तोता नामकरण देश की संवैधानिक संस्था ने ही किया था। नामकरण करने में किसी पक्ष
या विपक्ष की कोई भूमिका नहीं है, नामकरण करना पड़ गया उसमें हो सकती है!!! काबे काबो लूटियो, वही धनुष वही बाण... राजनीति का महाभारत उस पुरातन भारत
के कुछ सत्य को आज भी जिंदा रखने के परम प्रयत्नों में प्रवृत्त है। नोट करे कि इस
लेख में हमने पी चिदंबरम एंड अमित शाह लिखा है, पी चिदंबरम विरुद्ध अमित शाह नहीं।
विरुद्ध लिखना तथा एंड लिखना, दोनों में बहुत अंतर है। दोनों लफ्जों से चर्चा का रूप
अलग होता है।
यह किसी फिल्मी
कहानी या किसी चमत्कृत युग से कम दिलचस्प घटनाएं नहीं हैं, जहां तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम के समय गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री सरीखा कदावर शख्स
सीबीआई के फेर में उलझता है, तड़ीपार तक हो जाता है!!! फिर वही शख्स भारत भूमि का गृहमंत्री बनता है और पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री
को उसी सीबीआई के फेर में उलझना पड़ता है! जिस सीबीआई को अदालत ने तोता कहा था, वही तोता कहता है कि तोता तो किसीका
नहीं होता!!!
नोट करे कि काबे
काबो लूटियो, वही धनुष वही बाण में काबो कोई नकारात्मक भूमिका वाला पात्र नहीं था। वो तो अर्जुन सरीखे बलवान योद्धा को उस काल में तारे ज़मीं पर वाली मूवी दिखा
गया था! सो, कृपया अपने
अपने मनपसंद नेता को इस महाभारत काल की उक्ति के जरिए किसी एक पात्र में कैद ना
करें। यह तो उक्ति है, जो समय और इंसान की ताकत का परम भेद खोलने के लिए इस्तेमाल
होती है।
पी चिदंबरम,
एयरसेल या कार्ति चिदंबरम समेत सारी चीजें, सारी घटनाएं, सारे आरोप देश के सामने हैं।
चिदंबरम का कथित घोटाला, उनके पुत्र के कथित कारनामे जैसा घटनाक्रम तथा उससे जुड़ी जानकारियां सार्वजनिक हैं। क्या था वो घोटाला जिससे चिदंबरम को जाना पड़ा जेल वाले
टाइटल के साथ पूर्व मंत्रीजी की गाथा अत्र-तत्र-सर्वत्र व्याप्त है। लिहाजा हम आगे
चलते हैं।
देश का पूर्व गृहमंत्री सरीखा शख्स यूं कानून से क्यों भाग रहा था? क्या कांग्रेस में कोई नियम है कि जो निर्दोष होगा वह भागेगा?
कोई कांग्रेसी
नेता या कांग्रेसी समर्थक यह कह दे कि चिदंबरम कानून से कभी नहीं भाग रहे थे, तब तो
इस दलील को भी तिहाड़ जेल में बंद कर देना चाहिए। पी चिदंबरम... यह नाम भले ही किसी
लोकप्रिय नेता की श्रेणी में शुमार ना होता हो, किंतु यह नाम इस देश के सबसे पुराने
राजनीतिक दल कांग्रेस के पुराने और बड़े तथा महत्वपूर्ण शख्सियतों में ज़रूर शामिल
होता है। यह नाम भारत के पूर्व केंद्रीय मंत्री का नाम है, यह नाम देश के बड़े वकीलों में शामिल होनेवाला नाम है। यह कोई लो-प्रोफाइल राजनीतिक शख्स का नाम नहीं है,
बल्कि भारत की राजनीति में हाई-प्रोफाइल माना जानेवाला नाम है यह। इतना बड़ा नाम कि
उसके बचाव में समूची कांग्रेस एक हो चुकी हैं।
किंतु इतने बड़े शख्स को सीबीआई से क्यों भागना पड़ गया इस बात का जवाब ना सोनिया गांधी देगी, ना
राहुल गांधी और ना ही प्रियंका गांधी। एक देश के पूर्व गृहमंत्री और वित्तमंत्री सरीखे
शख्स को क्यों भागना पड़ा, क्यों सीबीआई से बच कर घंटों गुजारने पड़ गए, इसका जवाब तो
नहीं मिलनेवाला कांग्रेस से। किंतु कांग्रेस से यह पूछना भी बनता है कि क्या आपने
कोई नियम बनाया है कि जो निर्दोष होगा वह भागेगा?
इतने बड़े वकील रह
चुके हैं चिदंबरम, केंद्रीय गृहमंत्री रह चुके हैं, कांग्रेस के संकटमोचक के रूप में भी मशहूर हुए थे... तो फिर एक “संकटमोचक वकील” को यह क्यों करना पड़ गया यह सवाल ही मूल चर्चा की शुरुआत क्यों न हो?
