Ticker

6/recent/ticker-posts

Historical Disputes: स्वतंत्रता से पहले और बाद में स्वामीनारायण संप्रदाय से संबंधित ऐसी दो घटना, जो बहुत कुछ समझा जाती हैं

 
यूँ तो अब माहौल कुछ ऐसा बन रहा है, जैसे स्वामीनारायण संप्रदाय हिंदू संप्रदाय के ऊपर योजनाबद्ध रूप से अमूर्त अतिक्रमण कर रहा हो। मूर्त अतिक्रमण-विध्वंस से ज़्यादा धातक और प्रभावी होता है अमूर्त अतिक्रमण-विध्वंस। अमूर्त अतिक्रमण-विध्वंस साहित्य की शक्ल में किया जाता है। जैसे कि किताबें, लेख, ग्रंथ आदि।
 
किसी भी अच्छे, बुरे, सच्चे, झूठे, विचारों व मान्यताओं को साहित्य के रूप में पेश करने से वह किसी दस्तावेज़ की शक्ल ले लेता है। उपरांत आपके पास अथाह पैसा हो, विशाल समर्थक गण हो तो सत्ता से नज़दीकी अपने आप हो जाती है। और इन तीनों का चक्र आपके उस साहित्य को मज़बूती के साथ स्थापित करते जाता है।
 
यूँ तो स्वामीनारायण संप्रदाय अरसे से, यूँ कहे कि अपने बाल्यकाल से ही, विवादों के आसपास ख़ुद को पाता रहा है। किंतु जैसे जैसे इन तीनों का चक्र काल (अथाह पैसा, विशाल समर्थक गण, सत्ता से नज़दीकी) लंबा चला, तमाम विवादों के बाद भी ये लोग तमाम चक्रव्यूहों से बाहर निकलते रहे।
 
गुजरात के जनमानस में बचपन से एक फ़िक़रा देखा है। गुजरात में लोग दशकों से धड़ल्ले से बोलते हैं कि साधु होना है तो स्वामीनारायण के हो लीजिए, वर्ना न हो!
 
यूँ तो नारायण यानी स्वयं श्री भगवान विष्णु। हिंदू संप्रदाय के पुराणों और घार्मिक ग्रंथों के मुताबिक़ भगवान विष्णु स्वयं, और उनके जो भी अवतार हैं, श्री राम का अवतार हो या श्री कृष्ण का, वे अपने आराध्य देव स्वयं शिव को बताते हैं। इसे लेकर एक बार इस संप्रदाय के नाम को ही विवादित बताते हुए कहा गया था कि स्वामीनारायण - स्वामी ख़ुद ही स्वयं नारायण हो नहीं सकता, और स्वयं नारायण का शिव के सिवा दूसरा कोई स्वामी है नहीं।
हिंदू संप्रदाय के लगभग तमाम आराध्य देवों, देवियाँ, अवतारों, तमाम के बारे में स्वामीनारायण संप्रदाय की आपत्तिजनक और विवादित किताबें, साहित्य, यह अब जगज़ाहिर मामला है। उपरांत उस साहित्यिक कल्पनाओं को वे अपने किसी धार्मिक समागमों या सभाओं में अविरत बोलते रहते हैं। सभाओं से वे उस काल्पनिक साहित्य से ज़्यादा विवादित और आपत्तिजनक वाणी विलास कर जाते हैं।
 
आज का दौर तकनीक का है, इसलिए स्वामीनारायण के साधुओं- संतों- स्वामियों के वाणी विलास और उनके द्वारा हिंदू संप्रदाय पर लिखी गई आपत्तिजनक बातें, यह सार्वजनिक स्तर पर आता है। किंतु यह बहुत हद तक मुमकिन है कि जब सूचना क्रांति का दौर नहीं था तब से यह सब चल रहा हो।
 
यूँ तो, "मुमकिन है कि जब सूचना क्रांति का दौर नहीं था तब से यह सब चल रहा हो", ऐसा नहीं बल्कि, "यह सब स्वतंत्रता प्राप्ति से बहुत पहले से ही अपने बाल्यकाल से ही स्वामीनारायण संप्रदाय ऐसा कर रहा था", यही लिखना ज़्यादा सही लगता है। क्योंकि इससे संबंधित ऐसी दो घटनाएँ भारत में मौजूद हैं, जो सार्वजनिक हैं।

