किसी देश की बड़ी आबादी बेशक उसके लिए ताक़त या वरदान मानी जाती
है। हम जब भी हमारे देश की ताक़त के बारे में पढ़ते हैं, एक पंक्ति यह भी मिलती है कि हमारे पास दूसरे देशों की तुलना
में अधिक मानव संसाधन है। पीएम मोदी भी सवा सौ करोड़ की आबादी को गौरव और ताक़त बताया करते थे। लेकिन उस आबादी
का अगर सदुपयोग न हो तो वह अभिशाप साबित होती है। तय कर पाना वाक़ई मुश्किल है कि जनसंख्या
समस्या है या फिर उसका सदुपयोग न होना समस्या है। चीन ने इसे समस्या माना और अब समाधान
करने के बाद मानव संसाधन की कमी समस्या बन गई है वहाँ। शायद दोनों के बीच संतुलन ही
समाधान होता होगा। किसी एक चीज़ को समाधान और किसी एक चीज़ को समस्या मान लेना, कम से कम इस मुद्दे पर तरह तरह की कहानियाँ सामने ले आता है।
टू चाइल्ड पॉलिसी। जनसंख्या नियंत्रण। भारत में यह एक ऐसा मुद्दा
है जो वाक़ई ज़रूरी दिखता है। हाँ, उसे किस तरह लागू करना है, उसके भीतर कौन सी चीज़ें होनी चाहिए या नहीं होनी चाहिए, उसे लेकर नेताओं से ज़्यादा उन लोगों के मन की बातें माननी चाहिए
जो इसके बारे में ज़्यादा समझते-जानते हैं। कोई भी ऐसा क़ानून, जो समाज से बहुत सीधे सीधे जुड़ा हो, उसमें यह होना ज़रूरी है। इस क़ानून को दशकों से ज़्यादातर लोग
ज़रूरी भी मानते हैं। जनसंख्या को वे बोझ कहने से झिझकते थे, क्योंकि बीजेपी और संघ के नेता और उनके संगठन ऐसा कहने पर राष्ट्रवाद
जैसे मिसाइल छोड़ा करते थे। आज उन्हीं दलों व संगठनों ने उस मिसाइल को छोड़कर वही रास्ता
पकड़ लिया है!!! लिहाज़ा बात आसान सी लगती है अब! अब जनसंख्या को बोझ कहने से वह मुश्किलें
पेश नहीं आएगी, जैसे पहले आती थीं। क्योंकि मुश्किलें पेश करने वाले ही इसे अब
समाधान मानने लगे हैं!
वैसे क़ानूनी ड्राफ्ट में एक चीज़ यह भी जोड़नी चाहिए थी कि
जो लोग बहुत सारे बच्चे पैदा करने का फ़तवा जारी करेंगे, उन्हें भी तमाम सरकारी पदों
और सरकारी सुविधाओं से मुक्त कर दिया जाएगा। जो लोग अपने अपने समुदाय को जनसंख्या बल
बढ़ाने का आह्वान करके सांप्रदायिक राजनीति करेंगे, उनके बयानों को उक्साने वाले बयान मानकर राजद्रोह तो नहीं, कम से कम समाजद्रोह मानकर उन्हें सख़्त से सख़्त सज़ा देने का एकाध
प्रावधान ड्राफ्ट में जोड़ देना चाहिए।
टू चाइल्ड पॉलिसी का यह पूराना मुद्दा इस समय योगीजी ने यूपी में रख दिया है। अगले
साल यूपी में चुनाव है। मुद्दा जनसंख्या का है, लेकिन सांप्रदायिकता का तड़का वही लोग लगा
रहे हैं। एक से ज़्यादा बच्चों पर हिंदू मुसलमान की राजनीति बीजेपी और संघ का कॉपीराइट
रहा है। उन्होंने अपनी पुरानी विचारधारा के लिहाज़ से बड़ा सा यू टर्न लिया है और जिस
चीज़ पर वे गरियाते थे उसी मुद्दे को समाधान बताकर पेश किया है। जिन्होंने एक से ज़्यादा बच्चों के मुद्दे को सांप्रदायिक बनाकर बवाल खड़े किए हो वे लोग ही इसे समाधान के रूप
में पेश करने लगे, तब भले ही यह समाधान हो, किंतु इसमें दूसरे तड़के लग ही जाते हैं।
हम पहले ड्राफ्ट के बारे में संक्षिप्त जानकारी ले लेते हैं। ड्राफ्ट के मुताबिक़, अगर यह पॉलिसी लागू होती है तो एक साल के अंदर, सभी सरकारी सेवकों, स्थानीय निकाय के निर्वाचित प्रतिनिधियों को यह शपथ पत्र देना होगा कि उनके दो
