पार्ट 1...
पहली सीधी सी बात। बात यह कि ऐसी महामारियों के दौरान कोई भी
विकासशील देश हो, उसके पास सही और सटीक आँकड़े हो यह तत्काल मुमकिन नहीं है। विकासशील
देशों के पास ऐसा कोई रेडीमेड ढाँचा होता ही नहीं है, जिससे वह किसी महामारी के दौरान मरीजों के अलग अलग सटीक आँकड़े
इक्ठ्ठा कर सकें। यह बिल्कुल सीधा सा सच है।
जितने भी पढ़े लिखे लोग यह मानते हैं कि भारत में रोजाना दर्शाए
जाने वाले आँकड़े सटीक हैं, उन्हें बता दें कि टीबी और मलेरिया के मरीज़ों तक के सही आँकड़े हमारे यहाँ मिलना
मुश्किल बताया जाता है। इसके पीछे जो वजहें हैं, वह किसी एक सरकार से नहीं बल्कि तमाम सरकारों और हमारी व्यवस्था
से जुड़ी हुई वजहें हैं। सोचिए, ऐसी बीमारी के मरीजों के सही आँकड़ों की व्यवस्था का ठोस ढाँचा हमारे पास नहीं
है तो फिर ऐसे सुपर वायरस के मरीजों का सही आँकड़ा ऊंच नीच होगा ही होगा। जो आँकड़ा
बताया गया उससे यह कितना गुना बड़ा होगा उसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।
भारत जैसे विकासशील देशों के साथ ऊपर वाली जो समस्या है उसके
साथ जुड़ी हुई दूसरी समस्या है सरकारों की शैली। हमेशा आरोप लगते रहते हैं कि कई हादसों
में, कई प्राकृतिक आपदाओं में, सरकारें हताहतों की संख्या कम करके दिखाती हैं। पुराने पन्ने
पलट लीजिए हमारे देश के, प्राकृतिक आपदाएँ हो, मानव सर्जित विपदाएँ हो, अचानक से हो जाने वाली व्यापक स्तर की दुर्धटनाएँ हो, नवजात शिशुओं की मौतों के सालाना मामले हो, कुछ भी हो, हमारे यहाँ आँकड़े रहस्यमयी ही होते हैं!!! वायरस आगमन से पहले की घटनाओं में भी देश में यही हाल रहा है।
तत्कालीन मोदी सरकार दूसरी सरकारों से किसी प्रकार से अलग नहीं है। यूं कह लीजिए कि
वह पूर्व सरकारों से भी ज्यादा ढीठ है! डाटा को लेकर यह सरकार जितने विवाद उत्पन्न कर चुकी है, पिछले सालों में इसके ऐसे उदाहरण नहीं मिलेंगे आपको। आँकड़ों
में हेरफेर, डाटा में गड़बड़ी, यह मोदी सरकार के साथ फेविकोल से जुड़ा हुआ गुण है! उसने अपने शासनकाल में उस ढाँचे को लेकर कोई सुधारात्मक प्रगति नहीं की है। वह
‘दूसरी चीजों’ में ही उलझी रहती आई है और उलजाए रखती आई है!
निर्विवाद तथ्य है कि भारत में स्वास्थ्य का ढाँचा उतना बेहतर नहीं है। यहाँ यह भी नोट करना ज़रूरी है कि भारत के मेडिकल उद्योग का लोहा दुनिया भी मानती है। भारत में आजादी से पहले और आजादी के बाद भी हेल्थ बिज़नेस और टीकाकरण के मामलों में दुनिया में बेहतर उदाहरण ज़रूर पेश हुए हैं। लेकिन दुखद विसंगतता यह है कि स्वास्थ्य उद्योग और टीकाकरण जैसी चीजों में दुनिया में अद्भुत उदाहरण पेश करने वाला भारत अपने स्वास्थ्य का ढाँचा बेहतर नहीं कर पाया है!!!