कांग्रेस और आरोपी
पी चिदंबरम, दोनों कह रहे हैं कि मोदी सत्ता उन्हें बेवजह प्रताड़ित कर रही हैं। कांग्रेसी
सत्ता के समय अमित शाह भी यही चीज़ मीडिया के सामने कहा करते थे, लेकिन उसका ज़िक्र
आगे करेंगे। किंतु चिदंबरम और कांग्रेस का परिवार मोदी सत्ता को षडयंत्रकारी बताकर
खुद को पीड़ित बता रहा है। लेकिन ऐसे तमाम ‘राजनीतिक महाभारत’ में एक मूल सवाल होता
है जो यहां पर भी है। वो यह कि... पी चिदंबरम और उनके पुत्र कार्ति चिदंबरम, इन
दोनों को बिना किसी वजह के, बिना किसी एंगल के, बिना किसी भी हिंट के, कोई एजेंसी
कैसे प्रताड़ित कर सकती है? खास करके तब कि
जब पी चिदंबरम देश के मशहूर वकील हो। इतने बड़े वकील को कोई भी सरकारी एजेंसी यूं
ही, बिना किसी कोण के, प्रताड़ित कैसे कर सकती है? कांग्रेस की उस दलील से सहमत हो भी ले, जिसमें बदले की भावना वाला कोण था, तब
भी सवाल यही है कि किसी भी सत्ता को किसी से भी बदला लेना है तो क्या इतने बड़े शख्स
और इतने बड़े वकील को आसानी से दर-दर भटकने पर मजबूर किया जा सकता है?
कुछ दलीलें ठीक हैं जिसमें इंद्राणी मुखर्जी का बयान, उस बयान को सालों बाद एजेंसी द्वारा तवज्जो देना, नाटकीय ढंग
से निपटना, कार्रवाई की प्रक्रिया, चार्जशीट का न होना वगैरह वगैरह बातें कही गई।
कानून के जानकारों के कई सारे तर्क गौर करने लायक है उसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन इन
सब चीजों की वजह से मूल सवाल तथा मूल समस्या को क्यों छोड़ दे?
बदले वाली बात
थोड़ी देर मान भी लेते हैं तो यह ध्यान रखना होगा कि बदला किसी आम आदमी से नहीं लेना
है इस आरोप में, बल्कि देश के पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री-वित्तमंत्री, बड़े वकील और
वरिष्ठ व अनुभवी राजनेता से लेना है। इतने बड़े शख्स से किसी सत्ता को बदला लेना है
तो सामनेवाले की कोई कमज़ोरी होगी, कोई गलती होगी, कोई गलत-सलत छोटी-मोटी बात होगी,
उसके ऊपर राई का पहाड़ बनेगा। लेकिन राई तो होनी ही चाहिए न? इतने बड़े आदमी को यूं ही, बिना किसी वजह के रात को दीवार फांदकर कोई जांच
एजेंसी ऐसे ही पकड़ नहीं लेगी न? ठीक है कि परिवार
भविष्य में बाइज्ज़त बरी होगा... जैसे हर किसीका होता है, हर कोई होता है, किंतु देश
की इतनी सारी फिक्र करनेवाली कांग्रेस फिलहाल पीड़ित होने का ही अभिनय करेगी, सवाल
पूछेगी किंतु जवाब नहीं देगी।
बदले की राजनीति वाले आरोपों में दम हो तब भी चिदंबरम और कांग्रेस दोनों से सवाल
तो बनते ही हैं, वे जवाब नहीं देते तो फिर मान्यताएं या धारणाएं ही जवाब मानी जाएगी न?
अरे भाई... चलो
थोड़ी देर मान लेते हैं कि बदले की राजनीति वाले कांग्रेसी आरोपों में दम है, लेकिन
क्या इससे कांग्रेस और चिदंबरम, दोनों को किसी सवाल के जवाब ही नहीं देने होते? हमने ऊपर के पैरा में ही लिखा कि राई का पहाड़ बनाने के लिए भी राई तो थोड़ी काली होनी चाहिए न? खास करके राई जब
पूर्व वित्तमंत्री या गृहमंत्री सरीखा आदमी हो। अमित शाह और पी चिदंबरम, दोनों में तथाकथित आरोपियों और राजनीतिक दलीलों के बीच जो समानताएं थी वो आगे देख लेंगे।
फिलहाल तो अभी जो ताज़ा राई है वही तवे पर छिड़की जाएगी।
चिदंबरम ने कहा कि
लोग कह रहे हैं कि मैं कानून का सामना करने से भाग रहा हूं, लेकिन मैं कानून के साथ
हूं और मैं अपने वकीलों के साथ था, रातभर दस्तावेज तैयार कर रहा था। चिदंबरम की बात
माने तो वह अपने वकीलों के साथ थे। क्या उनके वकील कानून है? वह वकीलों के साथ थे या फिर कानून के साथ? कानून का साथ देना था तो फिर सीबीआई जैसी संस्था उन्हें दर-दर क्यों ढूंढ रही
थी? सीबीआई को चिदंबरम से पहला सवाल यही पूछना चाहिए कि भाई
हमने तो आपके हर संभवित ठिकाने तलाशे थे, लेकिन कानून को साथ देने का आपका पर्सनल
ठिकाना हम कानूनवालों को ही नहीं पता था। आप रातभर ऐसे कैसे कानून का साथ दे रहे थे?