ही बच्चे हैं और वह इसका उल्लंघन नहीं करेंगे। अगर उनके तीन बच्चे हुए तो सरकारी कर्मियों
का प्रमोशन रुक सकता है और निर्वाचित प्रतिनिधियों का चुनाव रद्द हो सकता है। ड्राफ्ट
बिल में दो से अधिक बच्चे रखने वालों को सरकारी नौकरी और सरकारी योजनाओं के लाभों से
वंचित करने की सिफ़ारिश की गई है। इसके अलावा ड्राफ्ट में टू चाइल्ड पॉलिसी का पालन
नहीं करने वालों को भत्तों से भी वंचित करने का प्रावधान है। बिल में चार लोगों का
ही राशन कार्ड पर एंट्री सीमित करने का भी प्रावधान है।
इससे उलट जो लोग इस क़ानून का पालन करेंगे उनके लिए लाभ हैं। उन्हें कई तरह के
लाभ दिए जाने की सिफ़ारिश ड्राफ्ट बिल में की गई है। जैसे कि राष्ट्रीय पेंशन योजना
के तहत पूरी सेवा के दौरान दो अतिरिक्त वेतन वृद्धि, मुफ़्त स्वास्थ्य देखभाल की सुविधा, 20 साल की उम्र तक बच्चे
को मुफ़्त शिक्षा, भूखंड या घर की ख़रीद पर सब्सिडी, यूटिलिटी बिल पर छूट, ईपीएफ में तीन फ़ीसदी की
वृद्धि। जो सरकारी नौकरी में नहीं हैं और क़ानून का पालन कर रहे हैं उनके लिए भी फ़ायदे देने की बात है। उनके लिए पानी और बिजली के बिलों, होम लोन और हाउस टैक्स पर छूट देने का प्रावधान ड्राफ्ट में है।
यह कुछ बाते हैं जो ड्राफ्ट में हैं। इससे भी ज़्यादा बातें और चीज़ें हैं ड्राफ्ट
में। यह ड्राफ्ट है। लाज़मी है कि अगर यह क़ानून बनता है तो इसमें कई सारे परिवर्तन
होंगे। क़ानून बनने के बाद भी समीक्षा होगी। इसका रंग और रूप बदल भी सकता है।
हमें नहीं पता कि यूपी का यह नया प्रस्तावित क़ानून योगीजी का एलान है, या संघ का, या मोदी शाह की जोड़ी को साथ लेकर बीजेपी और संध, दोनों का। इतना पता है कि सार्वजनिक एलान योगीजी के द्वारा हुआ है। योगीजी ने इस
एलान के लिए जो समय चुना है वह राजनीति के हिसाब से काफी महत्वपूर्ण है। किसकी राजनीति
के लिए यह नहीं पता! क्योंकि यहाँ गुजरात मॉडल, मोदी मॉडल, यूपी मॉडल, योगी मॉडल, संघ का मॉडल... और भी बहुत सारे मॉडल हैं! मोदी-शाह और संघ-योगी का जो कथित टकराव
हालिया दिनों में देखा गया उसके बाद योगी का यह तीर समय के मुताबिक़ चलाया गया लगता
है।
हम पहले से कहते आए हैं कि राजनीति में कभी कोई शेर नहीं होता। वहाँ नेता या तो
बाध होता है या फिर लोमड़ी! मोदी-शाह के सामने शीर्षासन करने वाला संघ पिछले 7 सालो
में कुछ देर के लिए ही सही, किंतु अपनी बातें मनवाने में सफल रहता आया है। वह भी तब, जब चुनावी राजनीति के अंतिम परिणामों में मोदी-शाह थोड़ी सी कमज़ोरी महसूस करते
हैं। मोदी संघ के लिए आज की ज़रूरत है, भविष्य के लिए कोई नया चेहरा है। शायद योगी।
एक ज़माने में आडवाणी ज़रूरत थे, नया चेहरा मोदी थे। वाजपेयीजी मजबूरी थे, आगे कोई दूसरा मजबूरी होगा! राजनीति इसी तरह चालाक या फिर निर्मम होती है।
जनसंख्या नियंत्रण के लिए राजनीति की चिंता देख लीजिए। क़ानून उन पर ही क्यों जो
पंचायत स्तर का ही चुनाव लड़ते हैं? उन पर क्यों नहीं जो विधानसभा का चुनाव लड़ते हैं। ड्राफ्ट
का यह नियम राजनीति की चिंता का स्तर दर्शा देता है।
नेताओं को जो क़ानून लागू होते हैं उनमें वे एक ही थाली में खा लेते हैं। उधर ‘लठैत’
सात जन्मों तक एकदूसरे से दुश्मनी निभाते हैं!
