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RSS Ban Hat-Trick: सौ साल में तीन बार प्रतिबंधित क्यों हुआ था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ?

 
आरएसएस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। एक ऐसा संगठन, जिसका प्रभाव आज भारत की सत्ता और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में देखा जा सकता है। यह संगठन अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है। अपने जन्म से लेकर आज तक आरएसएस ने जितना भी सकारात्मक काम किया, शायद उतने ही, या इससे भी अधिक ऐतिहासिक विवाद यह संगठन अपनी शताब्दी की सफ़रगाथा में कमा चुका है।
 
निश्चित रूप से इस संगठन ने अनेक अच्छे काम किए हैं, अनेक ऐसी सकारात्मक बातें इससे जुड़ी हुई हैं। किंतु इतनी ही निश्चितता से इसके विवादित या नकारात्मक श्रेणी के कामों को लेकर भी कहा और लिखा जा चुका है।
 
आज संक्षेप में देखते हैं कि आरएसएस अपने सौ सालों के सफ़र में तीन बार बैन कब और क्यों हुआ? और वह प्रतिबंध कब और किन शर्तों के साथ हटाए गए?
 
स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले 27 सितंबर 1925 को विजयादशमी के दिन नागपुर में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने इस संगठन की स्थापना की थी। 17 अप्रैल 1926 को संगठन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघनाम मिला जब हेडगेवार के अनुयायियों के एक छोटे समूह ने चार प्रस्तावित नामों में से इस नाम को सबसे ज़्यादा वोट दिए।
 
अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर चुके इस संगठन को अब तक तीन बार प्रतिबंध का सामना करना पड़ा है। स्वाभाविक है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में आरएसएस तीन बार बैन हुआ, तो इसके पीछे रही वजहें छोटी मोटी तो नहीं होगी। दरअसल, तीनों बार जो वजहें रहीं, वो आरएसएस का अपने बारे में जो दावा है उस दावे की पोल खोलने वाली वजहें थीं। इन वजहों में आरएसएस सामाजिकता, समरसता, संस्कृति के ख़िलाफ़ काम करता तो दिखाई ही दिया, साथ ही संविधान, क़ानून, लोकतंत्र, आदि का हनन भी शामिल रहा।
 
इन तीन प्रतिबंधों के अलावा भी आरएसएस को अनेक बड़े या ऐतिहासिक विवादों में शामिल करके देखा जाता है। हम पहले उन विवादों को संक्षेप में देख लेते हैं, ताकि सौ सालों के सफ़र में आरएसएस पर लगे तीन बैन की संक्षिप्त कहानी को बेहतर ढंग से समझा जा सकें।
लिखा और कहा जा चुका है कि जब भारत की जनता अपने तमाम आंतरिक मतभेदों, असहमतियों, नफ़रत, जातियाँ, धर्म, आदि को किनारे कर एकजुट होकर ब्रितानी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ रही थी तब अपनी स्थापना के साथ ही इस संगठन ने शुरू से ही केवल हिंदुओं को संगठित करने पर ज़ोर दिया और उसकी इस प्रवृत्ति ने उस अद्भुत एकजुटता में छोटी मोटी दरारें डालीं।
 
पीएम मोदी या कोई और कुछ भी दावा करें, दरअसल आरएसएस का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में किसी प्रकार का हकारात्मक योगदान मैग्नीफायर ग्लास से ढूँढने के बाद ही मिल पाए। अलग अलग ऐतिहासिक तथ्य, दस्तावेज़, प्रमाणित किताबें, दशकों से जो कहते हैं उस हिसाब से देशी भाषा में कहे तो आरएसएस का स्वतंत्रता प्राप्ति की लड़ाई में चींटी जितना भी योगदान नहीं था।
 
आरएसएस ने अपनी स्थापना के बाद स्वतंत्रता प्राप्ति की किसी भी धारा में, यानी क्रांति की धारा या फिर अहिंसा की धारा, किसी भी धारा में अपनी कोई सकारात्मक भूमिका अदा नहीं की थी। ना किसी आंदोलन में भाग लिया, ना जेल गए, ना अनशन किया, ना अंग्रज़ों की लाठी खाई, ना क्रांति या अहिंसा की अनगिनत, ज्ञात, प्रसिद्ध और सर्वविदित कोशिशों में अपना योगदान दिया।

 
उलटा द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आरएसएस और उससे जुड़ी हिंदू महासभा को ब्रितानी सेना में हिंदुओं को भर्ती करने के लिए चलाए गए उनके अभियान के लिए ऐतिहासिक बदनामी ज़रूर मिली। अनेक लेखों, किताबों, में सैकड़ों बार लिखा जा चुका है कि इन्होंने उस समय हिंदुओं को उस ब्रितानी सेना में भर्ती करने का अभियान चलाया, जिसका इस्तेमाल नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज के ख़िलाफ़ होना था।
 