चिदंबरम लगभग 24
घंटों तक गायब रहे। कानून को नहीं पता था कि वो कहां हैं, लेकिन चिदंबरम के हिसाब से
वह कानून का साथ दे रहे थे!!! वैसे शाह भी गायब
रहे थे, आज चिदंबरम गायब रहे। लाजमी है कि गायब रहने के पीछे वजह एक ही होती है –
निकलने-बचने के रास्ते खंगाले जाए या तैयार किए जाए। कानून को साथ देने का दावा
करनेवाले नेता इसी तरह से साथ देते है यह सबको पता है। चिदंबरम कह रहे है कि
उन्हें कानून का साथ देना है। यानी वह कानून से नहीं भाग रहे थे, कानून से नहीं डर
रहे थे। तो फिर डर किससे रहे है चिदंबरम? और क्यों? चिदंबरम के दिमाग में 9 साल पहले का
घटनाक्रम ज़रूर दौड़ा होगा। सियासी गलियारों में चर्चा तेज है कि चिदंबरम अमित शाह
से डर रहे हैं। क्योंकि कई जगहों पर कहा गया है कि अमित शाह अपने बारे में लिखी या
कही गई हर नेगेटिव खबर को संभ्हाल कर रखते है। अमित शाह अपने दुश्मनों को नहीं भूलते,
यह बात भी गुजरात के कटारलेखकों ने ही लिखी है। नेगेटिव खबर संभ्हाल कर रखनेवाले
शाह नेगेटिव टाइम और उसके दाता को विशेष रूप से याद रखेंगे यह डर चिदंबरम को है यह
सियासी गलियारों को पता है।
दो अलग अलग मामले, राजनीति और तथाकथित आरोपियों के बोल रहे एक समान, नतीजा
कितना भिन्न होगा वो किसी को नहीं पता
अमित शाह और पी चिदंबरम।
दोनों के मामले भले ही अलग रहे हो, लेकिन राजनीति और तथाकथित आरोपियों के बोल ऐसे,
जैसे कि किसीने कंट्रोल सी कंट्रोल वी कमांड दे दिया हो! 2010 में जब पी चिदंबरम गृह मंत्री थे तो अमित शाह की गिरफ़्तारी हुई थी और अब
2019 में जब अमित शाह गृह मंत्री हैं तो पी चिदंबरम की गिरफ़्तारी हुई है। दोनों की
गिरफ़्तारी, उससे पहले की घटनाएँ
और उनके आरोप क़रीब-क़रीब एक जैसे हैं। अपनी-अपनी गिरफ़्तारी से पहले दोनों ने प्रेस
कॉन्फ़्रेंस की थी। इनके आरोपों और भाषा में काफ़ी हद तक समानताएँ हैं।
जिस तरह से कांग्रेस
अभी राजनीतिक बदले की कार्रवाई किए जाने का आरोप लगा रही है उसी तरह से उस मामले
में आरोपी रहे अमित शाह भी 2010 में यही आरोप लगा रहे थे। जिस तरह से पी चिदंबरम की
गिरफ़्तारी के लिए एक दिन पहले तक ईडी-सीबीआई ढूंढते फिर रही थी उसी तरह से तब
2010 में अमित शाह की गिरफ़्तारी के लिए सीबीआई ढूंढते फिर रही थी। गिरफ़्तारी से पहले
अमित शाह ने बीजेपी ऑफ़िस में प्रेस कॉन्फ़्रेंस की थी। बिलकुल ऐसा ही चिदंबरम के मामले
में भी हुआ। सीबीआई चिदंबरम को ढूंढ रही थी, इसी बीच कांग्रेस मुख्यालय में उन्होंने
प्रेस कॉन्फ़्रेंस की।
पी चिदंबरम ने
उनके ऊपर लगे तमाम आरोपों को निराधार, झूठे और राजनीति से प्रेरित बताया। अमित शाह ने 2010 में अपनी प्रेस वार्ता में यही बोल बोले थे। चिदंबरम ने भाजपा सत्ता पर आरोप
मड़ा, शाह ने कांग्रेस की सत्ता पर आरोप मड़े थे। चिदंबरम ने सीबीआई से भागने पर
अपनी सफाई दी और कुछ शिकायतें की, शाह ने भी कुछ कुछ ऐसी ही शिकायतें की थी। चिदंबरम
ने अपने खिलाफ मामला, दर्ज शिकायतें, बयान, सीबीआई की कार्रवाई समेत कई मुद्दों पर
जो सफाई दी, ठीक ऐसी ही सफाई 9 साल पहले शाह भी दे चुके थे। चार्जशीट वाले मामले
पर दोनों अलग रहे। क्योंकि शाह के विरुद्ध चार्जशीट थी, चिदंबरम के खिलाफ अभी कोई
चार्जशीट नहीं है। लेकिन दोनों ने खुद को स्वच्छ बताया और संविधान में भरोसा वाली
ओल-टाइम हिट लाइन भी चिटका दी थी।
शाह और चिदंबरम,
दोनों ने अपने अपने मामलों में मीडिया के सामने जो कहा उसका निचोड़ यही था कि हम
निर्दोष हैं, हमें फंसाया जा रहा हैं, सत्ता का कराया हुआ है, राजनीतिक षडयंत्र है
वगैरह वगैरह। दोनों और दोनों की पार्टियां, इनके बयान और इनकी दलीलें भी कंट्रोल सी
कंट्रोल वी वाली हैं। लाजमी है कि दोनों के लठैत भी वही चीजें दोहरा रहे हैं। खैर,
अपनी सरकार बनने के बाद अमित शाह बाइज्ज़त बरी हो गए। भले उनका बरी होने का तरीका
विवादास्पद था, लेकिन शाह स्वच्छ होकर बाहर निकल गए। चिदंबरम का पता नहीं कि वो
स्वच्छ होकर बाहर निकलेंगे या फिर पहले से ही दागदार कांग्रेस को नया दाग लगा
जाएंगे। इसके लिए शाह की तरह स्वयं की सत्ता होनी चाहिए और जब तक मोदी-शाह है तब
तक राहुल-सोनिया-प्रियंका के लिए चिदंबरम का स्वच्छता अभियान करीब करीब नामुमकिन
है। ठीक है कि राजनीति में इम्पॉसिबल नहीं होता!!!
कांग्रेस और भाजपा - दोनों एक दूसरे की लाइनें उधार लेकर भारत में महाभारत खड़ा करते हैं?