चुनाव सुधार के क़ानूनों का इतिहास संक्षेप में पढ़ लीजिएगा। ये सारे मिलजुल कर तय
कर लेते हैं कि ये नहीं होगा, वह नहीं होगा। चुनाव लड़ने, सत्ता पाने, सत्ता पर बने रहने के विवादित नियम ये लोग बदलते नहीं और नये निगम लागू करते नहीं।
ड्राफ्ट के मुताबिक़ दो से ज़्यादा बच्चे हैं तो नौकरी नहीं मिलेगी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जिन्हें दो
से कम बच्चे हैं उन्हें मिल जाएगी!!! नौकरी तो वैसे भी मिल नहीं पा रही! सोचिए, राजनीति कितनी चालाक है कि एक अच्छे और मनभावन वाक्य को पेश
करके बेरोजगारी की समस्या से निजात पा लेती है! दो से ज़्यादा बच्चे हुए तो निर्वाचित
का चुनाव रद्द हो सकता है, किंतु अगर उसके दो से कम बच्चे हो तो वह गंभीर आपराधिक मुकदमों का सामना करते हुए
भी चुनाव लड़ सकता है, या बिना लड़े सीएम तक बन सकता है!!! है न कमाल का समाधान?
विधेयक विधायकों पर लागू
नहीं होगा!!! जनसंख्या नियंत्रण की ऐसी सिलेक्टिव चिंता वाक़ई ग़ज़ब है! क्या करे भाई। अगर जनलोकपाल लागू करते हैं तो फिर मनमोहनजी की सरकार हो या मोदीजी
की, बेचारी सरकारें अल्पमत में आ जाती या फिर आ जाएगी! वैसे ही जनसंख्या वाला क़ानून मूल रूप में विधानसभा और लोकसभा पर लागू करते हैं, तो फिर दूसरे राज्यों के साथ साथ यूपी की सरकार का आँकड़ा भी
घट जाएगा। यूँ कहे कि प्रजनन दर वाला आँकड़ा कम हो या न हो, कैबिनेट वाला आँकड़ा बेचारा औंधे मुँह गिर जाएगा!!!
जैसी करनी वैसी भरनी,
ना माने तो करके देख,
जन्नत भी है दोज़ख़ भी है,
ना माने तो मरके देख।
योगी के लिए यह अपनी नाकामियों
पर पर्दा डालने का श्रेष्ठ तरीक़ा भी है। पीएम मोदी तो उनके निहायत नाकाम प्रबंधन तक
की खुलकर प्रशंसा कर ही रहे हैं! गाँव गाँव श्मशान बन जाए, नदियों में सैकड़ों लाशें तैरती रहे, टेस्टिंग और ट्रेसिंग में पीछे हो, टीकाकरण में विक्रम बनाने के बाद भी अव्वल वाली सूची से दूर
हो, फिर भी यूपी का प्रबंधन कमाल का लगता हो मोदीजी को! तो फिर यह राजनीति ही है।
जब भी नेतागिरी कोई नया
क़ानून लाती है, ज़्यादातर लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ में एक बात ज़रूर उठती है। सीधा तीर निशाने पर मारते हुए लोग कहते हैं कि भाई, एकाध क़ानून मेनिफेस्टो को लेकर भी लाइए। लोग कह देते हैं कि
चुनाव लड़ने वालों के लिए न्यूनतम शिक्षा का क़ानून लाइए। क़ानून लाइए कि जिस पर गंभीर
मामला दर्ज हो वह चुनाव नहीं लड़ सकेगा। लोगों की चाह है कि एकाध क़ानून वह भी लाइए
जिसमें अगर किसी नेता ने ग़लत चुनावी हलफ़नामा दिया तो वह किसी सरकारी पद को धारण नहीं
कर सकेगा।
कभी कभी लगता है कि कोई
नया क़ानून लाने की ज़रूरत नहीं है। जितने क़ानून हैं उसका सही मानदंडों से समान रूप
से पालन हो तो भारत की आधी समस्याएँ तो यूँ ही ख़त्म हो जाएगी। क़ानून पालन में असमानता
भारत की सबसे बड़ी समस्या है। क़ानून तो बहुत सारे हैं, लेकिन उसका अमलीकरण कैसे होता है, समूचा देश जानता है। धारा 66ए जैसे क़ानून तो रद्द कर दिए जाने
के बाद भी नागरिकों पर लागू होते है यहाँ! राजद्रोह जैसे क़ानूनों को अदालत बेकार क़ानून
बताती है और उसी क़ानून को सरकारें मुहब्बत करती हैं! जनलोकपाल क़ानून तमाम बाधाएँ पार
करके इंतज़ार में बैठा है, लेकिन नेतागिरी जनता को दूसरी ही मोज करा रही है! ‘नागरिक’ जानते हैं कि क़ानूनों का अमलीकरण बहुत बड़ी समस्या है, लेकिन ‘प्रजा’ नये क़ानून आने से कुछ नयापन महसूस करने में ज़्यादा ख़ुश होती
है।
बहुत सारे बच्चे पैदा करने
की वकालत करने वाला समुदाय इस विधेयक को ज़रूरी मानने लगा है वह कागजों पर तो अच्छी
बात है। किंतु मूल सवाल वह भी पूछ नहीं रहे। सवाल पूछा जाना चाहिए कि यह कैसा विधेयक
है जो विधायकों पर लागू नहीं होगा!!! जनसंख्या नियंत्रण की यह कैसी चिंता है जो इतनी सिलेक्टिव है!!! एक देश एक क़ानून का नारा जुमला है क्या? सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि जिसकी शादी नहीं हुई है ऐसे युवाओं को आप नौकरी
नहीं दे पा रहे, तो फिर दो से कम बच्चे हो या दो से ज़्यादा, नौकरी कैसे मिल पाएगी उन्हें?