अंग्रेज़ी सत्ता के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी या अहिंसक, दोनों प्रयासों से भारतीय नागरिकों को दूर रहना चाहिए, आरएसएस की यह विचारधारा उसके साथ जुड़ा हुआ और एक ऐतिहासिक विवाद है। भारत के नागरिकों, विशेष रूप से हिंदुओं को, अंग्रेज़ी सत्ता के विरुद्ध चल रहे अहिंसक या क्रांतिकारी प्रयासों से स्वयं को दूर रखना चाहिए, आरएसएस ने उन दिनों यह लिखित रूप से तथा मौखिक रूप से भी कहा था। और इसके बारे में अनेकों बार लेखों और किताबों में लिखा जा चुका है।
 
हिंदू एकता और हिंदुत्व की बातें करने वाले आरएसएस पर ऐतिहासिक आरोप है कि उससे जुड़े संगठन हिंदू महासभा ने स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा स्थापित मुस्लिम लीग से गठबंधन किया था। आरएसएस के स्वयंसेवक नरेंद्र मोदी की सरकार का जम्मू कश्मीर में सत्ता हेतु पीडीपी के साथ गठबंधन भी चौंका गया था। आज भी मुस्लिम राष्ट्रीय मंच और राष्ट्रीय एकता मिशन, नामक दो इकाईयों का रिश्ता आरएसएस से जोड़ा जाता है। बताया जाता है कि मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का कार्यभार वरिष्ठ आरएसएस नेता इंद्रेश कुमार के हाथों में है।
आरएसएस के ऊपर एक आरोप दशकों से लगता आया है कि यह संगठन, जो ख़ुद को सामाजिक और सांस्कृतिक बताता है, वह किसी राजनीतिक दल से भी ज़्यादा "लचीला" रहा है। कहा जाता है कि अंग्रेज़ी शासन हो या वर्तमान शासन, आरएसएस सदैव सत्ता और पैसों की ताक़त के आगे ख़ुद को लचीला बनाता नज़र आया है। ब्रितानी सत्ता हो, नेहरू की हो, इंदिरा हो, राजीव हो या नरेंद्र मोदी, आरएसएस सत्ता और पैसों के प्रभाव के आगे मौन सहमति वाले मोड में नज़र आता है।
 
आपातकाल का विरोध करने वाली बीजेपी की मातृ पितृ संस्था आरएसएस ने आपातकाल और इंदिरा की तारीफ़ की थी। दावा किया जाता है कि आरएसएस किसी भी भारतीय सत्ता, जो ताक़तवर हो, के ख़िलाफ़ भी कभी मुखर होकर खड़ा नहीं हुआ। ये बात और है कि इंदिरा की ताक़त इन्हें इतनी ज़रूरी लगी कि वहाँ मौन रहकर सहमति नहीं दी, बल्कि प्रशंसा पत्र लिख आपातकाल का समर्थन कर दिया।
 
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत के सबसे बड़े राष्ट्रीय प्रतीक, भारत के सर्वोच्च गौरव और सम्मान के प्रतीक, राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को आएएसएस ने अशुभ माना था। और इस बारे में सैकड़ों बार तथ्यों, दस्तावेज़ों, के साथ वर्णन मिल जाएगा। आरएसएस के अंग्रेज़ी अख़बार ऑर्गनाइज़र ने अपने 14 अगस्त, 1947 के अंक में यह लिखा था। उस ज़माने में तिरंगे में रंगों का तीन का आँकड़ा, रंगों में शुभ और अशुभ, आदि पर बाक़ायदा आरएसएस के द्वारा लिखा गया था। अपनी शाखाओं में आरएसएस ने दशकों तक राष्ट्र के सर्वोच्च प्रतीक तिरंगे को सलामी नहीं दी।
 
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात बनाए गए भारत के अपने संविधान को उन दिनों आरएसएस द्वारा नापसंद करने का मसला विवादित इसलिए है कि संविधान को नापसंद करने के पीछे आरएसएस कोई ठोस तर्क सामने नहीं रख पाता। भारत के संविधान के साथ आरएसएस का रिश्ता काफ़ी जटिल रहा है। जाने माने वक़ील और राजनीतिक टिप्पणीकार अपनी किताब आरएसएस ए मेनेस टू इंडिया में बताते हैं कि 1 जनवरी 1993 को आरएसएस ने श्वेतपत्र प्रकाशित कर संविधान को हिंदू विरोधी बताया था। बंच ऑफ़ थॉट्स नामक किताब में दूसरे सरसंघचालक सदाशिवराव गोलवलकर संविधान की आलोचना करते समय कोई ख़ास तर्क सामने रखते नहीं दिखाई देते, सिवा इसके कि संविधान पश्चिमी देशों के संविधान का संयोजन है, बोझिल है, आदि आदि।
 