जब अमित शाह फर्जी
मुठभेड़ मामले में फंसे तब भी राजनीति का यही हाल था, जो आज है। तब भी समर्थक और
विरोधी वैसे ही थे, जैसे आज है। तब भी मीडिया वैसे ही कार्यक्रम चलाता था, वैसी ही
लाइनें चिटकाता था, जैसा आज है। बदली है तो केवल एक ही चीज़ - किरदार। सिर्फ अमित शाह
और पी चिदंबरम के नहीं, बल्कि राजनीति-समर्थक-विरोधी-मीडिया समेत सारे किरदारों को
यहां नोट करें।
अन्ना आंदोलन को
याद करें। अन्ना का आंदोलन राजनीति से प्रेरित था, प्रयोजित था, स्वआंदोलन था, नहीं था... ये चर्चा खुद कर ले। किंतु अन्ना आंदोलन के समय सत्ता कांग्रेस की थी। उनके
तमाम मंत्री, चाहे कपिल सिब्बल हो, पी चिदंबरम हो, सलमान खुर्शीद हो, तमाम सत्ता
के अहंकार की चरम सीमा भोग रहे थे। दशकों तक सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस अन्ना को
तो देख रही थी, लेकिन आवाम को नहीं। कांग्रेस उस आंदोलन के पीछे छुपी हुई
जनआकांक्षा की पूर्ति को लेकर तथा विपक्षी रणनीति का सामना करने को लेकर सत प्रतिशत विफल रही। नेहरू काल का तो पता नहीं किंतु इंदिरा युग से लेकर मनमोहन के दौर तक, कांग्रेस को शायद जेपी आंदोलन तथा उसके
पश्चात इंदिरा जैसी शख्सियत का चुनाव में हारना याद नहीं रहा होगा। तभी तो उसी
कांग्रेस के राजकुमार अपनी पुश्तैनी सीट गंवा कर वायनाड चल दिए।
राजनीति के पंडितों का यह देश है। हम राजनीति के पंडित नहीं हैं। किंतु कांग्रेस ने भाजपा से विरोधनीति
नहीं सीखी, उधर भाजपा ने कांग्रेस से सत्तानीति ज़रूर सीख ली। आजाद भारत का
सर्वश्रेष्ठ विपक्ष आज सत्ता पर काबिज है, जिसने विरोध करते करते विरोधियों से ही
दिल्ली की राजनीतिक गलियों के रहस्यमयी जाल को बखूबी समझ लिया है।
वो दौर था जब अमित
शाह को फर्जी मुठभेड़ मामलों में कांग्रेसी सत्ता के दौरान फंसना पड़ा था। स्थानिक
मीडिया से लेकर राष्ट्रीय मीडिया उसी तरीके से अपने कार्यक्रमों को या लेखों को रंग
और रूप देता था, जैसा आज चिदंबरम को लेकर हो रहा है। अख़बारों में उसी प्रकार की
सुर्खियां होती थी। अमित शाह की पूछताछ, गिरफ्तारी, जेल में कटनेवाली प्रथम राति,
जेल का भोजन, अमित शाह की परेशानियां, अमित शाह को कितना पसीना आया, पसीना पोछते
अमित शाह, अमित शाह का गीला रुमाल, अमित शाह का डर से लेकर बहुत सारी चीजें लिखी
जाती थी, दिखाई जाती थी। सुर्खियों का रंग और रूप वैसा ही था, जैसा आज होता है।
कांग्रेसी सत्ता और उनके मंत्री, उनके नेता तथा उनके समर्थक, सारे उसी भाषा में बोल
रहे थे जैसे आज भाजपा के घर से बोल बाहर आ रहे हैं। उधर अमित शाह-फर्जी
मुठभेड़-सीबीआई वाले दौर में भाजपा और उनके नेता जिस प्रकार से बोलते थे, आज
कांग्रेस और उनके नेता बोल रहे हैं।
कहते हैं कि अमित
शाह अपने खिलाफ छपी हुई या दिखाई गई हर खबरों को कहीं संजोकर रखते है। अख़बारों की
कतरन समेत। मोदी चुनाव प्रचार के दौरान तमाम राज्यों में जाकर राज्य के चुनावी
प्रभारी को यही सवाल करते है कि पिछली बार मैं जब आया उसके दूसरे दिन अखबारों ने इसे
कितनी अहमियत दी थी, मेरे भाषण कहां छपे थे, प्रमुखता से छपे थे या कहीं कोने में।
कांग्रेसी नेताओं के बारे में भी यही कहानियां है यह नोट करे। दरअसल दोनों एक-दूसरे
से लाइनें उघार ले-लेकर खुद को विस्तृत करते हैं या जीवित रखते हैं। लोकतंत्र में राजनेता अपने मंत्र से लोगों का तंत्र हाईजैक करते रहते हैं।
अदालतों की सीबीआई के ऊपर टिप्पणी हमारे यहां चर्चा का मुद्दा क्यों नहीं बन पाती? राजनीति जब जी चाहे राई को पहाड़ बना देती है या फिर पहाड़ को राई!