ये सही है कि जो लोग सांप्रदायिक राजनीति करते हैं, अपने अपने समुदाय को जनसंख्या बढ़ाने का फ़तवा जारी करते हैं, उनके लिए उनके ही आदमी के द्वारा यह बड़ा झटका है! किंतु ऐसे फतवे जारी करने वालों
के ख़िलाफ़ किसी प्रकार की कार्रवाई का कोई नियम नहीं है! यानी वे चुनाव के बाद, किसी मौके पर ज़रूरत आन पड़ी, तो फतवे जारी कर सकते हैं! वैसे भी विधेयक
विधायकों पर लागू नहीं होने वाला!
फ़िलहाल तो जनसंख्या नियंत्रण की कोशिश ज़रूरी लगती है। किंतु वह कोशिश तिकड़म ना
होकर एक लंबी योजना हो यह ज़्यादा ज़रूरी है। जनसंख्या क़ानून लाने वालों को महंगाई
नहीं दिख रही! यूँ तो भारत में कई परिवार महंगाई की वजह से, जो कांग्रेस काल में थी और बीजेपी काल में भी है, हर काल में बढ़ती रहती है, उस महंगाई की वजह से कई परिवार हम दो हमारे
दो पर ही क़ायम रहते हैं! क्या पता सरकार महंगाई को भी जनसंख्या नियंत्रण का छिपा हुआ
हथियार मानती हो! कोई तिकड़म बाज नेता यह दलील भी दे सकता है! क्योंकि, बहुत हुई
महंगाई की मार अब की बार मोदी सरकार, के उस जोरदार प्रचार के बाद भी ये नेता बाक़ायदा कहते हैं कि यह सरकार महंगाई कम करने नहीं, भारत को विश्वगुरु बनाने
आई है!
बीजेपी एंड आरएसएस आफ्टर 2014 वाले लेख में संघ के एक स्वयंसेवक के मन की नहीं
बल्कि दिल की बात नोट की गई थी। स्वयंसेवक महोदय कह रहे थे कि, “मोदी-शाह की जोड़ी कामयाब है तो रणनीति है, नाकामयाब होती तो तिकड़म होता। लेकिन प्रचार जिस आसरे चल रहा
है, उससे कार्यकर्ता और स्वयंसेवक का विस्तार नहीं हो रहा, वो कुंद हो रहे हैं। ये सच है कि नरेंद्र मोदी जैसा चेहरा है और अमित शाह जैसा
रणनीतिज्ञ है तो दूसरों को कुछ करने की ज़रूरत ही क्या है? जिन राज्यों में बीजेपी के पास सत्ता नहीं थी, आज वहाँ पर सत्ता है तो
फिर परेशानी क्या है? राजनाथ - सुषमा - आडवाणी - जोशी किसीकी ज़रूरत किसी विधानसभा में नहीं पड़ी। आपने
सुना क्या कि इनमें से कोई नेता किसी राज्य में गया और चुनावी धारा बदल दी? नहीं सुना न? इतनी मेहनत करने वाला कोई नेता दूसरा नहीं
है ये भी सच है। ऐसी ऊर्जा और ऐसी अथक मेहनत किसीने नहीं दिखाई ये भी सच है। लेकिन
उस नब्ज़ को भी समझना होगा जहाँ रणनीति और तिकड़म मिल रहे हैं।”
जिस गति से जनसंख्या बढ रही है, उसके लिए जीवन की बुनियादी सुविधाएँ और संसाधन
जुटाना तथा उसके लिए रोजगार के अवसर पैदा करना सरकारों के लिए चुनौती साबित हो रहा
है। और यह चीज़ मोदीजी और उनका मंडल अभी थोड़े महीनों पहले नहीं समझता था और अब समझने
लगा है!!! यह चमत्कार समझ शक्ति के विकास का नहीं है! यह चमत्कार तिकड़म बाज़ी के चोंगे
से एक और तीर के निकलने का है! राजनीति में चोंगे में जितने ज़्यादा तीर होंगे, आप सत्ता को उतने ज़्यादा समय तक संभ्हाल पाएँगे।
यूँ तो जनसंख्या को लेकर जितने विशेषज्ञ या जागरूक लोग चिंतित थे और हैं, उनके लिए तुलना का कोण यही रहा कि कुछ वर्षों के बाद भारत की जनसंख्या चीन की कुल
जनसंख्या के भी आगे निकल जाएगी। वे भारत और चीन की जनसंख्या की तुलना किया करते थे
और करते हैं। लेकिन बीजेपी और संघ के लिए जनसंख्या की तुलना ध्रुवीकरण वाले रास्ते
से गुज़रकर होती रही! वे हिंदुओं की जनसंख्या और मुसलमानों की जनसंख्या को लेकर बातें
करते रहे!!!