ख़ुद को सांस्कृतिक संगठन बताने वाले आरएसएस का इतिहास विशुद्ध रूप से राजनीतिक ही रहा। हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र के बारे में आरएसएस की वाणी और वर्तन का भेद भी चर्चा में बना रहता है। यह कम ही याद किया जाता है, किंतु सरदार पटेल ने हिंदू राष्ट्र के विचार को मानसिक दिवालियापन कहा था। सरदार पटेल ने हिंदू महासभा और आरएसएस द्वारा चलाई गई इस थ्योरी को बाक़ायदा पागलपन कहा था।
सीताराम वाली भारतीय संस्कृति को जय श्री राम तक पहुँचाने वाले आरएसएस ने कभी भगवान श्री राम को स्त्रैण (स्त्री की भाँति कोमल) मानकर नज़रअंदाज़ किया था। प्रख्यात समाजशास्त्री आशीष नंदी ने अपने एक लेख (गॉड्स एंड गॉडसेस इन साउथ एशिया) में लिखा है कि जब महात्मा गाँधी एक बार आरएसएस की 'शाखा' देखने गए, तो वहाँ महाराणा प्रताप और शिवाजी जैसे वीरों की तस्वीरें थीं, लेकिन राम की नहीं। गाँधीजी ने स्वाभाविक रूप से पूछा, "आपने राम का चित्र भी क्यों नहीं लगाया?" एक आरएसएस प्रतिनिधि ने उन्हें जवाब दिया, "नहीं, हम ऐसा नहीं कर सकते। राम हमारे उद्देश्य की पूर्ति के लिए बहुत ही 'स्त्रैण' हैं!" लेकिन सालों बाद भी जब कहीं से राजनीतक ताक़त मिलती नहीं दिखी तो आगे जाकर आरएसएस ने भगवान राम को ही अपनी आत्मा बना लिया और सत्ता की दौड़ लगा दी। साथ ही भगवान राम की जो पारंपरिक भाव भंगिमा थीं, उसे भी बदल दिया।
 
विनायक दामोदर सावरकर, इस व्यक्ति के मामले में आरएसएस का रवैया बेहद लचीला रहा। अगर आप वीर सावरकर संबोधन से उनकी प्रशंसा करें, उनके त्याग और हिम्मत का श्रृंगार करना शुरू करें तो आरएसएस वाले फ़टाक से दौड़ते थे, यह कहते हुए कि सावरकर उनकी विचारधारा से प्रभावित थे, शाखा में उनका आना जाना था, वगैरह। लेकिन यदि सावरकर का अंग्रेज़ी सत्ता के सामने समर्पण का विवादित इतिहास, माफ़ीनामा, ब्रितानी पेंशन, सुभाष बाबू की सेना के ख़िलाफ़ सावरकर की योजनाएँ, इसका बहीखाता खोलने लगते तब आरएसएस के लोग अपना हाथ खींच लेते, ये कहते हुए कि सावरकर कभी हमारे संगठन का हिस्सा नहीं थे।

 
आरएसएस का छोटे मोटे मुद्दों पर लचीलापन बेहद मशहूर है। आरोप लगता है कि ये लोग जनसरोकार के मुद्दों पर अपने स्टैंड से पलट जाते हैं। नेहरू काल से लेकर नरेंद्र मोदी के समय तक, आरएसएस अनेक जननीतियों, देशव्यापी मुद्दों, रोज़ाना सरोकार वाली नीतियों, आदि पर अपनी राय को स्थायी नहीं रख पाया। और अपने इस लचीलेपन को वो शिवाजी महाराज के नाम के सहारे श्रृंगार भी प्रदान करता है। जबकि शिवाजी महाराज की राजनीति और युद्धनीति आरएसएस के लचीलेपन से दूर दूर तक तर्क और तथ्यों के हिसाब से मेल नहीं खाती।
 
यह आरएसएस से जुड़े कुछ छोटे-मोटे ऐतिहासिक विवाद थे, जिसकी मदद से आरएसएस पर लगे तीनों बैन की परिपाटी को ठीक से समझा जा सकता है। देखते हैं कि आरएसएस अपने सौ सालों के सफ़र में तीन बार बैन कब और क्यों हुआ?
 
