा।

 
अपनी छोटी उंगली से आने के लिए इशारा करते हुए प्रभु कहने लगे, कई वर्षों से फँसा हुआ हैं, अब यदि तुम्हें मोक्ष की आवश्यकता हो तो शीघ्र यहाँ आ जाओ।
 
बाल प्रभु के वचन के साथ, चंद्र रोहिणी आदि 27 पत्नियों और उनके पार्षदों के साथ विभिन्न सामग्रियों के साथ दर्शन के लिए उपस्थित हुए। उसी समय वह बीज के रूप में आकाश में थें। चंद्रमा के आने के साथ ही समस्त छपैयापुर रोशन हो गया। चंद्रमा ने सोलह प्रकार के उपचारों से बाल प्रभु की पूजा की।
 
दिव्य उज्ज्वल पुरुष के रूप में आये चंद्रमा को भक्ति माता पहचान नहीं सकें। उन्होंने आश्चर्य से पूछा, भाई, तुम कौन हो? कहाँ से आए हो?”
 
तब चंद्रमा ने विस्तार से बताया कि, मैं चंद्र हूँ। मैं परिवार के साथ हूँ। अपने मोक्ष के लिए मैंने कई देवताओं के दर्शन किए, कई तीर्थ स्थलों की यात्रा की, उनमें स्नान किया, उनका पानी पिया, लेकिन मेरी मुक्ति नहीं हुई। मैंने सोचा कि सारे तीर्थ समुद्र में हैं, इसलिए मैं समुद्र में ही रहा, लेकिन मुझे वहाँ मुक्ति नहीं मिली। इसलिए मैंने सोचा कि मुझे शंकर के पास जाना चाहिए। कई वर्षों तक उनकी जटा में ही रहा, परंतु वो भी मुक्ति कहाँ से दिला पातें? अत: उनके पुत्र गणपतिजी के भाल में जाकर रहने लगा, परंतु कोई मेल न होने से मैं पुनः आकाश में विचरण कर रहा था। आकाश यानी शून्य। क्या मोल है उसका? वहाँ मैं निराश्रित घूमता रहा। तभी इस प्रभु को दया आयी और उन्होंने मेरी ओर देखा। साथ ही, समीप भी बुलाया। सचमुच, आज मेरा भाग्य खुल गया। मैं कृतज्ञ हूँ।
 
इस प्रकार विभिन्न उपचारों से भगवान की स्तुति और पूजा करने के बाद, चंद्र अपने परिवार के साथ आकाश मार्ग से अद्दश्य हो गया।
 
पुस्तक संख्या-2: नीलकंठ चरित्र
  
पुराणों या इतिहास में ऐसा सुनने को नहीं मिलता कि पहले किसी ने इतनी कठोर तपस्या की हो
ब्रह्मा-विष्णु और महेश अंतरिक्ष में सेवा में खड़े होकर देखते रहें
सूर्यनारायण ने हाथ जोड़कर कहा- हे भगवन्! हम आपके कारण महान बने हैं
सूर्यनारायण ने हाथ जोड़कर कहा- हे भगवन, आपने मुझे बचा लिया, इसलिए मैं धन्य हूँ
हनुमानजी नीलकंठ के पैर छूकर लठ लेकर मंदिर में गए
साधुओं को लठ से मारकर कहा - मैं नीलकंठ वर्णी का सेवक अंजनीपुत्र हनुमान हूँ
स्वामीनारायण अक्षरपीठ, शाहीबाग (अहमदाबाद) द्वारा प्रकाशित और और रमेश एम. दवे द्वारा लिखित नीलकंठ चरित्र के अब तक 20 से अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
 
नीलकंठ चरित्र के 23वें पृष्ठ पर अध्याय संख्या-14 'पुलहाश्रम मां आकरू तप' अध्याय में नीलकंठ के बारे में बताया गया है जो 12 वर्ष की आयु में तपस्या करने चले जाते हैं। इस पुस्तक के पृष्ठ संख्या 25 पर लिखा है कि पुलहाश्रम के जंगल में कुछ अन्य योगी और ऋषि भी रहते थे। इतनी कम उम्र में नीलकंठ की तपस्या देखकर वह अवाक रह गए। वे सुबह-शाम नीलकंठ को देखते हैं लेकिन नीलकंठ तपस्या से विचलित नहीं होते। नीलकंठ की तपस्या से उन्हें यह अहसास हुआ कि 'इतनी घोर तपस्या के बारे में पुराणों या इतिहास में किसी ने नहीं सुना है। लगता है कि साक्षात नारायण ही कठोर तपस्या करने आए हैं!
 
वे प्रतिदिन नीलकंठ के पास आकर उनके पेर छूते हैं और प्रार्थना करते हैं, हे भगवन! हमें वैराग्य और तपस्या के गुण दीजिए।
 
नीलकंठ के दोनों ओर अंतरिक्ष में धर्मदेव और भक्ति माता दिव्यदेह के साथ उनकी रक्षा के लिए खड़े थे। 'सलामत रहो, सलामत रहो मेरे बेटे!' बोलते हुए वह भी प्रार्थना कर रहे हैं। दूसरी ओर ब्रह्मा, विष्णु और महेश अंतरिक्ष में सेवा में खड़े हैं।

 
नीलकंठ ने चातुर्मास का समय इसी कठोर तपस्या में व्यतीत किया। 1850 ई. में कार्तिक सुद एकादशी के दिन प्रातःकाल सूर्यनारायण साक्षात मनुष्य रूप में प्रकट हुए।
 
नीलकंठ ने खुश होकर सूर्यनारायण से कहा, मेरा ब्रह्मचर्य व्रत कायम रहे और मुझे वरदान दो कि जब मैं तुम्हें याद करूँ तो आपको साक्षात देखूँ।
 
सूर्यनारायण ने हाथ जोड़कर कहा, हे प्रभु! आप निर्दोष हैं, आपके कारण हम महान हैं। आपकी कृपा से और आपकी आराधना से मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ है। आप सच्चे पुरूषोत्तम नारायण, सभी अवतारों के अवतार हैं। आप सदैव निर्दोष हैं। मैं आपको वरदान देने वाला कौन होता हूँ? किंतु ब्रह्मचर्य से ही ब्रह्मस्थिति को प्राप्त किया जा सकता है यह सिद्ध करने हेतु आप तपस्या कर रहे हैं। यद्यपि आपमें सभी कल्याणकारी गुण सिद्ध हैं, फिर भी आपने जो माँगा है वह अवश्य पूरा होगा। आपने इतनी कठोर तपस्या इसलिए की ताकि पृथ्वी पर लोग आपकी तरह त्याग, वैराग्य और तपस्या सीख सकें।
 