वे कहते रहे कि मुसलमानों की आबादी हिंदुओं की तुलना में बढ़ जाएगी। ये कहकर इशारों
में चेताते कि फिर मुसलमानों का राज आ जाएगा! यूँ तो कट्टर बीजेपी नेता और आरएसएस, दोनों ने जितने मुद्दों को, यूँ कहे कि जितनी राई को मुद्दा और मुद्दे
को पहाड़ बनाया, उनमें से बहुत सारे मुद्दे ऐसे थे जिसमें बेसिक ही लूला लंगड़ा
सा था! यहाँ भी आँकड़े क्ट्टर बीजेपी समर्थक नेता और संघ, दोनों के प्रचार प्रसार को लूला लंगड़ा बनाते हैं।
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS) 2015-16 के मुताबिक़, देश की मौजूदा टोटल फ़र्टिलिटी रेट 2.3 से नीचे है। यानी देश
के दंपति औसतन क़रीब 2.3 से कम बच्चों को जन्म देते हैं। यह दर भी तेजी से कम हो रही
है। जनसंख्या को स्थिर करने के लिए यह दर 2.1 होनी चाहिए और यह स्थिति कुछ ही वर्षों
में ख़ुद ब ख़ुद आने वाली है। NFHS के मुताबिक़, देश में हिंदुओं की फ़र्टिलिटी रेट जो 2004-05 में 2.8 थी, वह अब 2.1 हो गई है। इसी तरह मुसलिमों की फ़र्टिलिटी रेट 3.4
से गिरकर 2.6 हो गई है। 1.2 बच्चे प्रति दंपति के हिसाब से सबसे कम फ़र्टिलिटी रेट
जैन समुदाय में है। वहाँ बच्चों और महिलाओं की शिक्षा सबसे ज़्यादा है। इसके बाद सिख
समुदाय में फ़र्टिलिटी रेट 1.6, बौद्ध समुदाय में 1.7 और ईसाई समुदाय में 2
है। भारत की औसत फ़र्टिलिटी रेट 2.2 है। जो कि अभी भी 'हम दो, हमारे दो' के आँकड़े से ज़्यादा है।
जनसंख्या के मामलों से जुड़े संगठन पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया (Population Foundation of India) की कार्यकारी निदेशक पूनम मुत्तरेजा का कहना है कि दुनिया भर में कई उदाहरण हैं
कि देश के सतत विकास के लिए स्थिर प्रजनन दर और आयु वर्ग वाली आबादी बेहद ज़रूरी है।
वह कहती हैं कि यह भ्रम है कि भारत की आबादी बेहद तेजी से बढ़ रही है और सीमित संसाधनों
के कारण इस पर काबू पाना ज़रूरी है। मुतरेजा ने कहा कि देश की कुल प्रजनन दर (Total Fertility Rate) में वर्ष 2000 में राष्ट्रीय जनसंख्या नीति अपनाए जाने के बाद से गिरावट आ रही
है।
सभी सामाजिक औऱ धार्मिक समूहों में महिलाओं के उनके जीवन काल में जन्मे बच्चों
की औसत संख्या टीएफआर कहलाती है। वर्ष 2000 में यह 3.2 थी, जो अब 2018 में घटकर 2.2 रह गई है। मुत्तरेजा का कहना है कि
अगर हम नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (2015-16) पर नज़र डालें तो हर धर्म
में इसमें गिरावट आई है। मुस्लिमों में यह गिरावट सबसे ज़्यादा 2.6 फ़ीसदी रही है। NFHS-5 सर्वे (2019-20) के पहले चरण की बात करें
तो यूपी, बिहार जैसे जिन 17 राज्यों व 5 केंद्रशासित प्रदेशों में सर्वे
हुआ है, उसके अनुसार सिर्फ़ बिहार, मणिपुर और मेघालय में ही प्रजनन दर 2.1 का लक्ष्य हासिल नहीं हो पाया है। यानी
कि ज़्यादातर राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों में प्रजनन दर उस संतोषनजक स्तर पर पहुंच
चुकी है, जितनी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जनसंख्या के बदलाव के लिए ज़रूरी है। NFHS-4 यह भी कहता है कि औसतन ज़्यादातर अभिभावक दो से कम बच्चे चाहते
हैं या पहले से ही उनके परिवार से में इतने या इससे कम बच्चे हैं।