पहला प्रतिबंध महात्मा गाँधी की हत्या, सरदार पटेल ने कहा था - आरएसएस के बनाए ज़हरीले वातावरण की वजह से महात्मा गाँधी की जान गई
4 फ़रवरी 1948, वो तारीख़, जब आरएसएस के ऊपर स्वतंत्रता के बाद पहली बार प्रतिबंध लगा। आरएसएस के ऊपर यह प्रतिबंध लगाने वाले व्यक्ति भारत के प्रथम उप प्रधानमंत्री, प्रथम गृह मंत्री, सरदार वल्लभभाई पटेल थे, जिन्हें स्वतंत्र भारत के नक्शे के रचयिता, महान जननायक, भारत के लौह पुरुष, आदि नामों से जाना जाता है। उस समय आरएसएस के सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर थे।
 
जिस संगठन ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में चींटी जितना भी योगदान नहीं दिया था, उसने ऐसा क्या किया कि स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद उस पर बैन लगा? सर्वविदित है कि इस बैन से जुड़ी घटना वैश्विक स्तर की घटना थी। आरएसएस सौ सालों का हो जाए या दो सौ-पाँच सौ साल का, किंतु यह घटनाक्रम उसे भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर के बौद्धिक और लोकतांत्रिक समाज में एक दाग़ी संगठन के रूप में रेखांकित करता रहेगा।
 
जिन्हें दुनिया ने मानवता का प्रतिनिधि माना था, जो दुनिया में सबसे ज़्यादा चर्चित और लोकप्रिय व्यक्ति के रूप में स्थापित हैं, दुनियाभर के नामी लोग जिस व्यक्ति के दीवाने थे, जिन्होंने संसार के सबसे महान स्वतंत्रता संग्राम की एक धारा का सफल नेतृत्व किया, जिसके नाम से आज भी भारत दुनिया में देखा-जाना जाता है, उस महात्मा गाँधी की निर्मम और जघन्य हत्या से आरएसएस का नाम जुड़ना, यह आरएसएस के सौ सालों के सफ़र का सबसे बड़ा दाग़ है।

 
इतना ही नहीं, जिस सरदार वल्लभभाई पटेल के ऊपर बीजेपी और आरएसएस अधिकार जमाना चाहते हैं, उसी सरदार पटेल ने बाक़ायदा कहा था आरएसएस के बनाए विषाक्त वातावरण की वजह से महात्मा गाँधी की जान गई। भारत के महानायक सरदार पटेल का बतौर देश के उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री यह कथन, आरएसएस इससे कभी पीछा छुड़ा नहीं सकता।
 
15 अगस्त 1947 को अनगिनत, अविश्सनीय और अद्भुत त्याग और सर्वोच्च बलिदानों की बहुत लंबी सफ़रगाथा की बदौलत, अहिंसा और क्रांति के नायाब संगम की राह पर चलते हुए, भारत उस ब्रितानी शासन से स्वतंत्र हुआ, जिसके बारे में कहा जाता था कि वह साम्राज्य सूर्य है, जिसका नाश नहीं हो सकता।
 
जैसा कि सर्वविदित है और ऊपर परिपाटी में अंकित है, आरएसएस ने इस महान स्वतंत्रता संग्राम में चींटी जितना भी योगदान नहीं दिया, उल्टा उसकी शैली ताक़तवर ब्रितानी साम्राज्य के सामने लचीली दिखाई दी। स्वतंत्रता संग्राम और इसके बाद के महीनों तक भारत की जनता किसी नाथूराम गोडसे को जानती तक नहीं थी। इस व्यक्ति का स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाईयों में किसी योगदान का कहीं ज़िक्र नहीं मिलता।
इस नाथूराम गोडसे ने उस विचारधारा में फँसते हुए, जिसमें नितांत कट्टरता, मूर्खता, नफ़रत, अंधविश्वास, आदि था, 30 जनवरी 1948 को दिल्ली के बिरला भवन में महात्मा गाँधी के खुले सीने पर दो-तीन गोलियाँ मारकर उनकी हत्या कर दी।
 
महात्मा गांधी की हत्या के बाद, गृह मंत्री सरदार पटेल ने आरएसएस की गतिविधियों को देश के लिए ख़तरा माना। उन्होंने सरकारी अधिसूचना जारी करते हुए 4 फ़रवरी 1948 को आरएसएस के ऊपर प्रतिबंध लगा दिया। सरदार पटेल ने अपने पत्र में लिखा कि आरएसएस ने देश में सांप्रदायिक विष फैलाया और गाँधीजी की हत्या के बाद इसके कार्यालयों में मिठाई बाँटी गईं। 11 सितंबर 1948 को तत्कालीन सरसंघचालक एम. एस. गोलवलकर को लिखे पत्र में पटेल ने कहा, आरएसएस के भाषण सांप्रदायिक विष से भरे थे... गाँधीजी की मृत्यु पर आरएसएस वालों ने जो हर्ष प्रकट किया और मिठाई बाँटी, उससे यह विरोध और भी बढ़ गया।
 
आरएसएस के ऊपर प्रतिबंघ लगाते हुए उसी दिन सरदार पटेल ने बतौर देश के गृह मंत्री और उप प्रधानमंत्री एक विज्ञप्ति जारी की, जिसमें लिखा था, "उनके (आरएसएस के) सभी भाषण सांप्रदायिक ज़हर से भरे थे। इस ज़हर के अंतिम परिणाम के रूप में देश को गाँधीजी के अमूल्य जीवन का बलिदान देना पड़ा।"
 