नारों और चकाचौंध वाला भारत सचमुच भारत और इंडिया, जैसे दो नजरिए से देखा समझा जाता है! तकलीफदेह ज़रूर है यह सच्चाई, लेकिन मुँह फाड़े खड़ी हुई है अभी! चांद पर पहुंचने का कारनामा करके दुनिया को अचंभे में डालने
वाले भारत में ही दाना मांझी सैकड़ों किलोमीटर तक अपनी बीवी की लाश कंधे पर ढोकर चल
पड़ा था! इशारा यह है कि हम हमारे ही देश के कई इलाकों तक वह स्वास्थ्य सुविधा पहुंचा नहीं
पाए हैं, जो मल्टी स्पेशल फाइव या सेवन स्टार अस्पतालों में कुछ शहरों में है। आज भी हमारे
यहाँ कई गाँवों में आम बुखार तक के इलाज के लिए नागरिकों को दूर दूर तक जाना पड़ता
है। हमें यहाँ बात हमारे स्वास्थ्य ढाँचे की नहीं करनी है, किंतु जिस कोण तक पहुंचना है, उम्मीद है कि आप उस कोण को समझ-देख रहें होंगे।
हमारे यहाँ ऐसे अनेक इलाके हैं जहाँ मेडिकल सुविधाएं न के बराबर है! वहाँ मूलभूत सुविधाएं ही
नहीं है, मेडिकल सुविधाएं कैसे होगी भला? यह तर्क आजकल बहुत चल रहा
है कि जो पिछड़े इलाके हैं, गरीब बस्तियाँ हैं, वहाँ कोरोना ने कहर नहीं ढाया। कहा जा रहा है कि एयर कंडीशनर बंगलो वाले बीमार
हैं, झोपड़ी वाले चुस्त दुरुस्त और तंदुरस्त हैं। इसके पीछे तर्क दिया जाता है रोग प्रतिकारक
शक्ति और जीवन शैली का। यह तर्क अपने आप में सही है। इससे कोई इनकार नहीं है। जीवन
शैली, जिसमें शारीरिक श्रम और भोजन, दोनों आते हैं, कई बीमारियों से रक्षा करती है। यह वैज्ञानिक रूप से भी सिद्ध तथ्य है। देशी भाषा
में कहा जाता है कि पसीना जिसका बहता है वही बीमारी से दूर रहता है, एयर कंडीशनर वाले अपने शरीर में सैकड़ों बीमारियां लिए जीते हैं।
ऊपर वाली तमाम बातें सही हैं। तमाम तथ्य सही हैं। सही है कि बीमारी तो क्या, वायरस के सामने भी वह शरीर लड़ सकता है, जो मेहनतकश होता है। किंतु हमें भूलना नहीं
चाहिए कि हम संक्रमितों का पता लगाने की बात कर रहे हैं। बीमारी या वायरस, यह अलग चीज़ है और सुपर वायरस अलग चीज़ है। जिन इलाकों को वायरस मुक्त बताकर आश्चर्य
प्रकट किया जाता है, वहाँ टेस्टिंग और ट्रेसिंग के क्या हालात है यह देखना भी ज़रूरी है। छोटी सी बीमारी
को लेकर चकाचौंध वाली अस्पतालों में जाने वाले साधन संपन्न लोग ही होते हैं, गरीब तो गंभीर बीमारी से भी लड़ने को मजबूर होता है। मजबूरी बीमारी के साथ जीना
सिखाती है।
आज की स्थिति में वैज्ञानिक बताते हैं कि कोरोना का डेथ रेट स्वाइन फ्लू की तुलना
में कम है, किंतु स्वाइन फ्लू की तुलना में इंफेक्शन रेशियो ज्यादा है। उधर भारत के सामने
उसकी जनसंख्या और कमजोर स्वास्थ्य सेवाओं की सच्चाई भी खड़ी है। मारक क्षमता भले कम