वे जनसंख्या नियंत्रण को लेकर बाध्यकारी और दंडात्मक तरीक़े अपनाए जाने के ख़िलाफ़ हैं। केंद्र की मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जो कहा है, वह भी उसी बात से सहमत होती हैं। बाध्यकारी और दंडात्मक तरीक़े अपनाने को लेकर भविष्य
में जो दूसरी समस्याएँ उत्पन्न होगी उसको वे दर्शाती भी हैं। भारत के परिवारों में
बेटों की चाहत वाला फ़ेक्टर कौन सी दूसरी बाधाएँ उत्पन्न करेगा उसे लेकर वे सचेत कराती
हैं। असुरक्षित और ग़ैरक़ानूनी गर्भपात, पुरुष और स्त्री संख्या का असंतुलन, युवा धन की कमी, कामगार आबादी घटने से अर्थतंत्र पर बूरा असर, समेत बहुत सारी समस्याओं
का चीन को सामना करना पड़ा। हमारे यहाँ भी कुछ जानकार इन ख़तरों से अवगत कराते हैं।
कहते हैं कि भारत में अब तक जनसंख्या नियंत्रण को लेकर जिस प्रकार से सामाजिक अभियान
चल रहे हैं वह सही दिशा की तरफ़ है।
पॉपुलेशन फाउंडेशन (Population
Foundation Of India) ने एक बयान में कहा है कि
इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूवेशन इंडिया (IHME) का अनुमान है कि 2048 तक देश की आबादी 1.6 अरब के शिखर को छू
लेगी। इसके बाद इसमें तेज गिरावट देखने को मिलेगी। अनुमान है कि वर्ष 2100 तक भारत
में प्रजनन दर 1.3 पर आ जाएगी और आबादी घटकर 1 अरब 10 करोड़ तक आ जाएगी। इस अध्ययन
में यह भी कहा गया है कि भारत में अब तक जिस प्रकार से जनसंख्या नियंत्रण को लेकर सामाजिक
अभियान चले हैं, वह कारगर हैं।
बात यूपी की हो रही है तो यहाँ प्रजनन दर अभी 2.7 है, जो राष्ट्रीय औसत 2.2 से ज़्यादा है। यूपी की नई जनसंख्या नीति
के ज़रिए इसे 2023 तक 2.1 और 2026 तक 1.9 तक लाए जाने का लक्ष्य है। यूपी की आबादी
अभी क़रीब 24 करोड़ है। यहाँ जनसंख्या घनत्व प्रति वर्ग किलोमीटर 828 है। इसी लिहाज़ से कुछ लोग यूपी में क़ानूनी बाध्यता को ज़रूरी भी मानते हैं। कहते हैं कि प्रोत्साहन
नीति, लालच या प्रलोभन वाले रास्ते सरकार अपनाती है, तो इसमें क्या ग़लत है?
भारत दुनिया में पहला विकासशील देश है, जिसने सबसे पहले अपनी आज़ादी के चंद वर्षों
बाद 1950-52 में ही परिवार नियोजन को लेकर राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम शुरू कर दिया था।
ग़रीबी और अशिक्षा के चलते शुरुआती दशकों में इसके क्रियान्वयन में दिक्कतें पेश आती
रहीं। लेकिन ज़मीनी रूप से देखे तो राजनीति अपने हिस्से का फ़ायदा लेकर आगे बढ़ती रही, योजनाएँ वहीं के वहीं ठहरी रही!!! इसीलिए तो लगता है कि हमारे यहाँ किसी नये क़ानून
की ज़रूरत ही नहीं, पहले तो जो क़ानून हैं उनका सही ढंग से पालन ही करा लो। आधी समस्या तो यूँ ही ख़त्म
हो जाएगी।
1975-77 में आपातकाल के दौरान मूर्खतापूर्ण जोर-ज़बरदस्ती से लागू करने के चलते
यह कार्यक्रम बदनाम भी हुआ। लेकिन पिछले दो दशकों के दौरान लोगों में इस कार्यक्रम
को लेकर जागरूकता बढ़ी है। उधर जनसंख्या को लेकर हमारे यहाँ कट्टरपंथी हिंदू संगठनों
और राजनीतिज्ञों की ओर से एक निहायत बेतुका प्रचार अभियान सुनियोजित तरीक़े से पिछले
कई वर्षों से चलाया जा रहा है। जो कि हमारे जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम के ख़िलाफ़ है।
मनगढ़ंत आँकड़ों के ज़रिए वह प्रचार यह है कि जल्दी ही एक दिन ऐसा आएगा जब भारत