सूर्यनारायण ने फिर हाथ जोड़कर कहा, हे स्वामी, मैं धन्य हो गया कि आपने मुझे याद किया। जब भी आपको मेरी सेवाओं की आवश्यकता होगी तब आप मुझे अवश्य याद करें। मैं आपकी सेवा में उपस्थित रहूँगा।
 
यह बोलकर प्रणाम कर सूर्यनारायण अन्तर्धान हो गए।
नीलकंठ चरित्र के अध्याय संख्या-22 'धर्म नो उपदेश' के पृष्ठ 40 पर लिखा है कि नीलकंठ अब दक्षिण की ओर चले गए। चलते-चलते शाम हो गई। एक गाँव आया। गाँव के चौराहे पर कुछ लोग बैठे थे।
 
नीलकंठ ने उनसे पूछा, क्या यहाँ जोगी-जति के रहने के लिए कोई जगह है?”
 
एक शख़्स ने कहा, यहाँ बनिये के घर के सामने साधुओं का रामजी मंदिर है, वहाँ साधु-संतों को आश्रय मिलता है। तो आप वहाँ चले जाएँ।
 
नीलकंठ रामजी मंदिर गए। साधुओं ने उन्हें ठहराया। नीलकंठ नहाकर मंदिर के चौक में बैठें।
 
संध्या आरती हुई। फिर मंदिर में रामायण की कथा शुरू हुई। गाँव के स्त्री-पुरुष कहानी सुनने के लिए एक-दूसरे के पास आकर बैठ गए। नीलकंठ ने देखा कि मंदिर में स्त्री-पुरुष एक साथ बैठे हैं। उन्हें ये पसंद नहीं आया। जब कथा समाप्त हुई तो सभी लोग साधु के पैर छूकर जाने लगे। कुछ महिलाएँ नीलकंठ के पैर छूने आईं। नीलकंठ उठकर कमरे के अन्दर चले गए। उसके बाद कुछ स्त्रियाँ साधुओं के हाथ-पैर दबाने लगी और उन साधुओं की सेवा करने लगीं। नीलकंठ को यह बिलकुल पसंद नहीं आया।
 
उन्होंने साधुओं से कहा, रामायण की कथा कहते हो और धर्म का आचरण क्यों नहीं करते? साधु को स्त्रियों को उपदेश नहीं देना चाहिए। त्यागी साधु को स्त्री और धन से दूर रहना चाहिए।
 
ये शब्द सुनकर साधु क्रोधित हो गए और बोले, बच्चे, हमें उपदेश देने वाले तुम कौन होते हो? यहाँ से चले जाओ, नहीं तो हम तुम्हें मार डालेंगे।
 
नीलकंठ तो तुरंत अद्दश्य हो गए। साधुओं को आश्चर्य हुआ कि यह लड़का मंदिर के बंद दरवाज़े से कैसे गायब हो गया! मंदिर से निकलकर नीलकंठ बनिये के घर के आँगन में बैठ गए। इसलिए पवनपुत्र हनुमान वहाँ नीलकंठ के पास आए। हनुमान ने देखा कि नीलकंठ को दुष्ट साधुओं ने भगा दिया है, तो वह नीलकंठ के पैर छूकर लठ लेकर मंदिर में गए। सारे साधुओं और उनकी सेविकाओं को लठ से मारने लगे। साधुओं की हड्डियाँ टूट गईं।
साधुओं ने कहा, तुम कौन हो? हमें बिना दोष क्यों मार रहे हो? हमने क्या गुनाह किया है?”
 
हनुमानजी कहते हैं, तुम सबने नीलकंठ ब्रह्मचारी को बिना दोष के यहाँ से क्यों निकाल दिया? नीलकंठ तो साक्षात् भगवान हैं। तुम सबने उन्हें इस रामचन्द्रजी के मंदिर से क्यों निकाला? जाओ और नीलकंठ से माफ़ी माँगो। नीलकंठ को सम्मान सहित मंदिर में वापस ले आओ। तभी मैं तुम्हें जाने दूँगा, अन्यथा मैं तुम सबको आज ही समाप्त कर दूँगा।
 
साधुओं ने कहा, आप जैसा कहेंगे हम वैसा ही करेंगे लेकिन हमें छोड़ दीजिए। बताओ तुम कौन हो।
 

तब हनुमानजी ने कहा, मैं नीलकंठ वर्णी का सेवक अंजनीपुत्र हनुमान हूँ।
 
साधुओं ने सभी स्त्रियों को निकाल दिया। मंदिर का दरवाज़ा खोला और बनिये के आँगन में जाकर नीलकंठ से माफ़ी मांगी।
 
साधुओं ने कहा,हम आपको नहीं पहचान पाएँ। आप तो साक्षात रामचन्द्रजी के अवतार हैं। आज से हम स्त्री और धन को नहीं छूएँगे। स्त्रियों को उपदेश नहीं देंगे। आप जैसा कहेंगे हम वैसा ही करेंगे, परंतु इस सेवक हनुमानजी से हमें मुक्त कराइएँ।
 
नीलकंठ ने सभी को क्षमा दी और पवनपुत्र हनुमानजी को संकेत किया और वे आकाश मार्ग से चले गए। नीलकंठ को मंदिर में लाया गया। दो दिन तक मंदिर में अच्छा खाना खिलाया। नीलकंठ दो दिन रुके और सभी साधुओं को आदेश (नीति और नियम) देकर वहाँ से चले गए।
 