हो, किंतु संक्रमण की ताक़त ज्यादा है। ऐसे में एट द एंड, मौतों के आँकड़े बढ़ेंगे ही। तब डेथ रेट कोई नहीं देखेगा। वह आँकड़ा ही दिखेगा।
आँकड़ा ही सरकारों के लिए, दुनिया की तमाम सरकारों के लिए, प्रथम, यूं कहे कि सर्वप्रथम रास्ता है। दोनों चीजों
का रास्ता! अच्छा करने का भी रास्ता और बुरी चीजों को छिपाने का भी रास्ता! भारत और दुनिया में दूसरे
देश भी आँकड़े को कम करके दिखा रहे हैं वाली धारणा चलने लगी है।
आँकड़े कम करके दिखाना तो दूसरी बात है। पहली बात यह कि जब आपके
पास सही में सही आँकड़ा नहीं होगा तब आप खुद को ज्यादा जोखिम की तरफ ले जाएँगे। गरीब
बस्तियों में लोग अपनी जीवन शैली के चलते कोरोना से सुरक्षित हैं वाला तर्क कुछ हद
तक सही है। किंतु वहाँ टेस्टिंग का क्या हाल है, ट्रेसिंग को लेकर क्या स्थिति है, यह रिसर्च भी ज़रूरी है। वायरस से कौन संक्रमित है, यह प्राथमिकता
है।
हम प्राथमिकताओं को छोड़ प्रथम समस्या को ही गौरव बना देते हैं!!! भारत की एक छोटी सी लड़की साइकिल पर अपने पिता को सैकड़ों किलोमीटर तक ले जाए, यह बात गौरव नहीं है, शर्म है। उस लड़की के सामने ऐसी परिस्थिति आई ही क्यों, यही तो प्राथमिकता है। गरीब बस्तियों में कोरोना नहीं है वाला तर्क टेस्टिंग और
ट्रेसिंग के सटीक रिसर्च के बाद ही खड़ा रह सकता है। वर्ना... दिल बहलाने के लिए साइकिल
का भी ख्याल अच्छा है ग़ालिब!
Corona in India : दिया तले ही अंधेरा! आख़िर सूचना और ज्ञान का इतना अकाल क्यों है?
मीडिया की असीम कृपा के चलते हिंदू मुस्लिम के टॉपिक पर लड़ रही प्रजा को पता नहीं
चल पाया कि डब्ल्यूएचओ ने कोरोना संक्रमण रोकने के उपायों पर भारत की आलोचना की थी।
कहा था कि कहीं कहीं से किसी आदमी कै सैंपल लेने (रैंडम सैंपलिंग) से पूरे समुदाय में
फैलने वाले संक्रमण का पता नहीं चल सकेगा। भारत सरकार की शुरुआती नीति वाक़ई चौंकाने
वाली थी। भारत सरकार ने कहा था कि फिलहाल हर किसी की जाँच की ज़रूरत नहीं है! यह बोलकर भारत रैंडम सैंपलिंग
पर चल पड़ा! डब्ल्यूएचओ ने चेता दिया कि रैंडम सैंपलिंग कोरोना जैसी महामारी के खिलाफ कारगर
नहीं है।
डब्ल्यूएचओ की क्षेत्रीय निदेशक पूनम खेत्रपाल सिंह ने साफ साफ कहा कि समुदाय में
फैलने वाले संक्रमण को रैंडम सैंपलिंग से नहीं रोका जा सकता, इसके लिए एक समग्र रणनीति की ज़रूरत है, जाँच बढ़ाई जानी चाहिए, सांस से जुड़े दूसरे कई मामलों की भी जाँच होनी चाहिए।
यानी भारत में जाँच पूर्णतया नहीं हो रही थी! रैंडम सैंपलिंग का मतलब थोड़ा बहुत समझ तो आता ही है सभी को।
गरीब बस्तियों में जाँच वाच हुई या नहीं, सही सही तथ्य कोई नहीं जानता! जब ‘इंडिया’ में जाँच का ठिकाना नहीं, तो ‘भारत’ में कहाँ से हुई होगी?! है न?