आरएसएस ने दावा किया कि नाथूराम गोडसे ने संगठन छोड़ दिया था, लेकिन नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे ने बाद में इस दावे का खंडन किया। गोपाल ने कहा कि नाथूराम ने कभी आरएसएस नहीं छोड़ा, और यह बात संगठन को बचाने के लिए कही गयी थी।
 
महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और शहीद भगत सिंह भारत के तीन प्रमुख महानायक, जिन्होंने ऐसे भारत का सपना देखा था, जहाँ शिक्षा, वैज्ञानिक द्दष्टिकोण, जनता का अपना एक ऐसा तंत्र जहाँ ज़िम्मेदारी, जवाबदेही, कर्तव्य, आदि की बेसिक समझ हो, सामाजिक एकता, समरसता, समान भाव, के साथ नागरिक रहते हो, नाथूराम गोडसे ने न सिर्फ़ महात्मा गाँधी की हत्या की, बल्कि उसने सरदार पटेल, शहीद भगत सिंह, चंद्रशेख आज़ाद जैसों के त्याग और सपनों की भी हत्या कर दी थी।
 
स्वतंत्रता के महानायक का वो सपना शायद आरएसएस की शाखाओं में प्रशिक्षित और हिंदू महासभा नेता विनायक दामोदर सावरकर के शिष्य नाथूराम गोडसे की नज़र में बड़ा गुनाह था और उसने दुनिया को रोशनी देने वाली एक महाज्योति बुझा दी। गोडसे का महात्मा गाँधी की हत्या करने के पीछे का वो कथित विचार, दरअसल उस विचारधारा के असली चेहरे का ऐतिहासिक पर्दाफ़ाश था, जिस विचारधारा में नितांत कट्टरता, मूर्खता, नफ़रत, अंधविश्वास, जैसे तत्वों को पोषण होता था। और कमोबेश कुछ ऐसे ही भाव से यह स्वयं उस व्यक्ति ने भी बाक़ायदा कहा था, जिसे हम लौहपुरूष सरदार पटेल के नाम से जानते हैं।
जिस गोडसे ने कभी किसी आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया था, शिक्षा स्वास्थ्य कला साहित्य सृजन धर्म विज्ञान किसी भी क्षेत्र में जिसका तनिक भी योगदान दर्ज़ नहीं है, जिसने किसी अंग्रेज़ पर एक कंकड़ तक नहीं फेंका, जिसने कभी अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ पिस्तौल नहीं चलाई थी, उसने महात्मा गाँधी की जान ली। निर्विवाद रूप से वह स्वतंत्र भारत का सबसे पहला देशद्रोही था।
 
और उसके साथ आरएसएस का नाम जुड़ना, महात्मा गाँधी की हत्या से जुड़े घटनाक्रमों में आरएसएस का क़ानून, संविधान, समाज, विचारधारा, वातावरण, संस्कृति, के ज़रिए नाम जुड़ते रहना, यह एक ऐसा दाग़ है, जिससे आरएसएस शायद लंबे समय तक छुटकारा नहीं पा सकता। उसमें भी स्वतंत्र भारत के नक्शे के सूत्रधार, लौह पुरुष, भारत के प्रथम उप प्रधानमंत्री और प्रथम गृह मंत्री, सरदार पटेल की वो टिप्पणी, आरएसएस अपने मुखौटे बदल कर भी वह चेहरा छिपा नहीं सकता।
 
कह सकते हैं कि आरएसएस को महात्मा गाँधी का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि उन्होंने जीते जी कभी आरएसएस के बारे में ऐसी कोई टिप्पणी नहीं की थी, वर्ना महात्मा गाँधी की टिप्पणी से छुटकारा पाने के लिए आरएसएस को बहुत लंबा इंतज़ार करना पड़ता।

 
पहला प्रतिबंध कब हटा?
आरएसएस के ऊपर लगा पहला प्रतिबंध 18 महीनों के बाद 11 जुलाई 1949 को तब हटा, जब देश के तत्कालीन उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल की शर्तें तत्कालीन संघ प्रमुख माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने मान लीं। भारत सरकार की विज्ञप्ति में कहा गया कि आरएसएस ने आश्वासन दिया है कि वह भारत के संविधान और राष्ट्रध्वज के प्रति निष्ठा रखेगा, हिंसा में विश्वास नहीं करेगा, गोपनीयता का त्याग करेगा और संगठन का संविधान जनवादी तरीके से तैयार किया जाएगा। इसके अलावा, सरसंघचालक को व्यवहारतः चुना जाएगा, और नाबालिगों को अभिभावकों की अनुमति से ही संगठन में शामिल किया जाएगा।
 