पुस्तक संख्या-3: छपैयापुरे श्रीहरि बालचरित्र
  
लक्ष्मीजी घनश्याम महाराज के पैरों को छूती हैं और खड़ी हो जाती हैं
तीनों देवता ब्रह्मा-विष्णु और शिव घनश्याम महाराज को स्नान कराते हैं
ब्रह्मा हाथ जोड़कर घनश्याम महाराज से विनती करते हैं कि आप मेरा सृष्टि निर्माण का काम किसी और को सौंप दें
ब्रह्मा घनश्याम महाराज को साष्टांग प्रणाम करते हैं और कहते हैं मुझे माफ़ कर दीजिए यह ग़लती फिर से नहीं होगी
श्रीभूमानंद स्वामी कृत छपैयापुरे श्रीहरि बालचरित्र पुस्तक स्वामीनारायण मंदिर भुज-कच्छ द्वारा प्रकाशित की गई थी। अब तक इसके 7 से अधिक संस्करण आ चुके हैं।
 
पुस्तक के 50वें पृष्ठ संख्या में लिखा है कि एक बार जब भक्ति माता अपने पुत्र को उंगली पकड़कर चलना सिखा रही थीं, तभी लक्ष्मीजी अपनी सखियों के साथ अपने प्रभु की बाललीला देखने आईं। जिसमें बताया गया है कि लक्ष्मीजी घनश्याम महाराज के पैरों को छूकर खड़ी रहती हैं।
 
छपैयापुर श्रीहरि बालचरित्र ग्रंथ की पृष्ठ संख्या 54 पर लिखा है कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों देवता कुएं के किनारे आकर बैठते हैं और पहले तो घनश्याम महाराज के दर्शन करते हैं और फिर घनश्याम महाराज की सेवा करते हैं और उन्हें स्नान कराते हैं।
 
जब भक्ति माता यह देखतीं हैं तो घनश्याम महाराज कहते हैं, ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों देवता हमें स्नान कराने आए हैं।

 
यह सुनकर तीनों देवताओं ने विनती की और कहा, “भक्ति माता, यह आपका पुत्र है जो हमारे ब्रह्मांड का नियंता (परमेश्वर) है।
 
पुस्तक के पेज नंबर 110 तथा अन्य एक पुस्तक के पेज नंबर 68 पर लिखा है कि चतुर्मुख ब्रह्माजी सत्यलोक से हंस पर बैठकर उस स्थान पर आए, जहाँ घनश्याम महाराज बैठे थे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ब्रह्माजी ने हाथ जोड़कर महाराज से अनुरोध किया कि, हे प्रभु! मैं कई वर्षों से इस सृष्टि के निर्माण के लिए काम कर रहा हूँ। अब मैं सेवानिवृत्त होकर शांति से आपका भजन करना चाहता हूँ। यह काम किसी और पर छोड़ दें।"
 
ब्रह्माजी ने मन में यह था कि मेरे बिना काम रुक जाएगा। मैं सृष्टि का रचयिता हूँ, प्रभु मुझसे विनती करके कहेंगे कि तुम्हें यह काम करना होगा, यह काम दूसरों से नहीं होगा।
 
घनश्याम महाराज ने कहा, अब भी आपका शरीर ठीक है। बुढ़ापा दिखाई नहीं दे रहा है। इसलिए आप अपना काम जारी रखें तो बहुत अच्छा होगा।
 
ब्रह्माजी ने कहा, नहीं। मैं अब वह काम नहीं करूँगा। इसे किसी और पर छोड़ दें।
प्रभु ने कहा, कोई बात नहीं। आप थोड़ी देर नारायण झील के किनारे बैठिए। मैं उस काम के लिए किसी उपयुक्त व्यक्ति की व्यवस्था कर दूँगा। आप चिंता मत करें।
 
ब्रह्माजी को लगा कि भगवान अब मुझे मनाएँगे, पीठ थपथपा कर कहेंगे तुम्हें ये करना ही होगा। तभी अचानक आश्चर्य हुआ।
 
फिर पुस्तक में ब्रह्माजी का अभिमान तोड़ दिया उपशीर्षक के साथ यह काल्पनिक कहानी आगे बढ़ती है।
 
सामने से ऊँटों की कतार चली आ रही है। ऊँट पर बड़ी बड़ी लम्बी पेटियाँ हैं। ब्रह्माजी ने यह दृश्य देखा, ओह... हो... हो... यह ऊँट मेरी रचना का नहीं है। कोई विचित्र सफ़ेद ऊँट सब दिखाई दे रहा है।
 
ब्रह्माजी ने ऊँट चालक से पूछा, इस डिब्बे में क्या है?”
 
इस डिब्बे में बहुत से ब्रह्मा भरे हुए हैं।
 
दिखाइए तो सही।
 
डिब्बा खोला तो उसमें चतुर्मुखी तेजस्वी दिव्य पुरुष हैं... कोई आठमुखी ब्रह्मा हैं... कोई सोलहमुखी हैं। चौथा डिब्बा खोलकर देखा तो वहाँ चालीस मुख वाले ब्रह्मा हैं। ऐसा अलौकिक दृश्य देखकर ब्रह्माजी दंग रह गए।
 
पुस्तक के पेज नंबर 111 पर दर्ज है कि अलग-अलग मुख वाले ब्रह्मा घनश्याम महाराज के पास आए और हाथ जोड़कर बोले कि, है अक्षराधिपति पुरूषोत्तम भगवान, आपकी क्या आज्ञा है?”
 
तब घनश्याम महाराज ब्रह्मा का अहंकार दूर करते हैं। फिर चतुर्मुखी ब्रह्माजी घनश्याम महाराज को साष्टांग प्रणाम करते हैं और कहते हैं, महाराज मेरे अपराध को क्षमा करें। आपको मना करना मेरी बहुत बड़ी ग़लती थी और मैं दोबारा ऐसा काम कभी नहीं करूँगा।
 
पुस्तक संख्या-4: श्रीभूमानंदस्वामी कृत श्रीहरिलीलामृत ग्रंथ
  
ब्रह्मा और शिव जय-जय कहकर श्री महाराज की स्तुति करते हैं
 
स्वामीनारायण मंदिर, कुंडल धाम और स्वामीनारायण मंदिर कारेलीबाग-वडोदरा ने श्रीहरिलीलामृत ग्रंथ नामक इस पुस्तक का प्रकाशन किया है।
 