वैसे अदालतों
के कुछ मामले भी ऐसे हैं जहां सवाल ज्यादा गंभीर है। अदालत में फलांना फलांना जगह पर
भ्रष्टाचार चल रहा है, फलांना फलांना जज भ्रष्टाचार कर रहे हैं, ये हो रहा है या वो
हो रहा है... ये सब कुछ जिस जज ने कहा, सबके सब अदालत के गुस्से का शिकार हो गए! किसी जज से
सत्ता छीन ली गई, किसीसे अधिकार छीन लिए गए, किसीको हटा दिया गया! किसी एक जज
के फैंसले को किसी दूसरों ने बदलकर लोकतंत्र के सामने कौन से नये पैमाने रखें यह भी
गंभीर सवाल है। इसके ऊपर हम अलग लेख में चर्चा करेंगे। फिलहाल इस लेख से जुड़ी चर्चा
को ही पटरी पर ले आते हैं।
सीबीआई पिंजरे में कैद तोते समान है। यह टिप्पणी किसी राजनीतिक मंच से नहीं आई थी, ना ही किसी लेखक या
शोधकर्ता ने कही थी। यह टिप्पणी देश की सर्वोच्च अदालत ने की थी। उस वक्त सत्ता में कांग्रेस थी। देखा जाए तो अदालत को सत्ता से मतलब नहीं हो सकता। उनकी टिप्पणी किसी
एक सरकार के लिए नहीं होती, बल्कि समस्या के तरफ होती है। अदालत ने लोकतंत्र को
समस्या से रुबरु करवाया। विपक्ष और समाज, दोनों को इस समस्या से निपटना था। विपक्ष
ने अपना काम बखूबी निभाया। इस टिप्पणी को राजनीतिक रूप से कई दफा भुनाया और लोगों से वादे भी किए कि सीबीआई को राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर ले जाया जाएगा, सीबीआई को
स्वतंत्रता दी जाएगी। सरकार बदली, लेकिन सीबीआई की शैली नहीं। राजनीति ने तो जो
करना था कर दिया, किंतु अदालत की तोते वाली टिप्पणी लोकतंत्र में जी रहे समाज के
लिए भी तो थी। समाज ने सरकार बदल दी, किंतु समस्या से निपटने का काम नहीं कर पाए।
फिर तो आज़ादी के
बाद सीबीआई जैसे महत्वपूर्ण संस्थान में एक दफा वो भी हो गया जो पिछले 70 सालों में नहीं हुआ था। आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना मामले में देश के राष्ट्रीय सुरक्षा
सलाहकार अजीत डोभाल से लेकर केंद्रीय मंत्री तक का नाम उछला। हम इसके ऊपर पहले एक
अलग लेख लिख चुके हैं, जिसे पढ़ने के लिए CBI vs CBI : क्या यह केवल सीबीआई का आंतरिक विवाद भर है? या फिर काजल की कोठरी के सार्वजनिक दर्शन का दौर है? पर क्लिक करें।
सीबीआई के इस
एतिहासिक विवाद को अदालत तक जाना था। लेकिन अजीब मंजर यह था कि उसी अदालत में कुछ
महीनों पहले वो हो गया था जिसने पिछले 70 सालों की सबसे चौंकानेवाली तस्वीर देश के
सामने रख दी थी। सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने देश में पहली दफा सार्वजनिक
प्रेस वार्ता करके तत्कालीन चीफ जस्टिस के खिलाफ आपत्तियां जाहिर की और देश को
बताया कि सर्वोच्च अदालत में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। सीबीआई और सुप्रीम कोर्ट,
देश के दो महत्वपूर्ण संस्थानों में घटी इन घटनाओं के ऊपर हमने एक लिख लिखा था, जिसे पढ़ने के लिए Supreme Court plus CBI : पिछले 70 सालों में जो नहीं हुआ वह हो गया, दो प्रमुख संस्थानों के ये दिन ‘अच्छे दिन’ तो बिल्कुल नहीं थे पर क्लिक करें।
सीबीआई को उसी
अदालत में जाना था, जहां अदालत के ही वरिष्ठ जजों के अनुसार घरेलू समस्या गंभीर थी!!! सीबीआई से जुड़ी एक दूसरी बात भी याद रखनी होगी। सीबीआई संवैधानिक संस्था है
वाला तर्क भी चलता रहता है, उधर सीबीआई तोता है वाला नारा (जो अदालत ने ही दिया
था) चलता रहता है। इस बीच एक मसला वो भी याद आता है जिसमें एक अदालत ने ही कहा था
कि सीबीआई गैरसंवैधानिक संस्थान है!!! सुप्रीम कोर्ट से सरकार को स्टे मिला और फिर सरकार बदल भी गई, स्टे वहीं का
वहीं है!!! सीबीआई संवैधानिक
है या नहीं इसका ही अता-पता नहीं है, फिर भी सब कुछ जस का तस चल रहा है!!!
लोकतंत्र को क्या
मिला पता नहीं। कांग्रेस के वक्त सीबीआई को कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन कहा
जाता था, बीजेपी के दौर में उसे बीबीआई यानी बीजेपी ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन का
तमगा मिला। लेकिन सबसे चौंकानेवाला समय तो तब आया जब सीबीआई के ही डीआईजी एमके सिंहा ने सीबीआई का नया नाम दिया – सेंटर फॉर बोगस इन्वेस्टिगेशन। सीबीआई विरुद्ध सीबीआई, कोलकाता
पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार और ममता बनर्जी वाला चैप्टर ताज़ा इतिहास ही है। दिल्ली
में आधी रात को सीबीआई मुख्यालय को घेर लिया गया था और कोलकाता में स्थानिक पुलिस
सीबीआई के अधिकारियों को पकड़ रही थी। सीबीआई नामका तोता... न जाने क्या क्या उस पर
बीता!!!