 
इनमें से एक घटना स्वतंत्रता संग्राम के महान नेता, भारत के नक़्शे के सूत्रधार, निर्माता, लौहपुरुष, भारत के प्रथम गृह मंत्री, प्रथम उप प्रधानमंत्री, सरदार पटेल से संबंधित है। और इस घटना का विवरण बाक़ायदा सरदार पटेल से संबंधित ऐतिहासिक और प्रमाणित पुस्तक में दर्ज़ है। स्वामीनारायण वाले हिंदू संप्रदाय के तमाम आराध्य देवों के ऊपर कुछ भी कह-लिख सकते हैं, किंतु उनमें यह ज़िगरा नहीं है कि सरदार पटेल से संबंधित इस विवरण और विवरण के फलितार्थ पर सवाल भी उठा सकें।
 
दूसरी घटना स्वतंत्रता प्राप्ति के बहुत बाद की है। और इस घटना से उस व्यक्ति का नाम जुड़ा हुआ है, जिन्हें गुजरात के अति प्रतिष्ठित इतिहासकार तथा भारत के दिग्गज संशोधकों की सूची में शामिल होने का सम्मान प्राप्त है। स्व. मकरंद दवे, जिन्होंने बाक़ायदा आधारों के साथ लेख लिख स्वामीनारायण संप्रदाय की हरकतों को प्रसिद्ध किया था। स्वामीनारायण वाले मामले को अदालत में तो ले गए, किंतु मकरंद दवे के निधन तक मामले की सुनवाई कभी नहीं हुई!
मकरंद मेहता के उस लेख मुताबिक़ सहजानंद स्वामी ने अपने कथित चमत्कारों का
जमकर महिमामंडन हो इसके लिए अपने शिष्यों को निर्देश दिए थे
 
प्रकाश शाह के अनुसार मकरंद मेहता ने जो लिखा था
उसके लिए उनके पास मज़बूत और पुख़्ता आधार थे
 
प्रकाश शाह के आरोप के मुताबिक़ स्वामीनारायण संप्रदाय और अंग्रेज़ों के बीच
समझौता था और उस समझौते के मुताबिक़ वे एकदूसरे की मदद किया करते थे
 
प्रकाश शाह रेफरेंस के साथ कहते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महात्मा गाँधी
और सरदार पटेल,  दोनों का मानना था कि स्वामीनारायण संप्रदाय के लोग
धर्म के नाम पर पागलपन को बढ़ावा दे रहे हैं
 
जिस यज्ञपुरुषदास स्वामी को दैवीय अवतार बताया जाता है
उन पर अदालत ने वारंट निकाला था
 
ख़ुद को संसार का उद्धारक बताने वाले स्वामीजी
अपने लिए कोई दूसरा उद्धारक (वकील) ढूंढने लगे थे
 
सरदार पटेल ने कहा था - कोई करम ऐसे करेगा तो वारंट तो निकलेगा ही
 
सरदार पटेल ने अपने पिता को कहा - जो प्रपंच करें, एकदूसरे से झगड़ा करें,
अदालत चले जाएँ, ऐसे साधुओं से छुटकारा पा लेना चाहिए
 
सरदार पटेल - जो अपना भला नहीं कर सकते
वे हमें इस जन्म का सागर कैसे पार कराएँगे?
 
स्वतंत्रता से पहले और स्वतंत्रता के बाद स्वामीनारायण संप्रदाय से संबंधित यह दो घटनाएँ, बहुत कुछ समझा जाती हैं। सरदार पटेल का तंज और मकरंद मेहता का वो लेख, दोनों घटनाएँ अनेक द्दष्टिकोण पर प्रकाश डालती हैं। दोनों मामले अनेक सत्य उजागर कर जाते हैं। श्रृंगार के साथ कुछ भी आपके सामने पेश किया गया हो, और जैसे बरसात या धूप श्रृंगार को उतार देती है, दोनों मामले उसी तरह के हैं। मैट्रिक पास आदमी तक इन दोनों मामलों के फलितार्थ समझ सकता है।
 
मकरंद मेहता का वो लेख और प्रकाश शाह का विश्लेषण, आधुनिक भारतीय इतिहास के अभ्यास का महत्वपूर्ण मोड़
गुजरात के प्रसिद्ध इतिहासकार मकरंद मेहता ने दिसंबर 1986 में स्वामीनारायण संप्रदाय को लेकर एक लेख लिखा था। यह असल में लेख नहीं बल्कि एक 'शोध पत्र' था। इसके चलते उन पर मामला दर्ज़ हुआ था, जिसकी सुनवाई कभी नहीं हो पायी!
 