पुस्तक के पृष्ठ क्रमांक 267 एवं पृष्ठ क्रमांक 268 पर लिखा है कि इंद्रादिक देव श्रीमहाराज की जलक्रीड़ा देखने आते हैं और देवता पुष्प एवं चंदन की वर्षा करते हैं। और ब्रह्मा और शिव जय-जय कहकर स्तुति करने लगते हैं।
 
पुस्तक संख्या-5: सत्संग विहार-भाग 2
  
श्रीजी महाराज ब्रह्मा, विष्णु, महेश को प्रसाद देकर उनका कल्याण करते हैं
स्वामीनारायण अक्षरपीठ शाहीबाग ने बच्चों के लिए सत्संग विहार नामक पुस्तकों की एक श्रृंखला जारी की है।
 
पुस्तक के पृष्ठ संख्या-23 में लिखा है कि एक बार श्रीजी महाराज खाट पर बैठे थे तभी एक कौआ आया। श्रीजी महाराज रोटी को हवा में उछाल देते हैं और कौआ रोटी को अपनी चोंच में लेकर उड़ जाता है।
 
यह देखकर लाडूबा पूछते हैं कि महाराज ये क्या किया? रोटी कौवे को फेंक दी?
 
जवाब में श्रीजी महाराज मुस्कुराते हुए कहते हैं कि यह कौआ नहीं बल्कि ब्रह्माजी थे। वे हमारी प्रसादी लेने आए थें। वर्षों से तरस रहे थें, आज लाभ दिया।
 
आगे यहाँ बताया गया है कि, ऐसे थे श्रीजी महाराज। देवताओं को भी दुर्लभ। सर्वोच्च भगवान। ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसे देवता उनके प्रसाद के लिए तरसते हैं और वे सर्वोच्च हैं। प्रसाद देते हैं और देवताओं का भी कल्याण करते हैं।
 
पुस्तक संख्या-6: सहजानन्द चरित्र
  
देवता और ऋषि-मुनियों को एक पैर पर खड़े होकर महाराज की स्तुति करते देखा हैं
स्वामीनारायण अक्षरपीठ, शाहीबाग (अहमदाबाद) द्वारा प्रकाशित तथा रमेश एम. दवे द्वारा लिखित इस किताब के कई संस्करण आ चुके हैं।
 
पुस्तक के पृष्ठ संख्या 10 में, शारदादेवी कहती हैं कि, स्वामीनारायण तो इंद्र, चंद्र, विष्णु और महेश आदि देवों के स्वामी हैं और उन्हें कोई भी नहीं जीत सकता।
 
साथ ही, पुस्तक में एक जगह संतदासजी कहते हैं, उन्होंने शिव, ब्रह्मादि अनंत देवताओं, ऋषियों और अवतारों को एक पैर पर खड़े होकर महाराज की स्तुति करते देखा है।
 
साथ ही एक जगह लिखा है कि, लोग महाराज से वर्षा कराने का अनुरोध करते हैं तो महाराज रात को शय्या पर सोते हुए इंद्र को धमकाते हैं।
 
इसके अलावा किताब में एक जगह लिखा है कि, अक्षरधाम सर्व धामों से ऊँचा है।
 
पुस्तक संख्या-7: श्रीजी संकल्पमूर्ति सद्गुरू श्री गोपालनंद स्वामी नी वातों
  
द्वारका में कोई भगवान नहीं है
यदि आप भगवान देखना चाहते हैं तो वडताल जाइए
आप भगवान (स्वामीनारायण के संत) की पूजा करने की जगह एक छोटी देवी (माँ चामुंडा) की पूजा क्यों करते हैं
देवी देवताओं की पूजा करने से कल्याण प्राप्त नहीं होता
शिव स्वामीनारायण और गोपालनंद की पूजा करते हैं
हनुमानजी हाथों में गदा पकड़े हुए गोपालानंद के आगे काँपते हैं
सत्संगी वही हैं जो स्वामीनारायण की पूजा करे, बाकी कुसंगी हैं
अपने प्रतिनिधियों को सर्वोच्च साबित करने हेतु स्वामीनारायण संप्रदाय के योजनाबद्ध धार्मिक अतिक्रमणों में एक नया हिस्सा है श्रीजी संकल्पमूर्ति सद्गुरु श्री गोपालानंद स्वामी की वार्ता’ (हिंदी अनुवाद) नामक पुस्तक।
 
इस पुस्तक में हिंदू संप्रदाय के आराध्य देव भगवान द्वारकाधीश (कृष्ण) और पवित्र तीर्थ स्थल द्वारका के बारे में अपमानजनक लेख लिखने का आरोप है। ऑपइंडिया ने जब इस पुस्तक का अध्ययन किया तो कई खुलासे हुए। न केवल श्री कृष्ण, बल्कि इस पुस्तक में श्री राम, श्री शंकर, श्री हनुमान और श्री गणपति के बारे में भी अपमानजनक लेख हैं!
 
इतना ही नहीं, इस पुस्तक में देवी चामुंडा, जिन्हें देवी पार्वती के अवतार के रूप में पूजा जाता है, उनके बारे में भी अपमानजनक बातें लिखी हैं! इस पुस्तक में एक जगह पर कहा गया है कि द्वारका में कोई भगवान ही नहीं है! इसके साथ ही भगवान कृष्ण की महिमा को कम करके स्वामीनारायण को सर्वोच्च साबित करने का भी प्रयास भी किया गया है!
 
संप्रदाय की श्रीजी संकल्पमूर्ति सद्गुरु श्री गोपालानंद स्वामी की वार्ता नामक पुस्तक में कहानी संख्या 33 में लिखा गया है, द्वारका में भगवान कहाँ होंगे? यदि आप भगवान को देखना चाहते हैं, तो वडताल जाइए।
विवादास्पद पुस्तक की जाँच करते समय ऑपइंडिया ने पाया कि कहानी संख्या 33 में स्वामीनारायण संप्रदाय के एक भक्त अबासाहेब का उल्लेख है। पुस्तक में कहा गया है कि वह एक चरित्रवान व्यक्ति थे और उन्हें गोपालानंद स्वामी के दर्शन से लाभ हुआ।
 