में मुसलमान और ईसाई समुदाय अपनी आबादी को निर्बाध रूप से बढाते हुए बहुसंख्यक हो जाएँगे
और हिंदू अल्पमत में रह जाएँगे। अत: उस 'भयानक’ दिन को आने से रोकने के लिए हिंदू भी अधिक से अधिक बच्चे पैदा करने चाहिए! यह गढ़ा
हुआ मिथ है। राजनीति का चालाक और छलिया चेहरा है।
मजेदार बात यह है कि हिंदुओं से ज़्यादा बच्चे पैदा करने की अपील करने वाले यही
लोग जनसंख्या नियंत्रण क़ानून बनाने की माँग करने में भी आगे रहते हैं! दिलचस्प और
उल्लेखनीय बात यह भी है कि मुसलमानों की कथित रूप से बढ़ती आबादी को लेकर चिंतित होने
वाले यही हिंदू कट्टरपंथी इज़रायल के यहूदियों का इस बात के लिए गुणगान करते नहीं थकते
है कि संख्या में महज चंद लाख होते हुए भी उन्होंने अपने पुरुषार्थ के बल पर करोड़ों
मुसलमानों पर न सिर्फ़ धाक जमा रखी है बल्कि कई लड़ाइयों में उन्हें क़रारी शिकस्त भी
दी है और उनकी ज़मीन छीनकर अपने राज्य का विस्तार किया है।
यहूदियों के इन आशिकों और हिंदू कट्टरता के प्रचारकों से पूछा जा सकता है कि अगर
मुसलमान संख्या बल में यहूदियों से कई गुना भारी होते हुए भी उनसे शिकस्त खा जाते हैं
तो फिर हिंदुओं को ही भारतीय मुसलमानों की भावी और काल्पनिक बहुसंख्या की चिंता में
दुबले होने की क्या ज़रूरत है? या फिर वे क्या यह जताना चाहते हैं कि यहूदी
हिंदुओं से ज़्यादा काबिल हैं?
मुसलमानों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों की कथित रूप से बढ़ती आबादी पर
चिंतित होने वाले यह भूल जाते हैं कि आबादी बढ़ने या ज़्यादा बच्चे पैदा होने का कारण
किसी समस्या का समाधान नहीं निकलता। जिस तरह ग़रीबी और अशिक्षा आबादी बढ़ाने के कारक
हैं, उसी तरह आबादी बढ़ाना ग़रीबी और अशिक्षा भी पैदा करता है!
जब से मुसलमानों में शिक्षा का स्तर बढ़ा है उनके समुदाय में फ़र्टिलिटी रेट कम
होने लगा है। किसी भी अच्छे खाते-पीते और पढ़े-लिखे मुसलमान (अपवादों को छोड़कर) के
यहाँ ज़्यादा बच्चे नहीं होते। स्वयं सिद्ध तथ्य है कि जो समुदाय जितना ज़्यादा ग़रीब
और अशिक्षित होगा, उसकी आबादी भी उतनी ही ज़्यादा होगी। अफ़सोस की बात यह है कि समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र
के आबादी संबंधी इन सामान्य नियमों को नफ़रत के सौदागर समझना चाहे तो भी नही समझ सकते, क्योंकि उनके इरादे तो कुछ और ही है।
कागजी तौर पर ठीक है, लेकिन जिन राजनीतिक दलों और संगठनों की पहचान, संस्कृति, प्रकृति ही कुछ और है, उसीको ध्यान में रखकर दबी भाषा में जानकार बताते हैं कि जनसंख्या विस्फोट पर सरकार
के नीति नियामकों का और सत्तारूढ़ दल के सहयोगी संगठनों का चिंता जताना सिर्फ़ अर्थव्यवस्था
के मोर्चे पर सरकार की नाकामी से ध्यान हटाने का उपक्रम ही है, इससे ज़्यादा कुछ नहीं।
यूँ तो बीजेपी शासित राज्यों में यह क़ानून लागू है। गुजरात मॉडल के बाद केंद्र
की भावि सत्ता के लिए यूपी मॉडल तैयार हो रहा है! आडवाणी मॉडल के बाद मोदी मॉडल, मोदी मॉडल के बाद अब योगी मॉडल संघ की ज़रूरत दिखाई देती है। उधर जनसंख्या नियंत्रण
को लेकर बीजेपी, बीजेपी का कट्टर नेतृत्व, संघ, बीजेपी व संघ से जुड़े हुए दूसरे संगठन और
मोदी सत्ता, सब के एलान, सब के विचार, सब की कथनी और करनी में, इन सबमें भारी अंतर दिखाई देता है!