बता दें कि मकरंद मेहता का हाल ही में, 1 सितंबर 2024 के दिन निधन हुआ। वे प्रतिष्ठित इतिहासकार थे। गुजरात से संबंधित राजकीय, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, आदि ऐतिहासिक घटनाओं को जानने-समझने के लिए स्व. मकरंद दवे द्वारा लिखित लेख, शोध पत्र, पुस्तकें, आदि का सहारा लिया जाता है।

 
मकरंद मेहता ने जो लेख लिखा था, जिसके चलते इस घटना का निर्माण हुआ, उसका शीर्षक था- "सांप्रदायिक साहित्य और सामाजिक चेतना - स्वामीनारायण संप्रदाय का एक अध्ययन 1800-1840" (हिंदी अनुवाद)। बता दें कि इस घटना के समय मेहता राज्य अभिलेखागार के सदस्य थे।
 
मकरंद मेहता के उस लेख के मुताबिक़ सहजानंद स्वामी ने अपने शिष्यों से कहा था कि वे लोग उनकी अधिक से अधिक प्रशंसा करें, ताकि हर जगह उनकी महिमा स्थापित हो सके। बक़ौल मकरंद मेहता, स्वामी ने अपने कथित चमत्कारों का जमकर महिमामंडन हो इसके लिए अपने शिष्यों को निर्देश दिए थे।
 
स्क्रॉल.इन के मुताबिक़, दरअसल मकरंद मेहता गुजराती कवि दलपतराम डाह्याभाई पर अपने काम के सिलसिले में शोध कर रहे थे। इसी काम के संदर्भ में मेहता को स्वामीनारायण संप्रदाय के उन महत्वपूर्ण दशकों का अध्ययन करना पड़ा। उन्होंने पहले स्वामीनारायण संप्रदाय पर अंग्रेज़ी में कुछ निबंध प्रकाशित किए। लेकिन जब उनके 'उद्यमशीलता सिद्धांत' के संदर्भ में एक लेख गुजराती पत्रिका में छपा, तो यह न केवल मेहता के लिए, बल्कि आधुनिक भारतीय इतिहास के अभ्यास के लिए भी एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ।
मकरंद मेहता ने 'व्यापारी,राफ़ और दलाल के रूप में वैष्णव बनिया' लेख में लिखा था, "उन्होंने इस सिद्धांत से शुरुआत की थी कि एक नए धार्मिक संप्रदाय के संस्थापकों में महान संगठनात्मक प्रतिभा होती है जो व्यवसाय उद्यमियों के समान होती है। वे अवसरों को समझते हैं, उनका दोहन करते हैं, और अवसरों का लाभ उठाने के लिए एक संगठनात्मक नेटवर्क बनाते हैं।"
 
उन दिनों गुजरात में कांग्रेस शासित सरकार थी। मुख्यमंत्री थे अमरसिंह चौधरी। उन दिनों में भी स्वामीनारायण संप्रदाय गुजरात का सबसे शक्तिशाली (अथाह पैसा, विशाल अनुयायी गण, सत्ता से नज़दीकी) हिंदू संप्रदाय था। इन्होंने मेहता के 'शोध पत्र' को 'कचरा' बताया और गुजरात सरकार से मामले को अदालत में ले जाने की अनुमति माँगी।

 
आठ महीने तक चुप रहने के बाद तत्कालीन प्रदेश सरकार ने इतिहासकार और संशोधक मकरंद मेहता, पत्रिका के संपादक प्रोफ़ेसर घनश्याम शाह और शिक्षाविद् अच्युत याग्निक, के ख़िलाफ़ कार्रवाई शुरू करने की अनुमति देने का फ़ैसला लिया! अथाह पैसा, विशाल अनुयायी गण, राजनीति और वोटबैंक की कथित साँठगाँठ उन दिनों कुछ लेखों में छपी। सरकारी अनुमति को बहुसंख्यकों और कट्टरपंथी धार्मिक वर्ग को ख़ुश करने के एक कदम के रूप में देखा गया।
 