पुस्तक आगे बताती है, उन्होंने एक बार स्वामी से पूछा कि चूँकि उनके परिवार के सदस्य कुसंगी हैं, इसलिए वह द्वारका जाने के लिए कह रहे हैं, तो उन्हें इस स्थिति में क्या करना चाहिए?” जवाब में गोपालानंद स्वामी कहते हैं, द्वारका में भगवान कहाँ हैं? अगर भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन करने हैं तो वडताल चले जाइए। वहाँ भगवान स्वामीनारायण आपकी मनोकामना पूरी करेंगे।
 
पुस्तक में आगे लिखा है, “स्वामी की अनुमति लेकर आबासाहेब चल पड़े। लेकिन उनके रिश्तेदार उनके ख़िलाफ़ थे, और उन्होंने द्वारका ही जाने पर बहुत जोर दिया। अंततः वे द्वारका की ओर चल पड़े और समुद्र तट पर जाकर जहाज़ पर सवार हो गए, तभी समुद्र में भयंकर तूफ़ान आ गया।
 
पुस्तक बताती है कि इसके बाद आबा साहेब ने सोचा कि यह सब गोपालानंद स्वामी की बात ना मानने के चलते हुआ। आगे कहानी कहती है कि डूबते समय आबासाहेब ने स्वामीनारायण-स्वामीनारायण का जाप करना शुरू कर दिया।
बक़ौल ऑपइंडिया, पुस्तक में लिखा है कि गोपालानंद स्वामी ने आबासाहेब को दर्शन देकर एक लकड़ी का टुकड़ा हाथ में लेने को कहा था, जिसके कारण आबासाहेब उस टुकड़े को हाथ में लेकर समुद्र पार कर गए थे।
 
पुस्तक में गोपालानंद आबासाहेब से कहते हैं, आपके परिवार के सदस्य आपके पिछले जन्म के दुश्मन हैं, इसलिए उन्होंने आपको गुमराह किया, लेकिन क्योंकि आप हमारे भक्त हैं, इसलिए हमने आपकी रक्षा की।
 
इस कथा में द्वारका जाने की इच्छा रखने वालों को कुसंगीबताया गया है! इसके अलावा, यह दावा करना कि द्वारका में कोई भगवान नहीं है, एक तरह से दूसरे धर्म का अपमान ही है। इसके बाद अपने धर्मगुरु को असल भगवान भी बताया गया है!
 
इसी किताब की आगे की पड़ताल करने पर ऑपइंडिया ने पाया कि कहानी नंबर 25 में भी एक व्यक्ति का ज़िक्र है, जिसका नाम नारुपंत नाना है। इस कथा में हिंदू देवी चामुंडा माताजी के विषय में अपमानजनक बातें की गई हैं।
इस कहानी के अनुसार यह भक्त नारूपंत एक बार गोपालानंद के पास गए, इस दौरान नारूपंत के माथे पर तिलक देखकर गोपालानंद ने मुस्कुराते हुए उनसे पूछा, आप किस भगवान के उपासक हैं?” जवाब में उन्होंने कहा कि वे नारूपंत देवी के उपासक हैं और उनकी कुलदेवी माँ चामुंडा हैं।
 
बक़ौल ऑपइंडिया, इस कहानी में इसके बाद गोपालानंद कहते हैं, आप भगवान की पूजा करने की जगह एक छोटीदेवी की पूजा क्यों करते हैं?” इसी कहानी में पेज नंबर 45 पर गोपालानंद कहते हैं, देवी-देवताओं की पूजा करने से अंतत: घोर नरक की प्राप्ति होती है, लेकिन कल्याण नहीं होता।
 
इसके बाद स्वामी गोपालानंद इस भक्त को कहते हैं, यदि आप इस जन्म का अर्थ प्राप्त करना चाहते हैं, तो आप देवी-देवताओं की पूजा छोड़कर हमारे गुरु श्री स्वामीनारायण भगवान की पूजा करें। वह सर्वेश्वर, सभी अवतारों के अवतार, सभी कारणों के कारण, एकमात्र ईश्वर हैं। इससे आपको निश्चित रूप से अटूट सुख की प्राप्ति होगी।
 
कहानी में पेज नंबर 46 पर कहा गया है कि माता चामुंडा ने स्वप्न में नरूपंत को दर्शन देकर कहा, अरे नरूपंत, देखो, हनुमानजी और गणपति दोनों ही स्वामीनारायण का नाम जप रहे हैं, हमारे मित्र माता चामुंडा के सामने कह रहे हैं कि नरूपंत सत्संगी हो गए हैं, इसलिए अब तुम्हें यहाँ से चले जाना चाहिए।
आगे कहा गया है, वास्तव में स्वामीनारायण ही एकमात्र भगवान हैं, अब तुम्हें (नरूपंत) उन्हीं की पूजा करनी चाहिए। हम भी अब से वहीं जाएँगे। इस पूरी वार्ता का निष्कर्ष यह है कि स्वामीनारायण को ही भगवान बताया गया है और बाकी हिंदू भगवानों को उनका उपासक बताया गया है!
 
इसके अलावा इसी पुस्तक में पेज संख्या 103 पर एक विवादित लेख भी है। इसमें कहा गया है, गोपालानंद के सामने गदा पकड़े हनुमानजी काँप रहे हैं। इसके अलावा पेज नंबर 44 पर रणछोड़रायजी का भी अपमान किया गया है। इसके अलावा पेज नंबर 49 पर भगवान शंकर को भी स्वामीनारायण और गोपालानंद की पूजा करते हुए दिखाया गया है।
 
साहित्यिक विध्वंस के दूसरे मामले
  
घनश्याम पाँडेय का जन्म ईश्वर के रूप में हुआ और उनके जन्म के समय असुर उन्हें मारने आए
शंकराचार्य स्वामी यज्ञपुरुषदास को मिलने आणंद आए, संदेश भेजे लेकिन स्वामी उनसे नहीं मिले
खोडियार माताजी को स्वामीनारायण की सत्संगी बनाया
नहाते बच्चों को इंद्र पद दिया, घृणा द्दष्टि वाले साधु को इंद्र पद दिया, ग़रीब लड़के को इंद्र पद दिया
परशुराम को स्वामी के भक्त के रूप में चित्रित किया
परशुराम ने स्वामीनारायण साधुओं के पेर पकड़ कर चरण वंदना की
 