आरएसएस ने भारत सरकार और देश के महानायक सरदार पटेल से किए वादों को तोड़ा
जैसा कि सबको पता है, आरएसएस ने इन वादों को पूरी तरह नहीं निभाया। संगठन का संविधान तो बनाया गया, लेकिन सरसंघचालक आज भी चुना नहीं जाता, बल्कि नामित किया जाता है। संगठन के संविधान के बारे में ज़्यादातर स्वयंसेवकों को ज्ञान नहीं है। इसके अलावा आरएसएस ने भारत के संविधान का विरोध भी किया। 26 नवंबर 1949 को जब भारत का संविधान स्वीकार किया गया, तो आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गेनाइज़र ने 30 नवंबर 1949 को इसके ख़िलाफ़ संपादकीय लिखा। साथ ही गोलवलकर ने तिरंगे को अशुभ बताया और अगले 52 सालों  तक आरएसएस मुख्यालय में राष्ट्रध्वज नहीं फहराया गया।
 
आरएसएस ने सरदार पटेल से वादा किया था कि वह राजनीति से दूर रहेगा, लेकिन इस वादे को भी तोड़ा गया। 1951 में आरएसएस ने जनसंघ की स्थापना की। 1977 में जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हुआ, लेकिन आरएसएस की सदस्यता के मुद्दे पर जनता पार्टी टूट गई। जनसंघ पृष्ठभूमि से आये नेता जनता पार्टी में रहते हुए आरएसएस के प्रति भी निष्ठा जता रहे थे, जिससे दोहरी सदस्यता का सवाल उठा। 1980 में बीजेपी का गठन हुआ, जिसमें शीर्ष पदों पर आरएसएस से जुड़े लोग ही  रहे। आरएसएस से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष ढंग से जुड़े मोर्चों या संगठनों के नाम अनेक हिंसक घटनाओं और दंगों से अविरत जुड़ते रहे।
 
दूसरा प्रतिबंध इंदिरा का आपातकाल, आरएसएस ने आपातकाल का समर्थन किया और इंदिरा की तारीफ़ भी
आरएसएस के ऊपर दूसरी बार प्रतिबंध तारीख़ 4 जुलाई 1975 के दिन लगा। यह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल का दौर था, जिसे स्वतंत्र भारत का प्रमुख काला अध्याय माना जाता है। इस समय आरएसएस के सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस थे, जिन्हें बाला साहब देवरस के नाम से जाना जाता है।
 
बीजेपी के शीर्ष लोग, नरेंद्र मोदी हो, वाजपेयी हो या आडवाणी, सब इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल का विरोध करते हैं, लेकिन इन सबकी मातृ पितृ संस्था आरएसएस ने न केवल आपातकाल का समर्थन किया था, बल्कि इंदिरा की तारीफ़ भी की थी।
 
आपातकाल के दौरान आरएसएस और ज़मात-ए-इस्लामी, दोनों संगठनों को इंदिरा की सरकार ने सांप्रदायिक भावनाएँ भड़काने का आरोप लगाते हुए बैन लगा दिया। दरअसल, आरएसएस के स्वयंसेवक इंदिरा सरकार और आपातकाल का विरोध करते हुए देखे गए और फिर सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने के आरोप लगाकर बैन लगा दिया गया। हालाँकि बैन लगने के बाद आरएसएस का रूख बदला सा नज़र आने लगा।
 
उस समय आरएसएस के सरसंघचालक थे बाला साहेब देवरस। सर्वविदित है कि जब आरएसएस के ऊपर बैन लगा तब उन्होंने इंदिरा गांधी सरकार को कईं पत्र लिखे और आश्वासन दिया कि आरएसएस का आपातकाल विरोधी आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है। इतना ही नहीं, पत्र में लिखा गया कि आरएसएस के स्वयंसेवक सरकार के 20 सूत्रीय कार्यक्रम को लागू करने में सह्योग करेंगे।
  
गिरफ़्तार किए गए सरसंघचालक ने पुणे की यरवदा जेल से पीएम इंदिरा गांधी और अन्य को कई पत्र भेजें, जिनमें उन्होंने जेल से रिहा करने की गुहार लगाई और आश्वासन दिया कि आरएसएस कार्यकर्ता तब राष्ट्र निर्माण के लिए काम करेंगे।
 