भारत में निजी प्रयोगशालाओं को जोड़ा ही नहीं जा रहा था शुरुआती लड़ाई में! जबकि डब्ल्यूएचओ की क्षेत्रीय
निदेशक ने यह सुझाव भी दिया था। डब्ल्यूएचओ ने कहा कि ज्यादा से ज़्यादा जाँच होनी
चाहिए। उधर भारत ने समुदाय में संक्रमण फैलने से रोकने के लिए 52 प्रयोगशालाओं से 1000
सैंपल लिए! इसमें उन लोगों के सैंपल भी थे, जो कभी विदेश नहीं गए या विदेश गए किसी आदमी
के संपर्क में नहीं आए! पर इन लोगों में सांस से जुड़ी समस्याएं, मसलन न्यूमोनिया और
इनफ्लुएन्ज़ा के लक्षण पाए गए। आईसीएमआर ने 500 सैंपल को नेगेटिव पाया। यानी उनमें
संक्रमण के लक्षण नहीं थे। पर बाकी के 500 सैंपल के नतीजे आने में काफी देर हुई।
डब्ल्यूएचओ ने साफ साफ कहा कि लॉकडाउन पर्याप्त नहीं है, वह कोई उपाय नहीं है, ज्यादा से ज्यादा जाँच करें, संक्रमित लोगों को ढूंढे और इलाज करें। लॉकडाउन को लेकर डब्ल्यूएचओ
ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह कोई उपाय नहीं है। डब्ल्यूएचओ के प्रमुख टेड्रोस अधानोम
ने कहा कि ऐसे मामलों को ढूँढना, अलग-थलग करना, जाँच करना और इसका निशान
पता करना ही सबसे बढ़िया और सबसे तेज़ तरीक़ा है। न सिर्फ़ बेहद सामाजिक आर्थिक पाबंदियों
से बचने के लिए, बल्कि इसे फैलने से रोकने
के लिए भी।
डब्ल्यूएचओ का यह संदेश उन राष्ट्रों के लिए नसीहत थी, जो लॉकडाउन पर ही निर्भर थे, दूसरे उपायों पर ज्यादा ज़ोर नहीं दे रहे
थें। भारत भी उन राष्ट्रों में शुमार है! लॉकडाउन के चलते जो समय मिला उसका सही इस्तेमाल नहीं कर रहे
देशों में भारत भी शामिल था और है भी!
डब्ल्यूएचओ हो, विशेषज्ञ हो, महामारी पर रिसर्च करने वाले हो, सभी कोरोना से लड़ने का पहला तरीका बताते हैं
– टेस्टिंग, टेस्टिंग और टेस्टिंग। हमारा हाल टेस्टिंग
को लेकर क्या है? दुनिया के कई देश अपने यहाँ अपने नागरिकों का टेस्टिंग कर रहे थे, हम तब भी टेस्टिंग किट के टेस्ट में ही अटके हुए थे! वहाँ भी हमने बिज़नेस शुरू
कर दिया।
टेस्टिंग किट्स को लेकर हमारे यहाँ बहुत सारी चीजें हुई। किट्स को लेकर बवाल
हुआ। किट्स के दाम को लेकर एक अदालत को आदेश देना पड़ा। किट्स वापस गई। फिर दूसरी
किट्स की खरीदी का काम हुआ। बहुत चीजें होती रही।
निर्विवाद तथ्य है कि भारत में स्वास्थ्य का ढाँचा उतना बेहतर नहीं है। यहाँ यह भी नोट करना ज़रूरी है कि भारत के मेडिकल उद्योग का लोहा दुनिया भी मानती है। भारत में आजादी से पहले और आजादी के बाद भी हेल्थ बिज़नेस और टीकाकरण के मामलों में दुनिया में बेहतर उदाहरण ज़रूर पेश हुए हैं। लेकिन दुखद विसंगतता यह है कि स्वास्थ्य उद्योग और टीकाकरण जैसी चीजों में दुनिया में अद्भुत उदाहरण पेश करने वाला भारत अपने स्वास्थ्य का ढाँचा बेहतर नहीं कर पाया है!!!
किंतु यह तमाम चीजें, तमाम तथ्य, ‘नागरिकों’ के लिए ही काम के हैं, ‘प्रजा’ के लिए नहीं। प्रजा तो
अब भी मस्त है! कम मरीज़, कम संक्रमण के ऊपर गौरव कर रही है। जमकर अलग अलग प्रकार के जश्न मनाने के बाद, थाली - ताली - दिया - बाती - फूल - बिजली गूल और हिंदू मुसलमान जैसी
अत्यंत जीवन निर्वाह ज़रूरी बातों में डूबकर कोरोना से लड़ रही है! अंग्रेजी नारे कोरोना को
भगा रहे हैं! पापड़ से इलाज़ चल रहा है! साउंड वाइब्रेशन से हम कोरोना को मार रहे हैँ! मशाल से उसे जला रहे हैं! साबुन और पेय पदार्थों
से उसे नेस्तनाबूद कर रहे हैं! बचा खुचा काम बाबाजी कर रहे हैँ! कोरोना को मारने वाली टैबलेट
लेकर आते रहते हैं, जाते रहते हैं!