स्वामीनारायण संप्रदाय के योजनाबद्ध धार्मिक अतिक्रमणों में अनेक ऐसे मामले सामने आ रहे हैं। सोशल मीडिया के ऊपर लोग ढूँढ ढूँढ कर स्वामीनारायण संप्रदाय द्वारा लिखित रूप से हिंदू संप्रदाय पर किए गए अतिक्रमण व विध्वंस को पेश कर रहे हैं। इनमें से कुछ निम्न प्रकार हैं:
एक ऐसा मामला है यूपी के घनश्याम पाँडेय को ईश्वर के रूप में लिखित रूप से पेश करने का। इस मामले में संप्रदाय ने इतना ग़ज़ब दावा किया है कि इनके इस दावे के सामने नरेंद्र मोदी के जुमले भी बौने पड़ जाते हैं। सोशल मीडिया में दिखाई दे रहा यह पेज किस पुस्तक का है यह पता नहीं चल पाया है। इसमें लिखा है, बालक घनश्याम का जन्म हुआ और असुर उत्तेजित हो गए! असुर कालीदत्त ने कृत्या को बालप्रभु को मारने के लिए भेजा। कृत्या भगवान को उठाकर दौड़ने लगी।
 
बताइए, घनश्याम पाँडेय का जन्म 200-300 साल पहले हुआ था, और तब स्वामीनारायण संप्रदाय के लिखित दावे के अनुसार असुर, यानी राक्षस, हुआ करते थे! मुग़लों और अंग्रेज़ों के ज़माने में राक्षस थे और भारत के किसी भी इतिहासकार या संशोधक को पता नहीं है!
एक और कारनामा है। इसमें स्वामीश्री यज्ञपुरुषदासजी: 1’, यह पुस्तक का नाम है या पुस्तक के संस्करण का, यह हमें ज्ञात नहीं है, के उपशीर्षक हम और वडताल एक हैं में पेज नंबर 304 में लिखा है,
 
उसी काल में जगद्गुरु शंकराचार्य माधवतीर्थ आनंद आए थे। स्वामीश्री वडताल से बाहर गए हैं - यह उन्हें पता चला, इसलिए उनके शिष्य मणिभाई से कहा, यज्ञपुरुषदास को संदेश भेजिएगा कि मुझे मिले।
 
यह संदेश स्वामीश्री को प्राप्त हुआ लेकिन स्वामीश्री ने कोई उत्तर नहीं दिया। क़रीब तीन-चार उन्होंने संदेश भेजा, लेकिन स्वामीश्री ने उन्हें मिले ही नहीं। स्वामीश्री शंकराचार्य का उद्देश्य समझ चुके थे कि अब वडताल से अलग हो गए हैं, तो उसे अपने साथ मिलाना है और वडताल वाले को शास्त्रार्थ में परास्त करना है।
 
अंत में स्वामीश्री ने उनके पास संदेश भेजा, कौरवों के ख़िलाफ़ युद्ध की सोच रहे राजाओं ने पांडवों की राय जानने के लिए साधु के वेश में एक राजा को पांडवों के पास जंगल में भेजा। तब युधिष्ठिर ने कहा कि कौरवों के विरुद्ध युद्ध में हम और कौरव एक हैं। इसलिए हम 105 हैं। उसी प्रकार हम और वडताल आपके सामने एक हैं।
 
माधवतीर्थ को ऐसे संदेश की आशा नहीं थी। हालाँकि, उनके मन में स्वामीश्री के सिद्धांत के प्रति बहुत सम्मान हुआ और उन्होंने कहना शुरू कर दिया, शास्त्री यज्ञपुरुषदास की पवित्रता और सदाचार का पूरे संप्रदाय में कोई मुक़ाबला नहीं है।
इनके एक लेख में हिंदुओं की एक आराध्य देवी माँ खोडियार को लेकर आपत्तिजनक दावा मिल जाता है। इसमें माँ खोडियार को सत्संगी, यानी स्वामीनारायण संप्रदाय की अनुयायी, बताया गया है! यह किस पुस्तक का हिस्सा है यह पता नहीं चल पाया है। लेख में कुछ यूँ है,
 
यह माताजी जोबन पगी की कुल देवी हैं। जब जोबन पगी लूटने जाया करते थे तब पहले यहाँ प्रार्थना करते थे कि यदि मेरा काम सफलतापूर्वक संपन्न हो जाएगा तो मैं यहीं पर बलि दूँगा। इस मंदिर में पशुओं की बलि दी जाती थी। लेकिन जोबन पगी सत्संगी हुए उसके बाद वे इस मंदिर पर स्वामीनारायण भगवान को ले गए और माताजी को भी सत्संगी करने के बाद यहाँ बलि देना बंद कर दिया गया।
 
इंद्र पद प्रदान करने का एकाधिकार तो इनका ही है! स्वामीनारायण संप्रदाय की किताबों में लिखा गया है कि किसी को भी इनके काल्पनिक भगवान इंद्र पद बाँट दिया करते थे!
 
वडताल में प्रसादी के जल में नहाते बच्चे को इंद्र पद दिया
लीला चरित्र, श्री स्वामीनारायण मंदिर, कुंडल धाम तथा कारेलीबाग वडोदरा
एक बार श्रीजी महाराज वडताल (हरिमंडप की) की खुली छत पर नहा रहे थे, और मूलजी ब्रह्मचारी उन्हें नहला रहे थे, और पानी की धार नाले से नीचे जा रही थी। उस धारा में पाँच-सात बच्चे नहा रहे थे और शोर हो रहा था।
 
इसलिए ब्रह्मचारी ने नीचे देखा, तब उन बच्चों को नहाते हुए देख महाराज से कहा, यह बच्चे पानी की धारा में नहा रहे हैं और आनंद कर रहे हैं।
 
तब महाराज बोले, ब्रह्मचारी, इन तमाम बच्चों को इंद्र का पद मिलेगा। आज इन बच्चों को ज्ञान नहीं है, लेकिन इनकी इतनी विराट तक़दीर बनी है। इस प्रकार महाराज बोले और बात ख़त्म हुई। ।।129।।
 
जेतलपुर में हरिमूर्ति को घृणा की दृष्टि से देखने वाले खाखी को इंद्र पद दिया
लीला चरित्र, श्री स्वामीनारायण मंदिर, कुंडल धाम तथा कारेलीबाग वडोदरा
एक बार श्रीजी महाराज जेतलपुर में एक वटवृक्ष के नीचे सभा कर बैठे थे। वहाँ एक खाखी सड़क पर जा रहा था।
 