15 अगस्त 1975 को इंदिरा गांधी ने राष्ट्र के नाम संदेश में आपातकाल को व्यापक रूप से उचित ठहराने की कोशिश की, विपक्षी नेताओं को जेल में डालना, प्रेस पर सेंसरशिप, मौलिक अधिकारों का निलंबन, न्यायपालिका को बेड़ियों में जकड़ना, मज़दूरों के अधिकार छिन लेना, जैसी कार्रवाईयों को समय की माँग बताया। क्रिस्टोफ़ जैफ्रेलॉट और प्रतिनव अनिल द्वारा लिखित "भारत की पहली तानाशाही: आपातकाल, 1975-1977" के कुछ अंशों को अनेक लेखों में शामिल किया जा चुका है, जिसमें आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहेब देवरस द्वारा पीएम इंदिरा गांधी को लिखा गया पत्र शामिल है।
22 अगस्त 1975 को सरसंघचालक द्वारा लिखे गए पत्र का प्रमुख अंश था, "जेल से मैंने 15 अगस्त, 1975 को आकाशवाणी से प्रसारित आपके राष्ट्र के नाम संदेश को ध्यानपूर्वक सुना, आपका भाषण अवसर के अनुकूल और संतुलित था।"
 
अपने पत्र में कहीं पर भी सरसंघचालक ने आपातकाल की आलोचना नहीं की, सरकारी ज़्यादतियों की शिकायत नहीं की, संविधान-न्यायतंत्र-मीडिया और नागरिकी अधिकारों के हो रहे नाश पर टिप्पणी तक नहीं की। ना कोई विरोध, ना कोई आपत्ति। उलटा इंदिरा के भाषण को समर्थन दिया। अपने पत्र में 'आपसे मेरी विनम्र प्रार्थना' शब्द का उपयोग कर आरएसएस के ऊपर लगाए गए प्रतिबंध को हटाने की विनती की और मुलाक़ात के लिए समय माँगा।
 
इंदिरा गांधी ने कोई जवाब नहीं दिया। इस बीच इंदिरा की सरकार ने एक प्रमुख क़ानून को बदल दिया। इसके चलते सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस फ़ैसले को पलट दिया, जिसमें इंदिरा गांधी का अपना लोकसभा चुनाव अवैध घोषित किया गया था। यह आपातकाल का बहुत बड़ा प्रतीक था। लेकिन तब भी सरसंघचालक बाला साहेब ने सत्ता की ताक़त के सामने लचीला बनना बेहतर समझा।

 
10 नवंबर 1975 के दिन बाला साहेब देवरस ने पीएम इंदिरा गांधी को एक और पत्र लिखा, जिसमें उन्हें बधाई देते हुए कहा गया था, "मैं आपको बधाई देता हूँ, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के पाँच न्यायाधीशों ने आपके चुनाव की वैधता घोषित कर दी है।"
 
हालाँकि इंदिरा गांधी ने ने तो आरएसएस के सरसंघचालक या किसी दूसरे प्रतिनिधि से मुलाक़ात की और ना ही प्रतिबंध को हटाया। सरसंघचालक बाला साहेब ने ने इसके बाद विनोबा भावे, जो इंदिरा के नज़दीक़ थे, को भी पत्र लिखा, तथा महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री एस.बी. चव्हाण, सहित अन्य कईयों को भी पत्र लिखे। तमाम पत्रों का भाव कमोबेश वही था, जो पीएम इंदिरा गांधी को लिखे गए थे।
 
आपातकाल में जेल में रहे अनेक लोगों के हवाले से कई लेखों और किताबों में लिखा गया है कि आपातकाल के दौरान आरएसएस से जुड़े अनेक लोग उस माफ़ीनामे या हलफ़नामे पर हस्ताक्षर करने के लिए उत्सुक रहते थे, जिसमें यह आश्वासन दिया जाता था कि हस्ताक्षरकर्ता आपातकाल का विरोध नहीं करेगा। आपातकाल के दौरान 'आरएसएस की आत्मसमर्पण योजना' के ऊपर अनेक जगहों पर तथ्यों और बयानों के साथ लेख मिल जाते हैं।
दूसरा प्रतिबंध कब हटा?
दूसरा प्रतिबंध क़रीब दो साल तक चला। 1977 में जब इंदिरा गांधी सत्ता से हटीं और जनता पार्टी की सरकार बनी, तब इस प्रतिबंध को 22 मार्च 1977 को हटाया गया। इस दौरान भी कई आरएसएस कार्यकर्ताओं ने माफ़ी माँग कर जेल से रिहाई हासिल की।
 
माफ़ीनामे और आपातकाल की पेंशन का विवाद
ख़ास बात यह है कि ब्रितानी शासन के ख़िलाफ़ भारत के लिए लड़ाई लड़ने वालों को भारत की अपनी सरकार बनने के बाद स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जो पेंशन दिया जाता है उसमें एक भी नाम किसी स्वयंसवेवक का नहीं है, वहीं दूसरी तरफ़ अनेक लेखों में दर्ज है कि आरएसएस से जुड़े कईं लोगों ने आपातकाल के दौरान उत्पीड़न के एवज में मासिक पेंशन प्राप्त किया।
 