हमें नहीं पता कि मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जो कहा उस पर वह कब तक क़ायम
रहेगी। लेकिन यूपी बीजेपी जो कह रही है, केंद्र की बीजेपी सरकार उससे उलट कह रही है!!! लाज़मी है कि यूपी में अगले साल चुनाव है। कोरोना समय की घोर नाकामियों का भार है। बेरोजगारी, महंगाई, किसान आंदोलन समेत कई दूसरी चीज़ों का जंजाल है। यूपी की योगी सरकार के लिए फ़िलहाल तो जनसंख्या नियंत्रण का मुद्दा जंजाल से छूटने का रास्ता भी है और ध्रुवीकरण का हथियार
भी।
बीजेपी और संघ की ख़ासियत
ही यही है कि वे हर उस मुश्किल में एक ऐसा मुद्दा ढूंढ कर ले ही आते हैं, जहाँ ‘समाज का तुष्टीकरण’ होता हो और साथ ही दूसरी ‘मूल समस्याओं से सरकार का पलायनकरण’ संभव हो पाता हो।
जनसंख्या सबके लिए चिंता
का विषय है। राजनीति के लिए राजनीति का विषय है। किंतु आँकड़े चौकाते हैं! आँकड़ों की माने तो जनसंख्या विस्फोट को लेकर चिंता जताना ठीक है, लेकिन बिलकुल ठीक नहीं है! जनसंख्या नियंत्रण को लेकर सालों से काम करने वाली संस्थाएँ या लोग स्थिति को
उतनी चिंताजनक नहीं बताते। वह तो कहते हैं कि हर समुदाय में प्रजनन दर संतोषजनक ढंग
से कम हो रहा है! तो फिर क्या किसी ख़ास राजनीतिक दल और उनके संगठनों का वह प्रचार
केवल दुष्प्रचार और मिथ को गढ़कर सियासी फ़ायदा हड़पने की कोशिश है? क्या आँकड़ों के बारे में लोगों तक जानकारी पहुंचने के बाद अब वह अपनी सांप्रदायिक
राजनीति को नये ढंग से नये वस्त्र पहना रहे हैं? या फिर वे अपनी ग़लतियों मानकर अब सही में सही रास्ते जा रहे हैं? राजनीति में कौन, कब, क्या और क्यों, सोचता-करता है, यह समझना लुटिंयस दिल्ली
वालों का माद्दा है, हम जैसों का नहीं।
सुप्रीम कोर्ट में अपना
पक्ष रखते हुए पिछले दिनों केंद्र सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह देश के लोगों को
परिवार नियोजन के तहत दो बच्चों की संख्या सीमित रखने के लिए मजबूर करने के पक्ष में
नहीं है, क्योंकि इससे जनसंख्या के संदर्भ में विकृति उत्पन्न हो जाएगी।
यह द्दश्य ख़ुद ही देख लीजिए।
बीजेपी के दिग्गज नेता, पूरा का पूरा संघ अनेक बार एलान कर चुका है कि हिंदुओं को अनेक बच्चे पैदा करने
चाहिए! एलान में वह नसीहत भी देते हैं कि उनमें से एक बच्चा सेना को दे दो, एक धर्म को दे दो, एक यहाँ दो, एक वहाँ दो, वगैरह वगैरह!!! दूसरी तरफ़ बीजेपी शासित राज्य जनसंख्या नियंत्रण क़ानून बिना शोर के लागू करते रहते हैं! उधर
पीएम बनने के बाद मोदीजी देश के भीतर और देश के बाहर एक से ज़्यादा दफा कहते हैं कि
देश की विशाल युवा आबादी देश के लिए डेमोग्राफिक डिविडेंड है। वे आबादी को देश की ताक़त
बताते हैं। फिर न जाने क्या हुआ कि द्दश्य बदल गया। जो शख़्स विशाल आबादी को देश की
ताक़त बताता था, जो एक से ज़्यादा बच्चे पैदा
करने का आह्वान करने वालों के ही धर से निकला हुआ था, वह नायक बतौर पीएम लाल क़िले से कहता है कि जनसंख्या विस्फोट
संकट पैदा करेगा! इसके बाद भी एक से ज़्यादा बच्चे पैदा करने का एलान बीजेपी और संघ
की चोखट से होता रहता है! फिर कुछ सालों बाद उनकी राजनीति का प्रमुख केंद्र यूपी जनसंख्या
क़ानून को लागू करने का एलान करता है! और उसी समय उनकी ही केंद्रीय सत्ता सुप्रीम कोर्ट
में बाक़ायदा कहती है कि वह जनसंख्या नियंत्रण को क़ानून के दम पर लागू करने के पक्ष
में नहीं है! कितना कंट्राडिक्शन है कहानी में, ख़ुद ही समझ लीजिए।
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