टूजी
मामले का अदालती फैंसला सीबीआई सरीखी एजेंसी से लेकर राजनीतिक सिस्टम पर गंभीर
सवालियां निशान था। लेकिन जज ने फैंसला देते समय जो व्यथा देश के सामने रखी थी उसे
देश गंभीरता से ले ही नहीं पाया। जज ने फैंसला देते समय कहा था कि “मैं यह भी जोड़ना चाहता हूं कि सभी कार्यदिवसों पर, जिसमें गर्मी की छुट्टियां भी
शामिल हैं, मैं ओपन कोर्ट में 10 से 5 बजे तक बैठता था। इंतज़ार करता था कि कोई ऐसा
सबूत लेकर आएगा जिसे कानूनी तौर पर स्वीकार किया जा सके। लेकिन कोई नहीं आया।” विशेष अदालत के जज की टिप्पणी में वो लफ्ज़... “कोई आएगा...”, “कोई नहीं आया...” ये वाकई अनगिनत
सवालों को खड़ा करने का मौका दे गए।
हाल ही में एयरसेल-मैक्सिस मामले में विशेष जज ओपी सैनी ने सीबीआई की तीखी आलोचना करते हुए कहा था कि यह एजेंसी एक ही मामले में अलग-अलग
अभियुक्तों के साथ अलग-अलग व्यवहार करती है, यह भेदभावपूर्ण व्यवहार है, इस तरह का भेदभावपूर्ण व्यवहार
संविधान का उल्लंघन है। (वैसे यहां यह भी दिमाग में रखे कि एक विशेष जज
कहता है कि यह व्यवहार संविधान का उल्लंघन है, लेकिन इससे फर्क नहीं पड़ता। उधर आप
गलती से ट्रैफिक सिग्नल तोड़ देंगे तो उस नियम का उल्लंघन बहुत गंभीर माना जाएगा!) ओपी सैनी ने चिदंबरम और दयानिधि मारन मामले की तुलना करते हुए यह बात कही थी।
दरअसल मारन को गिरफ्तार नहीं किया गया था, जबकि विशेष जज के मुताबिक उनका घोटाला इस
घोटाले से बड़ा था। कांग्रेस के समय तोते वाली टिप्पणी के बाद सीबीआई के ही डीजी ने
इसे सेंटर फॉर बोगस इन्वेस्टिगेशन नाम दिया। विशेष अदालत ने कहा कि सीबीआई की शैली
संविधान का उल्लंघन है। चीफ जस्टिस ने इशारों इशारों में कहा कि सीबीआई अराजनीतिक
मामलों में बढ़िया काम कर जाती है। शायद लोकतंत्र को इंतज़ार है कि कोई दूसरा जज
दोबारा सीबीआई को तोता बोल दे, क्योंकि इशारों वाली भाषा लोकतंत्र को समझ नहीं आती
होगी!
सीबीआई को
जिस दहलीज तक जाना है उस जगह, यानी सर्वोच्च अदालत में ही सब कुछ ठीक नहीं है यह बात
अदालत के ही वरिष्ठ जज सरेआम कह चुके थे। चीफ जस्टिस सरीखे ओह्दे वाले भी कह चुके कि कुछ नहीं किया गया तो संस्थान की स्वतंत्रता खतरे में है। लेकिन जहां धर्म खतरे में हो वहां संस्थान-वंस्थान के खतरे को कौन देखेगा भला? उधर एक चीफ जस्टिस के खिलाफ ही किसी महिला ने
मोर्चा खोल दिया और विवादास्पद ढंग से इसका निपटारा भी हो गया!
कांग्रेस का
समय हो या बीजेपी का दौर हो, सीबीआई के ऊपर अदालत अपनी सख्त टिप्पणियां देती हैं,
जब उसे मामला हद से पार जाता लगता हो। देश का सबसे बढ़िया विपक्ष आज सत्ता में है,
लिहाजा अदालत की टिप्पणियां लोकतंत्र के दिमाग में उतारने का काम कोई राजनीतिक दल
नहीं कर पाता। लेकिन इससे एक सवाल यह भी उठता है कि हम खुद को आधुनिक भारत कहते हैं,
विश्वगुरु का तमगा पहने घूमते हैं, फिर भी हमारा लोकतंत्र किसी राजनीतिक दल की
मेहनत के बाद ही चीजें अपने दिमाग में उतारता हैं? खुद नहीं कर पाता? तो फिर इस
आधुनिकता और इस गुरुपंति को लोकतंत्र के कौन से स्तर पर गिना जाए?
कानून में कितनी ताकत होती है वो अमित शाह और पी चिदंबरम सरीखे किस्से बताते
हैं, लेकिन फिर भी कानून सदैव अपाहिज और कमजोर क्यों दिखता है?
कानून हो या
अदालतें हो, व्याप्त भ्रष्टाचार और गंभीर गोरखधंधों की कई कहानियां आती रहती हैं।
लेकिन कुछ मामलों में ये संस्थान ऐसा काम कर जाते हैं कि लगता है कि इनमें इतनी भी
ताकत होती है क्या?