मकरंद मेहता के ख़िलाफ़ धारा 295ए के तहत मामला दर्ज़ कराया गया, यानी जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण कार्य, जिसका उद्देश्य किसी वर्ग या धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करके उसकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना हो।
 
इस बारे में इंडिया टुडे ने ख़बर प्रकाशित की थी। ख़बर का शीर्षक था- स्वामीनारायण संप्रदाय पर शोध पत्र से विवाद शुरू। इंडिया टुडे ने लिखा था, "इस लेख में कहा गया था कि स्वामीनारायण - जिन्हें उनके अनुयायी भगवान कृष्ण का अवतार मानते हैं, केवल एक समाज सुधारक थे, जिन्होंने अपने अनुयायियों के साथ मिलकर स्वयं को भगवान के रूप में पेश करने की साज़िश रची थी।"
इंडिया टुडे के लिए उदय माहुरकर ने अपनी इस रिपोर्ट में लिखा था, "मकरंद मेहता ने यह लेख शोध करके लिखा था, उन्होंने संप्रदाय की उत्पत्ति और गतिविधियों पर गहनता से अध्ययन किया और उनके निष्कर्ष सूरत स्थित सामाजिक अध्ययन केंद्र द्वारा प्रकाशित 'अर्थात' में प्रकाशित हुए।"
 
31 मई 1988 के दिन अपनी रिपोर्ट में इंडिया टुडे (उदय माहुरकर) ने लिखा था, "मेरिटा का इरादा गहन शोध के आधार पर किंवदंती से सच्चाई को अलग करना था। उन्होंने कथित तौर पर स्वामीनारायण द्वारा अपने कुछ अनुयायियों को लिखे गए एक पत्र का हवाला दिया, जिसमें उनसे उन्हें भगवान के अवतार के रूप में चित्रित करने के लिए कहा गया था। प्रोफेसर ने फिर तर्क दिया कि संप्रदाय ने उन ग़रीबों के लिए कुछ नहीं किया जो इसके दायरे में शामिल हो गए थे।"

 
हालाँकि कुछ समय के पश्चात नवंबर 1988 में अपने धारवाड़ अधिवेशन में कांग्रेस ने इस घटनाक्रम की निंदा की। "बिना उचित जाँच के अभियोजन के लिए सरकार की मंजूरी एक अशुभ प्रवृत्ति को दर्शाती है, जिसमें सत्ता में बैठे लोग अपने संकीर्ण राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उन ताक़तों का शोषण करने के लिए तैयार रहते हैं, जिनका हमारे देश को पूर्व-आधुनिक युग में वापस ले जाने में निहित स्वार्थ है। सामान्य रूप से विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करने के अलावा, यह मंजूरी विशेष रूप से शैक्षणिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करती है। यह वैज्ञानिक शोध को कमज़ोर करने का प्रयास करता है और एक लंबे और निरंतर इतिहास वाले देश में कोई वास्तविक इतिहास नहीं रह सकता है।"
 
हालाँकि दो बार वारंट जारी किए गए, लेकिन मकरंद मेहता और उनके साथियों को गिरफ़्तार नहीं किया गया और मामले की सुनवाई कभी नहीं हुई! मेहता और उनके साथियों को जान-माल की हानि की धमकियाँ मिलती रही। भारतीय इतिहास के अभ्यासियों के लिए ऐसी धमकियाँ स्वाभाविक थी।
 