वह महाराज को देखकर अत्यंत घृणा करते हुए एक ही स्थिति में बहुत देर तक सड़क पर खड़ा रहा। फिर वह चला, पीछे मुड़कर महाराज की ओर देखा, वह तब तक इस प्रकार चलता रहा जब तक महाराज की मूर्ति दिखती रही, तब तक उसने अपनी आँखें नहीं चुराईं, वह एक नज़र देखता रहा। फिर जब बीच में कुछ आया और महाराज नहीं दिखे, उसके बाद वह चला गया।
 
तब महाराज ने कहा, उस खाखी को मेरे ऊपर अत्यंत घृणा हुई इसलिए मेरी मूर्ति उसके अंतर में बस चुकी है। इसलिए यह खाखी मरने के बाद इंद्र होगा। इस प्रकार वह बोले और बात ख़त्म हुई। ।।128।।
 
ग़रीब लड़के को श्रीहरि के ऊपर प्रीति हुई इसलिए उसे इंद्र पद दिया
लीला चरित्र, श्री स्वामीनारायण मंदिर, कुंडल धाम तथा कारेलीबाग वडोदरा
एक बार श्रीजी महाराज गढ़ड़ा के मध्य जीवा खाचर के दरबार में बैठे थे। वहाँ भिक्षुक लोगों के दो लड़के आए और महाराज से बोले, बापजी, हम भूख से मर रहे हैं। कृपया हमें कुछ खाने को दीजिए। इस सूखे साल में गाँव में कुछ भी नहीं मिला है।
 
तब महाराज ने बाजरे की चार मोटी रोटियाँ मंगवाईं और लड़के को दीं।
 
तभी लड़का बोला, ये चार रोटियाँ बहुत बड़ी हैं, हमारे पास दो लोगों के लिए दो रोटियाँ होगी, और हम दो रोटियों को बाद में खाएँगे। आपने हमें तृप्त कर दिया!
 
इतना कहकर महाराज की तरफ़ बहुत देर तक देखते रहे और फिर गए।
 
तब महाराज ने कहा, इन लड़कों को चार रोटियाँ दीं। इसलिए उन्हें मुझ पर बहुत प्रीति हुई है। इसलिए वे दो लड़के इंद्र बनेंगे।" श्रीजी महाराज ने कहा। बात ख़त्म हुई। ।।143।।
 
परशुराम स्वामीनारायण साधुओं को मिले और महाराज के लिए हार दिया, कहा- (मेरी तरफ़ से) महाराज के चरण स्पर्श कर उन्हें प्रणाम कीजिएगा
लीला चरित्र की बातें, वार्ता 140, पेज नंबर 185
एक बार महाराज के पाँच साधु विंध्याचल की झाड़ियों में खो गए। कहीं से कोई रास्ता मिलता नहीं था और वे परेशान हो गए। तभी एक बरगद के पेड़ के नीचे एक आदमी को देखा।
 
वह आदमी बैठे बैठे पाँच हाथ जितना ऊँचा, और बड़ी व मोटी भुजाएँ, बड़े व मोटे पैर, बड़ी आँखें, मोटा शरीर, फीकी सांवली त्वचा का रंग, ऐसे आदमी को देख साधु भयभीत हुए, यह कौन होगा?”
 
तब उस आदमी ने साधुओं को बुलाया, आप यहाँ आएँ। भयभीत न हो।
 
फिर साधु उनके पास गए, तब उन्होंने कहा, आप स्वामीनारायण के साधु हैं यह मैं जानता हूँ। और महाराज गढ़ड़ा में विराजमान हैं, आप मेरा यह हार उन्हें पहनाकर उनके चरण स्पर्श कर उन्हें नमस्कार कीजिएगा।
 
तब साधु बोले, महाराज के पास जाकर आपका नाम हम क्या कहेंगे?”
 
तब उस आदमी ने कहा, मेरे नाम को वे जानते हैं।
 
इतना बोलकर उस आदमी ने साधुओं को सही रास्ते की जानकारी दी और साधुओं के पैर पकड़ कर उनकी चरण वंदना की और चले गए।
 
फिर साधुओं ने गढ़ड़ा पहुँचकर सारी बात बताई और महाराज को हार अर्पण कर पूछा, हे महाराज! वह कौन था?”
 
तब महाराज ने कहा, वह परशुराम थे।
 
उसके बाद वह हार पास में बैठे हुए मूलजी शेठ को दिया। यह बात पूरी हुई।
प्रलय एन सेइलर नामक एक फ़ेसबुक यूज़र 6 अप्रैल 2025 के दिन लिखा है, कालूपुर मूल गद्दी की वेबसाइट से सभी किताबें गायब हो चुकी हैं। BAPS की जितनी भी किताब, जिनके कुछेक पाठ को मैंने इंगित किया हैं, वह वेबसाइट से गायब हो गई हैं, उनके मंदिरों की किताबों की दुकान से भी गायब हो गई हैं। हमारे लोगों ने शाहीबाग BAPS मंदिर जाकर उन सभी किताबों को माँगा तो जवाब मिला, वो किताबें अब बंद हैं। वैसे वेबसाइट में सभी किताबों की तस्वीरें सूची में हैं, ताकि उचित समय पर वापस उपलब्ध कराया जा सके।
 
प्रलय आगे लिखते हैं, बोलिए, ये कैसे भगवान हैं जिसका चरित्र लेखन समय समय पर बंद करना पड़ता है! ये कैसा सहजानंद चरित्र, नीलकंठ चरित्र और सत्संग जीवन, जिसे गायब करना पड़े? ग़ज़ब ईश्वर मिले हैं, कैसे भगवान मिले हैं, आपको कैसा भगवान मिला! आप कल्पना तो करिए! कैसा भगवान मिला! उनकी कहीं हुई बातें बोलते हैं तो माफ़ी माँगनी पड़ती है और थूक कर चाटना पड़ता है। जिनके जीवन चरित्रों को पीछे खींच कर चालाकी करनी पड़ती है।
 
आप मुग़ल शासकों के नाम से बनी सड़कें, चौक चौराहों या शहरों को हिंदू संस्कृति के अनुकूल नाम देकर छाती फूलाते रह गए, उधर इन्होंने आपके तमाम आराध्य देवों, देवियों को अपने काल्पनिक भगवान का दास बता दिया! आप नाम बदलने में लगे रहे, इन्होंने आपका धार्मिक इतिहास ही बदल दिया!
 