पूर्व में अमित शाह
जैसा बड़ा नेता, हाल में पी चिदंबरम जैसा बड़ा नाम, सबके मामले में एक चीज़ कॉमन दिखी।
वो यह कि कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो, आखिर कोई एजेंसी चाहे तो उन्हें घुटने टेकने
पर मजबूर कर सकती है। पुलिस हो या कोई जांच एजेंसी हो, कोई भी किसी भी बड़े नेता को
घर से उठाकर जेल तक पटक सकते हैं। लेकिन कब? कानून में कितनी ताकत होती है वो अमित शाह और पी चिदंबरम सरीखे किस्से बताते
हैं, लेकिन फिर भी कानून सदैव अपाहिज और कमजोर क्यों दिखता है? ऐसा क्यों है कि सीबीआई राजनीतिक मामलों में सदैव सरकारी तोता बनकर उभरता है? इस देश की सर्वोच्च अदालत के चीफ जस्टिस ने ही हाल में टिप्पणी कर दी थी कि
सीबीआई अराजनीतिक मामलों में बढ़िया काम कर जाती है। उनकी इस टिप्पणी का अर्थ क्या
निकलता है वो मैट्रिक पास आदमी तक समझ सकता है। यही सीबीआई कभी इतनी ताकतवर बनती
है कि किसी भी शहर के पुलिस कमिश्नर तो क्या, किसी भी राज्य के गृहमंत्री तक को
दबोच लेती है। कभी इतनी कमजोर दिखती है कि समूचा देश सालों तक किसी घोटाले पर
अध्ययन और सबूतों व तथ्यों का ज़िक्र करता रहता है और अदालत अंत में लाचार होकर कह
देती है कि सीबीआई सबूत पेश नहीं कर पाई।
कानून या कानून से
जुड़ी एजेंसियां सरकारी तोते बनकर काम करते हैं यह आरोप हर किसीने एक-दूसरे पर लगाए
हैं। पहले भाजपा लगाती थी यह आरोप, अब कांग्रेस लगा रही है। राज्यों में भी यही चलता
रहता हैं। हद तो तब हो गई थी जब सीबीआई सरीखी संस्था के दो ताकतवर अधिकारियों ने
एकदूसरे पर खुलकर गंभीर इल्ज़ाम लगाए थे। क्या हुआ ऊसका क्या पता? कानून के हाथ लंबे होते हैं, एजेंसियों के पैर भी लंबे होते होंगे, लेकिन पूरा
शरीर कभी इतना बीमार दिखता है कि लगता है कि एजेंसी ऑपरेशन टेबल पर लिटाए गए मरीज़ सरीखी है, तो कभी एकदम तंदुरस्त दिखती है जैसे कोई आदमी योग के बाद तमाम शारीरिक
दिक्कतों को दूर कर तरोताज़ा हो चुका हो!!!
क्या हमारे देश में राजनीति जब मर्जी हो तब आसानी से बड़े बड़े महाभारत खड़ा करती
रहती है?
सियासत में कब कौन
ताकतवर होगा, कौन कमजोर यह कोई वरिष्ठ और अतिज्ञानी ज्ञाता भी नहीं बता सकता।
क्योंकि आम जिंदगी में ग्रह वगैरह की चालें लोगों को परेशान करती होगी, राजनीति में तो
नेता ग्रहों को ही परेशान कर जाते हैं!!! हमारे यहां नेहरू हो या मोदी हो, इन सबके काल में तथा इन सबके बीच के समय में,
देश ने कई ऐसी चीजें देखी जिसमें बड़े बड़े सियासतदान को ऐसे ऐसे दिन देखने पड़ गए,
जिसकी उसने कल्पना तक नहीं की होगी। कहते हैं कि राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता।
इसका मतलब यह भी है कि सत्ता भी नहीं और सत्ता से मिलनेवाली ताकत भी नहीं।
हमने टूजी
स्पेक्ट्रम घोटाले के चौंकानेवाले अदालती फैंसले के बाद एक आर्टिकल में टूजी
स्पेक्ट्रम स्कैम से लेकर गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री अमित शाह, शोहराबुद्दीन
फर्जी मुठभेड़ मामला और तत्कालीन कांग्रेस सरकार की राजनीति को लेकर एक पैरा में ऐसे
ही मसलों को उठाया था। टूजी-टूजी में देश इतना व्यस्त हो गया कि अदालत को सबूत
पहुंचाने का काम ही सब भूल गए!!! उस आर्टिकल में एक
पैरा था, जो कुछ यूं था – “अब मनमोहन सिंह से
तथा कांग्रेस से सवाल पूछा जा सकता है कि क्या महज एक राजनीतिक प्रोपेगेंडा के
चलते इतनी सारी कानूनी माथापच्ची हो सकती है? क्या महज बदनाम करने की साजिश से इतने बड़े मंत्रियों व उद्योगपतियों को सालों तक जेल में ठूंसा जा सकता हैं? ठीक है कि सबूतों के अभाव में कोर्ट ने फैंसला सुनाया था। वो (कांग्रेस) इसे भाजपा का खेल बता रहे थे
और उस खेल को झूठा भी बता रहे थे, लेकिन आम नागिरक के रूप में शायद सभी को पता है
कि अदालती प्रक्रिया किन अंदरुनी खेलों के चलते फैंसले को बनाती या बिगाड़ती है।
कांग्रेस को लगे हाथ साफ कर लेना चाहिए कि ये सारा खेल झूठा था तो फिर झूठ की
बुनियाद पर यहां बड़े बड़े मंत्री और उद्योगपतियों को इतनी आसानी से जेल के भीतर कैसे
रखा जा सकता है? अमित शाह गुजरात के गृहमंत्री थे। यूपीए
के दौर में एक राज्य के गृहमंत्री तक को सीबीआई ने उठा लिया था। फिर वो बरी हो गये।
सीबीआई ने कहा कि अपील करेंगे। बरी होने के 3 साल बाद भी सीबीआई अपील करना गलती से
भूल गई होगी! लेकिन क्या अमित शाह
बरी हो गये तो ये कांग्रेस का महज़ झूठा खेल था? क्या एक सूबे के गृहमंत्री सरीखे आदमी को बिना किसी वजह के तड़ीपार तक किया जा
सकता था? कुछ दूसरी चीजें मैंने मिला दी इसमें।