मकरंद मेहता का यह लेख सिर्फ़ लेख नहीं था बल्कि एक इतिहासकार और एक संशोधक का 'शोध पत्र' था। बहुत साधारण बात है कि एक इतिहासकार और एक संशोधक के 'शोध पत्र' में केवल इतना नहीं लिखा गया होगा। स्वाभाविक सी समझ है कि इतिहासकार या संशोधक ने अपने इस शोध पत्र में यह लिखते समय कई सारे साक्ष्यों, आधारों, तर्कों, तथ्यों को जगह दी होगी। उपरांत यही एकमात्र वाक्य नहीं होगा, बल्कि बहुत सारा अध्ययन और विश्लेषण शामिल रहा होगा।
नोट करें कि एक इतिहासकार, एक संशोधक, के द्वारा पुख़्ता आधार पर लिखे गए 'शोध पत्र' पर स्वामीनारायण संप्रदाय ने इतनी आपत्ति जताई थी, और धार्मिक भावना के अपमान का मामला दर्ज़ कराया था। लेकिन यही स्वामीनारायण संप्रदाय अपने गपशप, झूठ और द्वेषपूर्ण कल्पनाओं के द्वारा इसी धारा का उल्लंघन अनेकों बार करते हुए हिंदू संप्रदाय के धार्मिक विश्वासों को जानबूझकर, बाक़ायदा किताबों में लिखकर, एक बार नहीं किंतु सैकड़ों बार दुर्भावनापूर्ण कार्य कर चुका है!
 
किंतु पैसा, सत्ता और विशाल अनुयायी गण का चक्र इन्हें हर विवादों या अपराधों से मुक्त करा देता है। जहाँ पैसा होगा, चमक दमक होगी, आम लोग और राजनीतिक लोग, दोनों वहा चींटी की तरह खीँचे चले जाएँगे।
 
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक प्रकाश शाह के मुताबिक़ मकरंद मेहता ने जो लिखा था उसके लिए उनके पास मज़बूत और पुख़्ता आधार थे।
 
प्रकाश शाह के एक अतिगंभीर आरोप के मुताबिक़ स्वामीनारायण संप्रदाय और अंग्रेज़ों के बीच समझौता था और उस समझौते के मुताबिक़ वे एकदूसरे की मदद किया करते थे। यह बात 7 दिसंबर 2017 के दिन बीबीसी गुजराती के डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी छपी थी, जिसे बीबीसी गुजराती के संवाददाता रजनीश कुमार ने संपादित किया था।
 
प्रकाश शाह रेफरेंस के साथ कहते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महात्मा गाँधी और सरदार पटेल, दोनों का मानना था कि स्वामीनारायण संप्रदाय के लोग धर्म के नाम पर पागलपन को बढ़ावा दे रहे हैं।
 
सरदार पटेल का तंज़ - कोई करम ऐसे करेगा तो वारंट तो निकलेगा ही, अपने पिता से कहा था - ऐसे साधुओं से छुटकारा पा लीजिए
इतिहास में एक आधारभूत घटना का ज़िक्र मिलता है, जिसका सीधा संबंध भारत के लौहपुरुष सरदार पटेल से है। सरदार पटेल के पिता झवेरभाई स्वामीनारायण संप्रदाय में बहुत मानते थे। राजमोहन गाँधी की एक किताब में सरदार पटेल और स्वामीनारायण संप्रदाय को लेकर एक दिलचस्प वाक़ये को लिखा गया है।
 
सरदार वल्लभभाई पटेल भाग-1 नामक गुजराती किताब, जो नवजीवन प्रकाशन मंदिर अहमदाबाद की तरफ़ से प्रकाशित हुई है तथा नरहरी डी. परीख द्वारा लिखी गई है, उसमें 'मातापिता' संस्करण में भी यह घटना दर्ज़ है।
 

किताब में लिखा गया है कि उन दिनों झवेरभाई जिन्हें बहुत मानते थे उस यज्ञपुरुषदास स्वामी ने वड़ताल से अलग बोचासण में अक्षर पुरुषोत्तम नाम से एक अलग धारा को स्थापित कर दिया। इसके चलते दो अलग अलग धारा स्थापित हो गईं।
 
इसका परिणाम यह आया कि उन दिनों जमकर बवाल मचा। मामला क़ानून तक पहुँचा। यज्ञपुरुषदास स्वामी पर वारंट निकला। ख़ुद को संसार का उद्धारक बताने वाले स्वामीजी अपने लिए कोई दूसरा उद्धारक ढूंढने लगे!!!
 