ऊपर स्वामीनाराण संप्रदाय की जिन विवादित किताबों का ज़िक्र है, स्पष्ट कर देते हैं कि हमारा मानना है कि यह इतना ही नहीं होगा, बल्कि पूरी तरह से मुमकिन है कि ऐसे अनेक प्रसंग उनकी दूसरी किताबों में या लेखों में ज़रूर होंगे, जिसका पता हमें नहीं होगा।
किताबों के ज़रिए अतिक्रमण और विध्वंस की प्रवृत्ति करने के बाद ये लोग धार्मिक समागमों में वाणी विलास के ज़रिए उसका प्रचार और प्रसार करते हैं! वे धार्मिक सभाओं में, धार्मिक समागमों में, अपने काल्पनिक भगवान को हिंदू संप्रदाय के तीन प्रमुख आराध्य देव ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के भी नेता बताते हैं! कभी बताते हैं कि ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, राम, कृष्ण, हनुमानजी, पार्वतीजी, सरस्वतीजी, जैसे तमाम हिंदू देव और देवियाँ इनके काल्पनिक भगवान के दर्शन और निर्देश से चलते हैं!
 
ये लोग हिंदू धर्म के तमाम आराध्य देव, तमाम आराध्य देवियाँ, तमाम की मज़ाक उड़ाते हैं, तमाम को अपने काल्पनिक भगवान से नीचे का स्तर देते हैं, दास बताते हैं। डाकोर के राजा रणछोड़ या द्वारिका के श्री कृष्ण, वे तमाम पर विवादित और आपत्तिजनक दावा कर चुके हैं।
 
वे तो यहाँ तक दावा करते हैं कि कष्टभंजन देव हनुमानजी के अंदर गोपालानंद स्वामी ने तमाम शक्तियाँ डाली हैं! ये स्वामीनारायण प्रतिनिधि धार्मिक वाणी विलास के ज़रिए कहते हैं कि हिंदू संप्रदाय के जितने भी भगवान हैं इनके माता-पिता उनके स्वामीनारायण है और वो ही सर्वोपरी है! वे हिंदुओं के पुराणों और ग्रंथों में यह सब लिखा हुआ है ऐसा भी दावा करते हैं!
 
दूसरे तमाम आश्रमों, गुरुओं, महंतों, संतों, प्रतिनिधियों, सबको वे अज्ञानी बताने से पीछे नहीं हटते! वे दूसरे संप्रदाय के सर्वोच्च प्रतिनिधि को 'असूर' तक कह चुके हैं! वे सरेआम हिंदू संप्रदाय के साधु-संतों को 'अज्ञानी' कहते हैं, 'ऐरा गैरा' कहते हैं!
इन सब विध्वंसों और अतिक्रमणों के बाद हाल ही में राजकोट शहर के रैया रोड पर स्थित एक स्वामीनारायण मंदिर में एक बैनर लगाया गया था, जिसमें गोपालानंद को श्रीकृष्ण का, मुक्तानंद को नारदजी का तथा मूलजी ब्रह्मचारी को हनुमानजी का अवतार बताया गया! श्री शिव को उनके काल्पनिक भगवान का शिष्य बताया गया!
 
स्वामीनारायण संप्रदाय के इस अतिक्रमण वाले वर्तमान को देखकर इतिहासकारों के उन तथ्यात्मक दावों को ज़्यादा वज़न मिलता है कि जिनके पास बेशुमार पैसे की ताक़त थी और जिनके पास असीमित अनुयायी थे, तथा इन दोनों वजहों से जिनके पास सत्ता की छत्रछाया थी, वेसी तमाम ताक़तों ने युगों से अपने अपने हिसाब से तर्कों, तथ्यों, सत्य, असत्य, कल्पनाएँ, चमत्कार, अतिक्रमण, आदी तत्वों को मिलाकर अपनी अपनी कहानियाँ बनाई और उसे देश के इतिहास के रूप में स्थापित किया! जिनके पास बेशुमार पैसा, असीमित अनुयायी और सत्ता का मेल, इन तीनों की अवधि लंबे समय तक रही, उनके लिए यह प्रक्रिया सफल रही, जिनके लिए ये मुमकिन नहीं हो पाया, उनके लिए असफल रही।
 
उन निष्पक्ष इतिहासकारों ने तमाम तर्कों, तथ्यों व साक्ष्यों के साथ लिखित रूप से अनेक जगहों पर कहा है कि लगभग तमाम शासकों के काल में यही हुआ। अलग अलग शासकों के काल में अलग अलग संस्कृति व नियमों वाले संप्रदाय फलते-फूलते रहे या लुप्त होते रहे। लगभग तमाम ने अपनी अपनी कहानियाँ लिखवाई, जिसमें सच और झूठ, अति और अल्प, सब कुछ था।
 
अतिक्रमण और विध्वंस। यह तत्व इतिहास का एक कड़वा सच है और यह तमाम समय तथा तमाम चीज़ों में होता रहा है। राजशाही के दौरान जीत प्राप्त करने के बाद उस प्रदेश के राजकीय और धार्मिक प्रतीकों और मान्यताओं का विध्वंस, भौगोलिक सीमाओं में अतिक्रमण से लेकर पुस्तकों व मान्यताओं का अतिक्रमण या विध्वंस। इसी सनक में सबने एकदूसरे के इतने निर्माणों व प्रतीकों का विध्वंस किया कि जिनकी गनती आक्रांताओं के विध्वंशों से भी ज़्यादा है!
 
अतिक्रमण और विध्वंस मूर्त प्रतीकों पर हो उससे कहीं ज़्यादा ख़तरनाक प्रवृत्ति है अतिक्रमण अमूर्त प्रतीकों पर हो। लिखित रूप से किताबों या ग्रंथों की शक्ल में किए जाने वाले अतिक्रमण या विध्वंस की घातकता का इतिहास में शायद ही कोई सानी हो।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)