Patanjali Coronil & Ramdev : नेताजी पापड़ से इलाज कर सकते हैं, तो फिर बाबाजी टैबलेट से क्यों नहीं कर सकते!!!
हमारी ऐसी मानसिकता हमें विश्वगुरु बनाएगी। ऐसी व्यापक मानसिकता
को मैं तो मेरे बचपन से महसूस करता आया हूँ। आतंकी हमले होते थे और 2-5 लोगों की जान
जाती थी तब देश स्तब्ध हो जाया करता था। अब 20-50 जानें नहीं जाती तब तक ना उसे हेडलाइन
मिलती है और ना ही लोगों की धड़कनें बढ़ती हैं! 20-50 लाख की गड़बड़ी को स्कैम माना करता था भारत, अब करोड़ों के घोटाले पचा जाते हैं लोग! किसी भी धर्म का कोई प्रतिनिधि छोटा मोटा असामाजिक काम कर दें तो बेचेन होने वाला
समाज अब धार्मिक प्रतिनिधियों के गंभीर अपराध पर भी ढीठ सा रहता है! बस ऐसे ही... कोरोना हमें क्या डराएगा? जितना उसका प्रभाव बढ़ता जाएगा, हमारी ढीठता का स्तर हम भी बढ़ाते जाएँगे।
कहते हैं कि पढ़ने लिखने से समाज में जागरूकता आती है। इससे बिल्कुल इनकार नहीं
है। इस सच को हम भी मानते हैं। लेकिन हम भले उस सच को स्वीकार करें या ना करें, किंतु सभी देख रहे हैं कि 21वीं शताब्दी में, जो पिछली शताब्दी से ज्यादा
पढ़ी लिखी सभ्यताओं की शताब्दी है, इस 21वीं शताब्दी में पिछली शताब्दी से ज्यादा
सांप्रदायिकता, गुस्सा, व्यग्रता, नासमझी देखी जा रही है!!! बहुत पढ़े लिखे लोग इंटरनेट, सोशल मीडिया, व्हाट्सएप विश्वविद्यालय पर कैसी कैसी चीजें कर जाते हैं, कौन नहीं जानता। जागरूकता के साथ साथ मूर्खता का चलन पढ़ने लिखने के बाद भी क्यों
बढ़ा, यह समझने के लिए कोई विशेष रिसर्च की ज़रूरत नहीं है। लेकिन हम यहाँ बात उस रिसर्च
को लेकर नहीं कर रहे, इसलिए उसे छोड़कर, किंतु उसमें से जो स्थिति दिखाई देती है, उसे साथ लेकर आगे बढ़ते हैं।
हमने ऊपर सुपर वायरस लफ्ज़ इस्तेमाल किया तो कुछ लोग कहेंगे कि कैसे? अब तो ये गया। इसका
जवाब समय देगा, हम नहीं। बात आँकड़ों की करें तो अब हम कोरोना के साथ जीना बहुत हद
तक सीख गए हैं। मास्क वगैरह के साथ वाली जागरूकता की बात नहीं है किंतु मुगालते की
बात है।
लोगों के भीतर अब गिनती समाप्त हो चुकी है। आख़िर कोई कब तक
गिनेगा। संख्या के प्रति संवेदनशीलता अब वैसी नहीं है जैसी शुरू के दिनों में थी। 100
केस आने पर रगों में सिहरन दौड़ जाती थी। अब सिहरन नहीं दौड़ती है। 100 क्या, उससे 100-150 गुना केस आने लगे थे। मरने वालों की संख्या पहले
से अधिक थी। लेकिन जैसे जैसे केस और मृतकों की तादाद बढ़ती गई, हमारे भीतर ढीठता पीक भी ऊंचा होता गया। अब हम रोजाना कुछ हज़ार
केस और कुछ मौतों को लेकर दुखी नहीं हो रहे।
श्रृंखला जारी है...
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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