बता दें कि यज्ञपुरुषदास स्वामी को ही इनके अनुयायी शास्त्रीजी महाराज के नाम से जानते हैं। और इन्हें ही अपने भाग्य का फ़ैसला कराने इधर से उधर दौड़ना पड़ा था!
झवेरभाई स्वामी की मदद करने के लिए निकल पड़े। वे पहुँचे अपने बैरिस्टर बेटे वल्लभभाई के पास। बोरसद ज़िले में वल्लभभाई का बहुत बड़ा नाम हो चुका था।
 
झवेरभाई ने बेटे से सीधे सीधे बात कह दी, "पूरे ज़िले में तेरा नाम चल रहा है और इधर महाराज पर वारंट निकल आए? यह ठीक है? तूँ हैं तो फिर पुलिस महाराज को गिरफ़्तार कैसे कर सकती हैं?"
 
स्वामीजी पर वारंट को लेकर पिता की बात सुनकर वल्लभभाई ने तंज़ कसा, "महाराज पर वारंट कैसा? वे तो पुरुषोत्तम भगवान का अवतार हैं! हम सभी को इस जीवन चक्र से छुड़ाने वाले भगवान! उन्हें भला कोई कैसे पकड़ सकता है?"
 
पिता झवेरभाई गंभीर थे। तंज़ को नज़रअंदाज़ कर बोले, "फ़िलहाल मज़ाक मत कर। मुझे पक्का पता है कि वड़ताल और बोचासण वालों के बीच मंदिर के कब्ज़े को लेकर कुछ हुआ है और इसीलिए महाराज पर वारंट निकला है। तुझे ये वारंट निरस्त कराना चाहिए। महाराज को गिरफ़्तार किया जाता है तो हमारी इज़्ज़त को धक्का पहुँचेगा।"
 
"हमारी इज़्ज़त को क्यों धक्का लगेगा? कोई करम ही ऐसे करेगा तो उसकी इज़्ज़त जाएगी, हमारी नहीं।" वल्लभभाई झिझक पड़े। वे आगे बोले, "वारंट निकला है तो वजह भी होगी।"
पिता मान नहीं रहे थे, वल्लभभाई की बात को अनदेखा किए जा रहे थे और अपना आग्रह किए जा रहे थे।
 
सरदार पटेल उन्हें आश्वासन देकर बात को ख़त्म करते हुए कहते हैं, "बड़े काका, आपको अब इन साधुओं से छुटकारा पा लेना चाहिए। प्रपंच करें, एकदूसरे से झगड़ा करें, अदालतों में चले जाएँ। जो अपना भला नहीं कर सकते वे हमें इस जन्म का सागर कैसे पार कराएँगे?"
 
अपने पिता के अति आग्रह के बाद जीवन चक्र से छुड़ाने वाले भगवान के भी भगवान सरदार पटेल बने! उन्होंने मामले में समझौता कराया और दोनों पक्षों के आरोपियों को रिहा कराया। जो लोग ख़ुद को ईश्वर बताते थे, उन्हें अपना भाग्य सरदार पटेल के ऊपर छोड़ना पड़ा था!!!

 
अहमदाबाद में सन 1920 में छात्रों के समक्ष सरदार पटेल ने बाबा बिज़नेस को लेकर जो बात कही थी उसे आज की आधुनिक पीढ़ी को समझनी चाहिए।
 
सरदार पटेल ने असहकार आंदोलन के समय सार्वजनिक रूप से छात्रों को कहा था, "इस देश के छप्पन लाख बाबा, जो भगवा पहनकर निकल पड़े हैं, सारे के सारे कोई मेहनत नहीं करते, कोई काम नहीं करते। फिर भी वे भूखे नहीं मरते। किसी ने सुना क्या कि कोई बाबा खाली पेट मर गया?"
 
सरदार पटेल का तंज़ और मकरंद मेहता का लेख, दोनों घटनाएँ अनेक द्दष्टिकोणों कों तथा अनेक बातों को समझाती हैं। उन अनेक में से एक बात यह भी समझ आती है कि शायद इसीलिए ही इस संप्रदाय का चरित्र इस प्रकार 'लचीला' है! कैसे कैसे प्रवचन, जिसे लेकर माफ़ी माँगनी पड़े! अपने प्रतिनिधियों को भगवान बनाने हेतु कैसे कैसे चरित्र लेखन, जिसे विवाद के बाद बंद करना पड़े!
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)