रिपोर्टों के मुताबिक़ आपातकाल के दौरान जो लोग माफ़ीनामे लिख कर जेल जाने से बचे या जेल से छूटे थे, उनसे संबंधित दस्तावेज़ और तत्कालीन सरसंघचालक द्वारा इंदिरा गांधी को लिखे गए पत्र शाह आयोग के समक्ष गवाहियों के तौर पर पैश किए गए थे।
 
तीसरा प्रतिबंध बाबरी मस्जिद विध्वंस, सुप्रीम कोर्ट को किया वादा तोड़ा
तीसरे प्रतिबंध की तारीख़ थी – 10 दिसंबर 1992। उस समय भी आरएसएस के सरसंधचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस (बाला साहब देवरस) ही थे। 1948 में भारत के महानायक सरदार पटेल और साथ ही भारत सरकार को लिखित आश्वासन दे चुके आरएसएस ने उन आश्वासनों और वादों को अनेक बार तोड़ा। और इस कड़ी में बाबरी मस्जिद विध्वंस और इससे जुड़े हिंसा के मामले भी शामिल हुए।
 
1992 का साल था। राम जन्मभूमि आंदोलन तेज़ हो चुका था, बाबरी मस्जिद और राम मंदिर का विवाद चरम पर था। उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह थे, जो आरएसएस की शाखाओं से प्रशिक्षित होकर वहाँ पहुँचे थे। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार को आश्वासन दिया था कि मस्जिद की रक्षा की जाएगी। लेकिन सरदार पटेल जैसे महानायक से किए वादों को तोड़ने वाला आरएसएस इन आश्वासनों के ऊपर क़ायम रहने वाला तो था नहीं।
 
उन दिनों कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा दायर कर कहा था कि बाबरी मस्जिद को कोई नुक़सान नहीं होगा, अयोध्या में सिर्फ़ प्रतीकात्मक कार सेवा (जैसे भजन-कीर्तन) होगी, और तमाम व्यवस्था शांतिपूर्ण और क़ानूनी तरीक़े से चलती रहे तथा मस्जिद के ढाँचे की सुरक्षा सुनिश्चित हो इसके लिए अतिरिक्त पुलिस बल तैनात किए जाएँगे।
 
लेकिन 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में विवादित ढाँचे के गुंबद को कारसेवकों की भीड़ ने तोड़ दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इसे अपनी अवमानना माना और कल्याण सिंह को एक दिन की प्रतीकात्मक सज़ा दी। 2009 के लिब्रहान आयोग ने कल्याण सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती को विध्वंस के लिए ज़िम्मेदार ठहराया। आयोग ने कहा कि कल्याण सिंह ने उन अधिकारियों को अयोध्या में तैनात किया, जो विध्वंस के दौरान चुप रहे।

 
विवादित ढाँचे के गुंबद को गिरा देने के बाद देश के कईं हिस्सों में तनाव पसर गया और हिंसा होने लगी। पूरे देश में माहौल ख़राब हो गया। स्थिति को देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव और गृह मंत्री शंकरराव चौहान ने आरएसएस के ऊपर प्रतिबंध लगा दिया।
 
आने वाले सालों में जैसे जैसे राजनीतिक स्थितियाँ बदलती चली गईं, लिब्रहान आयोग और उसकी जाँच के निष्कर्ष नाकाफ़ी साबित होते गए। मीडिया रिपोर्टों की माने तो ख़ुफ़िया अधिकारी ने ट्रिब्यूनल के समक्ष गवाही दी कि ऐसा कोई ठोस सबूत नहीं है जिससे पता चले कि आरएसएस ने मस्जिद के विध्वंस की पूर्व-योजना बनाई थी। ट्रिब्यूनल की अध्यक्षता दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस पी. के. बाहरी कर रहे थे।
 
वहीं रिपोर्टों के अनुसार पूर्व आईबी चीफ़ एम. के. धर की 2005 में प्रकाशित किताब ओपन सीक्रेट्स में दावा किया गया था कि बाबरी मस्जिद विध्वंस की योजना आरएसएस, भाजपा और विहिप के शीर्ष नेताओं ने पहले ही बना ली थी और सरकार को इस साज़िश की जानकारी थी।
 
तीसरा प्रतिबंध कब हटा?
तीसरा प्रतिबंध 4 जून 1993 को हटाया गया। सरकार द्वारा नियुक्त ट्रिब्यूनल ने प्रतिबंध को ग़लत ठहराते हुए इसे निरस्त किया। कहा गया कि जिन आरोपों के चलते आरएसएस के ऊपर प्रतिबंध लगाया गया था उसकी जाँच में आरएसएस के ख़िलाफ़ आरोपों के संबंध में कुछ नहीं मिला। हालाँकि इस मामले से जुड़े ज़मीन विवाद मुद्दे पर अंतिम फ़ैसला देते समय सुप्रीम कोर्ट ने यह ज़रूर घोषित किया कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस घौर ग़ैर संवैधानिक कृत्य था।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)