लेकिन सारी चीजें देखे तो... ताली एक हाथ से नहीं बजती ये मैट्रिक पास तक आदमी को
पता होता है। घोटाले का फैंसला कांग्रेस के लिए छाती फूलाने का अवसर ज़रूर था,
बिलकुल वैसे जैसे शोहराबुद्दीन को लेकर अमित शाह के पक्ष में दिये गये फैंसले के
वक्त था। लेकिन फिर तो मूल सवाल यही है कि क्या इस देश में इतनी आसानी से इतने बड़े बड़े महाभारत खड़े किये जा सकते हैं? क्या यह सब इतना
आसान है? भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय
राजनीतिक दलों के पास इसके सीधे, सटीक और सही के करीब उत्तर हो ये नामुमकिन सी चीज़ है।”
उस आर्टिकल के समय
भी और आज भी, हमने ऐसे मसलों के बारे में लिखा था, जो जोर-जोश से उठते हैं, राजनीतिक
बवंडर उठ खड़े होते हैं, लोग और समर्थक फेफड़े फाड़ लेते हैं और फिर मसले कहीं पर ठिठूर
कर चद्दर तान के सो जाते हैं। पुरातन काल में महाभारत तो एक ही हुआ था, लेकिन आज के
भारत में महाभारत तो अनेकों बार होते रहते हैं। कांग्रेस सत्ता ने एक राजनीति बहुत बार
खेली। वो यह थी कि अदालती फैंसला मायने नहीं रखता, बस विरोधी को अदालत तक घसीट कर
ले जाना ही मायने रखता है। कांग्रेस ने भारत के नागरिकों की उस मानसिकता तो
भली-भांति समझ लिया था, जहां हम नागरिक घोटाले के फैंसलों का इंतज़ार नहीं करते। किसी
कथित अपराधी को अदालत सज़ा दे उससे पहले ही उसे सामाजिक और राजनीतिक रूप से सज़ा की
यातना देने का काम कांग्रेसी सत्ता ने बहुत बार किया। भाजपा के पास भारत में सत्ता
पर काबिज रहकर काम करने के साल कांग्रेसी सत्ता की तुलना में कम आये, किंतु भाजपा
ने यकीन दिलाया कि कांगेस कभी नहीं जाती, जिसे सत्ता मिलेगी वही कांग्रेस बन जाएगी! राजनीति ने वो परम सत्य बहुत बार लागू किया। सत्य यह कि आप किसीको भी अदालत
की दहलीज पर पहुंचाकर ही वो नुकसान करवा सकते हैं, जितना अदालत उसे सज़ा दे तब भी
नहीं होता।
सत्ता कोई भी हो,
यह ट्रेंड स्थायी रहा। बहरहाल हम लौटते है अमित शाह और पी चिदंबरम तथा भारतीय
राजनीति और राजनीति की पुनरावर्तित कार्यशैली पर। अमित शाह पर किसी की हत्या का
आरोप लगा था। तब वह एक राज्य के गृहमंत्री थे। राज्य स्तर पर उन दिनों अमित शाह
कदावर नेता माने जाते थे। उस राज्य के, जो भारत के अग्रीम राज्यों की पंक्ति में
शुमार होता है। समय समय बलवान, नहीं मनुष्य बलवान, काबे काबो लूंटियो, वही धनुष वही बाण। कांग्रेसी
सत्ता को कहां पता था कि जिस शख्स को वे किसी राज्य से तड़ीपार करवा रहे है (या फिर
उनकी सत्ता के दौरान विरोधी दल का बड़ा नेता किसी राज्य से तड़ीपार हो रहा है) वह आगे चलकर समूचे भारत में कांग्रेस के लिए राजनीतिक जमीन का एक-एक हिस्सा खत्म कर
देगा। कांग्रेसी सत्ता को अंदाजा भी कहां से होगा कि जिस राज्य में वे आक्रामक होकर
धावा बोल रहे हैं उसी राज्य से एक ऐसा शख्स उनके सामने खड़ा होगा जिसके खिलाफ
कांग्रेसी राजनीति और कांग्रेसी इतिहास के दिग्गज समेत सारी चीजें शून्य सी हो
जानेवाली हैं। कांग्रेसी सत्ता को कल्पना तक में नहीं होगा कि इसी राज्य से दो
राजनीतिक शख्स भारत की केंद्रीय राजनीति में बवंडर की तरह छा जानेवाले हैं।
नरेन्द्र मोदी और
अमित शाह की जोड़ी के आगे आज कांग्रेस का इतिहास और वर्तमान दोनों अपने बेचारे
भविष्य की तरफ नजरें गाड़ कर मुश्किल से सांसें लेते नजर आ रहे हैं। समय बलवान है। हो
सकता है कि समय का चक्र कोई दूसरा रंग भी दिखा जाए। लेकिन आज का समयचक्र केवल अमित
शाह और पी चिदंबरम की कहानी को लेकर सीमित नहीं है। वो चक्र अपनी धारा में कई नई
चीजें बहाकर लाया है, कई पुरानी चीजें बहाकर ले भी गया है।
उस चर्चा का कोई
अर्थ नहीं रहा जिसमें सीबीआई को सत्ता की चंगुल से छुड़ाने की बातें होती थी या फिर
हो रही हैं। सीबीआई के बारे में 2014 से पहले भाजपा जो बोला करती थी, आज वही चीजें कांग्रेस बोलती है। उन दिनों कांग्रेस जिस तरह से दलीलें देती थी, आज भाजपा दे रही
है। हमारे आज के भारत में इस प्रकार की नौटंकियां अरसे से चलती है, चलती रहेगी।
क्योंकि जैसे लोग, वैसा लोकतंत्र।
अमित शाह दोषी थे
और दोषी हैं, यह भाजपाई विरोधी मानते थे और मानते हैं। उसी प्रकार चिदंबरम दोषी हैं और दोषी रहेंगे, यह कांग्रेस विरोधी मानते हैं और मानते रहेंगे। आज का भारत
मान्यताओं का भारत है। भारत की राजनीति इसी प्रकार की मान्यताओं की वजह से अपने
यौवनकाल को बरकरार रखने में सफल है। मान्यताओं को पैदा करना तथा मान्यताओं को स्थायी
करना उस यौवनकाल का प्रमुख कार्य रहा है। जैसे कि परम उत्तरदायित्व सा हो।
(इंडिया इनसाइड,
एम वाला)